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सुप्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार प्रियदर्शन का
चर्चित उपन्यास ‘ज़िन्दगी लाइव’ इन दिनों खूब पढ़ा गया। तीन दिन और तीन रातों की किस्सानुमा घटनाओं के इस
औपन्यासिक विस्तार में मानवीय संबन्धों के अस्तित्व और संभावनाओं की खोज की ही
कोशिश की गई है और उपन्यासकार एक विशिष्ट देशकाल और वातावरण में संबन्धों का एक
नक्शा बनाने में असफल नहीं रहे हैं।
एकबारगी अपराधकथा सा दिखने वाला यह उपन्यास
दरअसल कुछ निरपराध लोगों की विडंबनात्मक नियति का लाइव वर्जन है। इसमें एडिट करने
का अवकाश नहीं है। इसमें बस देखते जाना है और दिखाते जाना है। सवाल हैं, पर तर्क
नहीं। तर्क करनें लगें तो एक दूसरा सवाल आ जाएगा। अतार्किकता के इसी ढाँचे में
लेखक से एक ऐसी तकनीकी त्रुटि हो जाती है जो पाठक को लगभग आरंभ में ही सचेत कर
देती है कि आप एक झूठी कथा को पढ़ने जा रहे हैं। इस खटक जाने वाली त्रुटि का
ज़िक्र मैं बाद में करूँगा। किसी औपन्यासिक कृति को रचने के लिए फंतासी का सहारा
लेना ही पड़ता है। यथार्थ हमेशा अनगढ़ और खुरदुरा होता है। यथार्थ के ऊबड़-खाबड़
रास्ते पर उपन्यास की यात्रा असंभव तो नहीं, पर बहुत मुश्किल और अरुचिकर होती है।
जबकि रुचिकर होना उपन्यास विधा की पहली शर्त है। यथार्थ अक्सर कई जगह फटा-बँटा और
अस्पष्ट भी होता है। इसीलिए उसे फंतासी से सिलने-जोड़ने और उभारने की कीमियागीरी
उपन्यासकार को करनी पड़ती है। फंतासी झूठ नहीं होती। फंतासी कोरी कल्पना भी नहीं
होती। फंतासी वह है जो अभी अघटित है। जिसके घटित होने की संभावना है। उतना ही बड़ा
वह लेखक होता है, जितना वह किसी फंतासी के घटित होने की संभावना को प्रबल बना देता
है। फंतासी रचना बड़े कौशल का काम है। एक छोटी सी चूक भी उसे झूठ बना देती है। और
तब उसके घटित होने की संभावना खत्म हो जाती है। आप यह समझते हैं कि फंतासी रचना
लेखक का लक्ष्य नहीं होता। बल्कि फंतासी, लेखक के लक्ष्य का वाहन होती है। इसीलिए
अगर किसी चूक से फंतासी झूठ लगने लगे तो जाहिर है लक्ष्य भी अपने गंतव्य तक
पहुँचने के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता।
प्रियदर्शन का उपन्यास ‘ज़िन्दगी लाइव’ भी कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी से बना एक रोचक रसायन है। लेखक ने अंत में
स्वीकार भी किया है कि “एनडीटीवी और दूसरे चैनलों में काम कर रहे मित्रों के अलग-अलग अनुभव कुछ रूप
बदलकर इस उपन्यास में दर्ज़ हैं।.....तीन दिन की इस कहानी में बहुत सारी घटनाएं
सच्ची हैं।“ जाहिर है कि ‘बहुत सारी’ सच्ची घटनाओं के अलावा जो कुछ थोड़ी बची हुई घटनाएँ हैं वो लेखक की फंतासी
हैं। इस फंतासी को लेखक ने बहुत कमाल का बुना है, लेकिन एक छोटी सी चूक आखिर हो ही
गई।
यह उपन्यास 26 नवंबर 2008 के मुम्बई पर हुए
आतंकी हमले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। लेकिन मुम्बई की घटना पृष्ठभूमि ही है।
मंच पर टीवी चैनलों से जुड़े एंकर और पत्रकारों की ज़िन्दगी की त्रासद स्थितियाँ
हैं। आमतौर पर जब हम कोई उपन्यास पढ़ते हैं तो हमारी कोशिश होती है कि हम जल्दी से
जल्दी उस कथा के नायक-नायिका को चिन्हित कर लें। यह पहचान हो जाने पर हम
नायक-नायिका के चरित्र और वैचारिकी से अपना साम्य स्थापित करने लगते हैं। और जैसे
जैसे यह साम्य प्रगाढ़ होता जाता है, हम नायक-नायिका से सहमत होते जाते हैं। ‘ज़िन्दगी लाइव’ उपन्यास में किसी पात्र में नायक-नायिका की पहचान करना कम से कम मेरे लिए
बहुत कठिन था। इस कथा के असल नायक इसमें घटित घटनाएं हैं। ये घटनाएँ इतनी
