tag:blogger.com,1999:blog-2612435470156659542024-02-18T22:43:22.150-08:00उत्तम पुरुषतट पर हूँ,पर तटस्थ नहीं..!Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.comBlogger197125tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-11078619564283381862017-06-10T03:22:00.002-07:002017-06-10T03:28:02.459-07:00किसने बोला राजा नंगा है !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="border-bottom: solid windowtext 1.0pt; border: none; mso-border-bottom-alt: solid windowtext .75pt; mso-element: para-border-div; padding: 0cm 0cm 1.0pt 0cm;">
<h1 style="border: none; mso-border-bottom-alt: solid windowtext .75pt; mso-padding-alt: 0cm 0cm 1.0pt 0cm; padding: 0cm;">
<span lang="EN-US"> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgET8esGYO1XFkdnx7932jUEam3gsiuatcNcMwa0H8kAuUNFsJcid3GXqJsvnGBVL7bZemzNC6396kjxlTwlJ2YMPj96OO1MY1Jw8a-jBuQGGR7Zzzga5CL6xDj60o9RuBT8H3vWLzpPAU/s1600/41.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="357" data-original-width="400" height="285" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgET8esGYO1XFkdnx7932jUEam3gsiuatcNcMwa0H8kAuUNFsJcid3GXqJsvnGBVL7bZemzNC6396kjxlTwlJ2YMPj96OO1MY1Jw8a-jBuQGGR7Zzzga5CL6xDj60o9RuBT8H3vWLzpPAU/s320/41.jpg" width="320" /></a></div>
</span><!--[if gte vml 1]><v:shapetype
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</div>
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<br /></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आपको वह कहानी याद होगी जिसमें एक सनकी राजा
नंगा होकर नगर की गलियों से गुजरते हुए प्रजा से पूछता है कि उसके कपड़े कैसे है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लोग जवाब देते हैं- अद्भुत </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> तभी कोई बच्चा बोल देता है- राजा नंगा है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> राजा नंगा है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> राजा के सिपाही बच्चे को पकड़ कर
कैदखाने में डाल देते हैं. यद्यपि एनडीटीवी कोई </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बच्चा चैनल</span><span lang="EN-US">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">नहीं है, लेकिन वो जब भी राजा को नंगा देखता है, बोल देता है. और राजा अतत</span><span lang="EN-US">:</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> उसे कैदखाने पहुँचवा ही देता है. आखिर कब तक सहता रहता </span><span lang="EN-US">!<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जिस मीडिया की बदौलत आजकल कोई भी खबर देश भर
में आग की तरह फैल जाती है, उसी मीडिया पर हुए हमले की खबर भी आग से भी अधिक तेजी
से फैली और देश भर के सोच-समझ वालों को झुलसा दिया. आप सब तक भी यह खबर पहुँच ही
गई है कि सीबीआई ने एनडीटीवी के मालिक प्रणब राय के ठिकाने पर छापा मारा है. ऐसा
माना जाता है कि एनडीटीवी, संसद के बाहर सत्तापक्ष का विपक्ष है. सीबीआई के छापे
की खबर मिलते ही मेरा ध्यान कुछ समय पहले की दो और घटनाओं पर गया. ये दोनों घटनाएं
भी इसी खबरिया चैनल से जुड़ी हुई हैं. पहली घटना जब रवीश कुमार ने एम.जे. अकबर को
भाजपा में शामिल होने पर पत्र लिखा. दूसरी घटना जब पठानकोट हमले के कवरेज के बहाने
एनडीटीवी पर एक दिन का बैन लगाने का आदेश सूचना प्रसारण मंत्रालय ने दिया. इन
दोनों घटनाओं पर एक संक्षिप्त बात कर लेने से हमारे सामने राजनीति और मीडिया के
बीच के राग-द्वेष खुलेंगे और इनके नागरिक सरोंकारों का पता भी मिलेगा. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">रवीश कुमार के आत्मदया से प्लावित पत्र की
खूब चर्चा रही मीडिया में. यह पत्र उन्होंने मोदी सरकार के नव-नियुक्त मंत्री और
पूर्व पत्रकार एम.जे.अकबर को लिखा था. कल भी अपनी रिपोर्ट में रवीश पर्याप्त भावुक
हुए. रवीश कुमार अब पत्रकारों में सेलिब्रिटी बन चुके हैं. रवीश मुझे भी पसन्द
हैं. रवीश ऐसे पत्रकार हैं, जिनसे अधिकतर लोग असहमत हो सकते हैं, हमलावर हो सकते
हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते. उनकी रिपोर्ट्स देखने सुनने वोले लोग जानते
हैं कि वे एक बेहद संवेदनशील पत्रकार हैं. उन्होने एक ऐसी ताकतवर भाषा अर्जित कर
ली है, जिससे वे अपनी बात को ठीक वैसे ही कह पाते हैं, जैसे कहना चाहते हैं. उनकी कही गई बातों से मूल
घटना कुछ अतिरिक्त असरदार हो जाती है. अब यह बात अलग से सोचने की है कि यह </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अतिरिक्त असर</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> पत्रकारिता के लिहाज़ से कितना उचित है </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> रवीश अपनी भाषा और
भंगिमाओं से यह असर पैदा करते हैं. और इतना करते हैं कि अंत में एक रूमानी कवि
नज़र आने लगते हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">एम.जे.अकबर को लिखे अपने खुले पत्र में रवीश
बहुत भावुक हो गए. अपनी आत्मदया को और हमलावर बनाने के लिए उन्हें अपनी माँ को </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">वेश्या</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> कहे जाने का सम्पुट देना पड़ा. इस लम्बे खुले पत्र में रवीश कुमार की
समस्त लक्षणा और व्यंजना शक्तियों का उद्देश्य, एम.जे.अकबर को एक नैतिक दुविधा के
बिन्दु पर लाकर खड़ा करना था. आप सब जानते हैं कि एम.जे.अकबर एक प्रखर पत्रकार थे.
पत्रकारिता से राजनीति में गए. काँग्रेस पार्टी से सांसद बने. फिर पत्रकारिता में
लौटे. फिर राजनीति में गए और अब भाजपा सरकार में मंत्री हैं. इसी आवागमन पर रवीश
सवाल उठाते हैं. वो यह जानना चाहते हैं कि एक पत्रकार को एक ऐसी सरकार में, जिसका
चरित्र राष्ट्रवादी और तानाशाही है, शामिल होते समय क्या तनिक भी नैतिक संकोच नहीं
हुआ </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> यद्यपि यह सवाल रवीश ने पहले नहीं पूछा जब एम.जे. काँग्रेस में गए या जब
भाजपा के प्रवक्ता बने. रवीश ने अरुण शौरी और राजीव शुक्ला को भी कभी ऐसी नैतिक
चुनौती नहीं दी. फिर एम.जे. अकबर को इस तरह कठघरे में क्यों खड़ा किया, ये वही
जानते होंगे.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">दूसरी घटना मे देश के सूचना एवं प्रसारण
मंत्रालय ने एनडीटीवी इंडिया पर चौबीस घंटे का प्रतिबन्ध लगा दिया था. एनडीटीवी पर
यह प्रतिबन्ध उसके एक कवरेज को बहाना बनाकर लगाया गया है. 4 जनवरी 2016 को पठानकोट
एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला किया था. यह सेना का अत्यधिक महत्वपूर्ण
एयरबेस है. न जाने सुरक्षा व्यवस्था में कहाँ और कैसी चूक हुई कि आतंकवादी इस
एयरबेस में घुस गए और काफी नुकसान पहुँचाया. दूसरे चैनलों की तरह एनडीटीवी ने भी
इस बड़ी घटना को कवर किया. फर्क बस इतना था, कि दूसरे चैनल 56 इंची सीने की गीदड़ भपकियों,
गृहमंत्री की गर्वोक्तियों और रक्षामंत्री की मूढ़ताओं को महिमामंडित कर रहे थे और
एनडीटीवी इस बड़ी घटना में सुरक्षा-व्यवस्था में हुई चूकों और दोषियों को खोज रहा
था. बस यही उसका अपराध बन गया. घटना के दस महीने बाद सरकार ने एनडीटीवी पर
प्रतिबन्ध लगाने की सज़ा दी. सरकार की तरफ से कहा गया है कि चैनल की रिपोर्ट से
सामरिक महत्व की अतिसंवेदनशील जानकारियाँ सार्वजनिक हो गई हैं. बाद में व्यापक
विरोध के चलते इस आदेश को स्थगित कर दिया गया.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अब कौन कहे कि राजा नंगा है. कौन पूछे कि जब
आपने पाकिस्तानी जाँच दल को पठानकोट एयरबेस में जाने की इज़ाज़त दी थी, तब क्या
उसकी सामरिक संवेदनशीलता खत्म हो गई थी </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> उस जाँच दल में कथित तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी
आई.एस.आई. का एक अधिकारी भी था. वह न भी होता तो पाकिस्तानी सेना के अधिकारी तो थे
ही. पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी का खतरनाक गठजोड़ जग जाहिर है. आखिर जिसका
डर था बेदर्दी वही बात हो गई. पाकिस्तानी जाँच दल जब लौट कर गया तो उसने इस आतंकी
हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ होने से साफ इंकार कर दिया. इस प्रकरण में भारत
सरकार की मज़बूरी भी दिखी और दिशाहीन विदेशनीति भी. वहीं पाकिस्तान ने ज़बरदस्त
दाँव खेला. उसने पठानकोट में अपना जाँच दल भेज कर भारत सरकार को उभयतोपाश में डाल
दिया. भारत सरकार अगर मना करती तो पूरी दुनिया को संदेश जाता कि भारत सरकार झूठ
बोलकर नाहक पाकिस्तान को बदनाम कर रही है. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">रवीश कुमार का वह पत्र बूमरेंग की तरह लौट कर
मीडिया पर ही लगता है. रवीश ने बार बार ज़ोर देकर कहा है कि लोग मुझे दलाल कहते
हैं. जाहिर है ये भाजपा और संघ के लोग हैं. दूसरे आम लोग यह समझते हैं कि यह पत्र
भले ही एम.जे.अकबर को संबोधित है, लेकिन निशाना उन तमाम मीडियाकर्मियों और
बौद्धिकों पर है जो सत्ता के लोभ में पथभ्रष्ट हो रहे हैं. इस वक्त मुझे वह उक्ति
याद आती है, जिसमें कहा गया है कि जब आप किसी पर उँगली उठाते हैं, तो तीन उँगलियाँ
आपकी तरफ होती हैं. इस वक्त मुझे चार साल पहले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के उठाए गए
सवाल भी याद आते हैं, जो साफ बताते हैं कि मीडिया की चलनी में भी बहत्तर छेद हैं.
रवीश के पत्र के बाद जो तीन उँगलियाँ रवीश की तरफ उठी हैं, वो सिर्फ रवीश कुमार की
तरफ नहीं, वर्तमान मीडिया की तरफ हैं. इन उठी हुई उँगलियों का इशारा हम काटजू के
उन्हीं सवालों के प्रकाश में देखने की कोशिश करते हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जब जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने मीडिया के
धरम-करम पर सवाल उठाये तो स्वयंभू मीडिया की सहिष्णुता सबके सामने आ गयी.
प्रतिक्रिया में मीडिया, न्यायपालिका के साथ-साथ देश के सभी चिन्तनशील लोगों के
सामने चुनौती की तरह आ खड़ा हुआ. संभवतः यह पहली बार हुआ था कि किसी ने इतनी
महत्वपूर्ण ज़गह से मीडिया पर सवाल उठाये थे. उनके वक्तव्य के उस अंश को देखते हैं
जिस पर मीडियाकर्मी और संस्थान भड़क उठे है. वो कहते हैं---</span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">मेरी राय में भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक
मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन
(सकारात्मक तौर पर) जन-विरोधी हैं. भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें
मैं रेखांकित करना चाहता हूं----पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक
मुद्दों से अवास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है....दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को
विभाजित करता है.....तीसरा, मीडिया हमें दिखा क्या रहा है.</span><span lang="EN-US">”<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जस्टिस काटजू ने मीडिया पर तीन महत्वपूर्ण
सवाल उठाये थे. इन पर बात करने से पहले हम यह जान लें कि वो कौन सी बात है जिससे
मीडिया बिफर गया था. क्योंकि इन सवालों से मीडिया की सेहत ज़्यादा बिगड़ने वाली
नहीं है. गाहे-बगाहे, दबी ज़बान से ही सही, मीडिया से ऐसे सवाल पूछे जाते रहे हैं.
बवाल इस बात से मचा है कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू चाहते थे कि
कौंसिल के दायरे में इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी लाया जाये, मीडिया की निगरानी की
जाये, और न सिर्फ निगरानी की जाये बल्कि उसे दण्डित करने का भी अधिकार हो.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">इस जायज़ माग पर चौथे खम्भे को तो थर्राना ही
था. मीडिया में यह खुशफहमी सदियों पुरानी है कि लोकतंत्र के बाकी के तीन पाये किसी
काम के नहीं हैं. कि लोकतंत्र उसी पर टिका है. वैसे हिन्दुस्तान में जिस तरह का
लोकतंत्र है, उसमें मीडिया और लोकतंत्र के घटकों के बीच के सम्बन्ध हमेशा वैध नहीं
रहे हैं. चौथे स्तम्भ की अवधारणा मूल रूप से हमारे यहां की नहीं है. इसका जन्म
यूरोप में उन दिनों हुआ था जब यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक प्रकृया अपने
शैशवकाल में थी. तब सिर्फ प्रिंट मीडिया था और उसे एक सजग प्रहरी की भूमिका में
स्वीकार कर लिया गया था. हमारे देश में तब तक राजशाही ही चल रही थी. और मीडिया के
किसी भी रूप का कहीं दूर-दूर तक अता-पता पता नहीं था. तो एक तरह से यह मान लेने
में कोई हर्ज़ नहीं है कि लोकतंत्र, मीडिया और चौथा-स्तम्भ जैसी अवधारणाए आयातित
हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">हिन्दुस्तान की जिस सवावेशी प्रकृति के गुण हमेशा गाये जाते हैं, उसी नें लोकतंत्र
और मीडिया को भी अपनी आबो-हवा में मिला लिया है....अब इनका चरित्र विशुद्ध रूप से
भारतीय हो चुका है. मुझे लगभग बीस साल मीडिया में काम करते हुए जो तजुर्बा हुआ है,
उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि जस्टिस काटजू की जो भावना है, वह आम लोगों की
भावना भी है. आम लोग ऑफ द रिकॉर्ड यह खुलेआम कहते देखे जा सकते हैं कि मीडिया
बिकता भी है और झुकता भी है. छोटे स्तरों पर, रोज़मर्रा के जीवन में मीडिया की
ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण देखने को आसानी से मिल जायेंगे.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">हमारा शहर एक छोटा सा शहर है. लेकिन यहां दो
सौ से अधिक दैनिक और साप्ताहिक अखबार पंजीकृत हैं. इनमें से आठ-दस को छोड़ कर
बाकियों की शक्ल सब नही देख सकते. इन अदृश्य अखबारों के दो मुख्य धंधे हैं. पहला,
ये राज्यशासन से अपने कोटे का अख़बारी कागज़ लेते हैं और कुछ दाम बढ़ाकर उसे बड़े
अखबारों को बेच देते हैं. दूसरा, ये बीच-बीच में किसी अफसर, नेता या ठेकेदार के
तथाकथित भ्रष्ट आचरण पर रिपोर्ट तैयार करते हैं. अखबार की प्रति लेकर संबन्धित
व्यक्ति के पास पहुंचते हैं. उस दिन की सारी प्रतियों के दाम वह व्यक्ति चुका देता
है. अखबार को जनता के बीच तक जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. केबल नेटवर्क के
समाचारों में आमतौर पर वही समाचार होते हैं जो या तो इरादतन बनाये जाते हैं या
जिनका किसी के हित-अहित से कोई लेना देना नहीं होता.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">पर यह तो हांडी के चावल का एक दाना भर है. आप
राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालिए. अखबारों और चैनलों की भीड़ है. आप भी चकित होते
होंगे जब एक ही नेता या पार्टी या सेलिब्रिटी को एक ही समय में कुछ अखबार</span><span lang="EN-US">/</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">चैनल महान बता रहे होते हैं और कुछ अधम और पापी. चुनावों के दौरान मीडिया
जिन लोगों का नकली जनाधार बनाता है, उनसे उसके रिश्तों को किस आधार पर नकारा जा
सकता है. मीडिया नकली लोगों को असली की तरह पेश करता है. जिन व्यक्तित्वों के पीछे
देश की जनता पागल की तरह जाती है, उनकी छवियों के निर्माण का काम मीडिया ही करता
है, और यह काम वह धर्मार्थ नहीं करता.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">इसी अंधकार से जस्टिस काटजू की चिन्ताएँ
उपजती हैं. जब हमारा मीडिया फैशन शो, क्रिकेट और फार्मूला वन पर अपनी रोशनी डाल
रहा हो और उसके गहन अंधकार वाले हिस्से में कर्ज में डूबे किसान, भूख से बिलखते
बच्चे मौत की आगोश में जा रहे हों, तो उनका चिन्तित होना चौंकाता नहीं है. एक
आंकड़े का हवाला देते हुए वो कहते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में ढाई लाख से
ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बेशक इसमें मीडिया का हाथ नहीं है. पर
बताइए, जिनका इन आत्महत्याओं में सीधा हाथ है, उनकी कलाई कभी पकड़ी मीडिया ने </span><span lang="EN-US">? </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की समृद्धि है
</span><span lang="EN-US">?? </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं
पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही. मीडिया को यह तय
करना ही होगा कि उसे किन सवालों से टकराना है और किन्हें छोड़ देना है. जस्टिस
काटजू अगर चिन्तित होते हैं कि मीडिया देश और समाज को विभाजित करता है, तो इस बात
का सम्बन्ध मीडिया के इरादे से नहीं है. बल्कि यह उसके चयन-विवेक पर प्रश्न-चिन्ह
है. आतंकी घटनाओं, साम्प्रदायिक विद्वेष, जातीय संघर्षों के समय मीडिया का यह
अविवेक बहुत साफ तौर पर सामने आ जाता है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">दरअसल हमारे वर्तमान अर्थकेन्द्रित समाज में
मीडिया एक उद्योग बन चुका है. इसके सारे घटक पूंजीपतियों की मिल्कियत हैं. पूंजी
की अपनी आकांक्षाएँ होती हैं. वह अपनी नैतिकता और सामाजिकता खुद गढ़ती है. पूंजी
को कुरूपता-दरिद्रता पसन्द नहीं आती क्योंकि वहां उसका प्रवाह बाधित होता है.
इसीलिए हमारा मीडिया उस मायालोक को रचता है, जिसकी तेज़ रोशनी आपकी आँखों को
चौंधिया दे. उसके पास तकनीक है. इस तकनीक से वह प्रकाश के वृत्त को मनचाहे ढंग से
घुमाता रहता है. इसके पास यह कौशल है कि वह जिन चीज़ों को चाहे उन्हें गहरे अंधकार
में डुबा दे.जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की
समृद्धि है </span><span lang="EN-US">?? </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं
पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लेकिन इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, जिस
पर शायद पहले बात की जानी चाहिए थी. मीडिया की सशक्त उपस्थिति ने ही यह संभव किया
है कि आज कई राजा, रानियां, चोर-उचक्के अपने असल ठिकाने तक पहुंच चुके है. इससे भी
बड़ी बात यह है कि आज देश का हर बेसहारा आम आदमी मीडिया पर भरोसा करता है और उसे
अपनी शक्ति की तरह मानता है. यह समय टकराव का नहीं है. मीडिया एक बहुत ताकतवर
माध्यम है. इसकी ताकत आम जन के भरोसे बनती है. ज़रूरत है कि वह अपने सर्वोच्चताबोध
को छोड़कर, अपने सामाजिक दायित्वों को समझे. उसकी भूमिका प्रहरी की है, और इसी में
उसकी सार्थकता है. उसे मालिक की भूमिका में कभी नहीं स्वीकारा जा सकता. मीडिया
सत्तायें बदल सकता है, समाज बदल सकता है, लेकिन शासक नहीं बन सकता.</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> .</span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लेकिन संकट तो दिख रहा है इन दिनों.
लोकतांत्रिक प्रविधियों के भीतर, घोर अलोकतांत्रिक शक्तियाँ अप्रकट हैं..
इमरजेन्सी के बाद पहली बार मीडिया पर ऐसी कार्यवाही की गई है. राष्ट्रवाद की भावना
को आतंकवाद की हद तक बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं. असहमति को राष्ट्रद्रोह
सिद्ध किया जा रहा है. अभी कुछ ही दिनों पहले अरुण जेटली ने फरमान जारी किया है कि
सरकारी कर्मचारियों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं है. ऐसा करने पर उनके
खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. म.प्र. के एक आई.ए.एस. अफसर ने जवाहरलाल नेहरू की तारीफ
कर दी तो भाजपा सरकार ने सज़ा दे दी. जे.एन.यू. के प्रकरण से तो आप सब वाकिफ़ ही
हैँ. एनडीटीवी का प्रकरण सरकार की इसी प्रवृत्ति का अगला कदम है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-8017960884569779442017-05-18T04:02:00.001-07:002018-07-27T00:49:55.422-07:00धरती के स्वर्ग में कश्मीरी लाल मिर्च !<p dir="ltr">
सबसे पहले कश्मीर के मौजूदा दृश्य पर एक विहंगम नज़र डाल लेते हैं. इसके बाद कश्मीर के निकटवर्ती अतीत में उतरेंगे. धरती का स्वर्ग माने जाने वाले कश्मीर में आज कश्मीरी लाल मिर्च की तीखी गंध आबो-हवा में तैर रही है. आज़ादी के बाद कश्मीर में अस्थिरता का यह सबसे भीषण दौर है. नब्बे के दशक में, जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, तब भी कश्मीर को लेकर शेष भारतीयों के मन में ऐसा संशय नहीं था, जैसा आज है. पाकिस्तान की नज़र तब भी कश्मीर पर थी, आज भी है. आज हम ज्यादा बड़ी और ताकतवर सैन्यशक्ति हैं. लेकिन आज हम आश्वस्त नहीं हैं कि कश्मीर को बचा पाएंगे या नहीं.
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इन दिनों जब हम कश्मीर की कल्पना करते हैं तो उसमें डल झील, शफ़्फ़ाफ़ चोटियाँ, सेब के बगीचे और दिल में जादू जगाने वाली स्त्रियाँ नहीं दिखतीं. अब सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकते बच्चे, बूढ़े, जवान और लड़कियाँ दिखती हैं. उजाड़ घाटी और गाँव दिखते हैं. सेना के मारे जा रहे अधिकारी और जवान दिखते हैं. धुँआ दिखता है और धुँआ धुँआ ज़िन्दगी दिखती है. महबूबा मुफ्ती र फारुख अब्दुल्ला की कुटिल मुस्कान दिखती है.
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केन्द्र में मोदी की सरकार बनने के बाद बहुसंख्यक कश्मीरी जनता किसी अदृश्य-अमूर्त आशंका से भर गई थी. आगे चलकर जब राज्य में महबूबा की पीडीपी और भाजबा की गठबंधन सरकार बनी तो कश्मीरी जनता, राजनीति और शासन में असमंजस और बढ़ गया. महबूबा हमेशा अलगाववादियों के प्रति सहानुभूति रखती रही हैं. और भाजपा अलगाववादियों का मुह तक नहीं देखना चाहती. भाजपा जब सत्ता में नहीं थी तो उसने अक्सर धारा 370 के औचित्य पर सवाल उठाए. जाहिर है, कश्मीर को लेकर दोनों के एजेण्डे अलग हैं. पिछले ग्यारह महीनों में कश्मीर में उपद्रव बहुत अधिक बढ़ गया. सीमापारसे लगातार हमले हो रहे हैं. आतंकवादी बैंक लूट रहे हैं. जवानों को मार रहे हैं. हमें कहा जा रहा है कि अपनी सेना पर भरोसा रखें. हम रखे हुए हैं भरोसा. प्रधानमंत्री जी कश्मीर पर कुछ नहीं बोलते. रक्षामंत्री हर हमले के बाद इसे दुश्मन की कायराना हरकत करार देते हैं. गृहमंत्री कड़ी निन्दा कर देते हैं. इस बीच वो हुआ जो अब तक नहीं हुआ था. अभी तक विश्व समुदाय यही कहता रहा है कि कश्मीर, भारत-पाकिस्तान का द्विपक्षीय मसला है. हम इसमें दखल नहीं देंगे. लेकिन कुछ दिन पहले अमेरिका ने चेतावनी दी है कि अगर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष बढ़ा तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा. इस चेतावनी के बाद मुझे एकाएक ईराक, अफगानिस्तान और सीरिया के मंज़र नज़र आने लगे. आज़ाद भारत की यह सबसे बड़ी कूटनीतिक पराजय है.
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मुझे ताज्जुब हुआ यह देखकर कि कश्मीर पर कुछ कहने लिखने में प्रतिष्ठित सेकुलर विचारक और लेखक संकोच कर रहे हैं. जिन्होंने कुछ लिखा भी तो इस पूर्व घोषणा के साथ कि ‘जुर्रत कर रहा हूँ’. यद्यपि उन्होंने लिखा पर ऐसी कोई जुर्रत नहीं की, जो उन्हें असुविधा में डाल दे. कश्मीर पर लिखने से हमारे सेकुलर साथी आमतौर पर बचते रहे हैं. लेकिन इस बार मीडिया के उन्मादी कवरेज और सोशल मीडिया में अपने प्रशंसकों के दबाव में इन लेखकों को कुछ कहने लिखने को मजबूर होना पड़ा.
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कश्मीर पर कुछ बोलने में संकोच क्यों हो जाता है ? क्या इसलिए कि कश्मीर पर कुछ बोलते हुए एक ऐसी इमानदारी की दरकार है जो आपकी वैचारिक छवि पर एक खरोंच लगा सकती है ? कश्मीर पर बात करते हुए पहले आपको कश्मीरी हिन्दुओं और बौद्धों की बात करनी पड़ेगी, उसके बाद मुसलमानों की. कश्मीर पर बात करते हुए आपको पहले कश्मीरी पंडितों की दुखती रग पर हाथ रखना पड़ेगा. कश्मीर पर बात करते हुए आपको कहना होगा कि वहाँ मुसलमान आक्रान्ता हैं. लेकिन इतनी हिम्मत हममें नहीं है. इसीलिए हम कुछ रटे हुए जुमलों के सहारे कश्मीर की झीलों में अपनी नैया खेते रहते हैं. हम पाकिस्तान, आई.एस.आई., और भारतीय सेना को मिलाकर एक ऐसा रसायन तैयार करते हैं जो कश्मीर की रगों में उन्माद पैदा कर देता है.
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हमें यह मानने में संकोच क्यों होता है कि कश्मीर पहले हिन्दुओं का है, उसके बाद मुसलमानों का. कश्मीर की स्वायत्तता की माग, कश्मीरी हिन्दुओं का हक है, अलगाववादी मुसतमानों का नहीं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महर्षि कश्यप के नाम पर स्थापित कश्मीर प्राचीनकाल में हिन्दुओं का राज्य था. जब यहाँ सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया तो बौद्धों की अच्छी खासी आबादी यहाँ निर्मित हो गई. हिन्दू और बौद्ध, दोनों धरती के इस स्वर्ग पर बिना किसी तकरार के रह रहे थे. मध्यकालीन संस्कृत कवि कल्हड़ ने अपनी कृति ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर राज्य के सौन्दर्य, वैभव और सहअस्तित्व का उदात्त वर्णन किया है. कश्मीर पर अशोक और उज्जैयिनी के शासक विक्रमादित्य द्वितीय का भी शासन रहा. आधुनिक काल में रणजीत सिंह ने कश्मीर पर आक्रमण करके वहाँ सिखों का शासन स्थापित किया लेकिन बाद में कश्मीर के राजा गुलाब सिंह से उनकी सन्धि हो गई और कश्मीर, कश्मीरियों को वापस मिल गया.
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इस बीच मुसलमान कश्मीर में आ चुके थे. 12 वीं शताब्दी के अन्त तक फारस से सूफी इस्लाम कश्मीर में आया. सूफी इस्लाम प्रेम और भक्ति का प्रचारक था, इसलिए कश्मीर में वह बड़ी सहजता से स्थापित हो गया. धीरे धीरे कश्मीर में इस्लाम बढ़ता गया और चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर पर मुस्लिम शासन शुरू हो गया. इसके बाद कश्मीर में कभी हिन्दू तो कभी मुस्लिम शासन रहा. आप जानते हैं कि भारत की आजादी के समय कश्मीर के राजा हरि सिंह थे और कश्मीर एक स्वायत्त रियासत थी. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की एक अहम शर्त के मुताबिक देशी रियासतों को यह फैसला करने की आजादी दी गई कि वो भारत अथवा पाकिस्तान राज्य में अपना विलय कर लें या स्वतंत्र बने रहें. हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र रखना चाहते थे. यहीं से कश्मीर की कभी न खत्म होने वाली समस्या शुरू होती है.
