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Saturday 31 December 2011

नये साल में

 नये साल में 
मैं रोशनी और अँधेरे के बीच से
सारे बिचौलियों को हटा देना चाहता हूँ.

अगर समय मिले
तो मैं जाना चाहता हूँ बंजर खेतों में
और उन्हें
बीजों की साजिश बताना चाहता हूँ.

मैं उन गीतों को गुनगुनाना चाहता हूँ
जिन्हें हमारी स्त्रियाँ
आँचल की गांठ में
बाँधकर छुपाए रखती हैं.

मेरी इच्छा है
कि इस साल एक गौरैया
मेरे घर में अपना घोंसला बनाए.

मैं बादलों के नाम
एक खत भेजना चाहता हूँ
हवाओं के हाथ
जो बेशक धरती का प्रेमपत्र नहीं होगा.

मैं इन्द्रधनुष से कुछ रंग चुराकर
एक नया संयोजन
बनाना चाहता हूँ उनका.
जैसे पीले रंग के साथ लाल को रखकर
एक झण्डा पकड़ाना चाहता हूँ मैं
दुनिया के तमाम उदास लोगों को.

Tuesday 27 December 2011

ग़ालिब-ए-ख़स्तः के बग़ैर....( प्रसंग : ग़ालिब जयंती, 27 दिसंबर )


