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Tuesday 20 November 2012

स्मृतियाँ



स्मृतियाँ
सिक्कों की तरह बजती हैं
जीवन की गुल्लक में.

आँखों से चुराकर सहेजे गये
इन सिक्कों पर
जितनी चढ़ती जाती है
समय की धूसर परत
उतनी ही कम होती जाती है
इनकी खनक.

एक अदृश्य रात में
जब कोई टूटा हुआ तारा
टकरा जाता है इस गुल्लक से
तो बज उठते हैं
हमारे सबसे अश्पृश्य राग.

जीवन के अंकगणित में
शेषफल होता है यह धन
जिसे अब और
विभाजित किया जाना
नही होता संभव.

अपने सबसे गाढ़े दिनों मे
घर के
किसी विस्मृत कर दिए गए कोने से
हम निकालते हैं गुल्लक
और झाड़-पोंछ कर
फिर रख आते हैं
विस्मृति के उसी कोने में.

और प्रतीक्षा करते हैं
किसी तारे के टूटने की ।।

Tuesday 13 November 2012

दीपावली का मध्यमवर्गीय बोध !



हम जैसे मध्यमवर्गीय और जनपदीय नागरिक बोध वाले लोगों के लिए दीपावली केवल एक त्यौहार नहीं, बल्कि कौशल विकास का एक अवसर होता है. तरह-तरह के दिये बनाना, रंगोली से घर-आँगन सजाना, मिट्टी से लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ बनाना, पारंपरिक मिठाइयाँ और व्यंजन बनाना, टूटे रिश्तों को जोड़ लेना—ये ऐसे कौशल हैं जिनका दीपावली के आस-पास अभ्यास और हस्तान्तरण किया जाता है. सिर्फ दीपावली ही नहीं, हमारे सभी पर्व और त्यौहार, हमारे विशिष्ट कौशलों से जुड़े हुए हैं. हम अपने पर्वों का अगर समाजशास्त्रीय नज़रिए से अध्ययन करें तो पायेंगे कि इनका जन्म और विकास श्रम की महत्ता, रिश्तों की विवशता, प्रेम के आवेग, और अभाव में जीने की कला के रूप में हुआ.

यद्यपि आज हम जिस तरह के समय में रह रहे हैं उसमें हमारे व्यक्तिगत कौशलों का बुरी तरह से विनाश हुआ है. बाज़ार की संस्कृति का आक्रामक प्रसार हुआ. महानगरीय जीवन शैली की मृग-मारीचिका में छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों के लोग भटक गयें. महानगर हमारी आधुनिक सभ्यता की देन हैं. उनकी अपनी कोई संस्कृति और परंपरा नहीं होती. उनकी जड़ों को हम खोजने जायें तो ज़्यादा दूर तक नहीं जा पायेंगे. दरअसल महानगर ऐसे लोगों का समूह हैं जो अपनी संस्कृति और अपनी स्मृति से कट कर आये होते हैं. इनके पास भी यही पर्व-त्यौहार हैं, लेकिन उनके प्रवाह और परंपरा का बोध नहीं है. इन लोगों के पास पर्वों का उत्सव-पक्ष तो होता है, लेकिन उनसे जुड़े मूल्यों से अनजान होते हैं.

महानगरों और शहरों के निर्माण में सामाजिक कारणों से ज़्यादा आर्थिक कारणों की भूमिका होती है. उत्पादन के साधनों की केन्द्रीयता, धन की प्रवाहशीलता, श्रम की उपलब्धता, और विपणन की बहुआयामितता के कारण शहरीकरण बढ़ा है. लोग शहरो और महानगरों की ओर इसलिए भी भाग रहे हैं कि वहाँ जकड़न कम है. वहाँ जाति व्यवस्था ढीली है. धार्मिक और जातीय परंपराओं के आग्रह कम हैं. शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के कारण शहरों में अंधविश्वास कम हैं. रूढ़ियों से मुक्त होने ते पर्याप्त अवसर हैं शहरों में. शहरों और महानगरों में जीवन का चरम उद्देश्य या इसे चरम मज़बूरी कह लें, धन उपार्जन होता होता है. इसीलिए यहाँ धर्म-जाति-सम्प्रदाय-छूत-अछूत आदि के आग्रह हाशिए पर चले जाते हैं.

