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Monday 24 October 2011

कविता : साइकिल सीखती अधेड़ औरत


शाम के धुँधलके मे  
अधेड़ औरत का साइकिल सीखना
सिर्फ़ हवा से बातें करने की
आदिम इच्छा से भरी होना ही नहीं है.

वह ज़रूर
भूख और रोटी के बीच की
अनिवार्य दूरी 
तय कर लेने की जल्दी में होगी.

गड़बड़ा रहा होगा
दो पहियों पर संतुलन
जिसे ठीक कर लेने की
हड़बड़ी में ही
खुल गया होगा जूड़ा
लहराये होंगे आधे सफेद बाल
जो यकीनन धूप में नहीं हुए हैं.

कि ठंड शुरू होने से पहले ही
दिन भर की धूप
बुन डालने की जल्दी में
उलझ गया होगा ऊन
तब शरारती बच्चे की पहुँच से दूर
बाकी बचा गोला
आसमान पर रख
घूम कर गोल गोल चाँद
दूर करना चाहती है उलझन.

कल उसे बुनना होगा
कुछ फूल कुछ पत्तियों वाला
गर्म स्वेटर
पूरे घर के लिए.

                      --विमलेन्दु

Saturday 22 October 2011

हिन्दी आलोचना के ब्रह्मचारी : डॉ. रामविलास शर्मा


  10 अक्टूबर से सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है. वैसे भी यह वर्ष हिन्दी क्षेत्र के लिए एक असाधारण वर्ष इस मायने में भी है कि यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों का जन्म-शताब्दी वर्ष है. अज्ञेय,नागार्जुन,केदार से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्म-शताब्दी वर्ष है. इन सब लेखकों के बीच रामविलास शर्मा इसलिए भी अलग और इकलौते हैं कि वे विशुद्ध आलोचक थे.
        कुछ मित्रों की मंशा थी कि शताब्दी वर्ष में रामविलास जी पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो. मित्रों की .ह इच्छा इसलिए भी सम्मानीय है कि हमारे हिन्दी क्षेत्र में विस्मृति की समस्या कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी है. मैं पुरउम्मीद हूँ कि हिन्दी समाज के समर्थ समीक्षक रामविलास जी पर गंभीर और उपयोगी चर्चा करेंगे. उन पर कुछ की हिम्मत करना मेरे लिए आसान नहीं था. अपनी सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर कोई मुगालता भी नहीं है. फिर भी मुझे लगा कि वो हमारे लेखक हैं और अपनी अल्पज्ञता के साथ भी उन पर बात करने का मेरा प्राकृतिक अधिकार है. इसी अधिकार-बोध के तहत मैं रामविलास जी पर कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ, इस निवेदन के साथ कि ये बातें, रामविलास जी पर विमर्श की सिर्फ प्रवेशिकाएँ ही हैं.
         नयी शताब्दी ने शुरुआत में ही भारतीय साहित्य के तीन सर्वाधिक कर्मठ और ईमानदार लेखकों को हमसे छीनलिया था. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, और अली सरदार जाफरी, भारतीय साहित्य में मार्क्सवादी और प्रगतिशील सोच के निर्माण के प्रमुख अभियंता थे.इनकी प्रतिबद्धता निर्विवाद थी. एक के बाद एक, इनका जाना, प्रगतिशील आंदेलन से जुड़े साहित्यकारों के लिए तो एक आघात जैसा था ही, साथ ही भारतीय संस्कृति-साहित्य पर गर्व करने वाला हर मानस दुखी और चिन्तित हुआ था. इस दौर में जब प्रतिबद्धताएँ अत्यंत लचीली हो चुकी हैं, इन प्रतीक-पुरुषों का अवसान उन लोगों को भी बेचैन करता है, जो अक्सर इनके तवे पर अपनी साहित्यिक रोटियां सेंक कर किसी तरह साहित्यिक-जीवन-यापन कर रहे थे. दरअसल, मार्क्सवाद के प्रति इनकी एकनिष्ठता, लगन और विपुल सृजन ने परवर्ती मार्क्सवादी लेखकों को इतनी आसानी तो दी थी कि ये किसी तरह बाज़ारवादी व्यवस्था से अपना सामंजस्य बैठा लें. रामविलास जी प्रगतिशील आंदोलन के इतने मजबूत और अडिग स्तम्भ थे कि परवर्तियों को निश्चिन्त  होने का मौका मिल जाता था.
         अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉ.रामविलास शर्मा हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि के शीर्ष पुरुष थे. यद्यपि अपने शुरुआती साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक उपन्यास और कुछ कविताएँ भी लिखीं लेकिन उसके बाद उनका पूरा जीवन एक समालोचक की क्रमशः विकास यात्रा था. अपने इस सुदीर्घ जीवन में उन्होंने साहित्यिक कृतियों की आलोचना के साथ-साथ भारतीय समाज,दर्शन,राजनीति पर भी चिन्तन किया और भारतीय वास्तुकला,पुरातत्व,संगीत और खासतौर पर प्राचीन संगीत के आंतरिक संबन्धों की खोज का अद्वितीय कार्य किया. रामविलास जी ने प्राचीन भारतीय भाषाओं के सामाजिक विकास में भूमिका की पड़ताल करते हुए, भाषा-विज्ञान पर मौलिक काम किया है. निराला पर उनके लेखन को तो मानक माना जाता है. सिर्फ निराला ही नहीं, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी पर उनके लेखन को अगर निकाल दिया जाय तो देखिए कि इन रचनाकारों पर क्या बचता है..! भले ही ये स्थापनाएँ विवादास्पद रही हो लेकिन हिन्दी क्षेत्र में उपरोक्त लेखकों की वही छवियां आज भी मान्य हैं जो रामविलास शर्मा ने बनायीं. ऐसा भी नहीं था कि उनकी सारी छवियां स्वीकृत ही कर ली गयीं हों. सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल और मुक्तिबोध पर उनकी स्थापनाओं को आज तक नहीं स्वीकृत किया जा सका है. जितना अधिक और बहुआयामी लेखन रामविलास जी ने किया है, उसकी कल्पना हिन्दी में करना कठिन था. उनके जैसे दृढ़ निश्चयी और साधक आलोचक कम ही होते हैं.
