हम
भूत-प्रेतों के बारे में जितना जानते हैं, उससे कुछ थोड़ा सा ही अधिक चीन के बारे
में जानते हैं. बाहर की दुनिया में चीन शायद सबसे ज़्यादा अजनबी देश है. हममें से
अधिकांश लोगों के लिए, चीन से हमारा प्रथम परिचय चाय की चुस्कियों के साथ शुरू
होता था एक ज़माने में, जब चीनी मिट्टी के बने खूबसूरत प्यालों में चाय परोसना शान
की बात समझी जाती थी. इससे आगे बढ़ते थे तो अखबारों में छपी चीनियों की तस्वीरें
और उनके नामों के उच्चारण, बच्चों के भंगिमा आधारित खेलों के हिस्से बने. किसी
चीनी का नाम लेना आज भी टंग-ट्विस्टर जैसे मनोरंजक खेल के लिए बहुत उपयोगी है. हम
दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक रही चीन की दीवार को भी जानते हैं. यह दीवार
इतनी ऊँची है कि हमें चीन के भीतर का कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता. हमें चीन के आम
जन-जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पता है. आज हम भले ही चीनी खिलौनों से खेलते हों,
चीनी पिचकारियों और रंग-अबीर से होली मनाते हों, बहनें भाइयों की कलाई पर चीनी
राखियाँ बांध रही हों, पर हममें से कितने लोग ये जानते हैं कि चीन में बच्चों के
प्रिय खेल कौन से हैं ! कि उनके जीवन
में कौन से रंग ज़्यादा चटक हैं या यह कि चीनी समाज में आपसी राग-विराग को व्यक्त
करने वाले उत्सव-त्यौहार कौन से हैं ??
चीन आज दुनिया की एक बड़ी आर्थिक और
सैन्य शक्ति है. 23 लाख सैनिकों वाली दुनिया की सबसे बड़ी फौज है उसके पास और
दुनिया के सारे देश यह महसूस करने लगे हैं कि एक चीन ही है जिससे अमेरिका भी डरता
है. भारत के लोग यह समझते हैं कि अगर चीन का खुलेआम समर्थन न होता तो पाकिस्तान
जैसा खस्ताहाल देश, भारत के लिए सिरदर्द न बना होता. चीन ने अपनी आक्रामक
बाज़ारनीति से दुनिया भर के बाज़ारों को ध्वस्त कर दिया. जिस भी देश ने विदेशी
व्यापार के लिए रास्ता खोला, उस रास्ते सबसे पहले चीनी सामान पहुँचने लगा. चीन के
सस्ते सामानों ने देसी कम्पनियों को ठप्प कर दिया. दो-चार साल में जब लोगों को
चीनी सामान की घटिया क्वालिटी का पता चलता, तबतक उस देश का देसी बाज़ार धराशायी हो
चुका होता, और चीनी कम्पनियाँ किसी दूसरे देश का रुख़ कर चुकी होती हैं. चीन का यह
अपने किस्म का अनूठा साम्राज्यवाद है, जो अमेरिका से भी ज़्यादा खतरनाक है. चीन के
इरादों का पूर्वानुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है. आज भी कोई यह साफतौर पर नहीं
कह सकता कि चीन की मंशा क्या है....इतनी बड़ी आर्थिक और सैन्य-शक्ति होने के नाते
वह दुनिया के नक्शे को कैसा देखना चाहता है !
हाँ...चीन ने इतना ज़रूर किया है कि
कश्मीर क्षेत्र में भारत से लगी 1600 किलोमीटर की सीमा को अपने नक्शे से गायब कर
दिया है. इसका साफ अर्थ यह है कि उसने यह क्षेत्र पाकिस्तान को उपहार में दे दिया
है. चीन अभी भी लद्दाख क्षेत्र में 38,000 वर्ग किमी और कश्मीर क्षेत्र में 5,000
वर्ग किमी क्षेत्र का दबाये बैठा है. विवादित कश्मीर में चीनी सैनिकों की मौजूदगी
को भारत सरकार भी स्वीकार कर चुकी है. अरुणांचल प्रदेश पर चीन ने अपना दावा अभी भी
छोड़ा नहीं है, और जब-तब वह इस प्रदेश को भारत के नक्शे से गायब कर देता है. भारत
सरकार तो वर्षों तक यह मानती ही रही कि चीन किसी भी दिन अरुणांचल को अपने कब्ज़े
में ले लेगा. इसीलिए हमारी सरकार ने अरुणांचल के विकास के लिए कतई ध्यान नहीं
दिया. नतीज़ा यह कि आज यह देश का सबसे पिछड़ा राज्य है.
