मंगलेश डबराल की कविता ‘ छुपम-छुपाई ‘ की एक पंक्ति है—“ आवाज़ भी एक ज़गह है, जहां छुपा जा सकता है.....” . जगजीत सिंह की मृत्यु के दिन से ही यह पंक्ति लगातार ज़हन में बनी हुई है. लगातार ये लगता रहा कि जगजीत अपनी ही आवाज़ के पीछे कहीं छुप गए हैं. उनके करोड़ों प्रशंसक अब उन्हें उनकी आवाज़ में तलाशेंगे. जगजीत को तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है. इतनी पारदर्शी आवाज़ के पीछे कोई छुप सकता है भला ! जगजीत की खनकदार आवाज़ और निर्दोष बच्चे-सी उनकी हँसी, अपने छुपने के सारे निशान खुद छोड़ जाती है.उनका कोई भी प्रशंसक इस शोख खनक के सहारे, उनकी आवाज़ के एकान्त में दबे पांव जाएगा और पीछे से पीठ पर धप्प से हथेली रखेगा और पकड़ लेगा जगजीत को....एक छोटी सी ‘चौंक’ के साथ जगजीत का ऊपरवाला होठ थोड़ा और धनुषाकार होता जायेगा...गले की स्वर-पेटी में ज़रा सा कम्पन होगा और एक बच्चा पकड़ लिए जाने के संकोच से हँस पड़ेगा.
हमारे जीवन में कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें हम कभी भी जाने नहीं देना चाहते. जगजीत सिंह उन्हीं लोगों में से एक थे. करोड़ों चाहने वालों से उनका खून का कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन जगजीत की गायकी हमारी रगों में खून की तरह दौड़ती रही. जगजीत जब ग़ालिब को गाते हुए कह रहे थे “रगों में दौड़ते रहने के हम नहीं कायल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है”…तो शायद अपनी ही बात कह रहे थे.
आँख से टपकने का यह रूपक जगजीत की गायकी में भी घटित होता है और उनकी निज़ी ज़िन्दगी में भी. अपने कॉलेज़ के दिनों में जब जगजीत ने गायकी के अपने जुनून को अपना कैरियर बनाने की जद्दोज़हद शुरू की, तो उनकी आवाज में एक नागवार सी ख़राश मौजूद थी. इसे उनके शुरुआती एलबम्स में महसूस किया जा सकता है. जैसा कि उस ज़माने में हर नये गायक के साथ होता था, जगजीत ने भी रफी और सहगल को कॉपी करने की कोशिश की. लेकिन शुक्र है कि जगजीत को अपनी आवाज़ की रेंज को लेकर कोई मुगालता नहीं था. मौलिकता की अहमियत का उन्हें इल्म था.
70 के उस दौर में, जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल गायकी दम तोड़ती सी लग रही रही थी, जगजीत को कुछ नवाचार करना था.कुछ ऐसा खोज लेना था इस विधा में, जो इसे पुनर्जीवित कर दे. इसी खोज में जगजीत अपने जन्मस्थान, राजस्थान के श्रीगंगानगर से जालंधर-बम्बई-जालंधर की यात्राएँ करते रहे.
ग़ज़ल, हिन्दुस्तानी परंपरा में कोठों और महफिलों की विधा थी. उर्दू-फ़ारसी कि क्लिष्टता के कारण यह अभिजात्य वर्ग तक ही महदूद होती जा रही थी. यही इसके विलोप का मुख्य कारण था. बेगम अख्तर,नूरजहां,मेहदी हसन, तलत महमूद की तत्कालीन शैली, ग़ज़ल गायकी को आम श्रोता के दिलों में ज़गह नहीं दिलवा पाई. इनकी शास्त्रीयता हमेशा श्रोता और इनके बीच अवरोध बन जाती थी. बेशक बेगम अख्तर और मेहदी हसन का दर्जा ग़ज़ल गायकी में बहुत ऊँचा था, लेकिन लोक में उनकी व्याप्ति नहीं थी. रसिकों की नब्ज़ इनके हाथ से कहीं छूटती जा रही थी.
