(जन्मदिन पर प्रेमचंद को याद करते हुए)
प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के तोरण-द्वार हैं.
कोई भी पाठक जब हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेमोन्मुख होता है तो वह प्रेमचंदोन्मुख ही होता है. प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को जो लोकप्रियता, पठनीयता और सम्प्रेषणीयता दी, वह अद्वितीय है. उन्होने भारत को भारत से ही परिचित कराया.
लेकिन जैसा तोरण-द्वार के साथ होता है कि उसके नीचे से गुजरकर लोग उसे पीछे छोड़ देते हैं, प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ. हिन्दी साहित्य और साहित्यकार आगे बढ़ गये और प्रेमचंद पीछे छूट गये.आगे की पूरी पीढ़ी उन्हें कथासम्राट, शोषितों-दलितों का मसीहा, गाँधीवादी, प्रगतिशील इत्यादि कहकर जयंती मना लेती है...फिर चुप.
इसमें कोई शक नहीं है कि 12 उपन्यासों और लगभग 300 कहानियों में विस्तीर्ण प्रेमचंद का कथा-साहित्य, अपने विषय-संवेदना-पात्रों-भाषा और प्रभाव में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहित्य के साथ साधिकार खड़ा होता है. मैं बिना संकोच और लिहाज के कहना चाहता हूँ कि उनकी लोकप्रियता और विश्व-साहित्य में उनके स्थान के पीछे न तो हमारे आलोचकों की कोई सदभावना है और न ही आगे के कथाकारों का परम्पराबोध. प्रेमचंद को यह स्थान दिलाते हैं--घीसू, माधव, होरी, धनिया और सूरदास जैसे पात्र एवम् कफ़न,गोदान,रंगभूमि जैसी रचनाएँ.
कोई भी पाठक जब हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेमोन्मुख होता है तो वह प्रेमचंदोन्मुख ही होता है. प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को जो लोकप्रियता, पठनीयता और सम्प्रेषणीयता दी, वह अद्वितीय है. उन्होने भारत को भारत से ही परिचित कराया.
लेकिन जैसा तोरण-द्वार के साथ होता है कि उसके नीचे से गुजरकर लोग उसे पीछे छोड़ देते हैं, प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ. हिन्दी साहित्य और साहित्यकार आगे बढ़ गये और प्रेमचंद पीछे छूट गये.आगे की पूरी पीढ़ी उन्हें कथासम्राट, शोषितों-दलितों का मसीहा, गाँधीवादी, प्रगतिशील इत्यादि कहकर जयंती मना लेती है...फिर चुप.
इसमें कोई शक नहीं है कि 12 उपन्यासों और लगभग 300 कहानियों में विस्तीर्ण प्रेमचंद का कथा-साहित्य, अपने विषय-संवेदना-पात्रों-भाषा और प्रभाव में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहित्य के साथ साधिकार खड़ा होता है. मैं बिना संकोच और लिहाज के कहना चाहता हूँ कि उनकी लोकप्रियता और विश्व-साहित्य में उनके स्थान के पीछे न तो हमारे आलोचकों की कोई सदभावना है और न ही आगे के कथाकारों का परम्पराबोध. प्रेमचंद को यह स्थान दिलाते हैं--घीसू, माधव, होरी, धनिया और सूरदास जैसे पात्र एवम् कफ़न,गोदान,रंगभूमि जैसी रचनाएँ.
प्रेमचंद के उपन्यासों में तत्कालीन समय के सामाजिक संघर्षों और बदलावों के
चित्र मिलते हैं. प्रेमचंद के समकाल में समाज जिस गति से बदल रहा था, वैसी गति
उसके पहले या बाद में नहीं देखी गयी थी. एक दशक में पीढ़ियों जैसा बदलाव हो रहा
था. जमीदार वर्ग एक उदार चोला पहन कर सामने आ रहा था. यह नया वर्ग अधिक चालाक और
चरित्र में काइयाँ था. याद कीजिए गोदान के रायसाहब और प्रेमाश्रम के ज्ञानशंकर को.
