Saturday, 10 June 2017
किसने बोला राजा नंगा है !
Thursday, 18 May 2017
धरती के स्वर्ग में कश्मीरी लाल मिर्च !
सबसे पहले कश्मीर के मौजूदा दृश्य पर एक विहंगम नज़र डाल लेते हैं. इसके बाद कश्मीर के निकटवर्ती अतीत में उतरेंगे. धरती का स्वर्ग माने जाने वाले कश्मीर में आज कश्मीरी लाल मिर्च की तीखी गंध आबो-हवा में तैर रही है. आज़ादी के बाद कश्मीर में अस्थिरता का यह सबसे भीषण दौर है. नब्बे के दशक में, जब कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर था, तब भी कश्मीर को लेकर शेष भारतीयों के मन में ऐसा संशय नहीं था, जैसा आज है. पाकिस्तान की नज़र तब भी कश्मीर पर थी, आज भी है. आज हम ज्यादा बड़ी और ताकतवर सैन्यशक्ति हैं. लेकिन आज हम आश्वस्त नहीं हैं कि कश्मीर को बचा पाएंगे या नहीं.
इन दिनों जब हम कश्मीर की कल्पना करते हैं तो उसमें डल झील, शफ़्फ़ाफ़ चोटियाँ, सेब के बगीचे और दिल में जादू जगाने वाली स्त्रियाँ नहीं दिखतीं. अब सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकते बच्चे, बूढ़े, जवान और लड़कियाँ दिखती हैं. उजाड़ घाटी और गाँव दिखते हैं. सेना के मारे जा रहे अधिकारी और जवान दिखते हैं. धुँआ दिखता है और धुँआ धुँआ ज़िन्दगी दिखती है. महबूबा मुफ्ती र फारुख अब्दुल्ला की कुटिल मुस्कान दिखती है.
केन्द्र में मोदी की सरकार बनने के बाद बहुसंख्यक कश्मीरी जनता किसी अदृश्य-अमूर्त आशंका से भर गई थी. आगे चलकर जब राज्य में महबूबा की पीडीपी और भाजबा की गठबंधन सरकार बनी तो कश्मीरी जनता, राजनीति और शासन में असमंजस और बढ़ गया. महबूबा हमेशा अलगाववादियों के प्रति सहानुभूति रखती रही हैं. और भाजपा अलगाववादियों का मुह तक नहीं देखना चाहती. भाजपा जब सत्ता में नहीं थी तो उसने अक्सर धारा 370 के औचित्य पर सवाल उठाए. जाहिर है, कश्मीर को लेकर दोनों के एजेण्डे अलग हैं. पिछले ग्यारह महीनों में कश्मीर में उपद्रव बहुत अधिक बढ़ गया. सीमापारसे लगातार हमले हो रहे हैं. आतंकवादी बैंक लूट रहे हैं. जवानों को मार रहे हैं. हमें कहा जा रहा है कि अपनी सेना पर भरोसा रखें. हम रखे हुए हैं भरोसा. प्रधानमंत्री जी कश्मीर पर कुछ नहीं बोलते. रक्षामंत्री हर हमले के बाद इसे दुश्मन की कायराना हरकत करार देते हैं. गृहमंत्री कड़ी निन्दा कर देते हैं. इस बीच वो हुआ जो अब तक नहीं हुआ था. अभी तक विश्व समुदाय यही कहता रहा है कि कश्मीर, भारत-पाकिस्तान का द्विपक्षीय मसला है. हम इसमें दखल नहीं देंगे. लेकिन कुछ दिन पहले अमेरिका ने चेतावनी दी है कि अगर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष बढ़ा तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा. इस चेतावनी के बाद मुझे एकाएक ईराक, अफगानिस्तान और सीरिया के मंज़र नज़र आने लगे. आज़ाद भारत की यह सबसे बड़ी कूटनीतिक पराजय है.
मुझे ताज्जुब हुआ यह देखकर कि कश्मीर पर कुछ कहने लिखने में प्रतिष्ठित सेकुलर विचारक और लेखक संकोच कर रहे हैं. जिन्होंने कुछ लिखा भी तो इस पूर्व घोषणा के साथ कि ‘जुर्रत कर रहा हूँ’. यद्यपि उन्होंने लिखा पर ऐसी कोई जुर्रत नहीं की, जो उन्हें असुविधा में डाल दे. कश्मीर पर लिखने से हमारे सेकुलर साथी आमतौर पर बचते रहे हैं. लेकिन इस बार मीडिया के उन्मादी कवरेज और सोशल मीडिया में अपने प्रशंसकों के दबाव में इन लेखकों को कुछ कहने लिखने को मजबूर होना पड़ा.