आज चीन के बारे में जितनी अनभिज्ञता हमारे
बीच है,प्राचीनकाल में उतनी नहीं थी. ईसा के बाद पहली सहस्त्राब्दि में चीन के साथ
भारत के सबसे घनिष्ट, बौद्धिक और व्यापारिक सम्बन्ध थे. लेकिन इस दरम्यान भी तनाव
की एक अन्तर्धारा निरंतर बनी रही, और इसका मूल कारण सभ्यतागत श्रेष्ठता का अहंकार
था—जो दोनो ही देशों
में था.
भारत और चीन के बीच संबन्धों की शुरुआत
व्यापार के साथ हुई, जो धार्मिक आधार पाकर प्रखर बौद्धिक संबन्धों में बदल गई. आप
शायद विश्वास न करें कि पुरातन महाकाव्य ‘महाभारत’
और ‘मनु स्मृति’ में भी चीन से आ रही वस्तुओं का ज़िक्र
है. विशेष रूप से इन ग्रंथों में चीन से आये रेशमी वस्त्रों की चर्चा है. इसी
प्रकार चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में चीन से आने वाले कीमती सामानों का
उल्लेख है. कालिदास ने अपने नाटक ‘अभिज्ञान
शाकुन्तलम्’ में भी ‘चीनी कौशेय’ से बने ध्वज का उल्लेख किया है. 7वीं
शताब्दी में वाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्ष
चरित’ के एक प्रसंग में
बताया गया है कि अनुपम सुन्दरी राज्यश्री ने अपने विवाहोत्सव में चीन-निर्मित
कौशेय वस्त्र पहनने का निर्णय लिया था. पुराने संस्कृत ग्रंथों में रेशमी वस्त्रों
के अलावा भी ऐसी अनेक वस्तुओं का ज़िक्र मिलता है, जो चीन से आ रही थीं. मुख्य रूप
से कपूर, सिन्दूर, उच्च कोटि का चमड़ा, सौंफ, नाशपाती, आडू आदि के आयात का प्रचलन
ईसापूर्व की शताब्दियों में था.
बाद के वर्षों में भारतीय व्यापारियों ने
चीनी सामान का आयात कर उसे मध्य एशियाई क्षेत्रों को निर्यात करना भी शुरू कर
दिया. बैक्ट्रिया पहुँचे चीनी दूत झांग क्वियान, उस समय आश्चर्य में पड़ गये थे,
जब ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में उन्होने, वहां के बाज़ारों में यूनान की बनी सूती
और बांस की वस्तुएँ देखीं. उन्हें पता चला कि ये वस्तुएँ भारतीय सार्थवाहों ने
अफगालिस्तान के रास्ते उन तक पहुँचाई हैं. चीन और पश्चिम एशिया के बीच का व्यापार
सदियों तक भारतीय व्यापारियों की मध्यस्थता में चलता रहा. शुरू के वर्षों में रेशम
के वस्त्र प्रमुख थे, लेकिन 11 वीं शताब्दी तक आते-आते चीनी मिट्टी के बर्तन
प्रमुख व्यापारिक वस्तु बन गये.
दो हज़ार से भी ज़्यादा वर्ष पूर्व शुरू
हुआ व्यापारिक संबन्ध, ईसा के बाद पहली शताब्दी से ही सघन धार्मिक सम्बन्धों में
बदलने लगा. और दरअसल यहीं से भारत-चीन संबन्धों की जटिलताएं भी शुरू हो गयीं.
