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Thursday 27 December 2012

….जो ग़ालिब को न जाने !!

ग़ालिब पितरों की तरह याद आते हैं. मुमकिन होता तो बताया जाता कि दिल्ली निजामुद्दीन इलाके में सुल्तान जी, चौंसठ खम्भा के कब्रिस्तान के एक कोने में जो मज़ार आप देख रहे हैं न ! वो हमारे मरहूम असदुल्लाह खाँ की है. जिन्हें सारा ज़माना ग़ालिब के नाम से जानता है. पर भाई, हमारे खानदान में तो उन्हें लोग मिर्ज़ा नौशः ही कहते हैं तो बस कहते हैं. बड़ा नाम रौशन किया असद ने अपने खानदान का. वरना उनकी पैदाइश (27, दिसंबर 1797) के पचास साल पहले जब उनके तुर्क दादा समरकन्द से हिन्दुस्तान आये थे तो भला कौन जानता था इस खानदान को. और जनाब उस तुर्की क़द-काठी के क्या कहने! लम्बा कद,इकहरा जिस्म, किताबी चेहरा, चौड़ी पेशानी, घनी लम्बी पलकें, बादामी आँखें और सुर्ख-ओ-सुपैद रंग...हाय ! जिसने भी उन्हें देखा, कमबख्त ग़ालिब का ही हो गया.
         
दोस्तों, ग़ालिब को हम तब से जानते हैं, जब से दर्द को जानते है. यह वह उमर थी, और उमर का तक़ाज़ा था, जब ग़ालिब के शेर बस ज़रा ज़रा ही समझ में आते थे. तब यह भी कहाँ समझ आता था कि यह जो बेख़ुदी सी छा जाती है अक्सर, उसके परदे में कोई दर्द छुपा बैठा है....तो दिल और मिज़ाज की जब ऐसी कैफ़ियत हो जाती थी, तो हम ग़ालिब की आधी-अधूरी ग़ज़लों और शेरों का मरहम लगाते थे....और अमूमन नतीज़ा ये होता था कि तड़प कम होने की ज़गह और बढ़ जाती थी. तब हम दर्द को इस हद तक गुज़ारा करते थे कि वो दवा हो जाये.
          
यही इस बेमिसाल शायर की खूबी थी. ये तो हर अच्छा अदीब करता है कि वह अपने युग की पीड़ा और व्याकुलता को व्यक्त करता है. लेकिन ग़ालिब तब तक ऐसे शायर हुए जिन्होंने नयी व्याकुलताएँ पैदा कीं. ग़ालिब ने अपने समय के सारे बन्धन तोड़ दिए. अपने अनुभवों को उन्होने अपने समय से आगे का मनोविज्ञान दिया. ज़िन्दगी के जितने मुमकिन रंग-ढंग हो सकते हैं, सबके सब ग़ालिब के विशिष्ट मनोविज्ञान में तप कर उनकी शायरी में उतर आये. खुशी का अतिरेक हो या घनघोर निराशा, शक-ओ-सुबहा या कल्पना की उड़ान हो, चुम्बन-आलिंगन की मादकता हो या दर्शन की गूढ़ समस्याएँ---हर ज़गह आप ग़ालिब की शायरी को अपने साथ पायेंगे.
           
ग़ालिब को ज़िन्दगी में जो ठोकरें मिलीं वही उनकी असल उस्ताद रहीं. ऐसा ज़िक्र ज़रूर कहीं कहीं मिलता है कि शुरुआती दौर में एक ईरानी उस्ताद, अब्दुस्समद से ग़ालिब ने शायरी के तौर-तरीके सीखे, लेकिन उनके असल उस्ताद उनके अपने तज़ुरबे ही रहे. पाँच वर्ष की उम्र में ही बाप का साया सिर से उठ गया. बाप-दादों की जागीर चली गई. जो कुछ जमां पूँजी घर में थी वो दोस्तों, जुए और शराब की भेंट चढ़ गयी. रोज़ी-रोटी के सिलसिले में ज़्यादातर वक्त इधर से उधर भटकना पड़ा. शायरी का शौक बचपन से ही था. तीस-बत्तीस की उमर तक आते आते उनकी शायरी ने दिल्ली से कलकत्ते तक हलचल मचा दी थी. ग़ालिब की शिक्षा-दीक्षा के बारे में ज़्यादा पता नहीं मिलता, लेकिन उनकी शायरी से यह अन्दाज़ा ज़रूर मिलता है कि वो अपने समय में प्रचलित इल्म के अच्छे जानकार थे. फ़ारसी भाषा पर उनका ज़बरदस्त अधिकार था.
          
