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Tuesday, 31 July 2012

प्रेमचंद की कोई परंपरा नहीं है !


(जन्मदिन पर प्रेमचंद को याद करते हुए)





प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के तोरण-द्वार हैं.
कोई भी पाठक जब हिन्दी साहित्य के प्रति प्रेमोन्मुख होता है तो वह प्रेमचंदोन्मुख ही होता है. प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को जो लोकप्रियता, पठनीयता और सम्प्रेषणीयता दी, वह अद्वितीय है. उन्होने भारत को भारत से ही परिचित कराया.

लेकिन जैसा तोरण-द्वार के साथ होता है कि उसके नीचे से गुजरकर लोग उसे पीछे छोड़ देते हैं, प्रेमचंद के साथ भी यही हुआ. हिन्दी साहित्य और साहित्यकार आगे बढ़ गये और प्रेमचंद पीछे छूट गये.आगे की पूरी पीढ़ी उन्हें कथासम्राट, शोषितों-दलितों का मसीहा, गाँधीवादी, प्रगतिशील इत्यादि कहकर जयंती मना लेती है...फिर चुप.

इसमें कोई शक नहीं है कि 12 उपन्यासों और लगभग 300 कहानियों में विस्तीर्ण प्रेमचंद का कथा-साहित्य, अपने विषय-संवेदना-पात्रों-भाषा और प्रभाव में दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहित्य के साथ साधिकार खड़ा होता है. मैं बिना संकोच और लिहाज के कहना चाहता हूँ कि उनकी लोकप्रियता और विश्व-साहित्य में उनके स्थान के पीछे न तो हमारे आलोचकों की कोई सदभावना है और न ही आगे के कथाकारों का परम्पराबोध. प्रेमचंद को यह स्थान दिलाते हैं--घीसू, माधव, होरी, धनिया और सूरदास जैसे पात्र एवम् कफ़न,गोदान,रंगभूमि जैसी रचनाएँ.

प्रेमचंद के उपन्यासों में तत्कालीन समय के सामाजिक संघर्षों और बदलावों के चित्र मिलते हैं. प्रेमचंद के समकाल में समाज जिस गति से बदल रहा था, वैसी गति उसके पहले या बाद में नहीं देखी गयी थी. एक दशक में पीढ़ियों जैसा बदलाव हो रहा था. जमीदार वर्ग एक उदार चोला पहन कर सामने आ रहा था. यह नया वर्ग अधिक चालाक और चरित्र में काइयाँ था. याद कीजिए गोदान के रायसाहब और प्रेमाश्रम के ज्ञानशंकर को. सरकारी हस्तक्षेप के कारण ज़मीदारी का रुतबा कम होता देख इन लोगों ने महाजनों से गठजोड़ कर लिया. जमीदारों की स्पष्ट छवि के विपरीत इनका चरित्र बेहद संश्लिष्ट था. महाजनी सभ्यता के पहले की जागीरदारी सभ्यता में शोषण कम था. लेकिन बाद के समय में हुए गठजोड़ ने किसानो और गरीबों का खूब शोषण किया. शोषण का यह मंज़र प्रेमचंद के दृष्टिपथ में था. प्रेमाश्रम का आधार किसान-ज़मीदार संघर्ष था. गोदानमें किसान-महाजन की समस्या है. रंगभूमिमें औद्योगीकरण से गांवों में हो रहे बदलावों को चित्रित किया गया है, तो कर्मभूमिमें अछूत समस्या और लगानबन्दी-आन्दोलन का चित्रण है. समाज के इतने अलग-अलग स्तरों की पहचान रखने वाले दूसरे साहित्यिक संसार में शायद ही मिलें. अपने युग और समाज की पीड़ा को जिस तरह से प्रेमचंद ने महसूस किया है, वैसा बहुत कम लोग कर पाते हैं. गाँधी ने उसी दौर में जिस तरह राजनीति की परतों को देखा था और उसे प्रभावित किया था, उसी तरह प्रेमचंद समाज को कर रहे थे.

यह प्रश्न विचारणीय है कि भारतीय समाज, खासतौर से भारतीय ग्राम्य-जीवन के इस अप्रतिम कथाकार की कोई परंपरा आगे के कथाकारों में नहीं मिलती, या इसे ऐसे कहना ज़्यादा ठीक रहेगा कि आगे का कोई कथाकार अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में कतराता हुआ सा दिखता है. हमारे समकालीन कथाकार रेणु की परंपरा से जुड़ने को आतुर दिखते हैं, यशपाल से जुड़ने में गर्व मानते हैं. यहाँ तक कि कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव तक की परंपरा की बात होने लगी है, लेकिन किसी भी कथाकार के बारे में ऐसा कोई नहीं कहता कि यह प्रेमचंद के आगे का या पीछे का कथाकार है.

बाद के कथाकारों की दिक्कत समझ में आती है. प्रेमचंद का साहित्य ,यथार्थ की चाहे जितनी ठोस ज़मीन पर क्यों न खड़ा हो, उसकी परिणति आदर्शवाद में होती है. आप उनकी कोई भी रचना देखिए, प्रेमचंद एक आदर्श व्यवस्था की रचना करते हुए दिखते हैं--वह व्यवस्था चाहे जीवन में हो या समाज या राजनीति या अर्थनीति में.