    ग़ालिब पितरों की तरह याद आते हैं. मुमकिन होता तो बताया जाता कि दिल्ली निजामुद्दीन इलाके में सुल्तान जी, चौंसठ खम्भा के कब्रिस्तान के एक कोने में जो मज़ार आप देख रहे हैं न ! वो हमारे मरहूम असदुल्लाह खाँ की है. जिन्हें सारा ज़माना ग़ालिब के नाम से जानता है. पर भाई, हमारे खानदान में तो उन्हें लोग मिर्ज़ा नौशः ही कहते हैं तो बस कहते हैं. बड़ा नाम रौशन किया असद ने अपने खानदान का. वरना उनकी पैदाइश (27, दिसंबर 1797) के पचास साल पहले जब उनके तुर्क दादा समरकन्द से हिन्दुस्तान आये थे तो भला कौन जानता था इस खानदान को. और जनाब उस तुर्की क़द-काठी के क्या कहने! लम्बा कद,इकहरा जिस्म, किताबी चेहरा, चौड़ी पेशानी, घनी लम्बी पलकें, बादामी आँखें और सुर्ख-ओ-सुपैद रंग...हाय ! जिसने भी उन्हें देखा, कमबख्त ग़ालिब का ही हो गया.
         दोस्तों, ग़ालिब को हम तब से जानते हैं, जब से दर्द को जानते है. यह वह उमर थी, और उमर का तक़ाज़ा था, जब ग़ालिब के शेर बस ज़रा ज़रा ही समझ में आते थे. तब यह भी कहाँ समझ आता था कि यह जो बेख़ुदी सी छा जाती है अक्सर, उसके परदे में कोई दर्द छुपा बैठा है....तो दिल और मिज़ाज की जब ऐसी कैफ़ियत हो जाती थी, तो हम ग़ालिब की आधी-अधूरी ग़ज़लों और शेरों का मरहम लगाते थे....और अमूमन नतीज़ा ये होता था कि तड़प कम होने की ज़गह और बढ़ जाती थी. तब हम दर्द को इस हद तक गुज़ारा करते थे कि वो दवा हो जाये.
          यही इस बेमिसाल शायर की खूबी थी. ये तो हर अच्छा अदीब करता है कि वह अपने युग की पीड़ा और व्याकुलता को व्यक्त करता है. लेकिन ग़ालिब तब तक ऐसे शायर हुए जिन्होंने नयी व्याकुलताएँ पैदा कीं. ग़ालिब ने अपने समय के सारे बन्धन तोड़ दिए. अपने अनुभवों को उन्होने अपने समय से आगे का मनोविज्ञान दिया. ज़िन्दगी के जितने मुमकिन रंग-ढंग हो सकते हैं, सबके सब ग़ालिब के विशिष्ट मनोविज्ञान में तप कर उनकी शायरी में उतर आये. खुशी का अतिरेक हो या घनघोर निराशा, शक-ओ-सुबहा या कल्पना की उड़ान हो, चुम्बन-आलिंगन की मादकता हो या दर्शन की गूढ़ समस्याएँ---हर ज़गह आप ग़ालिब की शायरी को अपने साथ पायेंगे.
           ग़ालिब को ज़िन्दगी में जो ठोकरें मिलीं वही उनकी असल उस्ताद रहीं. ऐसा ज़िक्र ज़रूर कहीं कहीं मिलता है कि शुरुआती दौर में एक ईरानी उस्ताद, अब्दुस्समद से ग़ालिब ने शायरी के तौर-तरीके सीखे, लेकिन उनके असल उस्ताद उनके अपने तज़ुरबे ही रहे. पाँच वर्ष की उम्र में ही बाप का साया सिर से उठ गया. बाप-दादों की जागीर चली गई. जो कुछ जमां पूँजी घर में थी वो दोस्तों, जुए और शराब की भेंट चढ़ गयी. रोज़ी-रोटी के सिलसिले में ज़्यादातर वक्त इधर से उधर भटकना पड़ा. शायरी का शौक बचपन से ही था. तीस-बत्तीस की उमर तक आते आते उनकी शायरी ने दिल्ली से कलकत्ते तक हलचल मचा दी थी. ग़ालिब की शिक्षा-दीक्षा के बारे में ज़्यादा पता नहीं मिलता, लेकिन उनकी शायरी से यह अन्दाज़ा ज़रूर मिलता है कि वो अपने समय में प्रचलित इल्म के अच्छे जानकार थे. फ़ारसी भाषा पर उनका ज़बरदस्त अधिकार था.
          “ गो मेरे शेर हैं ख़वास पसन्द, पर मेरी गुफ़्तगू अवाम से है “---ये शेर हालाँकि ग़ालिब के पूर्ववर्ती मीर का है पर ग़ालिब पर ज़्यादा मौजूँ है. बादशाहों, ज़मींदारों, नवाबों से लेकर पण्डितो, मौलवियों और अंग्रेज अधिकारियों तक से ग़ालिब की दोस्ती थी. अंतिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फर उनकी बड़ी कद्र करते थे. लेकिन ग़ालिब ने अपने स्वाभिमान को कभी किसी के सामने झुकने नहीं दिया. विद्रोह उनके स्वभाव में था. कभी नमाज़ नहीं पढ़ी, रोज़ा नहीं रखा और शराब कभी छोड़ी नहीं. गालिब से पहले किसी शायर ने खुदा और माशूक़ का मज़ाक नहीं उड़ाया था. खुद अपना मज़ाक शायरी में उड़ाने की रवायत भी ग़ालिब की ही देन है.
