न जाने क्यों पिछले दस-ग्यारह दिनों से, सरकार की नोटबंदी की प्रक्रिया पर लिखने से मैं खुद को बचा रहा था. आप समझ सकते हैं कि साप्ताहिक स्तंभ लिखने के लिए अपने वर्तमान से एक सजग संबन्ध बनाए रखना कितना ज़रूरी होता है. पिछले हफ्ते तो बाल-दिवस ने बचा लिया. नौनिहालों की चिन्ता हमेशा मेरे चिन्तन के केन्द्र में रही है. इसलिए बाल-दिवस पर उसे व्यक्त कर देना अप्रासंगिक नहीं रहा. लेकिन मैं यह भी देख रहा था कि नोटबंदी के बाद मचे हाहाकार के बीच बाल-दिवस का उल्लास कहीं गुम होकर रह गया. 9 नवंबर से नोटबंदी हुई. तब से लेकर आज तक लोगों की चर्चा में सिर्फ एक ही बात है-पैसा. पैसे को लेकर जितने भी संभव कोण हो सकते हैं, उन सभी कोणों पर बातें जारी हैं. ऐसा मंज़र है कि हर नागरिक अर्थशास्त्री है. वित्त-मंत्रालय और रिजर्व बैंक से रोज जारी होने वाले आदेश विद्युत गति से एक ज़ुबान से दूसरी ज़ुबान तक पहुँच रहे हैं. मोबाइल फोन पर सूचनाएँ आ-जा रही हैं कि फलाँ बैंक पैसा दे रहा है, फलाँ बैंक में पैसा खत्म हो गया. अमुक चौराहे के ए.टी.एम. से पैसा निकल रहा है.
सच पूछिए तो पहले दो दिन तो मुझे समझ ही नहीं आया कि नोटबंदी पर हसूँ या रोऊँ. जो छुट्टे पैसे जेब में थे उनसे दो दिन का काम चल गया. बंधे पैसे भी ज्यादा नहीं थे. तीसरे दिन 500 के तीन नोट लेकर बैंक की ओर चला कि इस काले धन को बैंक में जमा कर के अपने खाते से दस हजार निकाल लूँगा तो गृहस्ती का कारोबार चलता रहेगा. ठेल-ठाल के जब बैंक के काउन्टर पर पहुँचा तो बताया गया कि अभी सिर्फ पैसे जमा हो रहे हैं, दिए नहीं जा रहे. हमने अपना कालाधन जमा किया और लौट आए. जो था वो भी चला गया. जेब में पचास-साठ रुपए बचे थे. अगले दिन फिर बैंक गया. मैनेजर साहब ने कहा कि पैसा चेक से मिलेगा, वो भी सिर्फ दो हज़ार. मैं चेकबुक लेकर गया नहीं था लिहाज़ा घर भागना पड़ा. खैर चेक से एक चमचमाता हुआ दो हज़ार का नोट मिला. मैने सोचा पहले स्कूटर में पेट्रोल भराया जाए ताकि नौकरी और घूमने फिरने में कोई बाधा न आए. पेट्रोल पंप पर पहुँचे तो कहा गया कि कम से कम सत्रह-अठारह सौ का पेट्रोल डलवाइए तभी दो हज़ार का नोट लिया जाएगा. अब बताइए चार लीटर की टंकी में अठारह सौ का पेट्रोल कैसे डलवाते ! सो मायूस होकर लौटना पड़ा. वो तो भला हो उस किराना दुकान वाले का जिसके भीतर अचानक संवेदना का स्रोत कहीं से फूट पड़ा और उसने दो हज़ार का छुट्टा बिना कोई सामान खरीदे दे दिया. मेरी आत्मा अदृश्य तरीके से उसकी ऋणी हो गई, और मेरी गाड़ी चल निकली.
देश के करोड़ों लोगों की तरह मुझे भी अर्थशास्त्र की ज्यादा समझ नहीं है. मैं भी रुपए के मूल्य को अपने सुख-दुख के समानुपाती समझता हूँ. मुझे यह कभी नहीं समझ आता कि कौन सी मर्दाना कमजोरी की वजह से शेयर बाजार का शीघ्रपतन हो जाता है, और कौन सी वियाग्रा खाने से सेंसेक्स की उत्तेजना बढ़ जाती है. शेयर मार्केट के ‘साँड़’ और ‘भालू’ कौन सी अफीम खाकर अँगड़ाई लेते हैं, इसका मुझे सचमुच कोई इल्म नहीं. मुझे तो इन दिनों छत्तीसगढ़ के उस भाजपा नेता का डायलॉग याद आ रहा है, जब उसने घूस लेते हुए कहा था-“ख़ुदा कसम ! पैसा ख़ुदा नहीं, पर ख़ुदा से कम भी नहीं !” ये नेता जी एक स्टिंग ऑपरेशन में यह बात कह रहे थे. इस घटना से उनका राजनीतिक कैरियर बर्बाद भी हो गया. उनका यह डायलॉग उस दिन से मुझे याद आ रहा है जब मैं चौथी बार बैंक गया. दिन का दूसरा पहर था. बैंक में दो ऐसे व्यक्ति बैठे थे जिनके घर में किसी की मृत्यु हो गई थी. अगले दिन उनके यहाँ तेरहवीं थी और उन्हें पैसों की ज़रूरत थी. बैंक वालों ने कह दिया कि पैसे खत्म हो गए हैं. आप जानते ही हैं कि हिन्दू समुदाय में मृतक की तेरहवीं के आयोजन में कितना खर्चा होता है. उसी समय दो सुदर्शन महिलाएँ भी पैसे लेने पहुँचीं. मैनेजर साहब ने उन्हें इशारे से समझाया कि वे दोनों व्यक्ति यहाँ से हट जाएँ तो पैसे निकाल देंगे. मेरे लिए यह दृश्य संवेदना का एक नया रूप था.