सरकारी हस्तक्षेप के कारण ज़मीदारी का रुतबा कम होता देख इन लोगों ने महाजनों से
गठजोड़ कर लिया. जमीदारों की स्पष्ट छवि के विपरीत इनका चरित्र बेहद संश्लिष्ट था.
महाजनी सभ्यता के पहले की जागीरदारी सभ्यता में शोषण कम था. लेकिन बाद के समय में
हुए गठजोड़ ने किसानो और गरीबों का खूब शोषण किया. शोषण का यह मंज़र प्रेमचंद के
दृष्टिपथ में था. ‘प्रेमाश्रम’ का आधार
किसान-ज़मीदार संघर्ष था. ‘गोदान’ में
किसान-महाजन की समस्या है. ‘रंगभूमि’ में
औद्योगीकरण से गांवों में हो रहे बदलावों को चित्रित किया गया है, तो ‘कर्मभूमि’ में अछूत
समस्या और लगानबन्दी-आन्दोलन का चित्रण है. समाज के इतने अलग-अलग स्तरों की पहचान
रखने वाले दूसरे साहित्यिक संसार में शायद ही मिलें. अपने युग और समाज की पीड़ा को
जिस तरह से प्रेमचंद ने महसूस किया है, वैसा बहुत कम लोग कर पाते हैं. गाँधी ने
उसी दौर में जिस तरह राजनीति की परतों को देखा था और उसे प्रभावित किया था, उसी
तरह प्रेमचंद समाज को कर रहे थे.
यह प्रश्न विचारणीय है कि भारतीय समाज, खासतौर से भारतीय ग्राम्य-जीवन के इस अप्रतिम कथाकार की कोई परंपरा आगे के कथाकारों में नहीं मिलती, या इसे ऐसे कहना ज़्यादा ठीक रहेगा कि आगे का कोई कथाकार अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में कतराता हुआ सा दिखता है. हमारे समकालीन कथाकार रेणु की परंपरा से जुड़ने को आतुर दिखते हैं, यशपाल से जुड़ने में गर्व मानते हैं. यहाँ तक कि कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव तक की परंपरा की बात होने लगी है, लेकिन किसी भी कथाकार के बारे में ऐसा कोई नहीं कहता कि यह प्रेमचंद के आगे का या पीछे का कथाकार है.
बाद के कथाकारों की दिक्कत समझ में आती है. प्रेमचंद का साहित्य ,यथार्थ की चाहे जितनी ठोस ज़मीन पर क्यों न खड़ा हो, उसकी परिणति आदर्शवाद में होती है. आप उनकी कोई भी रचना देखिए, प्रेमचंद एक आदर्श व्यवस्था की रचना करते हुए दिखते हैं--वह व्यवस्था चाहे जीवन में हो या समाज या राजनीति या अर्थनीति में.
मेरे खयाल में यही वह बिन्दु है जहाँ से प्रेमचंद अपने उत्तराधिकारियों द्वारा भुलाये जाने लगे. उनका आदर्शवाद आगे के रचनाकारों को प्रेरित नहीं कर सका क्योंकि युग और समय का यथार्थ उस आदर्श से अलग था. समय और जीवन, दोनो उत्तरोत्तर जटिल होते जा रहे थे.यथार्थ को पकड़ना और समझना इतना कठिन हो गया कि उसे व्यक्त करना और अधिक मुश्किल होता गया. ऐसे में कथाकारों की सारी रचनात्मक मेधा एक अजीबोगरीब आत्महन्ता यांत्रिकी में उलझती गई. अब प्रेमचंद के ज़माने जैसी मासूम किस्सागोई नहीं रह गई थी. अब कई कथाकार यथार्थ की पड़ताल और 'कथाश्रम' में विक्षिप्त भी होने लगे थे...उनके सामने समय अपने रूप और यौवन की दुर्निवार चुनौतियाँ पेश कर रहा है...तो रचनाकारों ने प्रेमचंद को 'सालिगराम ' बनाकर झोरी में रख दिया.
