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Thursday 19 April 2012

चन्द हसीनों को खुतूत...!

(यह ख़त एक मोहतरमा को दस साल पहले लिखा गया था....तब हज़रत के इश्क़ करने के दिन थे....और क्या-क्या उटपटांग हरकतें किया किया करते थे उस नाज़नीन को इम्प्रेस करने के लिए.......वो परीज़ाद ख़ालिस हिन्दी-भाषी थी......उसने जवाब में लिखा कि हुज़ूर कुछ समझ ही नहीं आया !! )


बाअदब ! 

रूह-ए-चमन! पैकर-ए-रानाई ! बिन्त-ए-महताब ! तल्लत-ए-महर !
नूर-ए-आफ़ताब ! नसीम-ए-सुब्ह ! …की ख़िदमत में
ख़ाकसार बन्दगी अर्ज़ करता है !!

पेशतर आपकी सालगिरह पर मुबारक़बाद पेश करता हूँ.
अल्लाह आपको खुशहाल ज़िन्दगी और उसे जीने की ज़हनियत
अता करे.------ दीगर अहवाल-ए-ख़ाक ये, कि ये कैसी वाबस्तगी
है कि आपके ख़यालों की रहगुज़र में इस नाचीज़ को ज़र्रे जितनी
ज़गह भी मयस्सर नहीं—ख़ैर ! इसके पीछे ज़रूर आपकी
ज़िन्दगी के अहम् मसाइल और पेचीदा मुश्किलात होंगी......

बहरहाल ! ज़ेर-ए-वक़्त हाल ये है कि मेरे तसव्वुर में
शहर-ए-बनारस, वहाँ के लोग, गली-कूचे-चौबारे, बिला नागा
आमदरफ्त बनाए रखते हैं. ये मेरी खुशक़िस्मती है कि बनारस ने
मुझे इतनी इज़्ज़त बख्शी—वरना उस शहर में ग़ालिब की
आबरू क्या है. कभी रीवा पर भी करम फरमाएँ और तशरीफ़
लायें. इस हकीक़त से शायद आप बेख़बर हैं कि इस शहर से
ताज़िन्दगी एक रिश्ता कायम हो चुका है आपका. ख़ैर !

अपनी वालिदा और वालिद साहब को मेरी जानिब से आदाब
कहिएगा. और सभी अज़ीज़ों को प्यार !

ये मुन्तज़िर नज़रें आपकी राह तकेंगी............................

अपना ही
विमलेन्दु
20.9.2002

4 comments:

Nidhi said...

अमां मियाँ..बख्श दीजिए ....
ऐसा मुरासला पढ़ने के बाद यकीनी तौर पे फरमा रहे हैं कि उन मोहतरमा को अपनी हया से निजात पाकर आपसे कहना पड़ा होगा कि हम दोनों में अकीदत मुमकिन नहीं...आप खुशनुमा माहौल को भी बेरंग बना देते हैं .जाती बातों में...न जाने -जाने कितनों के नाम लेते हैं....अल्ला हाफ़िज़
.....मैं उससे निकाह करने जा रही हूँ जो कम से कम मेरे नाम से वाकिफ हो.

Unknown said...

अरे नहीं निधि, मैं उनके नाम से तो वाक़िफ था....गड़बड़ ये हुई कि मैने उनके कई नाम रख दिया था.....

Onkar said...

samajhana itna mushkil to nahin hai, par kabhi kabhi samajh ke bhi nasamajh hona padta hai

Sayeed Ayub said...

पहले तो मैं अपनी हँसी रोक नहीं पा रहा हूँ कि उस बेचारी हिंदी भाषिनी को कुछ समझ में नहीं आया. विमलेन्दु, सच सच बतलाना, इतने दिनों बाद क्या मन को एक तसल्ली सी नहीं होती है कि अल्लाह ने खैर किया कि उसे यह खत समझ में नहीं आया या अभी भी उसे याद कर के आहें भरते हों...वैसे मुझे दूसरी बात की कोई उम्मीद बर नहीं आती क्योंकि बकौल शायर - "जो हुआ इक बार, वह हर बार हो, ऐसा नहीं होता / हमेशा एक ही से प्यार हो, ऐसा नहीं होता. तो भई, अगर दूसरी बात के सच होने का ज़रा सा भी गुमान हो तो इस दूसरे शेर को सबक मान कर इस पर अमल करें, सारी मुश्किलें दूर हो जाएँगी- 'हर कश्ती का अपना तजरबा होता है दरिया में / सफ़र में हर दफ़ा मंझधार हो, ऐसा नहीं होता'...तो एक नए सफ़र पर निकलिए...ज़माना बदल चुका है, खतो किताबत की न रस्म रही, न फुर्सत...नए ज़माने की कश्ती में सवार हो, आगे बढ़े...खुदा खैर करेगा,, इसका यकीन-ए-कामिल है और नेक ख्वाहिसात और दुआएँ आपके साथ हैं.

एक खत मैंने भी लिखा था, कुछ ऐसा ही...पर किसी सचमुच की मोहतरमा को नहीं, बल्कि एक ख्याली मोहतरमा को. वह खत एक लव लेटरराइटिंग कम्पीटिशन के लिए था और पहला इनाम लेकर आया था. आपका यह खत पढ़कर मुझे अपने उस खत की याद आ गई.

क्या ज़ुबान लिखी है आपने, नफ़ासत के नशे में चूर...इस पर तो अहले-दिल्ली और अहले लखनऊ भी रश्क करें, अहले बनारस तो करेंगे ही करेंगे...अहले रीवा के बारे में कोई कयास नहीं है. बहुत बहुत मुबारक हो दोस्त, यह खत भी, और इस खत को ना समझ पाने वाली आपकी वह मुहब्बत भी...