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Sunday 31 July 2011

वे प्रेमचंद को ' हिप-पॅाकेट ' में रखते हैं..!


प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के तोरण-द्वार हैं.
कोई भी पाठक जब हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेमोन्मुख होता है तो वह प्रेमचंदोन्मुख ही होता है. प्रेमचेद ने हिन्दी कथा साहित्य को जो लोकप्रियता, पठनीयता और सम्प्रेषणीयता दी, वह अद्वितीय है. उन्होने भारत को भारत से ही परिचित कराया.

लेकिन जैसा तोरण-द्वार के साथ होता है कि उसके नीचे से गुजरकर लोग उसे पीछे छोड़ देते हैं, प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ. हिन्दी साहित्य और साहित्यकार आगे बढ़ गये और प्रेमचंद पीछे छूट गये.आगे की पूरी पीढ़ी उन्हें कथासम्राट, शोषितों-दलितों का मसीहा, गाँधीवादी, प्रगतिशील इत्यादि कहकर जयंती मना लेती है...फिर चुप.

इसमें कोई शक नहीं है कि 12 उपन्यासों और लगभग 300 कहानियों में विस्तीर्ण प्रेमचंद का कथा-साहित्य, अपने विषय-सेवेदना-पात्रों-भाषा और प्रभाव में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहित्य के साथ साधिकार खड़ा होता है. मैं बिना संकोच और लिहाज के कहना चाहता हूँ कि उनकी लोकप्रियता और विश्व-साहित्य में उनके स्थान के पीछे न तो हमारे आलोचकों की कोई सदभावना है और न ही आगे के कथाकारों का परम्पराबोध. प्रेमचंद को यह स्थान दिलाते हैं--घीसू, माधव, होरी, धनिया और सूरदास जैसे पात्र एवम् कफ़न,गोदान,रंगभूमि जैसी रचनाएँ.

यह प्रश्न विचारणीय है कि भारतीय समाज,खासतौर से भारतीय ग्राम्य जीवन के इस अप्रतिम कथाकार की कोई परंपरा आगे के कथाकारों में नहीं मिलती, या इसे ऐसे कहना ज़्यादा ठीक रहेगा कि आगे का कोई कथाकार अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में कतराता हुआ सा दिखता है. हमारे समकालीन कथाकार रेणु की परंपरा से जुड़ने को आतुर दिखते हैं, यश से जुड़ने में गर्व मानते हैं. यहाँ तक कि कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव तक की परंपरा की बात होने लगी है, लेकिन किसी भी कथाकार के बारे में ऐसा कोई नहीं कहता कि यह प्रेमचंद के आगे का या पीछे का कथाकार है.

बाद के कथाकारों की दिक्कत समझ में आती है. प्रेमचंद का साहित्य ,यथार्थ की चाहे जितनी ठोस ज़मीन पर क्यों न खड़ा हो, उसकी परिणति आदर्शवाद में होती है. आप उनकी कोई भी रचना देखिए, प्रेमचंद एक आदर्श व्यवस्था की रचना करते हुए दिखते हैं--वह व्यवस्था चाहे जीवन में हो या समाज या राजनीति या अर्थनीति में.

मेरे खयाल में यही वह बिन्दु है जहाँ से प्रेमचंद अपने उत्तराधिकारियों द्वारा भुलाये जाने लगे. उनका आदर्शवाद आगे के रचनाकारों को प्रेरित नहीं कर सका क्योंकि युग और समय का यथार्थ उस आदर्श से अलग था. समय और जीवन, दोनो उत्तरोत्तर जटिल होते जा रहे थे.यथार्थ को पकड़ना और समझना इतना कठिन हो गया कि उसे व्यक्त करना और अधिक मुश्किल होता गया. ऐसे में कथाकारों की सारी रचनात्मक मेधा एक अजीबोगरीब आत्महन्ता यांत्रिकी में उलझती गई. अब प्रेमचंद के ज़माने जैसी मासूम किस्सागोई नहीं रह गई थी. अब कई कथाकार यथार्थ की पड़ताल और 'कथाश्रम' में विक्षिप्त भी होने लगे थे...उनके सामने समय अपने रूप और यौवन की दुर्निवार चुनौतियाँ पेश कर रहा है...तो रचनाकारों ने प्रेमचंद को 'सालिगराम ' बनाकर झोरी में रख दिया.

लेकिन मुझे लगता है कि यह एक भूल थी. इतने वर्षों बाद आज हम कहानी मे जिस 'कहन' और किस्सागोई के लिेए छटपटा रहे हैं, उसे हमने ही निकाल कर फेंक दिया था.उसी के साथ फेंक दिए गये थे प्रेमचंद. जो समय और महाजनी कुचक्र हमें विक्षिप्त किए जा रहे थे , उसी की दवा थी प्रेमचंद की कथाशैली.



प्रेमचंद के साहित्य की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वह है, उसकी 'शाश्वत -समकालीनता'. या कम से कम , दीर्घ-समकालीनता. समय का चरित्र , उस समय के लोग बनाते हैं, और लोगों को बनाती है वह संस्कृति जो शताब्दियों की अंतर्क्रिया और अनुभवों के द्वंद्व से बनती है. प्रेमचंद की खूबी है कि वो संस्कृति की मुख्यधारा मे उतरते हैं.तट से नदी की धार को नहीं देखते. संस्कृति की यही पहचान प्रेमचंद के साहित्य को एक दीर्घ-समकालीनता प्रदान करती है. यही वज़ह है कि हम आज कोई भी प्रशन उठायें तो पाते हैं कि प्रेमचंद पहले ही उन प्रश्नों से टकरा रहे थे. फर्क सिर्फ इतना था कि उस समय उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर जल्दी और सहजता से मिल जा रहे थे ( जाहिर है, ज़्यादातर उत्तर उनके आदर्शवाद से ही निकल कर आ रहे थे.). जबकि आज एक प्रश्न के कई उत्तर रचनाकारों के सामने हैं. विडंबना यह है कि सब सही भी लगते हैं.