लेकिन यह प्रवाह एकतरफा नहीं होता. जिस तरह से लोग गाँवों और कस्बों से नगरों और महानगरों की ओर गए, उसी तरह कुछ चीज़ें महानगरों से गाँव-कस्बों की ओर भी आयीं. इनके संवाहक बने संचार के आधुनिक साधन. हमारे ग्रमीण भारत में समृद्धि तो नहीं पहुँची लेकिन उनके श्वेत-श्याम और मटमैले परिवेश में रंगीन ज़िन्दगी के स्वप्न पहुँच गये. सपने अक्सर मोहक होते हैं. महानगरों से पहुँते इन रंगीन सपनों ने ग्रामीण और कस्बाई जीवन में ऐसी अदम्य लिप्सा पैदा की कि वो लगातार हीनग्रन्थि के शिकार होते गये. इसकी प्रतिक्रिया में ग्रामीण समाज अपनी जड़ों को छोड़ने के लिए उद्धत हो उठा, और कल तक जो जीवन्तता, बेफिक्री और सहकारिता उनकी पहचान थी, आज वह उनकी स्मृति का हिस्सा बन गई.

यह बदलाव एक तरह से सामाजिक बदलाव तो था ही, उससे भी अधिक यह एक शैलीगत संक्रमण था. महानगरीय समाज तो होता ही एक विखंड़ित समाज है. यहाँ अलग-अलग समाजों से पलायन करके लोग आते हैं. यहाँ आने वाले लोगों को उस विशिष्ट नगर की विशिष्ट जीवन-शैली से अपने आपको अनुकूलित करना होता है. जाहिर है कि यह विशिष्ट नागर शैली आर्थिक प्रक्रियाओं से निगमित और नियमित होती है.

हम ध्यान से देखें तो भारतीय ग्रामीण समाज में पिछले पचास वर्षों से सामाजिक परिवर्तन के कोई प्राकृतिक लक्षण नहीं नज़र आते. जो परिवर्तन होने थे, वो आज़ादी के बीस-पच्चीस वर्षों में मूर्त हो गये थे. इस दौर में ग्रामीण समाज ने अपनी नष्ट हो चुकी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया. शिक्षा उनके पास तक पहुँची. उत्पादन के उनके अपने स्रोत पुनर्जीवित हुए. इन सम्मिलित प्रक्रियाओं से एक ऐसे भारतीय समाज की शक्ल बनी, जिसकी अपनी स्पष्ट देशज पहचान थी.

लेकिन अब जो परिवर्तन ग्रामीण समाज में हो रहे हैं, वो उनकी अपनी ज़रूरत और उनकी आंतरिक अन्तर्क्रियाओं से नहीं हो रहे हैं. ये परिवर्तन शहरी समाज के संक्रमण से हो रहे हैं. इसीलिएस्वाभाविक नहीं हैं. संक्रमण जहाँ भी होता है, वह मौलिक स्थापना में विकृति पैदा करता है. जबकि स्वाभाविक परिवर्तन में सुसंगति होती है. विकृति और सुकृति में मौलिक अन्तर अनुपात, समयबद्धता और ज़रूरत का ही तो होता है.


तो, नागर जीवन और ग्राम्य जीवन के मध्य किसी बिन्दु से मैं एक और दीपावली को आता हुआ देख रहा हूँ. मैं न तो पूरा ग्रामीण रह गया हूँ और न पूरा शहरी हो पाया हूँ.......मैं शहरी आकांक्षा और ग्राम्य स्मृतियो के द्वन्द्व की उपज हूँ.......मैं उस मध्यमवर्गीय चेतना का प्रतिनिधि हूँ, जो महानगरीय संस्कृति और आदिम देसी संस्कृति के परस्पर संक्रमण से निर्मित हुई है......इसीलिए मेरी विवशताएँ शहरी हैं और मेरी स्मृतियाँ ग्रामीण हैं.......मेरे आगे की ओर दीपावली के दिखावे और प्रदर्शन-लोलुपता हैं, तो मेरे पीछे श्रम और कौशल से पैदा होने वाला सुख, अभाव में भी स्वाभिमान से रहने का हौसला और मन एवं जिह्वा पर देसी व्यंजनों का स्वाद है.

