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Monday 30 April 2012

हिटलर मरता नहीं है !


  30 अप्रैल 1945 को हिटलर ने आत्महत्या कर ली थी. इतिहास के पन्नों पर जो लिखा हुआ है, उसके मुताबिक तो दूसरे विश्वयुद्ध में अपनी सेना की डावांडोल स्थिति ने उसे आत्महत्या के लिए प्रेरित किया. पर अनुभव कहते हैं कि आत्महत्या जैसी प्रव़त्तियों के पीछे जो कारण होते हैं वो इतने स्थूल नहीं होते. हो सकता है आगे इस लेख में हम उन सूक्ष्म कारणों को पकड़ पाने में कुछ कामयाब हो जायें !

बहरहाल, दुनिया भर में हिटलर अब व्यक्ति नहीं एक मुहावरा बन गया है. हिटलर अब एक प्रवृत्ति का नाम है. यह व्यक्तिवाचक संज्ञा से तब्दील होकर भाववाचक संज्ञा बन गया है. हिटलर का मतलब अब जातीय दम्भ, रक्त आधारित श्रेष्ठता का अहंकार, दुर्निवार ज़िद, और अपनी ज़िद को पूरा करने के लिए सभी सामाजिक-नैतिक तटबन्धों को तोड़ देना हो गया है. इस लिहाज से आज की दुनिया में हम सभी के भीतर कुछ अंशों में हिटलर मौजूद है. और हर नये जन्म लेने वाले बच्चे के साथ थोड़ा सा हिटलर भी पैदा हो रहा है. हिटलर एक बार आत्महत्या करता है, और अनन्त बार जन्म लेता है.

  आप जानते हैं कि हिटलर एक बहुत उम्दा चित्रकार था. बचपन से ही उसकी ख़्वाहिश एक बड़ा कलाकार बनने की थी. लेकिन वह हिटलर बन गया..दुनिया का क्रूरतम तानाशाह ! द्वितीय विश्वयुद्ध का ज़िम्मेदार माना जाने वाला यह फासीवादी नेता आज भी अपने ख़ौफ़, तानाशाही और क्रूरता के लिए हमारे ज़हन में जिन्दा है. दुनिया भर में हिटलर की आत्मकथा Mein Kampf  सबसे ज़्यादा पढ़ी जाने वाली किताबों में एक है. यह एक विडम्बना भरी सच्चाई है कि हिटलर का चरित्र युवाओं को रोमांचित करता है. इसके पीछे क्या मनोविज्ञान हो सकता है ? कहीं यह डार्विन के Survival Of The Fittest का पुनर्जन्म तो नहीं ? आज की दुनिया के किन्हीं भी समाजों में क्या हिटलर के प्रति सहानुभूति की यह प्रवृति उपयोगी हो सकती है ??

हिटलर 13 साल का था जब उसके पिता गुज़र गये. कहते हैं कि बड़े कड़क मिज़ाज़ पिता थे. कई बार हिटलर को उनसे पिटना भी पड़ता था क्योंकि वह भी कम गर्म मिज़ाज़ नहीं था. जब वह पिटता तो माँ उसे बचाती. माँ से उसे बहुत लगाव था. वह माँ की तस्वीर हमेशा अपने पास रखता था. पढ़ाई और स्कूल जाने में निहायत ही सुस्त था. सभी विषयों में असंतोषजनक अंक मिलते थे, लेकिन जिमनास्टिक और आर्ट्स में विशेषयोग्यता पाता था. जब उसने अपने पिता को बताया था कि वह कलाकार बनना चाहता है तो पिता चिन्तित हो गये थे. अचानक पिता की मृत्यु से उसे बिना कोई डिग्री लिए ही स्कूल छोड़ना पड़ा. वह अपनी आलसी की क्षवि से बहुत सशंकित भी रहता था. इसीलिए जब उसने अपना राजनैतिक सफर और दर्शन शुरू किया तो उसने अपने पहचान वाले विरोधियों का मुह जल्दी से जल्दी बन्द करने की कोशिश की. 

स्कूल छोड़ने के बाद हिटलर वियेना चला गया.वहाँ उसने एकेडमी ऑफ फाइन आर्ट्स में दाखिले के लिए आवेदन किया. लेकिन उसका आवेदन यह कहकर खारिज़ कर दिया गया कि उसके पास स्कूल छोड़ने का प्रमाण-पत्र नहीं है, जबकि उसकी कलाकृतियाँ उसके क्षमता को चीख-चीख कर बता रही थीं. बहुत सारे लोगों का यह मानना है कि हिटलर बहुत भावुक और रचनात्मक था. उसकी भावनाओं को कुचलने की जो शुरुआत उसके पिता ने कर दी थी वह आगे भी चलती रही, और उसकी कोमलता को कुचलने का ही भयंकर परिणाम दुनिया ने देखा.

18 वर्ष की उम्र में उसकी माँ भी गुज़र गईं. कुछ चश्मदीद लोगों ने लिखा है कि वह डेथ-बेड पर पड़ी माँ के स्केच बनाया करता था. यह वो समय था जब उसके मन में यहूदियों के प्रति एक घृणा बनने लगी थी. उसकी माँ का असफल इलाज़ करने वाला डॉक्टर यहूदी था और वह प्रोफेसर भी यहूदी था जिसने उसकी ड्रॉइन्ग को अस्वीकार करते हुए आर्ट्स एकेडमी में दाखिला नहीं दिया था. यह करीब 1908 का समय था. वह पोस्ट कार्ड्स पर चित्र बनाकर वियेना की सड़कों पर ग्राहकों की तलाश करता था. वियेना के ज़्यादातर रईस यहूदी थे. उनकी उपेक्षा से 1910 तक आते-आते वह यहूदी विरोधी बन चुका था. उसे अपने जर्मन होने पर बहुत गर्व था. यह बात खुद हिटलर ने स्वीकारी है कि वियेना में गुजारे गये पांच साल बहुत विपत्ति और उपेक्षा भरे रहे हैं, और वही उसके भीतर नफरत के बीज पड़े हैं. 

इस बीच उसने सेना में भर्ती होने का प्रयास भी किया लेकिन मेडिकल परीक्षण में असफल हो गया.1918 में हिटलर ने नाज़ी दल की स्थापनाकी. इस दल का उद्देशय साम्यवादियों और यहूदियों से अधिकार वापस लेना था. हिटलर और उसके साथियों का मानना था कि प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी की हार के लिए यहूदी ही दोषी हैं. हिटलर ज़बरदस्त वक्ता था. उसके भाषणों से प्रभावित होकर जर्मन लोग उसके दल में शामिल होने लगे. 1922 तक आते-आते वह जर्मनी का बहुत प्रभावशाली नेता बन चुका था. सरकार का तख्तापलट के प्रयास में 1923 में उसे एक साल की जेल की सज़ा भी मिली. इस सज़ा ने उसके कद को और बढ़ा दिया. 1933 में वह चांसलर बना और संसद को भंग कर दिया. अगले ही साल उसने खुद को सर्वोच्च न्यायाधीश घोषित कर दिया और जर्मनी का राष्ट्रपति बन गया. 1933 से 1938 के बीच उसने लाखों यहूदियों का कत्ल करवाया. इस बीच बह जर्मन सेना की शक्ति बढ़ाता रहा. उसने आस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर कब्ज़ा करने के बाद जब पोलैण्ड पर कब्ज़ा करने के लिए अपनी सेनाएं भेजीं तब ब्रिटेन ने भी उसके मुकाबले अपनी सेना उतार दी. यहीं से दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ. हिटलर ने अपनी स्थिति कमज़ोर होती देख, इटली के तानाशाह मुसोलिनी से सन्धि की. लेकिन जब अमेरिका भी युद्ध में कूद पड़ा तब हिटलर को पीछे लौटने को मज़बूर होना पड़ा. कहा जाता है कि इसी अवसाद में उसने आत्महत्या कर ली. 