इसी से जुड़ी हुई एक और बात कहना चाहता हूँ....प्रेमचंद ने अपने वर्गशत्रु को पहचाना था. उनके सामने वह महाजन बिल्कुल साफ था जो सब कुछ खरीद लेने और सबको बेंच देने को तैयार था. वो पुरोहित-पंडे-ज़मींदार स्पष्ट थे जो समाज में होरी-धनिया और सूरदास बनाते थे. जीवन के वे अन्तर्विरोध भी स्पष्ट थे जो घीसू-माधव जैसे व्यक्तित्वों का निर्माण कर रहे थे...लेकिन आज हमारा वर्गशत्रु या तो अस्पष्ट है या हम अपने वर्गशत्रु के साथ मिले हुए हैं...हमारा साहित्य अगर किसी भी परिवर्तन का आधार बन पाने में अक्षम लग रहा है, तो उसके पीछे शत्रुओं के साथ हमारा रात्रिभोज एक प्रमुख कारण है.

प्रेमचंद किसी विचारधारा के प्रवक्ता नहीं बने. राजेन्द्र यादव प्रेमचंद की 'हंस ' को चाहे जो बना दें, प्रगतिशील भले ही प्रेमचंद को अपनी ' हिप-पॅाकेट ' में रखें, गाँधी के अनुयायी चाहे उन्हें लाठी बना लें, पर सच यही है कि प्रेमचंद इनमें से किसी के साथ कभी बंधे नहीं. फिर भी वो महान लेखक थे ! यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या विचार धारा किसी लेखक को छोटा या बड़ा बनाती है ? अगर ऐसा होता तो एक महान विचारधारा का हर लेखक बड़ा होना चाहिए..!



मेरी समझ में बड़ा लेखक वही बनता है जो अपने 'समय' को बड़े समय में और अपनी ' स्थानीयता ' को 'देश ' में बदलने का हौसला करता है. प्रेमचंद ने यही किया. वो किसी विचार के प्रवक्ता नहीं बने , बल्कि भारत के उन दलितों, शोषितों और स्त्रियों की आवाज़ बने जिनका कोई नही था...जिनकी नारकीय ज़िन्दगी को सामाजिक गौरव की तरह गाया जा रहा था, और जिसे वेद-पौराणिक उदाहरणो से पुष्ट करके, प्राकृतिक न्याय के तहत कानून बनाने की तैयारी चल रही थी.

प्रेमचंद के बारे में जब लोग कहते है कि वे गाँधीवादी थे तो हँसी आती है. अव्वल तो ये कि गाँधीवाद जैसा कोई वाद हो नहीं सकता, क्योंकि गाँधी खुद इतने अंतर्विरोधों से घिरे हुए थे, और उनके सिद्धान्तों में इतनी सापेक्षता होती है कि उनका कोई ' वाद ' चलाया ही नहीं जा सकता. गाँधी जी की नैतिकताओं को आधार मानकर प्रेमचंद को देखा जाये तो भी उनका कथा साहित्य और विचार-साहित्य एकदम अलग जाते हुए दिखते हैं. गाँधी सत्य के अन्यतम् आग्रही होते हुए भी सामाजिक रीतियों को तोड़ने का साहस कम ही कर पाते हैं, जबकि प्रेमचंद ने रचनाओं में कई ऐसी मान्यताओं से विद्रोह किया है जो न केवल सर्वमान्य थीं, बल्कि उन्हें संवैधानिक और धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई थी.

प्रेमचंद ' श्रमिक चेतना ' के नहीं बल्कि ' कृषक चेतना ' के कथाकार थे. शायद यही वज़ह है कि प्रगतिशीलों ने उन्हें इतनी तरजीह नहीं दी और अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में संकोच किया. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि कुछ छिटपुट लेखन के अलावा आज भी 'किसान' की उपस्थिति , प्रगतिशील लेखन की मुख्य धारा में नहीं है. भारत के वामपंथी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने किसानों के लिए वैसी लड़ाई कभी महीं लड़ी जैसी कि किसी मिल के दस-पांच मज़दूरों के लिए ही लड़ जाते हैं.

हम अगर आज भी शुरुआत करें तो प्रेमचंद अभी ज़्यादा पुराने नहीं हुए हैं कि 'छूट गये ' लगने लगें. हम चाहें तो उनकी शाश्वत समकालीनता में लेखन की सार्थकता और परिवर्तन का हौसला पा सकते हैं.

Friday 29 July 2011

साहित्य और सिनेमा का आस-पड़ोस


अभी हाल ही में वरिष्ठ और मेरे अत्यंत प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह P.hd. की एक मौखिकी के सिलसिले में रीवा आये तो विवि के हिन्दी विभाग में उनका एक व्याख्यान आयोजित कर लिया गया. मेरा दुर्भाग्य ही था कि सूचना न मिल पाने के कारण मैं उन्हें सुन नहीं पाया. अख़बारों और मित्रों से ही जानकारी हुई कि काशीनाथ जी की मशहूर कृति ‘ काशी का अस्सी ‘ पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी एक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें सनी देओल, रवि किशन आदि कलाकार भूमिका निभा रहे हैं.

इस सूचना से मन मे यह सवाल पैदा हुआ कि क्या सिनेमा का माध्यम इतना सक्षम है कि वह एक साहित्यिक कृति के साथ न्याय कर सके ? मैं इसको लेकर आश्वस्त नहीं हूँ. मैने ‘काशी का अस्सी’ दो-तीन बार पढ़ा है. इस कृति में—जिसे लेखक ने उपन्यास कहा है—बनारस के अस्सी चौराहे के इर्द-गिर्द के जीवन के संस्मरण हैं, जिन्हें लेखक ने अलग-अलग समय पर लिखा है. इन लेखों के पात्रों और घटनाओं में इतना स्वाभाविक तारतम्य है कि सभी लेखों को एक ज़गह इकट्ठा कर देने में इसका स्वरूप औपन्यासिक दिखने लगता है, लेकिन उपन्यास का सहज प्रवाह फिर भी नहीं सध पाया है.