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इतिहास की बात फिलहाल यहीं तक. अब बात वर्तमान की. कश्मीर का वर्तमान शुरू होता है ठीक भारत की आजादी के समय से. कश्मीर का वर्तमान शुरू होता है जवाहर लाल नेहरू की उस ऐतिहासिक भूल से जब उन्होंने कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुँचा दिया. यह बात 1947-48 के कबाइली हमलों के बाद की है. कबाइलियों के साथ मिलकर पाकिस्तानी सेना ने जब कश्मीर पर आक्रमण किया तो हरि सिंह को भारत की मदद लेने के लिए मजबूर होना ही था. और मदद भी कश्मीर के भारत राज्य में विलय की शर्त पर ही मिलनी थी. इसे स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह एक भौगोलिक और राजनीतिक विलय था. कश्मीरी मुसलमान आधे अधूरे मन से ही भारतीय राष्ट्र के नागरिक बने थे. कबाइली हमले में कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, तो नेहरू इसकी गुहार लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की चौखट पर चले गए. संयुक्त राष्ट्र संघ ने जो समाधान दिया. वही भारत के गले की फाँस बन गया. उसने कहा कि पाकिस्तान कब्जे वाले इलाके से कबाइलियों को हटाए, और भारत कश्मीर में जनमत संग्रह कराए. लेकिन न तो पाकिस्तान ने कबाइलियों को हटाया और न भारत ने जनमत संग्रह कराया.
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1957 में जब कश्मीर की विधानसभा ने भारत में कश्मीर के विलय को वैधानिक स्वीकृति दी, तभी यह तय हो गया था कि कश्मीर बरसों बरस भारत का सिरदर्द बना रहेगा. कश्मीरियों के जनमत संग्रह को टालने के लिए जो शर्तें भारत राष्ट्र ने मानीं, उनसे हमेशा के लिए भारत और कश्मीर के बीच एक परायापन पैदा हो गया. कश्मीर में आपातकाल नहीं लागू हो सकता. कश्मीर का राज्यपाल, वहाँ के मुख्यमंत्री की सलाह पर नियुक्त होगा. कश्मीर की दण्ड संहिता अलग है. संविधान अपना है. विदेशी मामलों, सुरक्षा और मुद्रा चलन को छोड़कर, बाकी हर मामले में कश्मीर स्वायत्त हो गया.
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इसी स्वायत्तता को स्वतंत्रता में बदल देने की महत्वाकांक्षा में कश्मीरी मुसलमानों नें कश्मीर के मूल निवासियों को धीरे धीरे वहाँ से खदेड़ना शुरू कर दिया. लाखों कश्मीरी हिन्दू अपनी ज़मीन से विस्थापित होकर दर दर भटकने को मजबूर हुए. हिन्दुओं को विस्थापित करने के लिए कश्मीरी मुसलमानों ने आतंकवाद का सहारा लिया. पाकिस्तान के लिए यह सुनहरा मौका था. पहले पाकिस्तान से फंडिंग शुरू हुई. फिर नब्बे का दशक आते आते पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद का प्रायोजक बन गया. विदेशी जमीन से चलाए जा रहे आतंकवाद से निपटना भारत सरकार के लिए कठिन जरूर था लेकिन असंभव नहीं. भारतीय फौज की जाँबाजी और शहादत के दम पर भारत ने 21 वीं सदी के आते आते, कश्मीर के आतंकवाद पर काफी हद तक काबू पा लिया. पिछले तीन आम चुनावों में कश्मीरी जनता के उत्साह और भागीदारी को देखकर यह लगने लगा था कि कश्मीरी मुसलमान अपली अलगाववादी मानसिकता को छोड़ रहे हैं. भारत की असली जीत यही होती कि कश्मीरी मुसलमान भारत को अपना देश मानने लगते.
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कश्मीर के मुसलमानों और देश के बाकी हिस्से के मुसलमानों की मानसिकता में एक बड़ा फर्क है. देश के दूसरे हिस्सों के कुछ मुसलमानों के भीतर हिन्दुओं के प्रति साम्प्रदायिक द्वेष भले हो, लेकिन देश के तौर पर भारत से उनका कोई नकार नहीं है. उग्र हिन्दुत्व के तमाम प्रयासों के बाद भी वो यह मानने को तैयार नहीं हुए कि उनका कोई और मुल्क हो सकता है. लेकिन कश्मीरी मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग, पाकिस्तान में अपना संभावित मुल्क देखता है. उनकी इस आकांक्षा को कश्मीर के राजनेता कभी खुलकर तो कभी छुपकर हवा देते रहे. बुरहान वानी की मौत पर जब फारुक अब्दुल्ला यह कहते हैं कि वह मरने वाला आखिरी नौजवान नहीं है, तो वे कश्मीर में भड़क रही आग और उसकी लपट को बढ़ाने वाली हवा की ओर संकेत कर रहे है.
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कश्मीर इन दिनों अलगाववाद के उभार के एक ऩये दौर में है. यह उभार अहमद शाह गिलानी, मीर वाइज़ र यासीन मलिक के दौर से कुछ अलग चरित्र लिए हुए है. कश्मीर में अब असल समस्या आतंकवाद नहीं है. यहाँ आतंकवाद अब एक व्यवसाय बन गया है. अलगाववादी नौजवानों को विदेशी आतंकी संगठनों से पैसा मिलता है. केन्द्र राज्य सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए अनाप शनाप पैसे कश्मीर में देती हैं. साथ ही कश्मीर में सक्रिय एन.जी.ओ., धार्मिक संगठनों से भी कश्मीरी मुसलमान पैसे ऐंठते हैं.
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केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद कश्मीर में एक नये तरह की हलचल पैदा हुई. कश्मीरी यह जानते थे कि संघ और भाजपा कश्मीर में धारा 370 के पक्ष में नहीं रहे हैं. मोदी सरकार के आते ही उन्हें कश्मीर की स्वायत्तता खतरे में दिखने लगी. कहना न होगा कि कश्मीर में स्वायत्तता की आड़ में ही अलगाववाद पलता रहा है. महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा के गठबंधन ने कश्मीरियों के संदेह को और मजबूत किया. सब जानते हैं कि महबूबा की पार्टी हमेशा अलगाववादी मुसलमानों का समर्थन करती रही है. कश्मीरियों को लगने लगा है कि भाजपा और महबूबा के बीच कोई ऐसा गुपचुप एजेण्डा है जो उनके हितों को कोई अप्रत्याशित क्षति पहुँचा सकता है.
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अब तक जितनी सरकारें केन्द्र में रहीं, उनकी प्राथमिक कोशिश रही है कि कश्मीर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा न बने. कोई भी सरकार नेहरू की गलती दोहराना नहीं चाहती थी.इसलिए कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता रहा और उसे समस्या के केन्द्र में बताया गया. जबकि असल समस्या कश्मीर का कुशासन, बढ़ती बेरोजगारी, और कश्मीरी हिन्दुओं का विस्थापन था. कश्मीर को अपने साथ रखने के लिए सबसे जरूरी है कि कश्मीरी हिन्दुओं का पुनर्वास कराया जाये, ताकि कश्मीरी मुसलमानों के भीतर से एकाधिकार का भाव खत्म हो. कश्मीर के शासन में हिन्दुओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाये. युवाओं को वैध रोजगार मुहैया कराये जाने चाहिए. कश्मीर में अवैध तरीके से आ रहे धन को रोकने के पुख्ता इंतज़ाम भी होने चाहिए. यह सब तभी हो सकता है जब केन्द्र और राज्य सरकार के बीच बेहतर समझ और तालमेल हो.
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बुरहान वानी की मौत के बाद उमड़ी कश्मीरियों की भावना से बहुतों को लगा कि यह सेना की ज्यादती के खिलाफ प्रतिक्रिया है. सेना को आततायी की तरह पेश किया गया. लेकिन यह एक भ्रम है. सेना पर हो रहे उग्र हमले, असल में राष्ट्र के विरुद्ध आक्रोश है. सेना तो राष्ट्र का एक टूल है. कश्मीरियों को याद होगा, जब पिछले साल बाढ़ से कश्मीर तबाह हो रहा था तो सेना ने ही उनका जीवन बचाया था. कश्मीरियों नें खुले दिल से सेना का एहसान माना था. ऐसा नहीं हो सकता कि साल भर में सेना उन्हें दुश्मन नज़र आने लगे. कश्मीरियों का यह उग्र व्यवहार, अपनी स्वायत्तता खोने और मुफ्त के पैसों से हाथ धोने के डर से पैदा हुआ है.
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-49187993952099753982017-04-05T03:19:00.001-07:002017-04-05T03:19:54.193-07:00पहली अप्रैल की अविस्मरणीय जन्मदिन पार्टी<p dir="ltr">पहली अप्रैल आती है तो मुझे हर साल एक वाकया याद आता है। बात तब की है जब मैं सातवीं या आठवीं में पढ़ता था। उन दिनों हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में जन्मदिन मनाने का ऐसा रिवाज़ नहीं था जैसा आज है। बड़े बुजुर्गों का जन्मदिन या तो किसी को पता ही नहीं होता था या फिर याद नहीं रहता था। सो उनका जन्मदिन मनाने का सवाल ही नहीं था। घर के बच्चों में भी जो वयस्क होते थे, सुबह उठकर माता-पिता के पैर छूकर आशीर्वाद ले लिया करते और जन्मदिन का इति-सिद्धम हो जाता था। अलबत्ता छोटे बच्चों के जन्मदिन पर थोड़ी बहुत हलचल जरूर होती थी। अक्सर घरों में यह होता था कि जब सबसे छोटा बच्चा आ जाता था, तो उससे बड़े बच्चों के जन्मदिन समारोह हमेशा के लिए बन्द हो जाते थे। बहुत हुआ तो उन्हें एक जोड़ी नये कपड़े दिला दिए बस। जिस सबसे छोटे वाले का जन्मदिन मनाया जाता वह भी कुछ अधिक ही सादगीपूर्ण होता। बहुत हुआ तो घर में सत्यनारायण की कथा करवा ली और पड़ोस के छोटे बच्चों को बुलाकर खाना खिला दिया। बच्चे पेंसिल, रबर, कटर, टिफिन बॉक्स, प्लास्टिक की गेंद आदि बतौर गिफ्ट दिया करते थे। मज़ा आ जाता था। <br>
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यह वाकया उन्हीं दिनों का है। मेरा एक सहपाठी दोस्त अशोक, 1 अप्रैल को लगभग साढ़े ग्यारह बजे सुबह कहें या दोपहर, मेरे घर आया। उसके हाथ में उसकी पिछली कक्षा की मार्कशीट थी। मार्कशीट मुझे दिखाते हुए उसने मुझसे कहा कि आज उसका जन्मदिन है। तुम मेरे घर पार्टी में आना। आज 1 अप्रैल है, इसलिए यह मार्कशीट लेता आया हूँ कि कहीं तुम यह न समझो कि अप्रैल फूल बना रहा हूँ। पार्टी दोपहर में ही है। और फिर थोड़ा सकुचाते हुए अशोक ने कहा—“ सुनो जो गिफ्ट देना हो, उसके बदले पैसे ही दे दो। उससे कुछ खाने का सामान और आ जाएगा।“ मैने अम्मा से मागकर उसे पच्चीस रुपये गिफ्ट के बदले दिए। वह आने का पक्का वादा लेकर चला गया। <br>
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बात असल में यह थी कि अशोक के पापा ‘बाप बहादुर’ टाइप के पिता थे। कड़क मिज़ाज़। पेशे से वकील थे। घर में किसी का जन्मदिन मनाने का रिवाज़ नहीं था उनके। उस दिन अशोक और उसकी छोटी बहन मोनू ने मिलकर यह क्रान्तिकारी कदम उठा लिया था कि उनके घर में भी जन्मदिन मनाया जाएगा, लेकिन पिताजी से छुपाकर। माँ को किसी तरह उन्होंने पटा लिया था और थोड़े पैसे भी उनसे लेने में कामयाब हो गए थे। दोनों भाई-बहन ने अपने पास के पैसे मिलाए। पच्चीस रुपए मुझसे भी मिल गए थे एडवांस। पार्टी का टाइम दोपहर का सलिए रखा गया क्योंकि उस वक्त पिताजी कोर्ट में रहते थे। योजना यह थी कि पिताजी के आने के पहले बर्थडे पार्टी खत्म करके उसके सारे नामो-निशान मिटा देने हैं। <br>
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वादे के मुताबिक मैं दोपहर में अशोक के घर पहुँच गया। अशोक मुझे घर के पीछे के कमरे में ले गया जहाँ पार्टी होनी थी। अशोक की बहन मोनू ने वहाँ एक टेबल पर अनुपम होटल के समोसे, पेस्ट्री, थोड़ी मिठाई, केले आदि सजा रखे थे। बैठक से टेप रिकॉर्डर भी उठा लाई थी जिसमें गाना चल रहा था। मुझे ताज़्ज़ुब तब हुआ जब पता चला कि पार्टी में मेहमान के तौर पर सिर्फ मैं बस हूं। खैर ! पार्टी की रूपरेखा यह थी कि मोनू टेप रिकॉर्डर पर गाना चलाकर दो-तीन डान्स आइटम पेश करेगी और मैं कुछ गाने सुनाऊँगा। उसके बाद हम लोग नाश्ता करेंगे। अशोक को हैप्पी बर्थडे बोलेंगे और मैं अपने घर चला जाऊँगा। और कभी उसके पापा के सामने इस हादसे का ज़िक्र नहीं करूँगा। <br>
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तो हम तीन लोगों के साथ पार्टी शुरू हुई। टेप बजा कर मोनू ने डान्स शुरू किया। अशोक और मैं तालियाँ बजा रहे थे। मोनू के नृत्य का एक-दो छन्द ही हुआ था कि अनहोनी घट गई। न जाने कहाँ से धड़धड़ाते हुए उनके पापा कमरे में घुसे। हम सब सन्न। उन्होंने दहाड़ते हुए पूछा कि यह क्या हो रहा है ? उनके पूछने के साथ ही अशोक और मोनू, फुर्ती के साथ कब अदृश्य हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। मुझे काटो तो खून नहीं। उनकी मुद्रा देख कर लगा कि अब ये मुझे ही पीटेंगे। लेकिन पिताजी अशोक और मोनू को पकड़ने लपके। मुझे मौका मिल गया तो मैं भी भाग खड़ा हुआ। अपने घर तक वैसे ही भागता आया जैसे कुत्ते ने खदेड़ रखा हो। इस तरह अशोक का जन्मदिन सम्पन्न हुआ। नाश्ते का क्या हुआ पता नहीं चला। बाद में स्कूल में अशोक ने बताया कि उसकी खूब कुटाई हुई। मोनू को बख्श दिया था बाप बहादुर ने। माताजी भी कोप का भाजन बनीं थीं। <br>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-22027916425167919512017-03-24T21:02:00.002-07:002017-03-24T21:06:14.579-07:00हिन्दी सिनेमा में होली के रंग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली और ईद, भारत के दो ऐसे धार्मिक पर्व हैं, जिनमें धार्मिक आग्रह
बहुत कम, और उल्लास एवं कुंठाओं के निरसन का भाव ज्यादा होता है। होली के साथ
प्रहलाद-होलिका की कथा को अगर हम धर्म-तत्व से जोड़ कर देखें तो भी होली की पहचान
इस कथा से नहीं बल्कि उसके रंगों से है। होली अनादि काल से मनुष्य की श्वेत-श्याम
ज़िन्दगी में रंग भरती रही है। द्वापर के किशन कन्हैया से लेकर आज के माडर्न
गोप-गोपियों तक होली रंग बिखेरती चली आई है। होली के रंगों में छुपा मनोविज्ञान,
कला-माध्यमों के लिए एक अनुकूल पृष्ठभूमि देता है। इस देश का कोई भी कला-माध्यम
होली के रंग और रंगीनियों से अछूता नहीं रह सका है।</span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqICoUFquZSoLJB-RVyZe-XjT7yL4HmI9iQH8g_wUd0EkhyJDIMqOhCnfdOkupEztAoc6296jucmsIE2P970JPkiN1hL-ym_flAVjHkiRDJsRiIgzVIShs5WyVuKspoF1Ix8GBf9I1w_o/s1600/160318132929_holi_story_bagbaan_624x351_ravichopra.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="223" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqICoUFquZSoLJB-RVyZe-XjT7yL4HmI9iQH8g_wUd0EkhyJDIMqOhCnfdOkupEztAoc6296jucmsIE2P970JPkiN1hL-ym_flAVjHkiRDJsRiIgzVIShs5WyVuKspoF1Ix8GBf9I1w_o/s400/160318132929_holi_story_bagbaan_624x351_ravichopra.jpg" width="400" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqICoUFquZSoLJB-RVyZe-XjT7yL4HmI9iQH8g_wUd0EkhyJDIMqOhCnfdOkupEztAoc6296jucmsIE2P970JPkiN1hL-ym_flAVjHkiRDJsRiIgzVIShs5WyVuKspoF1Ix8GBf9I1w_o/s1600/160318132929_holi_story_bagbaan_624x351_ravichopra.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; display: inline !important; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><span style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt;"><span style="color: black;"><i>सौ साल से अधिक के अपने इतिहास में हिन्दी सिनेमा ने साल-दर-साल होली के पर्व को अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग किया है। वर्जनाओं का अतिक्रमण होली का मूल स्वभाव है। होली के रंगों की ओट में हम अपनी लालसाओं का विरेचन करते हैं। हमारे भारतीय सिनेमा में प्रेम एक स्थायी तत्व है। मूल कहानी चाहे जो भी हो, प्रेम की एक अंतर्धारा उसमें बहती रहती है। भारतीय सिनेमा ने शुरुआत से ही यह स्वभाव अर्जित कर लिया, जो अब तक चलता आ रहा है। असल में जीवन का यही रूप है। तमाम अभावों, संघर्षों, बीमारियों की चट्टानों के नीचे, हम सबके जीवन में प्रेम की एक हरी दूब दबी रहती है। ये चट्टाने जब कभी इधर उधर खिसक जाती हैं तो यह दूब तन जाती है।</i></span></span></a></div>
<br />
<br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">भारतीय सिनेमा और होली का, चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दी फिल्मों
ने होली के सीक्वेन्स को बार बार दिखाया है। होली का पर्व सिनेमा में हमेशा गीतों
और नृत्य के जरिए आता रहा है। फिल्मों में होली का आगमन 1944 में दिलीप कुमार की
पहली फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">ज्वार भाटा</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> में हुआ। निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने फिल्म में होली का सीक्वेंस फिल्माकर
एक इतिहास की नीव रखी। यह श्वेत-श्याम फिल्मों का ज़माना था। यह भी एक संयोग है कि
रंगीन फिल्मों में जब होली को उसका असली रंग मिला तब भी दिलीप कुमार ही थे। पहली
टेक्नीकलर फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">आन</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> में दिलीप कुमार और निम्मी होली खेलते नज़र आए। फिर तो यह सिलसिला चल निकला।
1958 में आई मशहूर फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">मदर इंडिया</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> में शमशाद बेगम का गाया गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">होली आई रे कन्हाई...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> आज भी बेहद लोकप्रिय है
और होली के दिन गाया-बजाया जाता है। उसके अगले ही साल वी. शान्ताराम की फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">नवरंग</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;"> में भी होली का एक गीत था। </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">जा रे हट नटखट....</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt; line-height: 115%;">, महिपाल और संध्या पर
फिल्माया गया। इस फिल्म में महिपाल, दिवाकर नाम के कवि की भूमिका में हैं। आपको
याद होगा कि इस फिल्म में काव्य के नौ रसों की अलग-अलग स्थितियों के माध्यम से
अभिव्यक्ति की गई है।</span><br />
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGcmLjzYn3fv53-Ug3HghgC_CYOh8iDAEyeUuAyekMiFHH_VBc6vCGStVH4SD-l_bKGUA0WudkdYu2ZuNs-Lgz8bELtT9Ng5EHF2TZbq8nqjKItQ7rejyDaJzbmHo25sslGHzKgNf3-8s/s1600/160318132759_holi_story_kati_patang_624x351_shaktisamanta.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="177" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGcmLjzYn3fv53-Ug3HghgC_CYOh8iDAEyeUuAyekMiFHH_VBc6vCGStVH4SD-l_bKGUA0WudkdYu2ZuNs-Lgz8bELtT9Ng5EHF2TZbq8nqjKItQ7rejyDaJzbmHo25sslGHzKgNf3-8s/s320/160318132759_holi_story_kati_patang_624x351_shaktisamanta.jpg" width="320" /></a></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">सत्तर के दशक में भी कुछ अच्छे होली दृश्य
हिन्दी फिल्मों में देखने को मिले। खासतौर पर 1970 में आई राजेश खन्ना की फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">कटी पतंग</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आज न छोड़ेंगे हम हमजोली...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> अविस्मरणीय गीत बन गया। राजेश खन्ना उस समय सुपर स्टार
थे। इस फिल्म में वो कमल की भूमिका में थे और आशा पारेख विधवा माधवी के किरदार
में। इस फिल्म में यह गीत निर्देशक ने उस सामाजिक वर्जना को तोड़ने के लिए रखा,
जिसमें एक विधवा स्त्री को जबरन जीवन के सभी रंगों से बेदखल कर दिया जाता है।
माधवी के संकोच और सामाजिक प्रतिबंध को कमल सार्वजनिक रूप से तोड़ देता है और
विधवा माधवी को रंगों से सराबोर कर देता है। इसके पहले सत्तर के दशक में कुछ और
फिल्मों में सुन्दर होली गीत फिल्माए गए। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">कोहिनूर</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">तन रंग लो जी आज मन रंग लो...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> बहुत लोकप्रिय हुआ। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">गोदान</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> में भी एक होली गीत फिल्माया गया।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw8T6vUjJDY7kACHflYRXJf2rPOF6bYRm4x3fznkNkYWmjmOjvAVAv4l_UBnxTAVdsxujpyD8eTFKGvxeWmm1Wv36tqAyElMbbxTZztRp3Fr1z_zT_YxjllMbVRw6iTLeQpWSm6cRGwQE/s1600/160318135143_holi_sotry_silsila_624x351_yrf.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="179" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjw8T6vUjJDY7kACHflYRXJf2rPOF6bYRm4x3fznkNkYWmjmOjvAVAv4l_UBnxTAVdsxujpyD8eTFKGvxeWmm1Wv36tqAyElMbbxTZztRp3Fr1z_zT_YxjllMbVRw6iTLeQpWSm6cRGwQE/s320/160318135143_holi_sotry_silsila_624x351_yrf.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ध्यान देने की बात यह है कि हमारी फिल्मों
में होली के सीक्वेंस सिर्फ त्यौहार को दिखाने के लिए नहीं रखे गए। बल्कि इनका
उपयोग एक प्रविधि के रूप में किया गया है। अक्सर फिल्म की कहानी को किसी जटिल
स्थिति से निकालने अथवा किसी जटिल मनोदशा या परिस्थिति को बोधगम्य दृश्य में
परिणित करने के लिए होली के दृश्यों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस बात को
समझने के लिए 1981 में आई फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">सिलसिला</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">रंग बरसे भीगे चुनर वाली...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> को याद कीजिए। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली का राष्ट्रगान</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का दर्ज़ा पा चुका यह गीत, लोकप्रियता में दूसरे सभी गीतों से बहुत आगे
है। अमिताभ बच्चन का गाया, और अमिताभ-रेखा पर फिल्माया यह गीत, कहानी की एक बहुत
जटिल परिस्थिति को व्यक्त करने के लिए रखा गया। वरना इतनी गंभीर फिल्म में होली
गीत की गुंजाइश कहाँ बनती थी। अमिताभ, रेखा के लिए अपने पुराने प्रेम को दबाए-दबाए
घुट रहे थे। होली ने उन्हें इस घुटन से बाहर आने का मौका दिया। वो रेखा के लिए
अपने प्रेम को होली के रंग में बिखरा रहे हैं और संजीव कुमार और जया इस अनकही
कहानी का एक एक अक्षर बाँचे जा रहे हैं। ये चारों पात्र प्रेम, दाम्पत्य और
अविश्वास की जिस भूल-भुलैया में फँसे थे, यह होली सीक्वेंस उनके सामने इस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता खोल रहा था। यह
गीत तब से अब तक होली उत्सव की जान है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaTzYfJsoHkeUKfuQyxgXKMxAXDTFC9WN8M4L9CSx7vtFw_eBGHvKbw4wQA-Mg7bRs0vdhdJImtM9E7_Uz20KPOUl7xZXlg6TSmoczSwxWeAWyQIOMO8_d5x28WYn82Av4WFrLQG4JUcU/s1600/160318133230_holi_story_darr_624x351_yrf.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="179" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaTzYfJsoHkeUKfuQyxgXKMxAXDTFC9WN8M4L9CSx7vtFw_eBGHvKbw4wQA-Mg7bRs0vdhdJImtM9E7_Uz20KPOUl7xZXlg6TSmoczSwxWeAWyQIOMO8_d5x28WYn82Av4WFrLQG4JUcU/s320/160318133230_holi_story_darr_624x351_yrf.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">इस गीत के पीछे जो मनोविज्ञान है, कमोबेश यही
मनोविज्ञान कुछ रूप बदलकर हम सबका भी होली में होता है। हम अपने भीतर के दमित
प्रेम और कामेच्छा को थोड़े अनायास से लगने वाले सचेत स्पर्श, कुछ बतरस के अवसरों
और कुछ नशे की सामग्रियों के मेल से तुष्ट कर कुछ राहत पाने की कोशिश करते हैं।
इसका एक बढ़िया दृष्टांत यश चोपडा की फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">डर</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के होली दृश्य में देख सकते हैं। यश चोपड़ा ने प्रेम के जितने रंगों को फिल्मों
के जरिए परदे पर उतारा है, उतना किसी और भारतीय फिल्मकार नें नहीं। इस फिल्म में
शाहरुख खान खलनायक की भूमिका में हैं। वे नायिका के जुनूनी प्रेमी हैं और किसी भी
कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। प्रेम और भय के बेहद सघन तनावों के बीच, यह होली
सीक्वेंस शाहरुख को, जूही चावला को स्पर्श करने का अवसर देता है, तो दूसरी तरफ,
निर्देशक को अपनी कहानी को अंजाम तक पहुचाने का स्पेस भी देता है। निर्देशक कहानी
को आगे बढ़ाने के लिए अक्सर होली दृश्य का इस्तेमाल करते रहे हैं। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आखिर क्यों</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे..</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> और </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">कामचोर</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">मल दे गुलाल मोहे...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया है। कभी-कभी निर्देशक
कहानी में टर्निंग प्वाइंट दिखाने के लिए भी होली सीक्वेंस का प्रयोग करते हैं।
जैसे राजकुमार संतोषी ने फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">दामिनी</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> में किया।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQCSxqsJRtOV4nu2NozXpJYLi41fYR8IuZSwwLtV210KFS-UjfhGxXka6QXQXQfKzBOIvEmFN__8Xmzg2V3fEVKaVOl3ZVoJ85Ki2XmJqtYzc36G4PQ8kN-X5mHVh8mxyL5pciZNSCfXI/s1600/160318135747_holi_story_hema_dharmendra_624x351_sippyfilms.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="179" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhQCSxqsJRtOV4nu2NozXpJYLi41fYR8IuZSwwLtV210KFS-UjfhGxXka6QXQXQfKzBOIvEmFN__8Xmzg2V3fEVKaVOl3ZVoJ85Ki2XmJqtYzc36G4PQ8kN-X5mHVh8mxyL5pciZNSCfXI/s320/160318135747_holi_story_hema_dharmendra_624x351_sippyfilms.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अस्सी और नब्बे के दशक के गीत फिल्मी होली के
प्रतिनिधि गीत बन गए। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">रंग बरसे....</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के अलावा जिस गीत ने होली गीतों के बीच अपनी खास जगह बनाई, वह है फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">शोले</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का गीत। 1975 में आई इस कालजयी लोकप्रिय फिल्म में धर्मेन्द्र और हेमा
मालिनी के ऊपर </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली के दिन दिल खिल जाते हैं...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> गीत फिल्माया गया। यह गीत भी फिल्म में एक युक्ति की
तरह डाला गया। लगातार भय और आतंक के बीच चली जा रही फिल्म में कुछ तनावमुक्ति के
पल खोजने थे। साथ ही दर्शकों के लिए एक चौंकाने वाला तत्व भी डालना था। आपको याद
होगा, होली के उल्लास में झूमते बेखबर गाँव वालों और सिनेमा हाल के दर्शकों के बीच
अचानक डाकुओं का हमला हो जाता है और सबकी सांसें अटकी रह जाती हैं। अस्सी के दशक
की धर्मेन्द्र-हेमा की यह जोड़ी, नब्बे के दशक के एक और होली गीत में नज़र आयी।
1982 में बनी फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">राजपूत</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> में </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">भागी रे भागी बृज की बाला...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> गीत में धर्मेन्द्र-हेमा फिर होली के रंग में दिखे। इसी
