ईश्वरवादियों के सामने एक सवाल हमेशा खड़ा
रहता है, कि यदि ईश्वर है तो फिर संसार में इतनी बुराइयाँ क्यों हैं ? अगर इस सवाल का
जवाब देने की कोशिश किसी ने की तो वह और फँसता चला जाता है. मसलन, या तो ईश्वर
बुराई का नाश करना चाहता है, और वह कर नहीं सकता. या फिर वह कर तो सकता है पर करना
नहीं चाहता....यदि वह चाहता है लेकिन कर नहीं सकता तो वह नपुंसक है. यदि वह कर
सकता है पर चाहता नहीं, तो फिर वह दुष्ट है. यानी ईश्वर अगर अच्छा है, तो उसका
संसार इतना बुरा क्यों है ?
ऐसा ही सवाल करके
कृष्ण को परेशान कर दिया था महाभारत के एक एकांतवासी ऋषि उत्तंक नें. कृष्ण की
मुलाकत उत्तंक से राजस्थान के किसी निर्जन क्षेत्र में हुई थी. उन्हें जब
कुरुक्षेत्र के जनसंहार का पता चला तो नाराज़ होकर कृष्ण से पूछा कि आपने इस
नरसंहार को रोका क्यों नहीं ? कृष्ण ने जब यह कहा कि मैं असमर्थ था, तो ऋषि चकित हुए.
एक ईश्वर असहाय होने का हवाला दे रहा है !
अब कृष्ण यह कैसे
बताते कि इस महाभारत के असली नियंता तो वही हैं. पृथ्वी को क्षत्रिय और यादव वंश
से मुक्त कर देने की उनकी वृहद योजना का एक हिस्सा था महाभारत का नरसंहार. अपने
लक्ष्य को पाने के लिए कृष्ण कदम-कदम पर छल-कपट का सहारा लेते हैं. यद्यपि कृष्ण
महाभारत में घोषणा करते हैं कि जब जब धर्म की हानि होती है तो मैं धर्म की रक्षा
के लिए प्रकट होता हूँ. लेकिन पूरे युद्ध के दौरान किए गए अपने छल-कपट से कृष्ण हम
सबके सामने एक नैतिक दुविधा पैदा कर देते हैं. ‘अच्छाई’ और ‘बुराई’ के बीच की विभाजक रेखा को खुद कृष्ण ने धुँधला
कर दिया. छल कृष्ण के चरित्र का अभिन्न हिस्सा है, और उनकी चालबाजियाँ पारंपरिक
नैतिकता को एक खुली चुनौती हैं, जो कर्म के समग्र अर्थ के संदर्भ में बड़ी
महत्वपूर्ण हैं.
कृष्ण के दो रूप जनमानस में लोकप्रिय हैं. एक वह जो भागवत पुराण और सूरदास
आदि कवियों ने बनाया है. जिसमें कृष्ण की सम्मोहक लीलाएँ हैं. राधा-कृष्ण का प्रेम
है. कृष्ण-सुदामा की मैत्री है. दूसरा वह रूप जो महाभारत का संपादक-मंडल बनाता है.
इस रूप में कृष्ण का विराट स्वरूप है, जो अर्जुन को दिखाते हैं कुरुक्षेत्र में.
कृष्ण के छल-कपट और रण-कौशल हैं, जिसके दम पर वो बडे-बड़े महारथियों को मरवा देते
हैं. इन दोनो ही रूपों में एक चीज उभयनिष्ठ है—वह है उनका छली स्वभाव. माखन चुराना
और फिर सफाई में कहना कि चीटियाँ निकाल रहे थे. सरोवर में नहाती हुई गोपियों के
वस्त्र चुराकर उनके दैहिक सौन्दर्य को देखना. अपने ग्वाल साथियों को डाँट लगवाना—उनकी
कपट-प्रियता की आरंभिक निशानियां हैं.
महाभारत की कथा में कृष्ण का प्रवेश होता है द्रौपदी के स्वयंवर से. और
यहीं से उनके छल-कपट का सिलसिला भी शुरू हो जाता है. आप जानते ही हैं कि द्रुपद ने
मछली की आँख भेदने की शर्त रखी थी द्रौपदी के वरण के लिए. कृष्ण दूसरे महारथियों
को पराजित करवा देते हैं विभ्रम पैदा करके. क्योंकि अपनी बुआ के पूत्र अर्जुन को
जिताना था. द्रौपदी अर्जुन को मिल गई. यहीं से कृष्ण पाण्डवों के अभिन्न मित्र हो
गए. बाद में छल से ही अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भगवा दिया और विवाह करा
दिया. इसके बाद तो पूरी महाभारत, जिसे ‘अच्छाई’ और ‘बुराई’ के बीच युद्ध कहा गया, कृष्ण की चालबाजियों की कहानी
है.
