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Friday 24 March 2017

हिन्दी सिनेमा में होली के रंग

होली और ईद, भारत के दो ऐसे धार्मिक पर्व हैं, जिनमें धार्मिक आग्रह बहुत कम, और उल्लास एवं कुंठाओं के निरसन का भाव ज्यादा होता है। होली के साथ प्रहलाद-होलिका की कथा को अगर हम धर्म-तत्व से जोड़ कर देखें तो भी होली की पहचान इस कथा से नहीं बल्कि उसके रंगों से है। होली अनादि काल से मनुष्य की श्वेत-श्याम ज़िन्दगी में रंग भरती रही है। द्वापर के किशन कन्हैया से लेकर आज के माडर्न गोप-गोपियों तक होली रंग बिखेरती चली आई है। होली के रंगों में छुपा मनोविज्ञान, कला-माध्यमों के लिए एक अनुकूल पृष्ठभूमि देता है। इस देश का कोई भी कला-माध्यम होली के रंग और रंगीनियों से अछूता नहीं रह सका है।

सौ साल से अधिक के अपने इतिहास में हिन्दी सिनेमा ने साल-दर-साल होली के पर्व को अपनी जरूरत के हिसाब से उपयोग किया है। वर्जनाओं का अतिक्रमण होली का मूल स्वभाव है। होली के रंगों की ओट में हम अपनी लालसाओं का विरेचन करते हैं। हमारे भारतीय सिनेमा में प्रेम एक स्थायी तत्व है। मूल कहानी चाहे जो भी हो, प्रेम की एक अंतर्धारा उसमें बहती रहती है। भारतीय सिनेमा ने शुरुआत से ही यह स्वभाव अर्जित कर लिया, जो अब तक चलता आ रहा है। असल में जीवन का यही रूप है। तमाम अभावों, संघर्षों, बीमारियों की चट्टानों के नीचे, हम सबके जीवन में प्रेम की एक हरी दूब दबी रहती है। ये चट्टाने जब कभी इधर उधर खिसक जाती हैं तो यह दूब तन जाती है।


 भारतीय सिनेमा और होली का, चोली-दामन का साथ रहा है। हिन्दी फिल्मों ने होली के सीक्वेन्स को बार बार दिखाया है। होली का पर्व सिनेमा में हमेशा गीतों और नृत्य के जरिए आता रहा है। फिल्मों में होली का आगमन 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा में हुआ। निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने फिल्म में होली का सीक्वेंस फिल्माकर एक इतिहास की नीव रखी। यह श्वेत-श्याम फिल्मों का ज़माना था। यह भी एक संयोग है कि रंगीन फिल्मों में जब होली को उसका असली रंग मिला तब भी दिलीप कुमार ही थे। पहली टेक्नीकलर फिल्म आन में दिलीप कुमार और निम्मी होली खेलते नज़र आए। फिर तो यह सिलसिला चल निकला। 1958 में आई मशहूर फिल्म मदर इंडिया में शमशाद बेगम का गाया गीत होली आई रे कन्हाई... आज भी बेहद लोकप्रिय है और होली के दिन गाया-बजाया जाता है। उसके अगले ही साल वी. शान्ताराम की फिल्म नवरंग में भी होली का एक गीत था। जा रे हट नटखट...., महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया। इस फिल्म में महिपाल, दिवाकर नाम के कवि की भूमिका में हैं। आपको याद होगा कि इस फिल्म में काव्य के नौ रसों की अलग-अलग स्थितियों के माध्यम से अभिव्यक्ति की गई है।


सत्तर के दशक में भी कुछ अच्छे होली दृश्य हिन्दी फिल्मों में देखने को मिले। खासतौर पर 1970 में आई राजेश खन्ना की फिल्म कटी पतंग का गीत आज न छोड़ेंगे हम हमजोली... अविस्मरणीय गीत बन गया। राजेश खन्ना उस समय सुपर स्टार थे। इस फिल्म में वो कमल की भूमिका में थे और आशा पारेख विधवा माधवी के किरदार में। इस फिल्म में यह गीत निर्देशक ने उस सामाजिक वर्जना को तोड़ने के लिए रखा, जिसमें एक विधवा स्त्री को जबरन जीवन के सभी रंगों से बेदखल कर दिया जाता है। माधवी के संकोच और सामाजिक प्रतिबंध को कमल सार्वजनिक रूप से तोड़ देता है और विधवा माधवी को रंगों से सराबोर कर देता है। इसके पहले सत्तर के दशक में कुछ और फिल्मों में सुन्दर होली गीत फिल्माए गए। कोहिनूर का गीत तन रंग लो जी आज मन रंग लो... बहुत लोकप्रिय हुआ। गोदान में भी एक होली गीत फिल्माया गया।

