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Wednesday 14 December 2011

अन्ना की तमन्ना..!


            अन्ना हजारे के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन पर मैं लिखने से बचता आ रहा था. इसकी वज़ह यह नही थी कि मैं भ्रष्टाचार के विरुद्ध नही हूँ, बल्कि मैं लगातार अन्ना की मुहिम को लेकर दुविधाग्रस्त होता गया. और अब तो यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ कि अन्ना का आन्दोलन किसके खिलाफ़ है. क्या अन्ना और उनकी टीम का संसदीय लोकतंत्र से विश्वास उठ गया है ? कांग्रेस पार्टी के प्रति खिलाफ़त के भाव को सार्वजनिक कर चुके अन्ना ने अपने हालिया बयानों में जब कहा कि लोकपाल बिल के खिलाफ़ सारी साजिशें राहुल गांधी के इशारे पर हो रही हैं, तो बहुत बचकाने दिखने लगे.
      शुरुआती भावनाओं को छोड़ दें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आन्दोलन अब अन्ना हजारे का व्यक्तिग आन्दोलन नही है. उनके साथ एक पूरी टीम है और करोड़ों की संख्या में जनता का समर्थन. अनेक संस्थाएँ हैं तो लगभग समूचा विपक्ष उन्हें समर्थन दे रहा है. हालांकि विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने लोकपाल बिल पर अभी भी अपने पत्ते पूरी तरह से नहीं खोले हैं, लेकिन चूँकि अन्ना अब खुलकर कांग्रेस के खिलाफ़ बोलने लगें हैं, इसलिए अन्ना का  समर्थन करने में उन्हें कोई मुश्किल पेश नहीं आ रही है.
        तो अन्ना अब जो बोलते हैं वह केवल उनकी भर आवाज़ नही होती. होनी भी नही चाहिए. अन्ना एक साधारण फौजी से समाजसेवी बने. संवैधानिक,संसदीय और विधि सम्बन्धी प्रक्रियाओं से उनका कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा. इसलिए अगर इन विषयों पर उनकी अज्ञानता या अल्पज्ञता की बात स्वीकार करें तो यह ग़लत नहीं होगा. उनकी इसी कमी को पूरा करने के लिए उनके पास एक टीम है, जिसकी योग्यता असंदिग्ध है. अब अन्ना का आन्दोलन एक आकार ले चुका है.जो लोग केन्द्रीय भूमिका में हैं, उनके कार्यक्षेत्र भी निर्धारित हो चुके हैं. ऐसे में यह अपेक्षा की ही जानी चाहिए कि अन्ना हजारे अब जो बोलेंगे वह सुविचारित होगा और रणनीतिक होगा. अब भावुकता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है.
        भावुकता से बचना इसलिए भी ज़रूरी है कि अन्ना के आन्दोलन के साथ एक भीड़ जुड़ चुकी है. भीड़ की बुद्धि और समझ न्यूनतम स्तर पर होती है. अन्ना हजारे जब संसदीय लोकतंत्र पर अविश्वास जताते हैं और एक पार्टी विशेष को लक्ष्य करके बयान देते हैं तो भीड़ उनसे चार कदम आगे चली जाती है. इधर लोगों की उग्र प्रतिक्रिया देखने को मिली है. लोगों ने बिना सोचे-समझे लोकतंत्र और संसद को उखाड़ फेंकने के झण्डे लहराने शुरू कर दिए. लोकपाल से भ्रष्टाचार कितना कम होगा, यह तो समय ही बतायेगा. लेकिन अपनी संसदीय प्रणाली पर यह अविश्वास दीर्घकालिक असर डालेगा.
         इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतांत्रिक शासन प्रणाली दुनिया की किसी भी शासन पद्धति में सर्वश्रेष्ठ है. इसकी मूल प्रतिज्ञा, मनुष्य का मनुष्य की तरह सम्मान करना है. मनुष्य होने की पूरी गरिमा उसकी स्वतंत्रता में है. और लोकतंत्र में ही स्वतंत्रता के अधिकतम आयाम खुलते हैं. इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि मुझे लोकतंत्र की गड़बड़ियों का ध्यान नहीं है. मेरा बड़ा दृढ़ विश्वास रहा है कि भारत में लोकतंत्र, शोषण और अयोग्यों के शासन का ज़रिया रहा है. लेकिन तब भी इस प्रणाली पर अविश्वास नहीं किया जा सकता. ये जो खामियां हैं , ये इस प्रणाली के इस्तेमाल से जुड़ी हैं. इन खामियों को लोकतंत्र के ढाँचे के भीतर ही दूर किया जा सकता है. लोकतंत्र की मूल भावना को आहत किए बिना, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के स्वरूप में फेरबदल कर, हम देश में एक बेहतर संसदीय तंत्र की स्थापना कर सकते हैं.