         अपना मज़ाक उड़ाने का हुनर ही ग़ालिब के ग़मों को भी बड़ा दिलकश बना देता है. ग़ालिब के यहाँ दर्द में जो भरपूर आनन्द है, वह किसी भी दूसरे शायर की शायरी में नहीं मिलता....” दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यूँ. रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यूँ. “ .  वो ज़िन्दगी से लड़ते हैं. जितना लड़ते हैं उतना ही आनन्दित होते हैं.जितनी कड़वाहटें मिलती हैं, उतना ही आनन्द का नशा बढ़ता है. जैसे शराब की कड़वाहट से गुज़रकर ही उसके आनन्द तक पहुँचा जा सकता है....ग़ालिब रस और आनन्द की प्राप्ति के लिए किसी भी हद को नहीं मानते. वह सौन्दर्य को इस तरह आत्मसात कर लेना चाहते हैं कि अपने और प्रेमिका के बीच निगाहें भी उन्हें बाधा पहुँचाती हुई सी लगती हैं. उन्हें माशूक़ की ऐसी नज़ाकत से भी चिढ़ होने लगती कि पास होने पर भी जिसे हाथ लगाते न बने.
          पीड़ा में आनन्द लेने की फ़ितरत ने ग़ालिब को तलाश, इन्तज़ार और कल्पना का एक अद्भुत शायर बना दिया. वह एक क्षण के लिए भी तृप्त नहीं होना चाहते. वो अपने भीतर तलब और प्यास को उसकी पूरी तीव्रता में बनाये रखना चाहते हैं. ग़ालिब मंज़िल के नहीं रास्ते के शायर हैं. इसी तलाश, इन्तज़ार और रास्ते में ही उनका स्वाभिमान भी सुरक्षित है. वो न तो ख़ुदा के सामने कभी नतमस्तक होते और न ही माशूक़ के सामने. उनका आदर्श प्यास को बुझाना नहीं, प्यास को बढ़ाना है---“ रश्क बर तश्नः-ए-तनहा रब-ए-वादी दारम् . न बर आसूदः दिलान-ए-हरम-ओ-ज़मज़म-ए-शाँ. “....ग़ालिब को ईर्ष्या, राह में भटकने वाले प्यासे से होती है. ज़मज़म पर पहुंच कर तृप्त हो जाने वालों से नहीं.
          ग़ालिब का यह जीवन-दर्शन उनके प्रेम के दृष्टिकोण को बिल्कुल अछूते अन्दाज़ में पेश करता है. असीम आकर्षण, समर्पण के बावजूद ग़ालिब का इश्क़ स्वाभिमानी है. वो कहते भी हैं---“ इज्ज़-ओ-नियाज़ से तो वो आया न राह पर, दामन को उसके आज हरीफ़ाना खैंचिए.”......यह संकेत केवल माशूक़ को अपनी ओर हरीफ़ाना(दुश्मन की तरह) खींचने का नहीं है, बल्कि जीवन की हर काम्य वस्तु को इसी अन्दाज़ में पाने की धृष्टता है. ग़ालिब भी खुद को ज़गह-ज़गह गुस्ताख़ कहते हैं. ग़ालिब की इस गुस्ताख़ अदा ने उर्दू शायरी को नया मिज़ाज दिया.
         ग़ालिब की सबसे सहज और प्रभावशाली ग़ज़लें वो हैं जिनमें निराशा के स्वर हैं.लेकिन ग़ालिब का महान व्यक्तित्व और निराला मनोविज्ञान निराशा को बुद्धि और ज्ञान के स्तर पर ले जाता है, जहाँ निराशा व्यंग्य में बदल जाती है----“ क्या वो नमरूद की खुदाई थी, बन्दगी में मिरा भला न हुआ “. व्यंग्य को ग़ालिब ने एक ढाल की तरह अपनाया था ज़माने के तीरों से बचने के लिए. वो अत्यन्त कठिन समय में भी दिल खोल कर हँसना जानते थे. उनका अदम्य आत्मविश्वास ही उनसे कहलवाता है---बाजीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.....दुनिया को बच्चों के खेल का मैदान समझने की हिमाकत में ग़ालिब का आत्मविश्वास भी है और आत्मसम्मान भी.
         ग़ालिब की शायरी में कई ऐसी बातें हैं जो उनकी प्रसंगिकता को वैश्विक बनाती हैं. जीवन के रहस्यों की खोज़ में वो शम्मा को शाम से सहर तक जलते हुए देखते थे. इस खोज में वो शायरों के लिए वर्जित इलाके मसाइल-ए-तसव्वुफ़ तक जाते हैं. उनके भाव-बोध में तर्क की निर्णायक ज़गह है.बिना तर्क और सवाल के ग़ालिब किसी भी स्थिति को ज़िन्दगी में ज़गह नहीं देते, ये बात और है कि ज़िन्दगी के हर रंग के लिए अपने तर्क है. वह वर्तमान की शिला पर बैठ कर भूत और भविष्य पर बराबर निगाह रखते है. एक तरफ अकबरकालीन वैभव के निरंतर ढहते जाने का दुख भी है उन्हें, तो नए विज्ञान की आमद की तस्दीक भी करते हैं ग़ालिब.
          इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी-उर्दू और हिन्दीवाले-उर्दूवाले जो इतने क़रीब आये, तो उसमें ग़ालिब की शायरी का बड़ा हाथ है. उत्तर भारत की ऐसी कोई ज़ुबान नहीं होगी जिस पर ग़ालिब के शेर न हों. ऐसा कोई इन्सानी दर्द नहीं होगा जिसकी शक्ल ग़ालिब की शायरी में न उतर आयी हो.