इस कृति में संकलित हर संस्मरण एक अद्भुत आस्वाद पैदा करता है. चर-अचर सभी पात्रों को लेखक काशीनाथ सिंह ने जिस नज़र से देखा और प्रस्तुत किया है, मुझे नहीं लगता कि सिनेमा के पास वही आस्वाद पैदा कर पाने की क्षमता है. पात्रों की समय और स्थान के साथ अन्तर्सम्बंधों की जो डिटेलिंग और निहितार्थ लेखक ने शब्दों और इशारों से दिए हैं, उन्हें सिनेमा में व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है. इन संस्मरणो में अधिकांश समय, लेखक पात्रों के बगल में बैठा हुआ है, जो उन पात्रों की हरकतों और उनके आपसी संवादों की व्याख्या करता चलता है. जाहिर है कि जो मर्म पाठक के सामने खुलता है, वह दृष्टा-लेखक की रुचि-संस्कार और निष्ठा से गुज़र कर आता है.

यहीं पर साहित्य और सिनेमा की सीमाएँ सामने आती हैं. साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है. पाठकों के आस्वाद के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है. यह अंतर प्रभाव की तीव्रता में होता है, उसके रूप में नहीं. सिनेमा के पास दृश्य होते हैं. उनकी व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत ही कम होती है उसके पास. मज़े की बात यह है कि साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है. जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बन जाता है.

वहीं सिनेमा के पास अपनी कुछ विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं जो साहित्य के पास नही हैं. संगीत के प्रयोग की शक्ति, सिनेमा को सम्प्रेषणीयता की ऐसी क्षमता प्रदान करती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलहदा बनाता है. सिनेमा अपने ध्वनि और प्रकाश माध्यमों से ऐसे बहुत कुछ अव्यक्त को को व्यक्त कर देता है, जिसे कह पाने मे महान लेखक भी लड़खड़ा जाते हैं. काल के अतिक्रमण की जो सुविधा सिनेमा के पास होती है, वह साहित्य के पास ठीक उसी तरह से नहीं होती. मौन की जिस भाषा का इस्तेमाल सिनेमा सहजता से कर लेता है, उसी मौन को रचने के लिए साहित्य को पहले और बाद में बहुत सी वाणी खरचनी पड़ती है.

इस अंतर को और आसानी से समझने के लिए कुछ देर के लिए हम ऐसा करें कि कुछ महान कृतियों की अपनी कल्पना में फिल्म बनायें और कुछ महान फिल्मों की कल्पना मे ही कहानी लिखें. फिर देखिए कैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है.
साहीत्य और सिनेमा का सम्बंध भी दो पड़ोसियों की तरह रहा. दोनो एक दूसरे के काम तो आते रहे लेकिन यह कभी सुनिश्चित नही हो पाया कि इनमे प्रेम है या नही. सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है. साहित्य की उम्र से इसकी तुलना की जाय तो यह अभी शिशु ही है साहित्य के सामने.

साहित्य के पास सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अथाह भंडार है. भाव-दशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों के दृश्यात्मक ब्यौरे हैं. साथ ही भाव-भंगिमा, ध्वनियों, शब्दों और संगीत के सूक्ष्म प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं. सुखद बात यह है कि साहित्य ने सिनेमा की मदद में कभी कोताही नहीं की. सिनेमा को जब-जब ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से उसका सहयोग किया. यह बात और है कि आगे चलकर सिनेमा ने अपना खुद का एक लेखक-वर्ग तैयार कर लिया.

सिनेमा ने साहित्य के अनेक मनीषियों को अपनी ओर खींचा. पं.बेताब, मुंशी प्रेमचंद, जोश मलीहाबादी, पं.सुदर्शन, सआदत हसन मंटो, कृष्न चंदर, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, राजेन्द्र सिंह बेदी और गुलज़ार जैसे खालिस साहित्यिक व्यक्तित्व सिनेमा में अभिव्यक्ति के नये आयाम खोजने गये. पर दुर्भाग्य से अधिकतर के हाथ निराशा ही लगी. दरअसल सिनेमा एक व्यावसायिक माध्यम है और उसके सिद्धांत, लेने में अधिक और देने पर कम ही आधारित होते हैं. एक और बात ध्यान देने की है कि सिनेमा त्वरित और सहज लोकप्रियता के लिए रचा जाता है. यह भी एक वज़ह धी कि गंभीर साहित्यिक लेखक इस माध्यम से अपना सामंजस्य नहीं बनाये रख सके.

साहित्यकार फिल्मों में जाकर भले ही उतने सफल न रहे हों, लेकिन जब-जब सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनायी हैं तो एक नये रचनात्मक लोक की सृष्टि की है. प्रेमचन्द के ‘ गोदान ‘ पर बनी फिल्म को छोड़ दें तो रेणु की कहानी पर बनी ‘तीसरी कसम’ ने दुनिया को कुछ अमर पात्र दिये. महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी ‘रुदाली’ के दृश्य अविस्मरणीय हैं. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी-‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’, सृजन के नये आयामों की तलाश करती हैं.


एक बहुत बड़ा फर्क अब साहित्य और सिनेमा की भाषा मे आया है. इसका सीधा संबन्ध दर्शकों-पाठकों की भागीदारी से है. सिनेमा का दर्शक सीधे शामिल होता है. हर दर्शक के पास हर स्थिति के लिए सुझाव होते हैं. सिनेमा की सारी सफलताओं-असफलताओं का दारोमदार इसी दर्शक-वर्ग पर होता है. सिनेमा को समीक्षकों की उतनी जरूरत नही होती जितनी साहित्य को होती है. यही वज़ह है कि सिनेमा रचने वालों ने दर्शक से तादात्म्य बैठाना शुरू किया तो सिनेमा की रचनात्मकता धीरे-धीरे कम होने लगी. सिनेमा ने बहुत आरंभिक समय मे ही अपने आप को एक स्वतंत्र विधा के रूप में महसूस करना शुरू कर दिया था. दर्शकों के मेल से उसने अपनी जो सिनेमाई भाषा विकसित की उस पर उसका भरोसा दिनो-दिन बढ़ता गया. साहित्य और सिनेमा की भाषा का अंतराल अब इतना बढ़ चुका है कि ये दोनो माध्यम अब महानगरीय पड़ोसियों की तरह दिखने लगे हैं.

Thursday 21 July 2011

अहा और आह के बीच ग्राम्य जीवन !