ध्यान देने की बात यह है कि हमारी फिल्मों में होली के सीक्वेंस सिर्फ त्यौहार को दिखाने के लिए नहीं रखे गए। बल्कि इनका उपयोग एक प्रविधि के रूप में किया गया है। अक्सर फिल्म की कहानी को किसी जटिल स्थिति से निकालने अथवा किसी जटिल मनोदशा या परिस्थिति को बोधगम्य दृश्य में परिणित करने के लिए होली के दृश्यों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। इस बात को समझने के लिए 1981 में आई फिल्म सिलसिला के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली... को याद कीजिए। होली का राष्ट्रगान का दर्ज़ा पा चुका यह गीत, लोकप्रियता में दूसरे सभी गीतों से बहुत आगे है। अमिताभ बच्चन का गाया, और अमिताभ-रेखा पर फिल्माया यह गीत, कहानी की एक बहुत जटिल परिस्थिति को व्यक्त करने के लिए रखा गया। वरना इतनी गंभीर फिल्म में होली गीत की गुंजाइश कहाँ बनती थी। अमिताभ, रेखा के लिए अपने पुराने प्रेम को दबाए-दबाए घुट रहे थे। होली ने उन्हें इस घुटन से बाहर आने का मौका दिया। वो रेखा के लिए अपने प्रेम को होली के रंग में बिखरा रहे हैं और संजीव कुमार और जया इस अनकही कहानी का एक एक अक्षर बाँचे जा रहे हैं। ये चारों पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस भूल-भुलैया में फँसे थे, यह होली सीक्वेंस उनके सामने इस  भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता खोल रहा था। यह गीत तब से अब तक होली उत्सव की जान है।

इस गीत के पीछे जो मनोविज्ञान है, कमोबेश यही मनोविज्ञान कुछ रूप बदलकर हम सबका भी होली में होता है। हम अपने भीतर के दमित प्रेम और कामेच्छा को थोड़े अनायास से लगने वाले सचेत स्पर्श, कुछ बतरस के अवसरों और कुछ नशे की सामग्रियों के मेल से तुष्ट कर कुछ राहत पाने की कोशिश करते हैं। इसका एक बढ़िया दृष्टांत यश चोपडा की फिल्म डर के होली दृश्य में देख सकते हैं। यश चोपड़ा ने प्रेम के जितने रंगों को फिल्मों के जरिए परदे पर उतारा है, उतना किसी और भारतीय फिल्मकार नें नहीं। इस फिल्म में शाहरुख खान खलनायक की भूमिका में हैं। वे नायिका के जुनूनी प्रेमी हैं और किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। प्रेम और भय के बेहद सघन तनावों के बीच, यह होली सीक्वेंस शाहरुख को, जूही चावला को स्पर्श करने का अवसर देता है, तो दूसरी तरफ, निर्देशक को अपनी कहानी को अंजाम तक पहुचाने का स्पेस भी देता है। निर्देशक कहानी को आगे बढ़ाने के लिए अक्सर होली दृश्य का इस्तेमाल करते रहे हैं। आखिर क्यों का गीत सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे.. और कामचोर के गीत मल दे गुलाल मोहे...के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया है। कभी-कभी निर्देशक कहानी में टर्निंग प्वाइंट दिखाने के लिए भी होली सीक्वेंस का प्रयोग करते हैं। जैसे राजकुमार संतोषी ने फिल्म दामिनी में किया।