ग़ालिब से पहले मीर कह गए थे---- गो मेरे शेर हैं ख़वास पसन्द, पर मेरी गुफ़्तगू अवाम से है “---बादशाहों, ज़मींदारों, नवाबों से लेकर पण्डितो, मौलवियों और अंग्रेज अधिकारियों तक से ग़ालिब की दोस्ती थी. अंतिम मुग़ल शासक बहादुरशाह ज़फर उनकी बड़ी कद्र करते थे. लेकिन ग़ालिब ने अपने स्वाभिमान को कभी किसी के सामने झुकने नहीं दिया. विद्रोह उनके स्वभाव में था. कभी नमाज़ नहीं पढ़ी, रोज़ा नहीं रखा और शराब कभी छोड़ी नहीं. गालिब से पहले किसी शायर ने खुदा और माशूक़ का मज़ाक नहीं उड़ाया था. खुद अपना मज़ाक शायरी में उड़ाने की रवायत भी ग़ालिब की ही देन है.
         
अपना मज़ाक उड़ाने का हुनर ही ग़ालिब के ग़मों को भी बड़ा दिलकश बना देता है. ग़ालिब के यहाँ दर्द में जो भरपूर आनन्द है, वह किसी भी दूसरे शायर की शायरी में नहीं मिलता....दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यूँ. रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यूँ. “ .  वो ज़िन्दगी से लड़ते हैं. जितना लड़ते हैं उतना ही आनन्दित होते हैं.जितनी कड़वाहटें मिलती हैं, उतना ही आनन्द का नशा बढ़ता है. जैसे शराब की कड़वाहट से गुज़रकर ही उसके आनन्द तक पहुँचा जा सकता है....ग़ालिब रस और आनन्द की प्राप्ति के लिए किसी भी हद को नहीं मानते. वह सौन्दर्य को इस तरह आत्मसात कर लेना चाहते हैं कि अपने और प्रेमिका के बीच निगाहें भी उन्हें बाधा पहुँचाती हुई सी लगती हैं. उन्हें माशूक़ की ऐसी नज़ाकत से भी चिढ़ होने लगती कि पास होने पर भी जिसे हाथ लगाते न बने.
          
पीड़ा में आनन्द लेने की फ़ितरत ने ग़ालिब को तलाश, इन्तज़ार और कल्पना का एक अद्भुत शायर बना दिया. वह एक क्षण के लिए भी तृप्त नहीं होना चाहते. वो अपने भीतर तलब और प्यास को उसकी पूरी तीव्रता में बनाये रखना चाहते हैं. ग़ालिब मंज़िल के नहीं रास्ते के शायर हैं. इसी तलाश, इन्तज़ार और रास्ते में ही उनका स्वाभिमान भी सुरक्षित है. वो न तो ख़ुदा के सामने कभी नतमस्तक होते और न ही माशूक़ के सामने. उनका आदर्श प्यास को बुझाना नहीं, प्यास को बढ़ाना है---रश्क बर तश्नः-ए-तनहा रब-ए-वादी दारम् . न बर आसूदः दिलान-ए-हरम-ओ-ज़मज़म-ए-शाँ. ....ग़ालिब को ईर्ष्या, राह में भटकने वाले प्यासे से होती है. ज़मज़म पर पहुंच कर तृप्त हो जाने वालों से नहीं.
          