जिन दिनों एक कवि के कण्ठ से फूट पड़ा था—“ अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है “—उन दिनों भारत के गांव इतने हीनताबोध से ग्रस्त नहीं रहे होंगे जितने आज हैं. वह समय ऐसा था जब देश में शहरों की संख्या भी कम थी और उनके मायालोक की सूचनाएँ भी गांवों तक बहुत कम ही पहुँचती थीं. यह बात भले ही बहुत पुरानी न हो लेकिन इस समय भी गांवों के आर्थिक स्वाबलंबन के भग्नावशेष मौजूद थे. तब से लेकर आज तक में भारतीय गांवों के चित्र और चरित्र दोनो ही बहुत बदल गये हैं. हमारी बुजुर्ग और अधेड़ पीढ़ी जिस पीपल की छाँव और धानी चूनर के नास्टेल्जिया में जी लेती है, उसकी हकीकत बेहद दिल-शिकन है.

अभी हाल ही में सरकार ने जनगणना-2011 के अस्थाई आंकड़े जारी किये जो यह बताते हैं कि 121 करोड़ की आबादी के इस महादेश में 83 करोड़ लोग यानी लगभग 70 फीसदी लोग गांवों में ही रहते हैं. जब यह कहा जाता है कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है, तो यह कथन अलंकारिक होने के बावजूद सच के बेहद करीब ठहरता है. भारत की आत्मा जिन गांवों में बसती है उनकी खुशहाली का अंदाज़ा लगाने के लिए यह जान लेना ठीक रहेगा कि पिछले एक दशक (2001-2011) में 3.5 फीसदी लोगों ने गांव छोड़ दिया और शहरों में जा बसे. 121 करोड़ की आबादी में साढ़े तीन प्रतिशत, सुनने मे चाहे भले ही छोटा लगे लेकिन हल करने में जो आँकड़ा सामने आता है वह इतना समझने के लिए पर्याप्त है कि इतनी जनसंख्या जब शहरों में पहुँची होगी तो उन शहरों पर दवाब कितना बढ़ गया होगा ?

लेकिन मैं यहाँ मैं सिक्के के दूसरे पहलू को देखना चाहता हूँ. मेरी दिलचस्पी इसमें है कि वो कौन से हालात हैं जिनकी वज़ह से इतनी बड़ी तादात में गांवों से शहर की ओर लोगों का पलायन हो रहा है, इस पर विचार करने से पहले यह भी जानते चलें कि पिछले दस सालों में भारत की आबादी में 18.14 करोड़ की बढ़ोतरी हुई है, जिसमें गांवों में 9.04 करोड़ और शहरों में 9.10 करोड़ लोग बढ़ गये हैं. और यह भी ध्यान मे रखना ठीक रहेगा कि इसी बीच केवल म.प्र. में ही लगभग 82 शहर बढ़ गये हैं और लगभग 500 गांव खत्म हो गये हैं.

नये शहरों की पैदाइश और पुराने गांवों की की मृत्यु चिन्ता की बात नहीं है. इसको लेकर भावुक होने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि यह विकास की एक सहज प्रक्रिया है. असल चिन्ता की वज़ह वह खाई है जो भरत के शहरों और ग्रामीण इलाकों के बीच बनी हुई है.

देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की हिस्सेदारी कम होते होते ऐसी दयनीय अवस्था में पहुँच गई है कि जो गांव पहले खुदमुख्तार हुआ करते थे वो आज आज शहरी उत्पादन-इकाइयों के टुकड़ो पर पलने के लिए मज़बूर हो गये हैं. इस देश की अर्थव्यवस्था इतनी तेजी से एकांगी हुई है कि अब भी अगर कोई इसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहता है तो उसका भ्रम बहुत जल्दी ही टूट जाएगा. उत्पादन और वितरण के लगभग सभी साधनों पर पूँजीवादी संस्थाओं का नियंत्रण हो चुका है. सार्वजनिक क्षेत्र की सभी इकाइयाँ बीमार होकर दम तोड़ रही हैं. ऐसी दशा में यह तो तय था कि नियंत्रण की डोर उन्हीं के हाथों में रहनी है जिनके पास पूँजी है.



जाहिर है कि पूँजी के सभी केन्द्र भारत के नगरों में स्थानान्तरित हो चुके हैं. गांव से कुम्हार,जुलाहे, तेली, मोची,दर्जी,दरवेश,बनिए,लोहार आदि विलुप्त हो चुके हैं. ये गांव की उत्पादन इकाइयां थीं. औद्योगीकरण की विक्षिप्त नीतियों के चलते ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ये सभी स्तम्भ ध्वस्त हो चुके हैं. जनगणना के जब और आँकड़े सामने आयेंगे तो निश्चित ही यह पता चल जायेगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बढ़ने की दर, शहरी क्षेत्रों से बहुत अधिक होगी.

गांवों के पास उत्पादन की केवल एक इकाई रह गई है, वह है-कृषि. और यही उनकी दुर्दशा का भी कारण है. हमारे देश में तमाम प्रयासों के मायाजाल के बाद भी कृषि प्रकृति की कृपा पर ही निर्भर है. पिछले दो दशकों में प्रकृति का मिजाज़ कुछ इस तरह से बिगड़ा है कि गांव के बड़े-बड़े ज़मींदारों तक की मूँछों का पानी उतर गया है.आज से बीस साल पहले गांव के लोग जितनी ज़मीन और जितनी खेती में जिस रौब के साथ अपने परिवार को रखते थे , उतनी ही ज़मीन वाले कृषक आज दरिद्रता में जी रहे हैं.


इस दरिद्रता के आने की वज़ह भी साफ हैं. गांवों में दूरदर्शन पहुँचा, मोबाइल फोन पहुँचा. इनके साथ कुरकुरे,पेप्सी और अंकल चिप्स पहुँच गये. कारखानों में बनी पैकेट-बन्द चीज़ों ने गांव-घर की हस्तकला को समूल नष्ट कर दिया. लोगों की आकांक्षाओं को नागर पंख तो मिल गये, लेकिन आय के हाथ-पैर काट लिए गये. नगरों के दृश्य और महत्वाकांक्षाएं तो गांवों में पहुच गईं, लकिन उत्पादन और आय की विधियाँ वहाँ तक नहीं पहुँची. ऐसे में दरिद्रता के अलावा गांवों में और हो भी क्या सकता था.