अर्थशास्त्र की मेरी समझ भले ही कमज़ोर है पर पिछले कुछ समय से मन कहता है कि कहीं कुछ छल किया जा रहा है हमारे साथ. काफी समय से यह बताया जा रहा है कि मुद्रास्फीति घट रही है, लेकिन मंहगाई कम होने की बजाय बढ़ती ही गई. आर्थिक विकास दर के सरकारी आँकड़ों में अचानक उछाल आ गया लेकिन उसका कोई फायदा जनता को मिलता नहीं दिख रहा. उल्टा, सातवें वेतनमान का निर्धारण करते हुए सरकार ने पिछले वेतनमानों की परंपरा को भी तोड़ दिया और अपने कर्मचारियों को बहुत मामूली लाभ दिया. सरकार का यह भी दावा है कि पिछले दो सालों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ गया है, लेकिन हम देख रहे हैं कि इसी अवधि में नौकरियों का अकाल हो गया है. सरकारी दावों और परिणाम के ये विरोधाभास क्या किसी छल की ओर इशारा नहीं करते ? छोटी सफलताओं के बड़े जश्न, क्या बड़ी असफलताओं को छुपाने के प्रयास नहीं हैं ? सर्जिकल स्ट्राइक का विश्वव्यापी प्रचार, क्या चीन और पाकिस्तान से मिली कूटनीतिक पराजय की प्रतिक्रिया नहीं थी ?
प्रधानमंत्री ने जब नोटबंदी की घोषणा की तो एकबारगी सबकी तरह मुझे भी यह एक बढ़िया कदम लगा. यह सोचकर खुशी हुई कि देश से कालाबाज़ारी खत्म हो जाएगी और लोगों के पास दबा गैरकानूनी धन सरकार के खजाने में पहुँच जाएगा. आतंकियों और नक्सलियों की कमर टूट जाएगी. लेकिन जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की हकीकत सामने आती जा रही है. जनता को हो रही परेशानियाँ तो आप सब देख ही रहे हैं. उसकी बात करना अब उतना जरूरी नहीं है. मैं यह देखना चाह रहा हूँ कि क्या सरकार अपने मकसद में सफल होती दिख रही है ? ऐसा नहीं है कि दुनिया में पहली बार किसी देश ने अपनी मुद्रा के साथ छेड़छाड़ की है. इसके पहले भी कई देशों ने विमुद्रीकरण की प्रक्रिया अपनायी है. लेकिन अब तक असफलता का आँकड़ा, सफलता से अधिक ही रहा है.
अपने आखिरी दिनों में सोवियत संघ ने जनवरी 1991 में विमुद्रीकरण की प्रक्रिया शुरू की. तत्कालीन राष्ट्रपति गोर्वाचोव रूसी मुद्रा रूबल की कालाबाज़ारी से परेशान थे. वो रूबल को बाहर करना चाहते थे. उन्होने 50 और 100 रूबल को प्रतिबन्धित कर दिया. यह करेंसी सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था का एक तिहाई हिस्सा थी. उन्होने उदारीकरण और राजनीतिक आर्थिक सुधार के इन कार्यक्रमों को ‘पेरेस्त्रोइका’ और ‘ग्लासनोस्त’ नाम दिया. लेकिन सोवियत संघ को इसका कोई फायदा नहीं हुआ, उल्टे अगस्त का महीना आते आते सोवियत संघ का विघटन हो गया.
ब्लैकमनी और कालाबाज़ारी पर रोक लगाने के लिए उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोन्ग ने 2010 में विमुद्रीकरण किया. उन्होने सभी करेंसी वैल्यू से दो शून्य हटा दिए. यानि 1000 का नोट 10 का रह गया और 5000 का नोट 50 की कीमत का हो गया. उत्तर कोरिया में इस फैसले का बहुत बुरा असर हुआ. महगाई आसमान छूने लगी. खाद्यान्न की कीमतें इतनी अधिक हो गईं कि लोग भूखों मरने लगे. अंतत: तानाशाह को माफी मागनी पड़ी और उसने अपने वित्तमंत्री को फांसी पर लटका दिया. इसी तरह म्यामार में 1987 में मिलिट्रीशासन नें लगभग 80 प्रतिशत करेंसी को अवैध घोषित कर दिया. म्यामार के इतिहास में पहली बार छात्रों ने विमुद्रीकरण के विरोध में आन्दोलन शुरू किया. यह आन्दोलन साल भर चला. सरकार ने भरपूर दमन किया. नतीजा यही रहा कि हज़ारों नागरिक मारे गए.
