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Wednesday 29 January 2014

मैं डरता हूँ/अफ़ज़ाल अहमद

मशहूर पाकिस्तानी शायर अफ़ज़ाल अहमद सैय्यद की एक बेहतरीन कविता ।
कवि चीज़ों को उनके खुरदुरेपन और उनकी पूरी तल्ख़ी में देखना चाहता है । यथार्थ को रूमानियत का परदा ओढ़ा देना उसे मंज़ूर नहीं । वह ख़ुदा को भी ज़मीन पर देखना चाहता है और माशूक को भी । दरअसल वह डर नहीं रहा है
; हकीक़त को खुशनुमा दिखाने की राजनीति का प्रतिरोध कर रहा है ।
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मैं डरता हूँ
अपनी पास की चीज़ों को
छूकर शायरी बना देने से

रोटी को मैने छुआ
और भूख शायरी बन गयी
उंगली चाकू से कट गयी
खून शायरी बन गया
गिलास हाथ से गिर कर टूट गया
और बहुत सी नज़्में बन गयीं

मैं डरता हूँ
अपने से थोड़ी दूर की चीज़ों को
देखकर शायरी बना देने से
दरख्त को मैने देखा
और छाँव शायरी बन गयी
छत से मैने झाँका
और सीढ़ियाँ शायरी बन गयीं

इबादतखाने पर मैने निगाह डाली
और ख़ुदा शायरी बन गया
मैं डरता हूँ 
अपने से दूर की चीज़ों को सोचकर 
शायरी बना देने से


मैं डरता हूँ
तुम्हें सोचकर
देखकर
छूकर शायरी बना देने से ।


Wednesday 15 January 2014

क्या करें कि न करें !

चार्ल्स डार्विन ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसी महत्वपूर्ण बात कही है, जो आज भारत के तथाकथित राजनीतिक बदलाव के संदर्भ में सामयिक ठहरती है । 

डार्विन कहते हैं--" मुझे इसमें संदेह है कि मानवता किसी व्यक्ति की प्राकृतिक अथवा अपनी आंतरिक विशेषता होती है ।"

स्पष्ट तौर पर डार्विन कहना चाहते हैं कि हम मानवता नामक गुण को अपनी ज़रूरत और परिस्थिति के मुताबिक धारण करते हैं । ज़रूरत के मुताबिक ही यह गुण हमारे भीतर स्थायी बन सकता है और इसका विस्तार अपने से आगे परिवार,समाज,देश और दुनिया के लिए हो सकता है।

अब इस अवधारणा की रौशनी में 'आप' की मानवतावादी राजनीति को देखिए । 'आप' की टीम के सदस्यों के बारे में क्या यह दावे के साथ कोई कह सकता है कि अपने 'अंतस' में वे सब इतने ही ईमानदार और मानवतावादी होंगे ? और पार्टी की सदस्यता लेने वाले देश के लाखों लोगों के बारे में तो ऐसा सोचना भी अपनी मूढ़ता सिद्ध करना होगा । अपने आस-पास के 'आप' कार्यकर्ताओं को देखकर हम इसकी पुष्टि कर सकते हैं ।

निश्चित तौर पर देश की राजनीति की आत्मा और शरीर, दोनो को बदलने की ज़रूरत है। और केजरीवाल ने अपनी टीम के साथ इस बड़े काम के लिए 'ईमानदारी' और 'मानवता' को धारण किया है। इस बड़े विज़न को हम नागरिक अगर देख पा रहे हों, तो हमें 'टीम केजरीवाल' के इन अर्जित गुणों को स्वीकृति और सहयोग देना चाहिए। इस समय इनकी निजी और पिछली ज़िन्दगी पर सवाल खड़े करना उसी राजनीति को मजबूत करेगा, जिससे हम छुटकारा पाना चाहते हैं।

Friday 10 January 2014

पर्यटक

इनके लिए दर्शनीय है वो जगह
उनकी ज़िन्दगी जहाँ जमी जा रही है ।

उनके ठहराव में ही
इनकी गति है
लक्ष्मी चपल हो जाती है इनकी
जब उनकी धमनियों में
खून जमने लगता है
जड़ें पत्तियों तक
नहीं पहुँचा पातीं जीवन
पक्षियों की उड़ान
एक जुम्बिश तक के लिए
हो जाती है मोहताज

तब ये निकलते हैं पर्यटन पर ।

जमी हुई झील में फँसी नाव
और आँखों में जमी बूँद की
तस्वीर खींचते हुए
अपने आलिंगन को
सार्वजनिक करके
प्रमाणित करते हैं मोहक दाम्पत्य ।

ये धरती पर स्वर्ग खोजने निकलते हैं ।

गठिया वात में जकड़े


माँ बाप को
पड़ोसियों के भरोसे छोड़कर
जाते हुए
फर वाला कोट
और पशमीने की शॉल
लाने का वादा दुहराते हैं
तो बूढ़ी आँखों में आ जाती है
एक उदास चमक
और बेजान पैरों में
अचानक होती है
एक लाचार सी हरकत ।

अपना अपना खयाल रखने की
ताकीद के साथ
चार हथेलियां लहराती हैं
और दो जोड़ी
आँखों के मोतियाबिन्द
इन्हें विदा करते हैं
पर्यटन के लिए
एक और उजाड़ पर ।

Thursday 2 January 2014

मैं कुछ कम रह जाना चाहता हूँ !

काल के अनिश्चय से
कुछ निश्चित को पा लेने की 
हमारी आदिम ज़िद
अक्सर प्रार्थना की तरह फूटती है
हमारी समूची शौर्यगाथा के
नेपथ्य से ।

अभी अभी जो जन्मा है
एक नया साल
उसकी हँसी में झड़ते हैं
हमारी विजय के फूल
और उसके अयाचित रुदन में
मनुष्य की चूकों के गीत हैं ।

इन चूकों का
मैं एक आत्म-समर्पित मुजरिम
ढूढ़ना चाहता हूँ
उन गौरैय्यों को
जिनको आँगन से विदा लेते
देखा भी नहीं किसी ने ।

अंतरिक्ष के
किसी गोपन अवकाश में
मैं छुपा देना चाहता हूँ
अपने समय के विश्वसनीय शब्दों को ।

मुझे प्रेम करने वाली स्त्री को
मैं उस वक्त देना चाहता हूँ
एक चुम्बन
जब प्रेम-द्रोह की
सज़ा तामील करने से पहले
मेरी अंतिम इच्छा पूछी जायेगी ।

मैं कुछ झूठ सीखना चाहता हूँ
जिन्हें सच की तरह बोल सकूँ
उन लम्हों में
जब एक बच्चा
मुझे लाचार और निरुत्तर छोड़ देता है ।
उस नौजवान दोस्त से
जो तीन बार जान देने की
कोशिश कर चुका है ।
उस आग से
जो तब्दील होती जा रही है राख में ।

देखता हूँ
साल दर साल
समुद्र में बची रहती है थोड़ी प्यास
अनगिन नक्षत्र है
उसके बाद भी
सबके लिए थोड़ा खाली है आकाश 
जिस्म से निकलने के बाद
खून में बची रहती है थोड़ी हरारत
हवा कितना चलती है
फिर भी कम रह जाती है कुछ दूरी ।

नये साल में भी
मैं कुछ कम रह जाना चाहता हूँ ।।