मेरे खयाल में यही वह बिन्दु है जहाँ से प्रेमचंद अपने उत्तराधिकारियों द्वारा भुलाये जाने लगे. उनका आदर्शवाद आगे के रचनाकारों को प्रेरित नहीं कर सका क्योंकि युग और समय का यथार्थ उस आदर्श से अलग था. समय और जीवन, दोनो उत्तरोत्तर जटिल होते जा रहे थे.यथार्थ को पकड़ना और समझना इतना कठिन हो गया कि उसे व्यक्त करना और अधिक मुश्किल होता गया. ऐसे में कथाकारों की सारी रचनात्मक मेधा एक अजीबोगरीब आत्महन्ता यांत्रिकी में उलझती गई. अब प्रेमचंद के ज़माने जैसी मासूम किस्सागोई नहीं रह गई थी. अब कई कथाकार यथार्थ की पड़ताल और 'कथाश्रम' में विक्षिप्त भी होने लगे थे...उनके सामने समय अपने रूप और यौवन की दुर्निवार चुनौतियाँ पेश कर रहा है...तो रचनाकारों ने प्रेमचंद को 'सालिगराम ' बनाकर झोरी में रख दिया.

लेकिन मुझे लगता है कि यह एक भूल थी. इतने वर्षों बाद आज हम कहानी मे जिस 'कहन' और किस्सागोई के लिेए छटपटा रहे हैं, उसे हमने ही निकाल कर फेंक दिया था.उसी के साथ फेंक दिए गये थे प्रेमचंद. जो समय और महाजनी कुचक्र हमें विक्षिप्त किए जा रहे थे , उसी की दवा थी प्रेमचंद की कथाशैली.



प्रेमचंद के साहित्य की जो बात मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है वह है, उसकी 'शाश्वत -समकालीनता'. या कम से कम , दीर्घ-समकालीनता. समय का चरित्र , उस समय के लोग बनाते हैं, और लोगों को बनाती है वह संस्कृति जो शताब्दियों की अंतर्क्रिया और अनुभवों के द्वंद्व से बनती है. प्रेमचंद की खूबी है कि वो संस्कृति की मुख्यधारा मे उतरते हैं. तट से नदी की धार को नहीं देखते. संस्कृति की यही पहचान प्रेमचंद के साहित्य को एक दीर्घ-समकालीनता प्रदान करती है. यही वज़ह है कि हम आज कोई भी प्रशन उठाएं तो पाते हैं कि प्रेमचंद पहले ही उन प्रश्नों से टकरा रहे थे. फर्क सिर्फ इतना था कि उस समय उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर जल्दी और सहजता से मिल जा रहे थे ( जाहिर है, ज़्यादातर उत्तर उनके आदर्शवाद से ही निकल कर आ रहे थे.). जबकि आज एक प्रश्न के कई उत्तर रचनाकारों के सामने हैं. विडंबना यह है कि सब सही भी लगते हैं.

इसी से जुड़ी हुई एक और बात कहना चाहता हूँ....प्रेमचंद ने अपने वर्गशत्रु को पहचाना था. उनके सामने वह महाजन बिल्कुल साफ था जो सब कुछ खरीद लेने और सबको बेंच देने को तैयार था. वो पुरोहित-पंडे-ज़मींदार स्पष्ट थे जो समाज में होरी-धनिया और सूरदास बनाते थे. जीवन के वे अन्तर्विरोध भी स्पष्ट थे जो घीसू-माधव जैसे व्यक्तित्वों का निर्माण कर रहे थे...लेकिन आज हमारा वर्गशत्रु या तो अस्पष्ट है या हम अपने वर्गशत्रु के साथ मिले हुए हैं...हमारा साहित्य अगर किसी भी परिवर्तन का आधार बन पाने में अक्षम लग रहा है, तो उसके पीछे शत्रुओं के साथ हमारा रात्रिभोज एक प्रमुख कारण है.

प्रेमचंद किसी विचारधारा के प्रवक्ता नहीं बने. राजेन्द्र यादव प्रेमचंद की 'हंस ' को चाहे जो बना दें, प्रगतिशील भले ही प्रेमचंद को अपनी ' हिप-पॅाकेट ' में रखें, गाँधी के अनुयायी चाहे उन्हें लाठी बना लें, पर सच यही है कि प्रेमचंद इनमें से किसी के साथ कभी बंधे नहीं. फिर भी वो महान लेखक थे ! यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या विचार धारा किसी लेखक को छोटा या बड़ा बनाती है ? अगर ऐसा होता तो एक महान विचारधारा का हर लेखक बड़ा होना चाहिए..!

मेरी समझ में बड़ा लेखक वही बनता है जो अपने 'समय' को बड़े समय में और अपनी ' स्थानीयता ' को 'देश ' में बदलने का हौसला करता है. प्रेमचंद ने यही किया. वो किसी विचार के प्रवक्ता नहीं बने , बल्कि भारत के उन दलितों, शोषितों और स्त्रियों की आवाज़ बने जिनका कोई नही था...जिनकी नारकीय ज़िन्दगी को सामाजिक गौरव की तरह गाया जा रहा था, और जिसे वेद-पौराणिक उदाहरणो से पुष्ट करके, प्राकृतिक न्याय के तहत कानून बनाने की तैयारी चल रही थी.

