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Tuesday 31 January 2012

हारे को हरि नाम !


  क्रिकेट की असल परीक्षा में भारत एक बार फिर अनुत्तीर्ण हो गया. भारत की हार से जहां ऑस्ट्रेलियाई मीडिया उत्साह के अतिरेक में है, वहीं भारतीय मीडिया और दर्शक अपेक्षाकृत धैर्य रखे हुए हैं. इस समय यह कह पाना कठिन है कि यह ऊब है या उदासी.......देश में  कुछ ऐसा माहौल है जैसे कि हमें पूर्वाभास था कि यही होने वाला है. दो-एक लोगों को छोड़ दें तो, उस तरह की उग्र प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिल रही है,जैसी आमतौर पर भारत के हारने पर होती है. हालांकि एक नज़रिए से यह भारतीय क्रिकेट के लिए चिन्ताजनक भी है.

          ऑस्ट्रेलिया में उमंग है. हो भी क्यों न ! पिछले दो-तीन सालों से वे पिट रहे थे. दो दशकों की उनकी बादशाहत को इंग्लैण्ड-भारत और दक्षिण अफ्रीका ने खत्म कर दिया था. अब इस जीत के साथ वे खुद को फिर से नम्बर एक के सिंहासन की तरफ जाता हुआ देख रहे हैं. उनके लिए यह जीत कई मायनों में बहुत महत्वपूर्ण है. सबसे पहली बात यह कि भारत को हराने का उनका प्लान-A  ही कामयाब हो गया. ऑस्ट्रेलियाई टीम इस बार अपने कुछ प्रमुख खिलाड़ियों के बगैर खेल रही थी. विशेष रूप से उनकी गेंदबाजी बहुत अनुभवहीन थी. मिशेल जॉनसन,बोलिंगर की अनुपस्थिति में उन्होने पैटिन्सन का हौव्वा खड़ा करने की कोशिश की थी, लेकिन पैटिन्सन भी पहले टेस्ट मैच के बाद घायल होकर सीरीज से बाहर हो गये. लेकिन कमाल की गेंदबाजी की उन गेंदबाजों ने जिनसे कोई उम्मीद नहीं थी. हेल्फिनहॉस, सिडल और हैरिस ने भारतीय बल्लेबाजों को एक तरह से दफ़्न ही कर दिया.

         इस जीत से सबसे बड़ा फायदा हुआ रिकी पोन्टिंग और कप्तान माइकल क्लार्क को. ये दोनो ही बल्लेबाज़ पिछले दो-ढाई सालों से रनों के लिए तरस रहे थे. पोंटिंग पर सन्यास का दबाव बढता ही जा रहा था. इस सीरीज में उनकी असफलता या तो उन्हें सन्यास के निर्णय तक पहुँचा देती या उन्हें टीम से बाहर ही कर दिया जाता. इस मामले में ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट प्रशासन बहुत निर्मम है.क्लार्क के ऊपर हालांकि इस तरह का खतरा नहीं था क्योंकि पिछले चार पांच वर्षों से उन्हें कप्तान के रूप में तैयार और परिपक्व किया जा रहा था. इन दोनो ही खिलाड़ियों ने इस मौके का खूब फायदा उठाया. इतने रन बटोरे कि हाल की असफलता एक झटके मे ही अदृश्य हो गयी. सीरीज के बीच में ही सुनील गावस्कर ने थोड़ा खिसियाहट में ही कहा था कि जिन टीमों और खिलाड़ियों को अपना रिकार्ड सुधारना हो उन्हें भारत के साथ सीरीज खेलनी चाहिए. कुछ ऐसा संयोग ही रहा है कि जयसूर्या,पोन्टिंग,पीटरसन,लारा आदि दिग्गज जब-जब बुरे दौर से गुजरे, उन्हें भारत ने ही उबारा.

            पहला टेस्ट मैच जीतने के बाद ही ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान ने भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत यह सीरीज 0-4 से हारेगा. उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई. स्टीव वॉ कोई ज्योतिषी नहीं हैं. लेकिन वो अपने देश की क्रिकेट के मिजाज़ और उसकी रणनीति को समझते हैं. आप भी जानते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में क्रिकेट भवना से नहीं, बुद्धि से खेली जाती है. इसीलिए उनके क्रिकेट में सौन्दर्य नहीं होता. आमतौर पर ऑस्ट्रेलियाई, क्रिकेट की अनिश्चितता को खत्म कर देते हैं. उनके यहां अकादमियों में क्रिकेट के हर पहलू पर शोध चलता रहता है. अभ्यास के लिए मशीनों और कम्प्यूटर्स का प्रयोग बहुतायत में होता है. खिलाड़ियों के उपयुक्त शारीरिक गठन के लिए शरीर विज्ञान का सहारा लिया जाता है. हर सीरीज के पहले विपक्षी टीम की क्षमताओं और कमजोंरियों का पूरा विश्लेषण कर लेते हैं.