एक मझोले शहर में जवान होने से पहले, मैं एक सम्पन्न कस्बे का बच्चा था. मेरी पैदाइश और प्राथमिक स्तर की शिक्षा उसी कस्बे की है. जिन लोगों का बचपन किसी कस्बे में गुज़रा होगा, वे जानते होंगे कि कस्बाई जीवन कितने बहुरंग अनुभव देता है. मैं जिस कस्बे में रहता था उसमें कई वर्गों और विविध हुनर वाले लोग थे. एक घनी बस्ती में व्यापारी, शिक्षक, पुलिस, के साथ ही धोबी, मोची, जुलाहे, दरवेश, सुनार, लोहार, कुम्हार, भुँजवा, दर्जी, बरई, मेहतर, बसुहार, छक्के, हलवाई और कसाई—सब तरह के उद्यमी थे. इन्हीं सबके बीच खेलते-कूदते मैं भी बड़ा हो रहा था. यहाँ हमारा कोई स्थायी घर नहीं था. माता-पिता शिक्षक थे. हम किराये के मकानों में रहते थे. कभी बनियों के टोले में, कभी जुलाहों के टोले में तो कभी धोबियों के टोले में. इन्हीं दिनों में मैने कपड़े सिलना, बीड़ी बनाना, ज़ेवर बनाना, पटाखे बनाना, राखियाँ बनाना, बैण्ड बाजा बजाना, ताजिए बनाना, मुर्गे लड़ाना और कुछ गोपन कलाएँ सीखने की कोशिश की.

मेरा पैतृक गाँव इस कस्बे से दो-तीन मील की ही दूरी पर था. लेकिन उन दिनों इतनी दूरी भी कठिन होती थी. हम लोग साल में दो बार छुट्टियों में ही गाँव जा पाते थे. दशहरे से दीवाली तक पच्चीस दिनों की छुट्टियाँ होती थीं. इन्हें फसली छुट्टी कहा जाता था. इस मौसम में गाँव की खूबसूरती सम्मोहित कर देने वाली होती थी. खेतों में धान की फसल पक चुकी होती थी. फसल कट कर खलिहान में रखी जाती. और धान की गहाई चलती रहती. तब बैलों से गहाई का काम होता. हम गाँव पहुँचते ही बैलों को हाँकने का जिम्मा उठा लेते. धान के गट्ठरों से उठती सोंधी महक हर समय हमें एक नशे से भरे रहती. सुबह उठकर धूप में सभी बच्चे एक साथ बैठकर रोटी-दही-मक्खन का कलेवा करते और फिर खेत-खलिहान की तरफ खेलने-कूदने-लड़ने-झगड़ने निकल जाते.

इसी धानी महक के बीच दीवाली आती थी. घर छूही या ऊसर की सफेद मिट्टी से पोता जाता. आँगन और दुआर गोबर से लीप दिया जाता. सुबह से ही बहनें, काकियाँ और अम्मा इस काम में जुट जातीं. तुलसी के चौरे के पास ही लक्ष्मी-गणेश की झाँकी सजाई जाती. लक्ष्मी-गणेश की प्रतिमा एक-दो दिन पहले ही मिट्टी से बना ली जातीं. झाँकी सजाने के लिए केले के पत्ते, आम की टेरी, गेंदे के फूल और कपड़ों आदि के साथ मिले गत्ते के रंगीन डिब्बों का उपयोग किया जाता. घर में ही खोवा बनाकर उसके पेड़े और बेसन के लड्डू प्रसाद के लिए बनाये जाते. हम बच्चों का काम फूल इकट्ठा करना होता था. हम दिन भर आस-पास की झाड़ियों में उगी नामालूम लताओं से फूल चुनते. पटाखे हमारे गाँव के लोग उसी कस्बे से खरीद लाते थे, जहाँ हम लोग रहते थे. हम अपने पटाखे छुट्टी में आते समय ही खरीद लाते थे. चूँकि मैं पटाखे बनाने वालों के काम में हाथ बँटा देता था, अतः कुछ पटाखे मुझे मुफ्त में मिल जाते थे. पटाखों के लिए घर से बहुत कम पैसे मिलते. इतने कम पैसों के पटाखे खरीदते हुए बहुत शर्मिन्दगी होती थी. बाद में जब हम शहर में आकर बड़े हुए, तब भी इस शर्मिन्दगी ने पीछा नहीं छोड़ा. हमारे दोस्तों के पापा बड़े-बड़े डिब्बों में भरकर पटाखे लाते, जबकि हमारे पिताजी जेब मे रख कर पटाखे ला देते.