         भारतीय समाज-दर्शन-साहित्य पर जितना गंभीर लेखन रामविलास जी कर गये,सका मूल्यांकन अभी हुआ नहीं है. आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि एकदम अलग दिखती है. वे आलोचना को “ अनेक साहित्यिक कृतियों के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने की प्रकृया “  मानते थे. इसके साथ ही वे ईमानदारी से यह भी स्वीकार करते थे कि “ मुझे स्वान्तः सुखाय आलोचना “ में आनन्द आता है. रामविलास जी ने भले ही स्वान्तः सुखाय आलोचना लिखी हो, लेकिन इस बहाने भारतीय दर्शन, संस्कृति, भाषा और जातीय विकास के वे मर्म पाठकों के लिए खुलते हैं जिनके बारे में हमारी मनीषा में बहुत दयनीय जानकारी उपलब्ध थी. इसमें भी संदेह नहीं कि जैसे-जैसे इनके लेखन का मूल्यांकन होता जायेगा, हम और ऋणी होते जायेंगे.
          रामविलास जी का व्यक्तित्व शास्त्रीय किस्म का था. और जैसी शास्त्रीयता के साथ विडंबना होती है, रामविलास जी की पहुँच भी आम साहित्यक लोगों तक नहीं हो पायी. इतना महत्वपूर्ण लेखन कुछ विशिष्ट पाठक वर्गों तक ही सीमित रहा. समकालीन साहित्यकारों की पीढ़ी उनहें पूजती ज़रूर है लेकिन वह प्रेम उनहें नहीं देती जो इस कद्दावर आलोचक को मिलना चाहिए. इसकी एक वज़ह शायद यह हो सकती है कि बाद के वर्षों में उन्होने समकालीन साहित्य से अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया था. उन्होंने अतीत पर बहुत काम किया. और इसीलिए वामपन्थी विचारक उन्हें हिन्दुत्ववादी कहने से भी नहीं हिचकिचाए.वे न तो समकालीन साहित्य पढ़ते थे और न ही उस पर कुछ लिखा. रामविलास शर्मा  प्रेमचन्द और अमृतलाल नागर को क्रमशः श्रेष्ठ कथाकार मानते थे और इनके बाद इनकी सूची में कोई नाम नहीं था. इसी तरह निराला, प्रसाद, पंत, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ अच्छे कवियों की सूची भी बन्द हो जाती थी.
          रामविलास जी नौजवानों की आज की पीढ़ी को एकदम भ्रष्ट मानते थे और कहते थे कि आज की पीढ़ी में संस्कार नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. मौजूदा हालात पर उनका कहना था कि सबसे पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से देश को मुक्त करो. एक नयी भाषा-नीति बनायी जानी चाहिए. हम भाषायी स्तर पर संगठित नहीं हैं, इसलिए राजनैतिक स्तर पर भी बंटे हुए हैं. इक्कीसवीं सदी के आ जाने भर से हालात् नहीं बदलेंगे, जब तक कि पूँजीवाद और साम्राज्यवादी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई तेज़ नहीं होती.
          हमारे देश में इतिहास-लेखन की एक दिक्कत यह रही है कि जितने भी इतिहासकार हैं उन्होने सारा लेखन अँग्रेजी में किया.ये लेखक हिन्दी में लिखने वालों का उपहास भी करते हैं. अतः हिन्दी के साहित्यकारों को इतिहास लेखन की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. रामविलास शर्मा ऐसे लेखकों में अग्रणी थे..भारतीय संस्कृति और वेदों पर अपने काम की वज़ह से रामविलास जी उन लोगों में भी स्वीकार्य थे जो सिद्धान्ततः मार्क्सवाद-विरोधी थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ये लिखते रहे और कुछ महत्वपूर्ण काम अधूरे छोड़करचले गये.
         एक महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होने अपना सारा लेखन हिन्दी में किया, जबकि अँग्रेजी में भी उनका समान अधिकार था.इससे अपनी भाषा के प्रति उनकी आस्था और आग्रह को पहचाना जा सकता है. रामविलास जी ने हिन्दी भाषा के विकास के लिए नारे नहीं लगाये, बल्कि भाषा, संस्कृति और समाज का चरित्र-निर्माण कैसे करती है, इसका बहुत तार्किक और सोदाहरण विश्लेषण किया. भाषा-विवेचन उनके सम्पूर्ण आलोचना कर्म की मुख्य-प्रतिज्ञा है.इसी केन्द्र के चारों ओर रामविलास जी ने अपने समस्त चिन्तन की परिधि तैयार की.
        हिन्दी क्षेत्र के लेखकों के सामने अब रामविलास शर्मा के लेखन का मूल्यांकन करने की एक बड़ी चुनौती है.हालांकि आज कोई समर्थ मूल्यांकनकर्ता हिन्दी में दिखाई नहीं पड़ रहा है. सामर्थ्य से भी बड़ी दिक्कत प्रवृत्ति की है. अतीत की ओर देखना हमारी वामपंथी मानसिकता को स्वीकार नहीं, और दक्षिणपंथियों के हाथ में उन्हें सौंप देने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा.

Saturday 15 October 2011

आवाज़ भी एक ज़गह है...!


