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Monday 16 April 2012

चैप्लिन के भीतर एक बच्चा रोता है ! (जन्मदिन 16 अप्रैल )


 



   अपनी किशोर वय में ,चार्ली चैप्लिन की फिल्में ढूढ़-ढूढ़ कर देखना हम कुछ दोस्तों का जुनून हुआ करता था.उस समय VCR पर फिल्में देखी जाती थीं. हम तीन-चार दोस्त मिल कर पैसे इकट्ठे करते. किराये पर VCR और कैसेट्स ले आते थे.शहर में उपलब्ध चैप्लिन की शायद ही ऐसी कोई फिल्म रही होगी जिन्हें हमने न देखा हो. चूँकि उनकी फिल्में कम अवधि की होती थीं तो पेट ही नही भरता था, तो एक ही फिल्म को कई कई बार देखते थे. यही मेरा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा से प्रथम और एकमात्र परिचय था.
          उस उम्र में चैप्लिन की फिल्में देखना विशुद्ध मनोरंजन के लिए होता था. उनकी सिनेमा कला पर सोचने की समझ नहीं थी मुझमें. अधिकांश फिल्मों की स्मृति भी अब धुँधली हो गयी है. लेकिन अनजाने ही मन के किसी हिस्से में कुछ जमता गया था, जो गाहे बगाहे कौंध जाता है कभी-कभी. फिल्मों पर पढ़ना और लिखना मुझे हमेशा से प्रिय था. चैप्लिन पर कहीं भी कुछ पढ़ने को मिल जाता तो लपक कर पढ़ता था.यह धारणा भी मन में मज़बूत होती गयी कि चैप्लिन एक महान फिल्मकार थे. उन्होने फिल्म कला के सबसे चुनौतीपूर्ण विषय को चुना था. हास्य पर फिल्म बनाना और अन्त तक उसका सफल निर्वाह कर ले जाना फिल्म कला का सबसे कठिन काम है. और यह काम तब लगभग असंभव सा हो जाता है जब फिल्मकार सचेत भाव से उसमें अपने सामाजिक और मानवीय सरोकार भी दिखाना चाहता हो. पर असंभव से खेलना ही चार्ली चैप्लिन की फितरत थी. अपनी ज़िद और अपनें ही कायदों में काम करने वाला एक अद्वितीय फिल्मकार ! हिटलर तक को चुनौती दे डालने वाला एक मर्द फिल्मकार !!
           25, दिसंबर 1977 को जिनेवा में 88 वर्ष की अवस्था में चैप्लिन ने जब देह त्यागी तब तक उन पर बुढ़ापा बहुत हावी हो चुका था.काफी समय से चैप्लिन काम करना बंद कर चुके थे.चैप्लिन के उत्कर्ष के दिनों में अेरिका जाने वाला या अमेरिका से बाहर भी , दुनिया का हर बड़ा आदमी उनसे मिलता था. एच.जी.वेल्स,विन्सटन चर्चिल,महात्मा गांधी,जवाहरलाल नेहरू,चाऊ-एन-लाई,सर्गेई आइजेंस्ताइन,पिकासो,सार्त्र,ब्रेख्त जैसे लोगों ने बड़े उत्साह के साथ उनसे मुलाकात की. जापान यात्रा के दौरान , जापान के आतंकवादियों ने उनकी हत्या की योजना बनाई. वो सोचते थे कि चैप्लिन की हत्या करके अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की पहल कर सकेंगे. दरअसल उन्हें बहुत बाद में पता चल पाया कि चैप्लिन अमेरिका के गौरव नहीं बल्कि ब्रिटेन के नागरिक हैं. वे किसी एक देश की नागरिकता धारण किए रहने और उसे जतलाने की मनोवृत्ति को भी नकार चुके थे. जबकि अमेरिकी नागरिकता लेने के लिए अमेरिका में राज्य और प्रेस की ओर से उनपर भारी दबाव पड़ा था.चैप्लिन राष्ट्रीयता की भावना को कोई बड़ी नियामत नहीं मानते थे, फिर भी वे ब्रिटेन के ही नागरिक बने रहे.
            16 अप्रैल 1889 को ईस्ट लेन, वालवर्थ, लंदन में जन्में चैप्लिन लगभग 50 वर्षों तक अमेरिका में ही रहे. ऊना उनकी चौथी पत्नी थीं ,जो मृत्यु के समय उनके साथ थीं. वह चैप्लिन के दस बच्चों मे से आठ की माँ थीं. नाचने गाने और अभिनय की उनकी यात्रा पांच वर्ष की आयु में बड़े नाटकीय ढंग से शुरू हुई थी. उनकी माँ मंचों पर गाती थीं . एक बार प्रदर्शन के दौरान उनकी माँ की आवाज़ फट गयी, और श्रोता शोर मचाने लगे. तब पांच वर्ष के बालक चैप्लिन ने मंच सम्भाला और अपने प्रदर्शन से दर्शकों को मुग्ध कर दिया. उस रात के बाद उनकी माँ की आवाज़ कभी ठीक नहीं हुई.अपनी आवाज़ खोने के कुछ साल बाद वे विक्षिप्त हो गयीं. पति से तलाक चैप्लिन के जन्म के समय ही हो चुका था. इस तरह चैप्लिन ने रंगमंच की शुरुआत अपने परिवार के गुजारे की गरज़ से की. अपनी जीवनी में भी वो स्वीकार करते हैं--" कला एक ऐसा शब्द है, जिसने तब मेरे मस्तिष्क या मेरे शब्दज्ञान की परिधि में कभी प्रवेश नहीं किया. रंगमंच का मतलब था गुजारे का साधन, और कुछ नहीं...."
