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Wednesday 5 October 2011

कविता : लुप्तोपमा



 जो, पान के पत्ते की तरह कोमल
बड़ी मुश्किल से सम्भाले
अपने ही भार को.

शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा
धीरे-धीरे बड़ा होता हुआ.

उसका चलना
कि किसी उस्ताद ने
उमंग में बजाया हो-रूपक ताल
मध्यम लय में.

उसका हँसना
कि किसी ने खोल दी हो
अनारदाने से भरी मुट्ठी
               एकाएक.

आत्म-विस्मृति के इन क्षणों में
मेरा अनुमान है
कि ईश्वर को
इसी हँसी के आस पास ही
होना चाहिए कहीं.

                           --विमलेन्दु

1 comment:

Onkar said...

बहुत सुन्दर. क्या खूब चित्र खींचा है आपने