ग़ालिब का यह जीवन-दर्शन उनके प्रेम के दृष्टिकोण को बिल्कुल अछूते अन्दाज़ में पेश करता है. असीम आकर्षण, समर्पण के बावजूद ग़ालिब का इश्क़ स्वाभिमानी है. वो कहते भी हैं---इज्ज़-ओ-नियाज़ से तो वो आया न राह पर, दामन को उसके आज हरीफ़ाना खैंचिए.......यह संकेत केवल माशूक़ को अपनी ओर हरीफ़ाना(दुश्मन की तरह) खींचने का नहीं है, बल्कि जीवन की हर काम्य वस्तु को इसी अन्दाज़ में पाने की धृष्टता है. ग़ालिब भी खुद को ज़गह-ज़गह गुस्ताख़ कहते हैं. ग़ालिब की इस गुस्ताख़ अदा ने उर्दू शायरी को नया मिज़ाज दिया.
         
ग़ालिब की सबसे सहज और प्रभावशाली ग़ज़लें वो हैं जिनमें निराशा के स्वर हैं.लेकिन ग़ालिब का महान व्यक्तित्व और निराला मनोविज्ञान निराशा को बुद्धि और ज्ञान के स्तर पर ले जाता है, जहाँ निराशा व्यंग्य में बदल जाती है---- क्या वो नमरूद की खुदाई थी, बन्दगी में मिरा भला न हुआ “. व्यंग्य को ग़ालिब ने एक ढाल की तरह अपनाया था ज़माने के तीरों से बचने के लिए. वो अत्यन्त कठिन समय में भी दिल खोल कर हँसना जानते थे. उनका अदम्य आत्मविश्वास ही उनसे कहलवाता है---बाजीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे.....दुनिया को बच्चों के खेल का मैदान समझने की हिमाकत में ग़ालिब का आत्मविश्वास भी है और आत्मसम्मान भी.
         
ग़ालिब की शायरी में कई ऐसी बातें हैं जो उनकी प्रसंगिकता को वैश्विक बनाती हैं. जीवन के रहस्यों की खोज़ में वो शम्मा को शाम से सहर तक जलते हुए देखते थे. इस खोज में वो शायरों के लिए वर्जित इलाके मसाइल-ए-तसव्वुफ़ तक जाते हैं. उनके भाव-बोध में तर्क की निर्णायक ज़गह है.बिना तर्क और सवाल के ग़ालिब किसी भी स्थिति को ज़िन्दगी में ज़गह नहीं देते, ये बात और है कि ज़िन्दगी के हर रंग के लिए अपने तर्क है. वह वर्तमान की शिला पर बैठ कर भूत और भविष्य पर बराबर निगाह रखते है. एक तरफ अकबरकालीन वैभव के निरंतर ढहते जाने का दुख भी है उन्हें, तो नए विज्ञान की आमद की तस्दीक भी करते हैं ग़ालिब.
          

इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी-उर्दू और हिन्दीवाले-उर्दूवाले जो इतने क़रीब आये, तो उसमें ग़ालिब की शायरी का बड़ा हाथ है. उत्तर भारत की ऐसी कोई ज़ुबान नहीं होगी जिस पर ग़ालिब के शेर न हों. ऐसा कोई इन्सानी दर्द नहीं होगा जिसकी शक्ल ग़ालिब की शायरी में न उतर आयी हो.

Thursday 20 December 2012

खोये हुए व्यक्तियों के बारे में

इनके बारे में
जो जानकारियाँ होती हैं
वो विश्वसनीय नहीं होतीं उतनी ।

जिन ज़गहों पर दर्ज होती है इनकी गुमशुदगी
वहाँ कई बातें छुपा ली जाती हैं सचेत होकर ।

कि जब उनके कपड़ों का
रंग दर्ज़ कराया जाता है
नीली कमीज और खाकी पैन्ट
उस वक्त ये नहीं बताया जाता
कि पिछली होली से ही
वह अचानक रंगों से डरने लगा था.
या कि एक वो
जिसके जीवन से लाल के अलावा
सभी रंग ख़ारिज़ हो चुके थे ।