दरिद्रता गांवों का भाग्य नही थी. इस इबारत को हमारे नीति-निर्माताओं ने लिखा है. मैने जिन गांवों को देखा है उनमे से अधिकांश में दूरदर्शन और मोबाइल के नेटवर्क तो मिल जाते हैं, लेकिन बिजली, पानी और सड़कें नहीं मिलतीं. जहां बिजली पहुँच भी चुकी है वहां कुछ इस तरह से पहुँची है कि पचास प्रतिशत लोग ही उसका उपयोग कर पाते हैं, वह भी चौबीस में से छः या आठ घंटे ही. पानी के लिए लोगों को दो-तीन मील दूर जाना पड़ता है. जिन गांवों तक सड़कें पहुँची भी हैं तो उनकी दशा पगडंडियों से बेहतर नहीं है.

सबसे खराब दशा शिक्षा और स्वास्थ्य की है. ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का जो बुनियादी ढाँचा और स्तर है, उसकी तुलना शहरी शिक्षण संस्थाओं से करने पर भारत के गांवों की दरिद्रता के सारे राज़ खुल जाते हैं. दो झोपड़ीनुमा कमरों या किसी पेड़ के नीचे दो किसाननुमा मास्टरों के आगे उछल-कूद करते ढाई-तीन सौ बच्चे. पेट में दर्द होने पर किसी तलैया या घर की तरफ भगते बच्चे...स्कूल के साथ-साथ खेत की निदाई-गहाई भी निपटाते मास्टर जी—अमूमन यही है हमारे गांवों की शिक्षा व्यवस्था का विहंगम दृश्य. इन विद्यालयों से पढ़कर निकले बच्चे सिर्फ इतनी ही योग्यता हासिल कर पाते हैं कि वो शहरी बच्चों की दासता कर सकें. इन्टरमीडियट तक की शिक्षा के लिए इन्हें 10 से 15 किमी दूर जाना पड़ता है तथा उच्चशिक्षा के लिए कम से कम 50 किलोमीटर. ऐसे में आधे छात्रों की पढ़ाई इन्टर के बाद बन्द हो जाती है.



स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल यह है कि गांव के हर घर के पिछवाड़े में नसबन्दी और पोलियो उन्मूलन के नारे तो पोत दिए गये हैं, लेकिन गांव के किसी व्यक्ति का मलेरिया भी ज़रा बिगड़ जाये तो कोई इलाज़ करने वाला नहीं मिलता. आस-पास के स्वास्थ्य केन्द्रों में जो चिकित्सक तैनात हैं वो कभी वहां जाते ही नही. हालांकि सरकार ने इन्हें खूब धमकाया भी और प्रलोभन भी दिया.

ऐसा भी नहीं है कि सरकार गांवों की दशा के प्रति बिल्कुल ही असंवेदनशील है. हर वर्ष केन्द्रीय और प्रादेशिक बजट में भारी भरकम राशि ग्रामीण विकास के लिए समर्पित की जाती है. रोज़गार से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए एक से बढ़कर एक योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास चलता रहता है, लेकिन गांवों की छाती पर पड़ी दरिद्रता की शिला टस से मस नहीं होती. ऐसे में जो लोग भाग सकते हैं वो शहर भाग जाते हैं. शहर पहुँचकर उनका क्या हाल होता है, इसकी चर्चा फिर कभी करेंगें.

Monday 18 July 2011

विभागाध्यक्ष की कार्पेट पर अमीबा...

हमेशा की तरह राजा विक्रमादित्य बेताल को लेकर चले तो शर्त के मुताबिक बेताल ने कहानी शुरू की--------


राजन, विश्वविद्यालय के अँग्रेजी के विभागाध्यक्ष प्रो.मिश्रा कई दिनो से परेशान थे...उनके साथ एक विचित्र किन्तु सत्य टाइप की घटना हो रही थी कई दिनों से ,जिसे वो किसी से कह नहीं पा रहे थे......

कोई उनके चेम्बर में, फर्श पर बिछी कीमती कालीन पर पेशाब कर जाता था.....

प्रो.मिश्रा शौकीन तबीयत के आदमी थे. सो अँग्रेजी विभाग में अपने चेम्बर को खूब आकर्षक रंग-रूप दे रखा था...एक रोज़ जब विभाग में पहुचे तो देखा कि उनकी टेबल के ठीक सामने हरे रंग की कालीन पर फाइन आर्ट टाइप का एक धब्बा बना हुआ है. चपरासी को बुलाकर पूछा----" ये धब्बा कैसा है यहाँ पर ? ".....
चपरासी कुछ सकपकाते हुए बोला----" साहब पानी का होगा.".....प्रो.मिश्रा ने उँगलियों से धब्बे को दबाया और सूँघकर बोले----" बेवकूफ , पानी का नही पेशाब का धब्बा है !"

उस दिन से रोज़ कोई उनके पहुँचने से पहले कलीन पर पेशाब कर जाता था. विभाग का दरवाज़ा खोलकर , चपरासी साफ-सफाई के बाद जब पानी लेने चला जाता, इसी बीच कोई आकर ये कारनामा कर जाता....

प्रो.मिश्रा ने तंग आकर पेशाब करने वाले को पकड़ने की योजना बनाई...

एक दिन वो अपने समय से काफी पहले विभाग पहुँच गये.दरवाज़ा उन्होने खुद खोला, और जाकर आल्मारी के पीछे छुप गये....लगभग पौन घंटा बाद एक आकृति ने उनके कमरे में प्रवेश किया....इधर-उधर देखकर आकृति विभागाध्यक्ष के टेबल के सामने बैठ गई.....और जब उठी तो वहाँ पर अमीबा की तरह का एक गीला धब्बा बन गया था.....

आकृति जाने को ही थी कि प्रो. मिश्रा आल्मारी के पीछे से कूद पड़े----" मिसेज़ तिवारी आप !! ये क्या करती हैं आप !!!"....
असिस्टेन्ट प्रो., मिसेज़ तिवारी अवाक् रह गईं थीं...सर..सर.. करते हुए सर्रर्रर्रर्र.....से बाहर भागीं......