लेकिन मुझे लगता है कि यह एक भूल थी. इतने वर्षों बाद आज हम कहानी मे जिस 'कहन' और किस्सागोई के लिेए छटपटा रहे हैं, उसे हमने ही निकाल कर फेंक दिया था.उसी के साथ फेंक दिए गये थे प्रेमचंद. जो समय और महाजनी कुचक्र हमें विक्षिप्त किए जा रहे थे , उसी की दवा थी प्रेमचंद की कथाशैली.
यह प्रश्न विचारणीय है कि भारतीय समाज, खासतौर से भारतीय ग्राम्य-जीवन के इस अप्रतिम कथाकार की कोई परंपरा आगे के कथाकारों में नहीं मिलती, या इसे ऐसे कहना ज़्यादा ठीक रहेगा कि आगे का कोई कथाकार अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में कतराता हुआ सा दिखता है. हमारे समकालीन कथाकार रेणु की परंपरा से जुड़ने को आतुर दिखते हैं, यशपाल से जुड़ने में गर्व मानते हैं. यहाँ तक कि कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव तक की परंपरा की बात होने लगी है, लेकिन किसी भी कथाकार के बारे में ऐसा कोई नहीं कहता कि यह प्रेमचंद के आगे का या पीछे का कथाकार है.
बाद के कथाकारों की दिक्कत समझ में आती है. प्रेमचंद का साहित्य ,यथार्थ की चाहे जितनी ठोस ज़मीन पर क्यों न खड़ा हो, उसकी परिणति आदर्शवाद में होती है. आप उनकी कोई भी रचना देखिए, प्रेमचंद एक आदर्श व्यवस्था की रचना करते हुए दिखते हैं--वह व्यवस्था चाहे जीवन में हो या समाज या राजनीति या अर्थनीति में.
मेरे खयाल में यही वह बिन्दु है जहाँ से प्रेमचंद अपने उत्तराधिकारियों द्वारा भुलाये जाने लगे. उनका आदर्शवाद आगे के रचनाकारों को प्रेरित नहीं कर सका क्योंकि युग और समय का यथार्थ उस आदर्श से अलग था. समय और जीवन, दोनो उत्तरोत्तर जटिल होते जा रहे थे.यथार्थ को पकड़ना और समझना इतना कठिन हो गया कि उसे व्यक्त करना और अधिक मुश्किल होता गया. ऐसे में कथाकारों की सारी रचनात्मक मेधा एक अजीबोगरीब आत्महन्ता यांत्रिकी में उलझती गई. अब प्रेमचंद के ज़माने जैसी मासूम किस्सागोई नहीं रह गई थी. अब कई कथाकार यथार्थ की पड़ताल और 'कथाश्रम' में विक्षिप्त भी होने लगे थे...उनके सामने समय अपने रूप और यौवन की दुर्निवार चुनौतियाँ पेश कर रहा है...तो रचनाकारों ने प्रेमचंद को 'सालिगराम ' बनाकर झोरी में रख दिया.
लेकिन मुझे लगता है कि यह एक भूल थी. इतने वर्षों बाद आज हम कहानी मे जिस 'कहन' और किस्सागोई के लिेए छटपटा रहे हैं, उसे हमने ही निकाल कर फेंक दिया था.उसी के साथ फेंक दिए गये थे प्रेमचंद. जो समय और महाजनी कुचक्र हमें विक्षिप्त किए जा रहे थे , उसी की दवा थी प्रेमचंद की कथाशैली.
प्रेमचंद के साहित्य की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वह है, उसकी 'शाश्वत -समकालीनता'. या कम से कम , दीर्घ-समकालीनता. समय का चरित्र , उस समय के लोग बनाते हैं, और लोगों को बनाती है वह संस्कृति जो शताब्दियों की अंतर्क्रिया और अनुभवों के द्वंद्व से बनती है. प्रेमचंद की खूबी है कि वो संस्कृति की मुख्यधारा मे उतरते हैं. तट से नदी की धार को नहीं देखते. संस्कृति की यही पहचान प्रेमचंद के साहित्य को एक दीर्घ-समकालीनता प्रदान करती है. यही वज़ह है कि हम आज कोई भी प्रशन उठाएं तो पाते हैं कि प्रेमचंद पहले ही उन प्रश्नों से टकरा रहे थे. फर्क सिर्फ इतना था कि उस समय उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर जल्दी और सहजता से मिल जा रहे थे ( जाहिर है, ज़्यादातर उत्तर उनके आदर्शवाद से ही निकल कर आ रहे थे.). जबकि आज एक प्रश्न के कई उत्तर रचनाकारों के सामने हैं. विडंबना यह है कि सब सही भी लगते हैं.