Sunday 25 December 2011

करुण हास्य के प्रवक्ता : चार्ली चैप्लिन (पुण्यतिथि-25 दिसंबर)


         अपनी किशोर वय में ,चार्ली चैप्लिन की फिल्में ढूढ़-ढूढ़ कर देखना हम कुछ दोस्तों का जुनून हुआ करता था.उस समय VCR पर फिल्में देखी जाती थीं. हम तीन-चार दोस्त मिल कर पैसे इकट्ठे करते. किराये पर VCR और कैसेट्स ले आते थे.शहर में उपलब्ध चैप्लिन की शायद ही ऐसी कोई फिल्म रही होगी जिसे हमने न देखा हो. चूँकि उनकी फिल्में कम अवधि की होती थीं तो पेट ही नही भरता था, तो एक ही फिल्म को कई कई बार देखते थे. यही मेरा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा से प्रथम और एकमात्र परिचय था.
          उस उम्र में चैप्लिन की फिल्में देखना विशुद्ध मनोरंजन के लिए होता था. उनकी सिनेमा कला पर सोचने की समझ नहीं थी मुझमें. अधिकांश फिल्मों की स्मृति भी अब धुँधली हो गयी है. लेकिन अनजाने ही मन के किसी हिस्से में कुछ जमता गया था, जो गाहे बगाहे कौंध जाता है कभी-कभी. फिल्मों पर पढ़ना और लिखना मुझे हमेशा से प्रिय था. चैप्लिन पर कहीं भी कुछ पढ़ने को मिल जाता तो लपक कर पढ़ता था.यह धारणा भी मन में मज़बूत होती गयी कि चैप्लिन एक महान फिल्मकार थे. उन्होने फिल्म कला के सबसे चुनौतीपूर्ण विषय को चुना था. हास्य पर फिल्म बनाना और अन्त तक उसका सफल निर्वाह कर ले जाना फिल्म कला का सबसे कठिन काम है. और यह काम तब लगभग असंभव सा हो जाता है जब फिल्मकार सचेत भाव से उसमें अपने सामाजिक और मानवीय सरोकार भी दिखाना चाहता हो. पर असंभव से खेलना ही चार्ली चैप्लिन की फितरत थी. अपनी ज़िद और अपनें ही कायदों में काम करने वाला एक अद्वितीय फिल्मकार ! हिटलर तक को चुनौती दे डालने वाला एक मर्द फिल्मकार !!
           25, दिसंबर 1977 को जिनेवा में 88 वर्ष की अवस्था में चैप्लिन ने जब देह त्यागी तब तक उन पर बुढ़ापा बहुत हावी हो चुका था.काफी समय से चैप्लिन काम करना बंद कर चुके थे.चैप्लिन के उत्कर्ष के दिनों में अमेरिका जाने वाला या अमेरिका से बाहर भी , दुनिया का हर बड़ा आदमी उनसे मिलता था. एच.जी.वेल्स,विन्सटन चर्चिल,महात्मा गांधी,जवाहरलाल नेहरू,चाऊ-एन-लाई,सर्गेई आइजेंस्ताइन,पिकासो,सार्त्र,ब्रेख्त जैसे लोगों ने बड़े उत्साह के उनसे मुलाकात की. जापान यात्रा के दौरान, जापान के आतंकवादियों ने उनकी हत्या की योजना बनाई. वे सोचते थे कि चैप्लिन की हत्या करके अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की पहल कर सकेंगे. दरअसल उन्हें बहुत बाद में पता चल पाया कि चैप्लिन अमेरिका के नहीं बल्कि ब्रिटेन के नागरिक हैं. वे किसी एक देश की नागरिकता धारण किए रहने और उसे जतलाने की मनोवृत्ति को भी नकार चुके थे. जबकि अमेरिकी नागरिकता लेने के लिए अमेरिका में राज्य और प्रेस की ओर से उन पर भारी दबाव पड़ा था. चैप्लिन राष्ट्रीयता की भवना को कोई बड़ी नियामत नहीं मानते थे, फिर भी वे ब्रिटेन के ही नागरिक बने रहे.
        16 अप्रैल 1889 को ईस्ट लेन, वालवर्थ, लंदन में जन्में चैप्लिन लगभग 50 वर्षों तक अमेरिका में ही रहे. ऊना उनकी चौथी पत्नी थीं ,जो मृत्यु के समय उनके साथ थीं. वह चैप्लिन के दस बच्चों मे से आठ की माँ थीं. नाचने गाने और अभिनय की उनकी यात्रा पांच वर्ष की आयु में बड़े नाटकीय ढंग से शुरू हुई थी. उनकी माँ मंचों पर गाती थीं . एक बार प्रदर्शन के दौरान उनकी माँ की आवाज़ फट गयी, और श्रोता शोर मचाने लगे. तब पांच वर्ष के बालक चैप्लिन ने मंच सम्भाला और अपने प्रदर्शन से दर्शकों को मुग्ध कर दिया. उस रात के बाद उनकी माँ की आवाज़ कभी ठीक नहीं हुई.अपनी आवाज़ खोने के कुछ साल बाद वे विक्षिप्त हो गयीं. पति से तलाक चैप्लिन के जन्म के समय ही हो चुका था. इस तरह चैप्लिन ने रंगमंच की शुरुआत अपने परिवार के गुजारे की गरज़ से की. अपनी जीवनी में भी वो स्वीकार करते हैं--" कला एक ऐसा शब्द है, जिसने तब मेरे मस्तिष्क या मेरे शब्दज्ञान की परिधि में कभी प्रवेश नहीं किया. रंगमंच का मतलब था गुजारे का साधन, और कुछ नहीं...."
              लेकिन चैप्लिन महान अभिनेता हुए.उनकी अभिनय शैली की नकल करना लगभग असंभव बना रहा. राजकपूर ने जब चैप्लिन की नकल करने की कोशिश की तो उन्होंने अपने कद को बहुत छोटा कर लिया था. चैप्लिन ने हास्य की प्रचलित पद्धति में मौलिक परिवर्तन किए थे.उन्होने असंगत उछल-कूद और भाव-भंगिमा बनाकर हंसाने की पद्धति को खारिज कर दिया. उनका मानना था कि हास्य, सामान्य व्यववहार में ही सूक्ष्म परिवर्तन कर के पैदा किया जा सकता है. कॉमेडी विवेकसम्मत व्यवहार को थोड़ा सा हेरफेर से हास्यजनक बना देता है. महत्वपूर्ण को अंशतः महत्वहीन बना देता है, तर्क को तर्कहीनता का आभास देता है. हास्य अस्तित्वबोध और संतुलन चेतना को धार देता है.
              द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मृत्यु, विनाश और घोर निराशा से घिरे विश्व को यह महामानव अपनी संवेदना, दुख का सार, हँसी, मासूमियत, उल्लास और अपराजेय आस्थाएँ दे रहा था. प्रतिरोध कई बार अमूर्तन में भी व्यक्त होता है, खासतौर पर कला-माध्यमों का प्रतिरोध. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ कला समीक्षकों ने पिकासो पर निर्लिप्त रहने का आरोप लगाया था. उनका कहना था कि पिकासो ने युद्ध के विरुद्ध केवल एक कृति ' गुएर्निका ' ही बनायी है. जबकि फासी आधिपत्य में रहते हुए पिकासो ने इस कृति के पहले सर्कस के अभिनेताओं, नटो, राजनीति और युद्ध से अनासक्त दिखते सामान्य जन के चित्र बनाये हैं.और युद्धके बाद मरे हुए सांड़ों के सिर बनाये हैं. इस तरह के तमाम चित्र भी युद्ध विरोधी और युद्ध से प्रभावित गहरे अमूर्तन के ही चित्र हैं.
               चैप्लिन की रचनाओं में भी ऐसा ही अमूर्तन है. हिटलर पर चैप्लिन ने ' द ग्रेट डिक्टेटर ' फिल्म बनाई. चैप्लिन ने हिटलर पर सबसे पहले यह आरोप लगाया था कि  उसने मेरी मूँछ (जिसे हमारे यहाँ तितली मूँछ कहते हैं ) चुरा ली है. सर्गेई आइजेंस्ताइन ने लिखा है कि यह आरोप लगाकर एक महामानव ने हिटलर जैसे दुनिया के सबसे बड़े मनुष्य विरोधी को हास्यास्पद बना दिया.चैप्लिन के सरोकार बहुत बड़े थे.पराजित और पराधीन देशों के दुख दर्द पर उनकी नज़र थी.
               कलासंबन्धी अपनी अवधारणाओं में चैप्लिन एकदम मौलिक थे. वे कहते थे कि मेरा शिल्प, अभ्यास और चिन्तन का परिणाम है किसी के अनुकरण का नहीं.वे इस तर्क से सहमत होते नहीं दिखते कि कला में समय के साथ कदम मिलाते हुए चलना आवश्यक है.सवाक् फिल्मों का युग शुरू हो जाने के बाद भी कई वर्षों तक चैप्लिन मूक फिल्में ही बनाते रहे.हो सकता है कि इसके पीछे उनका कोई डर रहा हो. यह भी संभव है कि वह ध्वनि को अपनी सम्प्रेषणीयता में बाधा समझते रहे हों.चैप्लिन एक शुद्धतावादी कलाकार थे.
       चैप्लिन की मूक फिल्मों पर किसी कला-परंपरा का नहीं, उनके अभावग्रस्त अतीत, सामाजिक विषमता और उनके प्रतियोगिता के लिए तत्पर और जुझारू व्यक्तित्व की गहरी छाप है.असहनीय परिस्थितियां उनकी कृतियों में खिल्ली उड़ाने लायक बन कर आयी हैं. संघर्ष आकर्षक और उससे संबंधित अनुभूतियां छन कर स्फूर्तिदायी और उदात्त हो गयी हैं.उनके विराट हास्य में करुणा की एक सरस्वती निरन्तर बहती रहती है.चैप्लिन जीवन के विद्रूप में हास्य की सृष्टि करते हैं, लेकिन कहीं भी हास्य को विद्रूप नहीं होने देते.
      चैप्लिन एक सम्पूर्ण मानव और फिल्मकार थे.एक मनुष्य के तौर पर कोई आडम्बर उन्होने नहीं किया. कला उनके जीवन में रोजी-रोटीके सवाल के जवाब के रूप में आयी तो उसे उन्होने उसे वैसे ही स्वीकार किया.और जब कला को उनकी ज़रूरत पड़ी तो खुद को पूरा सौंप दिया.एक अभिनेता, लेखक ,निर्देशक के उनके तीनों रूपों में यह तय कर पाना आज भी मुश्किल है कि वह किस रूप में ज़्यादा बड़े हैं. चैप्लिन इस दुनिया के पिछवाड़े पर पड़ी हुई एक लात हैं.