            ऐसी ही तैयारी के साथ ऑस्ट्रेलियाई इस बार भी उतरे थे. स्टीव वॉ नें जब 0-4 से भारत के हारने की घोषणा पहले ही टेस्ट के बाद कर दी तो वो समझ गये थे कि भारतीय टीम ऑस्ट्रेलिया की पहली ही रणनीति में फंस चुकी है. इससे अगर इन्होंने किसी तरह से पार पा भी लिया तो प्लान-B और C  से  निकलना आसान नहीं होगा. सब जानतें हैं कि ऑस्ट्रेलिया की पिचें दुनिया की सबसे तेज़ पिचें हैं. हालांकि इंग्लैण्ड, अफ्रीका,न्यूजीलैंड,वेस्टइंडीज में भी एक जमाने में बहुत उछाल वाली पिच हुआ करती थीं, लेकिन अब इन पिचों का मिजाज़ बदल गया है. धीरे-धीरे ये पिचे धीमी होती गयीं. लेकिन ऑस्ट्रेलियाई प्रशासन ने अपनी पिचों का ख़याल रखा और उन्हें धीमा नहीं होने दिया. चार मैचों की सीरीज के शुरुआती तीन मैच मेलबर्न, सिडनी और पर्थ की तेज पिचों पर रखे गये. इन तीनों मे से पर्थ की पिच सर्वाधिक तेज़ है, जहां ऑस्ट्रेलिया से मुकाबला करना लगभग असंभव होता है. चौथा मैच एडिलेड की अपेक्षाकृत धीमी पिच पर हुआ. यह पिच उतनी ही धीमी है जितनी हमारे देश की सर्वाधिक तेज़ मोहाली की पिच. एडिलेड को ही माना जा रहा था कि यहां स्पिनरों को मदद मिलेगी. अगर ऐसा हो भी जाता तब भी पिछले तीन मैचों में ऑस्ट्रेलिया ने भारत की वापसी की सभी संभावनाएं खत्म कर दी थीं.

           भारतीय उपमहाद्वीप के बल्लेबाज फ्रंटफुट पर ज़ोरदार खेलते हैं, क्योंकि यहां कि पिचों पर उछाल ज्यादा नहीं होती और हवा में गेंद स्विंग भी कम करती है. स्विंग पाने के लिए हमारे गेंदबाज ज्यादातर गुड लेन्थ पर बॉल डालते हैं. ऐसी गेंदों पर फारवर्ड शॉट खेलना या डिफेन्स करना सुरक्षित होता है. इसीलिए हमारे सभी बल्लेबाज फारवर्ड शॉट या डिफेन्स में माहिर होते हैं. बैकफुट पर जाकर कट करने या डिफेन्स करने का उनका अभ्यास हो ही नहीं पाता. यह कमजोरी सचिन समेत हमारे सभी महान बल्लेबाजों में रही है. कुछ हद तक गुन्डप्पा विश्वनाथ,सुनील गावस्कर और राहुल द्रविड़ ही इस मिथ को तोड़ पाये हैं. इस सीरीज में द्रविड़ तो थे लेकिन बढ़ती उम्र ने उके पैरों की मूवमेन्ट को शायद इतना प्रभावित किया है कि वो भी असफल रहे. द्रविड़ आठ में से छः बार क्लीन बोल्ड आउट हुए. हर बार उनके बैट और पैड के बीच में एक ऐसी अवांछित दरार रह जाती थी, जिसने उन्हें अपमानजनक तरीके से सन्यास के बारे में सोचने के लिए विवश कर दिया.

            ऑस्ट्रेलिया के मौसम और पिचों में गेंद कम लम्बाई में भी पर्याप्त स्विंग हासिल कर लेती है, और उछाल तो रहती ही है. ऐसी गेंदों को खेलने के लिए ऐसे बल्लेबाज चाहिए जो बैकफुट पर जाकर कट,हुक और पुल शॉट खेल सकें. दुर्भाग्य से हमारे पास एक भी ऐसा बल्लेबाज नहीं था. जबकि ऑस्ट्रेलिया के दसवें और ग्यारहवें क्रम के बल्लेबाज भी ये शॉट आसानी से खेल लेते हैं...एक बात और ...इस पूरी सीरीज में कूकाबुरा गेंदों का इस्तेमाल हुआ. भारतीय उपमहाद्वीप में पूरी क्रिकेट एसजी गेंदों से खेली जाती है.कूकाबुरा गेंदें, एसजी के मुकाबले ज्यादा स्विंग होती हैं. इसका भी फर्क ज़रूर पड़ा होगा. यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों का फायदा हमारे तेज गेंदबाज क्यों नहीं उठा पाए ? पूरी सीरीज में हमारे तेज गेंदबाजों-उमेश यादव,जहीर खान,इशान्त शर्मा-ने शानदार गति प्राप्त की लेकिन सही लंबाई और दिशा उन्हें अंत तक नहीं मिल पाई. गुडलेन्थ पर गेंद डालने के अभ्यासी हमारे तेज गेंदबाज बड़े संकोच के साथ शॉर्टपिच गेंदें डालते थे. उनकी इस दुविधा का फायदा ऑस्ट्रेलिया के बल्लेबाजों ने उठाया और रन बरसाते रहे.