रोज़नामचे में
यह कहीं नहीं लिखा जाता
कि गुम होने के वर्षों पहले से
वो जो भूमिगत था अपने ही भीतर
आखिर वह किस युद्ध की तैयारी कर रहा था ।
या यह कि जीवन की किस लड़ाई का
वह पराजित योद्धा था ।

क्या कभी कोई यह लिखवाता है
कि एक थाली कम परोसते हुए
माँ के हाथ
क्यों पहुँच जाते हैं आँख की कोर तक !
कि उनकी पत्नियां
माँग में भरते हुए सूनापन
ईश्वर से प्रार्थना करती हैं या शिकायत,
यह भी प्रामाणिक रूप से
नहीं बताया जा सकता ।

यूँ तो गुम होने की कोई उम्र नहीं होती
लेकिन कई बार उम्र भर
उनके लौटने का रास्ता देखते हैं लोग ।
किसी भी गुमशुदगी का
यही वह पहलू होता है
जहाँ सबसे अधिक चुप्पी  होती होती है.
यह कभी नहीं पता चल पाता
कि किन किन रुलाइयों में
एक रुलाई
किसी के खो जाने के लिए भी है ।
कि रोने के लिए
नहाने का वक्त चुनने वाले का
क्या रिश्ता तय किया था वक्त ने
उस गुमशुदा से ।

जिन भी अनजानी ज़गहों पर
हवा में घुलती होगी इनके सीने की भाप
और धूल से मिलता होगा
इन गुमशुदा लोगों का पसीना
वहाँ किस प्रजाति के पौधे उगते होंगे !

यद्यपि किसी इतिहास में
दर्ज़ नहीं होती खो जाने वालों की सूचना
लेकिन इनकी जय-पराजयों पर ही
टिके होते हैं
चक्रवर्ती सम्राटों के अभेद्य दुर्ग ।

Tuesday 18 December 2012

नकली नायकों का देश-काल !




चुनौतियाँ जितनी बडी होती हैं, उन्हें परास्त करने के बाद का सुख उतना ही बड़ा होता है.
हवायें जितनी तेज़ हों, उनके ख़िलाफ चलने का रोमांच उतना ही अद्भुत होता है.  नदी की धार के विपरीत तैरने वाले की छाती कुछ अलग ही होती है.ऐसे कौतुक करने वाले लोगों की एक विशिष्ट छवि दर्ज़ करता है ज़माना. ज़माना ऐसे ही लोगों को नायक बना देता है. जब लड़ाइयाँ बड़ी हों तो लड़ने का कारण छोटा हो जाता है. तब लड़ने वालों का शौर्य केन्द्रीय और महत्वपूर्ण हो जाता है. नायकों के गढ़े जाने का मनोविज्ञान कुछ अलग ही होता है. यह एक द्वन्द्वात्मक पद्धति होती है. एक उभयपक्षीय अभिक्रिया से नायकों का निर्माण होता है. कई बार इसमें एक तीसरा पक्ष भी शामिल हो जाता है.

एक व्यक्ति नायक कब बनता है
? जब वह कुछ ऐसे काम करता है, जो हर कोई नहीं कर सकता. साफ है कि नायकत्व के साथ अद्वितीयता का तत्व प्रधान हो जाता है. जिन छवियों में हम नायक की छवि देखते हैं, उनमें हम उन गुणों को देखते हैं जो हममें नहीं होते हैं. ये सामान्य गुण भी नहीं होते. सबके पास भी नहीं होते. सबके पास होना संभव भी नहीं होता. इसीलिए जिस व्यक्ति में ये गुण दिखते हैं, उसकी एक विशिष्ठ जगह बन जाती है हमारी चेतना में. जितना विरल गुण होता है, उसे धारण करने वाले नायक का आभामंडल उतना ही विराट होता है. और उतना ही बड़ा सम्मोहन होता है हमारे लिए.

