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Sunday, 27 May 2012

शेर कब रोते हैं !


(दुनिया के पहले सफेद शेर मोहन की स्मृति में)

 शेर जंगल में होने से पहले हमारे मन में हुए होंगे, जैसे सृष्टि होने से पहले ब्रह्मा के स्वप्न में हुई होगी...........

उसका नाम मोहन था. उसने दुनिया को ‘रीवा’ दिया. वह शेर था..सफेद शेर ! राजा था जंगल का. ये एक शेर के ही बूते की बात हो सकती है कि वह एक नामालूम सी छोटी जगह को दुनिया के नक्शे में जगमग कर दे. जंगल के इस राजा को दुनिया के सामने लाने वाला भी एक राजा ही था.

ये कारनामा किया था रीवा राज्य के तत्कालीन नरेश महाराज मार्तण्ड सिंह ने. उन्होने रीवा राज्य के बरगड़ी जंगल(वर्तमान मे सीधी जिले के गोपद बनास तहसील में) से सफेद शेरों के वंशज को, 27 मई,1951 को पकड़ा था. उस समय वह 9 माह का था.  नाम रखा मोहन. उसे गोविन्दगढ़ किले में रखा गया. महाराजा ने सफेद शेर की वंशवृद्धि के प्रयास शुरू किया...राधा नाम की शेरनी को मोहन के साथ रखा गया...अन्तत: 30 अक्टूबर 1956 को मोहन और रामबाई नामक शेरनी के सम्पर्क से सफेद रंग के एक नर और तीन मादा शावकों का जन्म हुआ...9 अगस्त 1962 को दो सफेद शेर कलकत्ता भेजे गए, 1962 मे ही एक-एक अमेरिका और इंग्लैण्ड के चिड़ियाघर भेजे गये.

मोहन ने 18 दिसंबर 1967 को अंतिम सांस ली. उसका राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया. मोहन का सिर आज भी बाघेला म्यूजियम,रीवा में संरक्षित है.

रीवा के लोग इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि उन्होने दुनिया को सफेद शेर दिया..... यूँ तो रीवा को राष्ट्रीय पहचान देने वाले कुछ और शेरों को आप जानते हैं. तानसेन रीवा राजघराने के गायक थे. बीरबल भी कथित तौर पर रीवा के ही बताये जाते हैं. इन दोनों शेरों को दिल्ली के सम्राट अकबर ने पहले अनुनय-विनय और फिर धमकी देकर अपने दरबार मे बुला लिया था

लेकिन सफेद शेर मोहन ने रीवा की पहचान विश्वस्तर पर बनायी. वह रीवा वासियों के लिए सिर्फ एक शेर नहीं है. वह रीवा की अस्मिता है. वह यहाँ की पहचान है. मोहन इस छोटे से पिछड़े हुए जनपद का अभिमान है. वह इस अविकसित भू-भाग का अप्रत्याशित विस्तार था.