कश्मीर पर कुछ बोलने में संकोच क्यों हो जाता है ? क्या इसलिए कि कश्मीर पर कुछ बोलते हुए एक ऐसी इमानदारी की दरकार है जो आपकी वैचारिक छवि पर एक खरोंच लगा सकती है ? कश्मीर पर बात करते हुए पहले आपको कश्मीरी हिन्दुओं और बौद्धों की बात करनी पड़ेगी, उसके बाद मुसलमानों की. कश्मीर पर बात करते हुए आपको पहले कश्मीरी पंडितों की दुखती रग पर हाथ रखना पड़ेगा. कश्मीर पर बात करते हुए आपको कहना होगा कि वहाँ मुसलमान आक्रान्ता हैं. लेकिन इतनी हिम्मत हममें नहीं है. इसीलिए हम कुछ रटे हुए जुमलों के सहारे कश्मीर की झीलों में अपनी नैया खेते रहते हैं. हम पाकिस्तान, आई.एस.आई., और भारतीय सेना को मिलाकर एक ऐसा रसायन तैयार करते हैं जो कश्मीर की रगों में उन्माद पैदा कर देता है.
हमें यह मानने में संकोच क्यों होता है कि कश्मीर पहले हिन्दुओं का है, उसके बाद मुसलमानों का. कश्मीर की स्वायत्तता की माग, कश्मीरी हिन्दुओं का हक है, अलगाववादी मुसतमानों का नहीं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महर्षि कश्यप के नाम पर स्थापित कश्मीर प्राचीनकाल में हिन्दुओं का राज्य था. जब यहाँ सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार किया तो बौद्धों की अच्छी खासी आबादी यहाँ निर्मित हो गई. हिन्दू और बौद्ध, दोनों धरती के इस स्वर्ग पर बिना किसी तकरार के रह रहे थे. मध्यकालीन संस्कृत कवि कल्हड़ ने अपनी कृति ‘राजतरंगिणी’ में कश्मीर राज्य के सौन्दर्य, वैभव और सहअस्तित्व का उदात्त वर्णन किया है. कश्मीर पर अशोक और उज्जैयिनी के शासक विक्रमादित्य द्वितीय का भी शासन रहा. आधुनिक काल में रणजीत सिंह ने कश्मीर पर आक्रमण करके वहाँ सिखों का शासन स्थापित किया लेकिन बाद में कश्मीर के राजा गुलाब सिंह से उनकी सन्धि हो गई और कश्मीर, कश्मीरियों को वापस मिल गया.
इस बीच मुसलमान कश्मीर में आ चुके थे. 12 वीं शताब्दी के अन्त तक फारस से सूफी इस्लाम कश्मीर में आया. सूफी इस्लाम प्रेम और भक्ति का प्रचारक था, इसलिए कश्मीर में वह बड़ी सहजता से स्थापित हो गया. धीरे धीरे कश्मीर में इस्लाम बढ़ता गया और चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर पर मुस्लिम शासन शुरू हो गया. इसके बाद कश्मीर में कभी हिन्दू तो कभी मुस्लिम शासन रहा. आप जानते हैं कि भारत की आजादी के समय कश्मीर के राजा हरि सिंह थे और कश्मीर एक स्वायत्त रियासत थी. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की एक अहम शर्त के मुताबिक देशी रियासतों को यह फैसला करने की आजादी दी गई कि वो भारत अथवा पाकिस्तान राज्य में अपना विलय कर लें या स्वतंत्र बने रहें. हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र रखना चाहते थे. यहीं से कश्मीर की कभी न खत्म होने वाली समस्या शुरू होती है.
इतिहास की बात फिलहाल यहीं तक. अब बात वर्तमान की. कश्मीर का वर्तमान शुरू होता है ठीक भारत की आजादी के समय से. कश्मीर का वर्तमान शुरू होता है जवाहर लाल नेहरू की उस ऐतिहासिक भूल से जब उन्होंने कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में पहुँचा दिया. यह बात 1947-48 के कबाइली हमलों के बाद की है. कबाइलियों के साथ मिलकर पाकिस्तानी सेना ने जब कश्मीर पर आक्रमण किया तो हरि सिंह को भारत की मदद लेने के लिए मजबूर होना ही था. और मदद भी कश्मीर के भारत राज्य में विलय की शर्त पर ही मिलनी थी. इसे स्वीकार किया जाना चाहिए कि यह एक भौगोलिक और राजनीतिक विलय था. कश्मीरी मुसलमान आधे अधूरे मन से ही भारतीय राष्ट्र के नागरिक बने थे. कबाइली हमले में कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के कब्जे में चला गया, तो नेहरू इसकी गुहार लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की चौखट पर चले गए. संयुक्त राष्ट्र संघ ने जो समाधान दिया. वही भारत के गले की फाँस बन गया. उसने कहा कि पाकिस्तान कब्जे वाले इलाके से कबाइलियों को हटाए, और भारत कश्मीर में जनमत संग्रह कराए. लेकिन न तो पाकिस्तान ने कबाइलियों को हटाया और न भारत ने जनमत संग्रह कराया.