           इस दौरे के शुरू होने के पहले मैने एक आलेख में लिखा था कि अब सचिन,द्रविड़,लक्ष्मण के विकल्प खोज लिए जाने चाहिए. उस वक्त जबकि वेस्टइंडीज के साथ इन खिलाड़ियों ने जोरदार प्रदर्शन किया था, इनके विकल्पों की बात करना एक दुस्साहस ही था. मेरा मानना था कि हर मैच में इस त्रिमूर्ति के किसी एक बल्लेबाज को आराम देकर किसी नये खिलाड़ी को प्रत्यारोपित किया जाये. मेरे ज़हन में चार नाम थे—रोहित शर्मा,चेतेश्वर पुजारा,विराट कोहली और बद्रीनाथ. इन खिलाड़ियों के पास टेस्ट क्रिकेट लायक तकनीक और टेम्प्रामेन्ट है.लेकिन भारतीय टीम के थिंक टैंक ने लगातार इस त्रिमूर्ति को बनाए रखा और वे असफल होते रहे.

           यह असफलता विशेष रूप से कोच और कप्तान की असफलता है. विपक्षी टीम की रणनीति का तोड़ ढूँढ़ना कोच और कप्तान का काम होता है. हारना तो खेल का एक हिस्सा है, लेकिन हमारी टीम ने ऑस्ट्रेलिया का मुकाबला ही नहीं किया.जब हम लगातार हार रहे थे तो टीम ने अपने तौर-तरीके में कोई बदलाव नहीं किया. न हमने खिलाड़ियों का संयोजन बदला न ही खिलाड़ी बदले. पूरी सीरीज में हमारे खिलाड़ी एक ही जगह पर एक ही तरीके से पस्त होते रहे. धोनी की कप्तानी की जो शैली अभी तक कामयाब होती आई थी वही उनकी नाकामयाबी का कारण बनी. धोनी शान्त चित्त रहकर चीजों के अपने पक्ष में घटित होने की प्रतीक्षा करते हैं. पर कंगारुओं नें ऐसा नहीं होने दिया. टीम लगातार चार मैच हार गयी और एक भी खिलाड़ी बदला नहीं गया. कोच डंकन फ्लेचर का कहीं अता-पता नहीं था. टीम में गुटबाजी की खबरें भी आती रहीं. संभव है कि ऑस्टेलिया से लौटने पर टीम में कुछ बदलाव हों. उम्मीद की जानी चाहिए कि ये बदलाव भारतीय क्रिकेट के भविष्य को बेहतर बनायेंगे. 

Saturday 28 January 2012

जादुई यथार्थ...!


  आज पीलार तर्नेरा की याद आई तो Marquez का उपन्यास One Hundred Years of Solitude निकाला.....हिन्दी मे इसका तर्जुमा सोन्या सुरभि गुप्ता ने किया है---एकान्त के सौ बरस---नाम से.......स्पेनिश में यह उपन्यास 1967 में छपा था.अब तक इसकी 2 करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं.......दरअसल हमारे देश में इसी उपन्यास के बाद जादुई यथार्थवाद के नारे लगने शुरू हुए थे........यह बुएन्दीया परिवार की सात पीढ़ियों की दास्तान है.....दक्षिण अमेरिका के कोलंबिया देश में, माकोन्दो नदी के किनारे, बुएन्दीया परिवार के पितामह -खोसे अर्कादियो बुएन्दीया ने माकोन्दो शहर बसाया था......उपन्यास में ऐसी कथाएँ हैं कि जैसे कोई जादू का खेल हो......पीलार की बात मैं अभी नहीं करूँगा.......पर आप सबने हमारे पुराणों की कथा सुनी-पढ़ी है......तीन-चार हज़ार वर्ष पहले ये कथाएँ लिखी कही गयी थीं......इन कथाओं के जादुई यथार्थ पर हमने कभी बात नहीं की...क्यों..????

Thursday 19 January 2012

अब बारी लेखक-कलाकारों की है !