प्रथम शताब्दी इसवी में चीन के हान वंशीय शासक ‘मित्रंदी’ के आमंत्रण पर दो भारतीय सन्यासी—‘धर्मरक्ष’ और ‘कश्यप मतंग’, अनेक धर्मग्रंथों और अवशेषों को लेकर
चीन पहुँचे थे. कहा जाता है कि सम्राट मित्रंदी ने स्वप्न में गौतम बुद्ध के दर्शन
किए थे. उसके बाद ही उन्होंने अपने दूतों को बौद्ध विद्वानों को खोजने के लिए भारत
भेजा था. इस प्रसंग से यह तो स्पष्ट ही है कि इससे पहले से ही चीन वासियों का
बौद्धमत से परिचय अवश्य रहा होगा.
दरअसल भारत और चीन को निकट लाने में बौद्ध
धर्म की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी. भारत और चीन के लोगों का एक दूसरे के यहाँ
आना-जाना धार्मिक जिज्ञासाओं के कारण शुरू हुआ. लेकिन जल्द ही ये संबन्ध बहुत
व्यापक हो गये. धीरे-धीरे इन संबन्धों का दायरा विज्ञान,गणित,साहित्य,भाषाशास्त्र,शिल्प,चिकित्सा
और संगीत तक बढ़ गया. इन बौद्धिक संबन्धों की शुरुआत ज्योतिष विज्ञान और तांत्रिक
गणित से हुई. कला-साहित्य-संगीत शुरुआत में भले ही धार्मिक विषयवस्तु के रूप में
पहुँचे हों, लेकिन कालांतर में वो धर्म-निरपेक्ष हो गये.
आठवीं शताब्दी में एक भारतीय विद्वान गौतम
सिद्धार्थ (चीनी भाषा मे ‘गूतान
शिदा’ ) चीन के राष्ट्रीय
ज्योतिर्विज्ञान बोर्ड के अध्यक्ष बनाये गये. इसी तरह अनेक भारतीय गणितज्ञ और
विद्वान चीन में उच्च पदों पर आसीन थे. आज के भारत-चीन संबन्धों के बारे में सोचें
तो यह बात असंभव लगती है. आपको यह जानकर भी कम आश्चर्य नहीं होगा कि चीन का पहला
सर्वमान्य पंचांग ‘जिउझी ली’
, भारतीय गणितज्ञ वराहमिहिर द्वारा
550 इसवी में रचित ‘पंचसिद्धान्तिका’ पर ही आधारित है. और यह पंचांग भी,
भारतीय पंचांग की तरह नवग्रहों की सापेक्ष गतियों से ही गणना करता है. आप जानते ही
हैं कि प्रिन्टिंग तकनीक और कागज का अविष्कार चीन में ही हुआ. लेकिन क्या आप यह भी
जानते हैं कि विश्व की प्रथम तिथियुक्त पुस्तक, जो चीन में प्रकाशित हुई 868 इसवी
में, वह संस्कृत भाषा के ग्रंथ ‘वज्रसूत्र’
का चीनी अनुवाद थी ! और यह अनुवाद 402 इसवी में भारतीय
विद्वान ‘कुमार जीव’ ने किया था !!
सातवीं-आठवीं शताब्दियों में, चीन में
गणित और ज्योतिर्विज्ञान पर बौद्ध और वज्रयानी तांत्रिक मतों का बहुत गहरा प्रभाव
पड़ा. चीन का महान तांत्रिक गणितज्ञ ‘इ-क्सिंग’
, दरअसल एक बौद्ध सन्यासी ही था.
आठवीं शताब्दी तक भारत में त्रिकोणमिति का बहुत विकास हो चुका था. चीनी यात्रियों
ने त्रिकोणमिति के अध्ययन में भी विशेष रुचि दिखाई. आर्यभट्ट के संस्कृत शब्द ‘ज्या’ को ही चीनी नाम ‘मिंग’ दिया गया, जिसे पश्चिम में ‘साइन’ कहा गया. ‘साइन’ शब्द ‘साइनस’ से निकला था, जिसका अर्थ खाड़ी या तटीय
कटाव होता है. ‘मिंग’ शब्द का अर्थ ‘चन्द्र कलाओं की ज्या’ होता है.
