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Saturday 24 September 2011

हम जो हिन्दू हैं...!



 पिछले दिनों जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिना वज़ह उपवास शुरू कर दिया, हमारे मीडिया-खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया ने मोदी की महानता के क़सीदे पढ़ना शुरू किया, और देश की जनता ने अपने भावी प्रधानमंत्री के चित्र बनाना शुरू किया, उसी समय फेसबुक में मैने मीडिया पर थोड़ा खीझते हुए, गुजरात में 2002 में हुए साम्प्रदायिक दंगों के दौरान, अल्पसंख्यक समुदाय की स्त्रियों के साथ हुई एक बर्बर और शर्मनाक घटना का उल्लेख किया. इस ज़िक्र के मार्फ़त मैं ये कहना चाह रहा था कि हमारे मीडिया के पास गुजरात दंगों के दौरान मोदी सरकार की भूमिका के अनगिनत साक्ष्य हैं. जलते हुए घरों की तस्वीरें हैं, बिलखते हुए लोगों के बयान हैं—फिर वह मोदी के गुणगान पर क्यों उतर आया है ?

फेसबुक पर इस ज़िक्र के बाद जो प्रतिक्रियायें आयीं उनसे मैं आश्चर्यचकित हो गया. अधिकांश लोगों ने मुझसे ऐसी बर्बर घटनाओं के प्रमाण मागे,जो मैं नहीं दे सकता था. लगभग सबका ये मानना था कि मैं और मेरे जैसे वो लोग जो अल्पसंख्यकों पर हुए अत्याचार की निन्दा करते हैं, वो इसी बहाने मशहूर होने और अपने आप को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के किसी अभियान में शामिल हैं. लोगों ने यहां तक कह दिया कि अगर बहुत दर्द हो रहा है उनके लिए तो तुम भी मुसलमान बन जाओ...! मित्रों ने पूछा कि जब मुसलमान हिन्दुओं को मारते हैं तब आप कुछ नहीं कहते, लेकिन जब हिन्दू मुसलमानों को मार देता है तो छाती कूटने लगते हैं.....आप जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों को सिर्फ बहुसंख्यकों के दोष दिखायी पड़ते हैं...कुछ जागरूक पाठकों ने यह भी बताने की कोशिश की कि जो मीडिया चैनल उग्र हिन्दुत्व का समर्थन नहीं करते, उनको विदेशों से फंड और निर्देश मिलते हैं ताकि वो अल्पसंख्यक समुदायों के पक्ष में बोलें. और इन्हीं सब दलीलों के बीच मेरे हिन्दू होने पर भी सवाल उठाये गये....

मैं हिन्दू हूँ, क्योंकि मेरे माता-पिता हिन्दू हैं. मेरे पूर्वज हिन्दू थे. मैं जन्मना हिन्दू हूँ. मैं बहुत राहत और गर्व महसूस करता हूँ कि मेरा जन्म हिन्दू धर्म में हुआ. जितनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, खुलापन और सहिष्णुता हिन्दू धर्म में है, क्या दुनिया के किसी धर्म में है ? यह हिन्दू धर्म में ही संभव है कि हम उसकी रीतियों-परंपराओं को नकारते हुए भी  हिन्दू बने रह सकते हैं. हमें धर्मच्युत करने या हमारा परिष्कार करने का कोई फतवा जारी नहीं होगा. यह हिन्दू धर्म में ही संभव है कि हम नास्तिक हो जायें और अपने ईश्वर पर ही सवाल उठाते रहें और हमें मौत की सज़ा न सुनाई जाये....यह हिन्दू धर्म ही है जिसने बौद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तकों गौतम बुद्ध और महावीर को भी ईश्वर का अवतार मान लिया...और अँग्रेजों ने अगर हिन्दू-मुसलमानों के बीच इतनी खाई न पैदा की होती, और विभाजन न हुआ होता तो शायद पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब भी अवतारों में शामिल कर लिए गए होते...निजता को सम्मान देने वाला इतना उदार धर्म दुनिया में और कौन है ? हिन्दू धर्म ने हमारे सोचने, बोलने, आजीविका के साधन जुटाने पर कभी कोई पाबन्दी नहीं लगाई.

दरअसल गौर से देखने पर पता चलता है कि हिन्दू धर्म की प्रवृत्ति मुक्त करने की रही है. बांधना, संकुचित करना और शासन करना इस धर्म का ध्येय कभी नहीं रहा. हमारे यहाँ चार वेद, एक सौ आठ उपनिषद, अठारह महापुराण,गीता,महाभारत,मानस आदि ग्रंथ, हमारे प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बने रहे. हिन्दू धर्म ने कभी यह दावा नहीं किया कि इनमें से कोई भी ग्रंथ पहला और अंतिम सत्य है, जैसा कि कुरान और बाइबिल के बारे में कहा जाता है. हिन्दू धर्म ने कभी भी किसी व्यक्ति को धर्म से बाहर नहीं निकाला, चाहे उसने कितना भी गैर-धार्मिक आचरण किया हो. हिन्दू धर्म के पुनर्संस्थापक आदि शंकराचार्य ने देश में घूमकर चार पीठों की स्थापना की. चारों पीठों पर चार शंकराचार्यों को बैठाया, लेकिन उनमे से किसी को भी अधिकार नहीं दिया कि वो कोई फतवा जारी करें...न तो आदि शंकराचार्य ने कभी कोई फतवा जारी किया.