प्रेमचंद के बारे में जब लोग कहते है कि वे गाँधीवादी थे तो हँसी आती है. अव्वल तो ये कि गाँधीवाद जैसा कोई वाद हो नहीं सकता, क्योंकि गाँधी खुद इतने अंतर्विरोधों से घिरे हुए थे, और उनके सिद्धान्तों में इतनी सापेक्षता होती है कि उनका कोई ' वाद ' चलाया ही नहीं जा सकता. गाँधी जी की नैतिकताओं को आधार मानकर प्रेमचंद को देखा जाये तो भी उनका कथा साहित्य और विचार-साहित्य एकदम अलग जाते हुए दिखते हैं. गाँधी सत्य के अन्यतम् आग्रही होते हुए भी सामाजिक रीतियों को तोड़ने का साहस कम ही कर पाते हैं, जबकि प्रेमचंद ने रचनाओं में कई ऐसी मान्यताओं से विद्रोह किया है जो न केवल सर्वमान्य थीं, बल्कि उन्हें संवैधानिक और धार्मिक स्वीकृति भी मिली हुई थी. कई बार तो प्रेमचंद, गाँधी के आन्दोलनों पर गंभीर सवाल भी उठा देते हैं. प्रेमाश्रममें अंत तक आते-आते सत्याग्रह पर उनकी आस्था डोल जाती है. सरकारी अत्याचार के आगे किसानों को असहाय देखकर प्रेमचंद ने लिखा—इन अत्याचारों को रोकनेवाला अब कौन था ? सत्याग्रह में अन्याय को दमन करने की शक्ति है—यह सिद्धान्त भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हो गया.”………यह कथन स्पष्ट करता है कि अन्याय और शोषण से मुक्ति के लिए प्रेमचंद, गांधी के रास्तों से आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे.

प्रेमचंद ' श्रमिक चेतना ' के नहीं बल्कि ' कृषक चेतना ' के कथाकार थे. शायद यही वज़ह है कि प्रगतिशीलों ने उन्हें इतनी तरजीह नहीं दी और अपने को प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ने में संकोच किया. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि कुछ छिटपुट लेखन के अलावा आज भी 'किसान' की उपस्थिति , प्रगतिशील लेखन की मुख्य धारा में नहीं है. भारत के वामपंथी राजनेताओं और बुद्धिजीवियों ने किसानों के लिए वैसी लड़ाई कभी नहीं लड़ी जैसी कि किसी मिल के दस-पांच मज़दूरों के लिए ही लड़ जाते हैं.

हम अगर आज भी शुरुआत करें तो प्रेमचंद अभी ज़्यादा पुराने नहीं हुए हैं कि 'छूट गये ' लगने लगें. हम चाहें तो उनकी शाश्वत समकालीनता में लेखन की सार्थकता और परिवर्तन का हौसला पा सकते हैं.

Saturday, 28 July 2012

86 के नामवर : सलूक जिससे किया मैने आशिकाना किया !








श्रोताओं को मुग्ध करते, विरोधियों को चित्त करते हुए नामवर सिंह आज छियासी साल के हो गये.
दूसरी परंपरा के प्रथम प्रवक्ता और फिर नायक, नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. ऊसर गाँव (बनारस जिले का जीयनपुर) के स्कूल मास्टर नागर सिंह के तीन बेटों में सबसे बड़े बेटे प्रो. नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. चना और सेतुआ खाकर लोलार्क कुंड पर तपस्या करने वाले, काशीनाथ और रामजी सिंह के बड़े भैय्या, नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. नगेन्द्र, नन्ददुलारे बाजपेयी जैसों की स्थापनाओं को ध्वस्त करते हुए आचार्य नामवर सिंह छियासी साल के हो गये. ब्राह्मणों में ठाकुर और ठाकुरों में कुजात (बकौल काशीनाथ सिंह), नामवर सिंह आज छियासी साल के हो गये.

छियासी साल का होना न कोई नयी बात है और न कोई बड़ी बात है. दुनिया भर में और हिन्दी में ही न जाने कितने लोग आये दिन छियासी के होते हैं. तो फिर बड़ी बात क्या है ?  बड़ी बात है हिन्दी की ऊर्ध्वगामी चेतना का शिखर होकर छियासी का होना ! बड़ी बात है हिन्दी जाति का गौरव होकर छियासी का होना !! उससे भी बड़ी बात है कि एक पूरे युग का रहनुमा होकर छियासी का होना.

नामवर सिंह उन दिनों से हमारे नायक हैं जब हमें लिखने-पढ़ने की तमीज़ बहुत कम थी. (हालांकि अब भी ज़्यादा नहीं है). उनके नाम की धमक लगातार हमारे कानों और मन के परदे पर होती रहती थी. संयोग से अल्पायु में ही उनसे मिलने, उनको सुनने और उनको कविताएँ सुनाने, उनको दही-जलेबी खिलाने और उनके सामने भाषण देने की गुस्ताखी करने का अवसर भी मिल गया था. यह दुर्लभ संयोग रीवा और भोपाल के कुछ कार्यक्रमों में घटित हुआ. होने को तो और भी बड़े लोग वहाँ मौजूद होते थे पर हम जैसों की नज़रें नामवर जी को खोजती रहती थीं और एक बार जो उनसे चिपकतीं तो फिर संसार के सारे नज़ारे बेमानी हो जाते थे. उनकी एक-एक भंगिमा हमारे लिए वस्तु अमोलक होती. बाद के वर्षों में उनसे मिलना न हो पाने के कारण हमें एकलव्य की परंपरा का शिष्य ही बनना पड़ा नामवर सिंह का. यह सोच कर बड़ा रोमांच होता है कि कितने भाग्यशाली रहे होंगे वे लोग जिन्हें प्रो. नामवर सिंह का शिष्य होने का अवसर मिला !