1957 में जब कश्मीर की विधानसभा ने भारत में कश्मीर के विलय को वैधानिक स्वीकृति दी, तभी यह तय हो गया था कि कश्मीर बरसों बरस भारत का सिरदर्द बना रहेगा. कश्मीरियों के जनमत संग्रह को टालने के लिए जो शर्तें भारत राष्ट्र ने मानीं, उनसे हमेशा के लिए भारत और कश्मीर के बीच एक परायापन पैदा हो गया. कश्मीर में आपातकाल नहीं लागू हो सकता. कश्मीर का राज्यपाल, वहाँ के मुख्यमंत्री की सलाह पर नियुक्त होगा. कश्मीर की दण्ड संहिता अलग है. संविधान अपना है. विदेशी मामलों, सुरक्षा और मुद्रा चलन को छोड़कर, बाकी हर मामले में कश्मीर स्वायत्त हो गया.
इसी स्वायत्तता को स्वतंत्रता में बदल देने की महत्वाकांक्षा में कश्मीरी मुसलमानों नें कश्मीर के मूल निवासियों को धीरे धीरे वहाँ से खदेड़ना शुरू कर दिया. लाखों कश्मीरी हिन्दू अपनी ज़मीन से विस्थापित होकर दर दर भटकने को मजबूर हुए. हिन्दुओं को विस्थापित करने के लिए कश्मीरी मुसलमानों ने आतंकवाद का सहारा लिया. पाकिस्तान के लिए यह सुनहरा मौका था. पहले पाकिस्तान से फंडिंग शुरू हुई. फिर नब्बे का दशक आते आते पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवाद का प्रायोजक बन गया. विदेशी जमीन से चलाए जा रहे आतंकवाद से निपटना भारत सरकार के लिए कठिन जरूर था लेकिन असंभव नहीं. भारतीय फौज की जाँबाजी और शहादत के दम पर भारत ने 21 वीं सदी के आते आते, कश्मीर के आतंकवाद पर काफी हद तक काबू पा लिया. पिछले तीन आम चुनावों में कश्मीरी जनता के उत्साह और भागीदारी को देखकर यह लगने लगा था कि कश्मीरी मुसलमान अपली अलगाववादी मानसिकता को छोड़ रहे हैं. भारत की असली जीत यही होती कि कश्मीरी मुसलमान भारत को अपना देश मानने लगते.
कश्मीर के मुसलमानों और देश के बाकी हिस्से के मुसलमानों की मानसिकता में एक बड़ा फर्क है. देश के दूसरे हिस्सों के कुछ मुसलमानों के भीतर हिन्दुओं के प्रति साम्प्रदायिक द्वेष भले हो, लेकिन देश के तौर पर भारत से उनका कोई नकार नहीं है. उग्र हिन्दुत्व के तमाम प्रयासों के बाद भी वो यह मानने को तैयार नहीं हुए कि उनका कोई और मुल्क हो सकता है. लेकिन कश्मीरी मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग, पाकिस्तान में अपना संभावित मुल्क देखता है. उनकी इस आकांक्षा को कश्मीर के राजनेता कभी खुलकर तो कभी छुपकर हवा देते रहे. बुरहान वानी की मौत पर जब फारुक अब्दुल्ला यह कहते हैं कि वह मरने वाला आखिरी नौजवान नहीं है, तो वे कश्मीर में भड़क रही आग और उसकी लपट को बढ़ाने वाली हवा की ओर संकेत कर रहे है.
कश्मीर इन दिनों अलगाववाद के उभार के एक ऩये दौर में है. यह उभार अहमद शाह गिलानी, मीर वाइज़ र यासीन मलिक के दौर से कुछ अलग चरित्र लिए हुए है. कश्मीर में अब असल समस्या आतंकवाद नहीं है. यहाँ आतंकवाद अब एक व्यवसाय बन गया है. अलगाववादी नौजवानों को विदेशी आतंकी संगठनों से पैसा मिलता है. केन्द्र राज्य सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए अनाप शनाप पैसे कश्मीर में देती हैं. साथ ही कश्मीर में सक्रिय एन.जी.ओ., धार्मिक संगठनों से भी कश्मीरी मुसलमान पैसे ऐंठते हैं.
केन्द्र में मोदी सरकार बनने के बाद कश्मीर में एक नये तरह की हलचल पैदा हुई. कश्मीरी यह जानते थे कि संघ और भाजपा कश्मीर में धारा 370 के पक्ष में नहीं रहे हैं. मोदी सरकार के आते ही उन्हें कश्मीर की स्वायत्तता खतरे में दिखने लगी. कहना न होगा कि कश्मीर में स्वायत्तता की आड़ में ही अलगाववाद पलता रहा है. महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा के गठबंधन ने कश्मीरियों के संदेह को और मजबूत किया. सब जानते हैं कि महबूबा की पार्टी हमेशा अलगाववादी मुसलमानों का समर्थन करती रही है. कश्मीरियों को लगने लगा है कि भाजपा और महबूबा के बीच कोई ऐसा गुपचुप एजेण्डा है जो उनके हितों को कोई अप्रत्याशित क्षति पहुँचा सकता है.