लोकतंत्र, हिन्दू-धर्म के स्वभाव में है. कर्मफल में अडिग आस्था रखने वाले इस धर्म में साधारण मनुष्य तो क्या, देवताओं तक को कोई छूट नहीं दी गयी. यह इसका आंतरिक संविधान है. राम ने सीता के साथ अन्याय किया तो उन्हें अपने ही पुत्रों से पराजित होना पड़ा. सीता धरती में समा गयीं और राम को जीवन भर का पत्नी-वियोग मिला. गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया तो उनकी एक हज़ार सोलह पटरानियों का भीलों ने अपहरण कर लिया और महाबली अर्जुन देखते ही रह गये. अंत में एक बहेलिए ने कृष्ण का वध कर दिया. ब्रह्मा अपनी ही बेटी पर आसक्त हो गये तो उनका हाल देखिए....पुष्कर के अलावा,देश में कहीं भी उनका न मंदिर बना और न ही उनकी पूजा होती. महादेव शंकर को अपने ससुर से ही अपमानित होना पड़ा....ये दृष्टान्त, हिन्दू धर्म की उस मूल-प्रतिज्ञा को पुष्ट करते हैं, जिसमें कर्म को ही सर्वोच्च प्रधानता दी जाती है. यहाँ कर्म ही सर्वश्रेष्ठ पूजा है. इस धर्म में ये संकेत स्पष्ट हैं कि आपका कर्म ही आपकी प्रतिष्ठा का आधार है,धर्म इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा.

हिन्दू धर्म में पैदा होना मुझे जितनी राहत और आश्वस्ति देता रहा है, हिन्दुत्व से मुझे उतनी ही अधिक असहमति और विरक्ति रही है. आप सब भली प्रकार समझते ही हैं कि हिन्दू और हिन्दुत्व में कितना अंतर है !  हिन्दुत्व एक झटके में ही हिन्दू होने के हमारे गर्व, हमारी आश्वस्ति और हमारे औदार्य पर पर प्रश्न-चिन्ह लगा देता है. हम जब अपने धर्म की श्रेष्ठता के  प्रति दुराग्रही हो जाते हैं, तो अपनी श्रेष्ठता को ही खोने लगते हैं. हिन्दुत्व एक वर्चस्ववादी मानसिकता है. आदिकाल से ही इस देश का चरित्र और स्वभाव समावेशी रहा है. बौद्ध,जैन और सिख धर्म यहाँ पैदा हो गये. इस्लाम बाहर से आया और .
यहीं का हो गया. क्या किसी भी दूसरे देश और समाज में आप इतनी उदारता की कल्पना कर सकते हैं !  

इस देश के चरित्र और स्वभाव को बदलने की सुनियोजित और संगठित कोशिश की जा रही है. हिन्दुत्व इस कोशिश का वैचारिक आधार है...आडवानी, मोदी, तोगड़िया, कटियार आदि इसके चेहरे है. यह कोशिश कौन कर रहा है, सबको मालूम ही है. अयोध्या, गुजरात, मालेगांव आदि, हिन्दुत्व की मुखर अभिव्यक्तियां हैं. इन घटनाओं को हिन्दू धर्म से जोड़ना उतना ही ग़लत होगा, जितना मुसलमान आतंकियों की करतूतों को इस्लाम से जोड़ना...

अब कुछ बातें उन आपत्तियों पर जिनका ज़िक्र शुरू में किया था. मेरे मन में पहला सवाल यह था कि क्या वर्तमान की सफलता की चकाचौंध में अतीत में किये गये पापों को भुला देना ठीक है ? आज गुजरात की सफलता और विकास बेशक उल्लेखनीय है. इसका श्रेय मोदी और उनकी टीम के साथ-साथ गुजरात की जनता को दिया जाना चाहिए. दंगों और भूकम्प से हुए विनाश के बाद गुजरात की जनता ने पुनर्निर्माण की जैसी इच्छशक्ति दिखायी, उसने मोदी की राह आसान कर दी. लेकिन उन हज़ारों अल्पसंख्यकों की कीमत पर जो गुजरात से गायब हो गये. चुनाव आयोग ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि दंगों के बाद गुजरात में हुए आम चुनाव में तैयार की गई मतदाता सूची से हज़ारों अल्पसंख्यकों के नाम गायब थे. ये कहाँ गये,आज तक किसी को पता नहीं ! दंगों के बाद प्रभावित लोगों को सरकार के राहत शिविरों में रखा गया था, वो सब लापता हैं. गुजरात दंगों के बाद जिन लोगों ने मीडिया के कवरेज़ को खुली आँखों से देखा होगा, वो जानते हैं कि यह दंगा सरकार की शह पर हुआ था. जिन लोगों पर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी वो खुद लूट,हत्या और बलात्कार में शामिल हो गये थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने कहा था कि गुजरात में जो कुछ हुआ वह हमारे लिए शर्म की बात है. हालांकि बाद में दबावों के चलते अटल जी ने अपना बयान बदल दिया था और मोदी की प्रशंसा की थी.

