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Tuesday 30 October 2012

तुम दूर भी उतनी ही हो..

वैसे तुम
मुझसे दूर भी उतनी ही हो

जितनी आँखो से दूर होती है नींद
जितना पृथ्वी से दूर है चन्द्रमा.

जितना बीज से दूर होता है पेड़
जितनी घंटियों से दूर है उनकी गूँज
जितना जहाज़ से दूर है तट.

जितनी आँगन से दूर है गौरैया
जितनी होठों से दूर है मुस्कान
जितनी हीरे से दूर है चमक
जितना सुबह से दूर है सूरज.

वैसे तुम मुझसे
दूर भी उतनी ही हो
जितनी अगस्त से दूर है जुलाई ।

.................................विमलेन्दु

Tuesday 23 October 2012

मैं उत्सव-ग्रस्त समय हूँ !

यह देश इस कदर उत्सव-प्रिय देश है, कि बाहर से देखने पर अधिकांश समय उत्सव-ग्रस्त नज़र आता है. हमारे यहाँ जन्म से मरण तक हर गतिविधि, उत्सव का विषय है. हमारी उत्सव-प्रियता सिर्फ उल्लास और आनन्द से ही नहीं उपजती, बल्कि इसमें हमारे आत्मसंघर्ष का गौरव, आपराध-बोध का तर्पण और पीड़ा का निरसन भी लक्ष्य होता है. इन्हीं उत्सवों के भीतर भारतीय समाज के विकास की यांत्रिकी भी छुपी हुई है. ऐसा देखा होगा आपने कि भारतीय समाज जैसे समाजों के लोग मनोरोगों से कम ग्रस्त होते हैं, क्योंकि उनकी दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए इन्हीं उत्सवों में अवकाश मिल जाता है.

      
भारत में लोग भूख और जुक़ाम से भले मर जाते हों पर मनोरोगों से कम ही लोगों को मरना पड़ा होगा. भारतीय परिस्थितियों में हमारी उत्सव-प्रियता, इस देश के नागरिक जीवन की अदम्य जिजीविषा का सबसे प्रामणिक प्रतीक है. यहाँ की गरीबी, भुखमरी को सरकार  जितना ही चाँदी के बर्क से ढँकती है, उतनी ही हमारी दयनीयता अपने पूरे वैभव के साथ उछल कर बाहर आ जाती है. यही गरीब और भूखे लोग, आधे पेट और फटे कपड़ों में, इस महान देश की अनादि संस्कृति को सुरक्षित और गतिमान बनाए हुए हैं.
       
यह उत्सवों का मौसम है. दस दिनों तक गणेश उत्सव की धूम के बाद पन्द्रह दिन पितरों की सेवा. नौ दिनों तक नवरात्रि की जगमग के बाद दशहरे के दिन रोशनी का विस्फोट. उत्सवों का यह कारवां दीपावली से होता हुआ छोटी दीपावली पर जा कर ख़त्म होगा. इस बीच हमारे रोजमर्रा के सुख-दुख, हानि-लाभ अनवरत चल रहे हैं. इन्हीं के साथ हम उत्सवों में शामिल हो रहे हैं अपने अद्वितीय रंग और ढंग से.
        
हमारे ज़्यादातर त्यौहार और उत्सव सामूहिक होते हैं.अब समूहों की प्रकृति और चर्या बदल रही है. अभी गणेश उत्सव और नवदुर्गा उत्सव सम्पन्न हुए तो हमारा पूरा शहर आक्रान्त हो गया.प्रभात-वेला से अर्धरात्रि तक अनथक बजते, फिल्मी गीतों की पैरोडी वाले गीतों ने ईश्वर का खयाल तक नहीं आने दिया. इस बार मुन्नी बदनाम हुई शीला की जवानी’ ‘ टिन्कू जिया की तर्ज़ पर बने गीतों का जलवा था.शहर के सारे पंडित इस बार संगठित हो गए थे. उन्होंनें घोषणा कर दी थी कि पांच हज़ार से कम में इस बार कोई पंडित पंडाल में नहीं बैठेगा. नवरात्रि के मौके पर पंडितों की भारी कमी हो जाती है. पंडाल आयोजकों को कई बार वैकल्पिक रास्तों की भी खोज करनी पडती है.
       
हमारे पड़ोस वाले मोहल्ले के युवाओं ने इसी जुगत के चलते एक नाई को धोती-कुर्ता पहना कर पंडित बना दिया. देवी की आरती तो उसे याद ही थी, संस्कृत के दो-चार श्लोक भी उसने रट लिए. मेरी नज़र उस पर पड़ी तो मैने व्यवस्थापकों से पूछा कि भाई ये क्या माज़रा है. उन लोगों ने अपनी लाचारी बताई कि पंडितों ने अपना रेट बढ़ा दिया है और इतना चन्दा इस बार इकट्ठा नहीं हो पाया कि दे पाते, तो महेश को ही बैठा दिया.मुझसे इस राज़ को किसी से न कहने का आग्रह किया, जिसे मैने मान लिया.
       
