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Friday 15 February 2013

प्रेम का रसायनशास्त्र !





आज प्रेम के नाभिकीय विखंडन का दिन है. प्रेम के पीछे पूरी निष्ठा से हाथ धोकर पड़े हुए लोगों के लिए एक ऐसी जानकारी है जिसके सहारे प्रेम का पोस्टमार्टम और प्रभावी ढंग से किया जा सकता है.  

वैज्ञानिकों ने आखिरकार प्रेम के लिए उत्तरदायी रसायनों को ढूढ़ लिया है. बेशक यह साहित्य वाला रसायन नहीं है लेकिन विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की भूमिका यहाँ भी वही है. वैज्ञानिकों के मतानुसार यह इन रसायनों का ही कमाल है कि प्रेम पात्र को देखते या छूते ही त्वचा लाल हो जाती है, हथेलियों में पसीना आ जाता है. साँसों की गति विषम हो जाती है. और धड़कने शताब्दी एक्सप्रेस हो जाती हैं. वैसे तनाव के समय भी ऐसा ही होता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक हमारे शरीर में प्रेम और तनाव का परिपथ एक ही है.

वैज्ञानिकों ने प्रेम के इन तमाम लौकिक लक्षणों के लिए एम्फीटामीन और उसके सहधर्मी रसायनो—डोपामीन, नारइपीनेफ्रिन और खासतौर से  फिनाइल इथाइल एमीन को जिम्मेदार ठहराया है. फिनाइस इथाइल एमीन को इसके प्रारंभिक अक्षरों के कारण विज्ञान जगत में ‘ P ‘ के नाम से जाना जाता है. एंथोनी वैल्श ने एक किताब लिखी थी—द साइंस ऑफ लवः अंडरस्टैण्डिंग लव एन्ड इट्स इफेक्ट्स ऑन माइण्ड्स एन्ड बॉडी’ . लेखक ने कहा है कि प्रेम को एक प्राकृतिक नशा कहा है. उनके मुताबिक चहेते व्यक्ति को देखते ही P का कारखाना मानो चलने लगता है. और इस की वजह से ही प्रिय के चेहरे पर भोली मुस्कान खिल जाती है. लेकिन शरीर धीरे-धीरे इस प्रेम रसायन का आदी हो जाता है. परिणामस्वरूप प्यार का यह रासायनिक नशा चिरंजीवी नहीं होता.

दरअसल अन्य नशीली चीज़ों की तरह प्रेम रसायन की भी शारीरिक माग बढ़ जाती है. जबकि उसकी आपूर्ति में शरीर अक्षम होता है. न्यूयार्क साइकियाट्रिक इंस्टीट्यूट के डॉ. माइकल के मुताबिक प्रथम प्रेम का नशा मंद होते ही (जो कि स्वाभाविक है), व्यक्ति प्रेम के नशे की चरमावस्था को पुनः प्राप्त करने के पागलपन में  संबन्ध-दर-संबन्ध भटकता रहता है.

हालांकि प्रेम-पात्र का सतत सानिध्य मस्तिष्क में एंडार्फिन नामक एक अन्य रसायन का उत्पादन बढ़ा देता है. एम्फीटामीन जहाँ उत्तेजक रसायन है, वहीं एंडार्फिन प्रेम के कोमल एहसासों को जन्म देता है. यह प्रेम-पात्र में सुरक्षा, शान्ति, और कोमलता का भाव जगाता है. यही वजह है कि प्रिय के वियोग में एंडार्फिन की कमी साथी के लिए भयावह साबित होती है.

प्रेम रसायनों में तीसरा नाम है—ऑक्सीटोसिन. वैसे यह रसायन प्रसव के समय गर्भाशय के संकुचन तथा प्रसव के बाद स्तनों में दूध के उत्पादन के लिए उत्तरदायी है. वैज्ञानिकों के मुताबिक स्त्री-पुरुष के आलिंगन में भी इसकी भूमिका है. तथा यह रसायन काम आवेग को भी बढ़ाता है.

इतने शोधो-अध्ययनों और गहन अनुसंधानों के बावजूद पश्चिम के वैज्ञानिकों एवं पहुँचे हुए मनोवैज्ञानिकों ने भौतिक कोणों-दृष्टिकोणों की धुरी पर ही परखा है प्रेम को. भौतिक धुरी पर ही नर्तन करता रहा है उनका चिन्तन. यही कारण है कि पश्चिम में अधिकांश लोग प्रेम पाने के लिए जीवन भर भटकते रहते हैं, परन्तु प्रेम तक नहीं पहुँच पाते. एक फंतासी से दूसरी फंतासी में भटकना भोगवादी संस्कृति का अपरिहार्य परिणाम है. दरअसल काम की हारमोन-जनित-नियंत्रित क्रियाओं को ही प्रेम समझने का ही यह नतीजा है.

हमारी सेस्कृति में यह समय वसंतोत्सव का है. वसन्त 'काम' की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव, प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में 'काम ', फ्रायड-युंग आदि के ' लिबिडो ' से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे 'काम' से ही संचालित होते हैं.

हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं---" धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । "---मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.

एक सखी राधा से कहती है---राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं.

यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो.....श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ....यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है....यह समय निसर्ग में खो जाने का है.

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