दरअसल, शहर आकर ही पता चला कि दीपावली दीये की नहीं, धन की रौशनी का त्यौहार है. हमें यहीं आकर पता चला कि दीपावली में अपनी हैसियत दिखाने की कैसी होड़ लगती है. घर की सजावट से लेकर प्रसाद तक में अपनी सम्पन्नता दिखाने की निर्मम कोशिश के बीच, शुरुआती वर्षों में हम सब हक्के-बक्के रह जाते थे. इस शहरी शैली से सामंजस्य बैठाने में समय लगा. यद्यपि अभी भी हम पीछे ही रह जाते हैं.




हालाँकि धीरे-धीरे शहर में सारे पर्व औपचारिक होते गये. हमारा पिछड़ापन और छोटी हैसियत, इस औपचारिकता में ढँक गये. जिस उत्साह और परंपरा को लेकर हम कस्बे से शहर आये, उसको भूलते जाने में ही स्वाभिमान की सुरक्षा दिखाई पड़ी. बाज़ार वहाँ भी था और यहाँ भी. फर्क बस इतना था कि वहाँ के बाज़ार वाले हमारे काका, ताऊ, बुआ, और भैय्या थे. उनसे डर नहीं लगता था. यहाँ के बाज़ार वाले अजनबी और डरावने थे. वहाँ दीपावली आती नहीं थी, बुलाई जाती थी. यहाँ दीपावली आ जाती है, और हमें मनाना पड़ता है.

Tuesday 6 November 2012

इरोम की क्षेत्रीयता और हड़ताल का जनतंत्र

चार नवंबर को इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के बारह साल पूरे हो गये. किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए यह अनुपम शर्म की बात होनी चाहिए. इस तरह की नज़ीर तो शायद पाँच साल पहले के मिस्र, सीरिया, युगांडा आदि के निजाम में भी शायद ही मिले. अगर हम इरोम की मागों की वैधता और औचित्य की बात को न भी करें , तो भी उनकी दीर्घकालीन हड़ताल कई सवाल पैदा करती है. उनकी हड़ताल सरकार की क्षेत्रीय भेदभाव की नीति, भारतीय राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी और देश के बौद्धिक वर्ग के चरित्र को उजागर करती है. एक तरफ हमारे देश में आये दिन होने वाली हड़तालें और आन्दोलन हैं, तो दूसरी तरफ एक साधारण व्यक्ति भी जानता है कि ये आन्दोलन सिवाय राजनीतिक विलास के कुछ नहीं हैं. इन आन्दोलनों की संस्कृति के आलोक में इरोम शर्मिला के आन्दोलन को देखें तो यह हमारे नागरिक अधिकारों पर एक त्रासद टिप्पणी नज़र आती है.


हमें यह सोचना चाहिए कि एक ऐसे देश में जहाँ संविधान में गहरी आस्था है और जहाँ विकट से विकट समस्याएँ लोकतांत्रिक तरीकों से सुलझा ली जाती हैं, उसी देश में एक महिला को सरकार बारह सालों से मृत्यु जैसी परिस्थितियों में रखे हुए है. इतने सालों में सरकार ने उनकी भूख हड़ताल को खत्म कराने का कोई गंभीर प्रयास क्यों नही किया ! पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रति केन्द्र सरकारों का रवैया हमेशा उपेक्षापूर्ण रहा है. इसकी वज़ह शायद इन राज्यों की राजनीतिक अनिश्चितता, और सांस्कृतिक-भौगोलिक भिन्नता रही होगी. अरुणांचल, मणिपुर, नागालैण्ड, असम आज भी इतने पिछड़े राज्य हैं कि देश के दूसरे राज्यों से इनकी तुलना भी शर्मनाक होगी. जबकि यही राज्य देश के प्राकृतिक संसाधनों के सबसे के सबसे बड़े स्रोत हैं. औद्योगिक विकास और विलासिता की बात सोचना तो दूर, यहाँ के लोग रोटी-कपड़ा-मकान के बुनियादी सूत्र को भी अभी तक ठीक से हल सके हैं.

भूखों और नंगों की बात कौन सुनता है. दूसरी बात यह भी कि आज़ादीके पहले से ही ये राज्य देश के संघीय स्वरूप पर एक प्रश्न-चिन्ह की तरह रहे हैं, और आज़ादी के बाद भी कई वर्षों तक इनकी राजनीतिक निष्ठा पर संदेह जताया जाता रहा है. केन्द्र सरकारों का आत्मविश्वास डगमगाया रहा है. देश का यही इलाका है जहाँ सबसे अधिक विदेशी घुसपैठिए हैं. यही इलाका है जहाँ राष्ट्रीय राजनीतिक दलो का प्रसार और प्रभाव सबसे कम है. इन प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक वर्चस्व रहा है. राष्ट्रीय महत्म के मुद्दों पर इन राज्यों की सहभागिता भी अत्यन्त न्यून है, और चिन्ता की बात तो बहुत दूर है. यहाँ के क्षेत्रीय क्षत्रपों की चीन और बांग्लादेश के शासनतंत्र के साथ अघोषित सम्पर्क की चर्चा भी होती रही है. और केन्द्र सरकारों से भी यह बात छुपी हुई नहीं है.