शायद उतने ही सौभाग्यशाली, जितने सौभाग्यशाली नामवर सिंह थे, काशी विवि में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सबसे प्रिय शिष्य बनकर !! उन दिनों हजारी प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक यशस्वी विद्वान थे. हिन्दी आलोचना शास्त्र को जड़ता से मुक्त कर रहे थे. और उन्हें एक अदद अर्जुन की ज़रूरत थी. ऐसे में नामवर जैसा शिष्य मिलना आचार्य द्विवेदी का भी सौभाग्य ही था. किसी ने ठीक ही कहा है कि हजारी बाबू हिन्दी आलोचना में शुक्लोत्तर आलोचना के शलाका-पुरुष नहीं बनते, यदि नामवर अपनी प्रतिबद्ध आस्थाओं के पार जाकर, अपने काव्यगुणी आलोचक संस्कार और अध्ययन के आधार पर हजारी बाबू को आधुनिक हिन्दी  का सर्वाधिक चेतनाशील और सर्जनात्मक आलोचक सिद्ध न करते.

इस गुत्थी को यहीं सुलझा लेते हैं कि वह कौन सी प्रतिबद्ध आस्थाएँ थीं नामवर सिंह की, जिनके पार उन्हें जाना पड़ा अपने अध्ययन, अध्यवसाय और साहित्यिक संस्कारों में नामवर मार्क्सवादी थे. यह मार्क्सवाद उनमें साहित्य के ज़रिए आया. द्वन्द्वात्मकता नामवर सिंह के स्वभाव में थी. साहित्य के सम्पर्क में आने पर उनका यह स्वभाव उन्हें मार्क्सवाद में गहरे उतार ले गया. मार्क्सवाद का परंपरा और अतीत से गहरा विराग था. मार्क्सवाद के अपने सिद्धान्त थे. अपने पैमाने थे. उन्ही के आधार पर वह समाज और साहित्य का मूल्यांकन करता था. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संस्कृत साहित्य-ज्योतिष के विद्वान थे. उनकी गति अतीत और परंपरा में थी. यद्यपि आचार्य द्विवेदी संस्कृत और हिन्दी वाण्गमय में उन तत्वों को खोज रहे थे जो मानव चेतना और  समाज को ऊर्ध्वगामी बना सकें, लेकिन मार्क्सवादी मानस  को इससे संगति बैठाना बहुत मुश्किल काम था. यह काम मछली की आँख भेदने जैसा ही चुनौतीपूर्ण था. तभी आचार्य द्विवेदी के अर्जुन बने नामवर सिंह. जिस दूसरी परंपरा की खोज आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की, उसके आजीवन और अधिकृत प्रवक्ता बने रहे नामवर सिंह. न सिर्फ प्रवक्ता बल्कि आगे चलकर इस दूसरी परंपरा के नायक भी नामवर सिंह ही बने.

यह सवाल उठना सहज भी है और ज़रूरी भी कि आखिर नामवर के होने से हिन्दी में क्या हुआ ? क्यों हिन्दी जगत उन पर इतना रीझा हुआ है ?? ऐसा तो था नहीं कि नामवर के आने तक हिन्दी में आलोचक नहीं थे, या आलोचना की परंपरा नहीं थी. नामवर जब आये तब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी के अपने-अपने मजबूत गढ़ थे. इन्हीं के इर्द-गिर्द नन्ददुलारे बाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, धीरेन्द्र वर्मा के किले भी बन रहे थे. फिर नामवर ने ऐसा क्या किया कि वे हिन्दी आलोचना के सिरमौर हो गये ?

नामवर जी जब साहित्य में आये तो कविताएँ और ललित-निबन्ध लिखते थे. हालाँकि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी थी जो बनारस के उदय प्रताप कॉलेज की पत्रिका में छपी थी. लेकिन उसके बाद उन्होंने कभी कोई कहानी नहीं लिखी. लेकिन उनकी आलोचना की शुरुआत ही कहानी से हुई. तब तक हमारे देश में कहानी की आलोचना की कोई परंपरा और प्रविधि नहीं थी. सच तो यह है कि कहानी को आलोचना के लायक ही नहीं माना जा रहा था. लेकिन नामवर सिंह कहानी में हो रहे सूक्ष्म और आंतरिक बदलावों को देख पा रहे थे. उन्होने भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका नई कहानियाँमें लगातार आलेख लिखे. बाद में इन्हीं आलेखों को संकलित कर उनकी पुस्तक कहानी, नयी कहानीबनी. इस पुस्तक ने आते ही हिन्दी आलोचना जगत में खलबली मचा दी. रूप-रस-छंद-अलेकार में मस्त आलोचना को नयी ज़गहों पर जीवन के स्पन्दन महसूस हुए. रातों-रात निर्मल वर्मा सुपर स्टार हो गये.

कविता के क्षेत्र में अराजकता का माहौल था. कवि-समाज दुविधाग्रस्त था. नई कविता, अकविता, गद्य कविता, प्रयोगवादी कविता, गीतिकाव्य और न जाने कितने तरह की कविताएं घोषित हो रही थीं और कवि-समाज इन्हीं में भटका हुआ था. उनको राह दिखाने वाला कोई आलोचक नहीं था. तब नामवर सिंह ने कविता के नये प्रतिमानकिताब लिखी. इस किताब ने चमत्कार किया. सबसे पहली बात तो यह हुई कि दिग्भ्रमित कवि-गण यह समझ पाये कि कविता के उपरोक्त पारिभाषिक नामों के चक्कर न पड़कर कुछ ऐसा लिखना है जो मनुष्य को और बेहतर मनुष्य तथा प्रकृति-समाज के प्रति सहिष्णु बनाए. नामवर ने कविता को सूत्र और छंद के संसार से बाहर खुली प्रकृति में सांस लेने देने की वकालत की, जिसका युगांतकारी प्रभाव हिन्दी कविता पर पड़ा.