माज़रा ये था कि प्रो. मिश्रा चाहते थे कि मिसेज़ तिवारी मातहत होने के नाते उन्हें अपना प्रेम-पात्र बनायें, जबकि मिसेज़ तिवारी अपना बसन्त रसायन विभाग के विभागाध्यक्ष पर लुटा रही थीं....बहुत समझाने-बुझाने के बाद भी जब मिसेज़ तिवरी नहीं समझीं तो प्रो. मिश्रा ने उनकी वेतनवृद्धि में अड़ंगा लगा दिया था....खिसियाकर मिसेज़ तिवारी ने उनके चेम्बर में पेशाब करना शुरू कर दिया.

कहानी खत्म कर बेताल ने प्रश्न पूछा-----" अब तू ही बता विक्रम ! असली अपराधी कौन है, मिसेज़ तिवारी--कि प्रो. मिश्रा ?? "

Sunday 17 July 2011

स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान




जब कई दिनों तक राजा विक्रमादित्य बेताल को पकड़ने नहीं आया तो बेताल उदास रहने लगा. चुड़ैलों के नृत्य-गान भी उसका मन न बहला पाते. शाम होते ही वह श्मशान के मुख्य दरवाज़े पर जाकर बैठ जाता और विक्रम की प्रतीक्षा करता.

बहुत दिन बाद जब विक्रम श्मशान आया तो कुछ दुर्बल दिखाई पड़ रहा था. उसे देखकर बेताल ने कुछ चिन्तित होकर उसकी दुर्बलता का कारण पूछा. विक्रम ने बताया कि उसे बवासीर की बीमारी हो गई थी. गुदामार्ग से निरंतर रक्त-स्राव के कारण दुर्बलता आ गई है.

विक्रम की यह दशा देखकर बेताल उसके साथ पैदल ही चल पड़ा...रास्ता काटने के लिए उसने कहानी शुरू की----

राजन् ! तुमने महाभारत के गुरु द्रोण का नाम तो सुना ही होगा , जिनके प्रिय शिष्य अर्जुन ने तीरंदाजी में बड़ी ख्याति अर्जित की थी. गुरु द्रोण युद्ध-कला से सम्बंधित एक त्रैमासिक पत्रिका ' आखेट ' का प्रकाशन भी किया करते थे, जिसका अधिकतर काम-काज अर्जुन ही देखता था. यह पत्रिका राजवंश से आर्थिक सहायता प्राप्त थी.

एक दिन गुरु द्रोण अपने शयनकक्ष में विश्राम कर रहे थे. गर्मी का समय था. अर्जुन आम की गुठली को पीसकर, सरसो के तेल में मिलाकर ले आया. यह लेप गुरु द्रोण के तलवों में मलने लगा. इस लेप से गर्मी का प्रकोप कदाचित कुछ कम हो जाता था.

तलवों में लेप मलते हुए अर्जुन किंचित सकुचाते हुए गुरु द्रोण से कहा--" गुरुवर, आपकी कृपा से आज मुझे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है. एकलव्य का अंगूठा मागकर ,मेरे पथ के सभी कांटे आपने दूर कर दिए. कर्ण का प्रमाणपत्र तो आपने पहले ही निरस्त कर दिया था. अब मेरा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है...गुरुवर अब तीरंदाजी का कोई सम्मान भी मिल जाता तो मेरी भी प्रतिष्ठा बढ़ जाती और आपकी भी."



गुरु द्रोण ने करवट बदली. उदर में अठखेलियां करती हुई वायु को मुक्त किया और बोले---" हाँ अर्जुन, मैं भी कई दिनों से यही सोच रहा था. तुम्हें सम्मान मिल जाने से हमारी कोचिंग संस्था का नाम ऊँचा होगा और विद्यार्थियों की संख्या भी बढ़ जायेगी....ऐसा करो, हमारी पत्रिका के इसी अंक में एक सम्मान की घोषणा कर दो---' स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ' .....अर्जुन ने बीच में टोंका---" गुरुदेव,ये चिड़ीमार कौन था ?"

" यह एक बहेलिया था "---गुरु द्रोण ने बताया. " मेरे ही गांव का था. बाल्यावस्था में हम लोग इससे तीतर और बटेर मरवाकर चुपके से खाया करते थे. बड़ा अचूक निशानेबाज़ था." " और सुनो, ऐसा करना "---गुरु द्रोण ने रणनीति समझाते हुए कहा---" इस सम्मान के लिए एक तीन सदस्यीय निर्णायक मंडल बना लो...एक तो कृपाचार्य ही हो जायेंगे. दो और लोगों के नाम सोचकर उन्हें पत्र लिख दो.मगध और काशी के आचार्यों को ही रख लो, उनकी नियुक्ति के समय मैं ही एक्सपर्ट था.कोई गड़बड़ न होगी. अपना बायोडाटा बनाकर तीनो निर्णायकों के पास भेज दो...अगर दूसरे लोगों की प्रविष्टियां आती हैं तो उन्हें भेजने की आवश्यकता नहीं है...यह तो सभी जानते ही हैं कि तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हो."

अर्जुन ने पुलकित होकर द्रोण के चरणो में सिर रखा और सीधे पत्रिका-कार्यालय चला गया.

त्रैमासिक पत्रिका-' आखेट ' के ताज़ा अंक में ' स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ' की सूचना प्रकाशित हुई. पात्र व्यक्तियों से प्रविष्टियां मगाई गई थीं. अन्य लोगों के साथ कर्ण और एकलव्य ने भी प्रविष्टि भेजीं जिन्हें पत्रिका कार्यालय में ही जमा कर दिया गया. गुरु द्रोण की तरफ से एक पत्र लिखकर कर्ण और एकलव्य को सूचित किया गया कि चूँकि आपने अपने बायोडाटा में जाति-प्रमाणपत्र नहीं लगाया था, अतएव आपकी प्रविष्टि विचार योग्य नहीं पाई गई.