अब तक जितनी सरकारें केन्द्र में रहीं, उनकी प्राथमिक कोशिश रही है कि कश्मीर अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा न बने. कोई भी सरकार नेहरू की गलती दोहराना नहीं चाहती थी.इसलिए कश्मीर में पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जाता रहा और उसे समस्या के केन्द्र में बताया गया. जबकि असल समस्या कश्मीर का कुशासन, बढ़ती बेरोजगारी, और कश्मीरी हिन्दुओं का विस्थापन था. कश्मीर को अपने साथ रखने के लिए सबसे जरूरी है कि कश्मीरी हिन्दुओं का पुनर्वास कराया जाये, ताकि कश्मीरी मुसलमानों के भीतर से एकाधिकार का भाव खत्म हो. कश्मीर के शासन में हिन्दुओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाये. युवाओं को वैध रोजगार मुहैया कराये जाने चाहिए. कश्मीर में अवैध तरीके से आ रहे धन को रोकने के पुख्ता इंतज़ाम भी होने चाहिए. यह सब तभी हो सकता है जब केन्द्र और राज्य सरकार के बीच बेहतर समझ और तालमेल हो.
बुरहान वानी की मौत के बाद उमड़ी कश्मीरियों की भावना से बहुतों को लगा कि यह सेना की ज्यादती के खिलाफ प्रतिक्रिया है. सेना को आततायी की तरह पेश किया गया. लेकिन यह एक भ्रम है. सेना पर हो रहे उग्र हमले, असल में राष्ट्र के विरुद्ध आक्रोश है. सेना तो राष्ट्र का एक टूल है. कश्मीरियों को याद होगा, जब पिछले साल बाढ़ से कश्मीर तबाह हो रहा था तो सेना ने ही उनका जीवन बचाया था. कश्मीरियों नें खुले दिल से सेना का एहसान माना था. ऐसा नहीं हो सकता कि साल भर में सेना उन्हें दुश्मन नज़र आने लगे. कश्मीरियों का यह उग्र व्यवहार, अपनी स्वायत्तता खोने और मुफ्त के पैसों से हाथ धोने के डर से पैदा हुआ है.
Wednesday, 5 April 2017
पहली अप्रैल की अविस्मरणीय जन्मदिन पार्टी
पहली अप्रैल आती है तो मुझे हर साल एक वाकया याद आता है। बात तब की है जब मैं सातवीं या आठवीं में पढ़ता था। उन दिनों हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में जन्मदिन मनाने का ऐसा रिवाज़ नहीं था जैसा आज है। बड़े बुजुर्गों का जन्मदिन या तो किसी को पता ही नहीं होता था या फिर याद नहीं रहता था। सो उनका जन्मदिन मनाने का सवाल ही नहीं था। घर के बच्चों में भी जो वयस्क होते थे, सुबह उठकर माता-पिता के पैर छूकर आशीर्वाद ले लिया करते और जन्मदिन का इति-सिद्धम हो जाता था। अलबत्ता छोटे बच्चों के जन्मदिन पर थोड़ी बहुत हलचल जरूर होती थी। अक्सर घरों में यह होता था कि जब सबसे छोटा बच्चा आ जाता था, तो उससे बड़े बच्चों के जन्मदिन समारोह हमेशा के लिए बन्द हो जाते थे। बहुत हुआ तो उन्हें एक जोड़ी नये कपड़े दिला दिए बस। जिस सबसे छोटे वाले का जन्मदिन मनाया जाता वह भी कुछ अधिक ही सादगीपूर्ण होता। बहुत हुआ तो घर में सत्यनारायण की कथा करवा ली और पड़ोस के छोटे बच्चों को बुलाकर खाना खिला दिया। बच्चे पेंसिल, रबर, कटर, टिफिन बॉक्स, प्लास्टिक की गेंद आदि बतौर गिफ्ट दिया करते थे। मज़ा आ जाता था।
यह वाकया उन्हीं दिनों का है। मेरा एक सहपाठी दोस्त अशोक, 1 अप्रैल को लगभग साढ़े ग्यारह बजे सुबह कहें या दोपहर, मेरे घर आया। उसके हाथ में उसकी पिछली कक्षा की मार्कशीट थी। मार्कशीट मुझे दिखाते हुए उसने मुझसे कहा कि आज उसका जन्मदिन है। तुम मेरे घर पार्टी में आना। आज 1 अप्रैल है, इसलिए यह मार्कशीट लेता आया हूँ कि कहीं तुम यह न समझो कि अप्रैल फूल बना रहा हूँ। पार्टी दोपहर में ही है। और फिर थोड़ा सकुचाते हुए अशोक ने कहा—“ सुनो जो गिफ्ट देना हो, उसके बदले पैसे ही दे दो। उससे कुछ खाने का सामान और आ जाएगा।“ मैने अम्मा से मागकर उसे पच्चीस रुपये गिफ्ट के बदले दिए। वह आने का पक्का वादा लेकर चला गया।