  मंगलेश डबराल की कविता ‘ छुपम-छुपाई ‘ की एक पंक्ति है—“ आवाज़ भी एक ज़गह है, जहां छुपा जा सकता है.....” . जगजीत सिंह की मृत्यु के दिन से ही यह पंक्ति लगातार ज़हन में बनी हुई है. लगातार ये लगता रहा कि जगजीत अपनी ही आवाज़ के पीछे कहीं छुप गए हैं. उनके करोड़ों प्रशंसक अब उन्हें उनकी आवाज़ में तलाशेंगे. जगजीत को तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है. इतनी पारदर्शी आवाज़ के पीछे कोई छुप सकता है भला ! जगजीत की खनकदार आवाज़ और निर्दोष बच्चे-सी उनकी हँसी, अपने छुपने के सारे निशान खुद छोड़ जाती है.उनका कोई भी प्रशंसक इस शोख खनक के सहारे, उनकी आवाज़ के एकान्त में दबे पांव जाएगा और पीछे से पीठ पर धप्प से हथेली रखेगा और पकड़ लेगा जगजीत को....एक छोटी सी ‘चौंक’ के साथ जगजीत का ऊपरवाला होठ थोड़ा और धनुषाकार होता जायेगा...गले की स्वर-पेटी में ज़रा सा कम्पन होगा और एक बच्चा पकड़ लिए जाने के संकोच से हँस पड़ेगा.

       हमारे जीवन में कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें हम कभी भी जाने नहीं देना चाहते. जगजीत सिंह उन्हीं लोगों में से एक थे. करोड़ों चाहने वालों से उनका खून का कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन जगजीत की गायकी हमारी रगों में खून की तरह दौड़ती रही. जगजीत जब ग़ालिब को गाते हुए कह रहे थे “रगों में दौड़ते रहने के हम नहीं कायल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है”…तो शायद अपनी ही बात कह रहे थे.

       आँख से टपकने का यह रूपक जगजीत की गायकी में भी घटित होता है और उनकी निज़ी ज़िन्दगी में भी. अपने कॉलेज़ के दिनों में जब जगजीत ने गायकी के अपने जुनून को अपना कैरियर बनाने की जद्दोज़हद शुरू की, तो उनकी आवाज में एक नागवार सी ख़राश मौजूद थी. इसे उनके शुरुआती एलबम्स में महसूस किया जा सकता है. जैसा कि उस ज़माने में हर नये गायक के साथ होता था, जगजीत ने भी रफी और सहगल को कॉपी करने की कोशिश की. लेकिन शुक्र है कि जगजीत को अपनी आवाज़ की रेंज को लेकर कोई मुगालता नहीं था. मौलिकता की अहमियत का उन्हें इल्म था.

       70 के उस दौर में, जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल गायकी दम तोड़ती सी लग रही रही थी, जगजीत को कुछ नवाचार करना था.कुछ ऐसा खोज लेना था इस विधा में, जो इसे पुनर्जीवित कर दे. इसी खोज में जगजीत अपने जन्मस्थान, राजस्थान के श्रीगंगानगर से जालंधर-बम्बई-जालंधर की यात्राएँ करते रहे.

       ग़ज़ल, हिन्दुस्तानी परंपरा में कोठों और महफिलों की विधा थी. उर्दू-फ़ारसी कि क्लिष्टता के कारण यह अभिजात्य वर्ग तक ही महदूद होती जा रही थी. यही इसके विलोप का मुख्य कारण था. बेगम अख्तर,नूरजहां,मेहदी हसन, तलत महमूद की तत्कालीन शैली, ग़ज़ल गायकी को आम श्रोता के दिलों में ज़गह नहीं दिलवा पाई. इनकी शास्त्रीयता हमेशा श्रोता और इनके बीच अवरोध बन जाती थी. बेशक बेगम अख्तर और मेहदी हसन का दर्जा ग़ज़ल गायकी में बहुत ऊँचा था, लेकिन लोक में उनकी व्याप्ति नहीं थी. रसिकों की नब्ज़ इनके हाथ से कहीं छूटती जा रही थी.

        जगजीत सिंह ने इसी नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश की. जगजीत ने ग़ज़ल गायकी का लोकव्यापीकरण किया. सन् 65 से 75 तक का जो समय जगजीत सिंह के संघर्ष और उत्थान का समय था, वह भारतीय समाज में फिल्मों और फिल्मी संगीत के ज़बरदस्त प्रभाव वाला समय था. फिल्म संगीत ने हिन्दुस्तानियों के लिए संगीत के मायने ही बदल दिए थे. फिल्मी संगीत की सरलता, रफी-लता-सुरैया-सहगल की रसीली आवाज़ ने संगीत को आवाम के सुख-दुख-राग-विराग का साथी बना दिया था.

       इसी के बीच जगजीत को अपने लिए ज़गह बनानी थी. उन्हें शास्त्रीय संगीत और फिल्म संगीत के बीच एक ऐसी ज़गह की खोज करनी थी, जहाँ गुणवत्ता भी बनी रहे और लोकप्रियता भी. यह खोज वो बड़ी सावधानी से कर रहे थे. उन्होंने शास्त्रीय संगीत की रियाज़-परंपरा को नहीं छोड़ा. स्वर-साधना और राग के शास्त्र का विधिवत संधान कर उनहोंने ग़ज़ल गायकी की बाहरी रंगत को बदलने की शुरुआत की. लेकिन इससे भी पहले उन्होंने पंजाब और राजस्थान के लोक-संगीत को आत्मसात किया. एकदम शुरू में ही पंजाबी गीतों का उनका एक एलबम भी बना था.

       ग़ज़ल में तब तक सारंगी और तबले की ही संगत होती थी. जगजीत ने उसमें वायलिन,ड्रम जैसे पाश्चात्य वाद्यों को भी जोड़ा. संतूर, सितार, बांसुरी आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग ग़ज़ल के लिए एकदम चौंकाने वाला था. ताल में बदलाव किए बिना उन्होंने ‘ठेका’ बदल दिया. जगजीत की गायकी में अगर कहीं कुछ कठिन है, तो वह है ‘ठेका’. तबले, ड्रम और कांगो से वो जिन ठेकों का इस्तेमाल अपनी शैली में करते हैं, उसे पकड़ पाना सबके वश की बात नहीं है. इसीलिए जगजीत की आसान सी लगने वाली बंदिशों को साज़ के साथ गा पाना बहुत कठिन होता है..

