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Thursday 30 May 2013

अँधेरे के खिलाफ अँधेरे की लड़ाई : नक्सलवाद-1




छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं की नृशंस हत्या ने शायद पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर देश का ध्यान नक्सली समस्या की ओर खींचा है. अधिकांश लोग पूछने लगे हैं कि ये रेड कॉरीडोर क्या है, सलवां जुडूम किस जानवर का नाम है, माओ किस बिल्ली की आवाज़ है, और ये चारू मजूमदार और कानू सान्याल कौन थे ? जो ज्यादा नहीं जानते वो मार्क्स को ही गालियां देने लगे हैं और सारी मुसीबत की जड़ उन्हें ही ठहरा रहे हैं.

 कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह कह रहे थे—“ बस्तर में पिछले 30-40 सालों से नक्सली हैं। वहां पर गरीबी व पिछड़ेपन का मूल कारण भी नक्सली ही हैं। विकास की परिभाषा है कि वहां पर सड़कें बनें, स्कूल बनें, आंगनवाड़ी बने, बिजली हो, संचार व्यवस्था हो, लेकिन नक्सली सभी का विरोध करते हैं। वे विकास करने ही नहीं देना चाहते है। इस देश में विकास और लोकतंत्र के सबसे बड़े विरोधी कोई हैं तो वे नक्सली ही है।“ उधर नक्सली कहते हैं कि सरकार के शोषण के खिलाफ ये लालक्रान्ति है. 2050 तक हम इस देश में मज़दूरों का शासन स्थापित कर देंगे. इन दो तस्वीरों के बीच हम कैसे समझें नक्सलवाद को ?

आप जानते होंगे कि  नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। ‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है।नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।

क्सलवाद भटका हुआ आंदोलन है । यह अधैर्य की उपज है । यह पशुयुग की वापसी का उपक्रम है जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। । तथाकथित समाजवादी मूल लक्ष्यों की साधना से न अब किसी कमांडर को लेना देना है न वैचारिक सूत्रधारों को । उसके मेनीफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडित-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है । वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है । वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है । कम से कम छत्तीसगढ़ के दर्पण में नक्सलवाद का तो यही विकृत चेहरा नज़र आता है।

नक्सली मानते हैं कि वे जनता के अधिकारों के पहरुए हैं और उन्हें शोषण से मुक्त करना ही उनका लक्ष्य है तो वे उसी शोषित जनता की हत्या की राजनीति क्यों चलाते हैं । यहाँ उनकी यह करतूत क्या उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से नहीं जोड़ देती है? नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभ होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसी शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है । अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही (अ)वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है ।

इसकी वैचारिकी के लिए नक्सली माओ की आड़ लेते हैं. सच्चाई तो यही है कि माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में संलग्न रहता था । फिर ये नक्सली किन एजेंडों पर काम कर रहे हैं और किस तरह की नैशनलिज्म की राह पर चल रहे हैं, किसी से छुपा नहीं है अब । नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो । लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते । यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते । यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्ट्राचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्य़ा है ।

दूसरी तरफ नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही हैं वह आम जनता की समझ से बाहर कतई नहीं है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है । उन्हें समय पर सबक सिखाना भी जानती है पर नक्सलवाद का सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि उसके परिणाम में केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है ।

उधर नक्सलियों की जनजातियों के अतिरिक्त, पुलिस, न्याय व्यवस्था, जनप्रतिनिधियों और मीडिया में अच्छी पकड़ बन गई है। जब कभी पुलिस मुखबिर, दलाल आदि को गिरफ्तार करती है तो नक्सलियों के पे-रोल पर काम करने वाले सिविल सोसायटी, एनजीओ के सदस्य मानवाधिकार हनन की गुहार लगाकर अदालत को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं। पिछले वर्ष 9 सितम्बर को एस.पी.ओ. लिंगाराम जब एस्सार और नक्सलियों के बीच बिचौलिये की भूमिका में धरा गया तो कई राज खुले। इस सत्य को स्वीकारने के बजाय नक्सलियों ने अपने कथित मानवाधिकार हनन के नेटवर्क के जरिये स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण से प्रेस कान्फ्रेंस कराकर प्रशासन को दागी बनाने का कुचक्र किया। हिमांशु ने बयान दिया कि लिंगाराम ने नोयडा स्थित इंटरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया में पढ़ाई की और उसकी संलिप्तता नहीं है। विगत एक दशक से छत्तीसगढ़ में रह रहा हिमांशु वनवासी चेतना आश्रम के बैनर तले नक्सलियों की मदद करता है। उसकी पैदल यात्रा का वनवासियों ने काफी विरोध भी किया था। पुलिस के मुताबिक, ऐसे कई लोग नक्सलियों के पे-रोल पर काम करते हैं। पी.यू.सी.एल. लंबे अर्से से मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर वाम उग्रवादियों की मदद करता है।

बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माओवादी द्वारा इन दिनों सैकड़ों की संख्या में 10 से 16 साल की उम्र के बच्चों को हथियार चलाने और बारूदी सुरंग बिछाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.जिस उम्र में बच्चों के हाथों में क़लम और किताब होने चाहिए थे, इन बच्चों के हाथों में घातक हथियार हैं.झारखंड के लगभग हर ज़िले में नक्सलियों का ऐसा बाल दस्ता है, जिनमें 18-20 बच्चे शामिल हैं. कुछ इलाके में तो ऐसे बाल नक्सली दस्ते की संख्या दर्ज़नों में है.नक्सली दस्ते में शामिल अधिकांश बच्चे दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के हैं.

चतरा इलाके में सक्रिय सब ज़ोनल कमांडर आकाश कहते हैं- "अशिक्षा, ग़रीबी और शोषण की मार सहने वाले इन बच्चों को हम संगठन में शिक्षा देने का भी काम कर रहे हैं. आम तौर पर इन्हें हथियारबंद दस्ते में सक्रिय भूमिका नहीं दी जाती. लेकिन ज़रुरत के हिसाब से इन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देना ही पड़ता है."आकाश का दावा है कि इन बच्चों को नक्सली संगठन में शामिल करके वो एक ऐसी क्रांतिकारी फ़ौज़ का निर्माण कर रहे हैं, जो आने वाले दिनों में शारीरिक और मानसिक रुप से हर ख़तरे का सामना कर पाने में सक्षम होगा.

नक्सलियों की इस तथाकथित लालक्रान्ति का एक जबरदस्त आर्थिक पहलू भी है. कुछ दिनों पहले तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तरप्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।

अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा।इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढ़िया से ताड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है।ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माघ्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं।

आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है।जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके सिकंजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनाया जाता है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाता है।

उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओस्टि के अंतगर्त काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी 300 करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है।छत्तीसगढ़ में बड़ी-बड़ी कंपनियों के नक्सली संगठनों से रिश्तों के उजागर होने के बाद अब पुनः सरकार और जनता को सलवा जुडूम की प्रासंगिकता याद आ रही है।

आपको याद होगा कि जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम की शक्ल में एक अभिनव प्रयोग किया था. इसमें नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए आदिवासियों को ही तैयार करने की कार्ययोजना बनाई गई. आदिवासियों में ही विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) बना दिए गए. उन्हें प्रशिक्षण और हथियार दिए गए. इसका कुछ असर भी दिखा. छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियाँ कम हुईं. लेकिन आरोप लगे कि ये SPO  खुद आदिवासियों पर अत्याचार करने लगे हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं नें इस पर आपत्ति करते हुए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी. अभी नकसलियों का शिकार हुए महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम अभियान के कर्ता-धर्ता थे.

 अवैध ढंग से धन देकर नक्सली बहुल क्षेत्रों में खनन और ऊर्जा कंपनियाँ भोले-भाले आदिवासियों और अन्य वर्गों का शोषण करती हैं। सर्वहारा वर्ग का कथित संरक्षण का दंभ भरने वाले नक्सली इनका दोहरा शोषण करते हैं। ऐश करने का माध्यम बनाकर नक्सली वीरप्पन शैली में खुशहाल जिंदगी जीते हैं। हिंसा का ताण्डव कर पुलिस व प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को वहाँ जाने से रोकते हैं। अकूत वन संपदा का दोहन करने पहुँचे उद्योगपतियों से लाखों रूपये की वसूली के बदले वे उन्हें अवैध तरीके से करोड़ों रूपये का लाभ पहुँचाते हैं। सर्वहारा और पूंजीवाद के विकृत घालमेल से उत्पन्न विद्रूप तस्वीर अत्यंत भयावह है। कमीशनखोरी के कारण सरकार के प्रतिनिधि भी अति प्रसन्न हैं। विकास के नाम पर राशि में वृध्दि ही उनकी संपन्नता को बढ़ाता है। छत्तीसगढ़ सरकार की एस.आई.टी. द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दंडकारण्य कमेटी की वार्षिक आय पांच करोड़ है, जिसमें तीन करोड़ हर साल खर्च हो जाते हैं। दो करोड़ रूपये प्रतिवर्ष सेंट्रल कमेटी को भेजा जाता है। सलवा जुडूम की वजह से आय का स्त्रोत घटा है। सरकारी उत्सव से लेकर आयोजनों को विफल करने की नक्सली रणनीति अपने साम्राज्य के क्षेत्र को बढ़ाना और निरंकुश शासन व्यवस्था को कायम रखने का है।