महाभारत के युद्ध में एक-एक करके कौरव सेना के सारे महारथी मारे गए. पूरे
युद्ध में युद्ध-संहिता का घनघोर उल्लंघन हुआ. अच्छाई के प्रतीक पाण्डवों ने
भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन जैसे वीरों को उस तरह से मारा जो युद्ध-संहिता के
अनुसार अनीतिपूर्ण था. इसके लिए उन्हें कृष्ण ने उकसाया, वरना अर्जुन समेत पांचों
पाण्डव ऐसा करने से बार-बार हिचक रहे थे. युद्ध शुरू होने से पहले पाण्डवों की
माता कुन्ती ने भी कहा था---“ हे शत्रुहर्ता ! तुम्हारे विचार से, जो
कुछ उनके (पाण्डवों) लिए उत्तम हो, तुम करो. पर ध्यान रहे, धर्म की कोई हानि नहीं
होनी चाहिए और कोई छल-कपट भी न हो.”….लेकिन कृष्ण धर्म की परवाह किए बिना, ‘रणनीति’ के नाम पर इसका
उल्टा ही करने की सलाह देते हैं----“ हे पाण्डु-पुत्रों, नीति को परे रख, येन-केन-प्रकारेण
विजय प्राप्त करो.”
कर्ण की मृत्यु
के बाद युद्ध लगभग समाप्त हो चुका था. हताश दुर्योधन रणक्षेत्र से निकल पास की ही
एक झील पर चला जाता है. वहीं पर वह शान्तिपूर्ण जीवन बिताने का संकल्प लेता है.
माया के प्रयोग से झील के पानी को ठोस बना देता है और उसके अन्दर प्रवेश कर जाता
है. लेकिन पाण्डव उसे ढूढ़ लेते हैं. भीम उसे गदायुद्ध के लिए ललकारते हैं. दोनों
में युद्ध होता है. दुर्योधन को गान्धारी क वरदान था कि उसकी मृत्यु तभी हो सकती
है, जब कोई उसकी जंघा पर प्रहार करेगा. गदायुद्ध की नियमावली में नाभि से नीचे
प्रहार करना वर्जित है. युद्ध में दुर्योधन भीम पर भारी पड़ता जा रहा था. तब कृष्ण
ने अनीति का सहारा लिया. उन्होने अर्जुन से भीम को इशारा करवाया कि दुर्योधन की
जंघा पर प्रहार करो. भीम ने वैसा ही किया.
युद्ध के अठारवें दिन रणक्षेत्र में मरणासन्न पड़ा हुआ दुर्योधन कृष्ण को
इस पूरे युद्ध में, उनके द्वारा किए गए सारे छल गिनवाता है-----“ हे कंस के दास
के उत्तराधिकारी ! इस तरह अनीतिपूर्ण ढंग से मुझे मार गिराने में क्या तुम्हें किंचितमात्र भी
शर्म नहीं आई ? तुम्हें क्या ज़रा भी श्म नहीं कि तुमने उन सारे राजाओं को छलपूर्वक मरवा
डाला जो युद्ध में नीतिपूर्वक व बड़ी वीरता से लड़ रहे थे. शिखण्डी को सामने रख कर
तुमने हमारे पितामह का वध करवाया. अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने पर भी तुमने
दुष्टतापूर्ण व्यवहार किया. फिर जब शोकाकुल हो हमारे गुरु द्रोण ने अपना धनुष भूमि
पर रख दिया , तब भी तुमने उस नीच धृष्टद्युम्न को उन्हें मार गिराने से नहीं रोका.
और फिर तुमने मानवों में श्रेष्ठ कर्ण जैसे योद्धा को उस समय मरवाया जब वह कठिनाई
में था व कीचड़ में धँसे अपने रथ के पहिए को निकाल रहा था.यदि तुम कर्ण, भीष्म,
द्रोण व मेरे साथ नीतिपूर्वक लड़े होते तो निश्चय ही विजय तुम्हारी कभी न होती.”