हिटलर ने अपनी जातीय श्रेष्ठता के आग्रह के चलते जहाँ पूरी दुनिया को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया था. . हिटलर अपने व्यक्तित्व की समस्त संश्लिष्टताओं के बावजूद अपनी अभिव्यक्ति में एकदम स्पष्ट था. हिटलर अपनी अतःप्रज्ञा से निर्णय लेता था. हिटलर की अंतःप्रज्ञा का निर्माण उसकी वंशगत-श्रेष्ठताबोध से हुआ था. वह कहता भी था, “ शुद्ध रक्त वाला व्यक्ति मुश्किल पड़ने पर व्यावहारिक तथा सुसंगत निर्णय लेने में सक्षम होता है. इसके विपरीत मिश्रित रक्त वाला परिस्थितियों को देखते ही घबरा जाता है. दूषित रक्त वाला व्यक्ति शुद्ध रक्त वाले प्राणी से निम्न तो होता ही है. साथ ही वह पतनोन्मुख भी शीघ्रता से होता है.”…....... “ राज्य को यह तय कर देना चाहिए कि स्वस्थ्य दम्पति को ही सन्तानोत्पत्ति का अधिकार है, तथा उनमें बीमार अथवा वंशानुगत दोष होने पर प्रजनन न करना अति सम्माननीय होगा....ऐसे लोगों को प्रजनन के अयोग्य घोषित कर सभी व्यावहारिक गतिविधियों को तीव्र करना होगा.”

Maria Reiter  हिटलर के निर्माण में उसके यौन-जीवन संबन्धी आग्रहों का भी महत्वपूर्ण योग है. कुछ इतिहासकारों ने तो यह तक खोज लिया था किहिटलर होमोसेक्सुअल था. उसके स्वभाव पर इसी ग्रंथि का असर था. वह सोलह साल तक इवा ब्राउन नामक युवती के साथ रहा, उसे प्रेम किया. मरने के कुछ समय पहले उसने इवा से विवाह किया. अंत में दोनो ने एक साथ आत्महत्या कर ली. इसके पहले उसकी और दो प्रेमिकाओं ने आत्महत्या का प्रयास किया था. उनमें से एक मारिया रीटर तो बच गई थी लेकिन इंडा ले हिटलर की उपेक्षा में जी नहीं सकी. उसके साथ काम करने वाले लोगों ने बताया था कि हिटलर और इवा कभी भी साथ में रात नहीं बिताते थे. कुछ लोगों ने तो हिटलर को बाकायदानपुंसक ही घोषित कर दिया था. और उसकी क्रूरता की वज़ह इसे ही माना था. इन बातों की सच्चाई संदिग्ध है फिर भी विवाह-दाम्पत्य और संतानोत्पत्ति के हिटलर के आग्रह सहज और मानवीय नहीं रहे हैं. 
Inga Ley Eva Brown 

यद्यपि उसकी मान्यताएँ जातिगत श्रेष्ठता और धार्मिक विद्वेष पर आधारित थी. ब्रह्मचर्य का प्रबल समर्थक हिटलर इसलिए था कि उसके राष्ट्रवादी अभियान को सफल बनाने वाले बलिष्ट और एकाग्र युवा उसे मिल सकें. जैसे गांधी अपने नस्लभेद-विरोधी और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए ' आत्मबल से युक्त ' सहयोगी ब्रह्मचर्य के मार्फत तैयार करना चाह रहे थे.
हिटलर की दाम्पत्य और यौन-जीवन सम्बन्धी मान्यताओं ने स्त्री और प्रेम को समाज में दोयम दर्जे पर स्थापित करने के प्रयासों को बल दिया.

   कुछ बातें तो शायद स्पष्ट हो पा रही हैं कि व्यक्ति की जन्मजात और स्वाभाविक प्रवृत्तियों का दमन बहुत घातक परिणाम देता है. व्यक्तित्व के निर्माण में जितना योग परिवेश का होता है, उससे कहीं अधिक इन सहजात गुणों का होता है. ये गुण अनुवांशिक और प्राकृतिक रूप से बच्चे में आते हैं. इन सहजात गुणों को जब अनुकूल परिवेश मिल जाता है तो एक रचनात्मक व्यक्तित्व सामने आता है. इसके उलट अगर इनमें प्रतिकूल संबन्ध हुए तो या तो विध्वंशक व्यक्तित्व बनते हैं या फिर निरर्थक. दूसरी बात यह कि रचनात्मकता की उपेक्षा कई बार क्रूर मनोवृत्तियों में बदल जाती है. आप कभी ध्यान से देखें तो पायेंगे कि दुनिया के जितने भी दुर्दान्त अपराधी हुए हैं सब बहुत प्रतिभाशाली थे. किसी न किसी कला के बीज उनमें भी आपको ज़रूर मिलेंगे. किसी न किसी रूप में इन बीजों की दमन ज़रूर हुआ होगा कि हिटलर जैसे लोग बने.


(सभी पेन्टिंग्स हिटलर द्वारा बनाई हुई )

Wednesday 25 April 2012

सपने में जागना सचमुच का जागना नहीं होता





नहीं दोस्तों ! यह कोई कविता नहीं है, न कोई कहानी. यह कविता नहीं जैसी कविता, और कहानी नहीं जैसी कहानी के दरम्यान की एक ज़गह है. एक वाकया है जो आज ही गुज़रा है मेरे साथ भरी दुपहरी में. अमूमन दोपहर में सोने की आदत मेरी नहीं है. मेरी नौकरी ही ऐसी है कि यह आदत बनने ही नहीं पायी. पर कभी-कभार जब छुट्टी होती है तो मैं भी इस सुख को लेने से नहीं चूकता.

आज भी मैं दोपहर को इस खुशकिस्मत नीद में लीन था और कोई सपना देख रहा था. मज़े की बात ये कि सपना देखते हुए मुझे यह भी ख़याल बीच-बीच में आ-जा रहा था कि ज़्यादा सोना नहीं है, क्योंकि सोने की आदत पड़ जायेगी और दूसरा ये कि आदत न होने से शाम को उठो तो अजीब सी सुस्ती और बदहज़मी तारी रहती है.

इन्हीं ख़यालों के बीच अचानक कॉलबेल बजी. घर की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि घर के बैठक वाले कमरे में ही मैं पढ़ता-लिखता और सोता हूँ. दो-तीन बार बेल बजी तो मेरी नींद टूटी. मैने उठने की कोशिश की तो लगा कि हाथ-पैर में जान ही नहीं है. खैर किसी तरह अधलेटे ही खिसक-खिसक कर दरवाज़े की कुंडी खोली. कुंडी खोलने की खटाक् को आगंतुकों ने सुना....और धीरे से दरवाज़े को ठेलकर अंदर आने लगे. मैने देखा कि कोई सपरिवार आया है. कुछ स्त्रियां, बच्चे और दो पुरुष हैं. आँखें ठीक से खुली न होने के कारण मैं उन्हें ठीक से पहचान नहीं पाया अचानक. बस मेरे मुह से इतना निकलाआ जाइए अंदर ! मुझे लगा कि वो सब बड़े अधिकार भाव से अन्दर आ गये थे. स्त्रियां और बच्चे के कमरे में चले गये. दोनो पुरुष बैठक में ही सोफे पर बैठ गये. ये दोनो लोग आपस में कुछ बात करते हुए ही अन्दर घुसे थे और बैठने के बाद भी उसी रौ में अपनी बात में मशगूल थेऐसे जैसे इन्होने मेरी तरफ ध्यान नहीं दिया हो. इससे मुझे मौका मिल गया कि मैं अपने होश-हवास दुरुस्त करके व्यवस्थित हो जाऊँ.