अस्सी और नब्बे के दशक के गीत फिल्मी होली के प्रतिनिधि गीत बन गए। रंग बरसे.... के अलावा जिस गीत ने होली गीतों के बीच अपनी खास जगह बनाई, वह है फिल्म शोले का गीत। 1975 में आई इस कालजयी लोकप्रिय फिल्म में धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी के ऊपर होली के दिन दिल खिल जाते हैं... गीत फिल्माया गया। यह गीत भी फिल्म में एक युक्ति की तरह डाला गया। लगातार भय और आतंक के बीच चली जा रही फिल्म में कुछ तनावमुक्ति के पल खोजने थे। साथ ही दर्शकों के लिए एक चौंकाने वाला तत्व भी डालना था। आपको याद होगा, होली के उल्लास में झूमते बेखबर गाँव वालों और सिनेमा हाल के दर्शकों के बीच अचानक डाकुओं का हमला हो जाता है और सबकी सांसें अटकी रह जाती हैं। अस्सी के दशक की धर्मेन्द्र-हेमा की यह जोड़ी, नब्बे के दशक के एक और होली गीत में नज़र आयी। 1982 में बनी फिल्म राजपूत में भागी रे भागी बृज की बाला... गीत में धर्मेन्द्र-हेमा फिर होली के रंग में दिखे। इसी तरह अमिताभ ने सिलसिला के गीत की लोकप्रियता को 2003 में फिल्म बागबां के गीत होली खेलैं रघुबीरा.... में दोहराया।


होली गीतों का यह सिलसिला अब कुछ ठहरा हुआ सा है। यद्यपि 2005 में बनी अक्षय कुमार-प्रियंका चोपड़ा की फिल्म वक्त-द रेस अगेन्स्ट टाइम में डू मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...गीत और 2013 की फिल्म ये जवानी है दीवानी का गीत बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी... खूब लोकप्रिय हुए, लेकिन इन्हें विशुद्ध होली गीत नहीं कहा जा सकता। एक और बात आश्चर्य में डालती है कि होली का त्यौहार फिल्मों में गीतों तक  ही सीमित रह गया, कभी कहानी का हिस्सा नहीं बन सका। जबकि रक्षाबंधन, दीवाली, ईद आदि त्यौहारों पर फिल्में बनी हैं। हाँ, अब तक होली नाम से दो फिल्में, होली आई रे नाम से एक फिल्म, और फागुन नाम से दो फिल्में जरूर बनी हैं। 1967 में भक्त प्रहलाद नाम से एक हिन्दी फिल्म बनी थी। सिने जगत और होली का रिश्ता सिर्फ फिल्मों तक ही महदूद नहीं रहा है। आर. के. स्टूडियो की स्थापना के समय से ही राजकपूर स्टूडियो में होली खेलने का आयोजन करते थे। यह परंपरा आज भी जारी है। इसी तरह मेगास्टार अमिताभ बच्चन भी अपने बंगले पर होली का आयोजन करते थे। कुल मिलाकर सिनेमा और होली की संगत ने होली के रंगों थोडा और रंगीन और अमिट ही बनाया है।

Sunday 5 March 2017

ज़िन्दगी लाइव: फंतासी झूठ नहीं, संभावना है !

उपन्यास-कला पर मिलान कुन्देरा ने एक जगह लिखा है-उपन्यास यथार्थ का नहीं, अस्तित्व का परीक्षण करता है। अस्तित्व, घटित का नहीं होता, वह मानवीय संभावनाओं का आभास है। जो मनुष्य हो सकता है, जिसके लिए वह सक्षम है। उपन्यास-लेखक खोज के जरिए मानवीय संभावनाओं के अस्तित्व का नक्शा बनाता है। चरित्र और दुनिया संभावनाओं के द्वारा जाने जाते हैं।

सुप्रसिद्ध कथाकार-पत्रकार प्रियदर्शन का चर्चित उपन्यास ज़िन्दगी लाइव इन दिनों खूब पढ़ा गया। तीन दिन और तीन रातों की किस्सानुमा घटनाओं के इस औपन्यासिक विस्तार में मानवीय संबन्धों के अस्तित्व और संभावनाओं की खोज की ही कोशिश की गई है और उपन्यासकार एक विशिष्ट देशकाल और वातावरण में संबन्धों का एक नक्शा बनाने में असफल नहीं रहे हैं।