उद्योगपतियों से अकूत धनराशि देने के एक मामले के भंडाफोड़ से सरकार और जनता सभी चकित हैं। जांच रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि एस्सार कम्पनी ने जान-बूझकर ठेकेदारों को अतिरिक्त भुगतान किया, जो नक्सलियों को देने के लिये थी। इसकी सीबीआई जांच की मांग उठने के साथ सियासी राजनीति गर्मा गई है। स्टील क्षेत्र में बड़े निवेश कर रही विवादास्पद कंपनी एस्सार की 267 किलोमीटर लंबी मेटल पाइपलाइन दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) से आरंभ होकर मलकानगिरि (उड़ीसा) से गुजरते हुए विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश) में समाप्त होती है।
एनएमडीसी के साथ अनुबंध के बाद एस्सार ने पाइपलाइन बिछाई जिससे प्रतिटन 550 रूपये की जगह अब उसे 80 रूपये व्यय करने पड़ते हैं। इस कार्य को पूरा करने में बाधक न बनने के लिये नक्सलियों को करोड़ों रूपये दिये गये। इन क्षेत्रों में धंधा करने के लिये यह आवश्यक हो गया है।पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने स्वीकार किया था कि अनेक उद्योगपतियों से ‘शांति’ के एवज में वाम उग्रवादी धन वसूलते हैं।

इस तस्वीर को देखने के बाद आप खुद सोचिए कि क्या इसे मुक्ति का संघर्ष कहा जा सकता है. नक्सली वनवासियों के नाम पर अपना कारोबार चला रहे हैं. वो वनवासियों तक कोई सरकारी मदद पहुचने नहीं देते . वनवासियों की दशा सुधर जायेगी तो इनका धंधा ही बन्द हो जायेगा. राजनीतिक दल इन आदिवासियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं. भ्रष्ट अफसरशाही खाज में कोढ़ का काम करती है. इन दो पाटों के बीच पिस रहा है वह आदिवासी समाज, जिसका हितैषी होने का दावा नक्सली भी करते हैं और सरकार भी. 

तो क्या इन जंगलों में बसने वाले निर्दोष लोगों के जीवन में कभी सुबह आयेगी ? आयेगी तो कैसे आयेगी ? क्या ये कभी इस महान देश में अपने पूरे नागरिक अधिकारों और गौरव के साथ रह पायेंगे ? क्या इनके साथ होने वाला छल खत्म होगा ? नक्सलियों का यह जाल कैसे कटेगा, और सरकर के भेड़ियों से कैसे बचेंगे ये निर्दोष वंचित लोग ? अभी इन सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं ।                                                                              

( जारी......आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है........) 
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Friday 24 May 2013

सच पूछो तो

( प्रथम पुण्यतिथि पर, भगवत रावत को याद करते हुए....)


एक ऐसी जगह खोजता रहा जीवन भरजहाँ बैठकर बेफिक्री से
लिख पाता एक नाम
और कोई यह न पूछता
कि यह किसका नाम है.

हरदम चक्कर खाते चौबीसों घंटों में
इतना सा समय चाहिए था मुझे
जिसे आसानी से छिपाकर रख लेता
अपनी जेब में
और कोई यह न पूछता
उसे मैने कैसे खर्च किया.

भाषा से पटी पड़ी दुनिया में
कुछ ऐसे शब्द चाहिए थे मुझे जिन्हें
किसी अबोध लड़की के हाथों
गोबर-लिपी ज़मीन पर
चौक की तरह पूर देता
और कोई यह न पूछता
इसका है क्या अर्थ.