मैं अभी तक अधलेटा ही था. मैने कुहनी टिकाकर उठना चाहा तो धड़ाम से गिर गया, बिस्तर में ही. आँखें खोलकर देखना चाहा कि कि कौन आये हैं तो कमरे में कोई दिखा नहीं ! आँख बड़ी मुश्किल से खुल रही थी. दुसरी बार कोशिश की. इस बार कमरे के दूसरे कोने पर रखे सोफे की तरफ देखा.....वह भी खाली !! इस बीच उनके बात करने की आवाज़ लगातार आती रही. इतना तो लग रहा था कि हैं दोनो लोग इसी कमरे में, क्योंकि अन्दर के कमरे से बाकी लोगों की आवाज़ें भी आ रही थीं. आवाज़ की तेज़ी में इतना अंतर तो था ही कि कोई भी अन्दाज़ा लगा ले कि आवाज़ें कहाँ से आ रही हैं. यह भी समझ में आ रहा था कि जब मैं उठने और देखने की कोशिश कर रहा था तो वे दोनो बात को अल्प-विराम देकर मेरी इस कोशिश को देखने लगते थे. मुझे यह भी सुनाई पड़ा कि वो कह रहे हैंअभी गहरी नींद में थे इसीलिए उठ नहीं पा रहे हैं. इस बीच मुझे उनकी आवाज़ों से यह भी अंदाज़ा हुआ कि दोनो में से एक मेरे जीजा जी हैं.

मैने तीसरी बार उठने की कोशिश की और फिर धड़ाम् ! पड़े-पड़े ही कमरे के तीसरे संभावित कोण पर नज़र डाली. वहाँ भी कोई नहीं. अब मुझे शर्म भी आ रही थी. और यह डर भी लगने लगा था कि मैं कहीं किसी गंभीर नशे के आगोश में न समझ लिया जाऊँ ! इस बीच अम्मा भीतर से आयीं. उन्होने जीजा जी के पैर छुए. उन लोगों को मेरे बावत् बताया कि आज भैया घर में रह गये तो ये भी सो गये, वैसे दोपहर में सोते नहीं हैं. पर मुझे अब भी कोई नहीं दिख रहा था. अम्मा भी नहीं ! उठने की कोशिश कर रहा था तो गिर  जा रहा था. हार कर मैने कोशिश करना छोड़ दिया. और मन में सोच लिया कि अब इस ज़िल्लत को स्वीकार ही कर लेना है. फिर में निश्चेष्ट लेटा ही रहा कि थोड़ी देर में सारे अंग खुद ही जाग्रत हो जायेंगे. बीच-बीच में ताकत लगाकर आँख खोलने की कोशिश करता. उन लोगों का चाय-पानी चल रहा था. पर मुझे दिख कुछ नहीं रहा था. सिर्फ ध्वनियाँ थीं.......थोड़ी देर में वे सब जाने लगे. मैं पड़ा रहा....वो चले गये !

उनके जाने के बाद मैने सुना कि अम्मा कह रही हैं कि वाह रे भैया ! कोई आ जाये तो तुम उठ भी नहीं सकते ! क्या सोचा होगा उन्होंने !! मैने कुछ जवाब नहीं दिया. यूँ ही लेटा रहा अपनी लाचारी के साथ........कि अचानक मोबाइल बज उठा.......मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा........आसपास देखा तो कहीं कोई नहीं मेरी आँखें भी ठीक-ठाक देख रही थीं, भले ही थोड़े भारीपन के साथ. दरवाजे खिड़कियां सब बन्द...अन्दर सबके सोये हुए होने का सन्नाटा......मैने मोबाइल उठाया. नम्बर भर आ रहा था उसमे......मतलब नाम से फीड नहीं था. रिसीव करते ही मैने फोन करने वाले की आवाज़ पहचान ली, जबकि इसके पहले उनसे कभी फोन पर बात नहीं हुई थी. लगभग दस मिनट तक उनसे बात करता रहा.

बात करते-करते ही समझ में आ गया था कि अभी-अभी जो हुआ था वह एक सपना था.......मैं सपने में जागना देख रहा था..........मैं सपने में जागा हुआ नहीं, बल्कि जागता हुआ था.......सपने में जागना, सचमुच का जागना नहीं होता........सपने में जागे हुए लोग गिरते हैं धड़ाम् से.......सपने में जागे हुए लोग कहीं नहीं पहुँचते, सिवाय एक और नींद के !!

                                                                                                                           -विमलेन्दु

Thursday 19 April 2012

चन्द हसीनों को खुतूत...!

(यह ख़त एक मोहतरमा को दस साल पहले लिखा गया था....तब हज़रत के इश्क़ करने के दिन थे....और क्या-क्या उटपटांग हरकतें किया किया करते थे उस नाज़नीन को इम्प्रेस करने के लिए.......वो परीज़ाद ख़ालिस हिन्दी-भाषी थी......उसने जवाब में लिखा कि हुज़ूर कुछ समझ ही नहीं आया !! )


बाअदब ! 

रूह-ए-चमन! पैकर-ए-रानाई ! बिन्त-ए-महताब ! तल्लत-ए-महर !
नूर-ए-आफ़ताब ! नसीम-ए-सुब्ह ! …की ख़िदमत में
ख़ाकसार बन्दगी अर्ज़ करता है !!

पेशतर आपकी सालगिरह पर मुबारक़बाद पेश करता हूँ.
अल्लाह आपको खुशहाल ज़िन्दगी और उसे जीने की ज़हनियत
अता करे.------ दीगर अहवाल-ए-ख़ाक ये, कि ये कैसी वाबस्तगी
है कि आपके ख़यालों की रहगुज़र में इस नाचीज़ को ज़र्रे जितनी
ज़गह भी मयस्सर नहीं—ख़ैर ! इसके पीछे ज़रूर आपकी
ज़िन्दगी के अहम् मसाइल और पेचीदा मुश्किलात होंगी......

बहरहाल ! ज़ेर-ए-वक़्त हाल ये है कि मेरे तसव्वुर में
शहर-ए-बनारस, वहाँ के लोग, गली-कूचे-चौबारे, बिला नागा
आमदरफ्त बनाए रखते हैं. ये मेरी खुशक़िस्मती है कि बनारस ने
मुझे इतनी इज़्ज़त बख्शी—वरना उस शहर में ग़ालिब की
आबरू क्या है. कभी रीवा पर भी करम फरमाएँ और तशरीफ़
लायें. इस हकीक़त से शायद आप बेख़बर हैं कि इस शहर से
ताज़िन्दगी एक रिश्ता कायम हो चुका है आपका. ख़ैर !

अपनी वालिदा और वालिद साहब को मेरी जानिब से आदाब
कहिएगा. और सभी अज़ीज़ों को प्यार !

ये मुन्तज़िर नज़रें आपकी राह तकेंगी............................