       कभी-कभी एक व्यक्ति का संघर्ष, दूसरे व्यक्ति के संघर्ष से मिलकर कुछ ऐसा सृजन करता है, जो महान बन जाता है. जगजीत के उस दौर में उनके मित्रों की एक ऐसी जमात थी जिसमें लेखक, कवि, शायर, वादक आदि थे. ये सब अपने-अपने क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत थे. जगजीत ने इन्हें ही अपना साथी बनाया. सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाजली, नरेश कुमार शाद, जावेद अख्तर आदि ऐसे शायर थे जो ग़ज़ल में नये प्रयोग कर रहे थे. इन लोगों ने ग़ज़ल को फ़ारसी व्याकरण के पेंच-ओ-ख़म और फ़ारस की आब-ओ-हवा से बाहर निकाला. जगजीत ने इन्हीं शायरों की ग़ज़लों को आवाज़ देनी शुरू की. जगजीत की आवाज़ और इन शायरों की देसी भंगिमाओं में हिन्दुस्तानी जनता ने अपने माधुर्य और खट्टे-मीठे की पहचान कर ली, और जगमोहन सिंह धीमान, जगजीत सिंह बन गये.

       लगभग 80 एलबमों में विस्तृत जगजीत की गायकी का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा. एक एलबम आता और लोग अगले एलबम की गुहार लगाने लगते. किसी महफिल में कोई गाने-बजाने का प्रोग्राम बनता तो लोग जगजीत सिंह की ग़ज़लों को ही गाते.

      जगजीत सिंह ने गाना सुरू किया तो गाते चले गये. ग़ज़लें गायीं, भजन गाये, ठुमरी-टप्पा भी गाया. हर एलबम नायाब...अपनी गायकी का सर्वोच्च शिखर उनहोंने तब छुआ, जब गुलज़ार के साथ मिलकर धरावाहिक ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ के लिए संगीत तैयार किया. जगजीत के कम्पोजीशन और आवाज़ ने ग़ालिब की शायरी के मानी खोल दिए. ग़ालिब की जिन ग़ज़लों के अर्थ पहले खुलते नहीं थे, जगजीत के सुरों के उतार-चढ़ाव, विराम और अवकाश में वे अर्थ रौशन हो गये. शायरों के जीवन पर आधारित धारावाहिक ‘कहकशां’ में जगजीत ने मख़दूम, फ़िराक, जोश मलीहाबादी,मज़ाज़ आदि शायरों की ग़ज़लों को लेकर महान संगीत रचा है. जगजीत और उनके चाहनेवालों का सपना था कि लता और जगजीत की जुगलबन्दी में कुछ रचा जाये. बना भी---‘सजदा’. लेकिन इसमें दोनों ही अपने शिखरों को नहीं छू पाये. लता को आमतौर पर भारत की आवाज़ कहा जाता है. उनके बाद अगर किसी को यह दर्जा दिया जा सकता है, तो वह निश्चित रूप से जगजीत ही होंगे.
 
        जिस खूबी ने जगजीत को इस मुकाम तक पहुँचाया, वह थी उनकी अपनी सीमाओं की पहचान. उनकी आवाज़ की रेंज बहुत अधिक नहीं थी. उनहोंने जब भी ऊँचे स्वरों में गाने की कोशिश की तो अपनी मिठास को खो दिया. याद करिए उस नज़्म को---“ बोल इक तारे झन झन झन झन...”---इसमें जब ऊपर के सुर में जाते हैं तो आवाज़ फटने सी लगती है. ऐसा ही कुछ पंजाबी गीतों में हुआ है. जगजीत इसे जानते थे. इसीलिए धारावाहिकों में उन्हें कुछ गीत-ग़ज़लें दूसरे गायकों से गवानी पड़ीं. पर इससे उनकी महानता और लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता.

       जिस दौर में जगजीत ग़ज़ल गायकी के शिखरों को छू रहे थे, उसी समय विपत्तियां उनका इम्तहान ले रही थीं. दुर्घटना में बेटे की मौत,पत्नी चित्रा से कुछ समय का अलगाव, 2009 में बेटी मोनिका की आत्महत्या, युवावस्था का असफल प्रेम आदि कुछ ऐसी घटनाएं थीं जिनकी आँच में जगजीत तप भी रहे थे और संसार की नश्वरता का बोध भी उनके भीतर उतर रहा था. 1990 में बेटे की मौत के बाद चित्रा ने जब गाना छोड़ दिया, तो लगा कि जगजीत की गायकी का सफ़र अब खत्म होने को है. लगभग छः महीनों तक जगजीत ने भी नहीं गाया. लेकिन वो आत्मनिर्वासन से लौट आये. हालांकि अब भक्ति और आध्यात्म के स्वर ज़्यादा थे, लेकिन उनकी आवाज़ दिनोदिन एक अलौकिक नाद को प्राप्त कर रही थी. जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ रही थी, उलकी आवाज़ की स्वच्छता, पारदर्शिता और उजलापन बढ़ता जा रहा था.

       जगजीत शायद जान गये थे कि उनकी आवाज़ ही वह ज़गह है, जहाँ सघल दुखों के दौर में वो छुप सकते थे. सिर्फ वही नहीं उनके करोड़ों प्रशंसकों के लिए भी जगजीत की आवाज़ एक ज़गह थी जहाँ छुपा जा सकता था.

Sunday 9 October 2011

उत्सव के रंग ढंग...!