नामवर सिंह हमेशा आलोचना को सहयोगी प्रयासकहते थे. यद्यपि उनके शुरुआती दौर में उन्हें लेखक समाज से उस  तरह का सहयोग नहीं मिला, लेकिन वे अपनी इस मूल-प्रतिज्ञा पर आज तक अटल हैं. वे आलोचना को कोई रूढ़ पद्धति नहीं मानते थे. उनका कहना था कि आलोचना, रचना के समान्तर निरन्तर विकसित होने वाली प्रक्रिया है. इसलिए रचना की प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों के साथ आलोचना को भी बदलना चाहिए. इसी बिन्दु पर वे मार्क्सवादी आलोचना पद्धति का विरोध करते हुए भी दिखते थे, जिसमें पूर्व-निर्धारित सूत्रों के आधार पर साहित्य-कला का मूल्यांकन करने की बात कही जाती रही है.

यही एक बात नामवर सिंह को प्रसिद्ध भी करती गई और विवादित भी. आलोचना की समय-सापेक्षता की उनकी अवधारणा को उनका अवसरवाद भी कहा गया. नामवर के समावेशी स्वभाव को उनकी चतुराई समझा गया. अज्ञेय को वर्षों तक नामवर सिंह उपेक्षित करते रहे. लेकिन पिछले साल अज्ञेय की जन्मशती के अवसर पर उन्होने स्वीकार किया कि अज्ञेय को समझने में उनसे भूल हुई. समय-समय वो अपनी स्थापनाओं से विवादित होते रहे हैं. अपने आलोचक जीवन के शुरुआती दौर में वो तब निशाने पर  आ गये जब उन्होने निर्मल वर्मा की कहानी परिन्दे को नई कहानी की पहली और प्रतिनिधि कहानी बता दिया. उस पर उनका एक पूरा लेख ही है लम्बा. ज्ञातव्य है कि निर्मल वर्मा को कलावादी माना जाता है, और प्रगतिशील धारा का कलावाद से स्वाभाविक विरोध है. नामवर, प्रगतिशीलों के निर्विवाद नेता. फिर एक कलावादी को बड़ा कहानीकार कैसे घोषित कर सकते हैं ! नामवर में शुरू से ही यह प्रताप था कि वो जिसे घोषित कर देते थे, वही रातों-रात श्रेष्ठ कवि-लेखक हो जाता था. निर्मल वर्मा, धूमिल, अमरकान्त, उषा प्रियंवदा, मुक्तिबोध की पहली घोषणा नामवर ने ही की थी.

एक बार काशीनाथ सिंह ने नामवर जी से जब पूछा कि कोई ऐसा वाद-विवाद या संवाद जिसमें आपका बदला लेने या सबक सिखाने का भाव रहा हो ? जवाब में नामवर सिंह ने कहा कि उन्होंने व्यक्तिगत आक्षेपों को अनदेखा किया और दस्त-ए-अदू के साथ भी फ़ैज़ के अंदाज़ में सलूक जिससे किया मैने आशिकाना किया’ .

हाँ, यही अंदाज़ है नामवर सिंह का अपने विरोधियों से लड़ने का. उनके सूत्र-कथन, हिन्दी जगत के लिए कर्बला-पानीपत और प्लासी के मैदान बनते रहे तो कभी शिमला और ताशकंद. विरोधियों की कमी कभी उन्हें रही नहीं. या यह कहना ज्यादा सही होगा कि नामवर खुद ही विरोधी बन जाते हैं. उनके बारे में कहा जाता है कि जब वो अपना विरोधी तय कर लेते हैं, तब उनकी प्रतिभा और निखर कर सामने आती है. दूसरी परंपरा की खोज में रामचन्द्र शुक्ल उनके निशाने पर हैं, तो कविता के नये प्रतिमानमें शुक्लजी के उत्राधिकारी डॉ. नगेन्द्र. कहा यह भी जाता है कि रामविलास शर्मा के विरोध में जब-तब नामवर अभियान चलाते रहते थे. रामविलास जी को तो उन्होने उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं छोड़ा. इतिहास की शव साधनानामक निबन्ध में उनको लगभग ध्वस्त कर देने की कोशिश नामवर जी ने की. लेकिन नामवर का विरोध और लड़ाई व्यक्तित्वगत और निजी कभी नहीं होती थी. अपने विपक्षी का पूरा आदर करते हुए वो उसकी स्थापनाओं का खंडन करते थे. नामवर जी अपने शिष्यों और मित्रों को अक्सर ग्राम्शी का वह कथन बताते थे---युद्ध के मोर्चे पर दुश्मन के सबसे कमज़ोर पक्ष पर आक्रमण करना भले ही सफल रणनीति हो, लेकिन बौद्धिक मोर्चे पर दुश्मन के सबसे मजबूत पक्ष पर आक्रमण करना ही सफल रणनीति है.