चीन से भारत आने वाले विद्यार्थियों ने
भारत के चिकित्सा शास्त्र का भी अध्ययन किया, लेकिन वो इसे अपने चिकित्सा विज्ञान
से बेहतर नहीं मानते थे. भारत आये चीनी यात्री ‘ई-ज़िंग’ ने लिखा भी था कि भारत में कुछ रोगों
में राहत देने वाली चिकित्सा तो अच्छी है, लेकिन जीवन की अवधि बढ़ाने वाली औषधियाँ
और पद्धतियाँ (एक्यूपंक्चर, प्रदाहन आदि) तो केवल चीन में ही हैं.
गणित और विज्ञान से आगे,भारतीय संगीत-साहित्य-शिल्प
और भाषाशास्त्र का चीन के सांस्कृतिक जीवन पर गहरा असर पड़ा. चीन में बहुत
उत्कृष्ट बौद्ध समारकों,मठों और संघारामों का निर्माण किया गया. तंग शासनकाल में
बौद्ध मंत्रोच्चार और भारतीय संगीत (चीनी में ‘तियानफू’ संगीत) चीन में गूँज रहे थे. वर्ष 1404 में
मिंग वंश के सम्राट ‘चेन्गजू’ ने ‘बुद्ध गीतमाला’ का संकलन किया था. संस्कृत से चीनी में
अनुवाद की प्रक्रिया में हज़ारों नए शब्द चीनी भाषा में शामिल हो गए. संस्कृत के ‘ध्यान’ शब्द को चीनी पहले ‘च आन’ कहते थे, बाद में यह ‘ज़ेन’ हो गया.
भारत आये अनेक चीनी यात्रियों ने
यात्रा-वृत्तान्त लिखे हैं. यद्यपि कई जगहों पर इनके वर्णन अतिरंजनापूर्ण हैं, पर
भारत-चीन के सांस्कृतिक संबन्धों को समझने में ये वृत्तान्त मौलिक आधार प्रदान
करते हैं. भारत आये अनेक चीनी यात्रियों में फाह्यान, इ-ज़िंग, और ह्वेनसांग
सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए हैं. कालक्रम के हिसाब से इन तीनों में, फाह्यान सबसे पहले
भारत आये. फाह्यान ने 399 इसवी में चीन से अपनी यात्रा शुरू की और 401 इसवी में
भारत पहुँचे. 10 वर्ष के अपने भारत प्रवास में इन्होंने व्यापक भारत-भ्रमण किया.
भारतीय विद्वानों से वार्तालाप किए और अनेक भारतीय ग्रंथों का संग्रह किया. 6 वीं
शताब्दी में भारत आये इ-ज़िंग ने चीन के लोगों में भारत की सकारात्मक छवि और
भारतीय मनीषा की प्रतिष्ठा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इ-ज़िंग ने 10 वर्ष
तक भारत में रहकर नालंदा में आयुर्वेद का विशेष रूप से अध्ययन किया था.
ह्वेनसांग का भारत के साथ विशेष आत्मीय
संबन्घ रहा. दरअसल, प्राचीनकाल में ह्वेनसांग, भारत-चीन के बीच सबसे बड़े और सच्चे
सांस्कृतिक दूत थे. उन्हें भारत-भूमि से प्रेम था. और भारतीयों को भी उनसे सच्चा
प्यार था. ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में भारत आये थे. एक प्रखर विद्वान थे. ये
सोलह वर्षों तक भारत में भ्रमण करते रहे. अपने भ्रमण के दौरान ही उनहोने बौद्ध
धर्म के साथ-साथ चिकित्साशास्त्र, दर्शन, तर्कशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, और
व्याकरण का बी अध्ययन किया. उन्होने सम्राट हर्षवर्धन से मुलाकात की और भारत-चीन
संबन्धों पर चर्चा की. ह्वेनसांग की इस यात्रा को सदियों तक भारत और चीन में याद
किया जाता रहा. प्राचीन काल में भारतीय बौद्ध मठों में पटसन के जूते पहने, चम्मच
और चॉपिस्टिक लिए, बादलों की सवारी करते ह्वेनसांग के चित्र अंकित किए गये. चीन
में भी ह्वेनसांग की भारत यात्रा से संबन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हो चुकी थीं.