जगजीत सिंह ने इसी नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश की. जगजीत ने ग़ज़ल गायकी का लोकव्यापीकरण किया. सन् 65 से 75 तक का जो समय जगजीत सिंह के संघर्ष और उत्थान का समय था, वह भारतीय समाज में फिल्मों और फिल्मी संगीत के ज़बरदस्त प्रभाव वाला समय था. फिल्म संगीत ने हिन्दुस्तानियों के लिए संगीत के मायने ही बदल दिए थे. फिल्मी संगीत की सरलता, रफी-लता-सुरैया-सहगल की रसीली आवाज़ ने संगीत को आवाम के सुख-दुख-राग-विराग का साथी बना दिया था.
इसी के बीच जगजीत को अपने लिए ज़गह बनानी थी. उन्हें शास्त्रीय संगीत और फिल्म संगीत के बीच एक ऐसी ज़गह की खोज करनी थी, जहाँ गुणवत्ता भी बनी रहे और लोकप्रियता भी. यह खोज वो बड़ी सावधानी से कर रहे थे. उन्होंने शास्त्रीय संगीत की रियाज़-परंपरा को नहीं छोड़ा. स्वर-साधना और राग के शास्त्र का विधिवत संधान कर उनहोंने ग़ज़ल गायकी की बाहरी रंगत को बदलने की शुरुआत की. लेकिन इससे भी पहले उन्होंने पंजाब और राजस्थान के लोक-संगीत को आत्मसात किया. एकदम शुरू में ही पंजाबी गीतों का उनका एक एलबम भी बना था.
ग़ज़ल में तब तक सारंगी और तबले की ही संगत होती थी. जगजीत ने उसमें वायलिन,ड्रम जैसे पाश्चात्य वाद्यों को भी जोड़ा. संतूर, सितार, बांसुरी आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग ग़ज़ल के लिए एकदम चौंकाने वाला था. ताल में बदलाव किए बिना उन्होंने ‘ठेका’ बदल दिया. जगजीत की गायकी में अगर कहीं कुछ कठिन है, तो वह है ‘ठेका’. तबले, ड्रम और कांगो से वो जिन ठेकों का इस्तेमाल अपनी शैली में करते हैं, उसे पकड़ पाना सबके वश की बात नहीं है. इसीलिए जगजीत की आसान सी लगने वाली बंदिशों को साज़ के साथ गा पाना बहुत कठिन होता है..
कभी-कभी एक व्यक्ति का संघर्ष, दूसरे व्यक्ति के संघर्ष से मिलकर कुछ ऐसा सृजन करता है, जो महान बन जाता है. जगजीत के उस दौर में उनके मित्रों की एक ऐसी जमात थी जिसमें लेखक, कवि, शायर, वादक आदि थे. ये सब अपने-अपने क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत थे. जगजीत ने इन्हें ही अपना साथी बनाया. सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाजली, नरेश कुमार शाद, जावेद अख्तर आदि ऐसे शायर थे जो ग़ज़ल में नये प्रयोग कर रहे थे. इन लोगों ने ग़ज़ल को फ़ारसी व्याकरण के पेंच-ओ-ख़म और फ़ारस की आब-ओ-हवा से बाहर निकाला. जगजीत ने इन्हीं शायरों की ग़ज़लों को आवाज़ देनी शुरू की. जगजीत की आवाज़ और इन शायरों की देसी भंगिमाओं में हिन्दुस्तानी जनता ने अपने माधुर्य और खट्टे-मीठे की पहचान कर ली, और जगमोहन सिंह धीमान, जगजीत सिंह बन गये.
लगभग 80 एलबमों में विस्तृत जगजीत की गायकी का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा. एक एलबम आता और लोग अगले एलबम की गुहार लगाने लगते. किसी महफिल में कोई गाने-बजाने का प्रोग्राम बनता तो लोग जगजीत सिंह की ग़ज़लों को ही गाते.