इसी से जुड़ी हुई एक और बात कहना चाहता हूँ....प्रेमचंद ने अपने वर्गशत्रु को पहचाना था. उनके सामने वह महाजन बिल्कुल साफ था जो सब कुछ खरीद लेने और सबको बेंच देने को तैयार था. वो पुरोहित-पंडे-ज़मींदार स्पष्ट थे जो समाज में होरी-धनिया और सूरदास बनाते थे. जीवन के वे अन्तर्विरोध भी स्पष्ट थे जो घीसू-माधव जैसे व्यक्तित्वों का निर्माण कर रहे थे...लेकिन आज हमारा वर्गशत्रु या तो अस्पष्ट है या हम अपने वर्गशत्रु के साथ मिले हुए हैं...हमारा साहित्य अगर किसी भी परिवर्तन का आधार बन पाने में अक्षम लग रहा है, तो उसके पीछे शत्रुओं के साथ हमारा रात्रिभोज एक प्रमुख कारण है.
प्रेमचंद किसी विचारधारा के प्रवक्ता नहीं बने. राजेन्द्र यादव प्रेमचंद की 'हंस ' को चाहे जो बना दें, प्रगतिशील भले ही प्रेमचंद को अपनी ' हिप-पॅाकेट ' में रखें, गाँधी के अनुयायी चाहे उन्हें लाठी बना लें, पर सच यही है कि प्रेमचंद इनमें से किसी के साथ कभी बंधे नहीं. फिर भी वो महान लेखक थे ! यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या विचार धारा किसी लेखक को छोटा या बड़ा बनाती है ? अगर ऐसा होता तो एक महान विचारधारा का हर लेखक बड़ा होना चाहिए..!
मेरी समझ में बड़ा लेखक
वही बनता है जो अपने 'समय' को बड़े समय में और अपनी ' स्थानीयता ' को 'देश ' में बदलने का हौसला करता है. प्रेमचंद ने यही किया.
वो किसी विचार के प्रवक्ता नहीं बने , बल्कि भारत के उन दलितों, शोषितों और स्त्रियों की आवाज़ बने जिनका कोई नही
था...जिनकी नारकीय ज़िन्दगी को सामाजिक गौरव की तरह गाया जा रहा था, और जिसे वेद-पौराणिक उदाहरणो से पुष्ट करके, प्राकृतिक न्याय के तहत कानून बनाने की तैयारी चल रही
थी.
प्रेमचंद के बारे में जब लोग कहते है कि वे गाँधीवादी थे तो हँसी आती है. अव्वल तो ये कि गाँधीवाद जैसा कोई वाद हो नहीं सकता, क्योंकि गाँधी खुद इतने अंतर्विरोधों से घिरे हुए थे, और उनके सिद्धान्तों में इतनी सापेक्षता होती है कि उनका कोई ' वाद ' चलाया ही नहीं जा सकता. गाँधी जी की नैतिकताओं को आधार मानकर प्रेमचंद को देखा जाये तो भी उनका कथा साहित्य और विचार-साहित्य एकदम अलग जाते हुए दिखते हैं. गाँधी सत्य के अन्यतम् आग्रही होते हुए भी सामाजिक रीतियों को तोड़ने का साहस कम ही कर पाते हैं, जबकि प्रेमचंद ने रचनाओं में कई ऐसी मान्यताओं से विद्रोह किया है जो न केवल सर्वमान्य थीं, बल्कि उन्हें संवैधानिक और धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई थी. कई बार तो प्रेमचंद, गाँधी के आन्दोलनों पर गंभीर सवाल भी उठा देते हैं. ‘प्रेमाश्रम’ में अंत तक आते-आते सत्याग्रह पर उनकी आस्था डोल जाती है. सरकारी अत्याचार के आगे किसानों को असहाय देखकर प्रेमचंद ने लिखा—“ इन अत्याचारों को रोकनेवाला अब कौन था ? सत्याग्रह में अन्याय को दमन करने की शक्ति है—यह सिद्धान्त भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हो गया.”………यह कथन स्पष्ट करता है कि अन्याय और शोषण से मुक्ति के लिए प्रेमचंद, गांधी के रास्तों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे.