        इसके लिए ज़रूरत है निर्वाचन प्रणाली में सुधार की. और यह सुधार संभव होगा राजनीतिक इच्छाशक्ति से. हमारे देश की साक्षरता का प्रतिशत एक कागज़ी आंकड़ेबाजी है. अधिकांश लोग साक्षर हैं, समझदार नहीं. जब निर्वाचन के समय औसत मतदान 60% भी होता है, तो उसमें 40% लोग ऐसे होते हैं जिनमें राजनीतिक साक्षरता शून्य होती है.धनबल और बाहुबल हमारे चुनावों को कितना प्रभावित करता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. जो लोग निर्वाचित होकर व्यवस्थापिका और कार्यपालिका का निर्माण करते हैं, उनकी योग्यता खतरनाक ढंग से संदिग्ध होती है. जिसका परिणाम देश और जनता को भुगतना पड़ता है.
        हमने जीवन के किसी भी क्षेत्र में अमेरिकी संस्कृति की नकल करने से परहेज़ नहीं किया. फिर हमारे नीति-निर्धारकों ने अमेरिकी निर्वाचन पद्धति को अपनाने के बारे में कभी क्यों नहीं सोचा ! हालांकि अमेरिकी पद्धति को हूबहू अपनाना अभी इस देश में संभव नही है क्योंकि हम साक्षरता,समझ और जागरुकता के उस स्तर पर अभी नहीं हैं जहां अमेरिका है. पर कुछ संशोधनो के साथ उसे अपनाने पर विचार किया जाना चाहिए. हमारा संविधान भी कई देशों के संविधानों के अध्ययन, इमानदारी से कहें तो जोड़-तोड़ से ही बना है. इसमें कुछ ग़लत भी नही है.इन बदलती ज़रूरतों को ध्यान में रख कर चुनाव सुधारों पर विचार किया जाना चाहिए.
         फिलहाल लौटते हैं अन्ना हजारे के आन्दोलन पर. उनकी महत्वाकांक्षा और देश के दुर्भाग्य पर. अन्ना के सहयोगियों की विश्वसनीयता को ध्वस्त करने करने की कोशिश सरकार कर रही है. केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशान्त भूषण के साथ हो रहे सलूक आप सब भी देख रहे हैं. इन लोगों के आपसी अंतरविरोध भी सामने आते रहते हैं. अन्ना खुद भी दिग्भ्रमित लग रहे हैं. शुरुआत में उनकी आवाज़ भ्रष्टाचार के खिलाफ़ थी. इस आवाज़ में एक झटके में देश के करोड़ों लोगों,खासतौर से युवावर्ग की आवाज़ जुड़ गई. इसी सामूहिक आवाज़ से लोकपाल की अवधारणा निकली. लोकपाल के बहाने जन-भावना को मूर्त रूप देने की कोशिश की गई, पर संभवतः लोकपालभी जनता की समूची भावनाओं को अपने में समाहित नहीं करता. इसीलिए जनता के ज्वार को उतरने में देर नहीं लगी.
         आन्दोलन के तासरे चरण में स्थिति और खराब हो गई है. अन्ना हजारे अब खुल कर कांग्रेस पर हमले करने लगे हैं. इससे उनकी विश्वसनीयता कम हुई है. उन्हें यह सीधी सी बात समझ में आती तो होगी कि संसद किसी एक दल की नहीं है. जो विपक्षी दल अन्ना के बहाने सत्तापक्ष पर आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने संसद के भीतर लोकपाल बिल के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किया. अब चाहे-अनचाहे समूचा विपक्ष अन्ना के मंच पर जुटने लगा है. इस मंच से सत्तापक्ष पर तीर चलाए जा रहे हैं.
         यह स्थिति सत्ताधारी दल कांग्रेस और उसके सहयोगियों के लिए भी ज़्यादा सुविधाजनक है. कांग्रेस शुरू से ही इस प्रयास में थी कि भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जो जनमत देश में बन रहा है, उसे सत्तापक्ष और विपक्ष की लड़ाई में बदल दिया जाये.भारतीय राजनीति में यह आजमाया हुआ नुस्खा है. जनभावनाओं के उभार से सत्ता परिवर्तन की घटनाएं हाल ही में कई देशों में हुई हैं. सरकार की कोशिश थी कि इस आन्दोलन से जनता दूर हो जाये और केवल उसके प्रतिनिधि बचें. ये वही प्रतिनिधि हैं जो संसद में भी होते हैं. सरकार इनसे निपटना जानती है.
       पर अन्ना हजारे यह समझ नहीं पा रहे हैं. अन्ना और उनके सहयोगियों ने इस अभियान को एक छोटे से समूह का अभियान बना दिया है. अन्ना को अगर छोड़ भी दें तो उनकी केन्द्रीय समिति में जो लोग हैं, उनके सरकार से टकराव के ही रिश्ते रहे हैं पहले से ही. इस आन्दोलन के मार्फत उनके दूसरे अहंकार भी तुष्ट होते हैं. सबसे खतरनाक बात यह हो रही है कि देश का बौद्धिक वर्ग भी एक किस्म के ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है. इन लोगों में लोकतंत्र के लिए अस्वीकार भाव बढ़ता जा रहा है. लेकिन इनके पास विकल्पहीनता भी है. विकल्पहीनता ही अराजकता को जन्म देती है. देश को इससे बचाना होगा.

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