तरह अमिताभ ने </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">सिलसिला</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के गीत की लोकप्रियता को 2003 में फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बागबां</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> के गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली खेलैं रघुबीरा....</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> में दोहराया।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<div style="border-bottom: dotted windowtext 3.0pt; border: none; mso-element: para-border-div; padding: 0cm 0cm 1.0pt 0cm;">
<div class="MsoNormal" style="border: none; mso-border-bottom-alt: dotted windowtext 3.0pt; mso-padding-alt: 0cm 0cm 1.0pt 0cm; padding: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली गीतों का यह
सिलसिला अब कुछ ठहरा हुआ सा है। यद्यपि 2005 में बनी अक्षय कुमार-प्रियंका चोपड़ा
की फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">वक्त-द रेस अगेन्स्ट टाइम</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> में </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...</span><span lang="EN-US">” </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">गीत और 2013 की फिल्म </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ये जवानी है दीवानी</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> का गीत </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी...</span><span lang="EN-US">”</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> खूब लोकप्रिय हुए,
लेकिन इन्हें विशुद्ध होली गीत नहीं कहा जा सकता। एक और बात आश्चर्य में डालती है
कि होली का त्यौहार फिल्मों में गीतों तक
ही सीमित रह गया, कभी कहानी का हिस्सा नहीं बन सका। जबकि रक्षाबंधन,
दीवाली, ईद आदि त्यौहारों पर फिल्में बनी हैं। हाँ, अब तक </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> नाम से दो फिल्में, </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होली आई रे</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> नाम से एक फिल्म, और </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">फागुन</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> नाम से दो फिल्में जरूर बनी हैं। 1967 में </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">भक्त प्रहलाद</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> नाम से एक हिन्दी फिल्म बनी थी। सिने जगत और होली का रिश्ता सिर्फ फिल्मों
तक ही महदूद नहीं रहा है। आर. के. स्टूडियो की स्थापना के समय से ही राजकपूर
स्टूडियो में होली खेलने का आयोजन करते थे। यह परंपरा आज भी जारी है। इसी तरह
मेगास्टार अमिताभ बच्चन भी अपने बंगले पर होली का आयोजन करते थे। कुल मिलाकर
सिनेमा और होली की संगत ने होली के रंगों थोडा और रंगीन और अमिट ही बनाया है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
</div>
</div>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-59975739960996801732017-03-05T21:13:00.000-08:002017-03-05T21:18:29.805-08:00ज़िन्दगी लाइव: फंतासी झूठ नहीं, संभावना है !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyYxSNSEzx200BgGk6ZROGoo4Xpp_SRY0NlhsAD_DKrg0uQCACaTU6Ge4IJ44ibPf1U1ubRZNdgYrMgiF8kp8a-JYpdSDlFecZzBXmEMAAI4cJK6IKp6gmeI3uqPRHiNG-LyuagYkiKn0/s1600/Screenshot_2017-03-03-15-37-18.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyYxSNSEzx200BgGk6ZROGoo4Xpp_SRY0NlhsAD_DKrg0uQCACaTU6Ge4IJ44ibPf1U1ubRZNdgYrMgiF8kp8a-JYpdSDlFecZzBXmEMAAI4cJK6IKp6gmeI3uqPRHiNG-LyuagYkiKn0/s320/Screenshot_2017-03-03-15-37-18.jpg" width="214" /></a><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">उपन्यास</span><span lang="EN-US">-</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">कला पर मिलान कुन्देरा
ने एक जगह लिखा है-</span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">उपन्यास यथार्थ का नहीं, अस्तित्व का परीक्षण करता है। अस्तित्व, घटित का
नहीं होता, वह मानवीय संभावनाओं का आभास है। जो मनुष्य हो सकता है, जिसके लिए वह
सक्षम है। उपन्यास-लेखक खोज के जरिए मानवीय संभावनाओं के अस्तित्व का नक्शा बनाता
है। चरित्र और दुनिया संभावनाओं के द्वारा जाने जाते हैं।</span><span lang="EN-US">“<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">सुप्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार प्रियदर्शन का
चर्चित उपन्यास </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ज़िन्दगी लाइव</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> इन दिनों खूब पढ़ा गया। तीन दिन और तीन रातों की किस्सानुमा घटनाओं के इस
औपन्यासिक विस्तार में मानवीय संबन्धों के अस्तित्व और संभावनाओं की खोज की ही
कोशिश की गई है और उपन्यासकार एक विशिष्ट देशकाल और वातावरण में संबन्धों का एक
नक्शा बनाने में असफल नहीं रहे हैं।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">एकबारगी अपराधकथा सा दिखने वाला यह उपन्यास
दरअसल कुछ निरपराध लोगों की विडंबनात्मक नियति का लाइव वर्जन है। इसमें एडिट करने
का अवकाश नहीं है। इसमें बस देखते जाना है और दिखाते जाना है। सवाल हैं, पर तर्क
नहीं। तर्क करनें लगें तो एक दूसरा सवाल आ जाएगा। अतार्किकता के इसी ढाँचे में
लेखक से एक ऐसी तकनीकी त्रुटि हो जाती है जो पाठक को लगभग आरंभ में ही सचेत कर
देती है कि आप एक झूठी कथा को पढ़ने जा रहे हैं। इस खटक जाने वाली त्रुटि का
ज़िक्र मैं बाद में करूँगा। किसी औपन्यासिक कृति को रचने के लिए फंतासी का सहारा
लेना ही पड़ता है। यथार्थ हमेशा अनगढ़ और खुरदुरा होता है। यथार्थ के ऊबड़-खाबड़
रास्ते पर उपन्यास की यात्रा असंभव तो नहीं, पर बहुत मुश्किल और अरुचिकर होती है।
जबकि रुचिकर होना उपन्यास विधा की पहली शर्त है। यथार्थ अक्सर कई जगह फटा-बँटा और
अस्पष्ट भी होता है। इसीलिए उसे फंतासी से सिलने-जोड़ने और उभारने की कीमियागीरी
उपन्यासकार को करनी पड़ती है। फंतासी झूठ नहीं होती। फंतासी कोरी कल्पना भी नहीं
होती। फंतासी वह है जो अभी अघटित है। जिसके घटित होने की संभावना है। उतना ही बड़ा
वह लेखक होता है, जितना वह किसी फंतासी के घटित होने की संभावना को प्रबल बना देता
है। फंतासी रचना बड़े कौशल का काम है। एक छोटी सी चूक भी उसे झूठ बना देती है। और
तब उसके घटित होने की संभावना खत्म हो जाती है। आप यह समझते हैं कि फंतासी रचना
लेखक का लक्ष्य नहीं होता। बल्कि फंतासी, लेखक के लक्ष्य का वाहन होती है। इसीलिए
अगर किसी चूक से फंतासी झूठ लगने लगे तो जाहिर है लक्ष्य भी अपने गंतव्य तक
पहुँचने के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">प्रियदर्शन का उपन्यास </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ज़िन्दगी लाइव</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> भी कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी से बना एक रोचक रसायन है। लेखक ने अंत में
स्वीकार भी किया है कि </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">एनडीटीवी और दूसरे चैनलों में काम कर रहे मित्रों के अलग-अलग अनुभव कुछ रूप
बदलकर इस उपन्यास में दर्ज़ हैं।.....तीन दिन की इस कहानी में बहुत सारी घटनाएं
सच्ची हैं।</span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जाहिर है कि </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बहुत सारी</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> सच्ची घटनाओं के अलावा जो कुछ थोड़ी बची हुई घटनाएँ हैं वो लेखक की फंतासी
हैं। इस फंतासी को लेखक ने बहुत कमाल का बुना है, लेकिन एक छोटी सी चूक आखिर हो ही
गई।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">यह उपन्यास 26 नवंबर 2008 के मुम्बई पर हुए
आतंकी हमले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। लेकिन मुम्बई की घटना पृष्ठभूमि ही है।
मंच पर टीवी चैनलों से जुड़े एंकर और पत्रकारों की ज़िन्दगी की त्रासद स्थितियाँ
हैं। आमतौर पर जब हम कोई उपन्यास पढ़ते हैं तो हमारी कोशिश होती है कि हम जल्दी से
जल्दी उस कथा के नायक-नायिका को चिन्हित कर लें। यह पहचान हो जाने पर हम
नायक-नायिका के चरित्र और वैचारिकी से अपना साम्य स्थापित करने लगते हैं। और जैसे
जैसे यह साम्य प्रगाढ़ होता जाता है, हम नायक-नायिका से सहमत होते जाते हैं। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ज़िन्दगी लाइव</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> उपन्यास में किसी पात्र में नायक-नायिका की पहचान करना कम से कम मेरे लिए
बहुत कठिन था। इस कथा के असल नायक इसमें घटित घटनाएं हैं। ये घटनाएँ इतनी
अप्रत्याशित, सघन और विच्छेदक हैं कि इनके आगे कहानी के पात्र गौंड़ हो जाते हैं।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">इस कहानी को लेखक ने ऐसे बुना है जैसे फ्रेम
में तने कपड़े पर धागे से महीन कढ़ाई की जाती है। फ्रेम है मुम्बई में हुआ आतंकी
हमला। कपड़ा है बच्चे के गुम हो जाने और उसके अपहरण की घटना। इस कपड़े पर लेखक ने
स्त्री-पुरुष संबन्धों, नव-आर्थक विकासवाद, अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के
अपराधीकरण की कढ़ाई की है। 26 नमंबर को अचानक मुम्बई पर आठ-दस आतंकवादी हमला कर
देते हैं। एक खबरिया टीवी चैनल की एंकर सुलभा अपनी नाइट शिफ्ट खत्म ही करने वाली
होती है कि हमले की खबर आ जाती है। और फिर उसे रात भर ड्यूटी करनी पड़ती है। उसका
दो साल का बेटा ऑफिस के ही एक हिस्से में बने क्रेच में एक आया की देखरेख में रहता
है। रात दस बजे आया को अपने घर जाना होता था। उस दिन न्यूज की आपाधापी में सुलभा
अपने बच्चे को भूल जाती है। आया कुछ देर परेशान होती है और अंतत</span><span lang="EN-US">:</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> बच्चे को अपने साथ लिए जाती है कि अगले दिन वह बच्चे को उसकी माँ को सौंप
देगी। लेकिन बीच रास्ते में वह बच्चा उसी चैनल में काम करने वाली एक दूसरी औरत के
पास चला जाता है। अगली सुबह जब न्यूज ड्यूटी शिफ्ट होने पर सुलभा फुरसत होती है तो
उसे अपने बच्चे का खयाल आता है। वह भागकर क्रेच पहुँचती है लेकिन बच्चा गायब है।
अब एक बदहवास खोज शुरू होती है बच्चे की। आया से जो औरत बच्चे को ले जाती है, वह
अगली सुबह सुलभा को इसलिए बच्चा उसके पास होने की जानकारी नहीं देती, क्योंकि
सुलभा ने उस दिन उसको किसी बात पर डाँट दिया था। और वह चाहती थी कि सुलभा कुछ देर परेशान रहे। फिर शाम को वह बच्चे
को सुलभा के पास पहुँचा देगी। लेकिन इस बीच एक अपराधी किस्म का बिल्डर फिरौती के
लालच में बच्चे का अपहरण कर लेता है। बच्चे समेत उस औरत, आया और उसके पूरे परिवार
को बंधक बना लिया जाता है। बच्चे के माँ-बाप, परिवार, चैनल के सहयोगी मित्र, सब
बच्चे की तलाश में बदहवास हो रहे हैं। बच्चे का क्या हुआ यह तो अब आप उपन्यास में
ही पढ़ेंगे। मैं अब उस तकनीकी त्रुटि का ज़िक्र कर दूँ जो लेखक ने फंतासी रचना के
दौरान की है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जिस समय की यह कहानी है, उस समय तक संचार के
सभी आधुनिक साधन आ चुके थे। सबके हाथ में एक मोबाइल फोन था। न्यूज चैनल वाले
मोबाइल पर ही घटनाओँ की लाइव कवरेज दे रहे थे। लेखक ने खुद बताया है कि आया शीला,
जो बच्चे को अपने साथ ले गई थी, उसके पास मोबाइल रहता था। जाहिर है कि उसके मोबाइल
में अपने घरवालों के अलावा ऑफिस के कुछ जरूरी लोगों के नम्बर भी रहे होंगे। ऑफिस
से बच्चे को लेकर निकलते समय वह सुलभा से नहीं मिल सकी क्योंकि वह न्यूज डेस्क पर
थी। लेकिन वह ऑफिस के किसी दूसरे व्यक्ति को बता सकती थी कि वह बच्चे को अपने साथ ले
जा रही है। अगर आपाधापी में नहीं भी बता सकी तो जब उसने ऑफिस की गाड़ी में दूसरी
औरत चारु को बच्चा सौंप दिया था, उस वक्त तो उसे अपने मोबाइल से ऑफिस में किसी को
यह खबर देनी चाहिए थी। शीला ने अगले 36 घंटों तक सुलभा को या किसी को बच्चे के
बारे में फोन नहीं किया। इसके बाद तो वह बिल्डर द्वारा बंधक ही बना ली गई थी।
कितनी भी असामान्य स्थिति में यह समझ पाना संभव नहीं है कि कोई औरत, जो बिना किसी
दुर्भावना के, विवशता में किसी के दो साल के बच्चे को ले जा रही है, वह उस बच्चे
की माँ को इसकी सूचना देने की हर संभव कोशिश न करेगी। असल में उपन्यासकार जिस
कपड़े पर कढ़ाई करना चाहते थे उसे जरूरत भर तानना अपरिहार्य था। सृजनात्मक लेखन की
नैतिकता के हिसाब से भी यह वैध है। लेकिन इस छोटी सी चूक ने फंतासी को मनगढ़ंत
किस्सा बना दिया। इसी बिन्दु से पाठक यह सोच लेगा कि इस किस्से को अब स्वाभाविक
परिस्थितियाँ नहीं, लेखक की मेधा आगे बढ़ाएगी। हालांकि ऐसा समझ लेने पर भी उपन्यास
में विस्मय-तत्व की चाशनी एकदम गायब नहीं हो जाती, लेकिन कुछ पतली ज़रूर हो जाती
है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लेकिन यह चूक बहुत भारी नहीं पड़ती। उपन्यास
का कोई अनर्थ इस चूक से नहीं होता। क्योंकि लेखक जो बातें इस उपन्यास के जरिए कहना
चाहते हैं, उन्हें बहुत ताकत और विश्वसनीयता से कहते हैं। मुम्बई का आतंकी हमला
भले ही कृति के पृष्ठभूमि में है, लेकिन लेखक आतंकवाद की विभीषिका नहीं दिखाना
चाहते। आतंकी हमला एक ऐसी घटना के रूप में आया है जो कुछ ऐसे सवाल उठा देता है
जिनका संबन्ध आतंकवाद से दूर तक नहीं है।
हमले के तीन दिन बाद तक, जब तक सेना ने अपना ऑपरेशन पूरा नहीं कर लिया, घटनास्थल
से हजारों मील दूर कुछ लोगों के जीवन में ऐसी उथल-पुथल मची हुई थी, जो रिश्तों के
पारंपरिक छन्द को छिन्न भिन्न किए दे रही थी। ऐसे सवाल पूछे जा रहे थे, जो बार बार
पूछे जाने के बाद भी पुराने नहीं पड़े थे और उनका हर उत्तर अनंतिम था। सबसे अधिक
संतोष की बात यह है कि उपन्यास में आये सभी सवालों और उनके जवाबों का नियमन लेखक
नहीं करता। लेखक ने सभी सवाल पात्रों और
स्थितियों के जरिए उठाकर, सभी संभावित उत्तरों के लिए रास्ता खोल रखा है। लेखक ने
एक अनायास सी दिखने वाली सावधानी और बरती है कि कहानी को किसी एक सवाल पर
केन्द्रित नहीं किया है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">उपन्यास के पात्र और घटनाएँ जिस आधुनिक
भारतीय मीडिया से जुड़े हुए हैं, पहला सवाल उसी मीडिया पर है। सुलभा के पिता
जगमोहन सिन्हा कहते हैं कि हमारा मीडिया अपरिपक्व लोगों के हाथों में है। सुलभा भी
यह महसूस करती है कि वह आँख में पट्टी बांधकर दौड़ती है और दुनिया की आँख में
पट्टी बांध देती है। और कभी दुनिया आँख में पट्टी बांधकर उसकी तरफ आती है और उसकी
आँख में पट्टी बांध देती है। यानी झूठ और छद्म का खेल दोनों तरफ से चल रहा है।
उपन्यास के पात्र कभी-कभी ये सवाल खुद से करते हैं कि क्या हर घटना खबर होनी चाहिए
</span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> कहानी में एक्स्ट्रा मैरिटल और प्री-मैरिटल प्रेम संबन्धों पर भी
प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं और इसका जस्टीफिकेशन भी इस युक्ति के साथ दिया गया है कि </span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अगर एक रिश्ते से आपका काम नहीं चलता तो कोई बात नहीं, दूसरे अगर तैयार हों
तो आप जितनें चाहें उतने रिश्ते बनाएँ। लेकिन सबको बताकर- यह नहीं कि हर किसी को
अँधेरे में रख कर उसे भरोसा दिलाए जा रहे हैं कि यह प्रेम सिर्फ उसी से है।</span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> ऐसा इसलिए क्योंकि </span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">दो लोगों के बीच के रिश्ते सिर्फ दो लोंगों के नहीं होते, नहीं हो सकते।
उनमें तीसरे का भी एक कन्टेक्स्ट होता है। यह तीसरा कोई इन्डिविजुअल भी हो सकता है
और पूरी सोसाइटी भी।</span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> और यह प्रेम भी कोई </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">साहित्य और सिनेमा</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> वाला नहीं है, बल्कि </span><span lang="EN-US">“ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बस लड़की हासिल करने की लड़कों की बेताबी है।</span><span lang="EN-US">“<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
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<div style="border-bottom: dotted windowtext 3.0pt; border: none; mso-element: para-border-div; padding: 0cm 0cm 1.0pt 0cm;">
<div class="MsoNormal" style="border: none; mso-border-bottom-alt: dotted windowtext 3.0pt; mso-padding-alt: 0cm 0cm 1.0pt 0cm; padding: 0cm;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">उपन्यास राजनीति
और अपराध के नेक्सस की भी बात करता है। और विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन छल से
हड़पे जाने की समस्या की ओर भी इशारा करता है। एक संक्षिप्त पैरा में जातिगत
आरक्षण की वैधता पर भी प्रश्न उठाता है। कुल मिलाकर लेखक ने अपने कौशल से एक
नितान्त भिन्न पृष्ठभूमि पर बिल्कुल अनपेक्षित सवाल खड़े कर दिए हैं, जो
उपन्यास-कला के विकास का एक नया आयाम है। लेकिन किताब में प्रूफ की गलतियों ने
लेखक को भी बहुत विचलित किया होगा। आशा है कि इन गलतियों को अगले संस्करण में
सुधार लिया जाएगा।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
</div>
</div>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-60803803419334866672017-02-05T20:22:00.001-08:002017-02-05T20:22:58.919-08:00सिनेमाई यथार्थ और पद्मावती का लोक आख्यान<p dir="ltr"> बाज़ारवाद के स्वर्णकाल में, जब सारे कला-माध्यम अपना असर लगभग खो चुके हैं, सिनेमा ने कुछ हद तक अपना असर बचाए रखा है. सिनेमा प्रत्यक्षत: किसी परिवर्तन का निमित्त भले ही न बन पा रहा हो लेकिन इतनी ताकत उसमे अभी भी दिखती है कि वह समय समय पर किसी विवाद को जन्म दे देता है. सिनेमा में इतना असर अभी भी है कि वह बीच-बीच में ऐसी बहसों का कारण बन जाता है, जिनसे इतिहास-भूगोल से कटे हुए लोग भी इतिहास-भूगोल की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अब यह अलग बात है कि अक्सर ये यात्राएँ छोटी और अल्पप्राण ही होती हैं. सिनेमा के बरक्स अगर दूसरे कला-माध्यमों को देखा जाए तो लगभग सभी का जनमानस से सीधा संवाद और रिश्ता बहुत कम बचा है. ये कला-माध्यम कोई सांस्कृतिक हलचल पैदा करने की हैसियत खो चुके हैं. <br>
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फिल्मों से विवाद पैदा होना कोई नई बात नहीं है. सिनेमा के इतिहास पर जिनकी नज़र है, वो जानते हैं कि कई फिल्मों ने विवादों और बहसों को जन्म दिया है. अक्सर ये विवाद फायदेमंद भी रहे हैं. फिल्मकारों के लिए अक्सर ये विवाद संजीवनी साबित हुए हैं. लेकिन कुछ वर्षों से फिल्मों से जुड़े सारे विवाद धार्मिक आपत्तियों पर केन्द्रित होते जा रहे हैं. वही फिल्में विवादित हो रही हैं जिन्होने किसी धार्मिक विषय को छुआ है या कोई टिप्पणी की है. इस रुझान की उग्र शुरुआत तब हुई थी जब मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपनी कुछ फिल्में बनायीं. हुसैन साहब अपनी पेन्टिंग्स को लेकर पहले से ही सांप्रदायिक उपद्रवियों के निशाने पर थे. अंतत: उन्होंने देश ही छोड़ दिया था. आपको याद होगा कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ में भी कथित कथित धार्मिक टिप्पणियों के खिलाफ बहुत हंगामा हुआ था. तब कमल हासन ने भी देश छोड़ देने की धमकी दी थी. आमिर खान की एक-दो फिल्मों पर विवाद हुए. अभिनेता-निर्देशक चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से फिल्म बना रहे थे. कई अड़चनों के बाद फिल्म बनकर तैयार भी हो गयी. लेकिन दुर्योग ने इस फिल्म का साथ नहीं छोड़ा. फिल्म का ट्रेलर रिलीज हुआ तो हंगामा मच गया. कुछ हिन्दू संगठनों की धार्मिक आस्था फिर आहत हो गई. आज तक फिल्म रिलीज नहीं हो पायी. ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर उठा, जिसे फिल्मकार ने थोड़ी शर्मिन्दगी उठाते हुए सुलझा लिया. इस विवाद पर आगे थोड़ा विस्तार से बात करेंगे. <br>
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पहले एक सवाल सिने-प्रेमियों और समाज शास्त्रियों से. क्या भारतीय सिनेमा अब धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा ? या हम दर्शक ही धर्म-निरपेक्ष नहीं रहे ? बालीवुड हमेशा धर्मनिरपेक्षता की मिसाल के रूप में देखा जाता रहा है. हमने देखा है कि नाजुक सांप्रदायिक मौकों पर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने एक स्वर में लोगों को जोड़ने वाली आवाज़ उठाई. फिल्म निर्माण का पेशा और संस्कृति अपने स्वभाव में ही ऐसी है. बहाँ सांप्रदायिक विभाजन की गुंजाइश बहुत कम बनती है. बावजूद इसके, इधर एक दो वर्षों में बालीवुड को धार्मिक-सांप्रदायिक विवादों में घसीटा जाने लगा है. फिल्मकारों कलाकारों पर कट्टरपंथियों ने हमले किए. अक्सर हिन्दू कट्टरपंथी, फिल्मकारों पर आरोप लगाते हैं कि वे सिर्फ हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर चोट करते हैं. कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं दिखाते. यह आरोप लगाते हुए, सन 2007 में रिलीज हुई पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ को भूल जाते हैं. यह फिल्म युवा फिल्मकार शोयब मंसूर ने बनाई थी. पाकिस्तानी और भारतीय कलाकारों/टेकनीशियंस के मेल से बनी यह फिल्म इस्लामिक कट्टरवाद पर ज़बरदस्त प्रहार करती है. भारत में यह फिल्म 2008 में रिलीज हुई थी. फिल्मकार को कट्टर मुल्लाओं और आतंकियों की ओर से खूब परेशान किया गया. <br>
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ऐसे लोगों से मेरा प्रतिप्रश्न यह है कि क्या आपका धर्म इतना कमज़ोर है कि किसी की प्रतिकूल टिप्पणी से वह खण्डित हो जाएगा या उसका असर खत्म हो जाएगा ? और इतना ही कमज़ोर है आपका धर्म तो उसे ढोते रहने का क्या हासिल ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भारत समेत पूरी दुनिया के समाजों में धार्मिक कट्टरता और ध्रुवीकरण बढ़ा है. धर्म अब धारण करने की नहीं, उपयोग करने की चीज हो गया है. धर्म का उपयोग व्यक्ति के रूप में श्रेष्ठ होने के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के रूप में श्रेष्ठता आरोपित करने के लिए हो रहा है. असहिष्णुता कोई जुमला नहीं है, यह दो तिहाई दुनिया का सामाजिक सच है. लेखकों, फिल्मकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों का कोई और अर्थ है क्या ? <br>
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ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर हुआ. राजस्थान में फिल्म की शूटिंग के दौरान राजपूतों के संगठन श्री करणी सेना ने फिल्म यूनिट पर हमला कर दिया. उनका आरोप था कि पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच प्रणय संबन्धों के दृश्य फिल्माकर भंसाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और राजपूतों की गरिमा को आहत कर रहे हैं. उनका कहना है कि रानी पद्मावती को अलाउद्दीन छू भी नहीं सका था. रानी ने महल में मौजूद अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया था. यद्यपि करणी सेना की आपत्ति और हमला, इतिहास से छेड़छाड़ को आधार बना कर दिखती है, लेकिन असल बात धार्मिक असहिष्णुता ही है. एक मुगल शासक के साथ एक हिन्दू रानी को प्रणय, कट्टरपंथियों को कैसे स्वीकार हो सकता था ! <br>
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रही बात इतिहास बदलने की. तो आइए देखते हैं कि इतिहास कहता क्या है. सच तो यह है कि किसी भी लिखित इतिहास में रानी पद्मावती का उल्लेख है ही नहीं. पद्मावती या पद्मिनी का चरित्र, साहित्य और राजस्थान की लोकगाथाओं में मिलता है. सूफी कवि-फकीर मलिक मुहम्मद जायसी ने सन 1540 के आसपास अवधी भाषा में महाकाव्य ‘पद्मावत’ की रचना की. महाकाव्य की नायिका रानी पद्मावती हैं. यह महाकाव्य प्रेम और विरह का अद्भुत आख्यान है. पद्मावती, सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी थीं इनके पिता गन्धर्वसेन और माता चंपावती थीं. स्वयंवर में विजय हासिल कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने इन्हें अपनी रानी बनाया. ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय दिल्ली सल्तनत पर खिलजी वंश का शासन था और अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान था. अलाउद्दीन सन 1296 से 1316, मृत्यु तक दिल्ली का सुल्तान रहा. उसकी राज्य विस्तार की नीति के कारण उसे सिकन्दर-ए-सनी (दूसरा सिकन्दर) की उपाधि मिली हुई थी. 1303 में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था. उसी आक्रमण के समय रानी पद्मावती के कथित जौहर की गाथा राजस्थान के लोकमानस में प्रचलित है. जायसी की रचना इस समय से लगभग 237 वर्ष बाद लिखी गई. जाहिर है कि उन्होने अपनी रचना का आधार राजस्थान की लोकगाथाओं को ही बनाया होगा. अत: ‘पद्मावत’ की कथा को इतिहास मानना बुद्धिमानी नहीं होगी. लोकगाथाएँ न तो कोरा झूठ होती हैं, और न पूरा इतिहास. ये गाथाएँ वाचिक परंपरा में चलती हुई, समय, संघर्ष और शिक्षण के आग्रहों से बदलती रहती हैं. <br>
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इतिहास के विवरणों में अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण और रतन सिंह के विवरण तो मिलते हैं, लेकिन रानी पद्मावती और उनके जौहर का कोई ज़िक्र नहीं है. यहाँ तक कि अलाउद्दीन के समकालीन कवि-इतिहासकार अमीर खुसरो ने भी पद्मावती का कोई उल्लेख नहीं किया है. अलबत्ता लोकगाथाओं से यह जरूर पता चलता है कि राणा रतन सिंह की पत्नी पद्मावती का सौन्दर्य अप्रतिम था. रतन सिंह के दरबारी संगीतकार राघव चैतन्य थे, जिनका बड़ा मान था. वो एक तांत्रिक भी थे. कहा जाता है कि वो अक्सर महल में बुरी आत्माओं को बुलाते थे. रतन सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने राघव चैतन्य को अपमानित कर राज्य से निर्वासित कर दिया. अपमानित राघव दिल्ली, अलाउद्दीन के पास पहुच गए. हृदय में रतन सिंह से बदले की आग थी. अलाउद्दीन के सामने उन्होंने रानी पद्मावती के रूप का ऐसा वर्णन किया कि सुल्तान पद्मावती को पाने के लिए उद्धत हो उठा. उसने चित्तौड़ की घेराबन्दी कर दी और राजा रतन सिंह को बन्दी बना लिया. राजा की रिहाई के बदले पद्मावती को पाने की शर्त रखी. चित्तौड़ के सेनापति गोरा और बादल ने कूट रचना की और अलाउद्दीन को संदेश भेजा कि रानी पद्मावती को उसके पास भेजा जा रहा है. सात सौ पालकियों में रानी का काफिला अलाउद्दीन के शिविर पर पहुँचा. लेकिन रानी उसमें नहीं थीं. उन पालकियों में सशस्त्र सैनिक थे. काफी संघर्ष के बाद गोरा-बादल ने रतन सिंह को अलाउद्दीन के चंगुल से छुड़ा लिया. गोरा युद्ध में मारा गया, लेकिन बादल, रतन सिंह को सुरक्षित महल तक पहुँचाने में सफल रहा. इस पराजय से आहत अलाउद्दीन ने दोबारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया और रतन सिंह सहित सारे सैनिकों को मार डाला. महल के अन्दर पद्मावती समेंत दूसरी रानियों और स्त्रियों ने जब यह समझ लिया कि अब उनकी इज्जत सुरक्षित नहीं है तो उन्होंने महल के आँगन में आग जला कर सामूहिक जौहर कर लिया. अलाउद्दीन के सैनिक जब भीतर पहुँचे तो उन्हें राख और हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला. <br>