एकबारगी अपराधकथा सा दिखने वाला यह उपन्यास दरअसल कुछ निरपराध लोगों की विडंबनात्मक नियति का लाइव वर्जन है। इसमें एडिट करने का अवकाश नहीं है। इसमें बस देखते जाना है और दिखाते जाना है। सवाल हैं, पर तर्क नहीं। तर्क करनें लगें तो एक दूसरा सवाल आ जाएगा। अतार्किकता के इसी ढाँचे में लेखक से एक ऐसी तकनीकी त्रुटि हो जाती है जो पाठक को लगभग आरंभ में ही सचेत कर देती है कि आप एक झूठी कथा को पढ़ने जा रहे हैं। इस खटक जाने वाली त्रुटि का ज़िक्र मैं बाद में करूँगा। किसी औपन्यासिक कृति को रचने के लिए फंतासी का सहारा लेना ही पड़ता है। यथार्थ हमेशा अनगढ़ और खुरदुरा होता है। यथार्थ के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर उपन्यास की यात्रा असंभव तो नहीं, पर बहुत मुश्किल और अरुचिकर होती है। जबकि रुचिकर होना उपन्यास विधा की पहली शर्त है। यथार्थ अक्सर कई जगह फटा-बँटा और अस्पष्ट भी होता है। इसीलिए उसे फंतासी से सिलने-जोड़ने और उभारने की कीमियागीरी उपन्यासकार को करनी पड़ती है। फंतासी झूठ नहीं होती। फंतासी कोरी कल्पना भी नहीं होती। फंतासी वह है जो अभी अघटित है। जिसके घटित होने की संभावना है। उतना ही बड़ा वह लेखक होता है, जितना वह किसी फंतासी के घटित होने की संभावना को प्रबल बना देता है। फंतासी रचना बड़े कौशल का काम है। एक छोटी सी चूक भी उसे झूठ बना देती है। और तब उसके घटित होने की संभावना खत्म हो जाती है। आप यह समझते हैं कि फंतासी रचना लेखक का लक्ष्य नहीं होता। बल्कि फंतासी, लेखक के लक्ष्य का वाहन होती है। इसीलिए अगर किसी चूक से फंतासी झूठ लगने लगे तो जाहिर है लक्ष्य भी अपने गंतव्य तक पहुँचने के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता।

प्रियदर्शन का उपन्यास ज़िन्दगी लाइव भी कुछ यथार्थ और कुछ फंतासी से बना एक रोचक रसायन है। लेखक ने अंत में स्वीकार भी किया है कि एनडीटीवी और दूसरे चैनलों में काम कर रहे मित्रों के अलग-अलग अनुभव कुछ रूप बदलकर इस उपन्यास में दर्ज़ हैं।.....तीन दिन की इस कहानी में बहुत सारी घटनाएं सच्ची हैं।जाहिर है कि बहुत सारी सच्ची घटनाओं के अलावा जो कुछ थोड़ी बची हुई घटनाएँ हैं वो लेखक की फंतासी हैं। इस फंतासी को लेखक ने बहुत कमाल का बुना है, लेकिन एक छोटी सी चूक आखिर हो ही गई।

यह उपन्यास 26 नवंबर 2008 के मुम्बई पर हुए आतंकी हमले की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। लेकिन मुम्बई की घटना पृष्ठभूमि ही है। मंच पर टीवी चैनलों से जुड़े एंकर और पत्रकारों की ज़िन्दगी की त्रासद स्थितियाँ हैं। आमतौर पर जब हम कोई उपन्यास पढ़ते हैं तो हमारी कोशिश होती है कि हम जल्दी से जल्दी उस कथा के नायक-नायिका को चिन्हित कर लें। यह पहचान हो जाने पर हम नायक-नायिका के चरित्र और वैचारिकी से अपना साम्य स्थापित करने लगते हैं। और जैसे जैसे यह साम्य प्रगाढ़ होता जाता है, हम नायक-नायिका से सहमत होते जाते हैं। ज़िन्दगी लाइव उपन्यास में किसी पात्र में नायक-नायिका की पहचान करना कम से कम मेरे लिए बहुत कठिन था। इस कथा के असल नायक इसमें घटित घटनाएं हैं। ये घटनाएँ इतनी अप्रत्याशित, सघन और विच्छेदक हैं कि इनके आगे कहानी के पात्र गौंड़ हो जाते हैं।