नायकत्व का दूसरा पक्ष भी है. अक्सर हमारा हीनताबोध भी किसी को नायक बना देता है. हम जो काम करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें किसी और को करते देखना हमें प्रभावित करता है. यह प्रभाव ही उस आकर्षण की प्रवेशिका होता है. जैसे-जैसे यह आकर्षण बढ़ता जाता है, हम उस व्यक्ति में और गुण खोजने लगते हैं. और कई बार तो हम गुणों को उस व्यक्ति में आरोपित भी करने लगते हैं. इसके बाद यह स्थिति भी आती है कि उस व्यक्ति के अवगुण या सामान्य गुण भी हमें विशिष्ट गुण नज़र आने लगते हैं. यही भावदशा नायक के निर्माण की है. तुलसी ने इसी भावदशा में राम को नायक बना दिया था. राम का सामंती और स्त्रीविरोधी चरित्र तुलसी द्वारा गढ़े गए नायकत्व में नदारत हो गया. बाल्मीकि ने जो रामकथा लिखी उसमें दूसरी बात है. बाल्मीकि कई जगह राम को धिक्कारते हैं.

यह वह समय था जब संचार के माध्यम बहुत सीमित और पिछड़े हुए थे. मीडिया जैसे किसी माध्यम का अस्तित्व ही नहीं था. अतः नायक निर्माण की प्रक्रिया द्विपक्षीय ही होती थी. एक तरफ नायक का प्रभामंडल होता था और दूसरी तरफ वो भावक होते थे जिनकी प्रतिक्रियाओँ से उस नायक का प्रभामंडल पुष्ट होता था. लेकिन आधुनिक समय में एक तीसरा पक्ष भी जुड़ गया है. वह है ज़बरदस्त प्रभाव और पहुँच वाला मीडिया. मीडिया के शामिल हो जाने से नायक बनना जितना आसान हो गया है, नायकत्व उतना ही संदिग्ध हो गया है. दरअसल यह ज़माना ही बिचौलियों का है. जीवन के हर प्रदेश में बचौलिये सक्रिय हैं. अब हमारा हमसे ही परिचय बिचौलियों के माध्यम से हो रहा है. वस्तु और व्यक्तियों की छवियां परिष्कृत, परावर्तित और परिवर्तित होकर हमारे पास तक आती हैं. भावक और आराध्य के बीच मीडिया की जबरदस्त उपस्थिति है. आराध्य अपनी छवियों को गढ़ने के लिए मीडिया का उपयोग करते हैं. अब लोग तनख़्वाह देकर छवि-प्रबन्धक ऱखते हैं. दुनिया में जैसे-जैसे धन बढ़ता जा रहा है, नायकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है. इनमें ज़्यादा संख्या नकली नायकों की है.

नकली नायक अपने संसाधनों के प्रभाव से असली नायकों को विस्थापित कर देते हैं. अब तो असली नायक बन ही नहीं पाते. यह खेल जीवन में हर जगह चल रहा है. इसके सर्वाधिक उदाहरण हमें सिनेमा और राजनीति में मिलेंगे. धन और छवि की तानाशाही सबसे ज़्यादा इन्ही क्षेत्रों में दिखती है. आधुनिक समाज को, राजनीति और सिनेमा ने जितना प्रभावित किया है, उतना किसी और विचार या कला माध्यम ने नहीं. इसीलिए सर्वाधिक संख्या में इन्ही जगहों से नायक प्रकट हो रहे हैं. नायक चाहे राजनीति के हों या सिनेमा के, अब दोनों ही अपने प्रशंसकों को गुमराह करते हैं.वो लोगों को जीवन की कड़वी सच्चाइयों से दूर ही करते हैं. सिनेमा का तो खैर काम ही है नकली नायक गढ़ना.