              लेकिन चैप्लिन महान अभिनेता हुए.उनकी अभिनय शैली की नकल करना लगभग असंभव बना रहा. राजकपूर ने जब चैप्लिन की नकल करने की कोशिश की तो उन्होंने अपने कद को बहुत छोटा कर लिया था. चैप्लिन ने हास्य की प्रचलित पद्धति में मौलिक परिवर्तन किए थे.उन्होने असंगत उछल-कूद और भाव-भंगिमा बनाकर हंसाने की पद्धति को खारिज कर दिया. उनका मानना था कि हास्य, सामान्य व्यववहार में ही सूक्ष्म परिवर्तन कर के पैदा किया जा सकता है. कॉमेडी विवेकसम्मत व्यवहार को थोड़ा सा हेरफेर से हास्यजनक बना देता है. महत्वपूर्ण को अंशतः महत्वहीन बना देता है, तर्क को तर्कहीनता का आभास देता है. हास्य अस्तित्वबोध और संतुलन चेतना को धार देता है.
              द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मृत्यु, विनाश और घोर निराशा से घिरे विश्व को यह महामानव अपनी संवेदना, दुख का सार, हँसी, मासूमियत, उल्लास और अपराजेय आस्थाएँ दे रहा था. प्रतिरोध कई बार अमूर्तन में भी व्यक्त होता है, खासतौर पर कला-माध्यमों का प्रतिरोध. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ कला समीक्षकों ने पिकासो पर निर्लिप्त रहने का आरोप लगाया था. उनका कहना था कि पिकासो ने युद्ध के विरुद्ध केवल एक कृति ' गुएर्निका ' ही बनायी है. जबकि फासी आधिपत्य में रहते हुए पिकासो ने इस कृति के पहले सर्कस के अभिनेताओं, नटो, राजनीति और युद्ध से अनासक्त दिखते सामान्य जन के चित्र बनाये हैं.और युद्धके बाद मरे हुए सांड़ों के सिर बनाये हैं. इस तरह के तमाम चित्र भी युद्ध विरोधी और युद्ध से प्रभावित गहरे अमूर्तन के ही चित्र हैं.
               चैप्लिन की रचनाओं में भी ऐसा ही अमूर्तन है. हिटलर पर चैप्लिन ने ' द ग्रेट डिक्टेटर ' फिल्म बनाई. चैप्लिन ने हिटलर पर सबसे पहले यह आरोप लगाया था कि  उसने मेरी मूँछ (जिसे हमारे यहाँ तितली मूँछ कहते हैं ) चुरा ली है. सर्गेई आइजेंस्ताइन ने लिखा है कि यह आरोप लगाकर एक महामानव ने हिटलर जैसे दुनिया के सबसे बड़े मनुष्य विरोधी को हास्यास्पद बना दिया.चैप्लिन के सरोकार बहुत बड़े थे.पराजित और पराधीन देशों के दुख दर्द पर उनकी नज़र थी.
               कला संबन्धी अपनी अवधारणाओं में चैप्लिन एकदम मौलिक थे. वे कहते थे कि मेरा शिल्प, अभ्यास और चिन्तन का परिणाम है किसी के अनुकरण का नहीं.वे इस तर्क से सहमत होते नहीं दिखते कि कला में समय के साथ कदम मिलाते हुए चलना आवश्यक है.सवाक् पिल्मों का युग शुरू हो जाने के बाद भी कई वर्षों तक चैप्लिन मूक फिल्में ही बनाते रहे.हो सकता है कि इसके पीछे उनका कोई डर रहा हो. यह भी संभव है कि वह ध्वनि को अपनी सम्प्रेषणीयता में बाधा समझते रहे हों.चैप्लिन एक शुद्धतावादी कलाकार थे.
       चैप्लिन की मूक फिल्मों पर किसी कला-परंपरा का नहीं, उनके अभावग्रस्त अतीत, सामाजिक विषमता और उनके प्रतियोगिता के लिए तत्पर और जुझारू व्यक्तित्व की गहरी छाप है.असहनीय परिस्थितियां अनकी कृतियों में खिल्ली अड़ाने लायक बन कर आयी हैं. संघर्ष आकर्षक और उससे संबंधित अनुभूतियां छन कर स्फूर्तिदायी और उदात्त हो गयी हैं.उनके विराट हास्य में करुणा की एक सरस्वती निरन्तर बहती रहती है.चैप्लिन जीवन के विद्रूप में हास्य की सृष्टि करते हैं, लेकिन कहीं भी हास्य को विद्रूप नहीं होने देते.
      चैप्लिन एक सम्पूर्ण मानव और फिल्मकार थे.एक मनुष्य के तौर पर कोई आडम्बर उन्होने नहीं किया. कला उनके जीवन में रोजी-रोटी के सवाल के जवाब के रूप में आयी तो उसे उन्होने उसे वैसे ही स्वीकार किया.और जब कला को उनकी ज़रूरत पड़ी तो खुद को पूरा सौंप दिया.एक अभिनेता, लेखक ,निर्देशक के उनके तीनों रूपों में यह तय कर पाना आज भी मुश्किल है कि वह किस रूप में ज़्यादा बड़े हैं. चैप्लिन इस दुनिया के पिछवाड़े पर पड़ी हुई एक लात हैं.