Wednesday 14 December 2011

अन्ना की तमन्ना..!


            अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन पर मैं लिखने से बचता आ रहा था. इसकी वज़ह यह नही थी कि मैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नही हूँ, बल्कि मैं लगातार अन्ना की मुहिम को लेकर दुविधाग्रस्त होता गया. और अब तो यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि अन्ना का आन्दोलन किसके खिलाफ़ है. क्या अन्ना और उनकी टीम का संसदीय लोकतंत्र से विश्वास उठ गया है ? कांग्रेस पार्टी के प्रति खिलाफ़त के भाव को सार्वजनिक कर चुके अन्ना ने अपने हालिया बयानों में जब कहा कि लोकपाल बिल के खिलाफ़ सारी साजिशें राहुल गांधी के इशारे पर हो रही हैं, तो बहुत बचकाने दिखने लगे.
      शुरुआती भावनाओं को छोड़ दें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आन्दोलन अब अन्ना हजारे का व्यक्तिग आन्दोलन नही है. उनके साथ एक पूरी टीम है और करोड़ों की संख्या में जनता का समर्थन. अनेक संस्थाएँ हैं तो लगभग समूचा विपक्ष उन्हें समर्थन दे रहा है. हालांकि विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने लोकपाल बिल पर अभी भी अपने पत्ते पूरी तरह से नहीं खोले हैं, लेकिन चूँकि अन्ना अब खुलकर कांग्रेस के खिलाफ़ बोलने लगें हैं, इसलिए अन्ना का  समर्थन करने में उन्हें कोई मुश्किल पेश नहीं आ रही है.
        तो अन्ना अब जो बोलते हैं वह केवल उनकी भर आवाज़ नही होती. होनी भी नही चाहिए. अन्ना एक साधारण फौजी से समाजसेवी बने. संवैधानिक,संसदीय और विधि सम्बन्धी प्रक्रियाओं से उनका कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा. इसलिए अगर इन विषयों पर उनकी अज्ञानता या अल्पज्ञता की बात स्वीकार करें तो यह ग़लत नहीं होगा. उनकी इसी कमी को पूरा करने के लिए उनके पास एक टीम है, जिसकी योग्यता असंदिग्ध है. अब अन्ना का आन्दोलन एक आकार ले चुका है.जो लोग केन्द्रीय भूमिका में हैं, उनके कार्यक्षेत्र भी निर्धारित हो चुके हैं. ऐसे में यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि अन्ना हजारे अब जो बोलेंगे वह सुविचारित होगा और रणनीतिक होगा. अब भावुकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
        भावुकता से बचना इसलिए भी ज़रूरी है कि अन्ना के आन्दोलन के साथ एक भीड़ जुड़ चुकी है. भीड़ की बुद्धि और समझ न्यूनतम स्तर पर होती है. अन्ना हजारे जब संसदीय लोकतंत्र पर अविश्वास जताते हैं और एक पार्टी विशेष को लक्ष्य करके बयान देते हैं तो भीड़ उनसे चार कदम आगे चली जाती है. इधर लोगों की उग्र प्रतिक्रिया देखने को मिली है. लोगों ने बिना सोचे-समझे लोकतंत्र और संसद को उखाड़ फेंकने के झण्डे लहराने शुरू कर दिए. लोकपाल से भ्रष्टाचार कितना कम होगा, यह तो समय ही बतायेगा. लेकिन अपनी संसदीय प्रणाली पर यह अविश्वास दीर्घकालिक असर डालेगा.
         इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली दुनिया की किसी भी शासन पद्धति में सर्वश्रेष्ठ है. इसकी मूल प्रतिज्ञा, मनुष्य का मनुष्य की तरह सम्मान करना है. मनुष्य होने की पूरी गरिमा उसकी स्वतंत्रता में है. और लोकतंत्र में ही स्वतंत्रता के अधिकतम आयाम खुलते हैं. इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मुझे लोकतंत्र की गड़बड़ियों का ध्यान नहीं है. मेरा बड़ा दृढ़ विश्वास रहा है कि भारत में लोकतंत्र, शोषण और अयोग्यों के शासन का ज़रिया रहा है. लेकिन तब भी इस प्रणाली पर अविश्वास नहीं किया जा सकता. ये जो खामियां हैं , ये इस प्रणाली के इस्तेमाल से जुड़ी हैं. इन खामियों को लोकतंत्र के ढाँचे के भीतर ही दूर किया जा सकता है. लोकतंत्र की मूल भावना को आहत किए बिना, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के स्वरूप में फेरबदल कर, हम देश में एक बेहतर संसदीय तंत्र की स्थापना कर सकते हैं.
        इसके लिए ज़रूरत है निर्वाचन प्रणाली में सुधार की. और यह सुधार संभव होगा राजनीतिक इच्छाशक्ति से. हमारे देश की साक्षरता का प्रतिशत एक कागज़ी आंकड़ेबाजी है. अधिकांश लोग साक्षर हैं, समझदार नहीं. जब निर्वाचन के समय औसत मतदान 60% भी होता है, तो उसमें 40% लोग ऐसे होते हैं जिनमें राजनीतिक साक्षरता शून्य होती है.धनबल और बाहुबल हमारे चुनावों को कितना प्रभावित करता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. जो लोग निर्वाचित होकर व्यवस्थापिका और कार्यपालिका का निर्माण करते हैं, उनकी योग्यता खतरनाक ढंग से संदिग्ध होती है. जिसका परिणाम देश और जनता को भुगतना पड़ता है.
        हमने जीवन के किसी भी क्षेत्र में अमेरिकी संस्कृति की नकल करने से परहेज़ नहीं किया. फिर हमारे नीति-निर्धारकों ने अमेरिकी निर्वाचन पद्धति को अपनाने के बारे में कभी क्यों नहीं सोचा ! हालांकि अमेरिकी पद्धति को हूबहू अपनाना अभी इस देश में संभव नही है क्योंकि हम साक्षरता,समझ और जागरुकता के उस स्तर पर अभी नहीं हैं जहां अमेरिका है. पर कुछ संशोधनो के साथ उसे अपनाने पर विचार किया जाना चाहिए. हमारा संविधान भी कई देशों के संविधानों के अध्ययन, इमानदारी से कहें तो जोड़-तोड़ से ही बना है. इसमें कुछ ग़लत भी नही है.इन बदलती ज़रूरतों को ध्यान में रख कर चुनाव सुधारों पर विचार किया जाना चाहिए.
         फिलहाल लौटते हैं अन्ना हजारे के आन्दोलन पर. उनकी महत्वाकांक्षा और देश के दुर्भाग्य पर. अन्ना के सहयोगियों की विश्वसनीयता को ध्वस्त करने करने की कोशिश सरकार कर रही है. केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशान्त भूषण के साथ हो रहे सलूक आप सब भी देख रहे हैं. इन लोगों के आपसी अंतरविरोध भी सामने आते रहते हैं. अन्ना खुद भी दिग्भ्रमित लग रहे हैं. शुरुआत में उनकी आवाज़ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ थी. इस आवाज़ में एक झटके में देश के करोड़ों लोगों,खासतौर से युवावर्ग की आवाज़ जुड़ गई. इसी सामूहिक आवाज़ से लोकपाल की अवधारणा निकली. लोकपाल के बहाने जन-भावना को मूर्त रूप देने की कोशिश की गई, पर संभवतः लोकपालभी जनता की समूची भावनाओं को अपने में समाहित नहीं करता. इसीलिए जनता के ज्वार को उतरने में देर नहीं लगी.
         आन्दोलन के तासरे चरण में स्थिति और खराब हो गई है. अन्ना हजारे अब खुल कर कांग्रेस पर हमले करने लगे हैं. इससे उनकी विश्वसनीयता कम हुई है. उन्हें यह सीधी सी बात समझ में आती तो होगी कि संसद किसी एक दल की नहीं है. जो विपक्षी दल अन्ना के बहाने सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने संसद के भीतर लोकपाल बिल के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. अब चाहे-अनचाहे समूचा विपक्ष अन्ना के मंच पर जुटने लगा है. इस मंच से सत्तापक्ष पर तीर चलाए जा रहे हैं.
         यह स्थिति सत्ताधारी दल कांग्रेस और उसके सहयोगियों के लिए भी ज़्यादा सुविधाजनक है. कांग्रेस शुरू से ही इस प्रयास में थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जो जनमत देश में बन रहा है, उसे सत्तापक्ष और विपक्ष की लड़ाई में बदल दिया जाये.भारतीय राजनीति में यह आजमाया हुआ नुस्खा है. जनभावनाओं के उभार से सत्ता परिवर्तन की घटनाएं हाल ही में कई देशों में हुई हैं. सरकार की कोशिश थी कि इस आन्दोलन से जनता दूर हो जाये और केवल उसके प्रतिनिधि बचें. ये वही प्रतिनिधि हैं जो संसद में भी होते हैं. सरकार इनसे निपटना जानती है.
       पर अन्ना हजारे यह समझ नहीं पा रहे हैं. अन्ना और उनके सहयोगियों ने इस अभियान को एक छोटे से समूह का अभियान बना दिया है. अन्ना को अगर छोड़ भी दें तो उनकी केन्द्रीय समिति में जो लोग हैं, उनके सरकार से टकराव के ही रिश्ते रहे हैं पहले से ही. इस आन्दोलन के मार्फत उनके दूसरे अहंकार भी तुष्ट होते हैं. सबसे खतरनाक बात यह हो रही है कि देश का बौद्धिक वर्ग भी एक किस्म के ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है. इन लोगों में लोकतंत्र के लिए अस्वीकार भाव बढ़ता जा रहा है. लेकिन इनके पास विकल्पहीनता भी है. विकल्पहीनता ही अराजकता को जन्म देती है. देश को इससे बचाना होगा.