'आखेट ' के दीपावली विशेषांक में, 'स्व. चिड़ीमार वनवासी तीरंदाजी सम्मान ' अर्जुन को देने की घोषणा प्रकाशित हुई और यह भी सूचना दी गई कि नववर्ष के प्रथम दिन हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र यह सम्मान प्रदान करेंगे.

इस सूचना के बाद दुर्योधन वगैरह ने कुछ हो-हल्ला मचाया लेकिन पितामह ने उन्हें " घर की ही बात है "-का हवाला देकर शांत करा दिया.

कहानी खत्म कर बेताल ने विक्रम से पूछा---" राजन् तनिक विचार कर बताओ ! यह सम्मान देकर द्रोण ने किसकी प्रतिभा का अपमान किया है ??? "
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Friday 15 July 2011

हमारी निरुपायता का कोई जवाब नहीं

आप भी महसूस तो कर ही रहे होंगे की दिल्ली सरकार का रथ एक अर्से से लड़खड़ाया हुआ है. न तो उसकी दिशा समझ में आ रही है,न ही उसकी गति का कोई अंदाज़ा मिल पा रहा है. इस रथ के कुछ घोड़े कभी सरपट दौड़ लगाते हैं तो कुछ चलने को तैयार ही नहीं हैं. जो सारथी है वह कभी बेचारा तो कभी अनाड़ी नज़र आता है.


भारत की राजनीति में ऐसे अवसर कम ही नज़र आये होंगे जब न तो पक्ष के पास कोई दिशा हो,न विपक्ष के पास. सत्तापक्ष में जहाँ कोई नेतृत्व ही नही दिख रहा है, तो विपक्ष के पास मुद्दों का टोटा पड़ा है. विपक्षी दलों की सारी मेधा मिलकर भी एक अदद ऐसे मुद्दे की तलाश नहीं कर पा रही है, जिसे वो पूरे आत्मविश्वास के साथ देश की जनता के सामने रख सकें और कह सकें कि हमको इस बिनाह पर सत्ताधारियों से अलग समझा जाये. आत्मविश्वास की कमी का ही परिणाम है कि विपक्ष को दूसरों के मुद्दों में सेंध लगानी पड़ती है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलनों में बिना बुलाए मेहमान की तरह जाना पड़ता है और धक्के खाने पड़ते हैं.

राजनीतिक स्वप्न-शून्यता की यह स्थिति तब है जब देश अनेक स्तरों पर गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है. बेतहाशा बढ़ती मंहगाई के बीच सरकार के कण्ठ से एक लाचार आश्वासन के अलावा कुछ नहीं फूटता है. आम जनता न तो अर्थशास्त्र की सैद्धान्तिकी समझती है और न ही उसे सेन्सेक्स की उत्तेजना से कोई फर्क पड़ता. दशमलव के इर्द-गिर्द, मुद्रा-स्फीति किस तरह से ठुमके लगाती है, आम जनता का मन इससे भी नहीं बहलता. दावा तो नहीं पर विश्वास है कि देश की अस्सी फीसदी जनता तो जानती भी नहीं है कि यह मुद्रा-स्फीति किस बला का नाम है, और सेन्सेक्स की उत्तेजना किस वियाग्रा को खाने से बढ़ती है !!

यही अस्सी फीसदी जनता है जो सरकार के भरोसे नहीं, भगवान के भरोसे जी रही है. जिन माई-बापों को चुनकर उसने दिल्ली-भोपाल भेजा, उन्हें न तो इस जनता से कोई लेना देना है और न ही देश चलाने का शऊर है. आप अगर ध्यान से इन रहनुमाओं के बयान और हरकतें देखते होंगे तो अपना माथा ज़रूर ठोंकते होंगे कि इन जाहिलों को उस गद्दी तक पहुँचाने में एक वोट आपका भी है. आपका एक वोट आपको कितनी चोट पहुँचाता है, यह सिर्फ आप ही बेहतर जानते हैं.

लेकिन सत्ता के गलियारों में बे-खौफ़ घूमते ये सफेदपोश सचमुच इतने जाहिल भी नही हैं. हमारे भारत नाम के इस राष्ट्रीय-उद्यान के ये राष्ट्रीय प्रतीक हैं. यह देश इनके लिए आरक्षित है. इन्हें यह विशेषाधिकार है कि अब ये अपनी जनता खुद चुन लें.


जिन नेताओं को पहले हमने चुना, उन्होने अब अपनी जनता चुन ली है. सौ में अस्सी घटाने के बाद जो बीस फीसदी लोग बचते हैं-यह देश उनका है. तरक्की के सारे रास्ते उनके हैं. सारे राग-रंग, रोशनी के सभी झरोखे इसी बीस फीसद जनता के हैं. यहीं अंबानी-टाटा, कलमाणी,राजा और सत्यसाँईं जैसे लोग पैदा होते है, जिनकी सम्पत्तियों का कोई हिसाब नहीं. सरकार का सारा खाद-पानी इन्हीं पौधों को पोषने में खत्म हो जाता है. इसी हरियाली को दुनिया को दिखाकर सरकार वाहवाही लूटती है. अमेरिका और चीन के सामने खड़े होकर ताल ठोकने वाली सरकार को क्या पता नहीं होगा कि देश की सत्तर प्रतिशत आबादी बीस रुपये प्रतिदिन की औसत कमाई में क्या खाती और क्या पहनती होगी ?

पता तो है.पता तो यह भी है कि ए.राजा, राजा कैसे बने. पता तो यह भी है कि कलमांड़ी, कनुमोझी के दरवाज़े किधर खुलते हैं और किधर बंद होते हैं. सरकार को पता तो यह भी है कि स्विटजरलैण्ड कौन जाता है और वहाँ के बैंकों में किसका पैसा है. हम और आप, जिन्होंने स्विटजरलैण्ड का नक्शा तक ठीक से नहीं देखा है, वहाँ पैसा जमा करने तो जा नहीं सकते. हमारी ज़ेबों में जो पैसा होता है वह शाम को घर लौटते समय किराने की दूकान और सब्ज़ी के ठेलों पर जमा हो जाता है.