आइए देखते हैं कि
महाभारतकालीन युद्ध-संहिता क्या कहती है. इन नियमों का विस्तृत विवरण महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ में मिलता है.
इसके अनुसार----“ युद्ध में वाणी के सहारे लड़ रहे योद्धा का प्रत्युत्तर वाणीसे ही दिया
जाना चाहिए. रणक्षेत्र छोड़ चुके व्यक्ति को नहीं मारा जाता. रथी, रथी से ही
लड़ेगा. हाथीसवार, हाथीसवार से, घुड़सवार, घुड़सवार से और पैदल सैनिक, पैदल सैनिक
से लड़ेगा. उपयोग, वीरता, शक्ति व आयु के अनुसार किसी को किसी पर भी वार करने की
अनुमति है, पर पहले उसे चेताया जाना चाहिए. जो असतर्क है, कठिनाई में है या अन्य
से युद्धरत है, या किसी और दिशा में देख रहा है, या निःशस्त्र है, या जिसके
अस्त्र-शस्त्र खत्म हो गए हैं, उन पर वार नहीं किया जाता. सारथियों, अस्त्र-शस्त्र
सहायकों, शंख और नगाड़े बजाने वालों पर वार नहीं किया जाता. सूर्यास्त के बाद
युद्ध रोक देना चाहिए.”
महाभारत की यह
युद्ध-संहिता बहुत कुछ मध्यकालीन कैथोलिक चर्च की रण-संहिता के नियमों से
मिलती-जुलती है. कैथोलिक चर्च का ‘धर्मयुद्ध’ मुख्यतः दो नियमों पर आधारित है—विभेद का नियम,
और आनुपातिकता का नियम. विभेद का नियम यह बताता है कि युद्ध के दोरान वैध लक्ष्य
कौन-कौन से हैं. यानी एक सैनिक युद्ध में जिन्हें निशाना बन सकता है. आनुपातिकता
का नियम यह बताता है कि किसी समय में कितना बल-प्रयोग नैतिकता के तकाज़े से सही
होगा. इन नियमों के बावजूद हमेंशा युद्ध में नियमों का उल्लंघन होत रहा. हर युद्ध
इस बात के लिए अभिशप्त है कि उसमें कुछ निर्दोष लोगों को भी हानि होती है. अमेरिकी
सैन्य शब्दावली में इसे ‘कोलैटरल डैमेज’ यानी समानांतर क्षति कहा जाता है.
किसी महानायक द्वारा येन-केन-प्रकारेण, छल-कपट से विजय प्राप्त करना कोई
असामान्य बात नहीं है. महाभारत युद्ध के दौरान, पूरे समय कृष्ण पाण्वों को यही
समझाते रहे कि आपने अनीति के विरुद्ध धर्मयुद्ध शुरू किया है, तो अब इसे किसी भी
हाल में जीतना होगा. युद्ध शुरू होने के बाद केवल एक ही बात महत्वपूर्ण रह जाती
है, वह है विजयश्री. दुनिया भर के युद्धवादीभी समय-समय पर यही तर्क देते रहे हैं.
युद्ध,जायज़ है या नाजायज, इसका विचार युद्ध शुरू होने के पहले किया जाता है.
यद्यपि महाभारतकार की स्पष्ट सहानुभीति पाणडवों के पक्ष में रहती है क्योकि
कौरवों ने उनके साथ अन्याय किया राज-पाट तो हड़प ही लिया था, लाक्षाग्रह में
उन्हें जलाकर मारने की भी कोशिश की. लेकिन कृष्ण की अवसरवदिता की वह निन्दा भी
करता है. एक तरफ महाभारत, कृष्ण के दैवीय स्वरूप की भी स्थापना करता है, तो दूसरी
ओर उनके सांसारिक व्यवहार को भी परिभाषित करता है. दरअसल महाभारत में कृष्ण के
दैवीय और सांसारिक पक्षों का अद्भुत संतुलन है. पूरे महाकाव्य में लगातार एक नैतिक
दुविधा बनी रहती है. यह दुविधा है—ईश्वर और मनुष्य की, साध्य और साधन की. कृष्ण
यदि देवाधिदेव हैं तो फिर मनुष्यों की तरह उनका कपटपूर्ण व्यवहार क्या उचित है ? किसी धर्मानुकूल
साध्य को पाने के लिए क्या धर्मविरुद्ध साधन अपनाए जा सकते हैं ?? स्पष्ट रूप से
महाभारत में साधन, साध्य पर भारी पड़ते दिखते हैं.