Tuesday 13 December 2011

कविता : 'मुक्ति का छन्द'


यह मुक्ति का अनन्त था  
जहां हम
मुक्त हुए
एक दूसरे के लिए
एक दूसरे में मुक्त हुए.

यह सीमान्त के बाद की यात्रा थी
जहां हमने
काल का अतिक्रमण किया था.

हम नाविक थे
हमें,
नदी की विलीन धारा को
समुद्र के भीतर खोजना था.

उपनिषद  आरण्यक और स्मृतियां
हमारा पीछा कर रहे थे
इन्द्र फिर गया ब्रह्मा के पास

इस दुर्गम पथ के
अथक सहयात्री  !

यह मुक्ति के अनन्त में 
एक छन्द की शुरुआत थी  !

Friday 9 December 2011

कविता : 'अब जो जीवन है '


अब जो जीवन है  
वह कुछ पराजयों की
सार्वजनिक स्वीकृति है
तो कुछ न लड़ी गई लड़ाइयों की
गुमनाम कहानी भी.

अब जो जीवन है
वह एक टूटा हुआ नक्षत्र
जिस पर दुनिया भर की 
वेधशालाओं की लगी है नज़र
और खगोलशास्त्री उसे
किसी महासागर में 
सावधानी से गिराने मे जुटे हैं.

अब जो जीवन है
वह प्रधानमंत्री का विजयघोष है.
वह वेश्या की संतुष्टि है
काशी के पंडितों का 
फलित ज्योतिष है अब का जीवन.

अब जो जीवन है
वह बम्बई का मुम्बई
और मद्रास का चेन्नई है.

                                -विमलेन्दु

Tuesday 6 December 2011

संसद में शीर्षासन..!