इस कहानी को लेखक ने ऐसे बुना है जैसे फ्रेम में तने कपड़े पर धागे से महीन कढ़ाई की जाती है। फ्रेम है मुम्बई में हुआ आतंकी हमला। कपड़ा है बच्चे के गुम हो जाने और उसके अपहरण की घटना। इस कपड़े पर लेखक ने स्त्री-पुरुष संबन्धों, नव-आर्थक विकासवाद, अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण की कढ़ाई की है। 26 नमंबर को अचानक मुम्बई पर आठ-दस आतंकवादी हमला कर देते हैं। एक खबरिया टीवी चैनल की एंकर सुलभा अपनी नाइट शिफ्ट खत्म ही करने वाली होती है कि हमले की खबर आ जाती है। और फिर उसे रात भर ड्यूटी करनी पड़ती है। उसका दो साल का बेटा ऑफिस के ही एक हिस्से में बने क्रेच में एक आया की देखरेख में रहता है। रात दस बजे आया को अपने घर जाना होता था। उस दिन न्यूज की आपाधापी में सुलभा अपने बच्चे को भूल जाती है। आया कुछ देर परेशान होती है और अंतत: बच्चे को अपने साथ लिए जाती है कि अगले दिन वह बच्चे को उसकी माँ को सौंप देगी। लेकिन बीच रास्ते में वह बच्चा उसी चैनल में काम करने वाली एक दूसरी औरत के पास चला जाता है। अगली सुबह जब न्यूज ड्यूटी शिफ्ट होने पर सुलभा फुरसत होती है तो उसे अपने बच्चे का खयाल आता है। वह भागकर क्रेच पहुँचती है लेकिन बच्चा गायब है। अब एक बदहवास खोज शुरू होती है बच्चे की। आया से जो औरत बच्चे को ले जाती है, वह अगली सुबह सुलभा को इसलिए बच्चा उसके पास होने की जानकारी नहीं देती, क्योंकि सुलभा ने उस दिन उसको किसी बात पर डाँट दिया था। और वह चाहती थी कि  सुलभा कुछ देर परेशान रहे। फिर शाम को वह बच्चे को सुलभा के पास पहुँचा देगी। लेकिन इस बीच एक अपराधी किस्म का बिल्डर फिरौती के लालच में बच्चे का अपहरण कर लेता है। बच्चे समेत उस औरत, आया और उसके पूरे परिवार को बंधक बना लिया जाता है। बच्चे के माँ-बाप, परिवार, चैनल के सहयोगी मित्र, सब बच्चे की तलाश में बदहवास हो रहे हैं। बच्चे का क्या हुआ यह तो अब आप उपन्यास में ही पढ़ेंगे। मैं अब उस तकनीकी त्रुटि का ज़िक्र कर दूँ जो लेखक ने फंतासी रचना के दौरान की है।

जिस समय की यह कहानी है, उस समय तक संचार के सभी आधुनिक साधन आ चुके थे। सबके हाथ में एक मोबाइल फोन था। न्यूज चैनल वाले मोबाइल पर ही घटनाओँ की लाइव कवरेज दे रहे थे। लेखक ने खुद बताया है कि आया शीला, जो बच्चे को अपने साथ ले गई थी, उसके पास मोबाइल रहता था। जाहिर है कि उसके मोबाइल में अपने घरवालों के अलावा ऑफिस के कुछ जरूरी लोगों के नम्बर भी रहे होंगे। ऑफिस से बच्चे को लेकर निकलते समय वह सुलभा से नहीं मिल सकी क्योंकि वह न्यूज डेस्क पर थी। लेकिन वह ऑफिस के किसी दूसरे व्यक्ति को बता सकती थी कि वह बच्चे को अपने साथ ले जा रही है। अगर आपाधापी में नहीं भी बता सकी तो जब उसने ऑफिस की गाड़ी में दूसरी औरत चारु को बच्चा सौंप दिया था, उस वक्त तो उसे अपने मोबाइल से ऑफिस में किसी को यह खबर देनी चाहिए थी। शीला ने अगले 36 घंटों तक सुलभा को या किसी को बच्चे के बारे में फोन नहीं किया। इसके बाद तो वह बिल्डर द्वारा बंधक ही बना ली गई थी। कितनी भी असामान्य स्थिति में यह समझ पाना संभव नहीं है कि कोई औरत, जो बिना किसी दुर्भावना के, विवशता में किसी के दो साल के बच्चे को ले जा रही है, वह उस बच्चे की माँ को इसकी सूचना देने की हर संभव कोशिश न करेगी। असल में उपन्यासकार जिस कपड़े पर कढ़ाई करना चाहते थे उसे जरूरत भर तानना अपरिहार्य था। सृजनात्मक लेखन की नैतिकता के हिसाब से भी यह वैध है। लेकिन इस छोटी सी चूक ने फंतासी को मनगढ़ंत किस्सा बना दिया। इसी बिन्दु से पाठक यह सोच लेगा कि इस किस्से को अब स्वाभाविक परिस्थितियाँ नहीं, लेखक की मेधा आगे बढ़ाएगी। हालांकि ऐसा समझ लेने पर भी उपन्यास में विस्मय-तत्व की चाशनी एकदम गायब नहीं हो जाती, लेकिन कुछ पतली ज़रूर हो जाती है।