  न्यूज़ पोर्टल मोहल्ला लाइव पर अरविन्द गौड़ के हवाले से एक खबर थी कि मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच ने एक स्थानीय वकील की शिकायत पर कानपुर के युवा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की वेबसाइट ‘कार्टून अगेंस्ट करप्शन डॉट कॉम’ पर प्रतिबंध लगा दिया है। असीम पर आरोप है कि उन्होंने अपने कार्टूनों के जरिये देश की भावनाओं को ठेस पहुंचायी है। असीम एक कलाकार हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लडने का अपना तरीका है.किसी भीड़ का हिस्सा बने विना वो एक रचनात्मक प्रतिरोध कर रहे है. वे भ्रष्टाचार पर तीखी और सीधी चोट करते हैं। जिन्होने असीम के कार्टून देखे हैं, वे जानते हैं कि इन चित्रों में किसी का मजाक नहीं बल्कि आम आदमी की भावनाओं की, गुस्से की वास्तविक अभिव्यक्ति है। अरविन्द लिखते हैं कि " यह सिर्फ कार्टूनिस्ट पर प्रतिबंध लगाना नहीं बल्कि मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सुनियोजित तरीके से नियंत्रण की शुरुआत है।" हाल के समय में सरकार के कुछ ज़िम्मेदार मंत्री अपनी मंशा सार्वजनिक कर चुके हैं कि सोशल मीडिया पर लगाम की ज़रूरत है.
         दरअसल भ्रष्टाचार की अभी तक की मुहिम में देश का बुद्धिजीवी वर्ग खुलकर सामने नहीं आया था.बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि बौद्धिक वर्ग का रवैया कुछ-कुछ नकारात्मक रहा है. इसकी वज़ह शायद अन्ना और उनकी टीम का बेतुकापन हो.अन्ना, रामदेव और उनके साथियों की हर हरकत और बयान को बौद्धिक समाज अपनी कसौटी पर कसता रहा. लेकिन यकीन मानिए कि बुद्धिजीवी यह कतई नहीं चाहते थे कि यह आन्दोलन अकाल मृत्यु को प्राप्त हो.इस बात की संभावना प्रबल है और अवसर भी है, कि आगे आन्दोलन की कमान देश के लेखक-कलाकार अपने हाथ में ले लें. राजनीतिक दल और सरकार सतर्क दिखती है.
         आप देख ही रहे होंगे कि पूरे देश में जितनी भी अकादमियां और कला-संस्थान हैं, उनमें सरकार ने अपने पक्षधर और बहुत औसत किस् के लोगों को बैठा रखा है. फिर ये संस्थाएँ चाहे केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की.यह सब बहुत सुनियोजित तरीके से हुआ है. सरकार इन्हीं लोगों को पुरस्कृत भी करती रहती है. ये मठाधीश आपस में भी एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करते रहते हैं. इस रणनीति से सरकार ने बौद्धिक वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की मेधा को पहले ही नियंत्रित कर रखा है. जो कुछ लोग सरकार की कृपा से महरूम हैं या कुछ जो अपनी क्षमताओं को सरकार का गुलाम नहीं बनाना चाहते, उन पर सरकार इस तरह के हमले करने लगी है.
         अपने देश के लिए यह अपेक्षाकृत नयी बात है. और ज़ाहिर है ख़तरनाक भी.मुस्लिम देशों और यूरोप-अमेरिका महाद्वीप के कुछ देशों में लेखक-कलाकारों पर प्रतिबन्ध के समाचार जब हम सुनते थे तो आश्चर्य तो होता था, पर इसकी गम्भीरता और छटपटाहट को महसूस नहीं कर पाते थे.लेकिन कुछ वर्षों में अपने देश में पनप रही इस प्रवृत्ति की चोट अब दर्द बन कर उभरने लगी है.
          एक वाकया मैं आपको म.प्र. का बताता हूं. म.प्र. की साहित्य अकादमी पिछले कई वर्षों से प्रदेश के लगभग सभी शहरों में पाठक मंच चलाती है. उस शहर के किसी उर्जावान साहित्यकर्मी को संयोजक बना दिया जाता है.अकादमी अपनी ओर से 10-12 किताबें चुनकर सभी केन्द्रों में भिजवाती है.शहर के साहित्य प्रेमियों को ये किताबें पढ़ने को दी जाती हैं. हर महीने एक किताब पर सब लोग चर्चा करते हैं. इस चर्चा की समेकित रपट अकादमी के पास भेजी जाती है. दिखने में यह योजना बहुत शानदार लगती है. पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने की ऐसी योजना शायद किसी और प्रदेश में नहीं है.
          लेकिन यहाँ भी सरकार के अपने छल-छद्म हैं. तीन साल पहले तक रीवा-पाठक मंच का संयोजक मैं था.तीन साल पहले अमरकंटक में पाठक मंच संयोजकों का वार्षिक सम्मेलन हुआ. वार्षिक सम्मेलन में प्रदेश-देश के ख्यात साहित्यकारों-विचारकों को बुलाकर विचार-विमर्श की परंपरा है. विडम्बना ये है कि सरकार बदलती है तो विचारक भी बदल जाते हैं और अकादमी का संचालक भी. म.प्र.में भाजपा की सरकार पिछले आठ वर्षों से है. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सम्मेलन में विशेषज्ञ के रूप में किन लोगों को बुलाया गया होगा. इस सम्मेलन के दौरान कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने खुलेआम अकादमी संचालक को सलाह दी कि पाठक मंच के ऐसे संयोजकों को तत्काल हटाया जाय जो प्रगतिशील हैं. और नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों के अन्दर मेरे साथ ही कई संयोजक बदल दिए गये. कुछ पाला बदल कर बच गये. कहीं कोई शोर गुल नहीं हुआ.
            सरकारों का चरित्र अब कुछ ऐसा हो गया है कि किसी भी आवाज. का उन पर अब कोई असर भी नहीं होता. आपको याद ही होगा केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति का कितना विरोध किया था देश भर के साहित्यकारों ने. क्या फर्क पड़ा  ? लेखक-कलाकारों की आवाज़ सुनने की अब आदत ही नहीं रही सरकार को.
       अरविन्द के साथ ही हम सब रचनाकर्मियो का सवाल है कि आखिर कोई किस आधार पर किसी वेबसाइट, लेख, नाटक, पेंटिंग या किताब पर प्रतिबंध लगा सकता है? सच कहना क्या कोई अपराध है? हमारे नेता या सरकार इतने कमजोर या डरपोक क्‍यों है? वे असलियत से क्‍यों डरते है? हमारे बोलने की, लिखने की, कहने की आजादी पर रोक क्‍यों लगाना चाहते है? ये केवल अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं है, ये केवल लोकतांत्रिक हकों का हनन भर भी नहीं है, बल्कि ये एक चुनोती है, असल में ये हमारे संवैधानिक अधिकारो पर सीधा हमला है।
       असीम का आरोप है कि वेबसाइट को बैन करने की भी मुंबई पुलिस ने कोई जानकारी उन्हे नहीं दी। वेबसाइट की प्रोवाइडर कंपनी बिगरॉक्स डॉट कॉम ने एक मेल द्वारा असीम को साइट बंद करने की सूचना दी। जब बिगरॉक्स कंपनी से बात हुई, तो उन्‍होंने असीम को मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच से संपर्क करने को कहा। क्राइम ब्रांच में कोई बताने वाला नहीं कि वेबसाइट को बैन क्‍यों किया गया? या साइबर एक्ट की किन धाराओं में केस दर्ज किया गया है? अब पता चला है कि महाराष्ट्र के बीड़ जिला अदालत ने स्थानीय पुलिस को असीम पर राष्ट्रद्रोह का केस दर्ज करने का आदेश भी दे दिया है। ये और भी शर्मनाक हरकत है।
       आरोप है कि उनके कार्टूनो में संविधान और संसद का मजाक उड़ाया गया है। पर सवाल ये भी है कि जब सांसद संसद में हंगामा करते हैं, खुलेआम नोट लहराते हैं, लोकपाल बिल फाड़ते हैं, चुटकुलेबाजी करते हैं, तब क्या वे संसद का मजाक नहीं उड़ाते? देश की जनता का अपमान नहीं करते?
         दरअसल हमारे लेखक-कलाकार भी इतने   खेमों में बटे हैं कि हम असीम को बहुत भरोसे के साथ आश्वस्त भी नहीं कर सकते.हमने इस देश के बौद्धिकों को कोई बड़ी लड़ाई लड़ते कभी देखा ही नहीं है. पर इस बिनाह पर हम उम्मीद नहीं छोड़ सकते. यह सवाल हमारी पहचान और सुरक्षा का भी है.