   यह उत्सवों का मौसम है. दस दिनों तक गणेश उत्सव की धूम के बाद पन्द्रह दिन पितरों की सेवा. नौ दिनों तक नवरात्रि की जगमग के बाद दशहरे के दिन रोशनी का विस्फोट. उत्सवों का यह कारवां दीपावली से होता हुआ छोटी दीपावली पर जा कर ख़त्म होगा. इस बीच हमारे रोजमर्रा के सुख-दुख, हानि-लाभ अनवरत चल रहे हैं. इन्हीं के साथ हम उत्सवों में शामिल हो रहे हैं अपने अद्वितीय रंग और ढंग से.
        हमारे ज़्यादातर त्यौहार और उत्सव सामूहिक होते हैं.अब समूहों की प्रकृति और चर्या बदल रही है. अभी गणेश उत्सव और नवदुर्गा उत्सव सम्पन्न हुए तो हमारा पूरा शहर आक्रान्त हो गया.प्रभात-वेला से अर्धरात्रि तक अनथक बजते, फिल्मी गीतों की पैरोडी वाले गीतों ने ईश्वर का खयाल तक नहीं आने दिया. इस बार ‘मुन्नी बदनाम हुई ‘ ‘शीला की जवानी’ ‘ टिन्कू जिया ‘ की तर्ज़ पर बने गीतों का जलवा था.शहर के सारे पंडित इस बार संगठित हो गए थे.उन्होंनें घोषणा कर दी थी कि पांच हज़ार से कम में इस बार कोई पंडित पंडाल में नहीं बैठेगा.नवरात्रि के मौके पर पंडितों की भारी कमी हो जाती है. पंडाल आयोजकों को कई बार वैकल्पिक रास्तों की भी खोज करनी पडती है.
       हमारे पड़ोस वाले मोहल्ले के युवाओं ने इसी जुगत के चलते एक नाई को धोती-कुर्ता पहना कर पंडित बना दिया. देवी की आरती तो उसे याद ही थी, संस्कृत के दो-चार श्लोक भी उसने रट लिए. मेरी नज़र उस पर पड़ी तो मैने व्यवस्थापकों से पूछा कि भाई ये क्या माज़रा है. उन लोगों ने अपनी लाचारी बताई कि पंडितों ने अपना रेट बढ़ा दिया है और इतना चन्दा इस बार इकट्ठा नहीं हो पाया कि दे पाते, तो महेश को ही बैठा दिया.मुझसे इस राज़ को किसी से न कहने का आग्रह किया,जिसे मैने मान लिया.
       इस उत्सव के दौरान पंडितों की एक नई जमात ही अवतरित हो जाती है. शहर से लगे गावों से सैकड़ों युवक और बुजुर्ग धोती-कुर्ता धारण कर शहर आ जाते हैं. पहले तो ये जुगाड़ करते हैं कि कुछ सम्पन्न घरों की धर्म-परायण महिलाओं की दृष्टि इन पर पड़ जाये और घर में ही पूजा-पाठ कराने का ठेका मिल जाये.यह बड़ा आरामदायक रहता है. मेहनत कम पड़ती है. दान-दक्षिणा भी बढ़िया मिल जाता है और नैसर्गिक विनोद का भी पर्याप्त अवसर रहता है.
       यद्यपि विनोद के अवसर पंडालों में भी कम नहीं होते. सुन्दर भक्तिनों को पंडित जी पूरे विधान से हवन करवाते हैं.अक्सर तो किसी सुन्दरी को अपना सहायक ही बना लेते हैं.प्रसाद बनाना,हवन की तैयारी करना आरती का संचालन आदि काम उसके जिम्मे होते हैं.अर्थात उस भक्तिन-विशेष को सबसे पहले पंडाल में आना होता है और सबसे बाद में जाना होता है.
       मूलतः यह उत्सव युवाओं का होता है. शहर के जितने भी गंजेड़ी-भंगेड़ी-शराबी-लड़कीबाज़ युवक हैं, दुर्गा स्थापना की महती ज़िम्मेदारी वही अपने कंधों पर उठाते हैं.इस महा आयोजन के लिए धन की आवश्यकता होती है,जिसके लिए चंदा उगाहा जाता है. चंदा उगाहना एक बेहद रोमांचक उपक्रम है. इन दिनों यह संभव ही नहीं की शहर के मार्गों से कोई टैक्सीवाला,ट्रकवाला,रिक्शेवाला बिना चंदा दिए गुज़र जाये. डंडों और पत्थरों से लैस युवा देवी भक्त इस कार्य में बहुत निपुण होते हैं.शाम को युवतियों की उमंग देखते ही बनती है. दरअसल यही इस उत्सव की असली रौनक होती हैं. ये पूरे श्रृंगार और बन-ठन के साथ घरों से निकलती हैं.अक्सर टोलियों में होती हैं.इनका उत्साह वैसा ही होता है जैसे सिनेमा देखने के लिए निकलते समय.
       जिस पंडाल में युवतियों की भीड़ ज्यादा पहुंचती है, वह उतना ही बड़ा हिट माना जाता है. उसी अनुपात में वहां पुरुष भक्तों की भीड़ भी पहुँचती है.जो युवक होते हैं वो दो-तीन घंटे में कई पंडालों का चक्कर लगा आते हैं. उन्हे पता रहता है कि किस ज़गह कब जाना है.इन दिनों ये कला पारखी भी होते हैं.इनके मोबाइल युवतियों की आड़ी-तिरछी कलाओं को रिकॉर्ड करते ज़रा भी नहीं थकते. जो कुछ बुजुर्ग भक्त होते हैं वो पॉपकार्न या मूगफली का पैकेट लेकर किसी एक ही   पंडाल पर अड्डा जमा लेते हैं.
        पन्द्रह-बीस साल पहले शहर में केवल एक ही दुर्गा पंडाल सजता था. इसे शहर का बंगाली समाज बनाता था. लोग वहीं पहुच कर दर्शन करते थे. धीरे-धीरे पंडालों का स्वरूप भी बदलता गया और भक्तों का भी. इस साल शहर में जिन समूहों ने पंडाल सजाये उनके नाम देखिए—सर्राफा व्यापारी दुर्गा उत्सव समिति, तरुण वैश्य समाज, रेवांचल व्यापार मंडल, किराना व्यापारी दुर्गोत्सव समिति, ट्रक ऑपरेटर्स समिति.......यही हाल गणेश उत्सव के समय भी था.
       हमारी आस्था, पर्व, त्यौहार सब अब दूकानदारों के हवाले है. अब वही तय करते हैं कि होली कैसे खेलनी है, तीजा-राखी-करवांचौथ कैसे मनाना है और दीवाली-दशहरा कैसे करना है.होली पर चीन के बने रंग और पिचकारियों और राखी पर चीन की ऱाखियों से बाज़ार भर जाता है. स्थितियां कुछ ऐसी हो गयी हैं कि अब हम उत्सवों में शामिल कर लिए जाते हैं, उत्सवों का उत्स हमारे भीतर नहीं होता.हमारी हस्तकलाओं की अकालमृत्यु हो चुकी है. हम एक नकली सामूहिकता में जी रहे हैं. हम समूह में तो होते हैं लेकिन सहकारिता का बोध नहीं होता.
       दो दिन पहले नवदुर्गा उत्सव का शोर दशहरे के दिन रावण-वध के साथ समाप्त हुआ.  पता नहीं दशहरे के दिन रावण-वध की प्रथा कब और कैसे शुरू हो गयी, जबकि रामचरित मानस या बाल्मीकि के रामायण में कहीं भी रावण के मारे जाने की तिथि का उल्लेख नहीं है. राम-कथा के दूसरी भाषाओं के जो ग्रंथ हैं, उन सब का आधार रामायण ही है.अतः वहां से प्रमाण खोजना प्रासंगिक नहीं होगा.
       हां, निराला ने अपनी लम्बी कविता ' राम की शक्तिपूजा ' में ज़रूर उल्लेख किया है कि आश्विन(क्वांर) मास की दशमी तिथि को राम ने रावण का वध किया. रावण पर जब राम के सारे अस्त्र-शस्त्र बेअसर हो रहे थे तो हताश राम ने शक्ति की आराधना शुरू की. यह आश्विन मास की प्रतिपदा(प्रथम) तिथि थी. लगातार नौ दिनों तक कठिन आराधना चली.अपना एक जाप पूरा करने के बाद राम कमल का फूल देवी को चढ़ाते थे. एक दिन देवी ने फूल ही चुरा लिए. राम असमंजस में पड़ गये. तब राजीव-नयन (कमल जैसी आँखों वाले) राम ने देवी को अपनी आँखें चढ़ाने का निश्चय किया. ऐन वक्त पर शक्ति ने प्रकट होकर राम को रोक लिया और रावण पर विजय का वरदान दे दिया. दसवें दिन राम ने रावण का वध कर दिया.....निराला की इस कथा में रावण वध की जो तिथि बतायी गयी है उसका आधार क्या हो सकता है..? कदाचित निराला ने लोक-परंपराओँ को ही आधार बनाया हो..!!
        वैसे भी लोक मान्यता में दशहरा को ' दसराहा ' कहा जाता है, खासतौर से हिन्दी क्षेत्र में. मान्यता है कि रावण की मृत्यु के बाद, इस दिन से शुभ कार्यों के लिए दसों दिशाएँ खुल जाती हैं. चार महीने वर्षाकाल में ज़्यादातर काम बन्द ही रहते हैं. दशहरे के आस-पास से ही नयी फसल का आना शुरू होता है. मौसम भी खुशनुमा होने लगता है.नवरात्रि की पूजा से ही उल्लास का वातावरण बनने लगता है.
     बड़ी विचित्र बात है कि हज़ारों पर्वों-त्यौहारों के इस देश के नागरिकों का जीवन एकाकी, नीरस और अवसादग्रस्त होता जा रहा है. इतने रंगों के बावजूद लोगों की रंगत गायब होती जा रही है. कारण साफ हैं. हमें अपने उत्सवों को व्यापारियों से वापस लेना होगा.हमें गुझिया-खुरमी-सलोनी-खीर-सेवइंयाँ बनाने की अपनी कला को पुनर्जीवित करना होगा. केले के पत्तों और आम की टेरी से बनदनवार सजाने होंगे. हमें अपने घरों को बचाना है तो हल्दी भरे हाथों की छाप फिर लगानी होगी दीवारों पर !!   