तो ऐसे हैं हमारे वे नामवर सिंह जिन्हें हम आज देखते हैं. पर ऐसी प्रतिभा बनती कैसे है ! क्या खाकर ऐसे व्यक्तित्व बनते हैं संसार में !! काशीनाथ सिंह की माने तो फुलाया हुआ चना और सेतुआ खाने से नामवर सिंह जैसा प्रतापी आलोचक हिन्दी में हुआ. प्रसिद्ध कथाकार-संस्मरण लेखक-साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता काशीनाथ सिंह नामवर सिंह के छोटे भाई हैं. नामवर के विद्यार्थी जीवन से लेकर दिल्ली जाने तक वही नामवर के मातु-पिता-सखा और भार्या थे. काशीनाथ सिंह और नामवर सिंह का ऐसा संबन्ध था कि जब दोनो एक दूसरे को संबोधित होते हैं तो दोनो की रचनात्मकता अपने चरम पर होती है. नामवर जी ने ही कहीं लिखा था कि मेरे बिना काशीनाथ जो होते सो होते, लेकिन काशीनाथ के बिना मैं नामवर न होता. काशीनाथ जी ने अपने संसमरणों में कई ज़गह नामवर के उन दिनों को याद किया है, जब नामवर जैसी विलक्षण प्रतिभा को भी कुचक्रों के चलते नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़ा. एक दौर में बेहद गरीबी का जीवन भी जिया दोनों भाइयों ने. काशी और सागर विवि से निष्कासित किये गये नामवर सिंह. इन तमाम बातों को काशीनाथ सिंह ने गरबीली गरीबी वह, जीयनपुर’, ‘घर का जोगी जोगड़ाआदि संस्मरणों में अद्भुत संवेदना के साथ लिखा है. कुछ ज़गहों पर काशीनाथ सिंह ने नामवर जी की उस अध्ययनवृत्ति पर भी विस्तार से लिखा है जिसके कारण नामवर का निर्माण हुआ. एक ज़गह वो लिखते हैं---मैने आज तक, ऐसे किसी आदमी की कल्पना नहीं की थी, जिसके सारे दुखों, सारी परेशानियों, पराजयों, तिरस्कारों और अपमानों का विकल्प अध्ययन हो.

आज निर्विवाद रूप से नामवर सिंह हिन्दी का अभिमान हैं. अभी वे छियासी के ही हुए हैं. अगर अपनी उम्र देकर किसी की आयु बढ़ाई जा सकती तो हिन्दी का हर लेखक नामवर जी को अपनी उम्र का कुछ हिस्सा देने को दौड़ पड़ेगा, जैसे उनके भाषण सुनने को लोग दौड़ पड़ते हैं.

फिलहाल इस लेख का समापन, विश्वनाथ त्रिपाठी के इस वक्तव्य से करते हैं---नामवर जी की आस्वाद-क्षमता, हिन्दी पाठकों की आस्वाद-क्षमता में रूपान्तरित हुई है, और हो रही हैमाध्यम है उनकी आलोचना.

अपने इस नायक के जन्मदिन पर हम उनकी दीर्घायु की कामना करते हैं ।

Monday, 16 July 2012

पीड़ा का निजीकरण…..संदर्भः तीन लेखकों का प्रपत्र





मध्यप्रदेश में भारत भवन सहित दूसरे कला और साहित्य संस्थानों के पराभव पर तीन प्रतिनिधि लेखकों का वक्तव्य देखा तो मन में पहली बात यह आई कि एक सार्वजनिक पीड़ा, व्यक्तिगत पीड़ा की शक्ल में व्यक्त हो गई है. यह प्रपत्र संयुक्त रूप से जारी किया है कुमार अंबुज, राजेश जोशी और नीलेश रघुवंशी ने. कुमार अंबुज प्रगतिशील लेखक संघ से संबद्ध हैं और राजेश जोशी-नीलेश रघुवंशी जनवादी लेखक संघ से. पहले इनकी अपील के प्रमुख अंशों को देखते हैं------------------

“……….पिछले एक दशक में म.प्र. के भारत भवन, साहित्य परिषद, उर्दू अकादमी और कला परिषद सहित कुछ संस्थानों से, समय-समय पर, पृथक-पृथक कारणों से वामपंथी लेखक संगठनो द्वारा प्रत्यक्ष दूरी बनाकर रखी गई है...........
..........वर्तमान सरकार की अन्यथा स्पष्ट सांस्कृतिक नीतियों के चलते, इन संस्थानों का और साथ ही प्रदेश की मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला सृजनपीठों का, वागर्थ, रंगमंडल आदि विभागों का, पिछले आठ-नौ वर्षों में सुनियोजित रूप से पराभवकर दिया गया है. इन संस्थाओं के न्यासियों, सचिवों, उपसचिव और अध्यक्ष पदों पर, जहाँ हमेशा ही हिन्दी साहित्य क् सर्वमान्य और चर्चित लेखकों-कलाकारो की गरिमामय उपस्थिति रही, वहाँ अधिकांश ज़गहों पर ऐसे लोगों की स्थापना की जाती रही है, जो किसी भी प्रकार से साहित्य या कला जगत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर नहीं हैं. उनका हिन्दी साहित्य की प्रखर, तेजस्वी और उस धारा से जो निराला, प्रेमचंद,मुक्तिबोध से निसृत होती है, कोई सम्बन्ध नही बनता है. उनका हिन्दी साहित्य की विशाल परंपरा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नही है, जिनकी हिन्दी साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है. उनमे से अधिकांश की एकमात्र योग्यता सिर्फ यह है कि उनका वर्तमान सरकार की मूल राजनीतिक पार्टी या उनके अनुषंग संगठनों से जुड़ाव, सक्रियता और समर्थन है.......हमारा विरोध किसी राजनीतिक अनुशंसा से उतना नहीं है, क्योंकि व्यस्था में इन पदों पर पहले भी राजनीतिक अनुशंसाओं से लोग नामित किए जाते रहे है, लेकिन वे सब असंदिग्ध रूप से हमारे समकालीन साहित्य के मान्य,समादृत हस्ताक्षर रहे हैं.........
”………….
 