Monday 16 January 2012

कविता : तुमसे मिलने के बाद


कई बार माँ की गोद में सिर रखा  
बहुत दिनों के बाद
एकदम शिशु हो गया.
मित्र से लिपटकर खूब चूमा उसे
वह एकदम हक्का बक्का.

कई बार पकड़े गये हजरत
बिना बात मुस्कुराते हुए.

लौकी की सब्जी भी 
इतने स्वाद से खायी
कि जैसे छप्पन भोगों का रस
इसी कमबख्त में उतर आया हो.
आज खूब सम्भल कर चलाई स्कूटर.

जीवन से यह एक नये सिरे से मोह था.

कुछ चटक रंग
मेरी ही आँखों के सामने
मेरे पसंदीदा रंगों को बेदखल कर गये.

एकाएक जीवन की लय
विलम्बित से द्रुत में आ गई
एक शाश्वत राग को 
मैं नयी बन्दिश में गाने लगा.

भीषण गर्मी में भी 
कई बार काँप गया शरीर
अप्रैल के अंत की पूरी धूप
एकाएक जमकर बर्फ बन गई.

शर्म से पानी-पानी होकर
सूरज ने ओढ़ लिया शाम का बुर्का.

रात एक स्लेट की तरह थी मेरे सामने
जिस पर सीखनी थी मुझे
एक नई भाषा की वर्णमाला.

मैं एक अक्षर लिखता
और आसमान में एक तारा निकल आता
फिर धीरे धीरे
पूरा आसमान तारों से भर जाता.

तीन अक्षरों का तुम्हारा नाम पढ़ने में
पूरी रात तुतलाता रहा मैं ।

                            - विमलेन्दु

Tuesday 10 January 2012

अन्ना के आगे क्या है..?


  अनेक आशंकाओं के बीच वर्ष 2012 में भारत के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना यह हो सकती है कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो मानस तैयार हुआ है देश में, उसका कोई खेवनहार न मिले और वह मझधार मे ही डूब जाये. पिछले कुछ महीनों में अन्ना हजारे और उनकी टीम की विश्वसनीयता जिस तरह से क्षतिग्रस्त हुई है, उसके ठीक होने के कोई आसार नहीं दिखते. अन्ना भी थके हुए से दिख रहे हैं, और पराजय की हताशा उनके चेहरे और बयानों में साफ देखी जा सकती है.

                भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना ने जब पहल की तब उन्हें भी यह आभास न रहा होगा कि उनके समर्थन में देश भर से इतनी आवाज़ें साथ हो लेंगी. उनके सहयोगियों और देश की जनता ने उन्हें दूसरा गांधी कहना शुरू कर दिया. मुझे लगता है कि गांधी की उपाधि, अन्ना और आन्दोलन के लिए ख़तरनाक साबित हुई. अन्ना गांधी नहीं थे और न हो सकते हैं. ठीक वैसे ही,भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ यह आन्दोलन, आज़ादी के आन्दोलन से बहुत अलग है. आज़ादी की लड़ाई में हमारा दुश्मन स्पष्ट था और हमसे अलग था. अँग्रेज सरकार के अत्याचार और हमारी गरीबी इतनी बढ़ गई थी कि उन्हें भगाने के अलावा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था.

                 लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो आन्दोलन शुरू हुआ उसके अपने अंतर्विरोध हैं. सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस लड़ाई में हमें अपने आप से ही लड़ना है. दुश्मन हमारे भीतर और हमारी बिरादरी का ही है. खुद के ख़िलाफ़ लड़ना शायद दुनिया की सबसे कठिन लड़ाई होती है. खुद को जीतना सभी लड़ाइयों का अंत भी होता है. एक लहर और उन्माद में जो लोग अन्ना की मुहिम  में शामिल हो गये , भ्रष्टाचार उन्हीं सबके बीच फलता-फूलता है. तम्बू गाड़कर और अन्ना टोपी लगाकर नारे लगाते जिन लोगों को आपने देखा है, उनमें अपराधी, चोर, घूँसखोर, दलाल आदि अवश्य दिखे होंगे. अब आप सोचिए इनकी आवाज़ और नारों का क्या अर्थ रह जाता है.