Wednesday 5 October 2011

कविता : लुप्तोपमा



 जो, पान के पत्ते की तरह कोमल
बड़ी मुश्किल से सम्भाले
अपने ही भार को.

शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा
धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ.

उसका चलना
कि किसी उस्ताद ने
उमंग में बजाया हो-रूपक ताल
मध्यम लय में.

उसका हँसना
कि किसी ने खोल दी हो
अनारदाने से भरी मुट्ठी
               एकाएक.

आत्म-विस्मृति के इन क्षणों में
मेरा अनुमान है
कि ईश्वर को
इसी हँसी के आस पास ही
होना चाहिए कहीं.

                           --विमलेन्दु

Saturday 1 October 2011

गांधी,हिटलर और दाम्पत्य..!

विचित्र संयोग था कि जब मैं हिटलर की आत्मकथा पढ़ रहा था तो बार-बार गांधी याद आ रहे थे. मेरे लिए यह बड़ी उलझन पैदा करने वाली बात थी. ख़ासतौर से हिटलर की आत्मकथा के उन हिस्सों को पढ़ते हुए, जहां उन्होने विवाह,दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति की सार्थकता और निरर्थकता के बारे में लिखा है, गांधी का याद आना दुर्निवार हो गया था. अंततः मैने गांधी के हस्तक्षेप को स्वीकार कर लिया. शायद यह अक्षम्य होगा कि गांधी और हिटलर की तुलना की जाये, उनमें समानता ढूढ़ने की कोशिश तो अपराध की श्रेणी मे आ जाता है. गांधी और हिटलर में समानता सिद्ध करने की मंशा भी नहीं है, लेकिन कुछ विशेष संदर्भों में दोनों को समानान्तर रखने का दुस्साहस मैं करना चाहता हूँ.