अपना ही
विमलेन्दु
20.9.2002

Monday 16 April 2012

चैप्लिन के भीतर एक बच्चा रोता है ! (जन्मदिन 16 अप्रैल )


 



   अपनी किशोर वय में ,चार्ली चैप्लिन की फिल्में ढूढ़-ढूढ़ कर देखना हम कुछ दोस्तों का जुनून हुआ करता था.उस समय VCR पर फिल्में देखी जाती थीं. हम तीन-चार दोस्त मिल कर पैसे इकट्ठे करते. किराये पर VCR और कैसेट्स ले आते थे.शहर में उपलब्ध चैप्लिन की शायद ही ऐसी कोई फिल्म रही होगी जिन्हें हमने न देखा हो. चूँकि उनकी फिल्में कम अवधि की होती थीं तो पेट ही नही भरता था, तो एक ही फिल्म को कई कई बार देखते थे. यही मेरा अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा से प्रथम और एकमात्र परिचय था.
          उस उम्र में चैप्लिन की फिल्में देखना विशुद्ध मनोरंजन के लिए होता था. उनकी सिनेमा कला पर सोचने की समझ नहीं थी मुझमें. अधिकांश फिल्मों की स्मृति भी अब धुँधली हो गयी है. लेकिन अनजाने ही मन के किसी हिस्से में कुछ जमता गया था, जो गाहे बगाहे कौंध जाता है कभी-कभी. फिल्मों पर पढ़ना और लिखना मुझे हमेशा से प्रिय था. चैप्लिन पर कहीं भी कुछ पढ़ने को मिल जाता तो लपक कर पढ़ता था.यह धारणा भी मन में मज़बूत होती गयी कि चैप्लिन एक महान फिल्मकार थे. उन्होने फिल्म कला के सबसे चुनौतीपूर्ण विषय को चुना था. हास्य पर फिल्म बनाना और अन्त तक उसका सफल निर्वाह कर ले जाना फिल्म कला का सबसे कठिन काम है. और यह काम तब लगभग असंभव सा हो जाता है जब फिल्मकार सचेत भाव से उसमें अपने सामाजिक और मानवीय सरोकार भी दिखाना चाहता हो. पर असंभव से खेलना ही चार्ली चैप्लिन की फितरत थी. अपनी ज़िद और अपनें ही कायदों में काम करने वाला एक अद्वितीय फिल्मकार ! हिटलर तक को चुनौती दे डालने वाला एक मर्द फिल्मकार !!
           25, दिसंबर 1977 को जिनेवा में 88 वर्ष की अवस्था में चैप्लिन ने जब देह त्यागी तब तक उन पर बुढ़ापा बहुत हावी हो चुका था.काफी समय से चैप्लिन काम करना बंद कर चुके थे.चैप्लिन के उत्कर्ष के दिनों में अेरिका जाने वाला या अमेरिका से बाहर भी , दुनिया का हर बड़ा आदमी उनसे मिलता था. एच.जी.वेल्स,विन्सटन चर्चिल,महात्मा गांधी,जवाहरलाल नेहरू,चाऊ-एन-लाई,सर्गेई आइजेंस्ताइन,पिकासो,सार्त्र,ब्रेख्त जैसे लोगों ने बड़े उत्साह के साथ उनसे मुलाकात की. जापान यात्रा के दौरान , जापान के आतंकवादियों ने उनकी हत्या की योजना बनाई. वो सोचते थे कि चैप्लिन की हत्या करके अमेरिका के विरुद्ध युद्ध की पहल कर सकेंगे. दरअसल उन्हें बहुत बाद में पता चल पाया कि चैप्लिन अमेरिका के गौरव नहीं बल्कि ब्रिटेन के नागरिक हैं. वे किसी एक देश की नागरिकता धारण किए रहने और उसे जतलाने की मनोवृत्ति को भी नकार चुके थे. जबकि अमेरिकी नागरिकता लेने के लिए अमेरिका में राज्य और प्रेस की ओर से उनपर भारी दबाव पड़ा था.चैप्लिन राष्ट्रीयता की भावना को कोई बड़ी नियामत नहीं मानते थे, फिर भी वे ब्रिटेन के ही नागरिक बने रहे.
            16 अप्रैल 1889 को ईस्ट लेन, वालवर्थ, लंदन में जन्में चैप्लिन लगभग 50 वर्षों तक अमेरिका में ही रहे. ऊना उनकी चौथी पत्नी थीं ,जो मृत्यु के समय उनके साथ थीं. वह चैप्लिन के दस बच्चों मे से आठ की माँ थीं. नाचने गाने और अभिनय की उनकी यात्रा पांच वर्ष की आयु में बड़े नाटकीय ढंग से शुरू हुई थी. उनकी माँ मंचों पर गाती थीं . एक बार प्रदर्शन के दौरान उनकी माँ की आवाज़ फट गयी, और श्रोता शोर मचाने लगे. तब पांच वर्ष के बालक चैप्लिन ने मंच सम्भाला और अपने प्रदर्शन से दर्शकों को मुग्ध कर दिया. उस रात के बाद उनकी माँ की आवाज़ कभी ठीक नहीं हुई.अपनी आवाज़ खोने के कुछ साल बाद वे विक्षिप्त हो गयीं. पति से तलाक चैप्लिन के जन्म के समय ही हो चुका था. इस तरह चैप्लिन ने रंगमंच की शुरुआत अपने परिवार के गुजारे की गरज़ से की. अपनी जीवनी में भी वो स्वीकार करते हैं--" कला एक ऐसा शब्द है, जिसने तब मेरे मस्तिष्क या मेरे शब्दज्ञान की परिधि में कभी प्रवेश नहीं किया. रंगमंच का मतलब था गुजारे का साधन, और कुछ नहीं...."
              लेकिन चैप्लिन महान अभिनेता हुए.उनकी अभिनय शैली की नकल करना लगभग असंभव बना रहा. राजकपूर ने जब चैप्लिन की नकल करने की कोशिश की तो उन्होंने अपने कद को बहुत छोटा कर लिया था. चैप्लिन ने हास्य की प्रचलित पद्धति में मौलिक परिवर्तन किए थे.उन्होने असंगत उछल-कूद और भाव-भंगिमा बनाकर हंसाने की पद्धति को खारिज कर दिया. उनका मानना था कि हास्य, सामान्य व्यववहार में ही सूक्ष्म परिवर्तन कर के पैदा किया जा सकता है. कॉमेडी विवेकसम्मत व्यवहार को थोड़ा सा हेरफेर से हास्यजनक बना देता है. महत्वपूर्ण को अंशतः महत्वहीन बना देता है, तर्क को तर्कहीनता का आभास देता है. हास्य अस्तित्वबोध और संतुलन चेतना को धार देता है.
              द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान मृत्यु, विनाश और घोर निराशा से घिरे विश्व को यह महामानव अपनी संवेदना, दुख का सार, हँसी, मासूमियत, उल्लास और अपराजेय आस्थाएँ दे रहा था. प्रतिरोध कई बार अमूर्तन में भी व्यक्त होता है, खासतौर पर कला-माध्यमों का प्रतिरोध. विश्वयुद्ध के दौरान कुछ कला समीक्षकों ने पिकासो पर निर्लिप्त रहने का आरोप लगाया था. उनका कहना था कि पिकासो ने युद्ध के विरुद्ध केवल एक कृति ' गुएर्निका ' ही बनायी है. जबकि फासी आधिपत्य में रहते हुए पिकासो ने इस कृति के पहले सर्कस के अभिनेताओं, नटो, राजनीति और युद्ध से अनासक्त दिखते सामान्य जन के चित्र बनाये हैं.और युद्धके बाद मरे हुए सांड़ों के सिर बनाये हैं. इस तरह के तमाम चित्र भी युद्ध विरोधी और युद्ध से प्रभावित गहरे अमूर्तन के ही चित्र हैं.
               चैप्लिन की रचनाओं में भी ऐसा ही अमूर्तन है. हिटलर पर चैप्लिन ने ' द ग्रेट डिक्टेटर ' फिल्म बनाई. चैप्लिन ने हिटलर पर सबसे पहले यह आरोप लगाया था कि  उसने मेरी मूँछ (जिसे हमारे यहाँ तितली मूँछ कहते हैं ) चुरा ली है. सर्गेई आइजेंस्ताइन ने लिखा है कि यह आरोप लगाकर एक महामानव ने हिटलर जैसे दुनिया के सबसे बड़े मनुष्य विरोधी को हास्यास्पद बना दिया.चैप्लिन के सरोकार बहुत बड़े थे.पराजित और पराधीन देशों के दुख दर्द पर उनकी नज़र थी.
               कला संबन्धी अपनी अवधारणाओं में चैप्लिन एकदम मौलिक थे. वे कहते थे कि मेरा शिल्प, अभ्यास और चिन्तन का परिणाम है किसी के अनुकरण का नहीं.वे इस तर्क से सहमत होते नहीं दिखते कि कला में समय के साथ कदम मिलाते हुए चलना आवश्यक है.सवाक् पिल्मों का युग शुरू हो जाने के बाद भी कई वर्षों तक चैप्लिन मूक फिल्में ही बनाते रहे.हो सकता है कि इसके पीछे उनका कोई डर रहा हो. यह भी संभव है कि वह ध्वनि को अपनी सम्प्रेषणीयता में बाधा समझते रहे हों.चैप्लिन एक शुद्धतावादी कलाकार थे.
       चैप्लिन की मूक फिल्मों पर किसी कला-परंपरा का नहीं, उनके अभावग्रस्त अतीत, सामाजिक विषमता और उनके प्रतियोगिता के लिए तत्पर और जुझारू व्यक्तित्व की गहरी छाप है.असहनीय परिस्थितियां अनकी कृतियों में खिल्ली अड़ाने लायक बन कर आयी हैं. संघर्ष आकर्षक और उससे संबंधित अनुभूतियां छन कर स्फूर्तिदायी और उदात्त हो गयी हैं.उनके विराट हास्य में करुणा की एक सरस्वती निरन्तर बहती रहती है.चैप्लिन जीवन के विद्रूप में हास्य की सृष्टि करते हैं, लेकिन कहीं भी हास्य को विद्रूप नहीं होने देते.
      चैप्लिन एक सम्पूर्ण मानव और फिल्मकार थे.एक मनुष्य के तौर पर कोई आडम्बर उन्होने नहीं किया. कला उनके जीवन में रोजी-रोटी के सवाल के जवाब के रूप में आयी तो उसे उन्होने उसे वैसे ही स्वीकार किया.और जब कला को उनकी ज़रूरत पड़ी तो खुद को पूरा सौंप दिया.एक अभिनेता, लेखक ,निर्देशक के उनके तीनों रूपों में यह तय कर पाना आज भी मुश्किल है कि वह किस रूप में ज़्यादा बड़े हैं. चैप्लिन इस दुनिया के पिछवाड़े पर पड़ी हुई एक लात हैं.