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यह कहानी है जो पद्मावत और लोक आख्यानों में मिलती है. संजय लीला भंसाली पद्मावती की कौन सी कहानी रच रहे हैं, अभी इसका पता नहीं है. लेकिन इतना तय है कि भंसाली, सिनेमा के अपरिहार्य तत्व ‘मनोरंजन’ और बॉक्स ऑफिस का खयाल जरूर रखेंगे. यद्यपि विवाद के बाद भंसाली ने श्री राजपूत महासभा के अध्यक्ष के साथ मिलकर यह सफाई दी कि फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच कोई रोमैन्टिक दृश्य नहीं रहेंगे. यह बेशक एक समझौता है. अगर लोकगाथाओं को भी आधार बना कर फिल्म बनाई जाए, तो क्या यह संभव है कि जो अलाउद्दीन, पद्मावती को पाने के लिए इस तरह व्याकुल हो, उसके सपनों और कल्पना में पद्मावती से प्रणय के चित्र न रहे होंगे ! और कौन ऐसा फिल्मकार होगा जो अपनी फिल्म में ऐसा ड्रीम सीक्वेन्स न डालेगा ! भंसाली मँजे हुए फिल्मकार हैं. उन्होंने यह समझौता किया है तो नफा-नुकसान सोच कर ही किया होगा. फिल्म में काट-छाँट के बाद भी इस विवाद ने फिल्म की व्यावसायिक सफलता की गारण्टी तो दे ही दी है. <br>
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लेकिन यदि संजय लीला भंसाली, फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच प्रणय दृश्य दिखाते तो क्या गलत होता ? समाज में सिनेमा की ऐसी व्यापक लोकप्रियता और स्वीकृति क्या सिनेमा के यथार्थवाद की वजह से है ? सिनेमा एक ऐसा कला-माध्यम है जो हमारे सपनों और अवचेतन की ग्रंथियों को परदे पर रूपायित करता है. सिनेमा, यथार्थ का एक ऐसा काल्पनिक विस्तार है जो हमारी आकांक्षाओं को तुष्ट करता है. इसीलिए सिनेमा को शुरुआत से ही यह छूट मिली हुई है कि वह इतिहास-भूगोल के साथ आवश्यक कलात्मक छेड़छाड़ कर ले. मनुष्य का मनोविज्ञान यही बताता है कि उसके भीतर इतिहास-भूगोल का अतिक्रमण करने की एक अदम्य लालसा हमेंशा बनी रहती है. <br>
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न जाने क्यों पिछले दस-ग्यारह दिनों से, सरकार की नोटबंदी की प्रक्रिया पर लिखने से मैं खुद को बचा रहा था. आप समझ सकते हैं कि साप्ताहिक स्तंभ लिखने के लिए अपने वर्तमान से एक सजग संबन्ध बनाए रखना कितना ज़रूरी होता है. पिछले हफ्ते तो बाल-दिवस ने बचा लिया. नौनिहालों की चिन्ता हमेशा मेरे चिन्तन के केन्द्र में रही है. इसलिए बाल-दिवस पर उसे व्यक्त कर देना अप्रासंगिक नहीं रहा. लेकिन मैं यह भी देख रहा था कि नोटबंदी के बाद मचे हाहाकार के बीच बाल-दिवस का उल्लास कहीं गुम होकर रह गया. 9 नवंबर से नोटबंदी हुई. तब से लेकर आज तक लोगों की चर्चा में सिर्फ एक ही बात है-पैसा. पैसे को लेकर जितने भी संभव कोण हो सकते हैं, उन सभी कोणों पर बातें जारी हैं. ऐसा मंज़र है कि हर नागरिक अर्थशास्त्री है. वित्त-मंत्रालय और रिजर्व बैंक से रोज जारी होने वाले आदेश विद्युत गति से एक ज़ुबान से दूसरी ज़ुबान तक पहुँच रहे हैं. मोबाइल फोन पर सूचनाएँ आ-जा रही हैं कि फलाँ बैंक पैसा दे रहा है, फलाँ बैंक में पैसा खत्म हो गया. अमुक चौराहे के ए.टी.एम. से पैसा निकल रहा है.</p>
<p dir="ltr">सच पूछिए तो पहले दो दिन तो मुझे समझ ही नहीं आया कि नोटबंदी पर हसूँ या रोऊँ. जो छुट्टे पैसे जेब में थे उनसे दो दिन का काम चल गया. बंधे पैसे भी ज्यादा नहीं थे. तीसरे दिन 500 के तीन नोट लेकर बैंक की ओर चला कि इस काले धन को बैंक में जमा कर के अपने खाते से दस हजार निकाल लूँगा तो गृहस्ती का कारोबार चलता रहेगा. ठेल-ठाल के जब बैंक के काउन्टर पर पहुँचा तो बताया गया कि अभी सिर्फ पैसे जमा हो रहे हैं, दिए नहीं जा रहे. हमने अपना कालाधन जमा किया और लौट आए. जो था वो भी चला गया. जेब में पचास-साठ रुपए बचे थे. अगले दिन फिर बैंक गया. मैनेजर साहब ने कहा कि पैसा चेक से मिलेगा, वो भी सिर्फ दो हज़ार. मैं चेकबुक लेकर गया नहीं था लिहाज़ा घर भागना पड़ा. खैर चेक से एक चमचमाता हुआ दो हज़ार का नोट मिला. मैने सोचा पहले स्कूटर में पेट्रोल भराया जाए ताकि नौकरी और घूमने फिरने में कोई बाधा न आए. पेट्रोल पंप पर पहुँचे तो कहा गया कि कम से कम सत्रह-अठारह सौ का पेट्रोल डलवाइए तभी दो हज़ार का नोट लिया जाएगा. अब बताइए चार लीटर की टंकी में अठारह सौ का पेट्रोल कैसे डलवाते ! सो मायूस होकर लौटना पड़ा. वो तो भला हो उस किराना दुकान वाले का जिसके भीतर अचानक संवेदना का स्रोत कहीं से फूट पड़ा और उसने दो हज़ार का छुट्टा बिना कोई सामान खरीदे दे दिया. मेरी आत्मा अदृश्य तरीके से उसकी ऋणी हो गई, और मेरी गाड़ी चल निकली.</p>
<p dir="ltr">देश के करोड़ों लोगों की तरह मुझे भी अर्थशास्त्र की ज्यादा समझ नहीं है. मैं भी रुपए के मूल्य को अपने सुख-दुख के समानुपाती समझता हूँ. मुझे यह कभी नहीं समझ आता कि कौन सी मर्दाना कमजोरी की वजह से शेयर बाजार का शीघ्रपतन हो जाता है, और कौन सी वियाग्रा खाने से सेंसेक्स की उत्तेजना बढ़ जाती है. शेयर मार्केट के ‘साँड़’ और ‘भालू’ कौन सी अफीम खाकर अँगड़ाई लेते हैं, इसका मुझे सचमुच कोई इल्म नहीं. मुझे तो इन दिनों छत्तीसगढ़ के उस भाजपा नेता का डायलॉग याद आ रहा है, जब उसने घूस लेते हुए कहा था-“ख़ुदा कसम ! पैसा ख़ुदा नहीं, पर ख़ुदा से कम भी नहीं !” ये नेता जी एक स्टिंग ऑपरेशन में यह बात कह रहे थे. इस घटना से उनका राजनीतिक कैरियर बर्बाद भी हो गया. उनका यह डायलॉग उस दिन से मुझे याद आ रहा है जब मैं चौथी बार बैंक गया. दिन का दूसरा पहर था. बैंक में दो ऐसे व्यक्ति बैठे थे जिनके घर में किसी की मृत्यु हो गई थी. अगले दिन उनके यहाँ तेरहवीं थी और उन्हें पैसों की ज़रूरत थी. बैंक वालों ने कह दिया कि पैसे खत्म हो गए हैं. आप जानते ही हैं कि हिन्दू समुदाय में मृतक की तेरहवीं के आयोजन में कितना खर्चा होता है. उसी समय दो सुदर्शन महिलाएँ भी पैसे लेने पहुँचीं. मैनेजर साहब ने उन्हें इशारे से समझाया कि वे दोनों व्यक्ति यहाँ से हट जाएँ तो पैसे निकाल देंगे. मेरे लिए यह दृश्य संवेदना का एक नया रूप था.</p>
<p dir="ltr">अर्थशास्त्र की मेरी समझ भले ही कमज़ोर है पर पिछले कुछ समय से मन कहता है कि कहीं कुछ छल किया जा रहा है हमारे साथ. काफी समय से यह बताया जा रहा है कि मुद्रास्फीति घट रही है, लेकिन मंहगाई कम होने की बजाय बढ़ती ही गई. आर्थिक विकास दर के सरकारी आँकड़ों में अचानक उछाल आ गया लेकिन उसका कोई फायदा जनता को मिलता नहीं दिख रहा. उल्टा, सातवें वेतनमान का निर्धारण करते हुए सरकार ने पिछले वेतनमानों की परंपरा को भी तोड़ दिया और अपने कर्मचारियों को बहुत मामूली लाभ दिया. सरकार का यह भी दावा है कि पिछले दो सालों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ गया है, लेकिन हम देख रहे हैं कि इसी अवधि में नौकरियों का अकाल हो गया है. सरकारी दावों और परिणाम के ये विरोधाभास क्या किसी छल की ओर इशारा नहीं करते ? छोटी सफलताओं के बड़े जश्न, क्या बड़ी असफलताओं को छुपाने के प्रयास नहीं हैं ? सर्जिकल स्ट्राइक का विश्वव्यापी प्रचार, क्या चीन और पाकिस्तान से मिली कूटनीतिक पराजय की प्रतिक्रिया नहीं थी ?</p>
<p dir="ltr">प्रधानमंत्री ने जब नोटबंदी की घोषणा की तो एकबारगी सबकी तरह मुझे भी यह एक बढ़िया कदम लगा. यह सोचकर खुशी हुई कि देश से कालाबाज़ारी खत्म हो जाएगी और लोगों के पास दबा गैरकानूनी धन सरकार के खजाने में पहुँच जाएगा. आतंकियों और नक्सलियों की कमर टूट जाएगी. लेकिन जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की हकीकत सामने आती जा रही है. जनता को हो रही परेशानियाँ तो आप सब देख ही रहे हैं. उसकी बात करना अब उतना जरूरी नहीं है. मैं यह देखना चाह रहा हूँ कि क्या सरकार अपने मकसद में सफल होती दिख रही है ? ऐसा नहीं है कि दुनिया में पहली बार किसी देश ने अपनी मुद्रा के साथ छेड़छाड़ की है. इसके पहले भी कई देशों ने विमुद्रीकरण की प्रक्रिया अपनायी है. लेकिन अब तक असफलता का आँकड़ा, सफलता से अधिक ही रहा है.</p>
<p dir="ltr">अपने आखिरी दिनों में सोवियत संघ ने जनवरी 1991 में विमुद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की. तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्वाचोव रूसी मुद्रा रूबल की कालाबाज़ारी से परेशान थे. वो रूबल को बाहर करना चाहते थे. उन्होने 50 और 100 रूबल को प्रतिबन्धित कर दिया. यह करेंसी सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा थी. उन्होने उदारीकरण और राजनीतिक आर्थिक सुधार के इन कार्यक्रमों को ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ नाम दिया. लेकिन सोवियत संघ को इसका कोई फायदा नहीं हुआ, उल्टे अगस्त का महीना आते आते सोवियत संघ का विघटन हो गया.</p>
<p dir="ltr">ब्लैकमनी और कालाबाज़ारी पर रोक लगाने के लिए उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोन्ग ने 2010 में विमुद्रीकरण किया. उन्होने सभी करेंसी वैल्यू से दो शून्य हटा दिए. यानि 1000 का नोट 10 का रह गया और 5000 का नोट 50 की कीमत का हो गया. उत्तर कोरिया में इस फैसले का बहुत बुरा असर हुआ. महगाई आसमान छूने लगी. खाद्यान्न की कीमतें इतनी अधिक हो गईं कि लोग भूखों मरने लगे. अंतत: तानाशाह को माफी मागनी पड़ी और उसने अपने वित्तमंत्री को फांसी पर लटका दिया. इसी तरह म्यामार में 1987 में मिलिट्रीशासन नें लगभग 80 प्रतिशत करेंसी को अवैध घोषित कर दिया. म्यामार के इतिहास में पहली बार छात्रों ने विमुद्रीकरण के विरोध में आन्दोलन शुरू किया. यह आन्दोलन साल भर चला. सरकार ने भरपूर दमन किया. नतीजा यही रहा कि हज़ारों नागरिक मारे गए.</p>
<p dir="ltr">मुद्रा के साथ छेड़खानी यानि विमुद्रीकरण की प्रक्रिया हर बार असफल रही हो, ऐसा भी नहीं है. लेकिन यह सफलता विकसित देशों को ही मिली. 1971 में इंग्लैण्ड ने रोमन काल से चले आ रहे सिक्कों को हटाने के लिए अपनी मुद्रा पाउण्ड में दशमलव पद्धति लागू की. अर्थशास्त्र में इसे ‘डेसिमलाइजेशन’ कहा जाता है. पूरे देश में चार दिन बैंक बन्द कर दिए गए. और पर्याप्त मात्रा में नई करेंसी पहुँचा दी गई. इतने कम समय और जनता को परेशान किए बगैर इंग्लैण्ड ने सफलता के साथ पुराने सिक्कों को बाहर कर दिया. इसी तरह जनवरी 2002 में यूरोपीय संघ के 11 देशों ने नयी करेंसी ‘यूरो’ अपनायी. यूरो का जन्म 1999 में ही हो गया था. तीन साल की तैयारी के बाद इसे सदस्य देशों ने अपनाया और इसका उनकी अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर हुआ.</p>
<p dir="ltr">इन असफलताओं और सफलताओं के बरक्स भारत के विमुद्रीकरण या नोटबंदी को देखिए. यह साफ है कि प्रक्रिया जल्दबाजी में शुरू की गई. अगर कोई कार्ययोजना बनी भी है तो हद से हद उसे एक महीने का ही समय मिला. रिजर्व बैंक पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को पद छोड़े एक महीने से कुछ ही दिन अधिक हुए थे जब यह घोषणा हुई. रघुराम राजन ने अपने बयान में कहा भी है कि नोटबंदी से कालाधन वापस नहीं आएगा. साफ है कि उनके समय में ऐसी कोई योजना न बनी होगी. यह निर्णय नये गवर्नर उर्जित पटेल के आने पर ही लिया गया. यह इससे भी स्पष्ट है कि जो नई करेंसी आ रही है उस पर उर्जित पटेल के ही हस्ताक्षर हैं. रही बात कालेधन की तो जिनके पास करोड़ों में पैसा था उन्होंने उसे घर पर नहीं रखा है. उनका पैसा व्यापारियों, बिल्डरों, शेयर मार्केट में लगा हुआ है. जो धीमी गति से ही सही, अंतत: सफेद हो ही जाएगा. जिनके पास थोड़ी छोटी रकमें थीं वो इन दिनों सोना खरीद कर रख रहे हैं. अनधिकृत रूप से सोने की कीमत 55000 रुपये प्रति 10 ग्राम तक पहुँच गई है. सोने के व्यापारी बिना पैन कार्ड लिए सोना बेच रहे हैं. हवाला कारोबारी भी कमीशन लेकर कालेधन को सफेद कर रहे हैं. वैट से छूट प्राप्त कारोबारी 40 प्रतिशत पर बन्द हो चुके नोट ले रहे हैं. ये कारोबारी इन नोटों को 30 प्रतिशत टैक्स देकर जमा कर देते हैं तब भी इन्हें 30 प्रतिशत का मुनाफा हो रहा है. जिनके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं वो और भी आसान तरीकों से कालेधन को सफेद कर ले रहे हैं. इसमें बैंक के कर्मचारियों की बड़ी भूमिका है. कुल मिलाकर नोटबंदी से एक नए तरह का कालाबाज़ार पैदा हो गया है.</p>
<p dir="ltr">मुझे प्रधानमंत्री की मंशा पर कोई संदेह नहीं है. लेकिन उनकी समझ और महत्वाकांक्षाओं को लेकर हमेशा सवाल रहे हैं मेरे मन में. प्रधानमंत्री का स्वभाव बहुत उतावलेपन का है. वो भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अकेले ही बदल डालने की महत्वाकांक्षा लेकर चल रहे हैं. कदाचित चुनाव में मिले प्रचण्ड बहुमत ने उनके भीतर ये महत्वाकांक्षाएँ जगायी हों. भारत का प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी की कोशिशों से यह साफ दिखता है दुनिया में उनकी धाक अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन के राष्ट्रप्रमुखों से कुछ अधिक नहीं तो कम से कम उनके बराबर तो मानी ही जाए. नोटबंदी का चौंकाने वाला फैसला उनकी इसी मनोवृत्ति का परिणाम है. इस कदम से देश को कितना फायदा होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, फिलहाल आलम यह है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में 50 से 70 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की जा रही है.</p>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-26541685940309720682016-11-15T18:37:00.001-08:002016-11-15T18:37:31.871-08:00आँख के तारों का आकाश<p dir="ltr"> मनुष्य का सबसे सुन्दर रूप तब तक होता है जब वह बच्चा होता है. बच्चों की उपमा जब फूलों से दी जाती है, तो यह प्रकृति की सबसे खूबसूरत कृतियों का तादात्म्य दिखाने भर की कोशिश नहीं होती, बल्कि इसका छुपा अभिप्रेत भी होता है कि फूल जैसे कोमल बच्चों को तेज़ हवा, धूप और बारिश से कैसे बचाना चाहिए. दुनिया की निष्ठुरताओं के बीच कैसे इन्हें सहेजना चाहिए. ये बच्चे, जिन्हें दुनिया का भविष्य होना है, इनका वर्तमान कैसा है और कैसा होना चाहिए ! भविष्य, वर्तमान की कोख से ही लिकलता है. भविष्य का एक अनिवार्य जैनेटिक संबन्ध अतीत और वर्तमान के साथ होता है.</p>
<p dir="ltr">आज बाल दिवस है. यह दिन प्रत्यक्षत: बच्चों के उल्लास का दिन होता है. यह दिन उनकी उमंग में विभोर हो जाने और उनकी उड़ान को निरखने का होता है. अप्रत्यक्षत: यह दिन बड़ी चिन्ता का का दिन होता है. यह दिन दुनिया के भविष्य-दृष्टाओं को थोड़ा असहज और परेशान कर देता है. बच्चों की किलकारी और उछाह से जैसे ही नज़र हटती है, कुछ स्याह मंज़र नज़र आने लगते हैं. और नज़र है कि बार-बार हटती है. बच्चों की यह बेलौस हँसी, हमें आशंका के भँवर में बार-बार क्यों फँसा देती है ?</p>
<p dir="ltr">हमारे देश में बाल दिवस, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन से जुड़ा हुआ है. 14 नवंबर को नेहरू जी का जन्मदिन है और 1956 से ही इस दिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जा रहा है. बच्चों के प्रति नेहरू जी का प्यार और चिन्ता जगजाहिर है. किस्से भी बहुत हैं. उनकी शेरवानी में खुँसा हुआ गुलाब का फूल उनके इसी प्यार का प्रतीक माना जाता है. सिर्फ भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों में बाल दिवस मनाया जाता है. कहना न होगा कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों में बचपन को सहेजने का काम अधिक सचेत होकर और ज़िम्मेदारी से किया जाता है. जबकि भारत में सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद बच्चों की स्थिति चिन्ताजनक है.</p>
<p dir="ltr">बच्चे दुनिया के समाज की कितनी महत्वपूर्ण इकाई हैं, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1925 में जिनेवा में हुई विश्व कांफ्रेन्स में बच्चों के समुचित विकास के लिए बाल दिवस मनाने की घोषणा की गई और बच्चों की समस्याओं को चिन्ता के केन्द्र में रखा गया. इस कांफ्रेन्स में 54 देशों ने भाग लिया था. तब संयुक्त राष्ट्र संघ ने 20 नवंबर की तारीख को बाल दिवस के रूप में मनाने के लिए तय किया था. 1950 से बाल संरक्षण दिवस(1 जून) को ही कई देशों में बाल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा था. आपको जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि कुछ देशों ने बच्चों के अधिकारों की निगरानी के लिए अलग से लोकपाल की नियुक्ति कर रखी है. सबसे पहले नार्वे ने 1981 में लोकपाल नियुक्त किया. बाद में आस्ट्रेलिया, कोस्टारिका, स्वीडन, स्पेन, फिनलैण्ड आदि देशों में भी बच्चों के लिए लोकपाल नियुक्त किए गए. अपने देश में बच्चों के सर्वांगीण और समुचित विकास के लिए सरकारी स्तर पर योजनाएँ और नीतियाँ कम नहीं हैं. सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत ‘राष्ट्रीय बाल भवन’ नाम की एक स्वायत्त संस्था कार्यरत है. देश भर में 68 बाल भवन और 10 बाल केन्द्र संचालित हैं. यह संस्था बच्चों की रचनात्मक क्षमता को प्रोत्साहित करने, निखारने और उन्हें शोषण से मुक्त रखने के लिए सरकारी किस्म के प्रयास करती है. इसीलिए इसके नतीज़े बहुत उत्साहवर्धक और आश्वस्तकारी नहीं दिखते.</p>
<p dir="ltr">बच्चों के विकास और उन्हें शोषण से मुक्त रखने की चिन्ता हमारे देश के संविधान निर्माताओं को भी थी. इसीलिए उन्होने एकाधिक अनुच्छेदों में बच्चों से संबन्धित प्रावधान रखे हैं. संविधान के अनुच्छेद 15(3) में बच्चों और महिलाओं के सशक्तिकरण से यह चिन्ता शुरू होती है. अनु. 21(A) में 6-14 वर्ष के बच्चों को अनिवार्य एवं मुफ्त शिक्षा का प्रावधान है. सरकार को यह सुनिश्चित करने को कहा गया है कि 6-14 वर्ष का कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न रहने पाए. इसी तरह अनुच्छेद 24 साफ और कड़े तौर पर बालश्रम पर रोक लगाने की घोषणा करता है. बच्चों के स्वास्थ्य और रक्षा के लिए अनुच्छेद 39(E) में निर्देशित किया गया है. और आख़ीर में अनुच्छेद 39(F) में संविधान यह भी कह देता है कि राज्य बच्चों के सर्वांगीण और गरिमामय विकास के लिए सभी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराए.</p>
<p dir="ltr">अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि संविधान के उपरोक्त प्रावधान बहुत सकारात्मक और पर्याप्त हैं. लेकिन हमारे देश में बच्चों की स्थिति देख कर साफ पता चलता है कि संविधान की मंशा इस पवित्र ग्रन्थ में ही कहीं घुट कर रह गई है. यह हम नहीं, केन्द्र सरकार के सर्वेक्षण कहते हैं कि देश के 53.22 प्रतिशत बच्चे यौन शोषण के शिकार हैं. आश्चर्यजनक रूप से इनमे 53 प्रतिशत लड़के हैं, और लड़कियाँ 47 प्रतिशत. यौन शोषण करने वाले लोग कोई गैर नहीं बल्कि 50 प्रतिशत लोग इन बच्चों के नजदीकी रिश्तेदार या मित्र ही होते हैं. इसीतरह देश में लगभग पाँच करोड़ बालश्रमिक हैं, जो होटलों, खदानों, ट्रांसपोर्ट या अन्य खतरनाक जगहों में काम पर लगे हुए हैं. ऐसा नहीं है कि ये बालश्रमिक दिखाई नहीं पड़ते. लेकिन व्यवस्था की कमजोरियों के चलते बालश्रम धड़ल्ले से जारी है. ‘पढ़ना बढ़ना’ और ‘स्कूल चलें हम’ जैसे सरकारी आन्दोलनों के बावजूद देश में लाखों बच्चे स्कूल तक नहीं पहुँच पा रहे हैं.</p>
<p dir="ltr">इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा ही जीवन की दिशा और दशा तय करती हैय दुनिया भर में इस बात पर विमर्श हुए हैं कि बच्चों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए. अलग-अलग विधियाँ अपनाई गईं. हमारे देश में भी महात्मा गाँधी से लेकर गिज्जूभाई बधेका तक ने बच्चों की शिक्षा को लेकर कुछ मौलिक विचार दिए. अधिकतर विमर्शों का निष्कर्ष यही रहा कि बच्चों को क्रियात्मक ज्ञान दिया जाना चाहिए. शिक्षा ऐसी हो जो बच्चों का व्यक्तित्व बनाए. जो उनमें कुछ हुनर पैदा करे. साफ है कि हम उन बच्चों की बात कर हैं जो प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के विद्यार्थी हैं. यही सबसे नाजुक अवस्था होती है. एक बच्चे का पूरा भविष्य इसी बात पर निर्भर करता है कि उसे प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर कैसी शिक्षा मिली है. हम उस सुप्रसिद्ध रूपक का इसतेमाल करते हुए कहें तो प्राथमिक स्तर के बच्चे गीली मिट्टी की तरह होते हैं. उन्हें जैसा आकार दे दिया जाय उसी में ढल जाते हैं. आपने देखा होगा कि ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा तक पहुँचते पहुँचते बच्चों में एक व्यक्तित्व आकार लेने लगता है.</p>
<p dir="ltr">मैं जब अपने देश के आज के बच्चों को देखता हूँ तो मेरी चिन्ता इसी बिन्दु से शुरू होती है. मुझे सभी बच्चों के व्यक्तित्व एक जैसे नज़र आते हैं. उनमें कोई विलक्षणता नहीं दिखती. कोई निजता नहीं होती. इन बच्चों को देख कर मुझे अपने बचपन के वो दृश्य याद आते हैं, जब हमारे घरों में ईटें बनवाई जाती थीं. कुम्हार आते थे और घर के सामने के समतल दुआर में ईटें पारते थे. शाम होते होते पूरा दुआर एक जैसी ईटों से भर जाता था. मुझे आज के बच्चे इन्हीं ईटों की तरह दिखते हैं. जैसे सब के सब एक ही सांचे से निकल कर आए हों. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूँ कि आज के बच्चे बुद्धिमान नहीं होते. बल्कि सच तो है कि ज्ञान के विविध क्षेत्रों के प्रकाशन से आज के बच्चों का बौद्धिक विकास, पहले के बच्चों से अधिक अधिक स्तर पर होता है. लेकिन व्यावहारिक समझ के मामले में ये बच्चे पीछे रह जाते हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि बच्चों में क्रियात्मकता घट रही है. हमारे मोहल्लों से खेल के मैदान गायब हो गए तो बच्चों के जीवन से खेल-कूद गायब होते गए. खेत और बगीचों में कॉलोनियाँ बन गईं तो बच्चों का प्रकृति से रिश्ता टूट गया. प्रकृति को देखने के लिए उन्हें अब शिमला, मसूरी और कश्मीर जाना पड़ता है. साल दो साल में एक दो दिन के लिए. यह भी सम्पन्न घरों में ही संभव है. बच्चे प्रकृति के प्रेमी नहीं बन पाते. वे सिर्फ प्रकृति के पर्यटक रह गए हैं. जो खेल मैदानों में खेले जाते थे, उनकी जगह वीडियोगेम और कम्प्यूटर ने ले ली है.</p>
<p dir="ltr">मेरे जब स्कूल के दिन थे उस समय प्राथमिक स्तर पर चार विषय और माध्यमिक स्तर पर छ: विषय पढ़ाए जाते थे. पहली से पांचवी तक चार किताबें, चार कापियाँ और एक स्लेट. कापियाँ भी रोज़ लेकर नहीं जानी होती थीं. बहुत हल्का सा स्कूल बैग होता था. खेलने-कूदने-लड़ने-झगड़ने-गिरने-पड़ने के लिए इतना समय होता था कि अक्सर खपाए नहीं खपता था. आज की हालत देखिए. तीन-चार साल के बच्चे पचीस किलो का स्कूल बैग पीठ पर लादे दोहरे हुए जाते हैं. हम गौर करें तो दिखेगा कि हमारे ज़माने और अब के समय में ज्ञान के विषयों में कोई खास फर्क नहीं आया है. माध्यमिक स्तर तक जो शिक्षा बच्चों को दी जानी चाहिए, उसके विषय अब भी वही हैं जो पहले थे. बस कम्प्यूटर की शिक्षा अतिरिक्त बढ़ गई है. इस बीच जो विज्ञान का विकास हुआ है वो उच्चशिक्षा का मसला है, स्कूल शिक्षा का नहीं. फिर मेरी समझ में यह नहीं आता कि मेरे बेटे के स्कूल बैग का वज़न, मेरे स्कूल बैग से पचीस गुना ज्यादा क्यों हो गया ? मुझे यह भी बड़ा विचित्र लगता है कि इन बच्चों की साल भर परीक्षाएं ही चलती रहती हैं. हमारे समय में सिर्फ दो बार ही परीक्षा होती थी, अर्धवार्षिक और वार्षिक. इन बच्चों के पास इतना होमवर्क होता है किसी और काम के लिए अवकाश ही नहीं. मुझे बहुत शिद्दत से यह लगता है की हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों का आदमी नहीं, रोबोट बना रही है. और मैं डर जाता हूँ यह सोचकर कि रोबोटों से भरी, आगे आने वाली दुनिया, कैसी दुनिया होगी !</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyTr4NdYxja1FQEPlmkFk56EApXvQ0zO50Xw_K5GQAIJ3TbBqdgxDYohWzW8bJnhrURL853ZiDh0IVKLgx5-ferS4TkqIntgHRNE5vDlu1iUSOcvUXnTGTJyPeyQMrAATWWOUClXTSgfQ/s1600/Jawaharlal-Nehru-1.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgyTr4NdYxja1FQEPlmkFk56EApXvQ0zO50Xw_K5GQAIJ3TbBqdgxDYohWzW8bJnhrURL853ZiDh0IVKLgx5-ferS4TkqIntgHRNE5vDlu1iUSOcvUXnTGTJyPeyQMrAATWWOUClXTSgfQ/s640/Jawaharlal-Nehru-1.jpg"> </a> </div><div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-61449871862747559132016-11-09T19:00:00.003-08:002016-11-09T19:18:40.260-08:00मीडिया और नंगा राजा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आपको वह कहानी याद होगी जिसमें एक सनकी राजा नंगा होकर नगर की गलियों
से गुजरते हुए प्रजा से पूछता है कि उसके कपड़े कैसे है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लोग जवाब देते हैं-
अद्भुत </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> तभी कोई बच्चा बोल देता है- राजा नंगा है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> राजा नंगा है </span><span lang="EN-US">! </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> राजा के सिपाही बच्चे को पकड़ कर कैदखाने में
डाल देते हैं. यद्यपि एनडीटीवी कोई </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बच्चा चैनल</span><span lang="EN-US">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">नहीं है, लेकिन वो जब भी राजा को नंगा देखता है, बोल
देता है. और राजा अतत</span><span lang="EN-US">:</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> उसे कैदखाने पहुँचवा ही देता है. आखिर कब तक सहता रहता </span><span lang="EN-US">!<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जिस मीडिया की बदौलत आजकल कोई भी खबर देश भर
में आग की तरह फैल जाती है, उसी मीडिया पर हुए हमले की खबर भी आग से भी अधिक तेजी
से फैली और देश भर के सोच-समझ वालों को झुलसा दिया. आप सब तक भी यह खबर पहुँच ही
गई होगी कि देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने हिन्दी खबरिया चैनल एनडीटीवी
इंडिया पर चौबीस घंटे का प्रतिबन्ध लगा दिया है. 9 नवंबर की आधी रात से 10 नवंबर
की आधी रात तक, देश के किसी भी हिस्से में एनडीटीवी का प्रसारण नहीं होगा. सरकार
ने सभी प्रसारणकर्ताओं को ताकीद कर दिया है कि इस आदेश का गंभीरता से पालन हो
अन्यथा गंभीर सज़ा भुगतनी होगी. एनडीटीवी पर यह प्रतिबन्ध उसके एक कवरेज को बहाना
बनाकर लगाया गया है. 4 जनवरी 2016 को पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने
हमला किया था. यह सेना का अत्यधिक महत्वपूर्ण एयरबेस है. न जाने सुरक्षा व्यवस्था
में कहाँ और कैसी चूक हुई कि आतंकवादी इस एयरबेस में घुस गए और काफी नुकसान
पहुँचाया. दूसरे चैनलों की तरह एनडीटीवी ने भी इस बड़ी घटना को कवर किया. फर्क बस
इतना था, कि दूसरे चैनल 56 इंची सीने की गीदड़ भपकियों, गृहमंत्री की गर्वोक्तियों
और रक्षामंत्री की मूढ़ताओं को महिमामंडित कर रहे थे और एनडीटीवी इस बड़ी घटना में
सुरक्षा-व्यवस्था में हुई चूकों और दोषियों को खोज रहा था. बस यही उसका अपराध बन
गया. घटना के दस महीने बाद सरकार ने एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध लगाने की सज़ा दी.