इस देश और हमारे जीवन में गांधी जी की सांस्कृतिक उपस्थिति इतनी सहज और स्वाभाविक है कि मुझे गांधी अपने परिवार के किसी बुजुर्ग की तरह लगते हैं. घर का ऐसा सयाना जो हमारे हर क़दम पर नज़र रखता है, खीझता है, ज़िद पर अड़ जाता है. एक ऐसा अनुभव और संघर्ष से तपा हुआ बुजुर्ग जो निरंतर भविष्य की चेतावनी देता रहता है और उपेक्षित तथा दरकिनार हो जाता है. गांधी की उपस्थिति हमारे बीच ऐसी ही है. गांधी अपने जीते जी ही किंवदन्ती बन गये थे, तभी तो आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि आने वाली पीढ़ियाँ ये कैसे विश्वास कर पायेंगी कि हाड़-मांस का एक ऐसा भी प्राणी इस धरती पर था....

गांधी और हिटलर, दोनो ही आधुनिक विश्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति थे. दोनों ने ही विशव को बदला, अपनी अलग-अलग प्रविधियों से. हिटलर ने अपनी जातीय श्रेष्ठता के आग्रह के चलते जहाँ पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया था, वहीं गांधी ने सत्य और अहिंसा को मनुष्य का सबसे मारक हथियार बना दिया. हिटलर अपने व्यक्तित्व की समस्त संश्लिष्टताओं के बावजूद अपनी अभिव्यक्ति में एकदम स्पष्ट था, तो गांधी अपनी पूरी सरलता के बाद भी एक अबूझ पहेली बने रहे. अँग्रेज हुक्मरानों से लेकर गांधी के अनन्य सहयोगी भी यह अनुमान नहीं लगा पाते थे कि बापू कब-कौन सा निर्णय ले लेंगे. गांधी अपने सारे फैसले अपनी आत्मा की आवाज़ को सुनकर लेते थे. उनकी विचार प्रणाली में विमर्श को बहुत कम गुंजाइश मिली थी. हिटलर भी अपनी अतःप्रज्ञा से निर्णय लेता था. हिटलर की अंतःप्रज्ञा का निर्माण उसकी वंशगत-श्रेष्ठताबोध से हुआ था तो गांधी की आत्मा सत्य के बल से बोलती थी. अंततः दोनों की ही आवाज़ें, उनकी निजी आवाज़ें थीं और यह मानना चाहिए कि ये आवाज़ें पराभौतिक आवाज़ें नहीं थीं. दोनों ही व्यक्तित्वों का निर्माण विशुद्ध रूप से मानवीय रचना-प्रकिया से गुजरकर हुआ. अतः गांधी और हिटलर--दोनों के ही सत्य को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता....लेकिन दोनों ने ही अपने सत्य को दुनियां पर आरोपित किया, भले ही परिणाम अलहदा रहे हों !

यद्यपि गांधी और हिटलर दोनों की चरम उपलब्धियां राजनीति में ही रही हैं , लेकिन इनके जीवन को देखने पर यह साफ हो जाता है कि इनकी राजनीतिक चेतना का विकास जीवन के अन्य क्षेत्रों में की गई गहन साधना का प्रतिफल है. अपने व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन को गांधी और हिटलर ,दोनों ने प्रयोगशाला बनाया. एक बात जो दोनों में समान थी, वो यह कि दोनों ही साधारण और परंपरावादी परिवारों से थे और दोनो ने ही जीवन का अधिकांश समय प्रतिकूल परिस्थितियों में बिताया. गांधी और हिटलर बहुत साधारण मेधा वाले लोग थे, लेकिन दोनों की ही उपलब्धियां असाधारण थीं. जीवन के संघर्षों ने जहाँ दोनो को अथाह आत्मबल दिया, वहीं दोनों के अन्दर कुछ ग्रंथियां भी पैदा कीं.

प्रेम-विवाह-दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति संबन्धी मान्यताओं में गांधी और हिटलर काफी करीब दिखते हैं. बहुत आश्चर्य होता है कि प्राणिमात्र के लिए दया और प्रेम की बात करने वाले गांधी, वैयक्तिक जीवन के सर्वाधिक प्रभावकारी तत्व प्रेम के विरोधी नहीं तो उदासीन अवश्य दिखाई पड़ते हैं. आत्मा की खोज में गांधी इतने दूर चले गये कि शरीर को भूल ही गये. प्रौढ़ावस्था तक आते-आते तो एक तरह से शरीर का निषेध ही करने लगे. अपनी आत्मकथा में गांधी ने कुछ दुराचरणों का भी उल्लेख किया है. जिनमें सहपाठी मेहताब के साथ वेश्यालय जाना और दक्षिम अफ्रीका की पहली यात्रा के दौरान जहाज़ के कप्तान द्वारा नीग्रो वेश्याओं के कोठों पर ले जाया जाना शामिल है. यद्यपि गांधी जी इन अवसरों पर बिना मैले हुए सुरक्षित निकल आये थे , लेकिन उन्हें बचपन और जवानी के इन ' पापों ' का जीवन भर पश्चाताप रहा.