यद्यपि ये राज्य गरीब और साधन-विहीन हैं लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत की सबसे कमज़ोर कड़ी बन जाते हैं. आज़ादी के बाद भारतीय संघ में विलय को लेकर जो अनमनापन इन राज्यों में था वो शायद अभी तक बना हुआ है. सरकारों ने भी इसे दूर करने की कोशिश नहीं की. राजनीतिक विश्लेषकों का तो यहाँ तक मानना है कि भारत सरकार इस बात को लेकर कभी भी आश्वस्त नहीं रही कि पूर्वोत्तर के ये राज्य कब तक देश का हिस्सा रह पायेंगे. इसीलिए इनके विकास की तरफ कभी भी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया गया. पूर्वोत्तर में इसीलिए अलगाववादी संगठनों का ज़ोर ज़्यादा रहा. सरकार ने इन्हें काबू में रखने के लिए विशेष सुरक्षा कानूनों का सहारा लिया और इसी से पैदा हुई इरोम शर्मिला की त्रासदी.

4 नवंबर 2000 को जब इरोम ने भूख हड़ताल शुरू की थी, उस समय वो 28 साल की युवा थीं. शुरू में ऐसा लगा था कि यह भावुकता में उठाया गया एक कदम है, और इसका अंजाम भी देश में आये दिन होने वाली भूख हड़तालों जैसा ही होगा. इस बात का अंदाज़ा किसी को न रहा होगा कि यही इरोम चानू शर्मिला हमारे लोकतंत्र की नौकरशाही और सैनिक तंत्र पर इतना बड़ा सवाल बन जायेगी. जैसे-जैसे समय बीतता गया लोगों को यह समझ मे आने लगा कि इरोम का संघर्ष किसी भावुकता की उपज नहीं था, बल्कि यह मणिपुर के दमितों-उत्पीड़ितों की स्वतंत्रता के लिए उठी जायज़ आवाज़ है. 2 नवंबर 2000 को मणिपुर की राजधानी इम्फाल के पास मलोल में इरोम एक बैठक कर रही थीं. यह बैठक शान्ति रैली के सन्दर्भ में थी. उसी समय सैनिक बलों ने मलोल बस स्टैन्ड पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाईं. दरअसल मणिपुर में सशस्त्रबल विशेष अधिकार अधिनियम—आफ्सपा लागू है, जिसके तहत सैनिकबलों को ऐसा विशेषाधिकार प्राप्त है, जिसके अन्तर्गत वे संदेह के आधार पर, बगैर वारंट के कहीं भी घुसकर तलाशी ले सकते हैं, किसी को भी गिरफ्तार कर सकते है, तथा लोगों के समूह पर गोली चला सकते हैं.

मलोम में हुए इस गोलीकांड में करीब दस लोग मारे गये थे. इनमे 62 वर्षीय वृद्ध महिला ले संगबन इबेतोमी और बहादुरी केलिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चन्द्रमणि भी शामिल थीं. इस हादसे ने इरोम को इतना अधिक आहत कर दिया कि सत्ता की दमनात्मक कार्यवाइयों का शान्तिपूर्ण विरोध उन्हें बेमानी लगने लगा. उन्होंने शासन से माग की कि इस बर्बर कानून-अफ्सपा को राज्य से समापत किया जाय. इसके लिए उन्होंने नैतिक युद्ध का सहारा लिया. 4 नवंबर से इरोम ने भूख हड़ताल शुरू कर दी.