सरकार की तरफ से कहा गया है कि चैनल की रिपोर्ट से सामरिक महत्व की अतिसंवेदनशील
जानकारियाँ सार्वजनिक हो गई हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अब कौन कहे कि राजा नंगा है. कौन पूछे कि जब
आपने पाकिस्तानी जाँच दल को पठानकोट एयरबेस में जाने की इज़ाज़त दी थी, तब क्या
उसकी सामरिक संवेदनशीलता खत्म हो गई थी </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> उस जाँच दल में कथित तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी
आई.एस.आई. का एक अधिकारी भी था. वह न भी होता तो पाकिस्तानी सेना के अधिकारी तो थे
ही. पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी का खतरनाक गठजोड़ जग जाहिर है. आखिर जिसका
डर था बेदर्दी वही बात हो गई. पाकिस्तानी जाँच दल जब लौट कर गया तो उसने इस आतंकी
हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ होने से साफ इंकार कर दिया. इस प्रकरण में भारत
सरकार की मज़बूरी भी दिखी और दिशाहीन विदेशनीति भी. वहीं पाकिस्तान ने ज़बरदस्त
दाँव खेला. उसने पठानकोट में अपना जाँच दल भेज कर भारत सरकार को उभयतोपाश में डाल
दिया. भारत सरकार अगर मना करती तो पूरी दुनिया को संदेश जाता कि भारत सरकार झूठ
बोलकर नाहक पाकिस्तान को बदनाम कर रही है. जाँच दल को स्वीकृति देने पर यह तो तय
था कि वो इस हमले का कोई पाकिस्तानी कनेक्शन स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन हमारे एक
बेहद महत्वपूर्ण सामरिक ठिकाने की अन्दरूनी जानकारी उन्हें हो जाएगी. गनीमत यह है
कि हमारी सेना इतनी अहमक नहीं है. जो चीजें छुपाने की हैं, उन्हें पाकिस्तानी जाँच
दल से भी सेना ने छुपाया ही होगा. लेकिन यह पाकिस्तान की एक प्रतीकात्मक विजय थी
कि वह हमारे सैन्य ठिकाने का मेहमान हुआ. हमारे जाँच दल तो उनके यहाँ कभी तन्दूरी
मुर्गा खाने तक नहीं जा पाते. पाकिस्तान विश्व बिरादरी को भी भारत से बेहतर संदेश
दे गया. भारत सरकार की विवशता साफ समझ आ रही थी.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">पठानकोट कोई पेटीकोट नहीं है. अब अगर पठानकोट
एयरबेस में कुछ संवेदनशील है, तो उसे मीडिया से भी छुपाया ही जाता रहा होगा. कम से
कम देशद्रोही चैनल एनडीटीवी को तो कतई अनुमति न दी गई होगी कि वह सेना की
गुप्त-गोदावरी तक पहुँचे. अगर बात ज़ीटीवी की होती तो एक बार सोचा भी जा सकता था.
ज़ीटीवी पर सेना से जुड़ी विशेष रिपोर्ट्स आती रहती हैं, जिनमें संवेदनशीलता और
गोपनीयता के मानकों में थोड़ी ढील दे दी जाती है. आप सबकी तरह मैं भी यही मानता
हूँ कि देश की सुरक्षा से जुड़ी कोई भी जानकारी सार्वजनिक नहीं होनी चाहिए. मीडिया
का तो सारा कारोबार ही सनसनी फैलाने से चलता है. अपनी टी.आर.पी के चक्कर में यह
असंभव नहीं है कि मीडिया नाजुक मसलों में भी फिसल जाए. यहाँ सोचने वाली बात यह है
कि अगर एनडीटीवी ने ऐसी कोई जानकारी सार्वजनिक की थी, जो नहीं की जानी चाहिए, तो
ऐसी जानकारी उसे दी ही क्यों गई </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> जिन जगहों को रिपोर्ट में दिखाने के लिए उसे प्रतिबन्ध
की सज़ा दी गई है, उन जगहों तक मीडिया को पहुँचने ही क्यों दिया गया </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> अगर मीडिया अपने लाव-लश्कर के साथ ऐसी संवेदनशील जगहों तक पहुँच सकता है,
तो फिर दुश्मन के गुप्तचर तो और भी आसानी से खुफिया जानकारी जुटा सकते हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लेकिन, जितना हम अपनी सेना को जानते हैं,
उससे यह उम्मीद कतई नहीं की जा सकती कि वह अपने सुरक्षा इन्तज़ामों को लेकर इतनी
लापरवाह होगी. उसने अगर मीडिया को कवरेज करने की अनुमति दी थी, तो निश्चित ही
लक्ष्मण-रेखा के बाहर ही दी होगी. फिर एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध लगाने का क्या औचित्य
है </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> दूसरी बात यह कि प्रतिबन्ध सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने लगाया
है. कायदे से होना यह चाहिए कि अगर एनडीटीवी ने सेना के बैरिकेट्स का अतिक्रमण
किया था तो सैन्य मुख्यालय से सरकार के पास चैनल पर दण्डात्मक कार्यवाही का निवेदन
भेजा जाना चाहिए था. सरकार को किसी सक्षम समिति से जाँच करवानी चाहिए थी और उसके
बाद ही दण्ड निर्धारित किया जाना चाहिए था. लोकतांत्रिक शासन का यही तकाज़ा है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">लेकिन भारत में लोकतंत्र पर गंभीर संकट दिख
रहा है इन दिनों. लोकतांत्रिक प्रविधियों के भीतर, घोर अलोकतांत्रिक शक्तियाँ
अप्रकट हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचला जा रहा है. इमरजेन्सी के बाद पहली
बार मीडिया पर ऐसी कार्यवाही की गई है. राष्ट्रवाद की भावना को आतंकवाद की हद तक
बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं. असहमति को राष्ट्रद्रोह सिद्ध किया जा रहा है.
अभी कुछ ही दिनों पहले अरुण जेटली ने फरमान जारी किया है कि सरकारी कर्मचारियों को
सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं है. ऐसा करने पर उनके खिलाफ कार्यवाही की
जाएगी. म.प्र. के एक आई.ए.एस. अफसर ने जवाहरलाल नेहरू की तारीफ कर दी तो भाजपा
सरकार ने सज़ा दे दी. जे.एन.यू. के प्रकरण से तो आप सब वाकिफ़ ही हैँ. एनडीटीवी का
प्रकरण सरकार की इसी प्रवृत्ति का अगला कदम है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">असल में आधुनिक समय में अभिव्यक्ति की आज़ादी
का सबसे बड़ा संवाहक मीडिया ही है. मीडिया
को अगर लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, तो यह सिर्फ एक अलंकारिक उक्ति भर नहीं
थी. इसमें एक गहरा दायित्वबोध भी है. मीडिया के व्यापक प्रसार ने हर देश में
सरकारों को चुनौती दी है. जो सरकारें तानाशाही प्रवृत्ति की होती हैं वो मीडिया की
आवाज़ को दबाने की कोशिश करती हैं. जिन सरकारों को जनता से सरोकार होता है, वो
मीडिया को सचेतक के रूप में अपना प्रतिद्वन्द्वी मानती हैं. तानाशाही शासन के
प्राथमिक लक्षणों में ही यह है कि जनता की अभिव्यक्ति पर नियंत्रण किया जाय. उसके
बाद दूसरी तरह की स्वतंत्रताओं को खत्म करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है. तानाशाह
शासक परंपराओं को नकारता है. सामूहिकता का विरोध करता है. पूर्ववर्तियों को अक्षम
बताता है. सुनहरे भविष्य के सपने दिखाता है. और यह भी कहता है कि इन सपनों को
साकार करने की जादुई छड़ी सिर्फ उसी के पास है. इस उपक्रम में वह जनता को उनके
मानवाधिकारों से वंचित करने का त्याग करने का आह्वान करता है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">उपरोक्त लक्षणों से अगर आप सहमत हों तो आप
साफ देख सकेंगे कि हमारे देश में प्रछन्न तानाशाही की शुरुआत हो चुकी है. विपक्ष
के खिलाफ भ्रामक प्रचार करना, विपक्षी शासन वाली राज्य सरकारों को षणयंत्रपूर्वक
बर्खास्त करना, कांग्रेसमुक्त भारत की कल्पना करना, जन आन्दोलनों का बर्वरतापूर्वक
दमन करना, मीडिया को अपना चारण बना लेना, यह सब तानाशाही शासन के स्पष्ट लक्षण हैं. तानाशाह आवाज़ों से डरता है.
इसीलिए वह सबसे पहले आवाज़ों को ही कुचलता है. एनडीटीवी देश के उन लोगों की आवाज़
है जिन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था है. जो इस देश में समरसता और
सह-अस्तित्व के हिमायती हैं. जो यह कहने का दम रखते हैं कि राजा नंगा है </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-21433541757463935192016-10-24T19:51:00.002-07:002016-11-09T19:19:38.720-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-31471799732650035142016-10-24T19:51:00.001-07:002016-11-09T19:19:20.836-08:00नास्तिकों से कौन डरे है !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<a href="https://tse1.mm.bing.net/th?id=OIP.Mf0eda2141f7abf32691a58f504a94106H0&pid=15.1&P=0&w=300&h=300" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="400" src="https://tse1.mm.bing.net/th?id=OIP.Mf0eda2141f7abf32691a58f504a94106H0&pid=15.1&P=0&w=300&h=300" width="400" /></a><span style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt;">हमारे देश में नास्तिकता पर बात करना जितना
आसान है, नास्तिकों की पहचान उतना ही कठिन है. यह कठिनाई </span><span style="font-family: "mangal"; font-size: 10pt;">नास्तिकता की परिभाषा और
उसके लोक-प्रचलित अर्थ में विभेद के कारण पैदा होती है. आमतौर पर स व्यक्ति को
नास्तिक माना जाता है जो ईश्वर को नहीं मानता और उससे संबन्धित कर्मकाण्ड और
पूजा-पाठ वगैरह से दूर रहता है. दूसरी ओर नास्तिक की शास्त्रीय परिभाषा कहती है कि
ऐसा व्यक्ति जिसे वेदों में आस्था न हो, वह नास्तिक है. इसमें दो राय नहीं कि भारत
के व्यापक समाज में पहली वाली मान्यता ही अधिक प्रचलित और ग्राह्य है. नास्तिकता
सिर्फ भारत का ही मसला नहीं रहा है, यह वृहत्तर दुनिया का एक वैचारिक प्रत्यय है.
इस्लाम में ऐसे लोगों को क़ाफ़िर कहा जाता है. क़ाफ़िर वह होता है जो इसलाम की
मान्यताओं के विपरीत आचरण करे. इसी तरह पश्चिमी देशों यानि इसाइयत में भी नास्तिक
वही है जो चर्च की नियमावली का उल्लंघन करे. यानि अगर हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में
देखें तो तो नास्तिकता का सीधा समीकरण धर्म के साथ बनता है.</span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">भारत के हिन्दू समाज में नास्तिकता को लेकर
अपेक्षाकृत उदार रवैया रहा है. यह उदारता किसी सदाशयता से नहीं आई है. बल्कि यह
नास्तिकता की लोकमान्य अवधारणा और शास्त्रीय परिभाषा से उत्पन्न हुई दुविधा का
नतीज़ा है. केवल भारत का हिन्दू समाज ही ऐसा है, जिसके पास नास्तिकता की अपनी
विशिष्ट परिभाषा है. यानि, वेदों में आस्था न रखने वाला नास्तिक होता है. सच यह है
कि अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं होता कि नास्तिकता की ऐसी कोई परिभाषा है. सच
यह भी है कि हिन्दू समाज के अधिसंख्य
लोगों ने वेदों के सिर्फ नाम सुन रखे हैं. कम लोगों नें उन्हें देखा है, और बहुत
कम लोंगों नें उन्हें पढ़ा है. इसीलिए हिन्दू समाज में वेदों पर आस्था और अनास्था
का प्रश्न बस औपचारिक ही है. यह प्रश्न कभी भी भयावह और हमारे मानवाधिकारों का
दुश्मन नहीं बना. जबकि इस्लाम में देखिए तो कुफ्र करने वाले क़ाफ़िर यानि नास्तिक
को उसके अधिकांश मानवाधिकारों से वंचित कर दिया जाता है.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">इसे हिन्दू समाज का सौभाग्य मानना चाहिए कि
हिन्दू धर्म का संचालन किसी एक ग्रन्थ से नहीं होता. वेदों, पुराणों, उपनिषदों,
स्मृतियों, गीता, रामायण, महाभारत के अलावा भी अनेक ग्रन्थ हैं जो हिन्दुओँ को
मार्गदर्शन करते हैं. इसी तरह हिन्दुओं की आस्था में करोड़ों देवी-देवता हैं.
इसीलिए हिन्दू धर्म की मूल प्रवृत्ति में कभी अधिनायकवाद नहीं रहा. इसीलिए हिन्दू
धर्म में कभी फतवा जारी करने की परंपरा नहीं रही. किसी व्यक्ति का आचरण अगर राम के
आदर्शों के प्रतिकूल हुआ तो वही कृष्ण के सिद्धान्तों के अनुकूल पाया गया. कृष्ण
से विपरीत हुआ तो उसकी संगति शिव से बैठ गई. इस तरह वह धार्मिक रहा आया. इतना ही
नहीं, अगर उसकी संगति किसी देवी-देवता से नहीं बैठती, और वह धार्मिक कर्मकाण्डों
से निर्लिप्त रहता है, तो भी उसे धर्म और समाज से बहिष्कृत नहीं किया जाता.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">यही वो प्राणी है जिसे हिन्दू समाज में
नास्तिक माना जाता है. अब तक यह नास्तिक
प्राणी निरापद माना जाता रहा है. यह किसी का कुछ नुकसान नहीं करता. किसी के
धार्मिक आचरण और विश्वास में दख़ल नहीं देता. इसलिए ऐसे प्राणी से किसी को कोई
दिक्कत नहीं. हमने तो यह देखा है कि हमारे हिन्दू समाज में नास्तिकों को घृणा या
उपेक्षा की दृष्टि से नहीं, बल्कि कौतुक की दृष्टि से देखा जाता है. नास्तिकों का
प्रति आस्तिकों की यह उदारता, आस्तिकों की एक कमज़ोरी से भी निकलती है. आस्तिक
कहते हैं कि ईश्वर है, और वही जगत का नियंता है. नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व को
नकार देते हैं. लेकिन अपनी अवधारणा को अब तक न आस्तिक सिद्ध कर पाए हैं और न
नास्तिक. तर्कशास्त्र का एक सामान्य शिष्टाचार यह है कि सिद्ध उसे करना होता है जो
मंडन करे. यानि जो </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अस्ति</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> की बात करे. जो किसी चीज़ का </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">होना</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> बताए. खण्डन या </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">नास्ति</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> कहने वाले को तब तक प्रमाण नहीं देने पड़ते जब तक मंडन करने वाला अपनी बात
सिद्ध न कर दे. इसीलिए अब तक हिन्दू समाज के आस्तिक, नास्तिकों से उलझने से कतराते
रहे हैं.क्योंकि नास्तिकों के सवालों के जवाब देने में उन्हें पसीना छूट जाता है.
आस्तिक ले-देकर अनुभूति को प्रमाण की तरह प्रस्तुत करने की दयनीय कोशिश करते हैं,
लेकिन तर्कशास्त्र अनुभूति को प्रमाण नहीं मानता. दूसरी तरफ, नास्तिक के पास भी अब
तक संसार की इस लीला की कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है. इसलिए दोनों ही
एक दूसरे से बच-बचाकर सुखी रहते हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">आस्तिकों-नास्तिकों के इस विवशतापूर्ण
सह-अस्तित्व में कुछ दिन पहले अचानक लहरें उठनी शुरू हो गईं, जब वृंदावन के एक
नास्तिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी ने मथुरा में नास्तिकों का एक सम्मेलन आयोजित
करने की घोषणा कर दी. यद्यपि उन्होंने यह खुलासा नहीं किया कि सम्मेलन में किन
मुद्दों पर विमर्श होगा, लेकिन सम्मेलन की घोषणा मात्र से कट्टर और जड़ हिन्दूवादी
संगठन भड़क गए. ये ऐसे संगठन हैं जिनकी न तो कोई वैचारिकी है और न ही अपनी
ज्ञान-परंपरा का ज्ञान. इनका अस्तित्व विरोध पर टिका हुआ है. पूरे देश में इस
आयोजन को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. सोशल मीडिया पर हर ऐरा-गैरा भारतीय
ज्ञान-मीमांशा और दर्शन का आधिकारिक विद्वान बन बैठा. भारी विरोध को देखते हुए
स्थानीय प्रशासन ने नास्तिकों के आयोजन को दी गई मंजूरी निरस्त कर दी.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अब सवाल ये पैदा होते हैं कि नास्तिकों का
सम्मेलन करने का नवाचार करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> अभी तक नास्तिकता किसी
व्यक्ति का निजी मामला हुआ करती थी, जैसे प्रेम, जैसे घृणा. अब नास्तिकता को
सांगठनिक रूप देने के पीछे क्या उद्देश्य है </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> नास्तिकों के संगठित हो
जाने से कौन डर रहा है, और क्यों डर रहा है </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> क्या भारत जैसे
धर्म-भीरु समाज में नास्तिकों के सवाल कोई असर पैदा कर पाने की ताकत रखते हैं </span><span lang="EN-US">?<o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">ऐसा नहीं है कि पहली बार नास्तिकता एक
सामूहिक स्वरूप में नज़र आ रही है. अगर हम अपने देश की धार्मिक परंपरा में देखें
तो बौद्ध और जैन धर्म नास्तिक थे. ये दोनों धर्म भले ही सनातन</span><span lang="EN-US">(</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">हिन्दू</span><span lang="EN-US">)</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> धर्म से प्रतिक्रिया-स्वरूप निकले हों, लेकिन दोनों की आस्था न तो वेदों
में है और न ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास. </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">बौद्ध और जैन धर्म का खूब विस्तार हुआ.
सह-अस्तित्व का यह अविश्वसनीय उदाहरण देखिए कि हिन्दू धर्म ने बुद्ध और महावीर को
अवतार का दर्ज़ा दे दिया. मुझे तो लगता है कि अगर कुछ मुगल बादशाहों ने हिन्दुओं पर
इतना अत्याचार न किया होता तो पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब को भी अवतार घोषित कर
दिया जाता.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">भारत की दार्शनिक परंपरा के षड्-दर्शनों में
सांख्य और योग दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते. लेकिन दोनों ही समादृत हैं.
सांख्य दर्शन तो सीधे तौर पर ईश्वर को नकार देता है. जबकि योग दर्शन
ईश्वर-प्रणिधान की बात तो करता है लेकिन ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में
स्थापित नहीं करता. वह ईश्वर को एक भाव के रूप में निरूपित करता है, जिसे योगी को
अपने प्राणों में धारण करना चाहिए. अब आप देखिए कि बौद्ध, जैन, सांख्य, योग पर ऐसे
आक्रमण कभी नहीं हुए, भले ही दार्शनिक स्तर पर इनसे मतभेद रहा हो.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">प्राचीन काल में नास्तिकता का सबसे मुखर रूप
चार्वाकों, लोकायतों और आजीवकों की वैचारिकी और जीवनशैली में दिखता है. इनके बारे
में ऐतिहासिक जानकारी इतनी अपर्याप्त है कि इनके भौतिकवादी-देहवादी दर्शन को,
दर्शन की परंपरा में शामिल भी नहीं किया जा सका. लेकिन नास्तिकों के ऊपर हमेशा
चार्वाकों का वह मशहूर कथित सिद्धान्त आरोपित किया जाता है, जिसमे कहा गया है- </span><span lang="EN-US">“</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">जब तक जियो, सुख से जियो. चाहे ऋण लेकर घी पीना पड़े, घी पियो. यह नश्वर
शरीर दुबारा न मिलेगा.</span><span lang="EN-US">” </span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">यह जुमला नास्तिकों से चिपका कर, उन्हें निहायत दुराचारी, देहवादी, भोगी,
विलासी और सामाजिक रूप से गैर-ज़िम्मेदार व्यक्ति साबित करने का दुराग्रह किया
जाता है. हमारे देश में नास्तिकों को प्रगतिशीलों और वामपंथियों से जोड़ा जाता है
और उनके ऊपर भी उपरोक्त विशेषणों को आरोपित किया जाता है. यह सरासर अन्याय है. अगर
हम सृष्टि की ईश्वरवादी व्याख्या को नहीं मानते तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम
अनैतिक और दुराचारी हो गए.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">मैने शुरुआत में कहा था कि इस देश में
नास्तिकों की पहचान करना बड़ा मुश्किल काम है. बहुत से ऐसे लोग हैं जो ईश्वर और
कर्मकाण्ड में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते लेकिन वेदों में ज्ञान-विज्ञान और
संस्कृति के अनूठे तत्वों को खोजते हैं. बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको वेदों का कुछ
अता-पता नहीं है लेकिन ईश्वर में अदम्य आस्था है. अब आप इनमें से किसे नास्तिक
कहेंगे और किसे आस्तिक </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> मैने ऐसे कुछ लोग भी देखे हैं जिन्हें ईश्वर और पूजा-पाठ से परहेज है,
लेकिन जो करुणा, दया और औदार्य से भरे हुए हैं. वहीं ऐसे भी लोग देखे हैं जो
दिन-रात ईश्वर की माला जपते रहते हैं, लेकिन भीतर से क्रूर, दुराचारी और मनुष्य
विरोधी हैं.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">अब उस मूल प्रश्न पर आते हैं कि वो कौन लोग
हैं जो नास्तिकों के एकजुट होने और उनके आपसी संवाद से डरते हैं</span><span lang="EN-US"> ?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> क्या ये वही लोग नहीं हैं जो इस देश को एक कट्टर धार्मिक देश बनाना चाहते
हैं </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> धार्मिक कट्टरता की आड़ में दुनिया में किस तरह का आतंक और काला कारोबार
किया जा सकता है, इसका उदाहरण तो हम कई इस्लामिक देशों में देख ही रहे हैं. ऐसे
लोग दिन-रात इसी जुगत में रहते हैं कि अधिक से अधिक लोगों को धर्मान्ध बनाया जा
सके. इसके लिए अब देश में एक विस्तृत और सशक्त तंत्र बन गया है. यही लोग हैं जो
नास्तिकों की एकजुटता और संवाद से घबराए हुए हैं. नास्तिक, जो अब तक निरापद थे,
अगर उन्होंने धर्मान्धों के तंत्र के समानान्तर कोई तंत्र विकसित कर लिया तो फिर
धर्म की जय कैसे होगी और अधर्म को नाश कैसे होगा. एक प्रतिप्रश्न यह भी था कि आखिर
नास्तिकों का सम्मेलन करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> क्या एक तरह के अंधत्व
का मुकाबला, दूसरे तरह के अंधत्व से ही किया जा सकता है </span><span lang="EN-US">?</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;"> क्या हमारे देश की
प्रगतिशील वैचारिकी, धर्मान्धता का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम साबित हो रही है </span><span lang="EN-US">?<o:p></o:p></span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "mangal"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%;">नास्तिकता को लेकर मेरी जो समझ है, उसके
मुताबिक दुनिया का कोई जीवित इंसान पूरी तरह से नास्तिक कभी हो ही नहीं सकता. ठीक
उसी तरह जैसे हर इंसान कुछ अंशों में प्रगतिशील होता है. ईश्वर में, धर्म में, और
वेदों में आस्था न भी हो, अगर मानव मूल्यों में हमारी आस्था है तो हम आस्तिक हुए.
