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पंजाब के तत्कालीन आतंकवाद को गुलज़ार पश-ए-आइना जाकर देख रहे थे. वे
आतंकवाद को उस तरह नहीं देखते जिस तरह मीडिया देखता है...वे आतंकवाद को उस तरह
नहीं देखते जिस तरह के.पी.एस.गिल देख रहे थे....वे आतंकवाद को उस तरह भी नहीं
देखते जिस तरह प्रधानमंत्री देखते हैं ! गुलज़ार आतंकवाद को उस तरह देखते हैं जिस तरह पंजाब की
हवा देखती है.....जिस तरह मक्के की रोटी और सरसों की साग देखती है...जिस तरह
पंजाबन का चूल्हा देखता है....जिस तरह बूढ़े दारजी अपनी आँखों पर मोटे नम्बर का
चश्मा चढ़ाते हुए देखते हैं. गुलज़ार पंजाब के आतंकवाद को उस तरह से देखते हैं जैसे
वीराँ और उसकी बी जी रात-रात भर जाग कर देखते हैं. जो कहानी गुलज़ार कहते हैं, वो
कोई प्रधानमंत्री, कोई गिल, कोई मीडिया क्या कहेगा !
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जिमी नाम के किसी आतंकवादी ने एक एम.पी. पर कातिलाना हमला किया है. पुलिस
जिमी की तलाश करती हुई पंजाब के एक घर में आती है---पुलिस जसवंत के घर में आती है.
पूछतांछ के लिए जसवंत को पुलिसवाले अपने साथ ले जाते हैं यह कहकर कि आधे घंटे में
छोड़ देंगे. एक दिन-दो दिन-तीन दिन.....जस्सी नहीं लौटा...बी’जी अचेत...वीराँ
चौखट पर रोती हुई....कृपाल जस्सी को खोजता बदहवास---जस्सी लौटा पंद्रह दिन बाद—घायल,
जख्मों से भरा, मरणासन्न, बमुश्किल पानी-पानी बोल पा रहा जस्सी !
जसवंत की हालत से
आहत कृपाल पुलिसवालों को मारने की ठानता है. वीराँ रोकती है पर वह नहीं रुकता. उसे
एक आतंकवादी सनातन का साथ मिलता है. सनातन के परिवार के आधे लोग सन् सैंतालीस के
दंगों में मारे गये और आधे लोग सन् चौरासी के दंगों में. सनातन की मदद से कृपाल
आतंकवादी संगठन का सदस्य बन जाता है. कुछ ही दिनों में जस्सी को प्रताड़ित करने
वाले एक पुलिस अफसर को मारने में सफल हो जाता है. उधर पुलिस वाले जस्सी को फिर
प्रताड़ित करते हैं. तंग होकर जसवंत ने कुएँ में कूदकर जान दे दी. सदमें से बी’जी भी चल बसीं और
वीराँ भी उसी आतंकवादी संगठन में शामिल हो गई जिसमें कृपाल था.कहानी बढ़ती है. एक
खास मिशन के दौरान कृपाल पकड़ा जाता है. संगठन के सरदार को संदेह होता है कि कृपाल
और वीराँ पुलिस से मिल गए हैं. अतः दोनों को खत्म करने की हिदायत देता है. इधर
पुलिस भी कृपाल को प्रताड़ित करती है. वीराँ को सरदार की योजना पता चल जाती है. वह
जेल में कृपाल से मिलने जाती है तो उसे चुपके से सायनाइड देती है. कृपाल सायनाइड
खा लेता है. बाहर आकर वीराँ भी सायनाइड खा लेती है. फिल्म खतम ।
पंजाब के आतंकवाद की यह वो सच्चाई थी जिसे पंजाब वाला ही जानता है. फिल्म
सीधे सादे तरीके से आगे बढ़ती है और कहीं भी कोई मनोवैज्ञानिक उलझन नहीं पैदा
करती. गुलज़ार की फिल्में, प्रचलित अर्थबोध में कला फिल्म नहीं होतीं, लेकिन जीवन
को एक घरेलूपन के साथ दिखा देने की अद्भुत कला है गुलज़ार के पास.