दरअसल मोहन और उसके वंशज, जिन्हें हम शेर कहते हैं, प्राणिविज्ञान में उन्हें Panthera Tigris कहा जाता है. यह नाम 1758 में कार्ल लीनियस नामक एक प्राणिविज्ञानी ने दिया था. इन्हें हमारे यहाँ बाघ कहते हैं, जो संस्कृत शब्द व्याघ्र से बना है. शेर सामान्यत: उन्हें कहा जाता है जिनके सिर और चेहरे पर लम्बे बाल होते हैं. बाघ की बनावट इनसे अलग होती हे. हमारी दैनिक भाषा में दोनो को शेर ही कहा जाता है. दरअसल शेर हमारे लिए एक संज्ञा मात्र नहीं है. यह हमारा एक भाव-बोध है. शेर हमारी चेतना का एक ताकतवर और विलक्षण विस्तार है. बाघ दुनिया का सबसे ताकतवर प्राणी माना जाता है. रीवा से सफेद शेर चले गये, यह रीवा का दुख है, लेकिन पूरे देश में बाघ खत्म होने की कगार पर हैं-यह एक आपदा के संकेत हैं. 
जिस देश के चप्पे-चप्पे से बाघों की दहाड़ सुनाई देती थी, उसी देश में वर्ष 2010 तक केवल 1411 बाघ बचे थे.यह संख्या भी कोई विश्वसनीय नहीं थी.  अनुमान की एक छोटी सी रस्सी को इसमें भी पकड़ कर रखा गया है. 2011 के अंत तक यद्यपि यह सुखद समाचार वन मंत्रालय की तरफ से दिया गया कि देश में बाघों की संख्या बढ़कर 1706 हो गई है, लेकिन इसकी अधिकारिक पुष्टि नहीं की गई. 19वीं शताब्दी में भारत में लगभग 45,000 बाघ थे.तब उनकी संख्या को लेकर किसी का ध्यान नहीं था.यह स्वाभाविक भी था.आपका पेट भरा हो तो आप रोटियाँ नहीं गिनते. 20 वीं शताब्दी में1972 तक आते-आते अचानक पता चला कि पूरे देश में अब केवल 1,827 बाघ ही बचे हैं. माना जाता है कि भारत में बाघ चीन से सहस्त्राब्दियों पूर्व तिब्बत के पठार के संकरे गांसु गलियारे से आये थे. इसी मार्ग को बाद में सिल्क रूट कहा गया जो भारत-चीन का प्रमुख व्यापारिक मार्ग था. दुनिया भर में बाघों की नौ प्रजातियों की खोज हुई थी जिनमें से तीन अब विलुप्त हो चुकी हैं. दुनिया के कुल बाघों की आधी संख्या भारत में ही पाई जाती है. तिब्बत, श्रीलंका और अंडमान निकोबार द्वीप समूह को छोड़कर लगभग पूरे एशिया में बाघ पाये जाते हैं.

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की चिन्ता के मद्देनज़र, स्वतंत्र भारत की पहली व्यवस्थित वन नीति बनाने की कवायद चल रही थी. उसी दरम्यान यह तथ्य सामने आया की बाघों की संख्या में डरावनी कमी हो गयी है.1972 में वन्य जीव संरक्षण कानून बना दिया गया, और उसके अगले ही साल 1973 में,बाघों को बचाने के लिए एक अलग दीर्घकालिक योजना ‘प्रोजक्ट टाइगर’ के बनायी गई. बाघों के संरक्षण के लिए भारी भरकम बजट और अधिकार के साथ इसकी शुरुआत के लिए पलामू अभयारण्य को चुना गया. उसके बाद देश के कई अन्य राष्ट्रीय उद्यानो और अभयारण्यों को टाइगर रिज़र्व के नाम से बाघों के लिए आरक्षित कर दिया गया. इन आरक्षित क्षेत्रों में बाघों के शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर कठोर सज़ा का प्रावधान रखा गया. प्राणिविज्ञानियों, चिकित्सकों और प्रशासकों का एक अमला बाघों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तैनात कर दिया गया.

लेकिन मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा दी. इस पूरी कवायद का नतीज़ा ये निकला कि वर्ष 2010 तक आते-आते बाघों की संख्या इतनी कम हो गयी कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है. और यह पक्के तौर पर कहा जाने लगा कि दो-चार सालों में इस देश से बाघ पूरी तरह से खत्म हो जायेंगे.म.प्र.,पूरे देश में सर्वोधिक बाघ हुआ करते थे, वहाँ की सरकार को ठीक-ठीक यह भी नहीं मालूम कि इस प्रदेश मे अब कितने बाघ बचे हैं. शिकारियों और अक्षम प्रशासकों के नापाक गठजोड़ ने इस देश में बाघों के अस्तित्व को लगभग खत्म होने हद तक पहुँचा दिया है. हालांकि वर्ष 2011 में एक सुखद सूचना आयी है कि बाघों की संख्या में लगभग 20 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है,पर यह ख़बर कितनी विश्वसनीय है इसकी पुष्टि नहीं हुई है.