इस उत्सव के दौरान पंडितों की एक नई जमात ही अवतरित हो जाती है. शहर से लगे गावों से सैकड़ों युवक और बुजुर्ग धोती-कुर्ता धारण कर शहर आ जाते हैं. पहले तो ये जुगाड़ करते हैं कि कुछ सम्पन्न घरों की धर्म-परायण महिलाओं की दृष्टि इन पर पड़ जाये और घर में ही पूजा-पाठ कराने का ठेका मिल जाये. यह बड़ा आरामदायक रहता है. मेहनत कम पड़ती है. दान-दक्षिणा भी बढ़िया मिल जाता है और अप्रत्याशित विनोद का भी पर्याप्त अवसर रहता है.
       
यद्यपि विनोद के अवसर पंडालों में भी कम नहीं होते. सुन्दर भक्तिनों को पंडित जी पूरे विधान से हवन करवाते हैं. अक्सर तो किसी सुन्दरी को अपना सहायक ही बना लेते हैं. प्रसाद बनाना, हवन की तैयारी करना आरती का संचालन आदि काम उसके जिम्मे होते हैं. अर्थात उस भक्तिन-विशेष को सबसे पहले पंडाल में आना होता है और सबसे बाद में जाना होता है.
       
मूलतः यह उत्सव युवाओं का होता है. शहर के जितने भी गंजेड़ी-भंगेड़ी-शराबी-लड़कीबाज़ युवक हैं, दुर्गा स्थापना की महती ज़िम्मेदारी वही अपने कंधों पर उठाते हैं. इस महाआयोजन के लिए धन की आवश्यकता होती है, जिसके लिए चंदा उगाहा जाता है. चंदा उगाहना एक बेहद रोमांचक उपक्रम है. इन दिनों यह संभव ही नहीं की शहर के मार्गों से कोई टैक्सीवाला, ट्रकवाला, रिक्शेवाला बिना चंदा दिए गुज़र जाये. डंडों और पत्थरों से लैस युवा देवी भक्त इस कार्य में बहुत निपुण होते हैं. शाम को युवतियों की उमंग देखते ही बनती है. दरअसल यही इस उत्सव की असली रौनक होती हैं. ये पूरे श्रृंगार और बन-ठन के साथ घरों से निकलती हैं. अक्सर टोलियों में होती हैं. इनका उत्साह वैसा ही होता है जैसे सिनेमा देखने के लिए निकलते समय.
       
जिस पंडाल में युवतियों की भीड़ ज्यादा पहुंचती है, वह उतना ही बड़ा हिट माना जाता है. उसी अनुपात में वहां पुरुष भक्तों की भीड़ भी पहुँचती है. जो युवक होते हैं वो दो-तीन घंटे में कई पंडालों का चक्कर लगा आते हैं. उन्हे पता रहता है कि किस ज़गह कब जाना है.इन दिनों ये कला पारखी भी होते हैं.इनके मोबाइल युवतियों की आड़ी-तिरछी कलाओं को रिकॉर्ड करते ज़रा भी नहीं थकते. जो कुछ बुजुर्ग भक्त होते हैं वो पॉपकार्न या मूगफली का पैकेट लेकर किसी एक ही पंडाल पर अड्डा जमा लेते हैं.
        
पन्द्रह-बीस साल पहले शहर में केवल एक ही दुर्गा पंडाल सजता था. इसे शहर का बंगाली समाज बनाता था. लोग वहीं पहुच कर दर्शन करते थे. धीरे-धीरे पंडालों का स्वरूप भी बदलता गया और भक्तों का भी. इस साल शहर में जिन समूहों ने पंडाल सजाये उनके नाम देखिए—सर्राफा व्यापारी दुर्गा उत्सव समिति, तरुण वैश्य समाज, रेवांचल व्यापार मंडल, किराना व्यापारी दुर्गोत्सव समिति, ट्रक ऑपरेटर्स समिति.......यही हाल गणेश उत्सव के समय भी था.
       
हमारी आस्था, पर्व, त्यौहार सब अब दूकानदारों के हवाले है. अब वही तय करते हैं कि होली कैसे खेलनी है, तीजा-राखी-करवांचौथ कैसे मनाना है और दीवाली-दशहरा कैसे करना है. होली पर चीन के बने रंग और पिचकारियों और राखी पर चीन की ऱाखियों से बाज़ार भर जाता है. स्थितियां कुछ ऐसी हो गयी हैं कि अब हम उत्सवों में शामिल कर लिए जाते हैं, उत्सवों का उत्स हमारे भीतर नहीं होता. हमारी हस्तकलाओं की अकालमृत्यु हो चुकी है. हम एक नकली सामूहिकता में जी रहे हैं. हम समूह में तो होते हैं लेकिन सहकारिता का बोध नहीं होता.
       
नवदुर्गा उत्सव का शोर दशहरे के दिन रावण-वध के साथ समाप्त होगा.  पता नहीं दशहरे के दिन रावण-वध की प्रथा कब और कैसे शुरू हो गयी,  जबकि रामचरित मानस या बाल्मीकि के रामायण में कहीं भी रावण के मारे जाने की तिथि का उल्लेख नहीं है. राम-कथा के दूसरी भाषाओं के जो ग्रंथ हैं, उन सब का आधार रामायण ही है. अतः वहां से प्रमाण खोजना प्रासंगिक नहीं होगा.
       
