छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं की नृशंस हत्या ने शायद पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर देश का ध्यान नक्सली समस्या की ओर खींचा है. अधिकांश लोग पूछने लगे हैं कि ये रेड कॉरीडोर क्या है, सलवां जुडूम किस जानवर का नाम है, माओ किस बिल्ली की आवाज़ है, और ये चारू मजूमदार और कानू सान्याल कौन थे ? जो ज्यादा नहीं जानते वो मार्क्स को ही गालियां देने लगे हैं और सारी मुसीबत की जड़ उन्हें ही ठहरा रहे हैं.
कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह कह रहे थे—“ बस्तर में पिछले 30-40 सालों से नक्सली हैं। वहां पर गरीबी व पिछड़ेपन का मूल कारण भी नक्सली ही हैं। विकास की परिभाषा है कि वहां पर सड़कें बनें, स्कूल बनें, आंगनवाड़ी बने, बिजली हो, संचार व्यवस्था हो, लेकिन नक्सली सभी का विरोध करते हैं। वे विकास करने ही नहीं देना चाहते है। इस देश में विकास और लोकतंत्र के सबसे बड़े विरोधी कोई हैं तो वे नक्सली ही है।“ उधर नक्सली कहते हैं कि सरकार के शोषण के खिलाफ ये लालक्रान्ति है. 2050 तक हम इस देश में मज़दूरों का शासन स्थापित कर देंगे. इन दो तस्वीरों के बीच हम कैसे समझें नक्सलवाद को ?
आप जानते होंगे कि नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। ‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है।नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।
नक्सलवाद भटका हुआ आंदोलन है । यह अधैर्य की उपज है । यह पशुयुग की वापसी का उपक्रम है जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। । तथाकथित समाजवादी मूल लक्ष्यों की साधना से न अब किसी कमांडर को लेना देना है न वैचारिक सूत्रधारों को । उसके मेनीफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडित-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है । वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है । वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है । कम से कम छत्तीसगढ़ के दर्पण में नक्सलवाद का तो यही विकृत चेहरा नज़र आता है।
नक्सली मानते हैं कि वे जनता के अधिकारों के पहरुए हैं और उन्हें शोषण से मुक्त करना ही उनका लक्ष्य है तो वे उसी शोषित जनता की हत्या की राजनीति क्यों चलाते हैं । यहाँ उनकी यह करतूत क्या उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से नहीं जोड़ देती है? नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभ होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसी शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है । अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही (अ)वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है ।
इसकी वैचारिकी के लिए नक्सली माओ की आड़ लेते हैं. सच्चाई तो यही है कि माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में संलग्न रहता था । फिर ये नक्सली किन एजेंडों पर काम कर रहे हैं और किस तरह की नैशनलिज्म की राह पर चल रहे हैं, किसी से छुपा नहीं है अब । नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो । लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते । यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते । यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्ट्राचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्य़ा है ।
दूसरी तरफ नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही हैं वह आम जनता की समझ से बाहर कतई नहीं है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है । उन्हें समय पर सबक सिखाना भी जानती है पर नक्सलवाद का सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि उसके परिणाम में केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है ।