Saturday 14 April 2012

गीतों भरी कहानी : 'उम्मीद होगी कोई'


( आकाशवाणी में काम करते हुए वर्षों पहले युववाणी के लिए एक  गीतों भरी कहानी लिखी थी.पुरानी फाइलें देखते हुए अचानक मिल गई तो लगा कि इसे दोस्तों के साथ शेयर किया जाये. दिमाग की खिड़कियाँ बन्द कर और दिल का दरवाजा खोलकर इसे पढ़ेंगे/सुनेंगे तो मज़ा आ सकता है)


       विश्वविद्यालय में यह नये सत्र का पहला दिन था,और यह हिन्दी की पहली क्लास थी. इस पहले दिन और पहली क्लास में दूसरी लाइन में बायें से तीसरी कुर्सी पर घुँघराले बाल और गेहुँए रंग वाला यह छात्र दिनकर था. और सबसे आगे वाली लाइन में दायें से चौथी कुर्सी पर बैठी, लम्बे बाल, काली आँखें और गोरे चेहरे वाली लड़की शुभांगी थी. दोनों का ही विश्वविद्यालय में यह पहला दिन था. क्लास में ये दोनों लगातार कुछ हैरानी से तब से एक दूसरे को देखे जा रहे थे, जब प्रो. साहब ने परिचय के बहाने सबका नाम पूछा था. छात्र ने सुना शुभांगी....छात्रा ने सुना दिनकर !  और फिर इन दो ध्वनियों के अलावा सारी ध्वनियाँ खो गई थीं. इस सन्नाटे में दोनो ही अतीत की कोई छूटी हुई डोर का अपना-अपना सिरा फिर से पकड़ने लगे.
       इस डोर को पकड़े-पकड़े ही दोनो क्लासरूम से बाहर आये. बड़ी कशमकश और संकोच के साथ छात्र दिनकर, छात्रा शुभांगी के पास आकर कहता है—“ हैलो शुभांगी जी ! मैं दिनकर शर्मा हूँ. क्या आप कभी सरस्वती स्कूल में पढ़ती थीं ? “ शुभांगी मुस्कुरा कर जवाब देती है—“ तुम बड़े भुलक्कड़ हो, इतनी जल्दी भूल गये कि हम दोनों ने दसवीं तक एक साथ पढ़ाई की थी. कैसे हो दिनकर ? इतने दिनों बाद तुमसे मिलकर बहुत भला लग रहा है.” थोड़ी देर तक यूँ ही कहने सुनने के बाद दोनों अपने घर चले गए. दोनो की ही आँखों में स्कूल के पुराने दिन लौट आये थे..........
       पहली कक्षा से ही दिनकर और शुभांगी एक साथ पढ़ रहे थे. एक दूसरे का टिफिन छुड़ाकर खाने, किताब कॉपियां छुपाकर परेशान करने जैसी छोटी-छोटी शरारतों के बीच दोनो किशोर हो गये तो हया का एक झीना सा परदा उन दोनो के बीच खिंचने लगा. बातें वे अब भी करते थे...दिनकर को अब भी शुभांगी अपना टिफिन खिलाती थी, लेकिन अब औरों से नज़रें चुराकर....कुछ था जो दोनों को इतना खीँच रहा था कि उसकी शिकन हवाओं के चेहरे पर खुशबू की तरह दिखती थी..........

             ( हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू....)

       दिनकर और शुभांगी का मिलना जुलना और बातें करना लगातार बना रहा. दिनकर शुभांगी के घर भी आने-जाने लगा था, फर्क इतना था कि अब बहाने ढूढ़े जाने लगे थे मिलने के. मसलन, शुभांगी दिनकर से उसकी नोटबुक मागकर ले जाती, और फिर उसे लेने के लिए दिनकर उसके घर जाता. इस तरह कुछ अनकहा सा पलता रहा उनके बीच चुपचाप. उनकी अपनी अलग दुनिया बसती जा रही थी.
       अप्रैल का महीना आ गया था. दसवीं की परीक्षाएँ शुरू हुईं तो दोनो पढ़ाई में व्यस्त हो गए. परीक्ष3 के दरम्यान थोड़ी बहुत बातें और मिलना होता रहा. परीक्षा खत्म हो गयी और दो महीने के लिए स्कूल बन्द. इस छुट्टी में शुभांगी अपने दादा-दादी के पास चली गई और दिनकर ने खुद को दोस्तों के साथ व्यस्त रखा.
       गर्मी के बाद बारिश आई. बारिश में भीगी हुई हवा आई लेकिन शुभांगी नहीं आई.दिनकर बेचैन हुआ. कुछ दिन बाद पता चला कि शुभांगी स्कूल छोड़ गई है. उसके पापा का ट्रांसफर कहीं और हो गया है. कहाँ ? ये पता नहीं ! दिनकर का जैसे सब कुछ चला गया. अभी तो सारा आसमान उसका था. हवा उसके रुख के साथ बहती थी. वो जब खिलता था तो फूल महक उठते थे. अब वीरान हो गई थी उसकी दुनिया.........