हां, निराला ने अपनी लम्बी कविता ' राम की शक्तिपूजा ' में ज़रूर उल्लेख किया है कि आश्विन(क्वांर) मास की दशमी तिथि को राम ने रावण का वध किया. रावण पर जब राम के सारे अस्त्र-शस्त्र बेअसर हो रहे थे तो हताश राम ने शक्ति की आराधना शुरू की. यह आश्विन मास की प्रतिपदा(प्रथम) तिथि थी. लगातार नौ दिनों तक कठिन आराधना चली. अपना एक जाप पूरा करने के बाद राम कमल का फूल देवी को चढ़ाते थे. एक दिन देवी ने फूल ही चुरा लिए. राम असमंजस में पड़ गये. तब राजीव-नयन (कमल जैसी आँखों वाले) राम ने देवी को अपनी आँखें चढ़ाने का निश्चय किया. ऐन वक्त पर शक्ति ने प्रकट होकर राम को रोक लिया और रावण पर विजय का वरदान दे दिया. दसवें दिन राम ने रावण का वध कर दिया.....निराला की इस कथा में रावण वध की जो तिथि बतायी गयी है उसका आधार क्या हो सकता है..? कदाचित निराला ने लोक-परंपराओँ को ही आधार बनाया हो..!!
        
वैसे भी लोक-भाषा में दशहरा को ' दसराहा ' कहा जाता है, खासतौर से हिन्दी क्षेत्र में. मान्यता है कि रावण की मृत्यु के बाद, इस दिन से शुभ कार्यों के लिए दसों दिशाएँ खुल जाती हैं. चार महीने वर्षाकाल में ज़्यादातर काम बन्द ही रहते हैं. दशहरे के आस-पास से ही नयी फसल का आना शुरू होता है. मौसम भी खुशनुमा होने लगता है.नवरात्रि की पूजा से ही उल्लास का वातावरण बनने लगता है.
         



बड़ी विचित्र बात है कि हज़ारों पर्वों-त्यौहारों के इस देश के नागरिकों का जीवन एकाकी, नीरस और अवसादग्रस्त होता जा रहा है. इतने रंगों के बावजूद लोगों की रंगत गायब होती जा रही है. कारण साफ हैं. हमें अपने उत्सवों को व्यापारियों से वापस लेना होगा. हमें गुझिया-खुरमी-सलोनी-खीर-सेवइंयाँ बनाने की अपनी कला को पुनर्जीवित करना होगा. केले के पत्तों और आम की टेरी से बनदनवार सजाने होंगे. हमें अपने घरों को बचाना है तो हल्दी भरे हाथों की छाप फिर लगानी होगी दीवारों पर !!

भूमध्य-रेखा पर

भूमध्य-रेखा पर 
अप्रत्याशित शान्ति होती है.

यहाँ न कोई जमता है
और न कोई पिघलता है.

इसी जगह पर
कविताएँ लिखी जाती हैं
और कथाकार पुरस्कृत होते हैं.

यहीं पर आते हैं भूकम्प
और यहीं से
पृथ्वी को साध लिया जाता है
उसके अक्ष पर.

हालाँकि यहीं पर
दोनों गोलार्धो का दबाव
सबसे अधिक होता है ।

......................................विमलेन्दु

Saturday 13 October 2012

डायरी के पन्नों से...



जब बहुत सारा खाली वक्त हो,
तब एक खाली वक्त को दूसरे खाली वक्त से भरा जाना चाहिए.

जैसे सुबह के खाली वक्त को
दोपहर के खाली वक्त से भरा जाये......
दोपहर के खाली वक्त को
शाम के खाली वक्त से भरा जाये.......
सोमवार को मंगलवार से,
जनवरी के खाली वक्त को फरवरी से.

1996 के खाली वक्त को
1997 के खाली वक्त से भरना ठीक रहेगा.....

चलो,
हम अपने खाली वक्त का हिसाब करें.......



Wednesday 10 October 2012

आवाज़ भी एक ज़गह है...!

मंगलेश डबराल की कविता छुपम-छुपाई की एक पंक्ति है—आवाज़ भी एक ज़गह है, जहां छुपा जा सकता है.....” . एक साल पहले जब जगजीत का गाना हमेशा के लिए बन्द हो गया तब से यह पंक्ति लगातार ज़हन में बनी हुई है. लगातार ये लगता रहा कि जगजीत अपनी ही आवाज़ के पीछे कहीं छुप गए हैं. उनके करोड़ों प्रशंसक अब उन्हें उनकी आवाज़ में तलाशेंगे. जगजीत को तलाशना इतना मुश्किल भी नहीं है. इतनी पारदर्शी आवाज़ के पीछे कोई छुप सकता है भला ! जगजीत की खनकदार आवाज़ और निर्दोष बच्चे-सी उनकी हँसी, अपने छुपने के सारे निशान खुद छोड़ जाती है. उनका कोई भी प्रशंसक इस शोख खनक के सहारे, उनकी आवाज़ के एकान्त में दबे पांव जाएगा और पीछे से पीठ पर धप्प से हथेली रखेगा और पकड़ लेगा जगजीत को....एक छोटी सी चौंकके साथ जगजीत का ऊपरवाला होठ थोड़ा और धनुषाकार होता जायेगा...गले की स्वर-पेटी में ज़रा सा कम्पन होगा और एक बच्चा पकड़ लिए जाने के संकोच से हँस पड़ेगा.

       
हमारे जीवन में कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें हम कभी भी जाने नहीं देना चाहते. जगजीत सिंह उन्हीं लोगों में से एक थे. करोड़ों चाहने वालों से उनका खून का कोई रिश्ता नहीं था, लेकिन जगजीत की गायकी हमारी रगों में खून की तरह दौड़ती रही. जगजीत जब ग़ालिब को गाते हुए कह रहे थे रगों में दौड़ते रहने के हम नहीं कायल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है”…तो शायद अपनी ही बात कह रहे थे.