पिछले दिनों जब मोदी ने मीडिया के साथ मिलकर इस देश का प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को ज़ाहिर किया और पूरे देश में जो अव्यक्त स्वीकृति दिखाई पड़ी-वह चिन्ता का सबब है. क्या इस देश के बहुसंख्यकों ने इस देश को एक हिन्दू राष्ट्र की मौन स्वीकृति दे दी है ?  जो लोग धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर हैं , वो अल्पसंख्यक और निस्तेज क्यों होते जा रहे हैं ??  धर्मनिरपेक्षता मेरे लिए धर्म से च्युत होना नही है, बल्कि गहरे धार्मिक अवबोध से निकली हुई जीवन प्रणाली है. मेरी धर्मनिरपेक्षता किसी भी तरह की बर्बरता के खिलाफ है....मेरी धर्मनिरपेक्षता मुझे जितना इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध करती है, उतना ही उग्र हिन्दुत्व से....मेरी धर्मनिरपेक्षता किसी भी साम्प्रदायिक सोच वाले व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री मानने से रोकती है....मेरी धर्मनिरपेक्षता इस महादेश की जनता की कमज़ोर होती स्मृति के आगे विवश दिखाई पडती है.

Friday 16 September 2011

रहने-सहने की अवसादी चट्टान..!


 मध्यप्रदेश के शहडोल जिले का सीताराम द्विवेदी....पत्नी को  मायके से बुलाकर ला रहा था.रास्ते में उसने अपने दो महीने के दुधमुहे बच्चे को पत्नी की गोद से छीना और बहती हुई सोन नदी में फेंक दिया.पत्नी के साथ बैठे हुए तीन साल के दूसरे बेटे को भी नदी में फेंकने की कोशिश की लेकिन आसपास के लोगों ने उसे बचा लिया.सीताराम अब जेल पहुँच गया है. .....इसी तरह मध्यप्रदेश के ही सीहोर जिले के एक व्यक्ति ने अपनी पांच बेटियों को कुल्हाड़ी से काटकर मार दिया. इस व्यक्ति का अपने भाइयों से ज़मीनी विवाद चल रहा था. पत्नी  उसे गैरवाज़िब विवाद करने से रोकती थी और उसके भाइयों के समर्थन में तर्क देती थी. पत्नी के इस रवैये ने उसे इतना आवेशित कर दिया कि उसने अपने पांचों मासूम बच्चों को मार दिया.निचली अदालत ने उसे मौत की सज़ा सुनाई, जिसे हाईकोर्ट ने भी बरक़रार रखा है.

ये दोनो घटनाएँ अभी हाल की ही हैं, जो हमारे विकसित हो रहे समाज की छवियों,मनोविज्ञान,सहिष्णुता और पारिवारिक संरचना की नई तस्वीरें पेश करती हैं.इन घटनाओं के कारण और निहितार्थ बहुत पेचीदा हैं.इन्हें सिर्फ क्षणिक आवेश का परिणाम नहीं माना जा सकता.ये मानव जीवन की क्रूरतम घटनाएँ है. जीवन ओर समाज में यह क्रूरता कैसे आती गई ? वह कोन सी पारिवारिक-सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां हैं जो हमारे भीतर इतनी क्रूरता पैदा कर रही हैं ? वो कौन सी चीज़ें हैं जिनकी अनुपस्थिति हमें इतना असहिष्णु बनाये जाती है ? हमारे संवेगों का यह नकारात्मक प्रवाह हमारी किस हताशा का परणाम है ?

इस तरह की घटनाएँ अब आए दिन पढ़ने-सुनने-देखने को मिलने लगी हैं.कुछ लोगों का मानना यह भी है कि मीडिया के बढ़ते जाल की वज़ह से अब ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आने लगी हैं. ऐसे लोग जीवन-समाज में हुए बदलाव को स्वीकार  करने में हिचकिचा रहे हैं. ये कौन लोग हैं, इसकी चर्चा कभी बाद में करेंगे, क्योंकि यह चर्चा इस लेख के मूल अभिप्रेत को बदल सकती है.

सामान्य तौर पर अगर ऐसी घटनाओं के पीछे के मनोविज्ञान को देखा जाये तो यह हमारे जीवन में सघन होते अवसाद की परिणति है. अवसाद एक छोटे अवधि का ही सही किन्तु स्थाई भाव होता है. इसका प्रभाव व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर देता है. हमारे जीवन में अवसाद की उत्पत्ति नहीं होती, बल्कि निर्माण होता है. अवसाद हमारे जीवन के अनेकांगिक क्रिया-कलापों, आस-पास के परिवेश और रिश्तों की अंतर्क्रिया से पैदा हुए रसायन से बनता है. हमारी अक्षमता,असफलता,अविश्वास,निराशा,संदेह,रिश्तों की टूटन,प्राकृतिक संवेगों के दमन आदि लौकिक दुर्घटनाओं से जो सत् निकलता है, उसी के जमते जाने से हमारे भीतर अवसाद बनता है. इससे ग्रस्त व्यक्तियों की परिस्थिति के मुताबिक इन तत्वों की उपस्थिति अलग-अलग हो सकती है.

यह अवसाद का भाव-पक्ष है. इसका एक अभाव-पक्ष भी होता है. जीवन से उल्लास के क्षण और तत्व गायब होते जा रहे हैं. समाज और परिवार से सहकारिता की भावना का लोप होता जा रहा है. दुनिया इतनी विविधवर्णी और बहुमुखी होती जा रही है कि  निजी और सार्वजनिक जीवन में अब आदर्शों का निर्माण बन्द हो चुका है. आदर्शविहीन जीवन अराजक तो हो ही जाता है, भले ही उसमें उत्तेजना ज़्यादा हो. कुछ प्रतिभाशाली पाठकों को आदर्श की ज़रूरत पर आपत्ति हो सकती है. इसमें परंपरावाद, पुरातनपंथ और प्रतिभा के संकोच की गंध भी आ रही होगी. यह कैसे भूला जा सकता है कि हमारे इसी आधुनिक समाज में आदर्शों को नकारने, तोड़ने और उन्हें निरर्थक साबित करने के बौद्धिक प्रयास भी किये जाते रहे हैं. इन प्रयासों का सामान्य जन-जीवन में कितना असर हुआ, इसको लेकर निश्चित तौर पर ठीक से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कम से कम भारतीय समाज में बौद्धिक आन्दोलनों की पहुँच बहुत सीमित दिखाई पड़ती है.