अगर हमें प्रेम, दया, करुणा, रूप, रस, गंध में भी आस्था है, तो हम आस्तिक हुए.</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-5970302462667390792016-10-17T00:12:00.001-07:002016-10-17T00:12:41.645-07:00जब श्मशान में आता था त्रेता !<p dir="ltr"> <br>
यह उन दिनों की बात थी जब देश में दूरदर्शन नहीं था और सिनेमा की पहुँच भी केवल महानगरों तक ही थी. हमारी कलात्मक अभिरुचियाँ फाग, नाच और लीला जैसे कलारूपों में प्रकट होती थीं. कला-प्रदर्शन का कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं होता था. कला, हमारे सुख-दुख, राग-विराग, मोह-माया के प्रकटीकरण का एक माध्यम थी. कला, हमारी सामूहिकता और सहकारिता को व्यक्त करने वाली एक स्वत: साध्य विद्या थी. यह वो समय था जब कोई व्यक्ति अभिनय कर ले, नाच ले, गा ले, चित्र बना ले तो इसे उस व्यक्ति की विशिष्ट विद्या कहा जाता था. यहाँ तक कि तवायफों के नाच-गाने की भी बड़ी इज़्ज़त थी. सम्पन्न लोगों के यहाँ होने वाले उत्सवों में मशहूर तवायफें पालकी भेजकर और नज़राना पेश कर बुलाई जाती थीं.</p>
<p dir="ltr">यह उन दिनों की बात है जब सामूहिक मनोरंजन का एक बहुत बड़ा माध्यम हुआ करती थी रामलीला. रामलीला सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, नैतिक शोधन का साधन भी थी. यह फटेहाल और दरिद्र समाज में रामराज्य का सपना दिखाकर मरहम भी लगाती थी तो हम सब के भीतर देवत्व का कुछ अंश है, ऐसा सात्विक बोध भी जगाती थी. जिन लोगों के भीतर कला के बीज दबे होते थे, रामलीला उन्हें अंकुरित करती थी. और रामलीला उनकी कला को पल्लवित, पुष्पित भी करती थी. मेहनत-मजूरी और किसानी के दुर्दम्य संघर्षों से जूझते लोगों को रामलीला एक ऐसे मनोजगत में ले जाती थी, जहाँ सुख और शान्ति का एक विरल मौसम होता था. कुछ देर के लिए ही सही वो उस दुनिया में पहुँच जाते थे जहाँ सूखा, अतिवृष्टि, कालरा और जमींदारों के चाबुक नहीं दिखाई पड़ते थे. यह वो जगह होती थी जहाँ राम-लक्ष्मण की लीलाओं के साथ हमारे भीतर की वेदनाओं और संवेदनाओं को एक अनन्त और वस्तुनिष्ठ विस्तार मिलता था.</p>
<p dir="ltr">यह उन दिनों की बात है जब मैं आठ-दस बरस का बालक था और किशोरावस्था को मुझ पर आने की कुछ हड़बड़ी सी थी. उस समय दशहरा से दीवाली तक स्कूलों में पचीस दिन की फसली छुट्टी होती थी. यह ऐसा मौसम होता था जब गांवों का सौन्दर्य अपने शिखर पर होता है. खलिहान में रखे धान के गट्ठरों से मदहोश कर देने वाली खुशबू हवा के झोंकों के साथ घरों में घुस आती थी. झाड़ियों में रंग-बिरंगे फूल और उन पर मंडराती तितलियाँ मन हर लेती थीं. सुबह घास पर बिखरी हुई ओस और शाम की लालिमा में पसरी हुई आस ! इसी खुशगवार दृश्य में हम शामिल होते थे अपने गांव में जब हमारा परिवार नजदीकी कस्बे से फसली छुट्टी में घर आता था. हम लोगों की दशहरा दीवाली गाँव में ही होती थी.</p>
<p dir="ltr">और इसी समय गांव में आती थी रामलीला मंडली. गांव से थोड़ा हटकर एक बहुत बड़ा सामूहिक बगीचा था. यह गांव का श्मशान भी था. गांव के मृतकों का अंतिम संस्कार यहीं होता था इसलिए डरावना भी था, खासतौर से बच्चों के लिए. रामलीला मंडली यहीं अपना डेरा जमाती थी. यहीं उनका मंच सजता था. विचित्र बात थी कि जिस बगीचे में दिन में भी जाने से लोग डरते थे, वही बगीचा पन्द्रह बीस दिनों के लिए स्वर्ग बन जाता था. तब गांव में बिजली नहीं थी. आस पास के किसी गांव में नहीं. रात में इन दिनों यह श्मशान ऐसे लगता था जैसे अँधेरे के समुद्र में रौशनी का कोई टापू हो. रामलीला मंडली पन्द्रह बीस दिनों तक इसी बगीचे में रामलीला का मंचन करती थी. मेरा गांव जाने का सबसे बड़ा लोभ यही रामलीला थी. मैं साल भर इस छुट्टी का इंतज़ार करता था. रामलीला के प्रति मेरी दीवानगी तब से थी जबसे मैनें होश सम्भाला. जब मैं तीन-चार साल का था, तब से मेरे भीतर रामलीला की स्मृतियाँ और संस्कार हैं. उस समय दशहरे की छुट्टियों में मैं अम्मा के साथ ननिहाल जाता था. इलाहाबाद से लगा हुआ एक बड़ा सा जीवन्त कस्बा है त्यौंथर. यही मेरा ननिहाल है. टमस नदी की भीट पर बसा यह कस्बा बहुरंगी और कला सम्पन्न है. यहाँ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी. मेरे मामा का पूरा घर कई पीढ़ियों से रामलीला में अभिनय करता था. मामा लोग चूँकि ब्राह्मण थे और सुदर्शन थे, तो राम-लक्ष्मण-भरत-सीता और ऋषियों की भूमिकाएँ .यही लोग निभाते थे. जिन दिनों की मुझे याद है, उस समय मेरे नाना, विश्वामित्र और परशुराम बनते थे. बड़े मामा राम और छोटे मामा लक्ष्मण. परशुराम-लक्ष्मण का झगड़ा हम लोगों को इसलिए भी ज्यादा मज़ेदार लगता था कि नाना और मामा लड़ रहे होते थे. बाद मे दोनो जन घर आकर भी लड़ते थे. इन लोगों को खूब इनाम भी मिलते थे अभिनय पर. खासतौर से ‘धनुषयज्ञ’ के दिन छोटे मामा लक्ष्मण, परशुराम से संवाद पर खूब ईनाम बटोरते थे. बाद में हम सब बच्चे उनसे पैसे छुड़ा लेते थे. उन्हीं दिनों से मुझे रामलीला के अधिकतर संवाद याद हो गए थे. ये संवाद राधेश्याम कृत रामायण के होते थे.</p>
<p dir="ltr">बाद में जब हमारे गांव में रामलीला मंडली आने लगी तो मानों मेरी मुराद पूरी हो गई. तब तक ननिहाल जाने का सिलसिला भी कुछ कम हो गया था. फसली छुट्टी में अम्मा अगर मायके जाती भी, तो मैं गांव की रामलीला के लोभ में नहीं जाता था. लगभग पन्द्रह बीस दिनों तक रामलीला चलती थी. और कभी कभी लोगों की फरमाइश पर कुछ प्रसंग दुबारा मंचित किए जाते थे. खासतौर से धनुषयज्ञ और लक्ष्मण मेघनाद युद्ध के प्रसंग सबसे ज्यादा हिट होते थे. रामलीला मंडली गांव वालों से कोई शुल्क नहीं लेती थी. गांव वालों को सिर्फ उनके रोज़ के भोजन का इन्तज़ाम करना होता था. गांव के सम्पन्न लोग अलग-अलग दिन के भोजन का जिम्मा बड़ी श्रद्धा और गर्व के साथ उठा लेते थे.</p>
<p dir="ltr">शाम लगभग सात बजे लीला शुरू होती थी. दूसरे लोग इसी समय के आसपास लीला स्थल पर पहुँचते थे. मुझे इतनी उतावली होती थी कि मैं शाम पाँच बजे ही एक छड़ी और अपने बैठने के लिए बोरिया लेकर चल देता था. सबसे आगे मेरी ही बोरी बिछती थी. जब में वहाँ पहुँचता उस वक्त कलाकारों का श्रृंगार चल रहा होता था. रामलीला के सभी कलाकार पुरुष होते हैं. कोई चड्डी-बनियान में, कोई तौलिया लपेटे बैठा मुह पर मुर्दाशंख पोतवा रहा होता. किसी के चेहरे पर लाल-पीली-काली टिप्पियाँ बनाई जा रही होतीं. हनुमान जी अपनी पूँछ को दुरुस्त कर रहे होते. रावण पेट्रोमैक्स में बत्ती लगा रहा होता. समय से बहुत पहले पहुँच जाने के कारण मेरी रामलीला मंडली वालों से दोस्ती होने लगी. मुझसे खूब बतियाते सब. उनके संवाद तो मुझे याद ही थे. मैं गाकर सुनाता तो सब अचंभित हो जाते. उनका अनुराग मुझ पर इतना बढ़ गया कि रात बारह-एक बजे जब लीला खत्म होती तो वे मुझे अपने ही पास रोक लेते. अपने साथ ही मुझे खाना खिलाते और सुला लेते. मैं रावण के साथ सोता था क्योंकि वह बहुत ज़िन्दादिल और स्नेहिल था. रामचन्द्र जी मुझसे कुछ कम कम बोला करते थे क्योंकि मंडली के सभी लोगों का ध्यान राम से अधिक मेरे ऊपर रहने लगा. रात भर मंडली के साथ बिता के सुबह मैं अपने घर आ जाता. यही सिलसिला हो गया था.</p>
<p dir="ltr">कि एक दिन कुछ अप्रत्याशित हो गया. लक्ष्मण जी अचानक बीमार हो गए. मंडली के अध्यक्ष ने निर्णय लिया कि भरत वाला पात्र लक्ष्मण बन जाएगा. फिर भरत कौन बनेगा ?? तय हुआ कि भरत का रोल बालक विमलेन्दु करेंगे. मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. संवाद तो मुझे याद थे . लेकिन व्यास जी की गाई चौपाइयाँ मुझे समझ नहीं आती थीं. व्यास जी पूरी लीला के सूत्रधार होते थे. उनकी चौपाइयों से ही हर पात्र को यह संकेत मिलता था कि किसको क्या एक्शन करने हैं और क्या संवाद बोलना है. मैने अपनी समस्या उन लोगों को बताई तो रावण जी मेरी मदद को आगे आए. उन्होने कहा परेशान न होना मैं परदे के पीछे से बताता जाऊँगा कि कब क्या करना है. मैं राजी हो गया. आनन-फानन में मुझे तैयार किया गया. जब मंच पर मैने एन्ट्री मारी तो गांव के लोग चौंक गए. खूब तालियाँ बजीं. मंडली वालों की उम्मीद से कुछ बेहतर हो गया था मुझसे. उस दिन से रोज़ ही कोई न कोई भूमिका मुझे मिलने लगी. एक दिन सीता जी को कुछ हो गया तो उन लोगों ने मुझे सीता बनने को कहा. मैं शरमा गया एकदम से. मैने सीता बनने से मना किया तो सब नाराज़ गए. उनकी नाराज़गी मुझे बुरी लगी. तो मैने उनके साथ रात में रुकना बन्द कर दिया. उनसे मेल-जोल भी कम कर दिया. मुझे डर लगने लगा कि कहीं किसी दिन ये मुझे सीता बना ही न दें. खैर ऐसा हुआ नहीं.</p>
<p dir="ltr">इस तरह कई सालों तक रामलीला मंडली गांव में आती रही. यह सिलसिला तब बन्द हुआ जब गांव की एक लड़की रामचन्द्र जी पर मुग्ध हो कर उनके साथ भाग गई. गांव मे हंगामा मच गया. रामलीला मंडली को बीच में ही अपना पंडाल उखाड़ के भागना पड़ा. तब से आज तक मेरे गांव में फिर कोई मंडली नहीं आई, न रामलीला हुई.</p>
<p dir="ltr">इस दुखद प्रसंग को छोड़ दिया जाय तो रामलीला उस जमाने में लोगों को कला के संस्कार देती थी. जन-जीवन के नैतिक शिक्षा का माध्यम भी था यह कलारूप. बाद में जब दूरदर्शन आया और दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक आने लगा तो अचानक रामलीला का मंचन बहुत बचकाना लगने लगा. टीवी पर तकनीक से सजी राम की लीला के आगे बिना माइक और बिना पर्याप्त प्रकाश के लीला उबाऊ लगने लगी. बड़ी बड़ी मंडलियाँ बन्द हो गईं या फिर औपचारिकता बस बची. यद्यपि बनारस के रामनगर, इलाहाबाद और मैसूर में आज भी रामलीला का भव्य आयोजन होता है, लेकिन लोगों की वैसी रुचि नहीं रही जैसी पहले थी. आप भी महसूस करते होंगे कि टीवी ने बहुत सी लोक कलाओं और देशज कला माध्यमों को खत्म कऱ दिया है.</p>
<p dir="ltr">रामलीला की शुरुआत कब और कैसे हुई होगी, इसको लेकर अलग-अलग मत हैं. कहा यह जाता है कि राम के वन-गमन के बाद, चौदह बरस की वियोग-अवधि, अयोध्यावासियों नें राम की बाल-लीलाओं का अभिनय कर के काटी थी. कुछ लोग रामलीला का आदि-प्रवर्तक काशी के मेघा भगत को मानते हैं. ये काशी के कतुआपुर मोहल्ले के फुटहे हनुमान के पास रहते थे. इन्हें भगवान राम ने स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया था. वैसे आधिकारिक रूप से यह माना जाता है कि रामलीला की शुरुआत तुलसीदास की प्रेरणा से काशी के तुलसीघाट पर हुई थी. भारत के अलावा बाली, जावा, श्री लंका में भी रामलीला होती है. बर्मा की रामलीला में तो रावण-वध होता ही नहीं. युद्ध के अंत में रावण राम से क्षमा माग लेता है और युद्ध से विमुख हो जाता है. रामलीला पर छविलाल ढोंढियाल की एक महत्पूर्ण पुस्तक है. भारतेन्दु हरिश्चन्द ने रामलीला से प्रेरित होकर एक चम्पू काव्य ‘रामलीला’ लिखा था. कुल मिला कर आज रामलीला हमारी स्मृति और शोध का विषय बन कर रह गई है.</p>
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एक ज़माना था जब भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार युवा कवियों में कविता की प्राण-प्रतिष्ठा जैसा माना जाता था. भारत भूषण अग्रवाल जैसे अति साधारण कवि की स्मृति में स्थापित इस पुरस्कार की आस और प्रतीक्षा असाधारण होती थी. 35 वर्ष से कम आयु के हर युवा कवि का यह सपना होता था कि कभी यह पुरस्कार उसे भी मिल जाए. राजधानी और अन्य साहित्यिक केन्द्रों, पत्र पत्रिकाओं से जुड़े युवा कवि निर्णायकों के आस पास मंडराने लगते थे. 1979 से शुरू हुए इस पुरस्कार को अब 37 वर्ष हो गए हैं. युवा कवियों में आज भी वैसा ही रोमांच है इसे लेकर. हर वर्ष जब इस पुरस्कार की घोषणा होती है तो साहित्य की हिन्दी पट्टी एक अस्थायी कर्बला में तब्दील हो जाती है. अपने को कतार में शामिल माने हुए कवि मोहर्रम मनाने लगते हैं. ओवरएज हो चुके कवि किंचित दार्शनिक हो जाते हैं. वे पुरस्कारों/सम्मानों की निरर्थकता निरूपित करते हुए उसे माया सिद्ध कर देते हैं. ठीक 36 का हुआ अपुरस्कृत युवा कवि अब जानता है कि दूसरी कोटि के पुरस्कार बुजुर्ग लेखकों को साहित्यिक-सेवानिवृत्ति के लिए दिए जाते हैं, जिसके लिए अभी से हाथ-पैर मारने का कोई औचित्य नहीं. <br>
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सवाल उठता है कि आखिर भारत भूषण पुरस्कार में क्या ऐसा है जो युवा कवियों को इस तरह लालायित किए रहता है. महज 25 हजार रुपए का एक गैर-सरकारी पुरस्कार! इसकी शुरुआत ठीक उसी तरह की भावुकता के साथ हुई थी जैसे आज भी कई लोग अपने अल्पख्यात माँ-बाप की स्मृति को बचाए रखने और मरणोंपरांत पैदा हुई संवेदना को यश में बदल देने की दयनीय भावना से प्रेरित होकर, उनके नाम पर कोई पुरस्कार/सम्मान की स्थापना कर देते हैं. स्वर्गीय भारत भूषण अग्रवाल की पत्नी बिन्दु अग्रवाल ने भी कुछ इसी तरह की भावुकता में यह पुरस्कार स्थापित किया था. उनकी खुशकिस्मती यह थी कि उन्हें घाघ कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी का साथ मिल गया. उन दिनों अशोक जी को यह शिफ़त हासिल थी कि वे पत्थर को हीरे की तरह चमका सकते थे. अत: भारत भूषण पुरस्कार अपनी शुरुआत से ही युवाओं के लिए वरेण्य हो गया. एक खास वजह यह थी इसके महत्वपूर्ण हो जाने की, कि इसके निर्णायक मंडल में हिन्दी की शीर्ष हस्तियों को रखा गया. <br>
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हिन्दी की शीर्ष साहित्यिक हस्तियाँ निर्णायक मंडल में सहर्ष शामिल हुईं क्योंकि यहाँ उन्हें स्वायत्तता दी गई. हर वर्ष कोई एक निर्णायक, उस वर्ष प्रकाशित किसी एक कविता को चुनता है. शर्त बस इतनी है कि यह कविता, 35 वर्ष की आयु से कम किसी कवि की होनी चाहिए. यद्यपि योजना में तो यह था कि कविता चुनी जाये लेकिन बहुधा यह हुआ कि निर्णायक अपना कवि चुन लेता है. साहित्यजगत की कुछ अंतरंग जानकारियों के आलोक में मैं यह कह रहा हूँ कि कई बार ऐसा होता है कि पहले व्यक्ति पुरस्कार के लिए चुन लिया जाता है, फिर उससे कविता या किताब तैयार करवायी जाती है. भारत भूषण, साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ पुरस्कारों में ऐसा कई बार हुआ है. भारत भूषण पुरस्कार के चयन की प्रक्रिया निर्णायकों को ऐसी स्वायत्तता देती है जिससे उन्हें अपने मठ बनाने अथवा अपने मठ को मजबूत करने के लिए एक प्रखर युवाशक्ति मिल जाती है. <br>
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भारत भूषण पुरस्कार के लिए युवा कवियों की विकराल उत्कंठा इसलिए है कि इस पुरस्कार के मिलते ही वह शेष युवा कवियों से अलग हो जाता है. वह अनेक संघर्षरत युवा कवियों से श्रेष्ठ हो जाता है. रातों रात उसे कीर्ति मिल जाती है. पत्र-पत्रिकाओं के संपादक उसे फोन करके कविताएं मगाते हैं और प्रेस में पहुँच चुकी पत्रिका के ताज़ा अंक से, आठ महीने की प्रतीक्षा के बाद छपने का सौभाग्य प्राप्त करने जा रही किसी युवा कवि की कविताओं को हटाकर, पुरस्कृत कवि की कविताएं एक कृतज्ञ टिप्पणी के साथ छप जाती हैं. कोई महत्वपूर्ण प्रकाशक छ: महीने के भीतर ही ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित’ कवि का संग्रह छाप देता है. अब यह दीगर बात है कि कई बार यही संग्रह उस कवि का आखिरी संग्रह भी साबित होता है. पुरस्कार मिल जाने के बाद कुछ महीनों तक कवि देश के कोने कोने में आमंत्रित होने लगता है. कम उम्र में कुछ शॉल-श्रीफल संग्रह कर लेता है. वरिष्ठों के साथ मंच साझा करने का गौरव उसके व्यक्तित्व को कुछ विचित्र ढंग से विकृत कर देता है. <br>
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यद्यपि युवा रचनाकारों के लिए कुछ और पुरस्कार भी हैं देश में. साहित्य अकादमी नवलेखन पुरस्कार देती है, जहाँ भारत भूषण पुरस्कार से भी ज्यादा भ्रष्टाचार है, लेकिन भारत भूषण का महात्म्य इन सबसे ज्यादा है. पिछले 37 सालों में 36 युवा कवियों को यह पुरस्कार दिया जा चुका है. 2015 में यह पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया. निर्णायक अशोक वाजपेयी ने बताया कि इस वर्ष कोई भी कविता पुरस्कार के योग्य छपी नहीं मिली. उन्होंने यह भी बताया कि ‘ समास-10 ‘ में छपी ‘पेड़’ कविता की उन्होंने अनुशंसा की थी लेकिन कवि की उम्र 35 वर्ष से अधिक पायी गई. खैर, चौंकाना अशोक जी का स्वभाव है. पता नहीं उनसे किसी नें पूछा या नहीं कि अब तक चुनी गई सभी कविताएं क्या सचमुच पुरस्कार के योग्य थीं ? <br>
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पहला भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार 1979 में अरुण कमल को कविता ‘ उर्वर प्रदेश ‘ पर मिला था. अरुण जी आज हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हैं. उदय प्रकाश, कुमार अंबुज, देवी प्रसाद मिश्र, पंकज चतुर्वेदी आज हिन्दी के प्रतिनिधि कवि हैं. लेकिन इनके अलावा भारत भूषण पुरस्कार प्राप्त कोई ऐसा कवि नहीं है जिसने आगे चलकर हिन्दी कविता में कोई विशिष्ठ पहचान बनाई हो. क्या यह पुरस्कार युवा कवियों के लिए अपशकुन साविता हो रहा है ? पिछले कुछ वर्षों से जितने लोगों को यह पुरस्कार मिला, सब कवि रूप में वितुप्त होते गए. बद्रीनारायण को ‘प्रेमपत्र’ कविता पर जब भारत भूषण मिला और उसी शीर्षक से उनका संग्रह आ गया, तो लगा कि एक बड़ा कवि हिन्दी को मिलने जा रहा है. लेकिन उनका कवि गायब हो गया और वे शोध की ओर प्रवृत्त हो गए. ऐसी ही उम्मीद हेमन्त कुकरेती से जगी थी लेकिन वे भी औसत होकर यदा कदा ही दिखते हैं. 2014 में अशोक वाजपेयी के भतीजे आस्तीक वाजपेयी को उनकी कविता ‘विध्वंश की शताब्दी’ पर जब अरुण कमल ने उन्हें भारत भूषण दिया, तब खूब हल्ला हुआ औ कहा गया कि अरुण कमल ने अशोक वाजपेयी का ऋण चुकाया है. बहरहाल तब से आस्तीक भी गायब हैं. पिछले छ: सालों में व्योमेश शुक्ल(2010), अनुज लुगुन(2011), कुमार अनुपम(2012), प्रांजल धर(2013) को भी भारत भूषण मिला, लेकिन इनमें हिन्दी का प्रतिनिधि कवि बनने की कूव्वत अब तक नहीं दिखी. <br>
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वर्ष 2016 का पुरस्कार एक अल्पज्ञात कवियत्री शुभमश्री को दिया गया है. बिहार के गया की रहने वाली शुभमश्री ने दिल्ली युनिवर्सिटी के लेडी श्रीराम कालेज से स्नातक और जेएनयू से स्नातकोत्तर और एम.फिल. किया है. इस वर्ष के निर्णायक थे उदय प्रकाश. उन्होंने इस बार भी पुरस्कार के लिए व्यक्ति को चुना कविता को नहीं. ऐसा कहा जा रहा है कि उन्होंने पहले से तय कर रखा था कि पुरस्कार किसी कवियत्री को देना है. खैर कहने वाले तो कुछ भी कहते रहते हैं. लेकिन लोगों की बात इसलिए सच लग रही है कि शुभमश्री की जिस कविता-‘पोएट्री मैनेजमेंट’- को उदय प्रकाश ने पुरस्कृत किया है, असल में वह कविता है ही नहीं. न कथ्य, न शिल्प, न काव्यमूल्य के लिहाज से. शुभम की कथित कविता, कुकुरमुत्तों की तरह उग आए कवियों और उनके खोखलेपन पर एक सतही व्यंग्य है. व्यंग्य भी कम उपहास अधिक. यह कथ्य न तो नया है और न ही इसका कोई व्यापक साहित्यक मूल्य है. यह कविता कुछ बेहतर हो सकती थी अगर शिल्प और भाषा में ही कुछ विलक्षणता होती. शुभमश्री इस कविता में उसी तरह की कवियत्री नज़र आती हैं, जिनका उन्होंने उपहास किया है. जवकि वो इससे बेहतर कवि हैं. <br>
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उदय प्रकाश के लिए कविता चयन करने का यह दूसरा मौका था. उन्होंने जाहिर कर दिया कि वो कैसे चयन करेंगे. 2011 में उन्हें एक आदिवासी कवि चुनना था. तब अनुज लुगुन को चुना. अनुज की कविता ‘अघोषित उलगुलान’ किसी को समझ नहीं आयी थी. अलबत्ता उदय प्रकाश जी को वह आदिवासी जीवन की त्रासदी का आख्यान लगी थी. बहरहाल भारत भूषण पुरस्कार के लिए यह कोई अनहोनी नहीं है. ज्यादातर ऐसा ही होता रहा है. आपने गौर किया होगा कि अपने देश में साहित्यिक पुरस्कारों में ही हंगामा होता है. किसी अन्य विधा में कोई उँगली नहीं उठती. असल में साहित्य और कला का कोई पुरस्कार सर्वश्रेष्ठ के लिए नहीं होता. साहित्य और कला का कोई भी चयन अनन्तिम ही होता है. साहित्य और कला के पुरस्कार असल में निर्णायक की आस्वाद क्षमता और आकांक्षाओं का प्रक्षेपण होते हैं. उदय प्रकाश के इस चयन को इसी मनोविज्ञान से देखा जाना चाहिए और शुभमश्री को शुभकामनाएं दी जानी चाहिए. <br>
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<div style="background-color: white; color: #141823; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtnwx2HzaQ9VuWLJLkG2JRdvbXCzeLmVGVa8d_PLh21Hw1Ut2RZ52cyco5495Pn1Fkjz5HvQTc7Ei83hLwdnPB4Y6wgIioYpkwOVrRBu3k81LmrtAhoPZrpsW55nbWyzXma7d26O_0_M0/s1600/228036_2017565436654_1169409178_32376809_1209888_s.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtnwx2HzaQ9VuWLJLkG2JRdvbXCzeLmVGVa8d_PLh21Hw1Ut2RZ52cyco5495Pn1Fkjz5HvQTc7Ei83hLwdnPB4Y6wgIioYpkwOVrRBu3k81LmrtAhoPZrpsW55nbWyzXma7d26O_0_M0/s320/228036_2017565436654_1169409178_32376809_1209888_s.jpg" width="288"></a><i><b>[ योगेश्वर बोले ही चले जा रहे थे----<br>मैं प्रकाशों में सूर्य हूँ। वेदों में सामवेद, देवों में इन्द्र, रुद्रों में शिव हूँ। पर्वतों में मेरु, पुरोहितों में बृहस्पति, वाणी में ओंकार, वृक्षों में अश्वत्थ, देवर्षियों में नारद, घोडों में उच्चैःश्रवा, हाथियों में एरावत और सांपों में वासुकि हूँ।<span class="text_exposed_show" style="display: inline;"><br>मैं प्रजनकों में कामदेव, अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द्व समास हूँ।<br>मैं ऋतुओं में वसन्त, छलियों में जुआ, विचारकों में उशना, और रहस्यों में मौन हूँ।</span></b></i></div>
<div class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #141823; display: inline; font-family: helvetica, arial, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19.32px;">
<div style="margin-bottom: 6px;">
<i><b>मैं सोशल मीडिया में, प्रिन्ट मीडिया का कवि हूँ ! ]</b></i></div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--हाँ, मैं कवि-लेखक हूँ. अपने को विशिष्ट, ऊपर और सुरक्षित बनाने के लिए हम क्या-क्या नहीं करते !</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं आपकी अच्छी कविता को भूलकर भी like नहीं करता, लेकिन आपकी ऊल-जलूल और बेमतलब पोस्ट पर वाह-वाह कर देता हूँ--ताकि आप धन्यभाग मानकर मेरी प्रशंसा में कभी कमी न रखें।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं अक्सर ऐसी पोस्ट लगाता हूँ जो किसी को समझ न आए !<br>और आप एहसासे-कमतरी के मुस्तकिल मरीज़ बने रहें।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं अक्सर महान व्यक्तियों और महान विचारों का धत्-करम करता हूँ !<br>ताकि छोटे-मोटे जीवधारी तो बम् के धमाके से ही खेत रहें।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं अपनी रचनाएं अपने मित्रों से शेयर करवाता हूँ, और उनकी मैं करता हूँ !<br>इससे मेरा बडप्पन, भाईचारा और सहिष्णुता असंदिग्ध बनी रहती है।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं बिला नागा, नामालूम कौन सी दुनिया की, कौन सी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित अपनी रचना की,<br>अस्पष्ट तस्वीरें व़़ॉल पर लगाते हुए सकुचाता हूँ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं आए दिन सभा-गोष्ठियों में सदारत करने जाता हूँ !<br>और यह जानते हुए भी कि आप चार सौ कोस दूर रहते हैं, आपको आमंत्रित करना नहीं भूलता हूँ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है, कि मुझे कवियत्रियों में ज्यादा प्रतिभा और संभावना दिखायी पड़ती है !<br>आरम्भ में मैं उन्हें छन्द और बहर जैसी, व्याकरण-सम्मत, नितान्त गैर-रूमानी सलाहें दिया करता हूँ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं अपनी प्रशंसिकाओं से inbox में चैट तभी करता हूँ, जब वो बहुत इसरार करती हैं !<br>और वहाँ मैं बहुत विषय-निष्ठ रहता हूँ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मैं इन अबलाओं को बहुधा, अपने समकालीन दुष्ट कवि-लेखकों से कैसे बचा जाये, के उपाय बताता हूँ।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--मुझे इन सुमुखि ललनाओं की निष्फल जाती प्रतिभा, उकसाने की हद तक प्रेरित कर रही है !<br>अब मैने निश्चय किया है कि मैं कुछ ही दिनों में संपादक-प्रकाशक बन जाऊँगा।</div>