       
आँख से टपकने का यह रूपक जगजीत की गायकी में भी घटित होता है और उनकी निज़ी ज़िन्दगी में भी. अपने कॉलेज़ के दिनों में जब जगजीत ने गायकी के अपने जुनून को अपना कैरियर बनाने की जद्दोज़हद शुरू की, तो उनकी आवाज में एक नागवार सी ख़राश मौजूद थी. इसे उनके शुरुआती एलबम्स में महसूस किया जा सकता है. जैसा कि उस ज़माने में हर नये गायक के साथ होता था, जगजीत ने भी रफी और सहगल को कॉपी करने की कोशिश की. लेकिन शुक्र है कि जगजीत को अपनी आवाज़ की रेंज को लेकर कोई मुगालता नहीं था. मौलिकता की अहमियत का उन्हें इल्म था.

       
70 के उस दौर में, जब हिन्दुस्तान में ग़ज़ल गायकी दम तोड़ती सी लग रही रही थी, जगजीत को कुछ नवाचार करना था.कुछ ऐसा खोज लेना था इस विधा में, जो इसे पुनर्जीवित कर दे. इसी खोज में जगजीत अपने जन्मस्थान, राजस्थान के श्रीगंगानगर से जालंधर-बम्बई-जालंधर की यात्राएँ करते रहे.

       
ग़ज़ल, हिन्दुस्तानी परंपरा में कोठों और महफिलों की विधा थी. उर्दू-फ़ारसी कि क्लिष्टता के कारण यह अभिजात्य वर्ग तक ही महदूद होती जा रही थी. यही इसके विलोप का मुख्य कारण था. बेगम अख्तर, नूरजहां, मेहदी हसन, तलत महमूद की तत्कालीन शैली, ग़ज़ल गायकी को आम श्रोता के दिलों में ज़गह नहीं दिलवा पाई. इनकी शास्त्रीयता हमेशा श्रोता और इनके बीच अवरोध बन जाती थी. बेशक बेगम अख्तर और मेहदी हसन का दर्जा ग़ज़ल गायकी में बहुत ऊँचा था, लेकिन लोक में उनकी व्याप्ति नहीं थी. रसिकों की नब्ज़ इनके हाथ से कहीं छूटती जा रही थी.

        
जगजीत सिंह ने इसी नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश की. जगजीत ने ग़ज़ल गायकी का लोकव्यापीकरण किया. सन् 65 से 75 तक का जो समय जगजीत सिंह के संघर्ष और उत्थान का समय था, वह भारतीय समाज में फिल्मों और फिल्मी संगीत के ज़बरदस्त प्रभाव वाला समय था. फिल्म संगीत ने हिन्दुस्तानियों के लिए संगीत के मायने ही बदल दिए थे. फिल्मी संगीत की सरलता, रफी-लता-सुरैया-सहगल की रसीली आवाज़ ने संगीत को आवाम के सुख-दुख-राग-विराग का साथी बना दिया था.

       
इसी के बीच जगजीत को अपने लिए ज़गह बनानी थी. उन्हें शास्त्रीय संगीत और फिल्म संगीत के बीच एक ऐसी ज़गह की खोज करनी थी, जहाँ गुणवत्ता भी बनी रहे और लोकप्रियता भी. यह खोज वो बड़ी सावधानी से कर रहे थे. उन्होंने शास्त्रीय संगीत की रियाज़-परंपरा को नहीं छोड़ा. स्वर-साधना और राग के शास्त्र का विधिवत संधान कर उन्होंने ग़ज़ल गायकी की बाहरी रंगत को बदलने की शुरुआत की. लेकिन इससे भी पहले उन्होंने पंजाब और राजस्थान के लोक-संगीत को आत्मसात किया. एकदम शुरू में ही पंजाबी गीतों का उनका एक एलबम भी बना था.

       
ग़ज़ल में तब तक सारंगी और तबले की ही संगत होती थी. जगजीत ने उसमें वायलिन, ड्रम जैसे पाश्चात्य वाद्यों को भी जोड़ा. संतूर, सितार, बांसुरी आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग ग़ज़ल के लिए एकदम चौंकाने वाला था. ताल में बदलाव किए बिना उन्होंने ठेका बदल दिया. जगजीत की गायकी में अगर कहीं कुछ कठिन है, तो वह है ठेका. तबले, ड्रम और कांगो से वो जिन ठेकों का इस्तेमाल अपनी शैली में करते हैं, उसे पकड़ पाना सबके वश की बात नहीं है. इसीलिए जगजीत की आसान सी लगने वाली बंदिशों को साज़ के साथ गा पाना बहुत कठिन होता है..

