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Saturday 27 August 2011

जो तटस्थ हैं...!

हम इन दिनों बेहद संवेदनशील लोकतांत्रिक उथल-पुथल से गुज़र रहे हैं. यह आस्थाओं के दरकने और आत्मविश्वास के पुनर्जागरण का वक़्त है. एक लम्बे अवधि के भ्रष्टाचार ने देश की पूरी व्यवस्था और हम नागरिकों के आचरण को संदिग्ध बना दिया है.एक राष्ट्र और उसके नागरिक होने के नाते हमारी विश्वसनीयता पर इतना ज़बरदस्त संकट कभी नहीं आया था. लोकतांत्रिक ताने-बाने पर इतना अविश्वास पहले कभी नहीं था, और न ही लोकतंत्र की सामर्थ्य पर इतने प्रश्न-चिन्ह पहले कभी लगे देखे गये. सरकारों का चरित्र कब तानाशाही होता गया, इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया. वो कौन सी वज़हें हैं जिन्होने हमारी सरकारों को तानाशाह जैसा बना दिया, इस पर शायद अब सोचने का वक़्त आ गया है.

ऐसा दिख रहा है कि अन्ना हजारे ने अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर देश की साधारण जनता,खासतौर से महत्वाकांक्षी युवावर्ग को एक वृहद् आंदोलन की राह पर ला दिया है. पूरे देश में लोकपाल विधेयक को पास कराने के लिए धरना-प्रदर्शन हो रहे हैं. काँग्रेस-नीत सरकार महीनों से टाल-मटोल करते हुए रोज़ एक नयी पतली गली ढूँढ़ लेती है. सरकार के इस रवैये का सर यह हुआ कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की जो एक तार्किक पहल अन्ना और उनके सहयोगियों ने शुरू की, वह अतार्किकता और जड़ता के बियावान में भटक गयी. लोकतंत्र की वैध माग, एक ऐसे संघर्ष में बदल गयी है जहाँ हर पक्ष अपने लक्ष्य और तर्कों से भटक गया है.

एक लोकतांत्रिक देश के लिहाज से, मुझे यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और ख़तरनाक लगता है कि एक छोटी सी जायज़ माग के लिए देश की इतनी ऊर्जा लग रही है. एक लोकपाल के नियुक्त हो जाने से किसे समस्या है भला ? वह भ्रष्टाचार पर निगरानी ही तो रखेगा ! वो कौन लोग हैं जो अपनी निगरानी नहीं चाहते ? अब यह कितना साफ है कि जो लोग महीनों से,या कहें वर्षों से इस लोकपाल पर अड़ंगा लगा रहे हैं, उनका चरित्र क्या है.

चूँकि बहुमत सत्ताधारी दल के पास होता है, इसलिए गतिरोध की पहली ज़िम्मेदारी सरकार पर ही जाती है. लेकिन इस पूरे आंदोलन में दिख रहा है कि कुछ और लोग हैं जो विरोध तो नहीं कर रहे हैं, पर तटस्थ हैं. ये ऐसे लोग हैं जो देश को समय-समय पर बताते रहे हैं कि वही भारत-भाग्य-विधाता हैं. दो दिन पहले दुलिया की एक शीर्ष पत्रिका ने अपने सर्वेक्षण के आधार पर बताया कि सोनिया गांधी, संसार की सातवें नम्बर की सबसे प्रभावशाली महिला हैं. भारत में आज उनसे बड़ा राजनीतिक कदकिसी का नहीं है. प्रधानमंत्री का पद ठुकराकर उन्होंने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को चकित कर दिया था.उनके इस एक कदम ने सबसे बड़े विपक्षी दल भजपा और सदाबहार पी.एम. इन वेटिंग, लालकृष्ण आडवानी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को लक्ष्यमूढ़ कर दिया.

वहीं सोनिया गांधी इस पूरे प्रकरण पर खामोश हैं. यह उनकी रणनीति ही होगी. वह इस आग में अपना हाथ नहीं जलाना चाहतीं. पर उन्हें यह समझ तो होगी ही कि सार्वजनिक जीवन के शिखर पर बैठे लोगों के लिए पीछे लौटने के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं. अगर वो निर्णायक स्थिति में हैं तो उन्हें निर्णय लेना पड़ेगा, अन्यथा समय और समाज उन्हें क्षमा नहीं करेंगे. कलावती के शुभचिंतक राहुल गांधी की चुप्पी सवसे ज़्यादा विचलित करने वाली है. ऐसा लगने लगा था कि राहुल देश की बदलती चेतना के मुख्य संवाहक बन सकते हैं. उनकी चिन्ताएँ असली लगने लगी थीं. उनके व्यक्तित्व का करिश्माई तत्व युवाओं को अपनी ओर खींच रहा था. लेकिन अपनी सवसे बड़ी परीक्षा में वह भी फेल हो गये. हमारे देश में राजनेता बनने की आवश्यक योग्यताएँ क्या हैं, यह तो हम सब जानते हैं. पक्ष या विपक्ष में होना तो समय का फेर है.स्थायी चरित्र तो सभी नेताओं का एक ही है. विपक्ष छीके के टूटने का इन्तज़ार कर रहा है. आडवानी-अटल तो चुप ही हैं. जो लोग थोड़ा बहुत बोल रहे हैं, वो सिर्फ अपनी वाक्पटुता का ही प्रदर्शन कर रहे है.

सबसे ज़्यादा हास्यास्पद स्थिति बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग की है. इसमें कवि-लेखक और समाजसेवा से जुड़े लोग माने जाते हैं. इन लोगों ने अपने आत्मबल के बूते चुप्पी साध रखी है. इनका दर्द यह हो सकता है कि जनता ने इन्हें इस आन्दोलन का नेतृत्व करने का आमंत्रण क्यों नहीं दिया. या कम से कम इनसे राय तो ली गई होती.कलम के ये सिपाही ज़मीन की खुरदुरी सतह पर चलने के उतने अभ्यस्त नहीं हों यह समझा जा सकता है. बुढ़ापे में सरकार से मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान संजीवनी का काम करते है, इसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.आग में हमेशा घी डालने की आदी अरुन्धती राय पहले तो चुप थीं, पर जब उनकी प्रज्ञा जाग्रत हुई तो उन्होने अन्ना के कुछ सहयोगियों के आचरण पर सवाल ठोंक दिए.ऐसा करने वाली वो अकेली नहीं हैं. कई नौजवान बुद्धिजीवी लगातार अन्ना और उनके सहयोगियों का छिद्रान्वेषण कर रहे हैं.ये लोग यह सिद्ध करने में जुटे हुए हैं कि ,चूँकि आन्दोलनकारी बेदाग नहीं हैं इसलिए उनका यह आग्रह औचित्यहीन है.

ऐसा नहीं है कि जो तटस्थ हैं वो कायर लोग हैं.ये अवसरवादी लोग हैं. हम सब देखेंगे कि अगर इस आन्देलन का कुछ सार्थक परिणाम निकलता है तो उसके विजय जुलूस में यही लोग सबसे आगे दिखेंगे. यही इनका कौशल है.इन्हें प्रणाम करिये.

1 comment:

Dileepvasishth said...

तटस्थ होकर भी तत्वदर्शि
होना....ऋषित्व है !