इन्ही कथाओं पर आधारित एक उपन्यास ‘क्सी
यू जी’ (पश्चिम की यात्रा)
सोलहवीं शताब्दी में चीन में लिखा गया. ह्वेनसांग जब वापस चीन जाने लगे तो नालंदा
के विद्यार्थियों और अध्यापकों ने बहुत भावपूर्ण प्रार्थना के साथ उनसे रुक जाने
का आग्रह किया था. चीन वापस जाने के बाद भी कई बर्षों तक ह्वेनसांग भारत से बहुत
गहरे जुड़े रहे.
दरअसल, ह्वेनसांग चीन में भारत और बौद्ध
धर्म के प्रति पनप रही नकारात्मकता को कम करने की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे. चीन में
बौद्ध धर्म के अत्यधिक प्रभावी विस्तार के साथ ही, प्रतिरोध की एक समानान्तर धारा
भी चल रही थी. इस धारा का नेतृत्व बौद्ध-विरोधी बुद्धिजीवी ‘हान यू’ कर रहे थे. इस प्रतिरोध का कारण यह था
कि चीनी अपने को विश्व-सभ्यता का केन्द्र मानते थे. इनका मानना था कि चीनी बौद्धिकता
अपराजेय है, और चीन से बाहर विकसित हुआ कोई ज्ञान महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकता. वे
बुद्ध समेत सभी भारतीयों को बर्बर और गँवार कहते थे. इधर भारतीय भी विदेशियों को ‘म्लेच्छ’ कहते थे. फ़ारसी यात्री अलबरूनी ने अपनी
पुस्तक—‘तारीख़-ए-हिन्द’
में यह शिकायत भी दर्ज़ करायी
थी. भारत-विरोधी चीनियों को डर था कि धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों की
श्रेष्ठता स्वीकार कर लेने से विश्वसभ्यता का केन्द्र खिसक कर भारत की ओर चला जाता
है.
सभ्यतागत श्रेष्ठता का यह अहंकार आज भी
चीन और दुनिया के दूसरे देशों के बीच दीवार बनकर खड़ा है. कहते हैं कि जितनी ईंटें
चीन की महान दीवार में लगी हैं, उनसे पृथ्वी के चारों तरफ एक बाउँड्री वॉल बनाई जा
सकती है. ह्वेनसांग सरीख़े महात्माओं के विश्वबन्धुत्व की भावना को चीन ने ऊँची
दीवार के भीतर अगर कैद न किया होता तो, भारत और चीन मिलकर आज दुनिया का नेतृत्व कर
रहे होते.
5 comments:
अच्छा लगा विमलेन्दु जी....इतना ज्ञानवर्धक...सूचना परक लेख पढ़ना.अपने स्नातक ...वाले वर्ष याद आ गए ...साथ ही याद आ गया ,इतने वर्ष पहले पढ़ा ..प्राचीन भारतीय इतिहास.
मुझे ...आपके लिखे हर लेख में सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वो बेगार टालने के लिए नहीं लिखा जाता.आपका यही प्रयास रहता है कि सही जानकारी ,सटीक सूचना ...सब तक पहुँच सके.आप पूरी मेहनत करते हैं...सब तथ्य एकत्र कर के सिलसिलेवार उन्हें प्रस्तुत करते हैं....
प्रयास सराहनीय है .
Very informative
Very informative
NICE ARTICLE. SURUCHIPURN AND GYANVARDHAK.
aaj hee blog par aai.. aur pahla lekh hee bahut prbhavit kar gya.. fursat me poora blog padhti hoon..
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