भूख हड़ताल के तीसरे ही दिन सरकार ने इरोम को गिरफ्तार कर लिया. उन पर आत्महत्या के प्रयास का आरोप लगाकर धारा 309 के तहत न्यायिक हिरासत में बेज दिया गया. चूँकि धारा 309 के तहत किसी भी व्यक्ति को एक वर्ष से ज़्यादा समय तक न्यायिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, इसलिए एक साल पूरा होते ही उन्हें रिहा किए जाने की सरकारी नौटंकी की जाती है और फिर गिर्फ्तार कर लिया जाता है. सरकार ने इरोम की ज़िन्दगी को भौत से भी ज़्यादा कष्टकर बना दिया है. जवाहरलाल नेहरू अस्पताल के उस वार्ड को जहाँ इरोम भर्ती हैं, जेल की शक्ल दे दी गई है. भूख हड़ताल के चलते जबरन उनकी नाक के रास्ते तरल पदार्थ डाला जाता है ताकि उनकी सांस न टूटने पाये. इस तरह पिछले बारह सालों से इरोम को ज़िन्दा रखने की यह लोकतांत्रिक ट्रैजडी सरकार द्वारा मंचित की जा रही है.

अब सवाल कई उठते हैं. इरोम शर्मिला न तो कोई आतमकवादी हैं, न कोई राष्ट्रद्रोही. वो एक ऐसे कानून का नैतिक विरोध कर रही हैं, जो अँग्रजी हुकूमत के दौरान उपयोग किया गया था, और जिसका विरोध करने वाले राजनीतिक संगठनों की विरासत पर ही हमारे आज के राजनीतिक दल खड़े हैं. सरकार ने आज तक इरोम की मागों पर विचार करने की कोई राजनीतिक कोशिश क्यों नहीं की ? बारह वर्षों तक सरकार के किसी कानून का विरोध चलते रहना क्या हमारी लोकतांत्रिक और संवैधानिक विफलता नहीं है ? सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या मणिपुर जैसे राज्यों के लिए इस तरह के कानून की ज़रूरत है अगर सरकार का जवाब हाँ हो, तो फिर उससे यह भी पूछा जाना चाहिए कि आज़ादी के पैंसठ सालों मे वह इन राज्यों के नागरिकों में यह विश्वास क्यों नहीं पैदा कर सकी कि यह देश उनका भी है ??

पैंसठ साल की केन्द्रीय सरकारों में पूर्वोत्तर से देश को एक भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति या कोई कद्दावर नेता नहीं मिला. शायद इसीलिए केन्द्र ने पूर्वोत्तर के राज्यों की समस्यायों के प्रति उदासीनता दिखाई. आये दिन निरर्थक मुद्दों पर पूरे देश को आन्दोलनों से हिला देने वाले किसी बी राजनीतिक दल ने इरोम शर्मिला द्वारा उठाये गये मुद्दे को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाने की कोशिश क्यों नहीं की इसी से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कि आज के राजनीतिक माहौल में जन-आंदोलनों की हैसियत क्या है ??

ध्यान से देखें तो पता चलता है कि आन्दोलनों के सफल और असफल होने की भी एक राजनीति होती है. पिछले एक दशक की सरकारो (केन्द्र व राज्य दोनों) को देखें तो उनका चरित्र निरंकुश ही दिखाई देता है. सरकार आंदोलनों के पीछे की जनभावना को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखती. आंदोलनो के दौरान देश को होने वाली क्षति की भी उसे परवाह नहीं है. किसी आंदोललन को कब तक चलने देना है या उस पर क्या निर्णय लेना है, यह इस बात से तय होता है कि उसका कितना राजनीतिक फायदा सत्तापक्ष को और नुकसान विपक्ष को हो सकता है. लोकपाल को लेकर पहले अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार को लेकर अब केजरीवाल के आंदोलनों से इस बात को समझा जा सकता है. देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले आंदोलनों में अधिकांश, महत्वाकांक्षी नेताओं के प्रचार-प्रसार का जरिया बन गये हैं. इनमें से ज़्यादातर आंदोलन अव्यवहारिक और अविवेकपूर्ण होते हैं.

दुर्भाग्य यह है कि कि देश में चल रहे नकली आंदोलनों में इरोम शर्मिला जैसों का संघर्ष दब जाता है. इरोम के संबन्ध में सरकार को कोई ठोस पहल करनी चाहिए. केवल इसलिए नहीं कि एक स्त्री को नारकीय जीवन से मुक्ति मिल सके, बल्कि इसलिए भी कि इस बहाने (अगर सरकार को बहाने की ही ज़रूरत हो) सरकार देश के एक अहम, अंतर्राष्ट्रीय और संवेदनशील इलाके की समस्याओं को हल करने की पहलकदमी कर सकती है, और कुछ हद तक उऩ दरारों को भी भर सकती है जो अखण्ड भारत के पूर्वोत्तर में उभर आयी हैं ।