अप्रत्याशित, सघन और विच्छेदक हैं कि इनके आगे कहानी के पात्र गौंड़ हो जाते हैं।
इस कहानी को लेखक ने ऐसे बुना है जैसे फ्रेम
में तने कपड़े पर धागे से महीन कढ़ाई की जाती है। फ्रेम है मुम्बई में हुआ आतंकी
हमला। कपड़ा है बच्चे के गुम हो जाने और उसके अपहरण की घटना। इस कपड़े पर लेखक ने
स्त्री-पुरुष संबन्धों, नव-आर्थक विकासवाद, अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के
अपराधीकरण की कढ़ाई की है। 26 नमंबर को अचानक मुम्बई पर आठ-दस आतंकवादी हमला कर
देते हैं। एक खबरिया टीवी चैनल की एंकर सुलभा अपनी नाइट शिफ्ट खत्म ही करने वाली
होती है कि हमले की खबर आ जाती है। और फिर उसे रात भर ड्यूटी करनी पड़ती है। उसका
दो साल का बेटा ऑफिस के ही एक हिस्से में बने क्रेच में एक आया की देखरेख में रहता
है। रात दस बजे आया को अपने घर जाना होता था। उस दिन न्यूज की आपाधापी में सुलभा
अपने बच्चे को भूल जाती है। आया कुछ देर परेशान होती है और अंतत: बच्चे को अपने साथ लिए जाती है कि अगले दिन वह बच्चे को उसकी माँ को सौंप
देगी। लेकिन बीच रास्ते में वह बच्चा उसी चैनल में काम करने वाली एक दूसरी औरत के
पास चला जाता है। अगली सुबह जब न्यूज ड्यूटी शिफ्ट होने पर सुलभा फुरसत होती है तो
उसे अपने बच्चे का खयाल आता है। वह भागकर क्रेच पहुँचती है लेकिन बच्चा गायब है।
अब एक बदहवास खोज शुरू होती है बच्चे की। आया से जो औरत बच्चे को ले जाती है, वह
अगली सुबह सुलभा को इसलिए बच्चा उसके पास होने की जानकारी नहीं देती, क्योंकि
सुलभा ने उस दिन उसको किसी बात पर डाँट दिया था। और वह चाहती थी कि सुलभा कुछ देर परेशान रहे। फिर शाम को वह बच्चे
को सुलभा के पास पहुँचा देगी। लेकिन इस बीच एक अपराधी किस्म का बिल्डर फिरौती के
लालच में बच्चे का अपहरण कर लेता है। बच्चे समेत उस औरत, आया और उसके पूरे परिवार
को बंधक बना लिया जाता है। बच्चे के माँ-बाप, परिवार, चैनल के सहयोगी मित्र, सब
बच्चे की तलाश में बदहवास हो रहे हैं। बच्चे का क्या हुआ यह तो अब आप उपन्यास में
ही पढ़ेंगे। मैं अब उस तकनीकी त्रुटि का ज़िक्र कर दूँ जो लेखक ने फंतासी रचना के
दौरान की है।
जिस समय की यह कहानी है, उस समय तक संचार के
सभी आधुनिक साधन आ चुके थे। सबके हाथ में एक मोबाइल फोन था। न्यूज चैनल वाले
मोबाइल पर ही घटनाओँ की लाइव कवरेज दे रहे थे। लेखक ने खुद बताया है कि आया शीला,
जो बच्चे को अपने साथ ले गई थी, उसके पास मोबाइल रहता था। जाहिर है कि उसके मोबाइल
में अपने घरवालों के अलावा ऑफिस के कुछ जरूरी लोगों के नम्बर भी रहे होंगे। ऑफिस
से बच्चे को लेकर निकलते समय वह सुलभा से नहीं मिल सकी क्योंकि वह न्यूज डेस्क पर
थी। लेकिन वह ऑफिस के किसी दूसरे व्यक्ति को बता सकती थी कि वह बच्चे को अपने साथ ले
जा रही है। अगर आपाधापी में नहीं भी बता सकी तो जब उसने ऑफिस की गाड़ी में दूसरी
औरत चारु को बच्चा सौंप दिया था, उस वक्त तो उसे अपने मोबाइल से ऑफिस में किसी को
यह खबर देनी चाहिए थी। शीला ने अगले 36 घंटों तक सुलभा को या किसी को बच्चे के
बारे में फोन नहीं किया। इसके बाद तो वह बिल्डर द्वारा बंधक ही बना ली गई थी।
कितनी भी असामान्य स्थिति में यह समझ पाना संभव नहीं है कि कोई औरत, जो बिना किसी
दुर्भावना के, विवशता में किसी के दो साल के बच्चे को ले जा रही है, वह उस बच्चे
की माँ को इसकी सूचना देने की हर संभव कोशिश न करेगी। असल में उपन्यासकार जिस
कपड़े पर कढ़ाई करना चाहते थे उसे जरूरत भर तानना अपरिहार्य था। सृजनात्मक लेखन की
नैतिकता के हिसाब से भी यह वैध है। लेकिन इस छोटी सी चूक ने फंतासी को मनगढ़ंत