इस वक्तव्य को पढ़ने के बाद इतने सारे सवाल मन में पैदा हो गये हैं कि समझ में नहीं आ रहा है कि बात कहाँ से आगे बढ़ाई जाये.........तो, सबसे पहले मैं इस वक्तव्य में निहित सार्वजनिक चिन्ता के पक्ष में अपना द़ढ़ समर्थन व्यक्त करता हूँ. मुझे लगता है कि म.प्र. के साथ ही पूरे देश में कला एवं साहित्य केन्द्रों का पराभव हुआ है. ज़्यादातर ज़गहों पर सरकार के चाटुकार लोग बैठे हुए हैं.

अपील में कहा गया है कि पिछले आठ-नौ वर्षों में म.प्र. में इन संस्थाओं का पराभव इसलिए हुआ है क्योकि इनमें दक्षिणपंथी सरकार का समर्थन करने वाले लोग बैठे हुए हैं. और यही वज़ह है कि वामपंथी लेखक संगठनों ने इन संस्थाओं से दूरी बना रखी है...........पहली बात तो यह कि इन नौ वर्षों में प्रदेश सरकार ने चुन-चुन कर प्रतिबद्ध वामपंथियों को बाहर किया और जो मध्यममार्गी थे उन्हें अपनी तरफ ले गयी. भाजपा अपना एक बौद्धिक प्रकोष्ठ तैयार करना चाहती है. इसलिए ऐसे लेखक-कलाकार जो पृथक-पृथक कारणों से पहले उपेक्षित थे वो सब सरकारी साहित्य-कला-साधना की मुख्यधारा में बुला लिए गये. नौ साल पहले जब काँग्रेस का शासन था तो यही वामपंथी लेखक-कलाकार सारी संस्थाओं में शोभायमान थे. तब क्या यह स्वीकार कर लिया जाय कि प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा और काँग्रेस की विचारधारा में कोई फर्क नहीं है ?!!

प्रपत्र में भले ही यह कहा जा रहा है कि हमारा विरोध किसी राजनीतिक अनुशंसा से नहीं है, लेकिन यह साफ है कि इसकी वज़ह राजनीतिक भी है......और निश्चित तौर पर होनी भी चाहिए. बिना राजनीतिक चेतना के लेखक या कलाकार नहीं हुआ जा सकता. दरअसल पहले तो ठीक से मनुष्य होने के लिए ही राजनीतिक चेतना होनी जरूरी है. फिर इस प्रपत्र में क्यों कहा जा रहा है कि हमारा कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं है ?? यह इनकार ही इस प्रपत्र को संदिग्ध बना रहा है.

कारण है. अगर ये लेखक राजनीतिक विचारधारा अलग होने के कारण इन संस्थानों से अलग होते तो इन्हें पिछला हिसाब भी देना पड़ता. क्योंकि न तो म.प्र. में और न ही केन्द्र में कभी वामपंथियों की सरकार रही.

यह प्रपत्र व्यक्तिगत पीड़ा का विलाप होने से बच जाता अगर इसमें स्पष्ट तौर पर यह कहा जाता कि हम दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक सोच वाली सरकार का विरोध करते हुए उसके किसी भी उपकार को ग्रहण करने से इनकार करते है. यद्यपि यह सच है, लेकिन यह कहना कि
उनका हिन्दी साहित्य की विशाल परंपरा एवं समकालीन कला-साहित्य से गंभीर परिचय तक नही है, जिनकी हिन्दी साहित्य की समझ स्पष्ट रूप से संदिग्ध है.’…..स्पष्ट रूप से हम लेखकों के दंभ को ही व्यक्त करता है. मानो, हम इन्हीं योग्यताओं के कारण ही पिछली सरकारों से पुरस्कृत होते रहे हैं !!

दरअसल यह प्रपत्र जारी करने की ज़रूरत तब पड़ी जब वामपंथी लेखकों के बीच से ही कुछ लेखक सरकारी कार्यक्रमों में जाने लगे. प्रपत्र जारी होने के बाद इनमें खलबली मचना स्वाभाविक था. अपने हिसाब से इन्होंने सफाइयां भी दीं और प्रतिप्रश्न भी किए. युवा कथाकार चंदन पाण्डेय कहते हैं कि जब तक कोई गलत आदमी/अपराधी का निमंत्रण न हो, तब तक शिरकत हो, बशर्ते आप सामने वाले की नीतियों से सहमत हों.”……यानी चंदन, भारत भवन के संचालकों की नीतियों से सहमत होते हुए ही उनके कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे हैं !!
कवि हरिओम राजोरिया मानते हैं कि इस विरोध को लेखक संगठनो की ओर से आना चाहिए था, व्यक्तिगत रूप से नहीं”. हरिओम ने तो राजेश जोशी की एक फोटो ही फेसबुक पर जारी कर दी, जिसमे राजेश जोशी भारत भवन के एक कार्यक्रम में दीप प्रज्ज्वलन करते हुए दिख रहे हैं. मुक्तिबोध का सहारा लेकर राजेश जोशी से पूछा जा रहा है कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है”. राजेश जी कह रहे हैं कि साथियो, इन्तज़ार करें और भरोसा भी, हमारा स्टैण्ड स्पष्ट है और हम उस पर कायम हैं”……..शायद सरकार बदलने का इन्तजार है !!