तो बोलें जितने अन्ना-बाबा बोलते हों....सरकार ने कान में रुई ठूंस लिया है. सुप्रीम कोर्ट का यह कहते-कहते दम फूलने लगा है कि भाई काला धन जमा कराने वालों का नाम जाहिर करिए. कौन बताएगा ? पक्ष या विपक्ष ?? किसका दामन साफ है. जो सरकार में हैं, सारे संसाधनों पर उनका कब्ज़ा है. कमाई के अनन्त मनोरम स्रोत हैं. जो विपक्ष में हैं वो कभी सत्ता में थे या आगे कभी होंगे. तो कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा भला !

लोकपाल और काले धन को लेकर सरकार और विपक्ष दोनो ने जिस तरह का चूहे-बिल्ली का खेल शुरू किया है वह बेहद शर्मनाक है. यह पहली बार हुआ था कि देश की जनता ने अपने प्रतिनिधियों पर गंभीर अविश्वास जताते हुए सीधा सवाल पूछा था कि क्यों न आपके ऊपर भी निगरानी रखी जाये ? इस सवाल पर सिब्बल-दिग्विजय की तिलमिलाहट को सारे देश ने देखा. उनके बेशर्मी भरे बयानों को हर कान ने सुना. भ्रष्टाचार के खिलाफ इस सशक्त जनचेतना को निश्चेत करने के लिए सरकार ने जो रवैया अपना रखा है, उसे देखकर ऐसा लगता ही नहीं कि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं.

दरअसल हमारा लोकतंत्र एक बहुत बड़ा भ्रम है. एक इन्द्रजाल है. अपनी सारी मनमोहक अवधारणाओं के बावजूद इस देश में लोकतंत्र शोषण, भ्रष्टाचार,अनैतिकता और शक्ति-प्रदर्शन की एक वैधानिक व्यवस्था बन गया है. बड़ा हास्यास्पद और शर्मनाक लगता है यह उल्लेख करना कि इस देश में चपरासी जैसे सबसे छोटे पद के लिए भी बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण होना न्यूनतम योग्यता है, लेकिन देश का राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री-नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं है !!

और यही वज़ह है कि हमारे ये नियति-नियन्ता आज देश की चुनौतियों के सामने असहाय नज़र आ रहे हैं. दिल्ली में जो सरकार है, वह सरकार कम, जानवरों का एक बाड़ा ज़्यादा लगती है. कहले को एक प्रधानमंत्री हैं, पर वो देश के अहम् सवालों पर चुप रहते हैं. अपने सहयोगी मंत्रियों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं दिखता और न ही उनसे कोई संवाद है. मंत्रीगण अपने-अपने अहंकार में इस तरह मस्त हैं कि सामूहिकता की कोई भावना कहीं दिखती ही नहीं. यह देश जब उनके सामने कोई सवाल रखता है तो उसका जवाब देने की जगह या तो चुप रह जाते हैं या सवाल पूछने वाले की ज़बान काट लेते हैं. इस समय यह देश एक बड़े नक्कारखाने में तब्दील हो गया है और जनता की आवाज़ तूती की तरह गुम हो जाती है.

यह ऐसा समय है जब न तो ठीक से विलाप किया जा सकता और न ही पूरी तरह से आशावादी हुआ जा सकता. उम्मीद बूमरेंग की तरह लौटकर अपने ही पास आ जाती है. बदलाव की ज़रूरत तो लगती है, लेकिन उसके लिए न हौसला है, न समय. हमारी निरुपायता का कोई जवाब नहीं.

Monday 11 July 2011

पहला प्यार


पहले प्यार के जीवाश्म
दबे रह जाते हैं
जीवन की परतों में ।

उम्र की सदियाँ गुज़र जाने के बाद
अचानक एक रोज़
पड़ती है एक कुदाल
परतों के बीच से
कोई निकाल लाता है
पहले प्यार के गुणसूत्र ।

कहते हैं
एक ही राग था
जो बजता रहा
पीढ़ी दर पीढ़ी
बस बंदिशें बदल गयीं थीं ।

Saturday 2 July 2011

लगी लॅाटरी ?


कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती खरीदने पर लाल बुझक्कड़ को लंदन घूमने का ईनाम निकला..यह खुशखबरी देने के लिए उन्होंने अपनी पत्नी मेधावटी को फोन लगाया---
लाल बुझक्कड़-- हलो, लंदन घूमने चलोगी..?
मेधावटी--हाय, लंदन..वो तो मेरे सपनो का शहर है..मैं ज़रूर चलूँगी जी....कितना रोमैंटिक होगा न..!! आप कौन साहब बोल रहे हैं..??

सावधान ! फूल देने वाले प्रेमी होते हैं बदमाश !!

साधो !
प्रेम के प्रदर्शन और फूलों का रिश्ता बड़ा पुराना और गहरा रहा है. प्रेमिकाएँ, प्रेमी से फूल पाकर फूली नहीं समातीं. प्रणय-निवेदन का सबसे निरापद तरीका माना जाता रहा है फूल देना...फूल किसी भी अवसर पर दिये जा सकते हैं,या बिना किसी बहाने के भी...लेकिन एक सर्वे ने सारा मामला उलट-पुलट दिया है.यह सर्वे ब्रिटेन में 3000 महिलाओं के साथ किया गया.नतीज़ा यह निकला कि जो प्रेमी अपनी प्रेमिका को बार-बार फूल या बुके गिफ्ट करते हैं वो धोखेबाज़ होते हैं....तो सुन्दरियों...सतर्क हो जाइये..!!


अगर गिफ्ट में प्रेमी आपको चॉकलेट बॉक्स गिफ्ट करता है अर्थात वह कोई बात आपसे छूपा रहा है। वहीं अगर वह आपको कैंडल लाइट डिनर के लिए ले जाता है अर्थात कुछ बुरा होने वाला है।

शोधकर्ता ग्रेग्स वेकर्स ने इस सर्वे के आधार पर दावा किया है कि महिलाएं अपने पति से सरप्राइज गिफ्ट पाना पसंद करती हैं लेकिन सरप्राइज गिफ्ट रिश्तों में जहर भी घोल देता है। इसलिए प्रेमिका को गिफ्ट देने से पहले इस खबर पर गौर जरूर करें।