                  एक बहुत बड़ा फर्क यह है कि आज़ादी के आन्दोलन का कोई राजनीतिक विरोध नहीं था. राजनीतिक दल आन्दोलन के साथ थे, भले ही नेतृत्व काँग्रेस के हाथ में था. लेकिन अन्ना के आन्दोलन में भारत का पूरा राजनीतिक तंत्र ही विपक्ष में है. भ्रष्टाचार के विरोध से शुरू हुआ आन्दोलन, आज पूरी तरह से राजनीतिक व्यवस्था के विरोध का आन्दोलन बन गया है. यद्यपि यह प्रबल जन भावना है कि भ्रष्टाचार का केन्द्र राजनीति ही है, जिसे अभी तक किसी रिक्टर पैमाने पर नापा नहीं जा सका है. सीधे राजनीति से मुकाबिल आ जाना ही अन्ना और उनकी टीम के लिए विनाशकारी साबित हुआ.

                 और फिर भारतीय राजनीति ने अपना कमाल दिखाया. उसने अन्ना को सत्तारूढ़ काँग्रेस का विरोधी दिखा दिया और भाजपा-संघ को अन्ना का समर्थक. अन्ना ये दोनों ही स्थितियां न चाहते रहे होंगे. लेकिन वो राजनीति के जाल में फँस गये. अन्ना के साथ जुटी भीड़ को देख कर विपक्षी दलों का लालच समझना आसान है. भाजपा ने हर संभव कोशिश की कि अन्ना का आन्दोलन अपहरित हो जाये. लेकिन लोकपाल के मुद्दे पर वो देश की जनता के साथ विश्वसनीयता और मजबूती से नहीं खड़ी हो सकी. दरअसल कोई भी राजनीतिक दल अपने गिरेबान में न खुद झाँकना चाहता था न जनता को झाँकने देना चाहता था.

                  अन्ना के साथ भाजपा-संघ के होने को , सत्तापक्ष ने इस तरह से प्रचारित किया जैसे यह कोई बहुत बड़ा अपराध हो. सत्तापक्ष की कोशिश थी कि अन्ना के आन्दोलन को साम्प्रदायिक रंग दिया जा सके. उनकी यह कामयाब रणनीति है. वो विपक्ष की किसी भी कोशिश को साम्प्रदायिक बताकर पहले भी निष्फल करते आए है. यद्यपि अन्ना राजनीति के माहिर नहीं हैं, पर सत्तापक्ष की इस चाल को वो शुरू से ही समझ रहे थे. इसीलिए उन्होने भाजपा-संघ से एक उचित दूरी हमेशा बनाए रखी.

                  विपक्षी दलों की बड़ी हास्यास्पद स्थिति थी. वो बाहरी तौर पर तो भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकना चाहते थे लेकिन सत्तापक्ष की ही तरह अपने गले में घंटी बंधवाने से बचते भी रहे.संसद में जब लोकपाल विधेयक पर उठापटक शुरू हुई तो सबकी लुंगियां उठ गईँ, और पूरे देश ने देखा कि कितने नर हैं और कितने मादा. भारत के संसदीय इतिहास में नौवीं बार लोकपाल विधेयक लाया गया था, और उसका हश्र लगभग एक जैसा ही रहा. सारे दिखावों के बावजूद चूँकि लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट काँग्रेस के मुताबिक ही हुआ, इसलिए बाकी लोगों में असंतोष पैदा हुआ. संसद में जब पक्ष-विपक्ष लड़ रहे थे तो अन्ना और देश की जनता लाचार नज़रों से यह तमाशा देख रही थी.

                  और फिर अन्ना गांधी भी तो नहीं हैं. हालांकि मुझे संदेह है कि गांधी भी आज इस आन्दोलन का नेतृत्व करते तो स्थितियां कुछ अलग न होतीं. गांधी जी जब भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़े तो वो अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ईज़ाद कर चुके थे. दक्षिण अफ्रीका उनकी प्रयोगशाला थी. सफलता और असफलता को कैसे पचाना है, इसका अभ्यास वे दक्षिण अफ्रीका  में ही कर चुके थे. अपमान को सहेजना और उचित समय पर उसका आयुध के रूप में प्रयोग करना गांधी जी बखूबी जानते थे. गांधी जी के आत्मबल का कायल पूरा विश्व था. गांधी जब आये तो अपना एक समृद्ध दर्शन लेकर आये. उनका वैचारिक आधार अत्यन्त सुदृढ़ था.