       
कभी-कभी एक व्यक्ति का संघर्ष, दूसरे व्यक्ति के संघर्ष से मिलकर कुछ ऐसा सृजन करता है, जो महान बन जाता है. जगजीत के उस दौर में उनके मित्रों की एक ऐसी जमात थी जिसमें लेखक, कवि, शायर, वादक आदि थे. ये सब अपने-अपने क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत थे. जगजीत ने इन्हें ही अपना साथी बनाया. सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाजली, नरेश कुमार शाद, जावेद अख्तर आदि ऐसे शायर थे जो ग़ज़ल में नये प्रयोग कर रहे थे. इन लोगों ने ग़ज़ल को फ़ारसी व्याकरण के पेंच-ओ-ख़म और फ़ारस की आब-ओ-हवा से बाहर निकाला. जगजीत ने इन्हीं शायरों की ग़ज़लों को आवाज़ देनी शुरू की. जगजीत की आवाज़ और इन शायरों की देसी भंगिमाओं में हिन्दुस्तानी जनता ने अपने माधुर्य और खट्टे-मीठे की पहचान कर ली, और जगमोहन सिंह धीमान, जगजीत सिंह बन गये.

       
लगभग 80 एलबमों में विस्तृत जगजीत की गायकी का लोगों को बेसब्री से इंतज़ार रहने लगा. एक एलबम आता और लोग अगले एलबम की गुहार लगाने लगते. किसी महफिल में कोई गाने-बजाने का प्रोग्राम बनता तो लोग जगजीत सिंह की ग़ज़लों को ही गाते.

      
जगजीत सिंह ने गाना शुरू किया तो गाते चले गये. ग़ज़लें गायीं, भजन गाये, ठुमरी-टप्पा भी गाया. हर एलबम नायाब...अपनी गायकी का सर्वोच्च शिखर उनहोंने तब छुआ, जब गुलज़ार के साथ मिलकर धरावाहिक मिर्ज़ा ग़ालिबके लिए संगीत तैयार किया. जगजीत के कम्पोजीशन और आवाज़ ने ग़ालिब की शायरी के मानी खोल दिए. ग़ालिब की जिन ग़ज़लों के अर्थ पहले खुलते नहीं थे, जगजीत के सुरों के उतार-चढ़ाव, विराम और अवकाश में वे अर्थ रौशन हो गये. शायरों के जीवन पर आधारित धारावाहिक कहकशां में जगजीत ने मख़दूम, फ़िराक, जोश मलीहाबादी, मज़ाज़ आदि शायरों की ग़ज़लों को लेकर महान संगीत रचा है. जगजीत और उनके चाहने वालों का सपना था कि लता और जगजीत की जुगलबन्दी में कुछ रचा जाये. बना भी---सजदा. लेकिन बात नहीं बनी. इसमें दोनों ही अपने शिखरों को नहीं छू पाये. लता को आमतौर पर भारत की आवाज़ कहा जाता है. उनके बाद अगर किसी को यह दर्जा दिया जा सकता है, तो वह निश्चित रूप से जगजीत ही होंगे.

        
जिस खूबी ने जगजीत को इस मुकाम तक पहुँचाया, वह थी उनकी अपनी सीमाओं की पहचान. उनकी आवाज़ की रेंज बहुत अधिक नहीं थी. उन्होंने जब भी ऊँचे स्वरों में गाने की कोशिश की तो अपनी मिठास को खो दिया. याद करिए उस नज़्म को---बोल इक तारे झन झन झन झन...”---इसमें जब ऊपर के सुर में जाते हैं तो आवाज़ फटने सी लगती है. ऐसा ही कुछ पंजाबी गीतों में हुआ है. जगजीत इसे जानते थे. इसीलिए धारावाहिकों में उन्हें कुछ गीत-ग़ज़लें दूसरे गायकों से गवानी पड़ीं. पर इससे उनकी महानता और लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ता.

       
जिस दौर में जगजीत ग़ज़ल गायकी के शिखरों को छू रहे थे, उसी समय विपत्तियां उनका इम्तहान ले रही थीं. दुर्घटना में बेटे की मौत,पत्नी चित्रा से कुछ समय का अलगाव, 2009 में बेटी मोनिका की आत्महत्या, युवावस्था का असफल प्रेम आदि कुछ ऐसी घटनाएं थीं जिनकी आँच में जगजीत तप भी रहे थे और संसार की नश्वरता का बोध भी उनके भीतर उतर रहा था. 1990 में बेटे की मौत के बाद चित्रा ने जब गाना छोड़ दिया, तो लगा कि जगजीत की गायकी का सफ़र अब खत्म होने को है. लगभग छः महीनों तक जगजीत ने भी नहीं गाया. लेकिन वो आत्मनिर्वासन से लौट आये. हालांकि अब भक्ति और आध्यात्म के स्वर ज़्यादा थे, लेकिन उनकी आवाज़ दिनोदिन एक अलौकिक नाद को प्राप्त कर रही थी. जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ रही थी, उलकी आवाज़ की स्वच्छता, पारदर्शिता और उजलापन बढ़ता जा रहा था.

       

जगजीत शायद जान गये थे कि उनकी आवाज़ ही वह ज़गह है, जहाँ सघन दुखों के दौर में वो छुप सकते थे. सिर्फ वही नहीं उनके करोड़ों प्रशंसकों के लिए भी जगजीत की आवाज़ एक ज़गह थी जहाँ छुपा जा सकता था.

डॉ. रामविलास शर्मा : परंपरा, पूर्वाग्रह और प्रगतिशीलता

आज डॉ.रामविलास शर्मा जीवित होते तो सौ साल के होते. सौ साल का होना उनके वश में नहीं था, लेकिन उन्होने जो काम किया वह तब तक न सिर्फ जीवित रहेगा बल्कि एक पूरी संस्कृति को जीवन्त रखेगा, जब तक यह सभ्यता जीवित है. रामविलास जी के अध्ययन और लेखन की शैली ऐसी थी जैसे एक हठी ऋषि तपस्या कर रहा हो. जो नित नए अँधेरों में जाता हो और वहाँ से कोई पत्थर का टुकड़ा, थोड़ी मिट्टी या किसी अजीबोगरीब वनस्पति को उखाड़ कर ले आता है.....फिर उसे तराश कर, गढ़ कर, सींचकर दुनिया को कुछ ऐसी चीज़ें दे देता है, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था.