पारिवारिक विखण्डन के बाद बढ़ते आर्थिक दबाव ने स्थिति को और ज़्यादा गंभीर बना दिया है. परिवारों के टूटने और आर्थिक दबाव के बीच बहुत सूक्ष्म किन्तु बहुत प्रभावकारी सम्बन्ध है. इसी सम्बन्ध के दुष्परिणाम की शक्ल में जीवन में अवसाद का निर्माण भी होता है.. यद्यपि कई बार मनोदैहिक सम्बन्धों की विफलता से भी निराशा और हताशा पैदा होती है, लेकिन उन स्थितियों में भी परिवार एक महत्वपूर्ण कारक होता है. अर्थशास्त्र ने समाजशास्त्र का गणित बिगाड़ दिया है.

उत्पादन और आय के स्रोतों के रंग-रूप में क्रांतिकारी बदलाव हो चुके हैं. आय के अवसर बड़े शहरों में केन्द्रित होते गये. गांवों, कस्बों और छोटे शहरों के अर्थतंत्र पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो चुके है. रोज़गार की तलाश और सीमित आय ने संयुक्त परिवारों को खत्म कर दिया. आर्थिक सर्वेक्षण कहते हैं कि देश की 70 प्रतिशत आबादी की औसत आय बीस रुपये प्रतिदिन है. इनस्थितियों में एकल परिवार हमारी विवशता है. इन एकल परिवारों के सदस्यों के आपसी मतभेद कभी-कभी इतने वीभत्स रूप ले लेते हैं, जिनका अंत ऊपर बताई गई घटनाओं जैसा होता है. संयुक्त परिवारों की यद्यपि अपनी दिक्कतें होती हैं, लेकिन उनमें आपसी विवादों के इस त्रासद ऊँचाई तक पहुँचने का अवकाश कम होता है. बड़े बुजुर्गों के हस्तक्षेप से ऐसी अमानवीय दुर्घटनाएँ बचा ली जाती हैं.

कुछ समय पहले तक ऐसी क्रूर घटनाएँ शहरीकरण का परिणाम मानी जाती थीं. शहरी ज़िन्दगी की अजनबीयत, एकाकीपन और मूल्यहीनता को ही इस अराजक मनोदशा का मूल कारण माना जाता था. शहरों की भाग-दौड़, जीवन को जीने और समझने का अवसर कम ही देती है. गांवों से पलायन कर लोग शहर की जीवन-शैली के लिए लालायित हैं. शहर अन्धी दौड़ों के मैदान बनते जा रहे हैं. महंगी शिक्षा, खर्चीली जीवन-शैली, घरों का हुलिया बिगाड़ देती है. बच्चे अकेलेपन और अनैतिकता के जंगल में छूट जाते हैं. ये बच्चे अपनी मौलिक सेस्कृति, अपने भूगोल और संस्कार से अलग एक कृत्रिम देशकाल में बड़े होते जाते हैं. अब किसी को आश्चर्य नहीं होता कि 15-16 वर्ष के किशोर अवसाद से ग्रस्त हो जाते है और उन्हें इलाज़ के लिए मनोचिकित्सकों के पास ले जाना पड़ता है. यौवन की देहरी पर कदम रखने वाले युवा, प्रेम-जनित अवसाद में में हत्या जैसे अपराधों में लिप्त हो जाते हैं. कुछ महीने पहले इन्दौर में इंजीनियरिंग की पढ़ायी कर रहे एक छात्र ने अपनी सहपाठी छात्रा को कार से रौंदकर मार डाला था.

ऐसी नृशंस घटनाएँ बताती हैं कि हमारे जीवन से सहिष्णुता जा रही है. हमारी मौजूदा सामाजिक संरचना हमें अतिवाद की ओर धकेलती है. कभी यह दमन की अति होती है, तो कभी उन्मुक्तता की, और अति सर्वत्र वर्जयेत ! स्थिर और स्थायी के लिए कोई ज़गह, इच्छा और हौसला दिखता ही नहीं. हमें एक क्षण में सब कुछ चाहिए. एक क्षण में ही हम आदि-अनन्त की दूरी तय करना चाहते हैं. एक क्षण का प्रेम--एक क्षण में अलगाव. एक क्षण का आरोह--एक क्षण का अवरोह.....इसके बीच रहना -सहना और कहना-सुनना.......ज़िन्दगी वहीं खत्म हो जाती है, जहाँ उसके खत्म होने की सबसे कम उम्मीद होती है. उम्मीद के लिए एक ज़िन्दगी की ज़रूरत होती है, और उम्मीद की एक ज़िन्दगी होती है.ज़िन्दगी की अपनी भी उम्मीद होती है. इन सबके बीच एक क्रिया चलती है अनवरत....अभीष्ट है एक ताप...हवा के उचित दबाव की भी खोज चल रही है...ज़िन्दगी साम्यावस्था में आना चाहती है.