मुद्रा के साथ छेड़खानी यानि विमुद्रीकरण की प्रक्रिया हर बार असफल रही हो, ऐसा भी नहीं है. लेकिन यह सफलता विकसित देशों को ही मिली. 1971 में इंग्लैण्ड ने रोमन काल से चले आ रहे सिक्कों को हटाने के लिए अपनी मुद्रा पाउण्ड में दशमलव पद्धति लागू की. अर्थशास्त्र में इसे ‘डेसिमलाइजेशन’ कहा जाता है. पूरे देश में चार दिन बैंक बन्द कर दिए गए. और पर्याप्त मात्रा में नई करेंसी पहुँचा दी गई. इतने कम समय और जनता को परेशान किए बगैर इंग्लैण्ड ने सफलता के साथ पुराने सिक्कों को बाहर कर दिया. इसी तरह जनवरी 2002 में यूरोपीय संघ के 11 देशों ने नयी करेंसी ‘यूरो’ अपनायी. यूरो का जन्म 1999 में ही हो गया था. तीन साल की तैयारी के बाद इसे सदस्य देशों ने अपनाया और इसका उनकी अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर हुआ.
इन असफलताओं और सफलताओं के बरक्स भारत के विमुद्रीकरण या नोटबंदी को देखिए. यह साफ है कि प्रक्रिया जल्दबाजी में शुरू की गई. अगर कोई कार्ययोजना बनी भी है तो हद से हद उसे एक महीने का ही समय मिला. रिजर्व बैंक पूर्व गवर्नर रघुराम राजन को पद छोड़े एक महीने से कुछ ही दिन अधिक हुए थे जब यह घोषणा हुई. रघुराम राजन ने अपने बयान में कहा भी है कि नोटबंदी से कालाधन वापस नहीं आएगा. साफ है कि उनके समय में ऐसी कोई योजना न बनी होगी. यह निर्णय नये गवर्नर उर्जित पटेल के आने पर ही लिया गया. यह इससे भी स्पष्ट है कि जो नई करेंसी आ रही है उस पर उर्जित पटेल के ही हस्ताक्षर हैं. रही बात कालेधन की तो जिनके पास करोड़ों में पैसा था उन्होंने उसे घर पर नहीं रखा है. उनका पैसा व्यापारियों, बिल्डरों, शेयर मार्केट में लगा हुआ है. जो धीमी गति से ही सही, अंतत: सफेद हो ही जाएगा. जिनके पास थोड़ी छोटी रकमें थीं वो इन दिनों सोना खरीद कर रख रहे हैं. अनधिकृत रूप से सोने की कीमत 55000 रुपये प्रति 10 ग्राम तक पहुँच गई है. सोने के व्यापारी बिना पैन कार्ड लिए सोना बेच रहे हैं. हवाला कारोबारी भी कमीशन लेकर कालेधन को सफेद कर रहे हैं. वैट से छूट प्राप्त कारोबारी 40 प्रतिशत पर बन्द हो चुके नोट ले रहे हैं. ये कारोबारी इन नोटों को 30 प्रतिशत टैक्स देकर जमा कर देते हैं तब भी इन्हें 30 प्रतिशत का मुनाफा हो रहा है. जिनके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं वो और भी आसान तरीकों से कालेधन को सफेद कर ले रहे हैं. इसमें बैंक के कर्मचारियों की बड़ी भूमिका है. कुल मिलाकर नोटबंदी से एक नए तरह का कालाबाज़ार पैदा हो गया है.
मुझे प्रधानमंत्री की मंशा पर कोई संदेह नहीं है. लेकिन उनकी समझ और महत्वाकांक्षाओं को लेकर हमेशा सवाल रहे हैं मेरे मन में. प्रधानमंत्री का स्वभाव बहुत उतावलेपन का है. वो भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अकेले ही बदल डालने की महत्वाकांक्षा लेकर चल रहे हैं. कदाचित चुनाव में मिले प्रचण्ड बहुमत ने उनके भीतर ये महत्वाकांक्षाएँ जगायी हों. भारत का प्रधानमंत्री बनते ही नरेन्द्र मोदी की कोशिशों से यह साफ दिखता है दुनिया में उनकी धाक अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी, चीन के राष्ट्रप्रमुखों से कुछ अधिक नहीं तो कम से कम उनके बराबर तो मानी ही जाए. नोटबंदी का चौंकाने वाला फैसला उनकी इसी मनोवृत्ति का परिणाम है. इस कदम से देश को कितना फायदा होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, फिलहाल आलम यह है कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में 50 से 70 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की जा रही है.
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