रामविलास जी अपने पढ़ने लिखने की शुरुआत ही उन लिपियों से करते हैं जिन्हें पढ़ना संभव न था. वो उस भाषा को बूझने की कोशिश करते हैं जो अब तक अबूझ थी. और फिर खोज निकालते हैं भारतीय भाषाओं के भीतर विलुप्त सरस्वती को. वो हिन्दी भाषा के वंशवृक्ष को खोजते हुए प्राचीन भाषाओं के आदिवासी परिवार में पहुँच जाते हैं और  वहीं रम जाते हैं कुछ दिन. और जब लौटते हैं तो अपने साथ संगीत की स्वरलिपियाँ, सौन्दर्य की भंगिमाएँ और चेतना के एकदम नूतन आयाम लेकर आते हैं.

आज डॉ. रामविलास शर्मा की जन्म-शताब्दी है. वैसे भी पिछला वर्ष हिन्दी क्षेत्र के लिए एक असाधारण वर्ष इस मायने में भी रहा कि यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों का जन्म-शताब्दी वर्ष था. अज्ञेय,नागार्जुन,केदार से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्म-शताब्दी वर्ष था.. इन सब लेखकों के बीच रामविलास शर्मा इसलिए भी अलग और इकलौते हैं कि वे विशुद्ध आलोचक थे.
        
कुछ मित्रों की मंशा थी कि शताब्दी वर्ष में रामविलास जी पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो. मित्रों की यह इच्छा इसलिए भी सम्मानीय है कि हमारे हिन्दी जाति में विस्मृति की समस्या कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी है. मैं पुर उम्मीद हूँ कि हिन्दी समाज के समर्थ समीक्षक, रामविलास जी पर गंभीर और उपयोगी चर्चा करेंगे. उन पर कुछ कहने की हिम्मत करना मेरे लिए आसान नहीं था. अपनी सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर कोई मुगालता भी नहीं है. फिर भी मुझे लगा कि वो हमारे लेखक हैं और अपनी अल्पज्ञता के साथ भी उन पर बात करने का मेरा प्राकृतिक अधिकार है. इसी अधिकार-बोध के तहत मैं रामविलास जी पर कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ, इस निवेदन के साथ कि ये बातें, रामविलास जी पर विमर्श की सिर्फ प्रवेशिकाएँ ही हैं.
         
दरअसल, मार्क्सवाद के प्रति इनकी एकनिष्ठता, लगन और विपुल सृजन ने परवर्ती मार्क्सवादी लेखकों को इतनी आसानी तो दी थी कि ये किसी तरह बाज़ारवादी व्यवस्था से अपना सामंजस्य बैठा लें. रामविलास जी प्रगतिशील आंदोलन के इतने मजबूत और अडिग स्तम्भ थे कि परवर्तियों को निश्चिन्त  होने का मौका मिल जाता था.
         
अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉ.रामविलास शर्मा हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि के शीर्ष पुरुष थे. यद्यपि अपने शुरुआती साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक उपन्यास और कुछ कविताएँ भी लिखीं लेकिन उसके बाद उनका पूरा जीवन एक समालोचक की क्रमशः विकास यात्रा था. अपने इस सुदीर्घ जीवन में उन्होंने साहित्यिक कृतियों की आलोचना के साथ-साथ भारतीय समाज,दर्शन,राजनीति पर भी चिन्तन किया और भारतीय वास्तुकला,पुरातत्व,संगीत और खासतौर पर प्राचीन संगीत के आंतरिक संबन्धों की खोज का अद्वितीय कार्य किया. रामविलास जी ने प्राचीन भारतीय भाषाओं के सामाजिक विकास में भूमिका की पड़ताल करते हुए, भाषा-विज्ञान पर मौलिक काम किया है. निराला पर उनके लेखन को तो मानक माना जाता है. सिर्फ निराला ही नहीं, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी पर उनके लेखन को अगर निकाल दिया जाय तो देखिए कि इन रचनाकारों पर क्या बचता है..! भले ही ये स्थापनाएँ विवादास्पद रही हो लेकिन हिन्दी क्षेत्र में उपरोक्त लेखकों की वही छवियां आज भी मान्य हैं जो रामविलास शर्मा ने बनायीं. ऐसा भी नहीं था कि उनकी सारी छवियां स्वीकृत ही कर ली गयीं हों. सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल और मुक्तिबोध पर उनकी स्थापनाओं को आज तक नहीं स्वीकृत किया जा सका है. जितना अधिक और बहुआयामी लेखन रामविलास जी ने किया है, उसकी कल्पना हिन्दी में करना कठिन था. उनके जैसे दृढ़ निश्चयी और साधक आलोचक कम ही होते हैं.