दरअसल गांधी जी का यौन-जीवन कुछ ज़्यादा ही संक्षिप्त था. तेरह वर्ष की आयु में विवाह होने और अठारह वर्ष की आयु मे में इंग्लैण्ड जाने के बीच उनकी पत्नी कस्तूरबा मुश्किल से तीन महीने ही उनके साथ रहीं. बैरिस्टर बनकर 1891 में भारत लौटने के बाद आजीविका के लिए इधर-उधर घूमते रहना पड़ा और नतीज़तन छः महीने ही वो अपने परिवार के साथ रह पाये थे. 1891 में ही उन्हें अफ्रीका जाने का निमंत्रण मिला. गांधी जी लिखते हैं----" दक्षिणी अफ्रीका के बुलावे के समय ही मैंने स्वयं को शरीर की भूख से मुक्त पाया." 1906 में तो गांधी ने ब्रह्मचर्य का व्रत ही ले लिया था. कस्तूरबा के लिए यह स्थिति सहज स्वीकार्य नहीं थी लेकिन उन्होने भी अपनी सहमति दी. ब्रह्मचर्य की यह शपथ गांधी जी ने जुलू-विद्रोह के समय अफ्रीका में इस तर्क के साथ ली थी कि सार्वजनिक कार्यों के प्रति समर्पित होने के योग्य बनने के लिए पारिवारिक सुखों का त्याग और बच्चे पैदा करने से तौबा करनी पड़ेगी.

यौन-क्रिया से सन्यास लेने के चालीस सालों बाद भले ही गांधी यह कहते हों कि वैवाहिक जीवन का 'सच्चा आनन्द ' इस सन्यास के बाद ही मिला, जब हमारा साहचर्य प्रस्फुटित हुआ, लेकिन कस्तूरबा ने इस ' आनन्द ' की पुष्टि कभी नहीं की. गांधी विवाह को तो पवित्र संस्कार मानते थे, लेकिन उसमें शरीर-सम्बन्ध को न्यूनतम महत्व देते थे. वे कहते थे कि " जब तक बच्चे पैदा करने का प्रकट प्रयोजन न हो,तब तक यौन-जीवन शारीरिक दृष्टि से हानिकर और नैतिक दृष्टि से पापपूर्ण है." हो सकता है गांधी का यह सोच उनके प्रिय लेखक टाल्सटॉय के इस विचार से बना हो कि--" लोग भूचाल, महामारी, रोग और हर प्रकार की यातना से बच निकलते हैं, लेकिन प्रखरतम त्रासदी सदा ही शयनकक्ष में घटित हुई है, होती है, और होती रहेगी." गांधी जी गर्भ-निरोधकों के प्रयोग का विरोध इसलिए करते थे कि " यदि अपने कार्य के परिणाम भुगतने के खतरे से मुक्त होकर स्त्री और पुरुष संभोग कर सकेंगे , तो वे आत्म-नियंत्रण की अपनी शक्ति खो देंगे."

दाम्पत्य और यौन-विषयक अपनी स्थापनाओं को गांधी ने न सिर्फ अपने ऊपर लागू किया, बल्कि इन्हें वो अपने साथ काम कर रहे सहयोगियों पर भी आरोपित करते थे. उनके सामने असहमत होने का कोई अर्थ नहीं होता था. अपनी बातों को मनवाने के लिए गांधी आत्मपीड़न का सहारा लेते थे.

इसी बिन्दु पर हिटलर की याद आती है. थोड़े अलग संदर्भों में, लेकिन ठीक इसी तरह हिटलर भी दाम्पत्य, यौन-जीवन और संतानोत्पत्ति को लेकर विशेष आग्रही था. यद्यपि उसकी मान्यताएँ जातिगत श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष पर आधारित थी, लेकिन उसमें भी प्रेम और स्त्री-जीवन के प्रति ' उपेक्षा ' के जो भाव थे, वो गांधी की ' उदासीनता ' के समकक्ष ही थे. ब्रह्मचर्य का प्रबल समर्थक हिटलर इसलिए था कि उसके राष्ट्रवादी अभियान को सफल बनाने वाले बलिष्ट और एकाग्र युवा उसे मिल सकें. जैसे गांधी अपने नस्लभेद-विरोधी और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ' आत्मबल से युक्त ' सहयोगी ब्रह्मचर्य के मार्फत तैयार करना चाह रहे थे. हिटलर चाहता था कि " राज्य यह तय कर दे कि स्वस्थ्य दम्पति को ही संतानोत्पत्ति का अधिकार है, तथा उनके बीमार या वंशानुगत दोष होने पर प्रजनन न करना अति सम्माननीय होगा........ऐसे लोगों को प्रजनन के अयोग्य घोषित कर, व्यावहारिक गतिविधियों को तीव्र करना होगा." हिटलर कहता है कि " यह विचारणीय तथ्य है कि क्या धर्म के नाम पर असंख्य लोगों द्वारा अपनी इच्छा से ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त को, धार्मिक विधान के अलावा किसी दूसरे साधन से लोगों तक पहुँचाया जा सकता है ?"-----इस दूसरे साधन की खोज ने ही हिटलर को 'हिटलर' बना दिया, जिसने उच्च जाति के व्यक्तियों द्वारा निम्न जाति के लोगों से वैवाहिक संबन्धों और संतानोत्पत्ति का प्रबल विरोध किया क्योकि इससे संतति पतित होती है.

दरअसल गांधी और हिटलर ने विश्व मानवता को क्या दिया, इस पर कोई विवाद नहीं है. दोनों के सपनों में दुनिया की जो शक्लें थीं वो एकदम जुदा थीं. दुनिया में आज भी दोनों के सिद्धान्तों के विकट अनुयायी मौजूद हैं. लेकिन इस सवाल पर सोचना लाज़मी है कि अपने लक्ष्य और आत्मा की आवाज़ों को सुनने के लिए इन्होंने जीवन की नैसर्गिक आवाज़ों को दबा दिया. भले ही यह सायास न रहा हो, लेकिन गांधी और हिटलर की दाम्पत्य और यौन-जीवन सम्बन्धी मान्यताओं ने स्त्री और प्रेम को समाज में दोयम दर्जे पर स्थापित करने के प्रयासों को बल दिया. क्या आपको नहीं लगता कि कम से कम इस देश में, स्त्री की स्वायत्तता का संघर्ष गांधी के समय में ही मुखर हो सकता था, अगर उन्होंने कुछ ज़्यादा व्यापक और उदार नज़रिया अपनाया होता ?