हम गौरव,अस्मिता और पहचान की बात छोड़ दें, तो पर्यावरणीय दृष्टि से भी बाघों का खत्म होना देश के लिए एक भयंकर दुर्घटना होगी. इन्हें बचाने के लिए हमारी रणनीति किसी आपदा से निपटने जैसी ही होनी चाहिए. तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद शेरों को बचाने की भावना, जन-भावना नहीं बन पायी कभी. पहला किंचित अदृश्य कारण यह है कि प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता बहुत दूर का हो गया है. अब हम प्रकृति के सहचर नहीं उसके पर्यटक और प्रतिद्वन्दी हो गये है. अब हम प्रकृति को देखने का मोल चुकाते हैं, इसीलिए उसके साथ किसी तरह के भावात्मक संबन्ध की संभावना खत्म होती जा रही है. शेर और जंगल तो ज़रा दूर की बातें हैं, हम अपने ही घर का आँगन तक नहीं बचा पा रहे हैं. किसी को कोई फ़र्क पड़ा क्या कि आँगन से गौरैया गायब हो गईँ. आसमान से चीलें. अब कौवे अतिथि के आगमन की सूचना नहीं देते.


खैर, अभी इस भावुकता से बचते हुए यह सोचना है कि आख़िर शेरों को बचाने की मुहिम, जनता की मुहिम क्यों नहीं बन पाई ? ज़रा सोचिए, हममें से कितने लोग Echosystem (पारिस्थितिक तंत्र) और Biodiversity (जैव विविधता) का अर्थ उस तरह से समझते हैं कि वह हमारी भावना से जुड़ सके ?  जबकि तमाम सरकारी-गैर सरकारी मुहिम में जितने नारे हैं, उनमें यही दो शब्द प्रमुखता से उछाले जाते हैं. इन नारों में कहा जाता है कि बाघ बचाइए क्योंकि ये हमारे ईकोसिस्टम और बायोडाइवर्सिटी के लिए आवश्यक हैं. अब सोचिए ज़रा उस मानव समुदाय के बारे में, जो जंगल और शेरों के इर्द-गिर्द रहते हैं ! क्या उनके पल्ले यह शब्दावली और ये तर्क पड़ेंगे ?

 क्या हम सबको यह नहीं बताया जाना चाहिए कि शेर हमारी ताकत, हमारे स्वाभिमान, हमारे गौरव, और हमारे धीरज का प्रतीक हैं ! कि एक शेर जिस जंगल में होता है, तो बिना किसी प्रयास और खर्च के 25,000 एकड़ जंगल सुरक्षित हो जाता है. हमें Echosystem समझाने की ज़गह ये बताया जाना चाहिए कि शेर, खरगोशों और हिरणों के जनसंख्या-विस्फोट को नियंत्रित करते हैं. खरगोशों और हिरणों की संख्या अगर एक अनुपात से अधिक हो जाती है तो कृषि और जंगली वनस्पतियों का विनाश तय है. जहाँ शेर होता है, वहाँ के दूसरे जंगली जानवर अपने आप सुरक्षित हो जाते हैं, और इस तरह प्रकृति की Biodiversity भी बनी रहती है.

इतना समझ लेने के बाद यह समझना बड़ा आसान हो जाता है कि शेर रहेंगे तो जंगल रहेंगे,जीव रहेंगे. जंगल रहेंगे तो वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) की मात्रा नियंत्रित रहेगी. कार्बन गैसों के नियंत्रित रहने से पृथ्वी का तापमान नहीं बढ़ेगा, और जीवन कुछ कम कठिन होगा. जंगल बाढ़ को रोकने में भी बहुत मदद करते हैं, यह तो आप सब जानते ही हैं. पर शेरों के साथ एक आर्थिक पक्ष भी जुड़ा हुआ है. इस पर भी गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है. जिन क्षेत्रों में शेर  संरक्षित हैं वहाँ पर्यटन उद्योग की संभावनाएँ ज़बरदस्त रूप से बढ़ जाती हैं. इससे व्यापक पैमाने पर रोज़गार के अवसरों का सृजन होता है. यह कोरी कल्पना नहीं है, आपके-हमारे अनुभवों का सत्य है. इस तरह दो उद्देश्य एक साथ सध जाते हैं—प्रकृति की सुरक्षा और आर्थिक सुरक्षा भी. दो ही क्या, अप्रत्यक्ष रूप से कई उद्देश्य पूरे होते हैं. और इनकी वज़ह होता है सिर्फ एक शेर ! इसीलिए तो वो शेर होता है !! एक शेर ही कर सकता है ऐसा.