<div style="margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
--लेकिन आप मायूस न हों। मैं इन अबलाओं को उनके मुकाम तक पहुँचा कर फिर लौट आऊँगा साहित्य-सेवा के लिए फेसबुक पर।</div>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-51680152650143400012016-03-06T03:13:00.001-08:002016-03-06T03:13:29.614-08:00अज्ञेय के सौ बरस<p dir="ltr">यह वर्ष बहुआयामी रचनाकार अज्ञेय का जन्म शताब्दी वर्ष है.अपने समय से आगे चलने वाले, अबूझ,अद्वितीय और सर्वाधिक विवादित लेखक सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय हिन्दी साहित्य में अपने सजग, अन्वेषी सृजनधर्मिता के कारण आधुनिक भावबोध के अग्रदूत के रूप में स्थापित हैं. अज्ञेय ने अपनी तात्विक दृष्टि से विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सृजन और अन्वेषण को नए आयाम दिया. वास्तव में अज्ञेय को समझे बिना बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के बुनियादी मर्म,उसके आत्मसंघर्ष, उसकी जातीय जीवनदृष्टि और उसके आधुनिक पुनराविष्कार को समझ पाना कठिन है. <br>
हिंदी के वैचारिक,सृजनात्मक आधुनिक साहित्य पर अज्ञेय की गहरी और अमिट छाप है.             </p>
<p dir="ltr">परम्परा,प्रयोग और आधुनिकता ऐसे विषय हैं, जिन्होंने हिंदी जगत में कुछ बुनियादी परिवर्तन किये, अज्ञेय ने इन विषयों पर हिंदी में जितना सार्थक, सजग और रचनात्मक लेखन और चिंतन किया, उतना किसी अन्य ने नहीं. वस्तुतः हिंदी में परम्परा और आधुनिकता को सदैव अलग-अलग वैचारिक आयामों से मापा जाता रहा, लेकिन अज्ञेय ने इस धारणा को स्पष्ट रूप से खंडित किया, उनका मानना है परम्परा बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होकर निरंतर जब नवीन होती जायेगी ,तभी उसकी प्रासंगिकता है. परम्परा और प्रयोग दोनों एक दूसरे से संपृक्त हैं. इन दोनों का संबंध ही जहा परम्परा को उसकी रुढिवादिता से आगे ले जाकर उसका पुनर्संस्कार करता है, वहीँ प्रयोगों की अनिवार्यता भी सिद्ध करता है.इस तरह कवि के लिए सिर्फ परम्परा नहीं, उसका अपने युग के अनुरूप परिष्कार भी जरुरी है. परम्परा एक व्यापक अनुभव के रूप में समकालीन लेखक और साहित्य के लिए सार्थक महत्व रखती है, इसीलिए साहित्य में नए आयामों का प्रस्तुतीकरण और निर्वैक्तिकता बिना परम्परा के  विशद ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता और इस परम्परा का आगे के सार्थक उपयोग के लिए नए प्रयोगों की आवश्यकता होती है.                                                                                                                                                      <br>
वास्तव में नई अनुभूतियों का स्वीकार और पुराने भाव – संयोजनो की रुढिवादिता  का त्याग अथवा उनके प्रति विद्रोह का भाव ही प्रयोग की आवश्यकता  को जन्म देता है. इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जब रागबोध का स्वरुप जटिल हो जाता है तो उसके सहज सम्प्रेषण के लिए नए प्रयोगों की जरुरत होती है, यदि अज्ञेय की इस बात पर ध्यान दिया जाये ‘हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले,उनको व्यक्त करने की प्रणाली बदल गयी है’ तो यह स्पष्ट होगा कि कलाकार की संवेदनाएं तभी जटिल रूप धारण करती हैं जब परवर्ती युगीन वास्तविकताओं से हमारे  मूल राग-विराग टकराते हैं. जैसे-जैसे ये वास्तविकताएं परिवर्तित होती जाती हैं, वैसे-वैसे रागात्मक संबंधो के व्यक्त करने की प्रणालियाँ भी बदलती जाती हैं,न बदले तो वास्तविकता से उनका संबंध टूट जाता है. प्रयोग एक सामाजिक आवश्यकता है और विकास का रास्ता भी वहीँ से गुजरता है. साहित्य की सार्थकता के लिए भी ऐसे परिवर्तनों की जरुरत होती है,                                                                           </p>
<p dir="ltr">जिसे तथाकथित प्रयोगवाद कहा जाता हैऔर अज्ञेय दूसरा  सप्तक की भूमिका में जिसका जोरदार रूप  से खंडन कर चुके थे उसमे आरम्भ से ही परम्परा के प्रति विद्रोह और प्रयोग पर बल देने का भाव देखा जा सकता है, अज्ञेय स्वंय लेखकों को परम्परा से हट कर सृजन के लिए एक नया मार्ग तलाशने पर जोर देते. अपने लिए भी वो यही कहते हैं -</p>
<p dir="ltr">मेरा आग्रह भी नहीं रहा<br>
कि मैं चलूँ उसी पर<br>
सदा पथ कहा गया, जो<br>
इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर<br>
कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी<br>
                                            (अरी ओ करुणा प्रभामय) <br>
अज्ञेय परम्परा को उसके समूचे रूप में ग्रहण करने के विरोधी हैं, क्योंकि परम्परा में न तो सब मूल्यवान है और न ही सारा कुछ व्यर्थ. यह रचनाकार के उपर निर्भर करता है कि वह उसमे से अपनी रचना के लिए क्या लेता है, क्या आत्मसात करता है. आत्मनेपद में वह कहते हैं – ऐतिहासिक परम्परा कोई पोटली बाँध कर रखा हुआ पाथेय नहीं है जिसे उठा कर हम चल निकले.वह रस है, जिसे बूँद-बूँद अपने में हम संचय करते हैं – या नहीं करते, कोरे रह जाते हैं.  इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि अज्ञेय जहाँ एक तरफ परिस्थिति निरपेक्ष परम्परा  को स्वीकार नहीं करते, वहीँ दूसरी तरफ परिस्थिति के सम्मुख समर्पण कर देने के बजाय  परम्परा का सामर्थ्य इसमें मानते हैं कि वह नई परिस्थितयों का किस हद तक सामना कर सकती है, सामना करने और टकराने की यह स्थिति ही परम्परा का विकास या उसका नवीकरण है. <br>
                                      <br>
परम्परा को आत्मसात करना, उसको समय सापेक्ष बनाने के लिए प्रयोग की आवश्यकता और इन दोनों के समायोजन से आधुनिक रचना-दृष्टि की उत्पति; अज्ञेय के समूचे साहित्य की बुनियाद और प्रस्थान-बिंदु है..उनके लिए आधुनिकता का अर्थ परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ नई प्रक्रियाओं का हिस्सा बन जाना है. इस प्रकार एक संवाद जो निरंतर परम्परा और वर्तमान के बीच चलता रहता है, वहीँ आधुनिकता को जन्म देता है. </p>
<p dir="ltr">आधुनिकता का अर्थ अज्ञेय के लिए सिर्फ सामाजिक रूप से मूल्यनिरपेक्ष  हो जाना नहीं है, बल्कि उनका मानना है कि उन मूल्यों के प्रति सजग होने की हमारी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है, लगातार उनका परीक्षण करते रहना हमारा कर्तव्य हो जाता है.  वस्तुतः जैसे-जैसे कालबोध परिवर्तित होता है, वैसे ही बहुत सी चीजों के साथ हमारे संबंध भी अनिवार्य रूप से बदल जाते हैं जैसे इतिहास के साथ, सामाजिक परिवेश के साथ, तंत्र-श्रम और पूँजी के साथ, शासन-सत्ता एवं कला-साहित्य के साथ.</p>
<p dir="ltr">                                                          <br>
इस तरह से देखा जा सकता है अज्ञेय के लिए परम्परा, प्रयोग और आधुनिकता तीनों एक दूसरे से संपृक्त होकर ही अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं,जो परिवर्तन  और नयेपन के लिए अनिवार्य है. नए संवेदना बोध के साथ सम्प्रेषण की पद्धतिया भी बदले, साहित्य और रचनाकार की प्रासंगिकता इसी से बची रह सकती है. आधुनिकता सम्बन्धी चिंतन अज्ञेय के लिए महज पश्चिमी नक़ल नहीं है, बल्कि वह स्वस्थ परिवर्तनों के अनुकूल रह कर उसे आत्मसात करने की प्रक्रिया है.वह आधुनिकता के संस्कार के लिए परम्परा की जड़ो तक लौट कर जाते हैं .अज्ञेय अपनी रचनाधर्मिता, अपने चिंतन से साहित्य को नई दिशा और दशा देते हैं और इस तरह से अपनी प्रासिंगकता को सिद्ध करते हैं.वास्तव में इस शती में जिन लोगो ने हिंदी साहित्य की स्थिति और नियति का निर्धारण किया है, उसमे अज्ञेय सर्वोपरि हैं.<br>
विमलेन्दु                        <br>
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<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-9937661943247990392015-08-04T20:37:00.001-07:002019-02-09T20:39:43.478-08:00मैं धर्म के अविरुद्ध काम हूँ !<p dir="ltr">मैं धर्म के अविरुद्ध ‘ काम ‘ हूँ !</p>
<p dir="ltr"> <br>
यह उद्घोषणा गीता के सातवे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण कर रहे हैं. मेरे भीतर कृष्ण का यह उद्घोष उसी दिन से धीरे-धीरे बजने लगा है, जिस दिन से फगुनहटी हवा चलने लगी. यह वसन्त के आने की मुनादी थी जो हवाओं में बज रही थी. यह मदनोत्सव की ऋतु है, जो सरसो के खेतों में उतर आयी है. यह सृजन का अनुनाद था जो आम और अशोक के पेड़ों में गूँज रहा है. जैसे-जैसे होली नजदीक आने लगी , मन कुछ और का और होने लगा. सिर्फ मेरा ही नहीं, प्रकृति के सभी चर-अचर कुछ और ही रंग में दिखने लगते हैं---</p>
<p dir="ltr"> औरैं भाँति कोकिल, चकोर ठौर-ठौर बोले,<br>
औरैं भाँति सबद पपीहन के बै गए ।<br>
औरैं रति, औरैं रंग, औरैं साज, औरैं संग,<br>
औरैं बन, औरैं छन, औरैं मन ह्वै गए ।।</p>
<p dir="ltr">वसन्त की यही असली पहचान है कि हम कुछ और का और हो जाते हैं. यह और हो जाना, जितना बाहर दिखता है, उससे भी ज़्यादा भीतर होता है. इस बदलाव की ठीक-ठीक पहचान भी कहां हो पाती है. बस अभिलाषाओं, आकांक्षाओं का एक ज्वार उमड़ता रहता है गहरे कहीं. कालिदास कहते हैं कि वसन्त आता है तो सुखित जन्तु (चैन से रहने वाला आदमी) भी न जाने किसके लिए पर्युत्सुक (बेचैन ) हो उठता है. जहां भी कुछ सुन्दर दिखा, मन बहक जाता है.</p>
<p dir="ltr"> वसन्त 'काम' की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव, प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में 'काम ', फ्रायड-युंग आदि के ' लिबिडो ' से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे 'काम' से ही संचालित होते हैं.</p>
<p dir="ltr"> हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं---" धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । "---मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में 'स्मर ' या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.</p>
<p dir="ltr"> काम का दूसरा रूप है जो धर्म के विरुद्ध जाता है. यह रूप व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और उसे उद्दण्ड बना देता है. पश्चिम में काम के देवता ' किउपिद् ' माने जाते हैं, जो अन्धे हैं. यह प्रतीक है पश्चिम के उस विचार का जिसमें माना जाता है कि काम मनुष्य को अन्धा बना देता है. हमारे यहाँ इसी कोटि के मदन देवता हैं जो व्यक्ति को इतना कामातुर कर देते हैं कि अन्धा हो जाता है. शिव ने इसी मादक मदन देवता को भस्म कर दिया था. काम को 'मनसिज ' भी कहा जाता है. यह काम का भावात्मक रूप है. इसे पार्वती ने बचा लिया था. मनसिज, उद्दण्ड नहीं है. इसका स्वरूप सृजनात्मक है. यह सृष्टि का कारक है. यह हमारी शक्ति का स्रोत है. हमारे आनन्द की गंगोत्री है. हमारा काम देह की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है. हमारा काम प्रीति का, आह्लाद का, पारस्परिकता का, रसिकता का शिखर है.</p>
<p dir="ltr"> वसन्त को कामदेव का सखा माना जाता है. हिन्दुस्तान में वसन्त की कोई निश्चित तारीख नही होती. कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं--" झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की..." नीम के पत्ते जब झड़ने लगें, आम बौरा जाएँ, पलाश पर जब अंगारे दहकने लगें और अशोक के कंधे से जब फूल फूट उठें तो समझिए वसन्त आ गया. प्राचीन ग्रंथों में अशोक में फूल खिला देने के बहुत रोचक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है.अशोक के फूलों का खिलना मतलब वसन्त का आना होता था. कालिदास के ' मालविकाग्नि मित्र ' और हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका ' से पता चलता है कि मदन देवता की पूजा के बाद अशोक में फूल खिला देने का अनुष्ठान होता था. कोई सुन्दरी शरीर में गहने धारण करके, पैरों में महावर लगाकर नूपुर सहित अपने बांयें पैर से अशोक वृक्ष पर मृदु आघात करती थी. इधर नूपुरों की हल्की झनझनाहट होती और उधर अशोक उल्लास में कंधे पर से फूट उठता. आमतौर पर यह अनुष्ठान रानी करती थी.</p>
<p dir="ltr"> हमारा कोई प्राचीन काव्य बिना वसन्त के वर्णन पूरा ही नहीं होता. दरअसल हमारा जीवन ही वसन्त के बिना निरर्थक है. विशेष रूप से संस्कृत का कोई काव्य या नाटक उठाइए, किसी न किसी बहाने उसमें वसन्त आ ही जाएगा. ग़ज़ब तो तब हो गया जब कालिदास ने वर्षा ऋतु के काव्य ' मेघदूत ' में भी वसन्त को नहीं छोड़ा. उसमें भी यक्षप्रिया के उद्यान का वर्णन करते हुए, प्रिया के नूपुरयुक्त वामचरणों के मृदुल आघात से कंधे पर से फूट उठनेवाले अशोक और मुख मदिरा से सिंच कर उठने को लालायित वकुल की चर्चा कर ही दी. कालिदास सौन्दर्य और प्रेम के विलक्षण चितेरे हैं.</p>
<p dir="ltr"> प्राचीन काव्य ग्रन्थों में वसन्त की महिमा का अक्सर अतिरंजन हो जाता है. वसन्त के प्रति कवियों का मोह इस कदर है कि जयदेव के ' गीत गोविन्दम् ' की पहली ही अष्टपदी वसन्त को समर्पित है----</p>
<p dir="ltr"> ललित लवंगलतापरिशीलन, कोमल मलय शरीरे ।<br>
मधुकरनिकरकरंबि कोकिल कूजित कुंज कुटीरे ।।<br>
विहरति हरिरिह सरस वसन्ते ।<br>
नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरंते ।।</p>
<p dir="ltr">( सखी राधा से कहती है---राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं. )</p>
<p dir="ltr"> यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो.....श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ....यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है....यह समय निसर्ग में खो जाने का है.</p>
<p dir="ltr"> इसीलिए वसन्त ऋतु प्राचीन भारत में उत्सवों का समय होती थी. वात्स्यायन के कामसूत्र में इस समय कई उत्सवों का उल्लेख है. उनमें दो उत्सव सर्वाधिक प्रसिद्ध थे---सुवसन्तक और मदनोत्सव . सुवसन्तक आज का वसन्तपंचमी है, और मदनोत्सव आज की होली. होली का त्यौहार विशुद्ध रूप से उद्दाम काम का त्यौहार है. यह उस मायनों में भारत का त्यौहार है. भारत की संस्कृति से मेल खाता हुआ. यह हर भारतवासी का त्यौहार है. होली की इस व्यापक स्वीकृति का एक कारण यह है कि इसके साथ कोई धार्मिक परंपरा उस तरह से नहीं जु़ड़ी है, जैसी दूसरे भारतीय त्यौहारों के साथ. होलिका दहन की धार्मिक परंपरा अगर है भी तो वह रंग वाली होली के एक दिन पहले हो जाती है, और उसका कोई प्रभाव रंगों पर नहीं पड़ता.</p>
<p dir="ltr"> प्राचीन भारत में फागुन से लेकर चैत के महीने तक वसन्त के उत्सव कई तरह से मनाये जाते रहे हैं. एक उत्सव सार्वजनिक तौर पर मनाया जाता था तो एक दूसरा रूप कामदेव के पूजन का था. सम्राट हर्ष की ' रत्नावली-नाटिका ' में इस सार्वजनिक उत्सव का बड़ा मोहक चित्र है. मदनोत्सव वाले दिन पूरे नगर को सजाया जाता. नगर की गलियां, चौराहे और राजभवन का प्रांगण नगरवासियों की करतल ध्वनि, संगीत और मृदंग की थापों से गूँज उठते. नगर वासी वसन्त के नशे में मस्त हो जाते. राजा अपने महल की सबसे ऊँची चन्द्रशाला में बैठकर , नागरिकों के आमोद-प्रमोद का रस लेते. यौवन से भरपूर युवतियां, जो भी पुरुष सामने पड़ जाता उसे श्रृंगक (पिचकारी ) के रंगीन जल से सराबोर कर देतीं. राजमार्गों के चौराहों पर चर्चरी गीत और मर्दल नाम के ढोल गूँज उठते. दिशाएँ सुगंधित पिष्टातक (अबीर) से रंगीन हो जातीं. अबीर के उड़ने से राजमार्ग और महल के आसपास ऐसी धुंध छा जाती कि प्रातःकाल का भ्रम हो जाता है. ऐसा लगता मानो अपने वैभव से कुबेर को भी पराजित करने वाली कौशाम्बी नगरी सुनहरे रंग में डुबा दी गई हो.</p>
<p dir="ltr"> दूसरा विधान था कामदेव के पूजन का. इसका एक चित्र भवभूति के मालती-माधव प्रकरण में मिलता है. इसका केन्द्र होता था --मदनोद्यान, जो मुख्यरूप से इसी उत्सव के लिए तैयार किया जाता था. यहां कामदेव का मंदिर होता था. नगर के स्त्री-पुरुष इकट्ठे होकर यहां कन्दर्प (कामदेव ) की पूजा और आपस में मनोविनोद करते थे. शिल्परत्न और विष्णुधर्मोत्तर पुराण आदि ग्रंथों में कामदेव की प्रतिमा बनाने की विधियां भी बतायी गयी हैं. कामदेव के बायीं ओर पत्नी रति, और दाहिनी ओर दूसरी पत्नी प्रीति की प्रतिमा बनायी जाती थी. शास्त्रों में काम के बाण और धनुष फूलों के बताए गये हैं. अरविन्द, अशोक, आम, नवमल्लिका और नीलोत्पल--ये उसके पांच बाण हैं. इन्हें क्रमशः उन्मादन, तापन, शोषण, स्तंभन और सम्मोहन भी कहा गया है.</p>
<p dir="ltr"> हम भारतवासियों के लिए, कृष्ण को याद किए बिना, न तो वसन्त का कोई अर्थ है और न ही होली का. होली का सर्वाधिक मनभावन चित्र , कृष्ण-कथा में ही मिलता है. कृष्ण के प्रेम में आसक्त गोपियां हर क्षण कृष्ण को अपने पास लाने की जुगत में रहतीं . होली का उत्सव उन्हें यह अवसर देता है. गोपियां कृष्ण का प्रेम चाहती हैं. राधा जलती-भुनती रहती हैं......" भरि देहु गगरिया हमारी, कहे ब्रजनारी ...."---कृष्ण कहते हैं कि पहले पूरा खाली करो ! प्रेम की ऐसी ही गति-मति है.....प्रेम पाना है तो गगरिया पूरी खाली करके जाना पड़ेगा........प्रेम मनसिज है..प्रेम सृजन है..प्रेम उद्दाम है..प्रेम काम है, और काम धर्म के अविरुद्ध है !!</p>
<p dir="ltr"> <br>
</p>
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<p dir="ltr">अब आप ही बताइये कि इस बात पर हम शर्म करें या गर्व कि भारत की शिक्षा प्रणाली, विश्व में तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी शिक्षा-प्रणाली है, और बेरोजगारों को पैदा करने में दुनिया में इसका पहला नम्बर है.<br></p>
<p dir="ltr">गरीबों का ही देश सही, पर भारतमें कर्ज़ लेकर जीवन-यापन करने को हमेशा नीची नज़र से देखा गया है. हमारी प्राचीन सुक्तियों में कर्ज़ को पाप तक की संज्ञा दे दी गई है. फिर भी छोटे-मोटे कर्ज़ लेना-देना तो बहुत स्वाभाविक दिनचर्या है समाज की. लेकिन शिक्षा के लिए माँ-बाप का कर्ज़दार हो जाने का चलन इस देश में पिछले कुछ ही वर्षों में शुरू हुआ है. दरअसल यह मज़बूरी का चलन है. इस देश में शिक्षा की जो नई व्यवस्था चल निकली है, उसने इसे एक बड़े उद्योग में बदल दिया है. चूँकि शिक्षा अब हमारी बुनियादी ज़रूरत है, इसलिए मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग बच्चों की शिक्षा के पीछे कर्ज़दार हुआ जा रहा है. ये वही देश है जहाँ कृष्ण और सुदामा एक साथ और बराबर की शिक्षा ग्रहण करते थे. बीस साल पहले तक एक भिखारी का भी बच्चा आराम से पढ़ाई कर लेता था.हमारे देश में शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर पर एक आत्मघाती किस्म का ठंडापन तो अभिभावकों में दुविधा, इधर के वर्षों में रही है. हमारी अदूरदर्शी नीतियों का ही ये नतीज़ा है कि आज यह चिन्ता की बात बन गई है कि अब इस देश में योग्य वैज्ञानिक, विषय-विशेषज्ञ और कलाकार नही मिल पा रहे हैं. स्कूली शिक्षा बच्चों को व्यावहारिक रूप से अपाहिज बना रही है. विभ्रम के शिकार हमारे शिक्षा मंत्रियों को सरकारी और निज़ी विद्यालयों के बीच की चौड़ी खाई दिखाई नहीं पड़ती. उच्चशिक्षा के लिए माँ-बाप को बैंकों से कर्ज़ लेना पड़ रहा है. जिनकी हिम्मत नहीं पड़ती, उनके योग्य वच्चे भी उपयुक्त शिक्षा से महरूम रह जाते हैं. जिन IIM’s और IIT’s पर सारा ध्यान केन्द्रित है सरकार का, वहाँ तक कितने बच्चों की पहुँच है ? </p>
<p dir="ltr">आज़ादी के बाद देश की शिक्षा-प्रणाली पर खूब माथा-पच्ची की गई और निष्कर्ष भी आदर्शवादी निकले. योजनाएँ भी लुभावनी बनीं. लेकिन स्थितियां बिगड़ती गईं. दुनिया को दिखाने और रिझाने के लिए अनिवार्य शिक्षा के लिए अधिनियम बना दिया गया, लेकिन यह नहीं बताया गया कि दुनिया के विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले बहुत कम राशि हमारे यहाँ शिक्षा पर खर्च की जाती है. माँ-बाप को कर्ज़दार और बच्चों को निरर्थक बनाने वाली इस शिक्षा-प्रणाली के विकास को समझने की कोशिश की जानी चाहिए.</p>
<p dir="ltr">“………इतने सालों की पढ़ाई मेरे लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाई. माँ-बाप और इस दुनिया पर बोझ बन गया हूँ. आखिर सहने की भी एक हद होती है. बस अब नहीं.........” यह स्युसाइड नोट था एम.ए. , एल.एल.बी. पास और विगत छः वर्षों से आइ.ए.एस. की तैयारी कर रहे इलाहाबाद के मेधावी छात्र आशुतोष पाण्डेय का. दुर्भाग्य से यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. दिल्ली और इलाहाबाद में न जाने कितने मेधावी छात्र आठ-आठ सालों से एक ही कमरे में बन्द एक अदद नौकरी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर चुके हैं. उनमें से अधिकांश अपना मानसिक संतुलन खोकर अपने जनपदों में वापस आ जाते हैं. सवाल यह पैदा होता है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली ने हमें किस मुकाम पर पहुँचाया है ? अगर आशुतोष पाण्डेय की तरह आत्महत्या वाला मुकाम ही इसका हासिल है तो ऐसी शिक्षानीति के निर्धारकों को भारतीय दण्ड संहिता के अनुरूप दण्ड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?लेकिन दण्ड देगा कौन ? क्या हम उस बिल्ली से न्याय की अपेक्षा करें जिसके जिम्मे चूहों के लिए उचित कानून बनाने का काम है ? </p>
<p dir="ltr">यह भी हमारी स्वतंत्रता और इच्छाशक्ति की पोल खोलता है कि आज़ादी के चौसठ साल गुजार लेने के बाद भी हमारे सिर से मैकाले का भूत नहीं उतर पाया है.मैकाले महोदय भारतीय भाषाओं, साहित्य एवं कला को ‘ गँवारू’ मानते थे तथा वे भारत को उस ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे जिसे ‘विश्व की सर्वाधिक बुद्धिमान जाति(अँग्रेज) ने रचा है’. उनके अनुसार सम्पूर्ण प्राच्य ज्ञान-भंडार, यूरोप के किसी पुस्तकालय की एक आलमारी में रखे ज्ञान से भी कम है. वे भारत की समस्त देशी शैक्षणिक संस्थाओं को बंद कर, पूरी शिक्षा अँग्रेजी भाषा के माध्यम से, यूरोपीय साहित्य, कला एवं विज्ञान की देना चाहते थे. दरअसल उन दिनों मैकाले सहित अन्य अँग्रेज (वुड, शैडलर, हण्टर), अँग्रेजी शिक्षा के माध्यम से एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते थे भारतीयों का जो अँग्रेजों का समर्थन करें. मैकाले कहता था---“ हमें इस समय एक ऐसे वर्घ को उत्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए, जो हमारे और उन लाखों लोगों के बीच दुभाषिया बन सके जिन पर हम शासन करते हैं.” कहा गया कि सरकार को उच्च वर्ग को शिक्षा देनी चाहिए, जिससे शिक्षा छन-छन कर जनता तक पहुँचे. उन दिनों यह सिद्धान्त ‘ अधोमुखी निस्यंदन’ के नाम से मशहूर हुआ था. उच्च वर्ग से छन-छन कर कैसी शिक्षा निम्न वर्ग तक आई , हम सब देख ही रहे हैं. हाँ, उन दिनों मैकाले अपनी नीति में सफल हो गया था.हमारे देश में अँग्रेजों के कई भारतीय पिट्ठू तैयार हो गये हैं.मैकाले की शिक्षानीति 1835 में आई थी. भारत में हर साल अप्रैल से जुलाई के महीनों में मैकाले का भूत दिखता है. अँग्रेजी स्कूलों में दाखिले के लिए भारतीय जनता का मध्यमवर्गीय प्रलाप तथा देशी हिन्दी विद्यालयो के छात्रों के हीनभावना से ग्रसित सामूहिक विलाप से ये महीने आक्रांत रहते हैं.सारे अभिभावक और नेतागण ‘एडमिशन’ की राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहे होते हैं. भारतीय मध्यमवर्ग की अँग्रेजी स्कूलों के प्रति ललक और हताशा देखते उन्हें अत्यन्त दयनीय दशा में पहुँचा देती है. अँग्रेजी शिक्षा की प्रासंगिकता पर मैं यहाँ फिलहाल बहस नहीं करना चाहता, लेकिन इतना ज़रूर मानता हूँ कि कोई भी बाहरी भाषा अपनी मातृभाषा से ज्यादा ज़रूरी, उपयोगी और प्रासंगिक नहीं हो सकती.फिलहाल ज़ेर-ए-ज़हन जो बात है वह यह कि आखिर क्यों 1835 से चली आ रही शिक्षा-प्रणाली की मूल भावना ही आज भी बनी हुई है, जबकि इतने सालों में दुनिया का मिज़ाज़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. गुलामी के दिनों की विवशता को स्वीकार कर भी लें, लेकिन आज़ाद भारत में उसी उपनिवेशवादी शिक्षा पद्धति को किस तर्क से स्वीकार करें. कहीं ऐसा तो नहीं कि आज़ाद भारत के शासन की बागडोर, अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये अँग्रेजी परस्त लोगों के वंशजों के हाथ में रहने के कारण इस परंपरा का पोषण होता रहा ? क्या आज के भारत की अँग्रेजी शिक्षण संस्थाएँ, मैकाले द्वारा कल्पित उसी अभिजात्य वर्ग को तैयार नहीं कर रही हैं, जो पब्लिक स्कूल के बच्चों-भारतीय संस्क-ति और साहित्य को घृणा करते हैं ??<br>
</p>