Friday 9 September 2011

ज़िन्दगी सस्ती है यहाँ..!


 दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने विस्फोट हुआ.अनेक मारे गए और घायल हुए. जांच एजेन्सियाँ जुट गई हैं पता लगाने में कि विस्फोट के पीछे किस संगठन का हाथ है. देर-सबेर पता लग भी जायेगा. हमारी एजेन्सियाँ नाकाम भी हो जायेंगी तो कुछ दिन में कोई न कोई आतंकवादी संगठन विस्फोट की ज़िम्मेदारी ले लेगा. हमारे हुक्मरान विस्फोट की निन्दा करेंगे और आतंकवादियों से कड़ाई से निपटने का झुनझुना हमें पकड़ा देंगे.
   
 दिल्ली हाईकोर्ट का परिसर अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में है, जहाँ उच्च सुरक्षा व्यवस्था के मापदण्ड अपनाये जाते हैं. उच्च सुरक्षा वाली तो हमारी संसद भी थी. जब संसद पर आतंकवादियों ने हमला किया, तभी से यह समझ में आ गया था कि अब देश में कोई ज़गह सुरक्षित नहीं है. संसद पर हमले के प्रतीकात्मक अर्थ थे. वह हमला हमारी सदियों की विकास प्रक्रिया, हमारे आत्मसम्मान, एक राष्ट्र के रूप में हमारे पुरुषार्थ और हमारे शासनतंत्र के सुरक्षाबोध पर हमला था.उस हमले के प्रतीकार्थ देश की जनता ने तो समझ लिये, लेकिन हमारे शासक इसे समझ नहीं पाये. अमेरिका में 9
/11 के आतंकवादी हमले के बाद अब तक कोई हमला आतंकवादी नहीं कर पाये. जबकि अमेरिका को इस्लामिक कट्टरपंथी अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं. ब्रिटेन में भी सुरक्षा के चौकस इंतज़ाम के बाद आतंकवादी कोई हमला नहीं कर पाये.
     
लेकिन हमारे यहां आतंकवादी जब और जहां चाहते हैं वहीं धमाके करके ज़िन्दगियां खत्म कर देते हैं. हमारा सुरक्षा तंत्र हर बार आग लगने के बाद कुआं खोदने निकल पड़ता है. कुछ ही दिनों पहले मुम्बई में सीरियल विस्फोट में अनेक लोगों की जानें गईं थीं. दरअसल अब हमें याद भी नहीं रहता कि हमारे देश में कहां-कब हमले हुए और कितनी जानें गयीं. जो मारे गए,वो तो गये ही, जो बचे हैं उनमें न तो कोई दहशत दिखती है,और न कोई आक्रोश. एक या दो दिन के लिए अखबारों और चैनलों को सामग्री मिल जाती है.खुफिया और सुरक्षा-तंत्र की सूची में एक और काम जुड़ जाता है. कुछ नेताओं को सहानभूति जताने का मौका मिल जाता है,तो विपक्षी दल कों, सरकार से इस्तीफा मागकर अपनी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी पूरी करने का एक और सुअवसर होता है यह. इसके बाद देश फिर जुट जाता है अपनी रोजी-रोटी में, अगले हमले की प्रतीक्षा में.
    
  अगर कुछ दिनों तक आतंकवादियों ने नहीं मारा तो इस बीच दो-चार रेलदुर्घटनाएँ हो जायेंगी और हज़ारों ज़िन्दगियां खत्म. इस देश में बहुत सस्ती है ज़िन्दगी. यहां मरने के इतने विविध और नायाब तरीके हैं, कि बढ़ती हुई जनसंख्या हमारे लिए चिन्ता का कारण नहीं बनती. हम अगर दहशतगर्दों और प्रकृति के हाथ से बच भी गए, तो हमारी ही भूख हमें मार डालती है. विकास के घोड़े पर सवार इसी देश में हज़ारों जानें भूख से चली जाती हैं.
      
इसी उच्च न्यायालय के गेट पर तीन महीने पहले भी आतंकियों ने विस्फोट किया था. दैवयोग से तब कोई जान नहीं गई थी. यद्यपि यह ज़गह देश के सबसे मज़बूत सुरक्षा वाले शहर दिल्ली के वीवीआईपी क्षेत्र में शुमार है, लेकिन हमारी सुरक्षा एजेन्सियों ने इस हमले से कोई सबक नहीं सीखा.आतंकवादियों ने तीन महीने में ही दोबारा हमला करके बता दिया कि यह उनके लिए कितना साधारण काम है, और हमारे देश का सुरक्षातंत्र कितना सजग और कारगर है. खबरों के मुताबिक दिल्ली हाईकोर्ट के गेटों पर लगे मेटल डिटेक्टर काम नहीं कर रहे थे और परिसर में कहीं भी क्लोज़ सर्किट कैमरे नहीं लगे थे. यह उस इलाके की सुरक्षा व्यवस्था का आलम है जहां से बस दो किलोमीटर की दूरी पर देश की संसद है और बिल्कुल ही नज़दीक सुप्रीम कोर्ट.
     