            (  खो गया है मेरा प्यार....................)

        कुछ दिनों की घनी उदासी के बाद धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया. शुभांगी की याद उसके मन में स्थायी भाव बन गई थी लेकिन बाद के दिनों में वह उसे याद करके ज़्यादा दुखी नहीं होता था. एक गहरी सांस लेकर आसमान की तरफ देखता था और अपने काम में जुट जाता था.दो साल और स्कूल में बिताने के बाद. कॉलेज से बी.ए. किया और अब विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. कर रहा है. कहते हैं कि गुज़रा हुआ वक्त लौटकर नहीं आता लेकिन गुज़रे हुए वक्त के मुसाफिर कभी किसी मोड़ पर टकरा जाते हैं. शुभांगी को फिर से  पाकर दिनकर को लगा कि जैसे उसकी खोयी हुई दुनिया मिल गयी हो........

             ( तुम जो मिल गये हो.................)
                    http://www.youtube.com/watch?v=7dPmLZa82xY

       विश्वविद्यालय में दोनों मिलते तो खूब बातें करते. दिनकर बार बार गुज़रे वक्त में जाता और शुभांगी उसे खींचकर लौटा लाती. दिनकर स्कूल के दिनों की उन कड़ियों को फिर से जोड़ना चाहता था क्योंकि शुभांगी की अनुपस्थिति में भी उसका एहसास दिनकर के साथ था. दोनों ही अब युवा हो गए थे. दिनकर शुभांगी से खूब बातें करता लेकिन अपने प्रेम को किसी निर्णय की तरह उसके सामने कह देने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. इस न कह पाने के कारण अब वह उदास रहने लगा था.................

             ( जब भी ये दिल उदास होता है.........)
                    http://www.youtube.com/watch?v=sCl1YwWmp6s

        दिनकर की उदासी लगातार बढ़ती गई. अब वह बीमार सा दिखने लगा. शुभांगी के साथ रहता लेकिन कुछ बात न करता. उसकी ऐसी हालत देख कर शुभांगी परेशान होने लगी. एक दिन शुभांगी ने कहा--“ दिनकर क्लास के बाद रुकना, कुछ ज़रूरी बातें करेंगे”.
             क्लास खत्म होने के बाद दोनो लॉन में गये. वहाँ इस वक्त और कोई नहीं था. शुभांगी ने बैग से चॉकलेट निकालकर दिनकर की तरफ बढ़ाया. स्कूल के दिनों में कोई शुभांगी के बैग से अक्सर चॉकलेट गायब कर देता था. लेकिन आज दिनकर ने बड़े अनमने ढंग से चॉकलेट लिया था. शुभांगी ने कहा—“दिनकर कई दिनों से तुम उदास रहते हो. बात भी कम करते हो. अगर मुझ पर भरोसा हो तो अपनी परेशानी मुझसे कहो.शायद कोई रास्ता निकाला जा सके.”
        कुछ देर तक चुप रहने के बाद उसने कहा—“तुम बुरा न मानों तो एक बात पूछूँ ?” शुभांगी ने सिर हिलाकर हाँ कहा.
काफी कोशिश करने के बाद लड़खड़ाती आवाज़ में दिनकर बोल पाया—“मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ”

शुभांगी हँसने लगी, और हसते हुए ही बोली—“ तो क्या मुझे एक और शादी करनी पड़गी !!”