                  लेकिन अन्ना के पास न तो उतना धैर्य है, न आत्मबल और न कोई वैचारिक दर्शन. विधि और संसदीय प्रकृयाओं की उनकी जानकारी भी कम ही लगती है. इसीलिए वो अपनी टीम पर बहुत ज़्यादा निर्भर रहते हैं. इन दिनों तो ऐसा दिखने लगा है कि जैसे वो अपने साथियों के हाथों खेल रहे हैं. उनके सहयोगियों के सरकार के साथ संबन्ध पहले से ही कटु रहे हैं. इस कटुता को आन्दोलन के परदे में भुनाने की कोशिशें भी दिखती हैं. अन्ना अगर गांधी होते तो यह कभी न कहते कि संसद में बैठे हुए सब चोर हैं, या कि लोकपाल को राहुल गांधी के इशारे पर कमज़ोर किया जा रहा है. गांधी काँग्रेस को हराने के लिए प्रचार करने का भी निर्णय न लेते.

Tuesday 3 January 2012

न गुल खिले, न तुमसे मिले, न मय पी है...!



   कुछ इसी अंदाज़ में पुराना साल गया और नया आ गया. न पुराने के जाने का कोई ग़म, न नये के आने की कोई उत्सुकता. जश्न के अनेक रंग-ढंग बिखरे थे पर लुभा नहीं पायें. ये कैफ़ियत कोई आज की  नहीं है, कई सालों से साल ऐसे ही आते जातेहैं. अब न तो वो लोग आस पास हैं जिनमें मन रमता था, न तौर-तरीके. लोगों की ज़बान पर एक मशीनी हैप्पी न्यू इयर था और उत्सव के नाम पर डीजे के शोर में नाच और शराबखोरी. हमें भी इन्हीं के बीच अपने उत्सव और उमंग को खोजना था.
      तो हमने अपनी उमंग अपनी रजाई और  कविता में खोजी. रजाई की तरफ ठंड ने प्रेरित किया तो दिन भर सहकर्मियों-साथियों से चली चर्चा ने कविता के लिए. नया साल शुरू होने के हफ्ता भर पहले से लोग उत्साहित थे. चेहरे पर एक बेदम सी चमक उठती थी नये साल के ज़िक्र के साथ और फिर कहीं गुम हो जाती थी. मुझे लगता कि  किसीके पासकोई योजना नहीं है. हर कोई दूसरे से पूछ रहा था कि पार्टी की तैयारी कैसी है ! जब उनसे पूछा जाता तो यही जवाब ता कि अरे भाई, हम तो कहीं आते-जाते नहीं, बस एक जनवरी को हनुमान जी का दर्शन कर आते हैं.
      उत्सव मनाना भी एक कला है, जो सबके पास नहीं होती. कुछ लोग उत्सवों के आयोजन में पारंगत होते हैं, तो उत्सव में शामिल होकर अपनी भूमिका की तलाश करना भी एक कला है. कुछ ही वर्ष पहले कि बात है, जब हमारा मित्र-समूह उत्सवों के एक से एक नायाब युक्तियों से लैस होता था. हमारे समूह में रंगकर्मी, कवि, गायक, चित्रकार थे. कुछ ऐसे लोग भी थे जिनके पास इनमें से कोई हुनर नहीं था. ये लोग वित्तीय व्यवस्था और विघ्नसंतोषियों से निपटने का काम देखते थे. इस मित्र-मंडली के साथ किसी भी आम मौके पर खास महफिल सजा लेना बड़ा सहज था. छोटा मोटा ड्रामा तैयार कर लिया जात, कविता पोस्टर, ग्रीटिन्ग कार्ड्स वगैरह हाथ से तैयार कर लिए जाते. ग़ज़लों और लोकगीतों की महफिल सज जाती. घर की महिलाएँ और प्रशंसिकाएँ खाने-पीने का इंतजाम कर ही देतीं. धीरे-धीरे समय बदलता गया. रोजी-रोटी के चक्कर में मित्र दूसरे शहरों में बस गये तो समूह टूट गया. फिर जब से उत्सवों को मनाने का जिम्मा टीवी चैनलों,होटलों और ट्रैवल एजेंसियों ने ले लिया तो हम जैसे लोग अप्रासंगिक होते गये. सच पूछिए तो उत्सवों के इन उत्तर आधुनिक तौर तरीकों को हम वितृष्णा से देखते हैं.
      अप्रत्याशित ढंग से शहर में इस बार होटलों, रेस्तराओं, विवाहघरों में होने वाले कार्यक्रम नदारत थे. इस बार नव वर्ष के ज़्यादातर कार्यक्रम मंदिरों में आयोजित हुए. कहीं अखण्ड मानस, कहीं भण्डारा. यह शायद माया कलेण्डर की भविष्यवाणी का असर रहा होगा. माया कलेण्डर के मुताबिक दुनिया के प्रलय की तारीख निकली है 21 दिसंबर 2012 . हमारे देश की जनता का जैसा मानस है, उसे देखते हुए यह कहना अविश्वसनीय नहीं होगा कि प्रलय का का भय लोगों के मन में कहीं न कहीं होगा ज़रूर. इसीलिए लोग शराबखानों से ज़्यादा मंदिरों की ओर गये. टुटपुजिए ज्योतिषियों की बहार थी. हर कोई दूसरों का भविष्य बांच रहा था. प्रणय, दाम्पत्य, नौकरी-पेशा से लेकर खेती-बाड़ी तक का भविष्यफल छप रहा था.जितने अखबार-चैनल-ज्योतिषी, उतनी तरह की भविष्यवाणियां. एक ज्योतिषी जिसे राजा बना रहा था, दूसरा उसे रंक बनाने पर आमादा था.