बात असल में यह थी कि अशोक के पापा ‘बाप बहादुर’ टाइप के पिता थे। कड़क मिज़ाज़। पेशे से वकील थे। घर में किसी का जन्मदिन मनाने का रिवाज़ नहीं था उनके। उस दिन अशोक और उसकी छोटी बहन मोनू ने मिलकर यह क्रान्तिकारी कदम उठा लिया था कि उनके घर में भी जन्मदिन मनाया जाएगा, लेकिन पिताजी से छुपाकर। माँ को किसी तरह उन्होंने पटा लिया था और थोड़े पैसे भी उनसे लेने में कामयाब हो गए थे। दोनों भाई-बहन ने अपने पास के पैसे मिलाए। पच्चीस रुपए मुझसे भी मिल गए थे एडवांस। पार्टी का टाइम दोपहर का सलिए रखा गया क्योंकि उस वक्त पिताजी कोर्ट में रहते थे। योजना यह थी कि पिताजी के आने के पहले बर्थडे पार्टी खत्म करके उसके सारे नामो-निशान मिटा देने हैं।
वादे के मुताबिक मैं दोपहर में अशोक के घर पहुँच गया। अशोक मुझे घर के पीछे के कमरे में ले गया जहाँ पार्टी होनी थी। अशोक की बहन मोनू ने वहाँ एक टेबल पर अनुपम होटल के समोसे, पेस्ट्री, थोड़ी मिठाई, केले आदि सजा रखे थे। बैठक से टेप रिकॉर्डर भी उठा लाई थी जिसमें गाना चल रहा था। मुझे ताज़्ज़ुब तब हुआ जब पता चला कि पार्टी में मेहमान के तौर पर सिर्फ मैं बस हूं। खैर ! पार्टी की रूपरेखा यह थी कि मोनू टेप रिकॉर्डर पर गाना चलाकर दो-तीन डान्स आइटम पेश करेगी और मैं कुछ गाने सुनाऊँगा। उसके बाद हम लोग नाश्ता करेंगे। अशोक को हैप्पी बर्थडे बोलेंगे और मैं अपने घर चला जाऊँगा। और कभी उसके पापा के सामने इस हादसे का ज़िक्र नहीं करूँगा।
तो हम तीन लोगों के साथ पार्टी शुरू हुई। टेप बजा कर मोनू ने डान्स शुरू किया। अशोक और मैं तालियाँ बजा रहे थे। मोनू के नृत्य का एक-दो छन्द ही हुआ था कि अनहोनी घट गई। न जाने कहाँ से धड़धड़ाते हुए उनके पापा कमरे में घुसे। हम सब सन्न। उन्होंने दहाड़ते हुए पूछा कि यह क्या हो रहा है ? उनके पूछने के साथ ही अशोक और मोनू, फुर्ती के साथ कब अदृश्य हो गए, मुझे पता ही नहीं चला। मुझे काटो तो खून नहीं। उनकी मुद्रा देख कर लगा कि अब ये मुझे ही पीटेंगे। लेकिन पिताजी अशोक और मोनू को पकड़ने लपके। मुझे मौका मिल गया तो मैं भी भाग खड़ा हुआ। अपने घर तक वैसे ही भागता आया जैसे कुत्ते ने खदेड़ रखा हो। इस तरह अशोक का जन्मदिन सम्पन्न हुआ। नाश्ते का क्या हुआ पता नहीं चला। बाद में स्कूल में अशोक ने बताया कि उसकी खूब कुटाई हुई। मोनू को बख्श दिया था बाप बहादुर ने। माताजी भी कोप का भाजन बनीं थीं।
Friday, 24 March 2017
हिन्दी सिनेमा में होली के रंग
भारतीय सिनेमा और होली का, चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दी फिल्मों ने होली के सीक्वेन्स को बार बार दिखाया है। होली का पर्व सिनेमा में हमेशा गीतों और नृत्य के जरिए आता रहा है। फिल्मों में होली का आगमन 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ में हुआ। निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने फिल्म में होली का सीक्वेंस फिल्माकर एक इतिहास की नीव रखी। यह श्वेत-श्याम फिल्मों का ज़माना था। यह भी एक संयोग है कि रंगीन फिल्मों में जब होली को उसका असली रंग मिला तब भी दिलीप कुमार ही थे। पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ में दिलीप कुमार और निम्मी होली खेलते नज़र आए। फिर तो यह सिलसिला चल निकला। 1958 में आई मशहूर फिल्म ‘मदर इंडिया’ में शमशाद बेगम का गाया गीत “होली आई रे कन्हाई...” आज भी बेहद लोकप्रिय है और होली के दिन गाया-बजाया जाता है। उसके अगले ही साल वी. शान्ताराम की फिल्म ‘नवरंग’ में भी होली का एक गीत था। “जा रे हट नटखट....”, महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया। इस फिल्म में महिपाल, दिवाकर नाम के कवि की भूमिका में हैं। आपको याद होगा कि इस फिल्म में काव्य के नौ रसों की अलग-अलग स्थितियों के माध्यम से अभिव्यक्ति की गई है।
Sunday, 5 March 2017
ज़िन्दगी लाइव: फंतासी झूठ नहीं, संभावना है !