आज सफेद शेर मोहन के वंशज दुनिया भर में हैं...नहीं हैं तो सिर्फ रीवा में.जिस धरती से सफेद शेर ने अपनी यात्रा शुरू की वह धरती ही उससे छूट गयी.उसने विश्व को जीत लिया, पर अपनी ही जन्मभूमि को हार गया. वो शेर था तो क्या हुआ..अपनी धरती से निर्वासित होने पर शेर भी रोते होंगे...क्या आपने किसी शेर को रोते देखा है !!  कभी सुनी हैं उसकी हिचकियाँ ??  

विख्यात कवि केदारनाथ सिहँ की ‘बाघ’ श्रृखला की एक कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए---- 


ये आदमी लोग
इतने चुप क्यों रहते हैं आजकल---
एक दिन बाघ ने लोमड़ी से पूछा
लोमड़ी की समझ में कुछ नही आया
पर उसने समर्थन में सिर हिलाया
और एक टक देखती रही बाघ के जबड़ों को
जिनसे अब भी खून की गंध आ रही थी.
फिर कुछ देर बाद कुछ सोचती हुई बोली
कोई दुख होगा उन्हें”

कैसा दुख ?”---
बाघ ने तड़पकर पूछा

यह मैं नहीं जानती पर दुख का क्या !
वह हो ही जाता है कैसे भी “
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

हो सकता है
उन्हें कोई कांटा गड़ा हो !”
बाघ ने पूछा.

हो सकता है
पर हो सकता है आदमी ही
गड़ गया हो कांटे को “
लोमड़ी ने धीरे से कहा.

अबकी बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
पर समर्थन में
उसी तरह सिर हिलाया
फिर धीरे से पूछा
क्या आदमी लोग पानी पीते हैं ?”

पीते हैं---लोमड़ी ने कहा---
पर वे हमारी तरह
सिर्फ सुबह-शाम नहीं पीते,
दिन भर में जितनी बार चाहा
उतनी बार पीते हैं “

पर इतना पानी क्यों पीते हैं
आदमी लोग ?”
बाघ ने पूछा.
 
वही दुख---मैने कहा न !”
लोमड़ी ने उत्तर दिया.

इस बार फिर
बाघ की समझ में कुछ नहीं आया
वह देर तक सिर झुकाए
उसी तरह सोचता रहा.

यह ‘दुख ‘ एक ऐसा शब्द था
जिसके सामने बाघ

बिल्कुल निरुपाय था.

Monday, 21 May 2012

दरअसल की ज़गह पर

तुम्हारे होने की ज़गह पर
जब तुम्हारा न होना होता है
उस वक़्त मैं
कुछ भी हो जाने की ज़गह पर होता हूँ ।

जैसे ये लाल रंग की शर्ट
जो मैने पहनी है
दरअसल यह बैगनी रंग की ज़गह है ।

यह जो ज़गह
तुम्हारे समुद्र होने की थी
ठीक वहीं पर
मेरे रेगिस्तान होने की रेत है
जिस पर
अज़नबी देशों को जाने वाले
ऊँटों के खुरों के निशान हैं ।

मेरे घर के सामने
जो कटहल का पेड़ है
वो दरअसल
आम के पेड़ की ज़गह है ।

ठीक इसी तरह
मेरे तकिए पर जो गीला सा धब्बा है
वो मेरी बेलौस हँसी की ज़गह पर
कब आ गया
क्या पता चला किसी को !

जिस ज़गह मेरी यह कविता है
वहाँ एक ऋषि
एक राजा को
संतान सुख दे रहा था ।

मेरा जीना
अब एक विस्थापित जीवन है
जिसे मैं
दरअसल की ज़गह पर जी रहा हूँ ।

-------------------------विमलेन्दु

Tuesday, 15 May 2012

हमारी स्त्रियाँ





वो स्त्रियाँ
बहुत दूर होती हैं हमसे
जिनकी देह से
मोगरे की गंध फूटती है,
और जिनकी चमक से
रौशन हो सकता है हमारा चन्द्रमा ।

उनके पास अपनी ही
एक अँधेरी गुफा होती है
जहाँ तक
ब्रह्मा के किसी सूर्य की पहुँच नहीं होती ।