जगजीत सिंह ने गाना सुरू किया तो गाते चले गये. ग़ज़लें गायीं, भजन गाये, ठुमरी-टप्पा भी गाया. हर एलबम नायाब...अपनी गायकी का सर्वोच्च शिखर उनहोंने तब छुआ, जब गुलज़ार के साथ मिलकर धरावाहिक ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के लिए संगीत तैयार किया. जगजीत के कम्पोजीशन और आवाज़ ने ग़ालिब की शायरी के मानी खोल दिए. ग़ालिब की जिन ग़ज़लों के अर्थ पहले खुलते नहीं थे, जगजीत के सुरों के उतार-चढ़ाव, विराम और अवकाश में वे अर्थ रौशन हो गये. शायरों के जीवन पर आधारित धारावाहिक ‘कहकशां’ में जगजीत ने मख़दूम, फ़िराक, जोश मलीहाबादी,मज़ाज़ आदि शायरों की ग़ज़लों को लेकर महान संगीत रचा है. जगजीत और उनके चाहनेवालों का सपना था कि लता और जगजीत की जुगलबन्दी में कुछ रचा जाये. बना भी---‘सजदा’. लेकिन इसमें दोनों ही अपने शिखरों को नहीं छू पाये. लता को आमतौर पर भारत की आवाज़ कहा जाता है. उनके बाद अगर किसी को यह दर्जा दिया जा सकता है, तो वह निश्चित रूप से जगजीत ही होंगे.
जिस खूबी ने जगजीत को इस मुकाम तक पहुँचाया, वह थी उनकी अपनी सीमाओं की पहचान. उनकी आवाज़ की रेंज बहुत अधिक नहीं थी. उनहोंने जब भी ऊँचे स्वरों में गाने की कोशिश की तो अपनी मिठास को खो दिया. याद करिए उस नज़्म को---“ बोल इक तारे झन झन झन झन...”---इसमें जब ऊपर के सुर में जाते हैं तो आवाज़ फटने सी लगती है. ऐसा ही कुछ पंजाबी गीतों में हुआ है. जगजीत इसे जानते थे. इसीलिए धारावाहिकों में उन्हें कुछ गीत-ग़ज़लें दूसरे गायकों से गवानी पड़ीं. पर इससे उनकी महानता और लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता.
जिस दौर में जगजीत ग़ज़ल गायकी के शिखरों को छू रहे थे, उसी समय विपत्तियां उनका इम्तहान ले रही थीं. दुर्घटना में बेटे की मौत,पत्नी चित्रा से कुछ समय का अलगाव, 2009 में बेटी मोनिका की आत्महत्या, युवावस्था का असफल प्रेम आदि कुछ ऐसी घटनाएं थीं जिनकी आँच में जगजीत तप भी रहे थे और संसार की नश्वरता का बोध भी उनके भीतर उतर रहा था. 1990 में बेटे की मौत के बाद चित्रा ने जब गाना छोड़ दिया, तो लगा कि जगजीत की गायकी का सफ़र अब खत्म होने को है. लगभग छः महीनों तक जगजीत ने भी नहीं गाया. लेकिन वो आत्मनिर्वासन से लौट आये. हालांकि अब भक्ति और आध्यात्म के स्वर ज़्यादा थे, लेकिन उनकी आवाज़ दिनोदिन एक अलौकिक नाद को प्राप्त कर रही थी. जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ रही थी, उलकी आवाज़ की स्वच्छता, पारदर्शिता और उजलापन बढ़ता जा रहा था.
जगजीत शायद जान गये थे कि उनकी आवाज़ ही वह ज़गह है, जहाँ सघल दुखों के दौर में वो छुप सकते थे. सिर्फ वही नहीं उनके करोड़ों प्रशंसकों के लिए भी जगजीत की आवाज़ एक ज़गह थी जहाँ छुपा जा सकता था.