Sunday, 5 February 2017
सिनेमाई यथार्थ और पद्मावती का लोक आख्यान
बाज़ारवाद के स्वर्णकाल में, जब सारे कला-माध्यम अपना असर लगभग खो चुके हैं, सिनेमा ने कुछ हद तक अपना असर बचाए रखा है. सिनेमा प्रत्यक्षत: किसी परिवर्तन का निमित्त भले ही न बन पा रहा हो लेकिन इतनी ताकत उसमे अभी भी दिखती है कि वह समय समय पर किसी विवाद को जन्म दे देता है. सिनेमा में इतना असर अभी भी है कि वह बीच-बीच में ऐसी बहसों का कारण बन जाता है, जिनसे इतिहास-भूगोल से कटे हुए लोग भी इतिहास-भूगोल की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अब यह अलग बात है कि अक्सर ये यात्राएँ छोटी और अल्पप्राण ही होती हैं. सिनेमा के बरक्स अगर दूसरे कला-माध्यमों को देखा जाए तो लगभग सभी का जनमानस से सीधा संवाद और रिश्ता बहुत कम बचा है. ये कला-माध्यम कोई सांस्कृतिक हलचल पैदा करने की हैसियत खो चुके हैं.
फिल्मों से विवाद पैदा होना कोई नई बात नहीं है. सिनेमा के इतिहास पर जिनकी नज़र है, वो जानते हैं कि कई फिल्मों ने विवादों और बहसों को जन्म दिया है. अक्सर ये विवाद फायदेमंद भी रहे हैं. फिल्मकारों के लिए अक्सर ये विवाद संजीवनी साबित हुए हैं. लेकिन कुछ वर्षों से फिल्मों से जुड़े सारे विवाद धार्मिक आपत्तियों पर केन्द्रित होते जा रहे हैं. वही फिल्में विवादित हो रही हैं जिन्होने किसी धार्मिक विषय को छुआ है या कोई टिप्पणी की है. इस रुझान की उग्र शुरुआत तब हुई थी जब मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपनी कुछ फिल्में बनायीं. हुसैन साहब अपनी पेन्टिंग्स को लेकर पहले से ही सांप्रदायिक उपद्रवियों के निशाने पर थे. अंतत: उन्होंने देश ही छोड़ दिया था. आपको याद होगा कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ में भी कथित कथित धार्मिक टिप्पणियों के खिलाफ बहुत हंगामा हुआ था. तब कमल हासन ने भी देश छोड़ देने की धमकी दी थी. आमिर खान की एक-दो फिल्मों पर विवाद हुए. अभिनेता-निर्देशक चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से फिल्म बना रहे थे. कई अड़चनों के बाद फिल्म बनकर तैयार भी हो गयी. लेकिन दुर्योग ने इस फिल्म का साथ नहीं छोड़ा. फिल्म का ट्रेलर रिलीज हुआ तो हंगामा मच गया. कुछ हिन्दू संगठनों की धार्मिक आस्था फिर आहत हो गई. आज तक फिल्म रिलीज नहीं हो पायी. ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर उठा, जिसे फिल्मकार ने थोड़ी शर्मिन्दगी उठाते हुए सुलझा लिया. इस विवाद पर आगे थोड़ा विस्तार से बात करेंगे.
पहले एक सवाल सिने-प्रेमियों और समाज शास्त्रियों से. क्या भारतीय सिनेमा अब धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा ? या हम दर्शक ही धर्म-निरपेक्ष नहीं रहे ? बालीवुड हमेशा धर्मनिरपेक्षता की मिसाल के रूप में देखा जाता रहा है. हमने देखा है कि नाजुक सांप्रदायिक मौकों पर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने एक स्वर में लोगों को जोड़ने वाली आवाज़ उठाई. फिल्म निर्माण का पेशा और संस्कृति अपने स्वभाव में ही ऐसी है. बहाँ सांप्रदायिक विभाजन की गुंजाइश बहुत कम बनती है. बावजूद इसके, इधर एक दो वर्षों में बालीवुड को धार्मिक-सांप्रदायिक विवादों में घसीटा जाने लगा है. फिल्मकारों कलाकारों पर कट्टरपंथियों ने हमले किए. अक्सर हिन्दू कट्टरपंथी, फिल्मकारों पर आरोप लगाते हैं कि वे सिर्फ हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर चोट करते हैं. कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं दिखाते. यह आरोप लगाते हुए, सन 2007 में रिलीज हुई पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ को भूल जाते हैं. यह फिल्म युवा फिल्मकार शोयब मंसूर ने बनाई थी. पाकिस्तानी और भारतीय कलाकारों/टेकनीशियंस के मेल से बनी यह फिल्म इस्लामिक कट्टरवाद पर ज़बरदस्त प्रहार करती है. भारत में यह फिल्म 2008 में रिलीज हुई थी. फिल्मकार को कट्टर मुल्लाओं और आतंकियों की ओर से खूब परेशान किया गया.
ऐसे लोगों से मेरा प्रतिप्रश्न यह है कि क्या आपका धर्म इतना कमज़ोर है कि किसी की प्रतिकूल टिप्पणी से वह खण्डित हो जाएगा या उसका असर खत्म हो जाएगा ? और इतना ही कमज़ोर है आपका धर्म तो उसे ढोते रहने का क्या हासिल ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भारत समेत पूरी दुनिया के समाजों में धार्मिक कट्टरता और ध्रुवीकरण बढ़ा है. धर्म अब धारण करने की नहीं, उपयोग करने की चीज हो गया है. धर्म का उपयोग व्यक्ति के रूप में श्रेष्ठ होने के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के रूप में श्रेष्ठता आरोपित करने के लिए हो रहा है. असहिष्णुता कोई जुमला नहीं है, यह दो तिहाई दुनिया का सामाजिक सच है. लेखकों, फिल्मकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों का कोई और अर्थ है क्या ?
ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर हुआ. राजस्थान में फिल्म की शूटिंग के दौरान राजपूतों के संगठन श्री करणी सेना ने फिल्म यूनिट पर हमला कर दिया. उनका आरोप था कि पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच प्रणय संबन्धों के दृश्य फिल्माकर भंसाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और राजपूतों की गरिमा को आहत कर रहे हैं. उनका कहना है कि रानी पद्मावती को अलाउद्दीन छू भी नहीं सका था. रानी ने महल में मौजूद अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया था. यद्यपि करणी सेना की आपत्ति और हमला, इतिहास से छेड़छाड़ को आधार बना कर दिखती है, लेकिन असल बात धार्मिक असहिष्णुता ही है. एक मुगल शासक के साथ एक हिन्दू रानी को प्रणय, कट्टरपंथियों को कैसे स्वीकार हो सकता था !
रही बात इतिहास बदलने की. तो आइए देखते हैं कि इतिहास कहता क्या है. सच तो यह है कि किसी भी लिखित इतिहास में रानी पद्मावती का उल्लेख है ही नहीं. पद्मावती या पद्मिनी का चरित्र, साहित्य और राजस्थान की लोकगाथाओं में मिलता है. सूफी कवि-फकीर मलिक मुहम्मद जायसी ने सन 1540 के आसपास अवधी भाषा में महाकाव्य ‘पद्मावत’ की रचना की. महाकाव्य की नायिका रानी पद्मावती हैं. यह महाकाव्य प्रेम और विरह का अद्भुत आख्यान है. पद्मावती, सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी थीं इनके पिता गन्धर्वसेन और माता चंपावती थीं. स्वयंवर में विजय हासिल कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने इन्हें अपनी रानी बनाया. ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय दिल्ली सल्तनत पर खिलजी वंश का शासन था और अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान था. अलाउद्दीन सन 1296 से 1316, मृत्यु तक दिल्ली का सुल्तान रहा. उसकी राज्य विस्तार की नीति के कारण उसे सिकन्दर-ए-सनी (दूसरा सिकन्दर) की उपाधि मिली हुई थी. 1303 में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था. उसी आक्रमण के समय रानी पद्मावती के कथित जौहर की गाथा राजस्थान के लोकमानस में प्रचलित है. जायसी की रचना इस समय से लगभग 237 वर्ष बाद लिखी गई. जाहिर है कि उन्होने अपनी रचना का आधार राजस्थान की लोकगाथाओं को ही बनाया होगा. अत: ‘पद्मावत’ की कथा को इतिहास मानना बुद्धिमानी नहीं होगी. लोकगाथाएँ न तो कोरा झूठ होती हैं, और न पूरा इतिहास. ये गाथाएँ वाचिक परंपरा में चलती हुई, समय, संघर्ष और शिक्षण के आग्रहों से बदलती रहती हैं.