हर हमले के बाद ये सवाल उठाये जाते हैं कि आखिर चूक कहां हुई, और किसने की चूक ? इस सवाल का कभी भी जवाब नहीं मिला..क्या कभी आपने सुना कि किसी हमले के बाद चूक करने वालों को कोई सज़ा मिली हो ! सज़ा तो दूर की बात है, कभी किसी को ज़िम्मेदार तक नहीं ठहराया गया. हमारे यहां आतंकवादी घटनाओं को प्राकृतिक आपदा मान लिया जाता है. जबकि साफ दिखता है कि ये घटनाएँ हमारे तंत्र के नाकारेपन, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और सामाजिक विषमता का परिणाम है. पाकिस्तान को छोड़ दें, तो दुनिया के दूसरे सभ्य देशों में जहां इस तरह की घटनाएं हुई हैं, उन्होने अपनी ग़लतियाँ सुधारीं और इस तरह के अमानवीय हमलों से अपने देश की जनता को महफूज़ किया. लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर हम अपने नागरिकों को ऐसा आश्वासन नहीं दे पाये.
     
आतंकवाद एक वैश्विक चुनौती है लेकिन अफसोस की बात है कि इस पर एक वैश्विक ढकोसले के सिवाय और कुछ नहीं हो रहा है. पाकिस्तान घोषित तौर पर आतंकवाद की सबसे बड़ी मंडी है, और अमेरिका घोषित तौर पर आतंकवाद के खिलाफ लड़ने वाला सबसे मुखर योद्धा. लेकिन अमेरिका-पाकिस्तान के प्रणय-सम्बन्ध अक्सर दुनिया को संशय और भ्रम की स्थिति में डाल देते हैं. पाकिस्तान में आतंकवादी प्रशिक्षित होते हैं. वहां उन्हे धार्मिक कट्टरपंथियों का खुला समर्थन मिलता है. 26/11 के मुम्बई हमलों के गुनहगार वहां खुलेआम घूमते हैं और जलसे करते हैं. सैकड़ों संगठन हैं जो आतंकवादियों का निर्यात पूरी दुनिया को करते हैं. अमेरिका यह सब जानता है. अमेरिका आतंकवाद से लड़ने के लिए पाकिस्तान को पैसा और हथियार देता है. पाकिस्तान की आम जनता खुद आतंकवाद की सबसे बड़ी शिकार है. पिछले दस सालों में वहां एक लाख से ज़यादा लोग आतंकवादी घटनाओं में मारे जा चुके हैं.
      
अमेरिका यह भी जानता है कि उसके दिए गये पैसों से पाकिस्तान के हुक्मरान अपनी तिजोरियां भरते हैं. पाकिस्तान का औद्योगिक और आर्थिक विकास ठप्प पड़ा है. वहां की अधिकांश आबादी आज भी क़बाब,सुरमा और दरी-चादर बनाकर अपना पेट पालती है. अमेरिका यह भी जानता है कि उसके दिए गये पैसों और हथियारों का प्रयोग पाकिस्तान कभी-कभी उसी के खिलाफ़ कर लेता है. फिर भी वह पाकिस्तान को अपने सीने से लगाये हुए है. रणनीतिकार समझते हैं कि पाकिस्तान को अपने साथ रखकर अमेरिका अपने बड़े हित साधता है. पाकिस्तान को साथ रखने के जो नुकसान अमेरिका उठाता है, फायदे उससे कहीं ज़्यादा हैं.
       
यही वज़ह है कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ अमेरिका की लड़ाई हमेशा संदिग्ध रही है.इस बात को हमारे देश के शासक समझते तो ज़रूर होंगे. पिर भी देखा यह जा रहा है कि अपने ही देश और नागरिकों की सुरक्षा के लिए अमेरिका से उम्मीद लगाये बैठे हैं कि वह पाकिस्तान पर दबाव बनाए. हर बार हमलों के बाद कुछ आतंकियों की सूची अमेरिका और पाकिस्तान के पास भेज दी जाती है. यही हमारी कूटनीति की अंतिम सीमा होती है. भारत को सबसे पहले तो यह तय करना होगा कि आतंकवाद के ख़िलाफ़ पूरी लड़ाई उसे अपने बूते पर लड़नी होगी. जिन सामरिक परिस्थितियों में भारत फंसा है, उनमें कोई दूसरा देश उसकी मदद नहीं करेगा. चीन-अमेरिका के आपसी रिश्ते चाहे जैसे भी हों, लकिन भारत के मसले पर दोनो ही पाकिस्तान के साथ खड़े दिखते हैं. भारत को रूस और इज़राइल जैसे देशों के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों को और मजबूत करना चाहिये. ये दोनो ही देश लंबे समय से इस्लामिक आतंकवाद से लड़ते आ रहे हैं. इज़राइल ने अपने दम पर अपनी सुरक्षा को लगभग अभेद्य बना लिया है. रूस ने भी अपने यहां एक हद तक नियंत्रण पा लिया है. एक दशक पहले और आज के रूस में आप फर्क देक सकते हैं.
     
फिलहाल बड़ा सवाल यह है कि हमारे देश में ऐसा जागरण कब होगा ? देश के नागरिकों के आत्मबल और इच्छाशक्ति का सीधा और गहरा सम्बन्ध राष्ट्र के राजनीतिक नेतृत्व की क्षमताओं से होता है. हम आतंकवाद से लड़ने में कमज़ोर साबित हो रहे हैं. खबरें ऐसी हैं कि दिल्ली हाईकोर्ट का यह हमला अफज़ल को फांसी दिये जाने के निर्णय के बदले में किया गया है.यह निर्णय बहुत देर से आया. मुम्बई हमलों का हमलावर कसाब अभी भी जेल में है. आतंकवाद के मसलों पर हमें एक त्वरित न्यायिक प्रक्रिया की भी दरकार है. जब इतने दिनों तक मुकदमें चलते हैं तो अपराधियों के प्रति जनभावनाओं में बदलाव भी आता है. अफज़ल की फांसी के विरोध के स्वर अपने ही देश से भी उठने लगे हैं
       
हमारे विकास और महाशक्ति बनने के सारे दावे बेमानी हो जायेंगे अगर हम अपने देश के नागरिकों को एक सुरक्षित जीवन नहीं दे सकते. किसी भी राष्ट्र के हुक्मरानों का यह पहला धर्म होना चाहिए.निर्दोष ज़िन्दगियों का यह सामूहिक कत्ल, हमारे पौरुष पर सबसे बड़ा कलंक है.