सच पूछो तो
इतने से कामों के लिए आया था पृथ्वी पर
और भागता रहा यहाँ से वहाँ ।

.................................भगवत रावत

Wednesday 8 May 2013

पुनर्पाठ : खिलेगा तो देखेंगे / विनोद कुमार शुक्ल

पढ़ने के जब संस्कार बन रहे थे तो कुछ ऐसी रचनाएँ हाथ लगी जिनकी अनुगूँज हमेशा मन में बनी रही. इधर मन हुआ कि ऐसी किताबों और प्रिय लेखकों को फिर से पढ़ा जाये और देखा जाये कि अपनी समझ में कुछ विस्तार हुआ कि नहीं. पुनर्पाठ के अन्तर्गत कुछ लेखकों की प्रिय रचनाओं पर लिखने की योजना है. यह लिखना इस तरह का होगा कि मैने उन्हें कैसे समझा. इस योजना में फिलहाल हजारी प्रसाद द्विवेदी, मंटो, विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल, काशीनाथ सिंह, हरिशंकर परसाई, भगवत रावत, मार्खेज़, मैत्रेयी पुष्पा, विष्णु खरे आदि लेखकों की रचनाएं हैं. शुरुआत अपने सर्वाधिक प्रिय और हिन्दी के सबसे बड़े समकालीन लेखक विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास खिलेगा तो देखेंगेसे कर रहा हूँ.

मिलान कुन्देरा ने उपन्यास की कला का ज़िक्र करते हुए एक जगह लिखा है—
उपन्यास यथार्थ का नहीं अस्तित्व का परीक्षण करता है. अस्तित्व घटित का नहीं होता, वह मानवीय संभावनाओं का आभास है. जो मनुष्य हो सकता है, जिसके लिए वह सक्षम है. उपन्यास-लेखक खोज के जरिए मानवीय संभावनाओं के अस्तित्व का नक्शा बनाता है. चरित्र और दुनिया, संभावनाओं के द्वारा जाने जाते हैं.”  खिलेगा तो देखेंगेउपन्यास की मुख्य-प्रतिज्ञा भी दरअसल आदिवासी ग्राम्य-जीवन के अस्तित्व का नक्शा खोजना ही है.

खिलेगा तो देखेंगे स्वरूप की दृष्टि से, उपन्यास के प्रचलित रूप से बहुत अलग और एक रचनात्मक प्रयोग है. इसकी आत्मा में कथा के बजाय आदिवासी इलाके के दृश्य हैं. ऐसा इलाका जो सामजिक बन पाने की प्रक्रिया में अभी भी सामुदायिक है. समुदाय में लोगों और चीज़ों का रिश्ता पूरी तरह अलग नहीं हुआ होता. मनुष्य और मनुष्येत्तर में इतनी दूरी नहीं होती, जितनी तथाकथित सभ्य समाज में है. यह आदिम जीवन का लक्ष्य है. विनोद कुमार शुक्ल विचारों से नहीं, स्रोतों से सामुदायिक जीवन को पकड़ते हैं. दृश्य और स्थितियाँ, इन्द्रियों के के जरिए इन्द्रियों से कितनी तटस्थ रह सकती हैं, इसको आज़माने का प्रयोग किया गया है इस उपन्यास में. नदी-नाले, पोखर, तालाब, जंगल, चन्द्रमा, सूरज, तारे, आकाश और घर—सब चीज़ों की तरह हैं. घर में ताला लगाकर सुरक्षा है, तो पेड़ में ताला लगा लें और रह जायें ! ताला अगर सुरक्षा है तो उसे कहीं भी होना चाहिए. इलाके के जीवन में सृष्टि में गांव और गांव का आकाश आता था”.

खिलेगा तो देखेंगे में चरित्र सूत्रता का क्रम नहीं है. विनोद कुमार के शब्दों में, गांव का इलाका, ज़माने से कोई होता हुआ कार्यक्रम है.”  कार्यक्रम कैसा ? दुख और तकलीफ का, जहाँ कार्यक्रम अच्छी तरह प्रस्तुत होता है, वहाँ तालियाँ बज जाती हैं. इलाके में परिवर्तन होते होते पास के मुसुआ गाँव में रेल्वे स्टेशन खुल गया. ट्रेन से लोगों का उतरना चढन होने लगा. इस प्रक्रिया में सामान की जगह परिवार होता था. बसें भी उधर आनें लगीं. फर्क यह पड़ा कि गाड़ी बस में यात्रा करना, और दुखों की तरह एक और दुख हो गया. मज़बूरी में उठाने के और दुख थे. यात्रा का दुख जुड़ गया. कैसे स्टेशन में खड़ी ट्रेन से परिवार उतर जाता, कुछ सभ्य सामाजिक मनचले लोग बहाने से जवान लड़कियों को उसी के अन्दर रोक लेते और ट्रेन छूट जाती. लड़कियाँ ट्रेन में में चिल्लाती रहतीं, माता-पिता नीचे रोते रहते. लड़कियाँ दिन से रात में चली जातीं और माता पिता दिन में खोजते रहते. अधेड़ अवस्था में वे लौटकर बच जातीं. प्लेटफार्म में अधेड़ में अधेड़ पागल औरत अधनंगी लेटी होती. उसके शरीर के चिथड़े में एक आकार के दाग होते. मक्खियां भिनभिनातीं पर वह गर्भवती न होती.इस तरह के ब्यौरे रचना में दृश्य और वृत्तान्त की तरह हैं. दृश्यों, सूचनाओं, प्रसंगों, स्मृतियों और कल्पना से बुने बाल-सुलभ तानों-बानों की मालाएँ हैं.