      इन्हीं कौतुकों के बीच पुराना साल जा रहा था, तभी गाँव से राजबली आ गया. राजबली कोई नामचीन आदमी नहीं है. वह हमारी बड़ी मौसी के गाँव का है. उनके यहाँ किसानी का काम-काज देखता है. पर है अद्भुत आदमी. हम लोगों के यहां का कोई आयोजन राजबली के बिना पूरा नहीं हो सकता. नौजवान है और गज़ब का मेहनती. भूत की तरह काम करता है. एक तरफ दस आदमी लगा दीजिए और दूसरी तरफ राजबली को. राजबली भारी पड़ेगा. पढ़ा-लिखा नहीं है, पर लढ़ा बहुत है. कोई भी काम सौंपिए, ऐसी तरतीब से करता है कि देखने वाले दंग रह जायें.
        राजबली आया तो घर में सर्वसम्मति से तय किया गया कि पुराने साल की विदाई और नये साल के स्वागत में आलू-बैगन-टमाटर का भरता और हाथ की पोई रोटी खाई जाये. राजबली इस देसी हुनर के उस्ताद थे.बाकी सामग्री तो थी ही, धनिया की पत्ती और अदरक खत्म थी तो मगा ली गई. घर में लगे पेड़ों से निकली सूखी लकड़ी इकट्ठी की गई और सहेजकर रखे गए उपले निकाले गये. घर के बाहर पेड़ों के नीचे ईटों को जोड़कर राजबली ने चूल्हा बनाया. लकड़ी उपले लगाकर आग बनाई. गोल वाले बैगनों में लहसुन और हींग खोंसकर भूना गया. साथ में आलू और टमाटर भी.आटे में आजवाइन और थोड़ा बेसन मिलाकर रोटी को ज़रा अलग रंग और स्वाद देने की कवायद की गई. इस पूरी प्रक्रिया में राजबली का केवल एक सहयोगी था—शहज़ादा खुर्रम उर्फ ढाई वर्षीय नन्दन. इन हजरत की फितरत है कि ये किसी काम में जब तक हाथ न बटायें, इन्हें चैन नहीं मिलता. लगभग दो घंटे की मेहनत के बाद भरता-रोटी तैयार हुआ. राजबली गरम-गरम रोटियां सेंक कर दे रहा था और हम लोग पुराने साल की विदाई कर रहे थे.
       पहली जनवरी को मेरी वर्षों पुरानी एक साध पूरी होते-होते रह गई. मेरे मन में एक दुर्निवार इच्छा जमी बैठी है कि मैं काले रंग का एक देसी कुत्ता पालूँ. साल के पहले दिन भोर से ही झमाझम बारिश हो रही थी जो रात तक चलती रही. शाम को बारिश थोड़ा कम हुई तो हवा-पानी के लिए चौराहे की तरफ निकले. लेकिन बारिश फिर तेज़ हो गई, तो PWD ऑफिस के शेड के नीचे छुपना पड़ा. उसी शेड के एक कोने में पानी में भीगा हुआ काले रंग का एक पिल्ला दुबका हुआ था. ठंड से ठिठुरते हुए पिल्ले को देखकर दया भी उपजी और आँखों में चमक भी. एक-डेढ़ घंटे तक, जब तक पानी बरसता रहा मैं उसके साथ खेलता-बतियाता रहा. पानी रुकने पर मैने पिल्ले को एक पॉलीथिन पैकेट में डाला और घर लेकर आ गया.
       आशंका के विपरीत घर में पिल्ले का ज़ोरदार स्वागत हुआ. ठंड से बचाने के लिए उसके शरीर पर कपड़े लपेटे गए. तुरन्त दूध और  बिस्किट दिया गया. नन्दन ने उसे पढ़ाने का जिम्मा उठाते हुए झटपट क्लास भी शुरू कर दी. A से D तक जितना उसे आता था, पिल्ले को पढ़ा दिया. पिल्ले के आराम का इंतज़ाम पोर्च से लगी गैलरी में किया गया. लेकिन दस मिनट में ही उसने चिल्लाना शुरू कर दिया. तब मैने उसका बिस्तर अपने कमरे में लगवा दिया. उसके बाद पूरी रात मेरी वो दुर्गति हुई कि कुछ पूछिए मत. हर पन्द्रह मिनट में पिल्ला ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता. बार-बार भाग कर माताजी के कमरे के पास जाकर रोने लगता. अम्मा का व्लडप्रेशर तीन-चार दिनों से बिगड़ा हुआ था.उनकी नींद में खलल बहुत महगा पड़ता. इसी तरह पूरी रात मैं उसे पकड़-पकड़ कर चुप कराता रहा, और वह मुझे पराजित करता रहा. सुबह मैने नन्दन की नज़रें बचाकर उसी पॉलीथिन पैकेट में उसे फिर से डाला र उसी ज़गह पर ले जाकर छोड़ दिया जहां से उठाया था.
         इस तरह एक नन्हीं सी इच्छा के लिए प्रतीक्षा की फिर उसी राह पर आ गये. इस तरह की न जाने कितनी छोटी-छोटी हसरतें होती हैं हमारी, जिनके लिए समय के साथ हमारी होड़ चलती रहती है. और हाँ, ज्योतिषियों ने जिन तीन राशियों के लिए यह साल अशुभ बताया है, उन्हीं में से एक मेरी भी है.