उधर नक्सलियों की जनजातियों के अतिरिक्त, पुलिस, न्याय व्यवस्था, जनप्रतिनिधियों और मीडिया में अच्छी पकड़ बन गई है। जब कभी पुलिस मुखबिर, दलाल आदि को गिरफ्तार करती है तो नक्सलियों के पे-रोल पर काम करने वाले सिविल सोसायटी, एनजीओ के सदस्य मानवाधिकार हनन की गुहार लगाकर अदालत को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं। पिछले वर्ष 9 सितम्बर को एस.पी.ओ. लिंगाराम जब एस्सार और नक्सलियों के बीच बिचौलिये की भूमिका में धरा गया तो कई राज खुले। इस सत्य को स्वीकारने के बजाय नक्सलियों ने अपने कथित मानवाधिकार हनन के नेटवर्क के जरिये स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण से प्रेस कान्फ्रेंस कराकर प्रशासन को दागी बनाने का कुचक्र किया। हिमांशु ने बयान दिया कि लिंगाराम ने नोयडा स्थित इंटरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया में पढ़ाई की और उसकी संलिप्तता नहीं है। विगत एक दशक से छत्तीसगढ़ में रह रहा हिमांशु वनवासी चेतना आश्रम के बैनर तले नक्सलियों की मदद करता है। उसकी पैदल यात्रा का वनवासियों ने काफी विरोध भी किया था। पुलिस के मुताबिक, ऐसे कई लोग नक्सलियों के पे-रोल पर काम करते हैं। पी.यू.सी.एल. लंबे अर्से से मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर वाम उग्रवादियों की मदद करता है।
बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माओवादी द्वारा इन दिनों सैकड़ों की संख्या में 10 से 16 साल की उम्र के बच्चों को हथियार चलाने और बारूदी सुरंग बिछाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.जिस उम्र में बच्चों के हाथों में क़लम और किताब होने चाहिए थे, इन बच्चों के हाथों में घातक हथियार हैं.झारखंड के लगभग हर ज़िले में नक्सलियों का ऐसा बाल दस्ता है, जिनमें 18-20 बच्चे शामिल हैं. कुछ इलाके में तो ऐसे बाल नक्सली दस्ते की संख्या दर्ज़नों में है.नक्सली दस्ते में शामिल अधिकांश बच्चे दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के हैं.
चतरा इलाके में सक्रिय सब ज़ोनल कमांडर आकाश कहते हैं- "अशिक्षा, ग़रीबी और शोषण की मार सहने वाले इन बच्चों को हम संगठन में शिक्षा देने का भी काम कर रहे हैं. आम तौर पर इन्हें हथियारबंद दस्ते में सक्रिय भूमिका नहीं दी जाती. लेकिन ज़रुरत के हिसाब से इन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देना ही पड़ता है."आकाश का दावा है कि इन बच्चों को नक्सली संगठन में शामिल करके वो एक ऐसी क्रांतिकारी फ़ौज़ का निर्माण कर रहे हैं, जो आने वाले दिनों में शारीरिक और मानसिक रुप से हर ख़तरे का सामना कर पाने में सक्षम होगा.
नक्सलियों की इस तथाकथित लालक्रान्ति का एक जबरदस्त आर्थिक पहलू भी है. कुछ दिनों पहले तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तरप्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।
अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा।इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढ़िया से ताड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है।ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माघ्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं।
आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है।जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके सिकंजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनाया जाता है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाता है।
उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओस्टि के अंतगर्त काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी 300 करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है।छत्तीसगढ़ में बड़ी-बड़ी कंपनियों के नक्सली संगठनों से रिश्तों के उजागर होने के बाद अब पुनः सरकार और जनता को सलवा जुडूम की प्रासंगिकता याद आ रही है।
आपको याद होगा कि जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम की शक्ल में एक अभिनव प्रयोग किया था. इसमें नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए आदिवासियों को ही तैयार करने की कार्ययोजना बनाई गई. आदिवासियों में ही विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) बना दिए गए. उन्हें प्रशिक्षण और हथियार दिए गए. इसका कुछ असर भी दिखा. छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियाँ कम हुईं. लेकिन आरोप लगे कि ये SPO खुद आदिवासियों पर अत्याचार करने लगे हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं नें इस पर आपत्ति करते हुए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी. अभी नकसलियों का शिकार हुए महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम अभियान के कर्ता-धर्ता थे.