किस्सा बना दिया। इसी बिन्दु से पाठक यह सोच लेगा कि इस किस्से को अब स्वाभाविक
परिस्थितियाँ नहीं, लेखक की मेधा आगे बढ़ाएगी। हालांकि ऐसा समझ लेने पर भी उपन्यास
में विस्मय-तत्व की चाशनी एकदम गायब नहीं हो जाती, लेकिन कुछ पतली ज़रूर हो जाती
है।
लेकिन यह चूक बहुत भारी नहीं पड़ती। उपन्यास
का कोई अनर्थ इस चूक से नहीं होता। क्योंकि लेखक जो बातें इस उपन्यास के जरिए कहना
चाहते हैं, उन्हें बहुत ताकत और विश्वसनीयता से कहते हैं। मुम्बई का आतंकी हमला
भले ही कृति के पृष्ठभूमि में है, लेकिन लेखक आतंकवाद की विभीषिका नहीं दिखाना
चाहते। आतंकी हमला एक ऐसी घटना के रूप में आया है जो कुछ ऐसे सवाल उठा देता है
जिनका संबन्ध आतंकवाद से दूर तक नहीं है।
हमले के तीन दिन बाद तक, जब तक सेना ने अपना ऑपरेशन पूरा नहीं कर लिया, घटनास्थल
से हजारों मील दूर कुछ लोगों के जीवन में ऐसी उथल-पुथल मची हुई थी, जो रिश्तों के
पारंपरिक छन्द को छिन्न भिन्न किए दे रही थी। ऐसे सवाल पूछे जा रहे थे, जो बार बार
पूछे जाने के बाद भी पुराने नहीं पड़े थे और उनका हर उत्तर अनंतिम था। सबसे अधिक
संतोष की बात यह है कि उपन्यास में आये सभी सवालों और उनके जवाबों का नियमन लेखक
नहीं करता। लेखक ने सभी सवाल पात्रों और
स्थितियों के जरिए उठाकर, सभी संभावित उत्तरों के लिए रास्ता खोल रखा है। लेखक ने
एक अनायास सी दिखने वाली सावधानी और बरती है कि कहानी को किसी एक सवाल पर
केन्द्रित नहीं किया है।
उपन्यास के पात्र और घटनाएँ जिस आधुनिक
भारतीय मीडिया से जुड़े हुए हैं, पहला सवाल उसी मीडिया पर है। सुलभा के पिता
जगमोहन सिन्हा कहते हैं कि हमारा मीडिया अपरिपक्व लोगों के हाथों में है। सुलभा भी
यह महसूस करती है कि वह आँख में पट्टी बांधकर दौड़ती है और दुनिया की आँख में
पट्टी बांध देती है। और कभी दुनिया आँख में पट्टी बांधकर उसकी तरफ आती है और उसकी
आँख में पट्टी बांध देती है। यानी झूठ और छद्म का खेल दोनों तरफ से चल रहा है।
उपन्यास के पात्र कभी-कभी ये सवाल खुद से करते हैं कि क्या हर घटना खबर होनी चाहिए
? कहानी में एक्स्ट्रा मैरिटल और प्री-मैरिटल प्रेम संबन्धों पर भी
प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं और इसका जस्टीफिकेशन भी इस युक्ति के साथ दिया गया है कि “ अगर एक रिश्ते से आपका काम नहीं चलता तो कोई बात नहीं, दूसरे अगर तैयार हों
तो आप जितनें चाहें उतने रिश्ते बनाएँ। लेकिन सबको बताकर- यह नहीं कि हर किसी को
अँधेरे में रख कर उसे भरोसा दिलाए जा रहे हैं कि यह प्रेम सिर्फ उसी से है।“ ऐसा इसलिए क्योंकि “ दो लोगों के बीच के रिश्ते सिर्फ दो लोंगों के नहीं होते, नहीं हो सकते।
उनमें तीसरे का भी एक कन्टेक्स्ट होता है। यह तीसरा कोई इन्डिविजुअल भी हो सकता है
और पूरी सोसाइटी भी।“ और यह प्रेम भी कोई ‘साहित्य और सिनेमा’ वाला नहीं है, बल्कि “ बस लड़की हासिल करने की लड़कों की बेताबी है।“
उपन्यास राजनीति
और अपराध के नेक्सस की भी बात करता है। और विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन छल से
हड़पे जाने की समस्या की ओर भी इशारा करता है। एक संक्षिप्त पैरा में जातिगत
आरक्षण की वैधता पर भी प्रश्न उठाता है। कुल मिलाकर लेखक ने अपने कौशल से एक
नितान्त भिन्न पृष्ठभूमि पर बिल्कुल अनपेक्षित सवाल खड़े कर दिए हैं, जो
उपन्यास-कला के विकास का एक नया आयाम है। लेकिन किताब में प्रूफ की गलतियों ने
लेखक को भी बहुत विचलित किया होगा। आशा है कि इन गलतियों को अगले संस्करण में
सुधार लिया जाएगा।
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