रामविलास शर्मा ने अपने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन में जितने महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है, उनमे से कोई एक ग्रंथ ही किसी भी लेखक को अमर कर देने के लिए पर्याप्त है. विश्व के सर्वश्रेष्ठ विमर्श साहित्य के समक्ष अगर किसी भारतीय लेखक को रखा जा सकता है तो वह डॉ. रामविलास शर्मा के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकता. लेकिन हमारे ही देश में न तो उनके ठीक से मूल्यांकन की कोशिश की गई और न ही उन्हें यथोचित श्रेय मिला. इसकी सबसे बड़ी वज़ह है कि हमारी हिन्दी जाति के साहित्य में शक्तिपीठों और अखाड़ों की परंपरा रही है. रामविलास जी का कोई ध्वजवाहक नहीं रहा, क्योंकि उन्होने किसी भी समकालीन लेखक-कवि को सर्वश्रेष्ठ का प्रमाण-पत्र नहीं दिया. उन्होंने अपने किसी प्रिय के सबसे प्रबल विरोधी को निकृष्ट कोटि का भी नहीं कहा. रामविलास जी ने अपने शिष्यों को विश्वविद्यालयों या अकादमियों में भी नहीं रखवाया. इसीलिए उनका परचम लेकर चलने वाले, या उनकी जन्मशताब्दी पर धरती-आकाश एक कर देने वाले अनुयायी आज इस देश में दिखाई नहीं देते.
         
भारतीय समाज-दर्शन-साहित्य पर जितना गंभीर लेखन रामविलास जी कर गये,उसका मूल्यांकन अभी हुआ नहीं है. आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि एकदम अलग दिखती है. वे आलोचना कोअनेक साहित्यिक कृतियों के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने की प्रकृया  मानते थे. इसके साथ ही वे ईमानदारी से यह भी स्वीकार करते थे कि मुझे स्वान्तः सुखाय आलोचना में आनन्द आता है. रामविलास जी ने भले ही स्वान्तः सुखाय आलोचना लिखी हो, लेकिन इस बहाने भारतीय दर्शन, संस्कृति, भाषा और जातीय विकास के वे मर्म पाठकों के लिए खुलते हैं जिनके बारे में हमारी मनीषा में बहुत दयनीय जानकारी उपलब्ध थी. इसमें भी संदेह नहीं कि जैसे-जैसे इनके लेखन का मूल्यांकन होता जायेगा, हम और ऋणी होते जायेंगे.
          
रामविलास जी का व्यक्तित्व शास्त्रीय किस्म का था. और जैसी शास्त्रीयता के साथ विडंबना होती है, रामविलास जी की पहुँच भी आम साहित्यक लोगों तक नहीं हो पायी. इतना महत्वपूर्ण लेखन कुछ विशिष्ट पाठक वर्गों तक ही सीमित रहा. समकालीन साहित्यकारों की पीढ़ी उनहें पूजती ज़रूर है लेकिन वह प्रेम उन्हें नहीं देती जो इस कद्दावर आलोचक को मिलना चाहिए. इसकी एक वज़ह शायद यह हो सकती है कि बाद के वर्षों में उन्होने समकालीन साहित्य से अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया था. उन्होंने अतीत पर बहुत काम किया. और इसीलिए वामपन्थी विचारक उन्हें हिन्दुत्ववादी कहने से भी नहीं हिचकिचाए. वे न तो समकालीन साहित्य पढ़ते थे और न ही उस पर कुछ लिखा. रामविलास शर्मा  प्रेमचन्द और अमृतलाल नागर को क्रमशः श्रेष्ठ कथाकार मानते थे और इनके बाद इनकी सूची में कोई नाम नहीं था. इसी तरह निराला, प्रसाद, पंत, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ अच्छे कवियों की सूची भी बन्द हो जाती थी.

रामविलास शर्मा निर्विवाद रूप से मार्क्सवादी आलोचक थे, लेकिन भारत के दूसरे मार्क्सवादी विद्वानों ने हमेशा उन पर कटाक्ष किया और एक सुविचारित दूरी बनाए रखी. प्रत्यक्षतः, इस दूरी की दो वज़हें थीं. पहली, उनकी नवजागरण की अवधारणा, और दूसरा, उनका वैदिक जीवन-साहित्य से गहरा मोह. अगर उनके समग्र चिन्तन को दो भागों में विभाजित कर दें, तो पूर्वार्ध में उनका सारा चिन्तन मार्क्सवाद के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहा है. वे समाज के विकास की उन्हीं अवधारणाओं पर चलते हैं जो मार्क्स ने दीं.

रामविलास जी के चिन्तन पर 1857 की क्रान्ति का गहरा असर रहा. और वे भारत में नवजागरण की शुरुआत इसी क्रान्ति के समय से मानते हैं. इसमें दूसरे विद्वानों को ज़्यादा गंभीर आपत्ति भी नहीं थी. समस्या की वज़ह यह थी कि डॉ. शर्मा भारतीय नवजागरण में अँग्रेजों की भूमिका को साफ तौर पर नकारते हैं, और यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि भारत में नवजागरण भारतीय ज्ञान-परंपरा से ही प्रस्फुटित हुआ है. इस स्थापना के लिए प्रमाण जुटाने के लिए डॉ. शर्मा भारत के प्राचीन भाषा-परिवार, संगीत-कला और राजनीति में गहरे तक उतरते जाते हैं.