Wednesday 7 September 2011

शाम,छत और लड़कियाँ



शाम को छत पर टहलती लड़कियाँ
किसी और समय की लड़कियों से 
होती है अलग.

टहलते-टहलते
ज़रा सी एड़ी उठा
होकर थोड़ा बेचैन
देखतीं बार बार--
कि आ रहा होगा 
तीन दुर्गम पहाड़ियों को करता पराजित
उनका राजकुमार
लेकर दुर्लभ फल.

सूरज उतर रहा होता है उस वक़्त
भीतर उनके
चाँद निकल रहा होता है
स्वप्नलोक के किसी दूत सा
उनके अपने आकाश में.

जुमलों से पीछा छुड़ा
वे निकल भागती हैं वेदों से
और छुप जाती हैं
मोनालिसा की मुस्कान में.

न जाने कहाँ कहाँ से निकल
आ जाती हैं वे छत पर.

सड़क से गुज़रते हुए
छत की ओर देखने पर
आकाश के करीब दिखती हैं
शाम को छत पर टहलती लड़कियाँ.

Saturday 3 September 2011

गिरते हैं शहसवार ही..!

अन्ना के आन्दोलन से किसी और को चाहे फायदा न हुआ हो, भारतीय क्रिकेट टीम और कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी को बहुत फायदा हुआ. जिन दिनों देश का सारा मीडिया और जनता धरना-प्रदर्शन में व्यस्त था, उन्हीं दिनों हमारी टीम परदेस में चुपचाप पराजित हो गयी. भारत के टेस्ट-क्रिकेट इतिहास की सबसे करारी शिकस्त. कोई और दिन होते तो हमारा मीडिया चौबीस घंटे, एक-एक खिलाड़ी की बखिया बड़े करीने से उखाड़ रहा होता. अब तक कई खिलाड़ी देश-द्रोही करार दिए जा चुके होते. हमारे खिलाड़ियों की कुण्डलियाँ टीवी और अखबार पर ज्योतिषी बाँच रहे होते,और राहु-केतु-शनि से निपटने के नुस्खे बताए जा रहे होते. अब तक यह तो सिद्ध ही किया जा चुका होता कि अमुक खिलाड़ी, फलां हिरोइन या माडल के चक्कर में खेल पर ध्यान नहीं लगा पा रहा है, तो कुछ खिलाड़ियों के बुरे प्रदर्शन के पीछे पड़ोसी देश की साजिश की तरफ भी इशारे किए जा रहे होते. हमारे भावुक क्रिकेट प्रेमियों ने अब तक धोनी, तेन्दुलकर,सहवाग,ज़हीर आदि के घर पर तोड़-फोड़ और पथराव कर दिया होता.

हम भारत के लोग क्रिकेट को ऐसे ही देखते हैं. हम मूर्ख होने की हद तक भावुक हो जाते हैं. लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि इस बार मीडिया की भेड़ें एक सीध में दूसरी तरफ जा रही थीं. इस बार का ठंडापन देख कर डर भी लगा कि कहीं इस खूबसूरत खेल से हमें विरक्ति तो नहीं हो रही है ! क्या हो गया इस देश की उन्मादी जनता के संवेदी तन्तुओं को ? जिस देश में किसी मैच को देखने की तैयारी महीने भर पहले से शुरू हो जाती थी, जहाँ मैच के समय सारा सरकारी काम-काज और व्यवसाय ठप्प हो जाता हो, जिस देश में क्रिकेटरों की मूर्तियाँ बनाकर पूजी जाती हों और जहाँ रामलीला-नौटंकी में भी सचिन-धोनी-सहवाग के किरदार बना दिए जाते हों—उसी देश की टीम परदेस में जाकर ऐसे दिलशिकन अंदाज़ में हार रही हो और किसी के मुंह से आह तक न निकले !

 यह गंभीर चिंता की बात है. देश के करोड़ों क्रिकेट के दीवानों के लिए भी और BCCI के लिए भी. भले ही भारतीय क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे मालदार बोर्ड हो, भले ही उसमें सरकार की कैबिनेट को भी बेअसर कर देने की कुव्वत हो, लेकिन उसे यह नहींभूलना चाहिए कि उसकी इस बादशाहत के पीछे इन करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों की दीवानगी ही है. प्रेम का अतिरेक, मोहभंग की गली में ही समाप्त होता है. BCCI का चरित्र और कार्यप्रणाली धीरे-धीरे तानाशाही का होता जा रहा है. उसकी यह इच्छा अब साफ दिखने लगी है कि वह सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी को हलाल करके सारे अण्डे एक साथ निकाल लेना चाहता है. इसे आप भले ही मूर्खता कहें लेकिन BCCI की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता.