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Tuesday 10 April 2012

दीवार के आर-पार : ह्वेनसांग का प्यार







       हम भूत-प्रेतों के बारे में जितना जानते हैं, उससे कुछ थोड़ा सा ही अधिक चीन के बारे में जानते हैं. बाहर की दुनिया में चीन शायद सबसे ज़्यादा अजनबी देश है. हममें से अधिकांश लोगों के लिए, चीन से हमारा प्रथम परिचय चाय की चुस्कियों के साथ शुरू होता था एक ज़माने में, जब चीनी मिट्टी के बने खूबसूरत प्यालों में चाय परोसना शान की बात समझी जाती थी. इससे आगे बढ़ते थे तो अखबारों में छपी चीनियों की तस्वीरें और उनके नामों के उच्चारण, बच्चों के भंगिमा आधारित खेलों के हिस्से बने. किसी चीनी का नाम लेना आज भी टंग-ट्विस्टर जैसे मनोरंजक खेल के लिए बहुत उपयोगी है. हम दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक रही चीन की दीवार को भी जानते हैं. यह दीवार इतनी ऊँची है कि हमें चीन के भीतर का कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता. हमें चीन के आम जन-जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पता है. आज हम भले ही चीनी खिलौनों से खेलते हों, चीनी पिचकारियों और रंग-अबीर से होली मनाते हों, बहनें भाइयों की कलाई पर चीनी राखियाँ बांध रही हों, पर हममें से कितने लोग ये जानते हैं कि चीन में बच्चों के प्रिय खेल कौन से हैं ! कि उनके जीवन में कौन से रंग ज़्यादा चटक हैं या यह कि चीनी समाज में आपसी राग-विराग को व्यक्त करने वाले उत्सव-त्यौहार कौन से हैं ??
           चीन आज दुनिया की एक बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति है. 23 लाख सैनिकों वाली दुनिया की सबसे बड़ी फौज है उसके पास और दुनिया के सारे देश यह महसूस करने लगे हैं कि एक चीन ही है जिससे अमेरिका भी डरता है. भारत के लोग यह समझते हैं कि अगर चीन का खुलेआम समर्थन न होता तो पाकिस्तान जैसा खस्ताहाल देश, भारत के लिए सिरदर्द न बना होता. चीन ने अपनी आक्रामक बाज़ारनीति से दुनिया भर के बाज़ारों को ध्वस्त कर दिया. जिस भी देश ने विदेशी व्यापार के लिए रास्ता खोला, उस रास्ते सबसे पहले चीनी सामान पहुँचने लगा. चीन के सस्ते सामानों ने देसी कम्पनियों को ठप्प कर दिया. दो-चार साल में जब लोगों को चीनी सामान की घटिया क्वालिटी का पता चलता, तबतक उस देश का देसी बाज़ार धराशायी हो चुका होता, और चीनी कम्पनियाँ किसी दूसरे देश का रुख़ कर चुकी होती हैं. चीन का यह अपने किस्म का अनूठा साम्राज्यवाद है, जो अमेरिका से भी ज़्यादा खतरनाक है. चीन के इरादों का पूर्वानुमान लगाना बहुत मुश्किल होता है. आज भी कोई यह साफतौर पर नहीं कह सकता कि चीन की मंशा क्या है....इतनी बड़ी आर्थिक और सैन्य-शक्ति होने के नाते वह दुनिया के नक्शे को कैसा देखना चाहता है !
            हाँ...चीन ने इतना ज़रूर किया है कि कश्मीर क्षेत्र में भारत से लगी 1600 किलोमीटर की सीमा को अपने नक्शे से गायब कर दिया है. इसका साफ अर्थ यह है कि उसने यह क्षेत्र पाकिस्तान को उपहार में दे दिया है. चीन अभी भी लद्दाख क्षेत्र में 38,000 वर्ग किमी और कश्मीर क्षेत्र में 5,000 वर्ग किमी क्षेत्र का दबाये बैठा है. विवादित कश्मीर में चीनी सैनिकों की मौजूदगी को भारत सरकार भी स्वीकार कर चुकी है. अरुणांचल प्रदेश पर चीन ने अपना दावा अभी भी छोड़ा नहीं है, और जब-तब वह इस प्रदेश को भारत के नक्शे से गायब कर देता है. भारत सरकार तो वर्षों तक यह मानती ही रही कि चीन किसी भी दिन अरुणांचल को अपने कब्ज़े में ले लेगा. इसीलिए हमारी सरकार ने अरुणांचल के विकास के लिए कतई ध्यान नहीं दिया. नतीज़ा यह कि आज यह देश का सबसे पिछड़ा राज्य है.
      आज चीन के बारे में जितनी अनभिज्ञता हमारे बीच है,प्राचीनकाल में उतनी नहीं थी. ईसा के बाद पहली सहस्त्राब्दि में चीन के साथ भारत के सबसे घनिष्ट, बौद्धिक और व्यापारिक सम्बन्ध थे. लेकिन इस दरम्यान भी तनाव की एक अन्तर्धारा निरंतर बनी रही, और इसका मूल कारण सभ्यतागत श्रेष्ठता का अहंकार थाजो दोनो ही देशों में था.
      भारत और चीन के बीच संबन्धों की शुरुआत व्यापार के साथ हुई, जो धार्मिक आधार पाकर प्रखर बौद्धिक संबन्धों में बदल गई. आप शायद विश्वास न करें कि पुरातन महाकाव्य महाभारतऔर मनु स्मृतिमें भी चीन से आ रही वस्तुओं का ज़िक्र है. विशेष रूप से इन ग्रंथों में चीन से आये रेशमी वस्त्रों की चर्चा है. इसी प्रकार चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कौटिल्य द्वारा रचित अर्थशास्त्रमें चीन से आने वाले कीमती सामानों का उल्लेख है. कालिदास ने अपने नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम्में भी चीनी कौशेयसे बने ध्वज का उल्लेख किया है. 7वीं शताब्दी में वाणभट्ट द्वारा रचित हर्ष चरितके एक प्रसंग में बताया गया है कि अनुपम सुन्दरी राज्यश्री ने अपने विवाहोत्सव में चीन-निर्मित कौशेय वस्त्र पहनने का निर्णय लिया था. पुराने संस्कृत ग्रंथों में रेशमी वस्त्रों के अलावा भी ऐसी अनेक वस्तुओं का ज़िक्र मिलता है, जो चीन से आ रही थीं. मुख्य रूप से कपूर, सिन्दूर, उच्च कोटि का चमड़ा, सौंफ, नाशपाती, आडू आदि के आयात का प्रचलन ईसापूर्व की शताब्दियों में था.
      बाद के वर्षों में भारतीय व्यापारियों ने चीनी सामान का आयात कर उसे मध्य एशियाई क्षेत्रों को निर्यात करना भी शुरू कर दिया. बैक्ट्रिया पहुँचे चीनी दूत झांग क्वियान, उस समय आश्चर्य में पड़ गये थे, जब ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में उन्होने, वहां के बाज़ारों में यूनान की बनी सूती और बांस की वस्तुएँ देखीं. उन्हें पता चला कि ये वस्तुएँ भारतीय सार्थवाहों ने अफगालिस्तान के रास्ते उन तक पहुँचाई हैं. चीन और पश्चिम एशिया के बीच का व्यापार सदियों तक भारतीय व्यापारियों की मध्यस्थता में चलता रहा. शुरू के वर्षों में रेशम के वस्त्र प्रमुख थे, लेकिन 11 वीं शताब्दी तक आते-आते चीनी मिट्टी के बर्तन प्रमुख व्यापारिक वस्तु बन गये.
       दो हज़ार से भी ज़्यादा वर्ष पूर्व शुरू हुआ व्यापारिक संबन्ध, ईसा के बाद पहली शताब्दी से ही सघन धार्मिक सम्बन्धों में बदलने लगा. और दरअसल यहीं से भारत-चीन संबन्धों की जटिलताएं भी शुरू हो गयीं. प्रथम शताब्दी इसवी में चीन के हान वंशीय शासक मित्रंदीके आमंत्रण पर दो भारतीय सन्यासी—‘धर्मरक्ष और कश्यप मतंग, अनेक धर्मग्रंथों और अवशेषों को लेकर चीन पहुँचे थे. कहा जाता है कि सम्राट मित्रंदी ने स्वप्न में गौतम बुद्ध के दर्शन किए थे. उसके बाद ही उन्होंने अपने दूतों को बौद्ध विद्वानों को खोजने के लिए भारत भेजा था. इस प्रसंग से यह तो स्पष्ट ही है कि इससे पहले से ही चीन वासियों का बौद्धमत से परिचय अवश्य रहा होगा.