सिनेमा अस्थाई तौर पर नायक-नायिकाओं का निर्माण करता है. लेकिन इस माध्यम का प्रभाव जनता के मानस पर इतनी ज़बरदस्त पड़ता है कि धीरे-धीरे यही अस्थाई नायक उनके नायक बन जाते हैं. अब चूँकि सिनेमा मूलरूप से एक व्यवसाय है और उसका पहला लक्ष्य है धन को गुणित अनुपात में बढ़ाना, इसलिए सिनेमाई नायकों की छवि इस तरह तैयार की जाती है जो दर्शकों को यथार्थ से स्वप्न की दुनिया में ले जा सके. हर मनुष्य के भीतर कुछ ऐसे शाश्वत स्वप्न होते हैं, जिन्हें पाने के लिए वह अपना कुछ भी लुटा सकता है. सिनेमा और उसके नायक हमारी इसी स्वप्न-प्रियता को अपने लिए धन में तब्दील कर लेते हैं. हम इस कदर उनके मोहपाश में बंधे होते हैं, कि यह जानते हुए भी इन नायकों के सारे करतब, सारे गुण एक बड़ी टीम और तकनीक के द्वारा महीनों के परिश्रम से उत्पादित किए गए हैं, उनकी इस कृत्रिम छवि पर अविश्वास नहीं कर पाते. इसकी वजह यही है कि सिनेमा द्वारा दिखाई गई कृत्रिम छवि, हमें हमारे द्वारा रची गई हमारी ही काल्पनिक छवि के नज़दीक पहुँचा देती है.

राजनीति और सिनेमा के नायकों में मौलिक अंतर भी है. यद्यपि अभिनय दोनों ही जगह है. सिनेमा घोषित रूप से कल्पना के सहारे चलता है. वह सच होने का दावा कभी नहीं करता. वह छद्म ज़रूर है, पर छल नहीं. लेकिन राजनीति के नायकत्व में छद्म भी है और छल भी. राजनीति के नायक यह दावा करते हैं कि वो जैसे दिख रहे हैं वही सच है. नाट्यशास्त्र से लेकर कामशास्त्र तक, नायकों के जितने गुण बताए गए हैं, उनमें एक प्रमुख गुण नेतृत्व की क्षमता भी है. वह ऐसा व्यक्ति होता है जिसमें समूह को रास्ता दिखाने और आगे ले जाने की क्षमता होती है.

साहित्य और कलाओं के नायक जनता का वैचारिक नेतृत्व करते हैं. वे अपने समय और समाज को कुछ अभिनव विचार भी देते हैं, साथ ही समाज की मनीषा को दिशा भी देते हैं. लेकिन विडंबना है कि अब साहित्य और कला क्षेत्रों से हमारे नायक नहीं बनते. दुनिया के किस लेखक-वादक-नर्तक-चित्रकार को वो रुतबा हासिल है जो सिनेमा के टॉम क्रूज, अमिताभ बच्चन, शाहरुख-सलमान जैसों को मिला हुआ है. यहाँ यह सच्चाई भी नज़रअंदाज कर दी जाती है कि सिनेमा के इन नायकों को रचने वाले कोई लेखक-संगीतकार-नर्तक ही होते हैं. यहीं पर यह सवाल भी विचारणीय है कि सिनेमा के नायक मनुष्य और समाज को कौन सी दिशा देते हैं और कहाँ ले जाते हैं ?  कुछ और सवाल है, पर वो बहुत छोटे हैं और उनके जवाब भी आसान हैं. मसलन, कि सिनेमाई नायकों का बौद्धिक स्तर क्या होता है ? उनकी संवेदनाएँ कितनी विश्वसनीय होती हैं ? अपने समाज के साथ उनके रिश्ते कितने असली होते हैं ? अपने देश और समाज के प्रति उनकी ज़िम्मेदारियाँ क्या होती हैं ? और वो इन ज़िम्मेदारियों को कितना निभाते हैं ??

ठीक यही सवाल हमारी राजनीति के नायकों से भी किए जा सकते हैं. सिनेमा के नायकों को एक बार हम छोड़ भी दें, लेकिन राजनीति के नायकों से ये सवाल ज़रूर किए जाने चाहिए. राजनीति के नायकों का समाज में सीधा हस्तक्षेप होता है. समाज के निर्माण और विकास के जितने भी उपादान हैं, उन सबकी नियंत्रक राजनीति ही होती है. इसीलिए राजनीति के नायकों की भूमिका और महत्व भी उतना ही बड़ा होता है. लेकिन जैसे-जैसे राजनीति, सेवा से व्यवसाय बनती गई, नायक-निर्माण की वही प्रविधि अपनायी जाने लगी, जिसका प्रयोग सिनेमा करता है. राजनीतिक व्यक्ति मीडिया और छवि-प्रबंधकों की मदद से जनता के मनोविज्ञान के अनुकूल अपनी छवि को प्रक्षेपित करता है.