 असर पड़ता है तो हमारे खिलाड़ियों की सेहत पर और उनके प्रदर्शन पर. अभी कुछ दिनों पहले ही विश्वकप जीतने के बाद,जब ढाई महीने का IPL चल रहा था, तभी लगने लगा था कि कुछ अनिष्ट होने वाला है. 45-46 डिग्री ताममान पर जब हमारे खिलाड़ी जूझ रहे थे, घायल हो रहे थे, तभी यह अनुमान लगाया जाना चाहिए था कि आगे हमारी क्रिकेट का क्या हश्र होने वाला है...IPL के बाद कुछ नौजवान खिलाड़ियों को लेकर हम वेस्टइंडीज गये. वहां हमने अपने से भी कमज़ोर और कुव्यवस्थित टीम के साथ बराबरी की श्रृंखला खेली. इंग्लैण्ड जाने वाली टीम में हमारे दिग्गज लौट तो आए पर आधे से अधिक घायल थे जिनका इलाज चल रहा था.

घायलों को टीम में चुनना केवल खिलाड़ियों की बदमाशी भर नहीं होती, इसमें क्रिकेट बोर्डों के व्यावसायिक और राजनीतिक हित भी साधे जाते हैं. फुटबाल, हाकी,एथलेटिक्स से इतर, क्रिकेट के खेल में इतनी गुंजाइश भी होती है कि एक-दो कम फिट खिलाड़ी भी चल जाते हैं. लेकिन इतना अवकाश तो यह खेल भी नहीं देता कि आपके आधे से अधिक प्रमुख खिलाड़ी पूरी तरह से फिट न हों. सहवाग,ज़हीर,गंभीर, हरभजन,प्रवीण कुमार,युवराज सिंह पूरी तरह स्वस्थ्य नहीं थे, फिर भी टीम में थे. ये टीम के आधार खिलाड़ी हैं. सहवाग तो घोषित तौर पर कंधे की चोट से जूझ रहे थे. उनका चयन तीसरे टेस्ट से किया गया था. ऐसा पहली बार देखने में आया कि किसी खिलाड़ी को स्वस्थ हो जाने की प्रत्याशा में टीम में चुन लिया गया हो. 

घायल खिलाड़ियों की इस सेना की एक दिक्कत यह भीथी कि पिछले तीन-चार सालों में इस टीम ने जिन ज़गहों पर क्रिकेट खेली उनका मिजाज़ इंग्लैण्ड के इन स्थानों से बिल्कुल अलग था. इंग्लैण्ड में इस समय कड़ाके की ठंड होती है और हवा में इतनी नमी होती है कि गेंद अकल्पनीय ढंग से स्विंग करती है. वहाँ की पिचों का उछाल, किसी भी दूसरे देश की पिचों से ज़्यादा होता है. इंग्लिश टीम के खिलाड़ी इन पिचों के अभ्यस्त हैं. साथ ही उनके घरेलू क्रिकेट का स्तर और फार्मेट भी शानदार है. उनके क्रिकेट प्रशासक अपने यहाँ होने वाली क्रिकेट श्रृखलाओं के कार्यक्रम बनाते समय बहुत सजग रहते हैं. वो यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय श्रृंखला खेलने से पहले घरेलू मैचों और पिचों पर पर्याप्त अभ्यास कर लें. यही वज़ह थी कि इंग्लैण्ड ने IPL में अपने प्रमुख खिलाड़ियों को खेलने के लिए नहीं भेजा. वो पिछले दो साल से इस श्रृंखला की तैयारी कर रहे थे.

 वो मैचों का क्रम निर्धारित करते समय भी यह ध्यान रखते हैं कि पहले ही मैच में प्रतिद्वन्द्वी को हराने के लिए कौन सा मैदान सबसे उपयुक्त रहेगा. इसके लिए वो अपने और विपक्षी टीम के रिकार्ड का बारीकी से अध्ययन करते हैं.पहले मैच में ही विपक्षी को चित कर देने के बाद आगे का काम आसान हो जाता है.यही वज़ह है कि उन्होने श्रृंखला का पहला मैच लार्ड्स में रखा, जहाँ दिलीप वेंगसरकर और सौरव गांगुली के अलावा किसी भी भारतीय खिलाड़ी का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा है. दुर्योग से ये दोनो ही खिलाड़ी हमारी टीम में नहीं हो सकते थे. हम अपना पहला मैच हारे और हारते चले गये. क्रिकेट में जिस ‘माइण्ड गेम’ की बहुत अहमियत होती है, वह उनका मीडिया खेलता है. महीनों पहले से वहां के मीडिया ने भारतीय टीम पर दबाव बनाना शुरू कर दिया था. वहां का मीडिया श्रृंखला के बीच में ही सम्मान या उपाधि के बहाने आयोजन भी करता है, जिनमें अप्रत्यक्ष रूप से खिलाड़ियों पर दबाव बनाने के हथकंडे आजमाये जाते हैं.

 बहरहाल, इंग्लैण्ड में हम टेस्ट श्रृंखला अप्रत्याशित रूप से हार चुके हैं,और आगे एक दिवसीय श्रृंखला है. हमारी टीम की मौजूदा मनोदशा को देखते हुए, ज़यादा आशावादी होना हमें घनघोर निराशा दे सकता है. फिर भी इस प्यारे खेल के लिए हमें अपनी दीवानगी बनाए रखनी होगी. हमें सचिन के स्ट्रेट ड्राइव, सहवाग के स्क्वेयर कट और द्रविड़ के आन ड्राइव से बजता हुआ संगीत कहीं और मिलता भी तो नहीं !!