       दरअसल भारत और चीन को निकट लाने में बौद्ध धर्म की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी. भारत और चीन के लोगों का एक दूसरे के यहाँ आना-जाना धार्मिक जिज्ञासाओं के कारण शुरू हुआ. लेकिन जल्द ही ये संबन्ध बहुत व्यापक हो गये. धीरे-धीरे इन संबन्धों का दायरा विज्ञान,गणित,साहित्य,भाषाशास्त्र,शिल्प,चिकित्सा और संगीत तक बढ़ गया. इन बौद्धिक संबन्धों की शुरुआत ज्योतिष विज्ञान और तांत्रिक गणित से हुई. कला-साहित्य-संगीत शुरुआत में भले ही धार्मिक विषयवस्तु के रूप में पहुँचे हों, लेकिन कालांतर में वो धर्म-निरपेक्ष हो गये.
       आठवीं शताब्दी में एक भारतीय विद्वान गौतम सिद्धार्थ (चीनी भाषा मे गूतान शिदा) चीन के राष्ट्रीय ज्योतिर्विज्ञान बोर्ड के अध्यक्ष बनाये गये. इसी तरह अनेक भारतीय गणितज्ञ और विद्वान चीन में उच्च पदों पर आसीन थे. आज के भारत-चीन संबन्धों के बारे में सोचें तो यह बात असंभव लगती है. आपको यह जानकर भी कम आश्चर्य नहीं होगा कि चीन का पहला सर्वमान्य पंचांग जिउझी ली’ , भारतीय गणितज्ञ वराहमिहिर द्वारा 550 इसवी में रचित पंचसिद्धान्तिका पर ही आधारित है. और यह पंचांग भी, भारतीय पंचांग की तरह नवग्रहों की सापेक्ष गतियों से ही गणना करता है. आप जानते ही हैं कि प्रिन्टिंग तकनीक और कागज का अविष्कार चीन में ही हुआ. लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि विश्व की प्रथम तिथियुक्त पुस्तक, जो चीन में प्रकाशित हुई 868 इसवी में, वह संस्कृत भाषा के ग्रंथ वज्रसूत्रका चीनी अनुवाद थी ! और यह अनुवाद 402 इसवी में भारतीय विद्वान कुमार जीवने किया था !!
           सातवीं-आठवीं शताब्दियों में, चीन में गणित और ज्योतिर्विज्ञान पर बौद्ध और वज्रयानी तांत्रिक मतों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. चीन का महान तांत्रिक गणितज्ञ इ-क्सिंग’ , दरअसल एक बौद्ध सन्यासी ही था. आठवीं शताब्दी तक भारत में त्रिकोणमिति का बहुत विकास हो चुका था. चीनी यात्रियों ने त्रिकोणमिति के अध्ययन में भी विशेष रुचि दिखाई. आर्यभट्ट के संस्कृत शब्द ज्याको ही चीनी नाम मिंग दिया गया, जिसे पश्चिम में साइन कहा गया. साइन शब्द साइनस से निकला था, जिसका अर्थ खाड़ी या तटीय कटाव होता है. मिंग शब्द का अर्थ चन्द्र कलाओं की ज्याहोता है.
      चीन से भारत आने वाले विद्यार्थियों ने भारत के चिकित्सा शास्त्र का भी अध्ययन किया, लेकिन वो इसे अपने चिकित्सा विज्ञान से बेहतर नहीं मानते थे. भारत आये चीनी यात्री ई-ज़िंगने लिखा भी था कि भारत में कुछ रोगों में राहत देने वाली चिकित्सा तो अच्छी है, लेकिन जीवन की अवधि बढ़ाने वाली औषधियाँ और पद्धतियाँ (एक्यूपंक्चर, प्रदाहन आदि) तो केवल चीन में ही हैं.
       गणित और विज्ञान से आगे,भारतीय संगीत-साहित्य-शिल्प और भाषाशास्त्र का चीन के सांस्कृतिक जीवन पर गहरा असर पड़ा. चीन में बहुत उत्कृष्ट बौद्ध समारकों,मठों और संघारामों का निर्माण किया गया. तंग शासनकाल में बौद्ध मंत्रोच्चार और भारतीय संगीत (चीनी में तियानफूसंगीत) चीन में गूँज रहे थे. वर्ष 1404 में मिंग वंश के सम्राट चेन्गजू ने बुद्ध गीतमालाका संकलन किया था. संस्कृत से चीनी में अनुवाद की प्रक्रिया में हज़ारों नए शब्द चीनी भाषा में शामिल हो गए. संस्कृत के ध्यानशब्द को चीनी पहले च आनकहते थे, बाद में यह ज़ेनहो गया.
       भारत आये अनेक चीनी यात्रियों ने यात्रा-वृत्तान्त लिखे हैं. यद्यपि कई जगहों पर इनके वर्णन अतिरंजनापूर्ण हैं, पर भारत-चीन के सांस्कृतिक संबन्धों को समझने में ये वृत्तान्त मौलिक आधार प्रदान करते हैं. भारत आये अनेक चीनी यात्रियों में फाह्यान, इ-ज़िंग, और ह्वेनसांग सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए हैं. कालक्रम के हिसाब से इन तीनों में, फाह्यान सबसे पहले भारत आये. फाह्यान ने 399 इसवी में चीन से अपनी यात्रा शुरू की और 401 इसवी में भारत पहुँचे. 10 वर्ष के अपने भारत प्रवास में इन्होंने व्यापक भारत-भ्रमण किया. भारतीय विद्वानों से वार्तालाप किए और अनेक भारतीय ग्रंथों का संग्रह किया. 6 वीं शताब्दी में भारत आये इ-ज़िंग ने चीन के लोगों में भारत की सकारात्मक छवि और भारतीय मनीषा की प्रतिष्ठा बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. इ-ज़िंग ने 10 वर्ष तक भारत में रहकर नालंदा में आयुर्वेद का विशेष रूप से अध्ययन किया था.
       ह्वेनसांग का भारत के साथ विशेष आत्मीय संबन्घ रहा. दरअसल, प्राचीनकाल में ह्वेनसांग, भारत-चीन के बीच सबसे बड़े और सच्चे सांस्कृतिक दूत थे. उन्हें भारत-भूमि से प्रेम था. और भारतीयों को भी उनसे सच्चा प्यार था. ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में भारत आये थे. एक प्रखर विद्वान थे. ये सोलह वर्षों तक भारत में भ्रमण करते रहे. अपने भ्रमण के दौरान ही उनहोने बौद्ध धर्म के साथ-साथ चिकित्साशास्त्र, दर्शन, तर्कशास्त्र, गणित, ज्योतिर्विज्ञान, और व्याकरण का बी अध्ययन किया. उन्होने सम्राट हर्षवर्धन से मुलाकात की और भारत-चीन संबन्धों पर चर्चा की. ह्वेनसांग की इस यात्रा को सदियों तक भारत और चीन में याद किया जाता रहा. प्राचीन काल में भारतीय बौद्ध मठों में पटसन के जूते पहने, चम्मच और चॉपिस्टिक लिए, बादलों की सवारी करते ह्वेनसांग के चित्र अंकित किए गये. चीन में भी ह्वेनसांग की भारत यात्रा से संबन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हो चुकी थीं. इन्ही कथाओं पर आधारित एक उपन्यास क्सी यू जी’ (पश्चिम की यात्रा) सोलहवीं शताब्दी में चीन में लिखा गया. ह्वेनसांग जब वापस चीन जाने लगे तो नालंदा के विद्यार्थियों और अध्यापकों ने बहुत भावपूर्ण प्रार्थना के साथ उनसे रुक जाने का आग्रह किया था. चीन वापस जाने के बाद भी कई बर्षों तक ह्वेनसांग भारत से बहुत गहरे जुड़े रहे.
           दरअसल, ह्वेनसांग चीन में भारत और बौद्ध धर्म के प्रति पनप रही नकारात्मकता को कम करने की एक महत्वपूर्ण कड़ी थे. चीन में बौद्ध धर्म के अत्यधिक प्रभावी विस्तार के साथ ही, प्रतिरोध की एक समानान्तर धारा भी चल रही थी. इस धारा का नेतृत्व बौद्ध-विरोधी बुद्धिजीवी हान यूकर रहे थे. इस प्रतिरोध का कारण यह था कि चीनी अपने को विश्व-सभ्यता का केन्द्र मानते थे. इनका मानना था कि चीनी बौद्धिकता अपराजेय है, और चीन से बाहर विकसित हुआ कोई ज्ञान महत्वपूर्ण हो ही नहीं सकता. वे बुद्ध समेत सभी भारतीयों को बर्बर और गँवार कहते थे. इधर भारतीय भी विदेशियों को म्लेच्छकहते थे. फ़ारसी यात्री अलबरूनी ने अपनी पुस्तक—‘तारीख़-ए-हिन्दमें यह शिकायत भी दर्ज़ करायी थी. भारत-विरोधी चीनियों को डर था कि धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों की श्रेष्ठता स्वीकार कर लेने से विश्वसभ्यता का केन्द्र खिसक कर भारत की ओर चला जाता है.
        सभ्यतागत श्रेष्ठता का यह अहंकार आज भी चीन और दुनिया के दूसरे देशों के बीच दीवार बनकर खड़ा है. कहते हैं कि जितनी ईंटें चीन की महान दीवार में लगी हैं, उनसे पृथ्वी के चारों तरफ एक बाउँड्री वॉल बनाई जा सकती है. ह्वेनसांग सरीख़े महात्माओं के विश्वबन्धुत्व की भावना को चीन ने ऊँची दीवार के भीतर अगर कैद न किया होता तो, भारत और चीन मिलकर आज दुनिया का नेतृत्व कर रहे होते.