रामविलास शर्मा की यही स्थापना, भारत के दूसरे मार्क्सवादी चिन्तकों के लिए असुविधा पैदा करती है. अगर ये लोग भारतीय नवजागरण को भारतीय ज्ञान और राजनीतिक परंपरा से उद्भूत मान लेते हैं तो उनकी मार्क्सवादी आस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है. यद्यपि 1857 के गदर से ठीक चार साल पहले मार्क्स खुद ये कह रहे थे--- इंग्लैण्ड ने तो भारतीय समाज का सारे का सारा ढाँचा तोड़ डाला, और उसके नवनिर्माण के कोई लक्षण अभी तक नज़र नहीं आते. इस भाँति एक तरफ तो भारतीय जनता की पुरानी दुनिया को गई है, और दूसरी तरफ नई दुनिया मिली नहीं है. इससे उसकी वर्तमान दुखपूर्ण स्थिति और भी करुण हो जाती है. और ब्रिटिश शासन के नीचे भारत अपनी सभी प्राचीन परंपराओँ, अपने पिछले इतिहास से कट जाता है” .

अपने चिन्तन के उत्तरार्ध में वैदिक साहित्य और जीवन, खासतौर पर ऋग्वेद—के प्रति अतिशय मोह के कारण रामविलास शर्मा, मार्क्सवादी चिन्तकों के सीधे निशाने पर आ जाते हैं. हम सब जानते हैं कि भारत में वामपंथी चिन्तन और राजनीति की दरिद्रता का आलम यह है कि उसका पूरा आधार सिर्फ दक्षिणपंथियों के विरोध पर टिका हुआ है. यद्यपि दक्षिणपंथियों की वैचारिक दरिद्रता भी किसी से छुपी हुई नहीं है. इसीलिए जब रामविलास शर्मा वैदिक संस्कृति में ही सब कुछ खोज लेने की ज़िद करते हैं तो दक्षिणपंथियों को सुविधा होती है और वामपंथियों को दुविधा.

आप सब जानते हैं कि भारत की दक्षिणपंथी शक्तियां, वैदिक और पौराणिक साहित्य पर अपना एकाधिकार मानती हैं और अपने सारे तर्कों के प्रमाण यहीं से ले आती हैं. ऐसे में वामपंथियों को वेदों से दूरी बनाए रखना, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए ज़रूरी लगा. इस नाजुक समय में जब रामविलास शर्मा ने वैदिक जीवन पर एक से बढ़कर एक ग्रंथों और निबन्धों की झड़ी लगा दी तो वामपंथी चिन्तकों ने एक तरह से उन्हें अपने समाज से बहुष्कृत ही कर दिया था.
          
रामविलास जी नौजवानों की आज की पीढ़ी को एकदम भ्रष्ट मानते थे और कहते थे कि आज की पीढ़ी में संस्कार नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. मौजूदा हालात पर उनका कहना था कि सबसे पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से देश को मुक्त करो. एक नयी भाषा-नीति बनायी जानी चाहिए. हम भाषायी स्तर पर संगठित नहीं हैं, इसलिए राजनैतिक स्तर पर भी बंटे हुए हैं. इक्कीसवीं सदी के आ जाने भर से हालात् नहीं बदलेंगे, जब तक कि पूँजीवाद और साम्राज्यवादी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई तेज़ नहीं होती.
          
हमारे देश में इतिहास-लेखन की एक दिक्कत यह रही है कि जितने भी इतिहासकार हैं उन्होने सारा लेखन अँग्रेजी में किया. ये लेखक हिन्दी में लिखने वालों का उपहास भी करते हैं. अतः हिन्दी के साहित्यकारों को इतिहास लेखन की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. रामविलास शर्मा ऐसे लेखकों में अग्रणी थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ये लिखते रहे और कुछ महत्वपूर्ण काम अधूरे छोड़करचले गये. दुनिया के बड़े से बड़े लेखक से भी कुछ न कुछ छूट जाता है. इतना विपुल लेखन और विवेचन करने के बावजूद रामविलास जी से लोकजीवन छूट गया. पूर्वार्ध में नवजागरण और मार्क्सवाद में लगे रहे, और उत्तरार्ध में वैदिक जीवन उन पर छाया रहा. सबके बीच लोक कहीं फिसल गया.
         
एक महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होने अपना सारा लेखन हिन्दी में किया, जबकि अँग्रेजी में भी उनका समान अधिकार था.इससे अपनी भाषा के प्रति उनकी आस्था और आग्रह को पहचाना जा सकता है. रामविलास जी ने हिन्दी भाषा के विकास के लिए नारे नहीं लगाये, बल्कि भाषा, संस्कृति और समाज का चरित्र-निर्माण कैसे करती है, इसका बहुत तार्किक और सोदाहरण विश्लेषण किया. भाषा-विवेचन उनके सम्पूर्ण आलोचना कर्म की मुख्य-प्रतिज्ञा है.इसी केन्द्र के चारों ओर रामविलास जी ने अपने समस्त चिन्तन की परिधि तैयार की.
        
हिन्दी क्षेत्र के लेखकों के सामने अब रामविलास शर्मा के लेखन का मूल्यांकन करने की एक बड़ी चुनौती है. हालांकि आज कोई समर्थ मूल्यांकनकर्ता हिन्दी में दिखाई नहीं पड़ रहा है. सामर्थ्य से भी बड़ी दिक्कत प्रवृत्ति की है. अतीत की ओर देखना हमारी वामपंथी मानसिकता को स्वीकार नहीं, और दक्षिणपंथियों के हाथ में उन्हें सौंप देने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा.