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Sunday 5 February 2017

सिनेमाई यथार्थ और पद्मावती का लोक आख्यान

         बाज़ारवाद के स्वर्णकाल में, जब सारे कला-माध्यम अपना असर लगभग खो चुके हैं, सिनेमा ने कुछ हद तक अपना असर बचाए रखा है. सिनेमा प्रत्यक्षत: किसी परिवर्तन का निमित्त भले ही न बन पा रहा हो लेकिन इतनी ताकत उसमे अभी भी दिखती है कि वह समय समय पर किसी विवाद को जन्म दे देता है. सिनेमा में इतना असर अभी भी है कि वह बीच-बीच में ऐसी बहसों का कारण बन जाता है, जिनसे इतिहास-भूगोल से कटे हुए लोग भी इतिहास-भूगोल की यात्रा पर निकल पड़ते हैं. अब यह अलग बात है कि अक्सर ये यात्राएँ छोटी और अल्पप्राण ही होती हैं. सिनेमा के बरक्स अगर दूसरे कला-माध्यमों को देखा जाए तो लगभग सभी का जनमानस से सीधा संवाद और रिश्ता बहुत कम बचा है. ये कला-माध्यम कोई सांस्कृतिक हलचल पैदा करने की हैसियत खो चुके हैं.

फिल्मों से विवाद पैदा होना कोई नई बात नहीं है. सिनेमा के इतिहास पर जिनकी नज़र है, वो जानते हैं कि कई फिल्मों ने विवादों और बहसों को जन्म दिया है. अक्सर ये विवाद फायदेमंद भी रहे हैं. फिल्मकारों के लिए अक्सर ये विवाद संजीवनी साबित हुए हैं. लेकिन कुछ वर्षों से फिल्मों से जुड़े सारे विवाद धार्मिक आपत्तियों पर केन्द्रित होते जा रहे हैं. वही फिल्में विवादित हो रही हैं जिन्होने किसी धार्मिक विषय को छुआ है या कोई टिप्पणी की है. इस रुझान की उग्र शुरुआत तब हुई थी जब मशहूर चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अपनी कुछ फिल्में बनायीं. हुसैन साहब अपनी पेन्टिंग्स को लेकर पहले से ही सांप्रदायिक उपद्रवियों के निशाने पर थे. अंतत:  उन्होंने देश ही छोड़ दिया था. आपको याद होगा कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम’ में भी कथित कथित धार्मिक टिप्पणियों के खिलाफ बहुत हंगामा हुआ था. तब कमल हासन ने भी देश छोड़ देने की धमकी दी थी. आमिर खान की एक-दो फिल्मों पर विवाद हुए. अभिनेता-निर्देशक चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, कथाकार काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर ‘मोहल्ला अस्सी’ नाम से फिल्म बना रहे थे. कई अड़चनों के बाद फिल्म बनकर तैयार भी हो गयी. लेकिन दुर्योग ने इस फिल्म का साथ नहीं छोड़ा. फिल्म का ट्रेलर रिलीज हुआ तो हंगामा मच गया. कुछ हिन्दू संगठनों की धार्मिक आस्था फिर आहत हो गई. आज तक फिल्म रिलीज नहीं हो पायी. ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर उठा, जिसे फिल्मकार ने थोड़ी शर्मिन्दगी उठाते हुए सुलझा लिया. इस विवाद पर आगे थोड़ा विस्तार से बात करेंगे.

पहले एक सवाल सिने-प्रेमियों और समाज शास्त्रियों से. क्या भारतीय सिनेमा अब धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा ? या हम दर्शक ही धर्म-निरपेक्ष नहीं रहे ?  बालीवुड हमेशा धर्मनिरपेक्षता की मिसाल के रूप में देखा जाता रहा है. हमने देखा है कि नाजुक सांप्रदायिक मौकों पर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों ने एक स्वर में लोगों को जोड़ने वाली आवाज़ उठाई. फिल्म निर्माण का पेशा और संस्कृति अपने स्वभाव में ही ऐसी है. बहाँ सांप्रदायिक विभाजन की गुंजाइश बहुत कम बनती है. बावजूद इसके, इधर एक दो वर्षों में बालीवुड को धार्मिक-सांप्रदायिक विवादों में घसीटा जाने लगा है. फिल्मकारों कलाकारों पर कट्टरपंथियों ने हमले किए. अक्सर हिन्दू कट्टरपंथी, फिल्मकारों पर आरोप लगाते हैं कि वे सिर्फ हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर चोट करते हैं. कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों पर टिप्पणी करने की हिम्मत नहीं दिखाते. यह आरोप लगाते हुए, सन 2007 में रिलीज हुई पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ को भूल जाते हैं. यह फिल्म युवा फिल्मकार शोयब मंसूर ने बनाई थी. पाकिस्तानी और भारतीय कलाकारों/टेकनीशियंस के मेल से बनी यह फिल्म इस्लामिक कट्टरवाद पर ज़बरदस्त प्रहार करती है. भारत में यह फिल्म 2008 में रिलीज हुई थी. फिल्मकार को कट्टर मुल्लाओं और आतंकियों की ओर से खूब परेशान किया गया.

ऐसे लोगों से मेरा प्रतिप्रश्न यह है कि क्या आपका धर्म इतना कमज़ोर है कि किसी की प्रतिकूल टिप्पणी से वह खण्डित हो जाएगा या उसका असर  खत्म हो जाएगा ? और इतना ही कमज़ोर है आपका धर्म तो उसे ढोते रहने का क्या हासिल ? क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि भारत समेत पूरी दुनिया के समाजों में धार्मिक कट्टरता और ध्रुवीकरण बढ़ा है. धर्म अब धारण करने की नहीं, उपयोग करने की चीज हो गया है. धर्म का उपयोग व्यक्ति के रूप में श्रेष्ठ होने के लिए नहीं, बल्कि समुदाय के रूप में श्रेष्ठता आरोपित करने के लिए हो रहा है. असहिष्णुता कोई जुमला नहीं है, यह दो तिहाई दुनिया का सामाजिक सच है. लेखकों, फिल्मकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हो रहे हमलों का कोई और अर्थ है क्या ?

ताज़ा विवाद संजय लीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म ‘पद्मावती’ को लेकर हुआ. राजस्थान में फिल्म की शूटिंग के दौरान राजपूतों के संगठन श्री करणी सेना ने फिल्म यूनिट पर हमला कर दिया. उनका आरोप था कि पद्मावती और अलाउद्दीन खिलजी के बीच प्रणय संबन्धों के दृश्य फिल्माकर भंसाली इतिहास के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं और राजपूतों की गरिमा को आहत कर रहे हैं. उनका कहना है कि रानी पद्मावती को अलाउद्दीन छू भी नहीं सका था. रानी ने महल में मौजूद अन्य स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया था. यद्यपि करणी सेना की आपत्ति और हमला, इतिहास से छेड़छाड़ को आधार बना कर दिखती है, लेकिन असल बात धार्मिक असहिष्णुता ही है. एक मुगल शासक के साथ एक हिन्दू रानी को प्रणय, कट्टरपंथियों को कैसे स्वीकार हो सकता था !

रही बात इतिहास बदलने की. तो आइए देखते हैं कि इतिहास कहता क्या है. सच तो यह है कि किसी भी लिखित इतिहास में रानी पद्मावती का उल्लेख है ही नहीं. पद्मावती या पद्मिनी का चरित्र, साहित्य और राजस्थान की लोकगाथाओं में मिलता है. सूफी कवि-फकीर मलिक मुहम्मद जायसी ने सन 1540 के आसपास अवधी भाषा में महाकाव्य ‘पद्मावत’ की रचना की. महाकाव्य की नायिका रानी पद्मावती हैं. यह महाकाव्य प्रेम और विरह का अद्भुत आख्यान है. पद्मावती, सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी थीं इनके पिता गन्धर्वसेन और माता चंपावती थीं. स्वयंवर में विजय हासिल कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने इन्हें अपनी रानी बनाया. ऐतिहासिक दृष्टि से उस समय दिल्ली सल्तनत पर खिलजी वंश का शासन था और अलाउद्दीन खिलजी सुल्तान था. अलाउद्दीन सन 1296 से 1316, मृत्यु तक दिल्ली का सुल्तान रहा. उसकी राज्य विस्तार की नीति के कारण उसे सिकन्दर-ए-सनी (दूसरा सिकन्दर) की उपाधि मिली हुई थी. 1303 में उसने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था. उसी आक्रमण के समय रानी पद्मावती के कथित जौहर की गाथा राजस्थान के लोकमानस में प्रचलित है. जायसी की रचना इस समय से लगभग 237 वर्ष बाद लिखी गई. जाहिर है कि उन्होने अपनी रचना का आधार राजस्थान की लोकगाथाओं को ही बनाया होगा. अत: ‘पद्मावत’ की कथा को इतिहास मानना बुद्धिमानी नहीं होगी. लोकगाथाएँ न तो कोरा झूठ होती हैं, और न पूरा इतिहास. ये गाथाएँ वाचिक परंपरा में चलती हुई, समय, संघर्ष और शिक्षण के आग्रहों से बदलती रहती हैं.

इतिहास के विवरणों में अलाउद्दीन के चित्तौड़ पर आक्रमण और रतन सिंह के विवरण तो मिलते हैं, लेकिन रानी पद्मावती और उनके जौहर का कोई ज़िक्र नहीं है. यहाँ तक कि अलाउद्दीन के समकालीन कवि-इतिहासकार अमीर खुसरो ने भी पद्मावती का कोई उल्लेख नहीं किया है. अलबत्ता लोकगाथाओं से यह जरूर पता चलता है कि राणा रतन सिंह की पत्नी पद्मावती का सौन्दर्य अप्रतिम था. रतन सिंह के दरबारी संगीतकार राघव चैतन्य थे, जिनका बड़ा मान था. वो एक तांत्रिक भी थे. कहा जाता है कि वो अक्सर महल में बुरी आत्माओं को बुलाते थे. रतन सिंह को जब इसका पता चला तो उन्होंने राघव चैतन्य को अपमानित कर राज्य से निर्वासित कर दिया. अपमानित राघव दिल्ली, अलाउद्दीन के पास पहुच गए. हृदय में रतन सिंह से बदले की आग थी. अलाउद्दीन के सामने उन्होंने रानी पद्मावती के रूप का ऐसा वर्णन किया कि सुल्तान पद्मावती को पाने के लिए उद्धत हो उठा. उसने चित्तौड़ की घेराबन्दी कर दी और राजा रतन सिंह को बन्दी बना लिया. राजा की रिहाई के बदले पद्मावती को पाने की शर्त रखी. चित्तौड़ के सेनापति गोरा और बादल ने कूट रचना की और अलाउद्दीन को संदेश भेजा कि रानी पद्मावती को उसके पास भेजा जा रहा है. सात सौ पालकियों में रानी का काफिला अलाउद्दीन के शिविर पर पहुँचा. लेकिन रानी उसमें नहीं थीं. उन पालकियों में सशस्त्र सैनिक थे. काफी संघर्ष के बाद गोरा-बादल ने रतन सिंह को अलाउद्दीन के चंगुल से छुड़ा लिया. गोरा युद्ध में मारा गया, लेकिन बादल, रतन सिंह को सुरक्षित महल तक पहुँचाने में सफल रहा. इस पराजय से आहत अलाउद्दीन ने दोबारा चित्तौड़ पर आक्रमण किया और रतन सिंह सहित सारे सैनिकों को मार डाला. महल के अन्दर पद्मावती समेंत दूसरी रानियों और स्त्रियों ने जब यह समझ लिया कि अब उनकी इज्जत सुरक्षित नहीं है तो उन्होंने महल के आँगन में आग जला कर सामूहिक जौहर कर लिया. अलाउद्दीन के सैनिक जब भीतर पहुँचे तो उन्हें राख और हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला.

यह कहानी है जो पद्मावत और लोक आख्यानों में मिलती है. संजय लीला भंसाली पद्मावती की कौन सी कहानी रच रहे हैं, अभी इसका पता नहीं है. लेकिन इतना तय है कि भंसाली, सिनेमा के अपरिहार्य तत्व ‘मनोरंजन’ और बॉक्स ऑफिस का खयाल जरूर रखेंगे. यद्यपि विवाद के बाद भंसाली ने श्री राजपूत महासभा के अध्यक्ष के साथ मिलकर यह सफाई दी कि फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच कोई रोमैन्टिक दृश्य नहीं रहेंगे. यह बेशक एक समझौता है. अगर लोकगाथाओं को भी आधार बना कर फिल्म बनाई जाए, तो क्या यह संभव है कि जो अलाउद्दीन, पद्मावती को पाने के लिए इस तरह व्याकुल हो, उसके सपनों और कल्पना में पद्मावती से प्रणय के चित्र न रहे होंगे ! और कौन ऐसा फिल्मकार होगा जो अपनी फिल्म में ऐसा ड्रीम सीक्वेन्स न डालेगा ! भंसाली मँजे हुए फिल्मकार हैं. उन्होंने यह समझौता किया है तो नफा-नुकसान सोच कर ही किया होगा. फिल्म में काट-छाँट के बाद भी इस विवाद ने फिल्म की व्यावसायिक सफलता की गारण्टी तो दे ही दी है.

लेकिन यदि संजय लीला भंसाली, फिल्म में अलाउद्दीन और पद्मावती के बीच प्रणय दृश्य दिखाते तो क्या गलत होता ? समाज में सिनेमा की ऐसी व्यापक लोकप्रियता और स्वीकृति क्या सिनेमा के यथार्थवाद की वजह से है ? सिनेमा एक ऐसा कला-माध्यम है जो हमारे सपनों और अवचेतन की ग्रंथियों को परदे पर रूपायित करता है. सिनेमा, यथार्थ का एक ऐसा काल्पनिक विस्तार है जो हमारी आकांक्षाओं को तुष्ट करता है. इसीलिए सिनेमा को शुरुआत से ही यह छूट मिली हुई है कि वह इतिहास-भूगोल के साथ आवश्यक कलात्मक छेड़छाड़ कर ले. मनुष्य का मनोविज्ञान यही बताता है कि उसके भीतर इतिहास-भूगोल का अतिक्रमण करने की एक अदम्य लालसा हमेंशा बनी रहती है.

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1 comment:

Zee Talwara said...

वाह बड़ी ही सुन्दर रचना है। बधाई हो आपको। Mahadev Pic