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<p dir="ltr">कई दशकों तक हिन्दी में बनारस मण्डली का दबदबा रहा है। एक से बढ़कर एक तेजस्वी लेखकों ने हिन्दी की विभिन्न धाराओं को काशी की धारा का पर्याय बना दिया। बिहार में भी शूरवीरों की कतई कमी नहीं थी लेकिन न्यायाधीश की गद्दी बनारस मण्डली के पास ही रहती आई है।</p>
<p dir="ltr">यद्यपि प्रखरता और संवेदना में दोनों मंडलियां एक सी हैं। अपनी जातीय अस्मिता, भाषाई गौरव और देशज संवेदनाओं को, दोनों ही साहित्यिक और कलात्मक रूपाकार देते रहे हैं। अपनी बोलियों और लोकरीतियों को वैश्विक पहचान और सम्मान दिलाया। अड़ना और लड़ना, दोनों मण्डलियों का स्वभाव है। इसके साथ ही बनारस मण्डली और बिहार मण्डली(खासतौर से पटना) के बीच एक प्रतिस्पर्धा हमेशा दिखती रही।</p>
<p dir="ltr">बनारस मण्डली के वर्चस्व का कारण भी था। उन्होंने अपने आपको समकाल के साथ ही विपुल भारतीय मनीषा से जोड़ा। संस्कृत और अपभ्रंस साहित्य को अपना प्रस्थान विन्दु बनाया। इसीलिए शास्त्रार्थ में वे अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकलते दिखते रहे।</p>
<p dir="ltr">बिहार मण्डली के पास अपने समकाल से संघर्ष के साथ साथ भविष्य के स्वप्न थे। उनके साहित्य में चिंतन की प्राचीन धारा कम ही दिखती है। यद्यपि भाषा और रूप सौष्ठव उनका भी बनारस मण्डली जैसा ही है।</p>
<p dir="ltr">बनारस मण्डली के अधिकाँश योद्धा अब वानप्रस्थ या सन्यास आश्रम की ओर बढ़ चले हैं। नये लोगों में वह तेजस्विता दिखाई भी नहीं पड़ती। पुराने सारे आचार्य दिल्ली में बस कर विगत हो रहे हैं। कोई रहनुमा भी न बचा ।</p>
<p dir="ltr">दूसरी ओर, बिहार मण्डली ने अपने संघर्षों से एक अकाट्य चातुर्य अर्जित कर लिया। उनकी क्षेत्रीयता और एकजुटता अखण्ड है। उनकी दृष्टि दूर तक जाती है। दृष्टिकोण सदैव स्वहित पर अवस्थित रहता है। उन्होंने बाज़ार के आग्रहों को भी बेहतर समझा है। वे हमेशा आक्रमण की मुद्रा में रहते हैं।</p>
<p dir="ltr">इसीलिए हिन्दी की दिल्ली, अब बिहार मण्डली के हाथ में जाने को है।</p>
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एक दूसरे को<br>
सौंप दी थी अपनी दुनिया<br>
अब मैं उसका एकांत था<br>
और वो मेरी।</p>
<p dir="ltr">हमने अपने चेहरे <br>
सपाट कर लिए<br>
और रगड़ रगड़ कर<br>
मिटाते रहे<br>
उस पर लिखी इबारतें।</p>
<p dir="ltr">उसी दिन<br>
हमने एक बाड़ लगाई<br>
अपने चारों ओर<br>
और खुद को<br>
बेदखल कर लिया<br>
धरती और आकाश से।</p>
<p dir="ltr">हमने भुला दिए सभी स्वाद<br>
आँखों से उतार कर<br>
सभी तस्वीरें<br>
फेंक आए समन्दर में।</p>
<p dir="ltr">बस इतना ही किया<br>
प्रेम के पहले दिन !</p>
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जो उठ कर अँधेरे मुह<br>
चलता रहता है दिन भर<br>
देर रात <br>
ऐसे लौटता है घर<br>
कि कोई गुनाह करके लौटा हो।</p>
<p dir="ltr">जिसके पसीने में<br>
होती है विद्रोह की गंध<br>
और माथे की सलवटों में<br>
असहमति की लिपि।</p>
<p dir="ltr">जो मित्रों के बीच भी<br>
हँसता नहीं<br>
और भीड़ में <br>
हो जाता है भूमिगत।</p>
<p dir="ltr">बसंत जिसके लिए<br>
एक मौसम परिवर्तन से अधिक<br>
कुछ नहीं।</p>
<p dir="ltr">और कविता<br>
एक परदा है<br>
जिसे गिराकर<br>
वह बदलता है कपड़े।</p>
<p dir="ltr">उस आदमी के बारे में<br>
सबसे दयनीय सूचना यह है<br>
कि उसके खिलाफ<br>
कोई रिपोर्ट दर्ज़ नहीं है<br>
किसी थाने में !</p>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"> <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJVDpkCVDDDGS5o1k0OdjKBjMn5mBVvhFT-rqTHvd16QnvtbJvUUEJjvKxiwZAQ4SgIa5fq923kyaCXiLdk_a5hc_j-_Dg2GhEtfBTcBiycEeKixZdIGqVjuwbwutVdImykZVpEPPlvfo/s1600/IMG_219907052327959.jpeg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"> <img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJVDpkCVDDDGS5o1k0OdjKBjMn5mBVvhFT-rqTHvd16QnvtbJvUUEJjvKxiwZAQ4SgIa5fq923kyaCXiLdk_a5hc_j-_Dg2GhEtfBTcBiycEeKixZdIGqVjuwbwutVdImykZVpEPPlvfo/s320/IMG_219907052327959.jpeg"> </a> </div><div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-61114156506612296662014-06-10T05:59:00.001-07:002017-09-11T00:20:17.713-07:00जीवन के उत्तरार्ध में<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">यूँ तो कुछ सीखना</p><p dir="ltr">उतना आसान नहीं होता अब</p><p dir="ltr">
फिर भी मैं<br>
कुछ प्रयत्न करता हूँ<br>
जीवन के उत्तरार्ध में।</p>
<p dir="ltr">असंभव वानप्रस्थ के बीच<br>
मैं एक ऐसा गृहस्थ<br>
बने रहना चाहता हूँ<br>
जो नहीं हुआ किसी हादसे का शिकार<br>
और बचा ले गया पुरखों की पगड़ी।</p>
<p dir="ltr">इसी अवधि में<br>
मैं सीख लेना चाहता हूँ<br>
सीली तीलियों से आग सुलगाना<br>
और राख के ढेर में उसे बचाये रखना<br>
और गठानें खोलने जैसे मामूली काम।</p>
<p dir="ltr">मैं चाहता हूँ <br>
कि निकलूँ जब बाज़ार की तरफ<br>
तो चौंधिआया न करें आँखें<br>
और बचा रहे<br>
दोबारा वहाँ आने का हौसला।</p>
<p dir="ltr">मेरा मन है<br>
कि अब भी सुनाई पड़ें मुझे<br>
चिड़ियों के गीत<br>
और उन्हें मैं<br>
चीखों के अंतराल में<br>
गुनगुना भी लूँ।</p>
<p dir="ltr">लंबी यात्राएँ अब मुमकिन भी नहीं<br>
और ज़रूरी भी<br>
लेकिन कुछ बची रह गई दूरियों को<br>
चल लेने की बेचैनी<br>
खाये जाती है दिन रात।<br>
मैं भटक कर भी<br>
कुछ ऐसे रास्ते खोजना चाहता हूँ<br>
जो इन दूरियों की ओर जाते हैं।</p>
<p dir="ltr">ऐसे तो कोई शौक बचे नहीं अब<br>
और नींद भी<br>
आती नहीं उतने भरोसे की<br>
फिर भी कुछ एक<br>
टूटे फूटे सपनों में<br>
मैं नाव चलाते देखता हूँ खुद को<br>
मेरे साथ एक परछाईं होती है<br>
दोनों जन बैठे हैं<br>
एक एक किनारे पर।</p>
<p dir="ltr">सच पूछिए तो अब<br>
निकालते निकालते चक्रविधि ब्याज<br>
परीकथाएँ लिखने का होता है मन<br>
कि कुछ तो ऐसा छोड़ सकूँ<br>
जिन्हें बच्चे छोड़ सकें<br>
अपने बच्चों के लिए।</p>
<p dir="ltr">जाने कौन यक्ष<br>
रोज़ पूछता है मुझसे प्रश्न<br>
और यह जानते हुए<br>
कि युधिष्ठिर नहीं हूँ मैं<br>
उनके उत्तर खोजना चाहता हूँ<br>
जीवन के उत्तरार्ध में।<br>
------------------------------------------------------------------</p>
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हमारे नगर में एक महाकवि हुआ करते हैं।<br>
वयोवृद्ध के अलावा मतिवृद्ध भी हो चुके हैं अब। एक सम्मानित पद पर रहते हुए अब शासकीय सेवा से निवृत्त हो गये हैं</p>
<p dir="ltr">चालीस वर्ष पहले उन्होंने लगभग भीष्म पितामह के टक्कर की एक प्रतिज्ञा कर डाली। देवी सरस्वती को साक्षी मानकर उन्होंने निश्चय किया कि चाहे सूखा पड़े या बूड़ा आये, वे प्रतिदिन तीन कविताओं का प्रसव, आजीवन करते रहेंगे। माता सरस्वती ने अपने इस अद्भुत उपासक पर अपनी कृपा बनाए रखी। महाकवि आज भी बिला नागा कविताओं का उत्पादन किए जा रहे हैं। उनकी प्रतिज्ञा के आधार पर गणना की जाये तो अब तक लगभग 44 हज़ार कविताओं के वे जायज़ जनक बन गये हैं।</p>
<p dir="ltr">महाकवि के कई कविता संग्रह उनकी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। और कई अवतरित होने की कतार मे हैं। सभी संग्रहों का प्रकाशन उनके ही पराक्रम से संभव हुआ। इसके लिए उनके बढ़िया सरकारी पद की उर्वराशक्ति को नकारा नहीं जा सकता। विन्ध्य के एक मध्यकालीन संस्कृत कवि की स्मृति में वे केन्द्रीय मंत्रालय के अनुदान पर एक सालाना कार्यक्रम का आयोजन, सघन जंगल के बीच करते हैं। शरद की यही कमनीय रात्रि उनके नये संग्रहों की सुहागरात होती है।</p>
<p dir="ltr">महाकवि अलंकार-युक्त कविता के पक्षधर नहीं हैं। उनका प्रयास रहा है कि कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकारों से मुक्त कर, जीवन और प्रकृति के नजदीक लाया जाय। इसीलिए उनकी कविताओं में ब्रश-मंजन-पाखाने से लेकर संभोग तक के नितान्त सजीव चित्र मिलते हैं। कविता के अलंकारों को एक-एक कर उतारते हुए उन्होंने कामिनी को लगभग निर्वस्त्र कर दिया। अब उनकी कविता प्रकृति के बहुत नजदीक पहुँच चुकी है। उनके कविता-संग्रहों के शीर्षक इस प्रकार हैं---‘अनुभूतियों का सच’, ‘अनुभूतियों का महाज्वार’, ‘अनुभूतियों का अन्तर्जाल’, ‘घास के फूल’ इत्यादि।</p>
<p dir="ltr">अब निरीह पाठकों के बीच एक सवाल हमेशा तनकर खड़ा रहा कि लगभग 44 हज़ार कविताओं के विषय आते कहाँ से हैं !? <br>
हम और आप भले ही स्तंभित हों, लेकिन महाकवि के सामने यह सवाल कभी नहीं खड़ा हो सका।</p>
<p dir="ltr">महाकवि बवासीर के मुस्तकिल रोगी हैं। “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान....”। इस फार्मूले को थोड़ा सामयिक रंग दे दें---“ रोगी होगा पहला...”----तो महाकवि की प्रेरणाओं का पहला अक्षय स्रोत यही मुआ बवासीर ही लगता है। इसी आह से उपजा होगा गान।<br>
इसके अलावा तीन और स्रोत हैं जहाँ से महाकवि अपनी कविताएँ लाते रहे होंगे। </p>
<p dir="ltr">प्रथम, श्रीहरि ने महाकवि को ठीक उसी तरह की शक्ल-सूरत दी थी, जैसी उन्होंने स्वयंवर के समय देवर्षि नारद की कर दी थी। इसीलिए महाकवि की कविताओं में सौन्दर्य के लिए खुली चुनौती आजीवन बनी रही।</p>
<p dir="ltr">द्वितीय, महाकवि पत्नी-पीड़ित भी थे। उनके पास-पड़ोस के लोग रात में चौंककर उठ जाते थे, जब कवि-पत्नी महाकवि को पीटने लगतीं। कई बार तो वे अल्पवस्त्रों में ही आधी रात भड़भड़ा कर बाहर भागते देखे गए। उपरोक्त परिस्थिति भी कविता के लिए बहुत उर्वर भाव-भूमि तैयार करती है।</p>
<p dir="ltr">तृतीय, सेवानिवृत्त होते ही महाकवि अपने से पन्द्रह वर्ष छोटी एक सद्यःविधवा प्राध्यापिका पर मुग्ध हो गए। वे प्रेम में इतने असहाय हो उठे कि दिन-दिन भर प्राध्यापिका के घर बैठे प्रेम की याचना करते रहते। पर महोदया नहीं पिघलीं। बात कवि-पत्नी तक भी पहुचनी ही थी। तभी वियोग-श्रृंगार घटित हुआ। एक अप्रिय संयोग के चलते महाकवि-प्राध्यापिका-कविपत्नी की मुठभेड़ हो गई। भाव-विभाव-अनुभाव-संचारी भावों का उच्चतम प्रस्फोट हुआ। और महाकवि जब बाहर निकले तो उनके माथे से रक्त-धार बह रही थी।</p>
<p dir="ltr">महाकवि आज भी पूरे वेग से कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकार-मुक्त करके उसे प्रकृतिस्थ करने की अपनी महासाधना में तल्लीन हैं। </p><p dir="ltr"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgh4hix-hmY3ZucY6rKqjYk2LLssuzIcPldMXRJ6QFFAYZqTc1Mn1thX7gJ-bD1yG2QC4gPAx0NHan0zMgipi7JqaIJuW6MF-yT1Tc3f3KrFFqzpQXIfkWio8U6_pFxVqMFTICqALhMlw/s1600/IMG-20140603-WA0006.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgh4hix-hmY3ZucY6rKqjYk2LLssuzIcPldMXRJ6QFFAYZqTc1Mn1thX7gJ-bD1yG2QC4gPAx0NHan0zMgipi7JqaIJuW6MF-yT1Tc3f3KrFFqzpQXIfkWio8U6_pFxVqMFTICqALhMlw/s640/IMG-20140603-WA0006.jpg"></a></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br></div><div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-63158430357532384302014-06-05T05:38:00.001-07:002014-06-05T05:38:18.051-07:00वन्दे मात्र रम !<p dir="ltr">ये बात कई साल पहले की हुई।<br>
उन दिनों हम सच में जवान थे। न सिर्फ जवान थे बल्कि कवि भी थे। उन दिनों देखा यह गया था कि अगर किसी डरपोक किस्म के भावुक जवान को इश्क मोहब्बत हो जाए तो उसका मोक्ष कवि-योनि में होता था।</p>
<p dir="ltr">हमने भी एक हसीना से प्रेम किया। प्रेम ही नहीं किया, प्रेम-पत्र भी लिखा। कॉलेज का बसन्त था। हमने प्रेम-पत्र बड़े सलीके से हसीना की साइकिल के ब्रेक-लीवर में फँसा दिया ताकि उसकी नज़र से बच न पाए। उसकी नज़र पड़ी भी। दो दिन बाद उसकी माँ का बुलावा आ गया। हम गए। और जब लौटे तो हमारे भीतर कविता का बीज पड़ चुका था। बाद को मेरे एक दोस्त—जो मुझसे कुछ ही पहले कवि-योनि में प्रवेश कर चुके थे—ने उसी प्रेम-पत्र को फेर-बदल करके कविता की शक्ल दे दी। वही मेरी पहली कविता थी। एक अंश-----</p>
<p dir="ltr">“ मेरी प्रिय तुम<br>
वक्त से एक लम्हा तोड़कर<br>
ऐसे छुपाता हूँ तुम्हें<br>
जैसे बचपन में<br>
अमावट चुराकर<br>
अम्मा से छुपाता था।“<br>
(दूसरी लाइन गुलज़ार से प्रेरित। आखीर में अमावट और अम्मा में अनुप्रास की छटा !!)</p>
<p dir="ltr">खैर ! बात मुझे कुछ दूसरी ही करनी थी।<br>
कवि हो जाने के बाद हम खूब सक्रिय हुआ करते थे। उन्हीं दिनों कमान्डर कमला प्रसाद के नेतृत्व में हमने समीपी पर्यटन स्थल गोविन्दगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ का एक रचना-शिविर लगाया। झील के बीच बने टापू पर प्रदेश के नवोदित कवियों के साथ, भगवत रावत, चन्द्रकान्त देवताले, मलय, ज्ञानरंजन, प्रमोद वर्मा जैसे कवि/कथाकार/आलोचक तीन दिन तक चर्चा करते रहे।</p>
<p dir="ltr">इस शिविर के आयोजन में गोविन्दगढ़ स्थित पुलिस ट्रेनिंग स्कूल के एसपी महोदय का सहयोग लेना पड़ा। बाद में पता चला कि एसपी साहब साहित्य-प्रेमी ही नहीं, कवि भी हैं। </p>
<p dir="ltr">शिविर सत्रों में चलता था। सारे काम-धाम छोड़कर एसपी साहब एक दयनीय उत्सुकता और एक खूबसूरत सी डायरी लिए समय से पहले ही हर सत्र में उपस्थित हो जाते। एक दो सत्रों तक तो हम समझ नहीं सके। लेकि बाद में समझ आ गया कि ये अपनी कविताएँ सुनाना चाहते हैं। चर्चाओं के दौरान उनका उत्साह देखते बनता था। वो वक्तव्यों पर भी ऐसी दाद उछालते जैसे किसी मुशायरे में बैठे हों ! वाह वाह ! के साथ उनका वही हाथ उठता जिसमें कविताओं वाली डायरी होती। उनकी दाद में इतना घोष होता कि वक्ता भी अचकचा जाता।</p>
<p dir="ltr">खैर दैव-दुर्योग से एसपी साहब को कविताएँ सुनाने का मौका नहीं मिल पाया तो संयोजक कमला प्रसाद चिन्तित हुए। उन्हें लगा कि आदमी यह काम का है। आगे भी जरूरत पड़ सकती है। उन्होंने एक रास्ता निकाल ही लिया। कविता-पाठ तो अब संभव नहीं था। शिविर के समापन सत्र में उन्हें जबरन मेजबान की भूमिका में बाँध दिया गया और गोविन्दगढ़ की धरती पर पधारे देश के मूर्धन्य विद्वानों के प्रति आभार प्रदर्शन की महती ज़िम्मेदारी देकर माइक पर आमंत्रित किया गया।</p>
<p dir="ltr">आमतौर पर आभार-प्रदर्शन की रवायत में अतिथियों के साथ-साथ पत्रकारों, नेताओं, प्रायोजकों, साउण्ड वाले, भोजन व्यवस्था वालों, और स्थानीय गुण्डों के प्रति आभार जता कर बात खत्म कर दी जाती है। लेनिक एसपी साहब जैसे ताक में थे। उन्होने यहाँ भी गुंजाइश निकाल ही थी। कविता तो नहीं सुनाई, लेकिन नायाब चीज़ हमें दी !!</p>
<p dir="ltr">उन्होंने कहा कि कविता पर आप लोगों ने तीन दिनों तक लॉ एण्ड ऑर्डर को तोड़कर जो बलवा किया, उससे मुझे लगा कि मैं भी कुछ बोलूँ। मैं आपके सामने राष्ट्रगीत-‘ वन्दे मातरम्……’ की एक नई व्याख्या पेश कर रहा हूँ----------</p>
<p dir="ltr">एसपी साहब कह रहे थे---“ बंकिमचन्द्र रसिया आदमी थे। इसीलिए उन्होने लिखा---वन्दे मात्र रम।–मैं केवल रम की वन्दना करता हूँ।<br>
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्।–साथ में स्वच्छ जल हो, कुछ अच्छे फल आदि हों तथा मन्द शीतल हवा बह रही हो, तब यह और प्रभावी हो जाती है !<br>
सश्य श्यामलां मातरम्। --ध्यान रहे, समय शाम का ही होना चाहिए !<br>
शुभ्र ज्योत्सनाम पुलकित यामिनी<br>
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्।–धवल चांदनी में बौराई रात हो। घर का उपवन हो। आस-पास फूलों की सुगन्ध आ रही हो और आप बोतल खोलकर बैठे हों।<br>
सुभाषिणीम् सुमधुर भाषिणीम्। सुखदां वरदाम् मातरम्।----और अगर सुमधुर कण्ठों वाली कोई सुन्दरी भी साथ में हो तब, अहा ! यह रम आपको अलौकिक सुख का वरदान प्रदान कर देती है !!</p>
<p dir="ltr">एसपी साहब के चेहरे की आभा में मूर्धन्य विद्वत-जन स्तब्ध थे। इसी के साथ शिविर का समापन हो गया।</p>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-60542171646590061782014-04-11T05:54:00.000-07:002014-04-11T05:54:20.457-07:00कामिनी काय कांतारे / महेश कटारे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h1>
<span lang="EN-US"> </span></h1>
<div class="MsoNormal">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgly6kORq2Rb2c9wB522H-nUe4OEka9HjtpjqlopXoGKojV5g42wnXoKrkZgyTFdnvSeLg8m7g-z1ZnVQdJ-e70wGlmX53gRynKW3r_0eYZsskYUbGCg_PrDchmxYU2FfA9YYHvDoza2SU/s1600/CYMERA_20140411_100142.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgly6kORq2Rb2c9wB522H-nUe4OEka9HjtpjqlopXoGKojV5g42wnXoKrkZgyTFdnvSeLg8m7g-z1ZnVQdJ-e70wGlmX53gRynKW3r_0eYZsskYUbGCg_PrDchmxYU2FfA9YYHvDoza2SU/s1600/CYMERA_20140411_100142.jpg" height="320" width="240" /></a><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जीवन तो वही वरेण्य हे जो कथा बन सके। </span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="EN-US">****</span></div>
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<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">भोगों को हमने नहीं भोगा, भोगों ने हमें ही
भोग लिया। हमने तप नहीं किया, त्रितापों ने तपा दिया हमें। समय नहीं बीता, हम
स्वयं बीत गए....तृष्णा न बुढ़ाई, बूढ़े हुए हम ही।<br />
</span><span lang="EN-US">****<br />
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">स्त्री प्रथमतः और अंततः जननी होती है। वेश्या या
ब्राह्मणी के आरोप तो काल और स्थितिगत अवस्थाएँ हैं।<br />
</span><span lang="EN-US">****<br />
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दुर्लभ पुरुष के प्रति प्रेम है। मन में भारी लज्जा है।
और शरीर दूसरे के अर्थात पति के अधीन है। प्रिय सखि </span><span lang="EN-US">!</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> ऐसी स्थिति में प्रेम
बहुत संकट भरा है।<br />
</span><span lang="EN-US">****<br />
</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">संन्यास से संसार नहीं चलता।
भूख,प्यास,प्रेम,क्रोध,राग,भय आदि प्रकृति प्रदत्त हैं। योगी इन पर विजय पा सकता
है, इन्हें मिटा नहीं सकता।<br /><br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><b>----कामिनी काय कांतारे</b></span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक हफ्ते से मैं इसी उपन्यास के प्रेम में
हूँ। ऊपर उद्धरण भी उसी से हैं। महेश कटारे के इस उपन्यास में राजा भर्तृहरि की
जीवनकथा है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यह कथा राग और वैराग के बीच करवटें बदलते
जीवन की कथा है। यह राजा भर्तृहरि, भोगी भर्तृहरि, योगी भर्तृहरि, कवि भर्तृहरि,
वैयाकरण भर्तृहरि की कथा है। यह कथा ऐसी भाषा में रची गई है, जो हमें चमत्कृत करते
हुए सम्मोहित कर लेती है। कथा बुनने की ऐसी तकनीकी जो जासूसी कथाओं जैसी व्यग्रता
पैदा करती है। और समापन ऐसा जो हमें मूर्तिवत कर दे।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अब आपको याद आ गया होगा कि भर्तृहरि अवन्ति
के राजा हुए थे, जिसे अब उज्जैयिनी कहा जाता है। कहते तो यह भी हैं कि भर्तृहरि ने
सात बार वैराग्य धारण किया और लौटकर फिर से गृहस्थ बन जाते। अंत में गोरखनाथ के
शिष्य बनकर गृह त्याग दिया। उनके गृहत्याग का दृश्य इतना करुण था कि यह कथा
लोकजीवन में आज भी हृदय विदारक रुदन के साथ सुनी और मंचित की जाती है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अब आपको उस जोगी का स्मरण भी हो आया होगा, जो
साल में एक या दो बार सारंगी बजाते कुछ अस्पष्ट सी करुण धुन गाते हुए आपके दरवाजे
पर आ जाता था। इस जोगी को </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">भरथरी</span><span lang="EN-US">’</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;"> कहते हैं। </span><span lang="EN-US">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">भरथरी</span><span lang="EN-US">’ </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">यानी भर्तृहरि। यह नाम इसलिए इन्हें मिला क्योंकि ये भर्तृहरि के जोगी बनने
और पत्नी पिंगला से गृहत्याग की भिक्षा मागने की कथा गाते हैं।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इसी कथा को महेश कटारे ने दो खण्डों और लगभग
छः सौ पृष्ठों में अद्भुत कथा-कौशल से रचा है। कुछ इतिहास से, कुछ मिथकों से और
कुछ कल्पना से। बिना प्रवाह को बाधित किए लेखक ने प्रेम, काम, वैराग्य, नीति, जैन
आचार, नाथ संप्रदाय, ज्योतिष, राजनीति, कूटनीति, आयुर्वेद, स्त्री जीवन, दास जीवन
और जन जीवन का प्रमाणिक विवेचन किया है।</span><span lang="EN-US"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">सन् 2012 में यह उपन्यास प्रकाशित हुआ था।
मुझे संदेह है कि यह कितने पाठकों तक पहुँचा होगा। इसके दो खण्डों की कीमत 830</span><span lang="EN-US">/- </span><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">रु. है, जो
हिन्दी पाठकों को दूर रखने के लिए पर्याप्त है। मैं अंतिका प्रकाशन और श्री
गौरीनाथ जी से आग्रह करता हूँ कि इस पुस्तक को जनसुलभ पेपरबैक संस्करण में छापें
तो यह और पाठकों तक पहुँच सके। <br /><br />
</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; font-size: 10.0pt; line-height: 115%; mso-ansi-font-size: 11.0pt; mso-ansi-language: EN-US; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-font-family: Mangal; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मध्यकालीन परिवेश में होते हुए भी यह उपन्यास हमें समकालीन जीवन से अप्रत्याशित
रूप से जोड़ता है।<o:p></o:p></span></div>
</div>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-261243547015665954.post-84982971321918682112014-03-29T09:54:00.002-07:002014-03-29T09:54:40.001-07:00ऐसे तो, समय रुकता नहीं कभी !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLSCIBYHkrQYR3tQvylxJK0dhgQOzO5aXTkwpnh8VIXqVkH702mycktV2aWVXoneCDmeISc6uILWxGMmvRbQigbi_bDmjZYacECSRqU1kZANYNo9BEmgV-9bd6oOWdRlBRTQy2BGyH9sw/s1600/IMG_0053.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjLSCIBYHkrQYR3tQvylxJK0dhgQOzO5aXTkwpnh8VIXqVkH702mycktV2aWVXoneCDmeISc6uILWxGMmvRbQigbi_bDmjZYacECSRqU1kZANYNo9BEmgV-9bd6oOWdRlBRTQy2BGyH9sw/s1600/IMG_0053.jpg" height="320" width="240" /></a><span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ऐसे तो</span><br style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">समय रुकता नहीं कभी</span><br style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;" /><span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">पर उसकी धार के किनारे</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br />हमारा कोई क्षण<br />ठिठका रह जाता है सालों साल।<br /><br />दीवार और कलाइयों पर<br />निशान छोड़ती<br />घड़ी की सूइयाँ घूमती रहती हैं<br />और हमारा<br />छः बजकर तीस मिनट<br />वहीं खड़ा रहता है अवाक्<br />ठंड की शाम में भी<br />माथे पर उभर आये<br />पसीने की एक परत लिए।<br /><br />कैलेण्डर बदलता रहता है शताब्दियाँ<br />लेकिन<br />अक्टूबर, सत्तान्नवे की<br />सत्रह तारीख पर<br />लगाए गए गोले को<br />नहीं मिटा पाया वह किसी जतन।<br /><br />सूर्य घूमा<br />पृथ्वी ने लगाए चक्कर<br />चन्द्रमा ने बदलीं कलाएँ<br />हवाएँ, ऋतुएँ बदलती रहीं<br />और हमारा कोई एक क्षण<br />हो गया इन सबसे बैरागी।<br /><br />सूर्य पृथ्वी और चन्द्रमा से<br />छुपी रह जाती हैं<br />क्षणों में घटने वाली<br />खगोलीय घटनाएँ<br />स्थिर में आने वाले भूकम्प<br />चरखा चलाने वाली बुढ़िया का रहस्य<br />और दो खरगोशों की कहानी।<br /><br />ऋतुओं की खुर्दबीन से<br />ओझल ही रहता है<br />हमारे उस क्षण का मौसम विज्ञान।<br /><br />यह गति में<br />स्थिरता का सौन्दर्य है<br />ध्वनि में मौन का नाद<br />और जीवन के नृत्य में<br />मृत्यु का स्थायी।</span></div>
<div class="blogger-post-footer">आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा है ।</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/03514753057178092961noreply@blogger.com0