इसे एक बडे सामयिक उदाहरण से समझा जा सकता है. मीडिया में आज जिस राजनेता की देश के अगले प्रधानमंत्री के रूप में सबसे अधिक चर्चा है, उनके नायकत्व का निर्माण कैसे हुआ इसे देखते हैं. पिछले पंद्रह-बीस वर्षों में भारत एक विशेष सम्प्रदाय द्वारा उत्पादित आतंकवाद से त्रस्त है. यह भी जगजाहिर है कि कौन सा देश इसे प्रायोजित करता है. वैश्विक स्तर पर भारत की राजनीतिक उपस्थित भी कुछ उल्लेखनीय नहीं है. इधर पिछले पाँच वर्षों में आर्थिक विकास की दर भी गिर रही है. राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में कोई प्रभावशाली नेतृत्व दिखाई नहीं पड़ रहा है.

इसी परिदृश्य में देश के एक ऐसे प्रदेश से, जिसकी पहचान कच्छ के मरुस्थल, महमूद गजनवी के आक्रमण और लूटपाट, सूखा, जल-संकट, विदेशी तस्करी और गरीबी से थी—वहीं से उस राजनेता का उदय होता है, जिसे आज देश के प्रधानमंत्री पद का सबसे उपयुक्त दावेदार कहा जा रहा है. इस नेता ने जब अपने प्रदेश की सत्ता संभाली तो वहाँ से उस सम्प्रदाय का सुनियोजित तरीके से सफाया कर दिया, जो सम्प्रदाय वैश्विक आतंकवाद का पर्याय बन चुका है. गरीबी से उबरकर यह प्रदेश आज देश का सबसे विकसित राज्य बन गया है. पिछले वित्तीय वर्ष में इस राज्य ने आर्थिक विकास की वह दर हासिल कर ली, जो दुनिया के सर्वाधिक विकसित देशों की है. अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ उस प्रदेश में कारोबार करने के लिए दौड़ पड़ीं. गुजरात की यह विकास-गाथा देश की बहुसंख्य जनता का स्वप्न बन गई, और नरेन्द्र मोदी उसके नायक.

मीडिया में यह विकास-गाथा इस तरह से पेश की गई कि नरेन्द्र मोदी का साम्प्रदायिक चरित्र लोगों ने भुला दिया. जो भुला नहीं पाये, उन्होंने उसे स्वीकृति देकर उसके पक्ष में तर्क गढ़ लिए. कुछ इसी तरह के नायक बाल ठाकरे भी थे, जिनका नायकत्व एक सम्प्रदाय विशेष के विरोध से बना था. अब उनके भतीजे राज ठाकरे एक क्षेत्र-विशेष का विरोध करके नायक बनने की कोशिश कर रहे हैं. मायावती दलित-अस्मिता को आधार बना कर नायिका बनी हुई हैं तो राहुल गाँधी को कलावती के सहारे नायक बनाने की कोशिश की जा रही है.

लेकिन हमारी भी मजबूरी है. इस चकाचौंध से भरी दुनिया में असली और नकली की पहचान करना बड़ा मुश्किल हो गया है. और फिर अपनी भी सीमाएं हैं. कौन राम है और कौन रावण, यह पहचान करना कठिन हो गया है. अगर रावण पहचान लिया जाये तो यह पता नहीं चलता कि कहाँ पर तीर मार कर इसे मारा जा सकता है. फिर भी हमें सचेत तो रहना ही होगा. हमें उन नायकों को खोजना होगा जो हमारे जीवन को सही दिशा में आगे ले जा सकें. जो हमारी जड़ता को खत्म करने के लिए प्रेरित कर सकें. हमें ऐसे नायक खोजने चाहिए जो कुछ तो अंधेरा कम कर सकें हमारे भीतर का. बेहतर तो यह होगा कि हमें खुद नायक बनने के बारे में सोचना चाहिए.