           
   जैसा कि होना भी चाहिए, देश के लोगों में अपनी संसद के प्रति अत्यधिक सम्मान है. आख़िर यह वह ज़गह है जहाँ सवा अरब जनता की आकांक्षाएँ बसती हैं. यही वह ज़गह है जहां लोकतंत्र के सारे भ्रम भी पलते हैं. इसी संसद में हमारे असली भाग्य-विधाता रहते हैं. यही संसद हमारी अस्मिता भी है, और यहीं से हमारे दुर्भाग्य की अनेक नदियां भी निकलती हैं. इसीलिए जब हमारी संसद पर आतंकी हमला होता है तो पूरा देश उबल जाता है. ऐसे में मुझे याद आती हैं वो स्त्रियां जो खुद भले ही पतियों का जीना हराम कर दें, पर कोई दूसरा एक शब्द भी टेढ़ा बोल दे तो लड़ जाती हैं.
             संसद पर हमारी ग़ज़ब की आस्था है. हालांकि देश की एक बड़ी आबादी यह जानती भी नहीं कि उनके जीवन की अनेक परिस्थितियों के निर्णय इसी संसद में लिए जाते हैं, या यह कि वहां जो निर्णायक बैठे हुए हैं, वो इन्हीं के भेजे हुए है. यह अज्ञानता हमारी राजनीतिक साक्षरता पर सवाल है. लेकिन इस सवाल की ओट लेकर भी संसद में बैठे लोग अपनी गैर-ज़िम्मेदाराना हरकतों की जवाबदेही से बच नहीं सकते. यहां पक्ष और विपक्ष का विभाजन भी उतना ज़रूरी नहीं है.
             आप भी देख रहे हैं कि संसद के पिछले तीन सत्र बिना किसी काम काज के बीत जा रहे हैं. पहले दूरसंचार और राजा, फिर लोकपाल और काला धन, और अब FDI. इन मुद्दों ने संसद के पिछले तीन सत्रों में कोई काम नहीं होने दिया. दुर्भाग्य और बड़ा तब हो जाता है, जब इन मुद्दों का भी कोई हल नहीं निकलता. विपक्ष पहले से ही तय करके आता है कि वह संसद नहीं चलने देगा. उसके पास कोई रचनात्मक मुद्दे नही हैं. उसे लगता है कि संसद को न चलने देना ही सरकार की सबसे बड़ी नाकामी प्रमाणित होगी. ऐसा होता भी अगर सरकार में ही कुछ लाज बची होती. सत्ता पक्ष के लोग भी विपक्ष के इस खेल को समझते हैं. इसीलिए संसद के सत्र के समय सब चिकने घड़े में तब्दील हो जाते हैं. उनके दो सबसे बड़े हथियार हैं. पहला, चुप्पी....और दूसरा, समिति गठित करना. अक्सर तो उनका काम पहले वाले हथियार से ही चल जाता है. अगर कभी यह असफल भी हो जाए तो दूसरा तो ब्रह्मास्त्र है.
               लेकिन यह ब्रह्मास्त्र विपक्ष की ओर नहीं चलता. इसकी दिशा और मारक क्षमता की रेंज में देश की जनता आती है. विपक्ष के भीतर भी एक संतोष होता है कि उसने सत्ता पक्ष को मात दे दी . और सत्तापक्ष भी बच निकलने के आत्म-संतोष से भरा होता है. ऐसा लगता है कि संसद जैसे मारने-बचने का रंगमंच बन गयी है. यहां उस तरह की नौटंतियां देखने को मिलती हैं, जिनमें छः लोग बारह किरदार निभाते हैं. एक ही आदमी कुछ देर के लिए पुलिस बना रहता है और बाद में वह डाकू के किरदार में आ जाता है. संसद में इसी तरह के अन्तःपरिवर्तन करते हैं किरदार.
              हमारी विवशता यह है कि हम संसद की इस नौटंकी के महज़ दर्शक हैं संसद के हर निष्फल सत्र के दौरान मीडिया में ये ब्यौरे आ जाते हैं कि प्रतिदिन धन का कितना नुकसान हो रहा है. लेकिन यह सिर्फ धन हानि का मसला नहीं है. देश और नागरिकों से जुड़े कितने ही मसले बलि चढ़ जाते हैं सत्ता और अहंकार की इस लड़ाई में.संसद और उसके बाहर हम अपने भाग्य विधाताओं के प्रहसन को ज़रा करीब से देखते हैं.