अवैध ढंग से धन देकर नक्सली बहुल क्षेत्रों में खनन और ऊर्जा कंपनियाँ भोले-भाले आदिवासियों और अन्य वर्गों का शोषण करती हैं। सर्वहारा वर्ग का कथित संरक्षण का दंभ भरने वाले नक्सली इनका दोहरा शोषण करते हैं। ऐश करने का माध्यम बनाकर नक्सली वीरप्पन शैली में खुशहाल जिंदगी जीते हैं। हिंसा का ताण्डव कर पुलिस व प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को वहाँ जाने से रोकते हैं। अकूत वन संपदा का दोहन करने पहुँचे उद्योगपतियों से लाखों रूपये की वसूली के बदले वे उन्हें अवैध तरीके से करोड़ों रूपये का लाभ पहुँचाते हैं। सर्वहारा और पूंजीवाद के विकृत घालमेल से उत्पन्न विद्रूप तस्वीर अत्यंत भयावह है। कमीशनखोरी के कारण सरकार के प्रतिनिधि भी अति प्रसन्न हैं। विकास के नाम पर राशि में वृध्दि ही उनकी संपन्नता को बढ़ाता है। छत्तीसगढ़ सरकार की एस.आई.टी. द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दंडकारण्य कमेटी की वार्षिक आय पांच करोड़ है, जिसमें तीन करोड़ हर साल खर्च हो जाते हैं। दो करोड़ रूपये प्रतिवर्ष सेंट्रल कमेटी को भेजा जाता है। सलवा जुडूम की वजह से आय का स्त्रोत घटा है। सरकारी उत्सव से लेकर आयोजनों को विफल करने की नक्सली रणनीति अपने साम्राज्य के क्षेत्र को बढ़ाना और निरंकुश शासन व्यवस्था को कायम रखने का है।
उद्योगपतियों से अकूत धनराशि देने के एक मामले के भंडाफोड़ से सरकार और जनता सभी चकित हैं। जांच रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि एस्सार कम्पनी ने जान-बूझकर ठेकेदारों को अतिरिक्त भुगतान किया, जो नक्सलियों को देने के लिये थी। इसकी सीबीआई जांच की मांग उठने के साथ सियासी राजनीति गर्मा गई है। स्टील क्षेत्र में बड़े निवेश कर रही विवादास्पद कंपनी एस्सार की 267 किलोमीटर लंबी मेटल पाइपलाइन दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) से आरंभ होकर मलकानगिरि (उड़ीसा) से गुजरते हुए विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश) में समाप्त होती है।
एनएमडीसी के साथ अनुबंध के बाद एस्सार ने पाइपलाइन बिछाई जिससे प्रतिटन 550 रूपये की जगह अब उसे 80 रूपये व्यय करने पड़ते हैं। इस कार्य को पूरा करने में बाधक न बनने के लिये नक्सलियों को करोड़ों रूपये दिये गये। इन क्षेत्रों में धंधा करने के लिये यह आवश्यक हो गया है।पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने स्वीकार किया था कि अनेक उद्योगपतियों से ‘शांति’ के एवज में वाम उग्रवादी धन वसूलते हैं।
इस तस्वीर को देखने के बाद आप खुद सोचिए कि क्या इसे मुक्ति का संघर्ष कहा जा सकता है. नक्सली वनवासियों के नाम पर अपना कारोबार चला रहे हैं. वो वनवासियों तक कोई सरकारी मदद पहुचने नहीं देते . वनवासियों की दशा सुधर जायेगी तो इनका धंधा ही बन्द हो जायेगा. राजनीतिक दल इन आदिवासियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं. भ्रष्ट अफसरशाही खाज में कोढ़ का काम करती है. इन दो पाटों के बीच पिस रहा है वह आदिवासी समाज, जिसका हितैषी होने का दावा नक्सली भी करते हैं और सरकार भी.
तो क्या इन जंगलों में बसने वाले निर्दोष लोगों के जीवन में कभी सुबह आयेगी ? आयेगी तो कैसे आयेगी ? क्या ये कभी इस महान देश में अपने पूरे नागरिक अधिकारों और गौरव के साथ रह पायेंगे ? क्या इनके साथ होने वाला छल खत्म होगा ? नक्सलियों का यह जाल कैसे कटेगा, और सरकर के भेड़ियों से कैसे बचेंगे ये निर्दोष वंचित लोग ? अभी इन सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं ।
( जारी......आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है........)
( जारी......आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है........)
2 comments:
एक नाजुक पोस्ट
बाहर निकला तो
कर देगा विस्फोट
सादर
अच्छा लिखा है. इसके बहुत से पहलू हैं, पर एक बात तो तय है कि सरकारों की काहिली के चलते यह समस्या आज नासूर बनती जा रही है. आज भी चेत जाएं तो बेहतर. वर्ना नेपाल का हाल याद करना चाहिए इन्हें.
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