अंत में यह देखना अनिवार्य हो गया है कि महाभारत में कृष्ण की तरफ से होने
वाली अनीति के पक्ष में कौन से तर्क हैं. खुद कृष्ण, महाकाव्य के कुछ पात्र, और
परिस्थितियां इन दुविधाओं का जवाब देने की कोशिश करती हैं. हिन्दू-मान्यताओं के
अनुसार भारत में काल के शास्त्रीय बोध के परिप्रेक्ष्य में लगातार धर्म की अवनति
हो रही है. धर्म के चार स्तम्भ थे प्रारंभिक काल-सतयुग में. उसके बाद आने वाले हर
युग में धर्म का एक-एक स्तम्भ ढहता गया और अधर्म बढ़ता गया. कुछ देवताओं को धरती
से अधर्म खत्म करके फिर से सतयुग लाने का दायित्व सौंपा गया. उन्हीं में से एक
विष्णु भी थे, जिन्होने कृष्ण के रूप में मनुष्य जन्म लिया. यानी महाभारत, पृथ्वी
को अधर्म से मुक्ति दिलाने की एक वृहद् योजना का हिस्सा भर था.
उत्तंक ने जब कृष्ण को याद दिलाया कि आप तो ईश्वर हैं, आप इस नरसंहार को
रोक सकते थे. तब कृष्ण ने सफाई दी थी कि मैने मनुष्य के रूप में जन्म लिया है,
इसलिए मेरा आचरण मनुष्य के बुद्धि और आचरण की सीमाओं के भीतर ही हो सकता है. चौपड़
के खेल में जब द्रौपदी को अपमानित किया गया तो द्रौपदी ने कहा था----“ मुझे लगता है कि
कालचक्र अपनी धुरी से उखड़ गया है.....इस प्राचीन सनातन धर्म का पालन कौरव नहीं कर
पाए.” चौपड़ के खेल का यह आयोजन और द्रौपदी का कथन इशारा कर रहे हैं कि दरअसल
कलियुग समय-पूर्व आ गया है. और अनीति-अधर्म का बोलबाला है. कृष्ण भी दुर्योधन के
आरोपों के जवाब में यही कहते हैं. ऐसे युग में जहाँ धर्म का पतन हो चुका हो, युद्ध
में न्याय-संगत होने के लिए उन्हें छल-कपट का सहारा लेना पड़ा. कलियुग के इस दूषित
समय में धर्म की रक्षा हेतु उन्हें एक ‘बड़े न्याय’ की खातिर ‘छोटे-छोटे छल’ करने पड़े.
और भारतीयों ने कृष्ण के इस ‘युग-शोधन’ के तर्क को स्वीकार भी कर लिया. वो स्पष्ट रूप से यह
मानते हैं कि “ कृष्ण हैं जहाँ, धर्म है वहाँ; धर्म है जहाँ, विजयश्री है वहाँ.” साफ है कि हमारे
लिए कृष्ण का आचरण ही धर्म है. अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए यही घोषणा कृष्ण
भी करते हैं. भारत का श्रद्धालु कहता है कि यह संसार तो एक मंच है, जहाँ प्रभु
अपनी लीला रचते हैं. मनुष्य तो ‘ईश्वर के खिलौने’ हैं. इसीलिए भारतीय
जनमानस में हमेशा का वह रूप ही ताकतवर रहा, जिसमें उनकी बाल-लीलाएँ और रासलीला है.
बहुत आश्चर्य होता है कि जो कृष्ण माखन
चुराता है, गोपियों के वस्त्र लेकर छुप जाता है, वह गीता का गंभीर योगी कैसे हो
जाता है ! यही
कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है. यही वह विशेषता है जिससे कृष्ण हमारे इतने
नज़दीक लगते हैं. विरोधों का समागम हैं कृष्ण. हमारा सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा
है. लेकिन इन विरोधों में एक लय है. एक प्रवाह है. सुख-दुख, बचपन-बुढ़ापा,
रोशनी-अँधेरा, जन्म-मृत्यु----ये सब विरोधी प्रत्यय हैं, लेकिन एक लय में बंधे
होते हैं. इसी लय में जीवन संभव होता है.
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