               कुछ दिनों से देश की राजनीति बेहद सक्रिय अवस्था में है. जैसे कोई सुप्त ज्वालामुखी फिर से सक्रिय हो गया हो.पहलवानों ने अपने मुगदर,डंडे निकाल लिए हैं.जो इधर-उधर कहीं थे,उन्होंने अपने दीगर काम फिलहाल मुल्तवी कर दिए हैं.पूरी एकाग्रता के साथ सब अखाड़े में आकर जम गये हैं.
              यूँ तो हमारे देश में नेताओं के पास ज़्यादा काम होता नहीं, क्योंकि जो असल चुनौतियाँ हैं उनसे कोई मुठभेड़ नहीं करना चाहता.इसलिए ज़्यादातर समय नेतागण खाली बैठे रहते हैं.अपने इसी खालीपन को भरने के लिए ये लोग अपने जन्मदिन इत्यादि के बहाने कभी-कभी सुर्खियों में आने की कोशिश करते रहते हैं.चूँकि हमारे देश में, किसी और देश की तुलना में महापुरुष ज़्यादा पैदा होते हैं,अतः किसी न किसी का जन्मदिन या पुण्यतिथि पड़ती ही रहती है.यही वह सुअवसर होते हैं जब हमारे राजनीतिज्ञों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलता है.
             लेकिन पिछले कुछ समय से एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ होती गयीं कि सारे राजयोगी जीवित हो उठे.पक्ष हो या विपक्ष, सबके पास काम आ गया.पहले 2जी घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की मुश्कें कसीं, फिर पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हुए,34 साल पुरानी वाम दलों की सरकार ढहाकर ममता दी नें अपनी सरकार बनाई,अन्ना हजारे अचानक भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठ गये तो पक्ष-विपक्ष दोनो हड़बड़ा गए.और फिर कुछ दिनों से काले धन के मसले पर सरकार को खुजली करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव का धरनाहुआ,लाठीचार्ज,जूतमपैजार,चीरहरण इत्यादि,भारतीय राजनीति की सभी लीलाएँ देखने को मिलीं.इन सब अवसरों में ये स्पष्ट हुआ कि हमारी राजनीति दोमुही नहीं कई मुह वाली है.ऐसे एसे पैंतरे देखने को मिल रहे हैं कि जनता अपना दुख-दर्द भूलकर इन करतबबाज़ों की तमाशबीन बन गई है.उसे कुछ वैसा ही रस मिल रहा है जैसे सांप और नेवले का खेल देखते हुए मिलता है. यही हमारे नेताओं की खूबी भी है कि जब भी जनता कराहती है ये उसे कोई न कोई तमाशा दिखाने लगते है.
              बात शुरू करते हैं बाबा रामदेव के आन्दोलन(?) से. पिछले चार-पांच सालों में देश में योग-क्रान्ति कर चुके बाबा रामदेव को न जाने किस महत्वाकांक्षा ने इतना प्रेरित किया कि उन्होंने भ्रष्टाचार मिटाने का बीड़ा उठा लिया.फिर जो कुछ हुआ और हो रहा है,वह सब तो आप भी देख रहे हैं.इस पूरे घटनाक्रम में जो राजनीतिक पैंतरेबाज़ी है वह बड़ी दिलचस्प है.
              सोनिया गांधी को चारों ओर से गालियाँ दी गईं.लोगों ने मज़े ले-लेकर कहा कि सोनिया की सरकार ने बड़ी मूर्खता कर दी बाबा को पिटवाकर,अब सरकार का बचना मुश्किल है.पर आप गौर से देखेंगे तो आपको लगेगा कि सोनिया गांधी वर्तमान भारतीय राजनीति की चाणक्य हैं. कुछ समय से काले धन और भ्रष्टाचार के मसले पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर अन्ना, बाबा और देश की जनता ने यूपीए सरकार का जीना हराम कर रखा था.सरकार के पास इनके सवालों के कोई ज़वाब नहीं थे.सरकार इसलिए भी ज़्यादा परेशान थी कि ये सवाल विपक्षी दलों की ओर से नहीं बल्कि आम युवा और न्यायपालिका की ओर से आ रहे थे.विपक्ष से निपटना तो उनको आता है क्योंकि उसकी सीमाएँ वो जानते हैं.
              सत्ताधारी यूपीए सरकार बहुत समय से इस प्रयास में थी कि किसी तरह से भ्रष्टाचार की जनता की लड़ाई, सत्तापक्ष और विपक्ष की लड़ाई में तब्दील हो जाये. ऐसा होने पर उसे कई फायदे थे. मुख्य मुद्दे से जनता का ध्यान हट जाता, कार्यकर्ता ऐसे ही समय में एकजुट होते हैं.अगले चुनाव की तैयारी के लिहाज से यह काफी सुखद माहौल होता. दूसरे वो ये भी जानते हैं कि काले धन और भ्रष्टाचार पर विपक्ष खुलकर कभी भी सामने नहीं आ सकता क्योंकि उसके दामन पर कम दाग नहीं हैं.
              राजनीति में कच्चे बाबा रामदेव की अदूरदर्शिता ने कांग्रेस को वह अवसर दे दिया जिसकी तलाश में वे थे.लाठीचार्ज से पैदा हुई भावुकता में भाजपा, आरएसएस और दूसरे विपक्षी दलों के शामिल हो जाने से मुख्य मुद्दा नेपथ्य में जाता हुआ दिख रहा है और लड़ाई पक्ष-विपक्ष की बनती जा रही है.सबसे मज़े कि बात ये है कि इस लड़ाई में कोई सूत है न कपास, बस जुलाहों में लट्ठमलट्ठ मची हुई है.
             ठीक इसी तरह से अन्ना के जोश को भूल-भुलैया में डाला जा चुका है.इन सबके लिए जो पैंतरे अपनाए गये वो नये नहीं थे और भारतीय राजनीति में मान्य भी हैं.संसद अब अपनी पुरानी चाल पर लौट आयी है. वहां अभी भी गतिरोध कायम है.

Sunday 4 December 2011

कविता : ' जो इतिहास में नहीं होते '


जो लोग इतिहास में  
दर्ज़ नहीं हो पाते
उनका भी एक गुमनाम इतिहास होता है.

उनके किस्से
मोहल्ले की किसी तंग गली में
दुबके मिल जाते हैं.
किसी पुराने कुएं की जगत पर
सबसे मटमैले निशान में भी
उन्हें पहचाना जा सकता है.

ऐसे लोग, आबादी के
किसी विस्मृत वीरान के
सूनेपन में टहलते रहते हैं.

एक पुराने मंदिर के मौन में
गूँजती रहती है इनकी आवाज़.

कुछ तो 
अपनी सन्ततियों के पराजयबोध में
जमें होते हैं तलछट की तरह.
तो कुछ
पुरखों की गर्वीली भूलों की दरार में
उगे होते हैं दूब की तरह.

जिन लोगों को 
इतिहास में कोई ज़गह नहीं मिलती
उन्हें कोई पराजित योद्धा
अपने सीने की आग में पनाह देता है.

ऐसे लोगों को
गुमसुम स्त्रियाँ
काजल की ओट में भी
छुपाए लिए जाती हैं अक्सर.

ऐसे लोग 
जो इतिहास में नहीं होते
किसी भी समय
ध्वस्त कर देते हैं इतिहास को।