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Friday 6 June 2014

कविता कामिनी के कुटिल कान्त !


हमारे नगर में एक महाकवि हुआ करते हैं।
वयोवृद्ध के अलावा मतिवृद्ध भी हो चुके हैं अब। एक सम्मानित पद पर रहते हुए अब शासकीय सेवा से निवृत्त हो गये हैं

चालीस वर्ष पहले उन्होंने लगभग भीष्म पितामह के टक्कर की एक प्रतिज्ञा कर डाली। देवी सरस्वती को साक्षी मानकर उन्होंने निश्चय किया कि चाहे सूखा पड़े या बूड़ा आये, वे प्रतिदिन तीन कविताओं का प्रसव, आजीवन करते रहेंगे। माता सरस्वती ने अपने इस अद्भुत उपासक पर अपनी कृपा बनाए रखी। महाकवि आज भी बिला नागा कविताओं का उत्पादन किए जा रहे हैं। उनकी प्रतिज्ञा के आधार पर गणना की जाये तो अब तक लगभग 44 हज़ार कविताओं के वे जायज़ जनक बन गये हैं।

महाकवि के कई कविता संग्रह उनकी आलमारी की शोभा बढ़ा रहे हैं। और कई अवतरित होने की कतार मे हैं। सभी संग्रहों का प्रकाशन उनके ही पराक्रम से संभव हुआ। इसके लिए उनके बढ़िया सरकारी पद की उर्वराशक्ति को नकारा नहीं जा सकता। विन्ध्य के एक मध्यकालीन संस्कृत कवि की स्मृति में वे केन्द्रीय मंत्रालय के अनुदान पर एक सालाना कार्यक्रम का आयोजन, सघन जंगल के बीच करते हैं। शरद की यही कमनीय रात्रि उनके नये संग्रहों की सुहागरात होती है।

महाकवि अलंकार-युक्त कविता के पक्षधर नहीं हैं। उनका प्रयास रहा है कि कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकारों से मुक्त कर, जीवन और प्रकृति के नजदीक लाया जाय। इसीलिए उनकी कविताओं में ब्रश-मंजन-पाखाने से लेकर संभोग तक के नितान्त सजीव चित्र मिलते हैं। कविता के अलंकारों को एक-एक कर उतारते हुए उन्होंने कामिनी को लगभग निर्वस्त्र कर दिया। अब उनकी कविता प्रकृति के बहुत नजदीक पहुँच चुकी है। उनके कविता-संग्रहों के शीर्षक इस प्रकार हैं---‘अनुभूतियों का सच’, ‘अनुभूतियों का महाज्वार’, ‘अनुभूतियों का अन्तर्जाल’, ‘घास के फूल’ इत्यादि।

अब निरीह पाठकों के बीच एक सवाल हमेशा तनकर खड़ा रहा कि लगभग 44 हज़ार कविताओं के विषय आते कहाँ से हैं !?
हम और आप भले ही स्तंभित हों, लेकिन महाकवि के सामने यह सवाल कभी नहीं खड़ा हो सका।

महाकवि बवासीर के मुस्तकिल रोगी हैं। “वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान....”। इस फार्मूले को थोड़ा सामयिक रंग दे दें---“ रोगी होगा पहला...”----तो महाकवि की प्रेरणाओं का पहला अक्षय स्रोत यही मुआ बवासीर ही लगता है। इसी आह से उपजा होगा गान।
इसके अलावा तीन और स्रोत हैं जहाँ से महाकवि अपनी कविताएँ लाते रहे होंगे।

प्रथम, श्रीहरि ने महाकवि को ठीक उसी तरह की शक्ल-सूरत दी थी, जैसी उन्होंने स्वयंवर के समय देवर्षि नारद की कर दी थी। इसीलिए महाकवि की कविताओं में सौन्दर्य के लिए खुली चुनौती आजीवन बनी रही।

द्वितीय, महाकवि पत्नी-पीड़ित भी थे। उनके पास-पड़ोस के लोग रात में चौंककर उठ जाते थे, जब कवि-पत्नी महाकवि को पीटने लगतीं। कई बार तो वे अल्पवस्त्रों में ही आधी रात भड़भड़ा कर बाहर भागते देखे गए। उपरोक्त परिस्थिति भी कविता के लिए बहुत उर्वर भाव-भूमि तैयार करती है।

तृतीय, सेवानिवृत्त होते ही महाकवि अपने से पन्द्रह वर्ष छोटी एक सद्यःविधवा प्राध्यापिका पर मुग्ध हो गए। वे प्रेम में इतने असहाय हो उठे कि दिन-दिन भर प्राध्यापिका के घर बैठे प्रेम की याचना करते रहते। पर महोदया नहीं पिघलीं। बात कवि-पत्नी तक भी पहुचनी ही थी। तभी वियोग-श्रृंगार घटित हुआ। एक अप्रिय संयोग के चलते महाकवि-प्राध्यापिका-कविपत्नी की मुठभेड़ हो गई। भाव-विभाव-अनुभाव-संचारी भावों का उच्चतम प्रस्फोट हुआ। और महाकवि जब बाहर निकले तो उनके माथे से रक्त-धार  बह रही थी।

महाकवि आज भी पूरे वेग से कविता-कामिनी के कलेवर को अलंकार-मुक्त करके उसे प्रकृतिस्थ करने की अपनी महासाधना में तल्लीन हैं। 


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