प्रेमचंद ' श्रमिक चेतना ' के नहीं बल्कि ' कृषक चेतना ' के कथाकार थे. शायद यही वज़ह है कि प्रगतिशीलों ने उन्हें इतनी तरजीह नहीं दी और अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में संकोच किया. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि कुछ छिटपुट लेखन के अलावा आज भी 'किसान' की उपस्थिति , प्रगतिशील लेखन की मुख्य धारा में नहीं है. भारत के वामपंथी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने किसानों के लिए वैसी लड़ाई कभी नहीं लड़ी जैसी कि किसी मिल के दस-पांच मज़दूरों के लिए ही लड़ जाते हैं.
हम अगर आज भी शुरुआत करें तो प्रेमचंद अभी ज़्यादा पुराने नहीं हुए हैं कि 'छूट गये ' लगने लगें. हम चाहें तो उनकी शाश्वत समकालीनता में लेखन की सार्थकता और परिवर्तन का हौसला पा सकते हैं.
प्रेमचंद के बारे में जब लोग कहते है कि वे गाँधीवादी थे तो हँसी आती है. अव्वल तो ये कि गाँधीवाद जैसा कोई वाद हो नहीं सकता, क्योंकि गाँधी खुद इतने अंतर्विरोधों से घिरे हुए थे, और उनके सिद्धान्तों में इतनी सापेक्षता होती है कि उनका कोई ' वाद ' चलाया ही नहीं जा सकता. गाँधी जी की नैतिकताओं को आधार मानकर प्रेमचंद को देखा जाये तो भी उनका कथा साहित्य और विचार-साहित्य एकदम अलग जाते हुए दिखते हैं. गाँधी सत्य के अन्यतम् आग्रही होते हुए भी सामाजिक रीतियों को तोड़ने का साहस कम ही कर पाते हैं, जबकि प्रेमचंद ने रचनाओं में कई ऐसी मान्यताओं से विद्रोह किया है जो न केवल सर्वमान्य थीं, बल्कि उन्हें संवैधानिक और धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई थी. कई बार तो प्रेमचंद, गाँधी के आन्दोलनों पर गंभीर सवाल भी उठा देते हैं. ‘प्रेमाश्रम’ में अंत तक आते-आते सत्याग्रह पर उनकी आस्था डोल जाती है. सरकारी अत्याचार के आगे किसानों को असहाय देखकर प्रेमचंद ने लिखा—“ इन अत्याचारों को रोकनेवाला अब कौन था ? सत्याग्रह में अन्याय को दमन करने की शक्ति है—यह सिद्धान्त भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हो गया.”………यह कथन स्पष्ट करता है कि अन्याय और शोषण से मुक्ति के लिए प्रेमचंद, गांधी के रास्तों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे.
प्रेमचंद ' श्रमिक चेतना ' के नहीं बल्कि ' कृषक चेतना ' के कथाकार थे. शायद यही वज़ह है कि प्रगतिशीलों ने उन्हें इतनी तरजीह नहीं दी और अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में संकोच किया. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि कुछ छिटपुट लेखन के अलावा आज भी 'किसान' की उपस्थिति , प्रगतिशील लेखन की मुख्य धारा में नहीं है. भारत के वामपंथी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने किसानों के लिए वैसी लड़ाई कभी नहीं लड़ी जैसी कि किसी मिल के दस-पांच मज़दूरों के लिए ही लड़ जाते हैं.
हम अगर आज भी शुरुआत करें तो प्रेमचंद अभी ज़्यादा पुराने नहीं हुए हैं कि 'छूट गये ' लगने लगें. हम चाहें तो उनकी शाश्वत समकालीनता में लेखन की सार्थकता और परिवर्तन का हौसला पा सकते हैं.