2 comments:

Nidhi said...

ज्ञान वर्धन हेतु शुक्रिया!!मैंने चेप्लिन कि कई मूवी देखीं...कुछ स्कूल की ओर से दिखाई गयीं और कुछ वी सी आर पे.
चैप्लिन की मूक फिल्मों पर किसी कला-परंपरा का नहीं, उनके अभावग्रस्त अतीत, सामाजिक विषमता और उनके प्रतियोगिता के लिए तत्पर और जुझारू व्यक्तित्व की गहरी छाप है.असहनीय परिस्थितियां उनकी कृतियों में खिल्ली उड़ाने लायक बन कर आयी हैं. संघर्ष आकर्षक और उससे संबंधित अनुभूतियां छन कर स्फूर्तिदायी और उदात्त हो गयी हैं.उनके विराट हास्य में करुणा की एक सरस्वती निरन्तर बहती रहती है.चैप्लिन जीवन के विद्रूप में हास्य की सृष्टि करते हैं, लेकिन कहीं भी हास्य को विद्रूप नहीं होने देते.
आपने बिलकुल सही कहा है ..कि चेप्लिन हास्य को विद्रूप नहीं होने देते...और यही उनकी खासियत है.
चेप्लिन लुक अलाइक प्रतियोगिता में......एक बार उन्होंने भी भाग लिया ..मज़े की बात यह कि प्रथम स्थान किसी और को मिला ...यह बात उनकी लोकप्रियता और सदाशयता दोनों को दर्शाती है.

Rangnath Singh said...

पसंद आया....मुझे भी वो अति प्रिय हैं...