इतिहास के विवरणों में अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण और रतन सिंह के विवरण तो मिलते हैं, लेकिन रानी पद्मावती और उनके जौहर का कोई ज़िक्र नहीं है. यहाँ तक कि अलाउद्दीन के समकालीन कवि-इतिहासकार अमीर खुसरो ने भी पद्मावती का कोई उल्लेख नहीं किया है. अलबत्ता लोकगाथाओं से यह जरूर पता चलता है कि राणा रतन सिंह की पत्नी पद्मावती का सौन्दर्य अप्रतिम था. रतन सिंह के दरबारी संगीतकार राघव चैतन्य थे, जिनका बड़ा मान था. वो एक तांत्रिक भी थे. कहा जाता है कि वो अक्सर महल में बुरी आत्माओं को बुलाते थे. रतन सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने राघव चैतन्य को अपमानित कर राज्य से निर्वासित कर दिया. अपमानित राघव दिल्ली, अलाउद्दीन के पास पहुच गए. हृदय में रतन सिंह से बदले की आग थी. अलाउद्दीन के सामने उन्होंने रानी पद्मावती के रूप का ऐसा वर्णन किया कि सुल्तान पद्मावती को पाने के लिए उद्धत हो उठा. उसने चित्तौड़ की घेराबन्दी कर दी और राजा रतन सिंह को बन्दी बना लिया. राजा की रिहाई के बदले पद्मावती को पाने की शर्त रखी. चित्तौड़ के सेनापति गोरा और बादल ने कूट रचना की और अलाउद्दीन को संदेश भेजा कि रानी पद्मावती को उसके पास भेजा जा रहा है. सात सौ पालकियों में रानी का काफिला अलाउद्दीन के शिविर पर पहुँचा. लेकिन रानी उसमें नहीं थीं. उन पालकियों में सशस्त्र सैनिक थे. काफी संघर्ष के बाद गोरा-बादल ने रतन सिंह को अलाउद्दीन के चंगुल से छुड़ा लिया. गोरा युद्ध में मारा गया, लेकिन बादल, रतन सिंह को सुरक्षित महल तक पहुँचाने में सफल रहा. इस पराजय से आहत अलाउद्दीन ने दोबारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया और रतन सिंह सहित सारे सैनिकों को मार डाला. महल के अन्दर पद्मावती समेंत दूसरी रानियों और स्त्रियों ने जब यह समझ लिया कि अब उनकी इज्जत सुरक्षित नहीं है तो उन्होंने महल के आँगन में आग जला कर सामूहिक जौहर कर लिया. अलाउद्दीन के सैनिक जब भीतर पहुँचे तो उन्हें राख और हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला.
यह कहानी है जो पद्मावत और लोक आख्यानों में मिलती है. संजय लीला भंसाली पद्मावती की कौन सी कहानी रच रहे हैं, अभी इसका पता नहीं है. लेकिन इतना तय है कि भंसाली, सिनेमा के अपरिहार्य तत्व ‘मनोरंजन’ और बॉक्स ऑफिस का खयाल जरूर रखेंगे. यद्यपि विवाद के बाद भंसाली ने श्री राजपूत महासभा के अध्यक्ष के साथ मिलकर यह सफाई दी कि फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच कोई रोमैन्टिक दृश्य नहीं रहेंगे. यह बेशक एक समझौता है. अगर लोकगाथाओं को भी आधार बना कर फिल्म बनाई जाए, तो क्या यह संभव है कि जो अलाउद्दीन, पद्मावती को पाने के लिए इस तरह व्याकुल हो, उसके सपनों और कल्पना में पद्मावती से प्रणय के चित्र न रहे होंगे ! और कौन ऐसा फिल्मकार होगा जो अपनी फिल्म में ऐसा ड्रीम सीक्वेन्स न डालेगा ! भंसाली मँजे हुए फिल्मकार हैं. उन्होंने यह समझौता किया है तो नफा-नुकसान सोच कर ही किया होगा. फिल्म में काट-छाँट के बाद भी इस विवाद ने फिल्म की व्यावसायिक सफलता की गारण्टी तो दे ही दी है.
लेकिन यदि संजय लीला भंसाली, फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच प्रणय दृश्य दिखाते तो क्या गलत होता ? समाज में सिनेमा की ऐसी व्यापक लोकप्रियता और स्वीकृति क्या सिनेमा के यथार्थवाद की वजह से है ? सिनेमा एक ऐसा कला-माध्यम है जो हमारे सपनों और अवचेतन की ग्रंथियों को परदे पर रूपायित करता है. सिनेमा, यथार्थ का एक ऐसा काल्पनिक विस्तार है जो हमारी आकांक्षाओं को तुष्ट करता है. इसीलिए सिनेमा को शुरुआत से ही यह छूट मिली हुई है कि वह इतिहास-भूगोल के साथ आवश्यक कलात्मक छेड़छाड़ कर ले. मनुष्य का मनोविज्ञान यही बताता है कि उसके भीतर इतिहास-भूगोल का अतिक्रमण करने की एक अदम्य लालसा हमेंशा बनी रहती है.
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