जो लोग गुलज़ार की फिल्में देखते रहे हैं अथवा उनकी कहानियाँ और कविताएँ
पढ़ते रहे हैं, वो जानते होंगे कि सन् सैंतालिस के भारत विभजन का गुलज़ार पर बहुत
गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव है. विभाजन उनकी संवेदना में इस तरह अंकित हो गया है कि
अब किसी भी तरह के विभाजन की कल्पना से वो काँप जाते हैं. ‘माचिस’ में भी आतंकी
सनातन के संवादों के ज़रिए वे अपने इस दर्द को ज़ाहिर करते हैं. हिन्दू-मुसलमान के
बाद अब हिन्दू-सिख के विभाजन का प्रतिरोध बार-बार फिल्म में आता है. लोकतंत्र में
जनता की भूमिका और अहमियत के खत्म होते जाने को भी फिल्म में उभारा गया है. पंजाब
के नवयुवकों के आतंकवादी बनने के कारण इतने स्पष्ट हैं, कि कहानी में कहीं भी
तथाकथित कला फिल्मों वाले टूल्स इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ती.
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आमतौर पर यह जानकर कि कोई फिल्म कला फिल्म है अथवा फिल्म का निर्देशक कला
फिल्में बनाता है, एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग पहले ही किनारा कर लेता है. इस तरह की
फिल्मं बहुत कम जगहों पर प्रदर्शित हो पाती हैं. ‘माचिस’ ने अगर आम दर्शकों को भी
अपनी ओर खींचा, तो इसकी वज़ह इसके खूबसूरत गीत और संगीत हैं. गीत गुलज़ार ने अपने
परिचित अंदाज़ में लिखे हैं. छोटे छोटे ऑब्ज़रवेशन के गीत—जिसमें हँसते वक्त गालों
में पड़ने वाले भँवर को भी चुपके से देख लिया गया है. इसी में “तुम गए सब गया,
कोई अपनी ही मिट्टी तले दब गया.....” जैसा गम्भीर गीत भी है.
संगीत तैयार किया था विशाल भारद्वाज ने. उन्होने कम से कम वाद्ययंत्रों का
उपयोग करके मीठी धुनें बनायी हैं. लता की आवाज़ की रेंज का अच्छा इस्तेमाल किया है
लेकिन उतना बढ़िया नहीं जितना हृदयनाथ मंगेशकर उन्हीं दिनों कर रहे थे. कुछ गाने
बहुत लोकप्रिय हुए थे. खासतौर से---“चप्पा चप्पा चरखा चले....” और “छोड़ आए हम वो
गलियाँ....”. वैसे तो सभी गीत अच्छे हैं लेकिन एक गीत अटपटा लगा....”भेजो कहांर पिया
जी बुला लो...”…..इस गाने की धुन राजस्थानी लोकधुन है. जबकि पंजाब में गाई जाने वाली ‘हीर’ प्रेम में विरह
को व्यक्त करने के लिए ज्यादा स्वाभाविक लगती.
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‘माचिस’ से पहले गुलज़ार ने जितनी फिल्में बनायीं, वो सब एक सरल जीवन, एक घर और
प्रेम के आस-पास बुनी गयीं. किसी ऐसे विषय को, जो अब तक डाक्यूमेंट्रीज का विषय
रहा हो, कहानी में तब्दील कर ‘माचिस’ बनायी गई. गुलज़ार द्वारा बनायी गयी शायद यह पहली
समस्या-प्रधान फिल्म थी. अन्ततः गुलज़ार को भी इस ओर आना ही पड़ा. देश की तत्कालीन
हालत सारे कला-माध्यमों को अपनी ओर खींच रही थी. यह जरूरी भी था और मजबूरी भी थी. ‘माचिस’ का ही एक संवाद
है, जब सनातन आतंकवादी गिरोह में वीराँ के शामिल होने पर कहता है----“ये जगह वैसे तो
तुम्हारे लिए नहीं थी, पर अब है तो क्या करे !”
सच गुलज़ार साहब ! यह जगह वैसे तो आपके लिए नहीं थी, पर......!!
सच गुलज़ार साहब ! यह जगह वैसे तो आपके लिए नहीं थी, पर......!!
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