लेकिन यह चूक बहुत भारी नहीं पड़ती। उपन्यास का कोई अनर्थ इस चूक से नहीं होता। क्योंकि लेखक जो बातें इस उपन्यास के जरिए कहना चाहते हैं, उन्हें बहुत ताकत और विश्वसनीयता से कहते हैं। मुम्बई का आतंकी हमला भले ही कृति के पृष्ठभूमि में है, लेकिन लेखक आतंकवाद की विभीषिका नहीं दिखाना चाहते। आतंकी हमला एक ऐसी घटना के रूप में आया है जो कुछ ऐसे सवाल उठा देता है जिनका संबन्ध आतंकवाद से दूर तक नहीं  है। हमले के तीन दिन बाद तक, जब तक सेना ने अपना ऑपरेशन पूरा नहीं कर लिया, घटनास्थल से हजारों मील दूर कुछ लोगों के जीवन में ऐसी उथल-पुथल मची हुई थी, जो रिश्तों के पारंपरिक छन्द को छिन्न भिन्न किए दे रही थी। ऐसे सवाल पूछे जा रहे थे, जो बार बार पूछे जाने के बाद भी पुराने नहीं पड़े थे और उनका हर उत्तर अनंतिम था। सबसे अधिक संतोष की बात यह है कि उपन्यास में आये सभी सवालों और उनके जवाबों का नियमन लेखक नहीं करता।  लेखक ने सभी सवाल पात्रों और स्थितियों के जरिए उठाकर, सभी संभावित उत्तरों के लिए रास्ता खोल रखा है। लेखक ने एक अनायास सी दिखने वाली सावधानी और बरती है कि कहानी को किसी एक सवाल पर केन्द्रित नहीं किया है।

उपन्यास के पात्र और घटनाएँ जिस आधुनिक भारतीय मीडिया से जुड़े हुए हैं, पहला सवाल उसी मीडिया पर है। सुलभा के पिता जगमोहन सिन्हा कहते हैं कि हमारा मीडिया अपरिपक्व लोगों के हाथों में है। सुलभा भी यह महसूस करती है कि वह आँख में पट्टी बांधकर दौड़ती है और दुनिया की आँख में पट्टी बांध देती है। और कभी दुनिया आँख में पट्टी बांधकर उसकी तरफ आती है और उसकी आँख में पट्टी बांध देती है। यानी झूठ और छद्म का खेल दोनों तरफ से चल रहा है। उपन्यास के पात्र कभी-कभी ये सवाल खुद से करते हैं कि क्या हर घटना खबर होनी चाहिए ? कहानी में एक्स्ट्रा मैरिटल और प्री-मैरिटल प्रेम संबन्धों पर भी प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं और इसका जस्टीफिकेशन भी इस युक्ति के साथ दिया गया है कि अगर एक रिश्ते से आपका काम नहीं चलता तो कोई बात नहीं, दूसरे अगर तैयार हों तो आप जितनें चाहें उतने रिश्ते बनाएँ। लेकिन सबको बताकर- यह नहीं कि हर किसी को अँधेरे में रख कर उसे भरोसा दिलाए जा रहे हैं कि यह प्रेम सिर्फ उसी से है। ऐसा इसलिए क्योंकि दो लोगों के बीच के रिश्ते सिर्फ दो लोंगों के नहीं होते, नहीं हो सकते। उनमें तीसरे का भी एक कन्टेक्स्ट होता है। यह तीसरा कोई इन्डिविजुअल भी हो सकता है और पूरी सोसाइटी भी। और यह प्रेम भी कोई साहित्य और सिनेमा वाला नहीं है, बल्कि बस लड़की हासिल करने की लड़कों की बेताबी है।


उपन्यास राजनीति और अपराध के नेक्सस की भी बात करता है। और विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन छल से हड़पे जाने की समस्या की ओर भी इशारा करता है। एक संक्षिप्त पैरा में जातिगत आरक्षण की वैधता पर भी प्रश्न उठाता है। कुल मिलाकर लेखक ने अपने कौशल से एक नितान्त भिन्न पृष्ठभूमि पर बिल्कुल अनपेक्षित सवाल खड़े कर दिए हैं, जो उपन्यास-कला के विकास का एक नया आयाम है। लेकिन किताब में प्रूफ की गलतियों ने लेखक को भी बहुत विचलित किया होगा। आशा है कि इन गलतियों को अगले संस्करण में सुधार लिया जाएगा।