हमारे जनपद की स्त्री
सभी प्रचलित गंधों को
खारिज़ कर देती है ।
एक दिन ऐसा भी आता है
कि एक खुशबू का ज़िक्र भी
उसके लिए
किसी सौतन से कम नहीं होता ।

हमें प्रेम करने वाली ये स्त्रियाँ
चौबीस कैरेट की नहीं होतीं
ये जल्दी टूटती नहीं
कि कुछ तांबा ज़रूर मिला होता है इनमें ।

ये हमें क्षमा कर देती हैं
तो इसका मतलब यह नहीं है
कि बहुत उदार हैं ये,
इन्हें पता है कि इनके लिए
क़तई क्षमाभाव नहीं है
दुनिया के पास ।

ज़रा सा चिन्तित
ये उस वक्त होती हैं
जब इनका रक्तस्राव बढ़ जाता है,
हालांकि
सिर्फ इन्हें ही पता होता है
कि यही है इनका अभेद्य दुर्ग ।

नटी हैं हमारी स्त्रियाँ
कभी कभार
जब ये दहक रही होती हैं अंगार सी
तब भी ओढ़ लेती हैं
बर्फ की चादर ।

न जाने किस गर्मी से
पिघलता रहता है
इनके दुखों का पहाड़,
कि इनकी आँखों से
निकलने वाली नदी में
साल भर रहता है पानी ।

इनके आँसू
हमेशा रहते हैं संदेह के घेरे में
कि ये अक्सर रोती हैं
अपना स्थगित रुदन ।

हमारी स्त्रियाँ
अक्सर अपने समय से
थोड़ा आगे
या ज़रा सा पीछे होती हैं,
बीच का समय
हमारे लिए छोड़ देती हैं ये ।
ये और बात है
कि इस छोड़े हुए वक्त में
हमें असुविधा होती है ।

हमारी स्त्रियों को
कम उमर में ही लग जाता है
पास की नज़र का चश्मा
जिसे आगे पीछे खिसका कर
वो बीनती रहती हैं कंकड़
दुनिया की चावल भरी थाली लेकर ।

यही वज़ह है कि हमारे पेट भरे होते हैं
और अपनी स्त्रियों के जागरण में
हम सो जाते हैं सुख से ।

------------------------ विमलेन्दु
 

Sunday, 6 May 2012

शब्द भी लड़ते हैं अनिवार्य युद्ध !

शब्द भी लड़ते हैं
जीवन के कुछ अनिवार्य युद्ध.
शब्दों का अपना देश होता है
और अपने लोग भी होते हैं
जो लगाते हैं टीका
उनके प्रशस्त भाल पर
और भेज देते हैं
एक नये युद्ध में ।

शब्द निकलते हैं यात्रा पर
ये उन ज़गहों के
स्थायी पर्यटक होते हैं
जो छूट गयी होती हैं
मानचित्र के बाहर
या जिनके ऊपर
किसी अभिशप्त सभ्यता के
टीले उगे होते हैं ।

शब्द जब जुड़ते हैं
तो ऋचाएँ नहीं
एक पुल बनता है,
जिस पर से
तुम्हारा होना मुझ तक पहुंचता है
ठीक उसी तरह
जैसे मेरा होना पहुँचा था
तुम्हारे न होने तक ।

शब्दों के गोत्र भी होते हैं
जिनकी पहचान
उन सन्ततियों से तो
कतई नहीं की जा सकती
जो किसी ऋषि के नियोग से
उत्पन्न हुई हैं ।

इनकी जाति का पता
इन्हीं की आत्मा और पीठ पर
खुदी लिपियों से मिलता है ।

विलाप या अट्टहास में
होती है
इनकी सबसे मौलिक पहचान
जब ये निर्वस्त्र होते हैं ।

इन्हें अगम कहा गया
और अगोचर कर देने के
षड़यंत्र भी कम नहीं हुए.
ऐसे दिनों में
किसी अछूत के यहाँ
इन्हें लेनी पड़ी पनाह
और उस बेधर्मी ने
इन्हें अपने बगीचे में
फूल की तरह खिला दिया ।

हमारे जैसे नहीं होते
शब्दों के रिश्ते,
इन्हें बांधने वाली डोर
या तो आग से बनी होती है
या पानी से ।

------------------------- विमलेन्दु