इस अपील के बाद कुछ वरिष्ट लेखकों की प्रतिक्रियायें भी आई हैं. भारत भवन के रचयिता अशोक वाजपेयी, कला-साहित्य केन्द्रों के पराभव को स्वीकार करते हुए, राजनीतिक दृष्टि से इनका विरोध न करने की सलाह देते हैं. दूध से हाल ही में जले मंगलेश डबराल स्पष्ट रूप से समर्थन करते हुए अपने विरोध को राजनीतिक कहते हैं. उनका मानना है कि लेखक को अपने समय की व्यवस्थाओं, सत्ताओं और समाज के साथ अपने संबन्धों को परिभाषित करना होता है. मंगलेश जी भारत भवन जाने से इसलिए इनकार करते हैं कि वह जिन राजनीतिक शक्तियों के अधीन है, उनकी विचारधारा से वो सहमत नहीं हैं.

सुधीश पचौरी कुछ उद्विग्न हैं. वो पूछते हैं कि ये लोग(राजेश जोशी,कुमारअंबुज,नीलेश रघुवंशी) कौन हैं जो मैं इनकी बात मानूं ? इन्हें लेखकों को डिक्टेट करने, और जो असहमत है उसे शर्मिन्दा करने का अधिकार किसने दिया ? जब तक इन लोगों के माफिक चलता रहा, तब तक सब ठीक था. इनके विरोध की अपनी राजनीति है. अगर भारत भवन किसी का उपनिवेश बन गया है, तो ये लोग अपनी कॉलोनी बनायें.........सुधीश जी ऐसे लेखक हैं, जिनकी विचारधारा और पालिटिक्स आज तक हिन्दी संसार के सामने स्पष्ट नहीं हो सकी. इसीलिए वो मुख्यधारा के लेखन में कभी भी स्वीकार नहीं किए जा सके.     

अब चलिए इस खेल को भीतर से देखते हैं. आप देख ही रहे होंगे कि पूरे देश में जितनी भी अकादमियां और कला-संस्थान हैं, उनमें सरकार ने अपने पक्षधर और बहुत औसत किस् के लोगों को बैठा रखा है. फिर ये संस्थाएँ चाहे केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की.यह सब बहुत सुनियोजित तरीके से हुआ है. सरकार इन्हीं लोगों को पुरस्कृत भी करती रहती है. ये मठाधीश आपस में भी एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करते रहते हैं. इस रणनीति से सरकार ने बौद्धिक वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की मेधा को पहले ही नियंत्रित कर रखा है. जो कुछ लोग सरकार की कृपा से महरूम हैं या कुछ जो अपनी क्षमताओं को सरकार का गुलाम नहीं बनाना चाहते, उन पर सरकार इस तरह के हमले करने लगी है.

एक वाकया मैं आपको म.प्र. का बताता हूं. म.प्र. की साहित्य अकादमी पिछले कई वर्षों से प्रदेश के लगभग सभी शहरों में पाठक मंच चलाती है. उस शहर के किसी उर्जावान साहित्यकर्मी को संयोजक बना दिया जाता है.अकादमी अपनी ओर से 10-12 किताबें चुनकर सभी केन्द्रों में भिजवाती है.शहर के साहित्य प्रेमियों को ये किताबें पढ़ने को दी जाती हैं. हर महीने एक किताब पर सब लोग चर्चा करते हैं. इस चर्चा की समेकित रपट अकादमी के पास भेजी जाती है. दिखने में यह योजना बहुत शानदार लगती है. पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने की ऐसी योजना शायद किसी और प्रदेश में नहीं है.
         
लेकिन यहाँ भी सरकार के अपने छल-छद्म हैं. तीन साल पहले तक रीवा-पाठक मंच का संयोजक मैं था.तीन साल पहले अमरकंटक में पाठक मंच संयोजकों का वार्षिक सम्मेलन हुआ. वार्षिक सम्मेलन में प्रदेश-देश के ख्यात साहित्यकारों-विचारकों को बुलाकर विचार-विमर्श की परंपरा है. विडम्बना ये है कि सरकार बदलती है तो विचारक भी बदल जाते हैं और अकादमी का संचालक भी. म.प्र.में भाजपा की सरकार पिछले आठ वर्षों से है. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सम्मेलन में विशेषज्ञ के रूप में किन लोगों को बुलाया गया होगा. इस सम्मेलन के दौरान कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने खुलेआम अकादमी संचालक को सलाह दी कि पाठक मंच के ऐसे संयोजकों को तत्काल हटाया जाय जो प्रगतिशील हैं. और नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों के अन्दर मेरे साथ ही कई संयोजक बदल दिए गये. कुछ पाला बदल कर बच गये. कहीं कोई शोर गुल नहीं हुआ.
            
सरकारों का चरित्र अब कुछ ऐसा हो गया है कि किसी भी आवाज. का उन पर अब कोई असर भी नहीं होता. आपको याद ही होगा केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति का कितना विरोध किया था देश भर के साहित्यकारों ने. क्या फर्क पड़ा  ? लेखक-कलाकारों की आवाज़ सुनने की अब आदत ही नहीं रही सरकार को.