खिलेगा तो देखेंगे एक अमनोवैज्ञानिक सामूहिक जीवन-वृत्त है. सर्वत्र क्रियात्मक छवियां हैं. प्रत्येक चीज़ के साथ हलचल है. पर्यावरण जीवन के साथ गुंथा है. एक कोने से देखने पर दूर तक क्षितिज दिखता है. इन्द्रियां दृश्यों को उतारती हैं. चीज़ें पेश होती हैं, फिर फैन्टसी द्वारा चीजें फैल जाती हैं. उदाहरण के लिए, डेरहिन को खोजने पहाड़ी पर पहुँचे सिपाही, थानेदार और जिवराखन के बीच एक सूचना के आधार पर यहाँ मुख्य वाद्य सितार था...कि डेरहिन की जाँघ में बिच्छू गोदा हु है. इस मुख्य वाद्य के साथ थानेदार का हृदय तबले की तरह धक् धक् धिन्ना कर रहा था. एक मुर्दा स्त्री की शिनाख्त के लिए जाँघ में चीन्हा देखने के बदले जिन्दा में देखना अच्छा होता. कहा जा रह था कि रेलगाड़ी में बैठकर ऐसी सामाजिकता आ गई थी कि स्त्री के ऊपर किया गया अत्याचार, अत्याचार नहीं हो रहा था. निर्वस्त्र करन छिलका उतार कर आम खन थ. गदराये आम को रसीला बनाया जाता और चोंपी तोड़कर चूस लिया जाता.

 
अनेक प्रसंग हैँ जहाँ आदिवासी समुदाय में घुसते सभ्यता के परिवर्तन की विकृतियों को लेखक नें क्रीड़ाभाव से विदग्ध बना दिया है. आसान सी बातों में गहरी विदग्धता का यह नया अभिव्यक्ति अंदाज है. फणींश्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल और परती परिकथा में कुछ ऐसे प्रयोग किए थे, जहाँ अभिप्राय लेखक का न हो, चीजें अपना अभिप्राय खुद कहें. परती परिकथा में परती जमीन की परीकथाओं नें उसे जीवित पात्र बना दिया था. चिड़ियां-पशु, कीड़े-मकोड़े यथार्थ का हिस्सा थे. मनुष्येत्तर चीजें उपन्यास में जीवन की तरह थीं.

विनोद कुमार शुक्ल के गद्य की सरलता अपेक्षाकृत ज्यादा संश्लिष्ट और ऋजु है. क्रियाएँ संभावना में फैलती हैं. मसलन गुरूजी के बेटे को भूख लगती है तो बेहोश हो जाता है. पास में सिक्का रहे तो कुछ खा लेता है. माँ की दी हुई दो रोटियाँ हैं तो खाकर बच जाता है. पिता को पता है कि
भूख लगे और भोजन मिले ‘ – इस समीकरण से गुलाम बनना पड़ेगा. पूर्वजों को उन्होंने ऐसा ही देखा, खुद अनुभव किया और पुत्र भी स्टेशन की माल ढुलाई में फँस गया. अतः पुत्र को शिक्षा देते हैं और अभ्यास कराते हैं—भूखे रहकर पढ़ने का अभ्यास करो. पाठशाला जाओ, खेलो और भूखे पेट सो जाओ. भूखे उठो, मुंह हाथ धोओ. नहाओ, पढ़ने बैठ जाओ. दिनचर्या में खाना खाना भूल जाओ. और यह आप्त वाक्य है—भूखा रहने की जितनी आदत होगी, स्वाभिमान से जीना उतना आसान होता होगा. पिता और पुत्र इस उपन्यास में तयशुदा आदमी हैं. चरित्र चित्रण के लिए लेखक जीवन की बहुत सी चीज़ें छोड़ देता है. यहाँ चीज़ें यथासंभव नही छूटी हैं. उद्धृत वृत्तान्त के भीतर जीवन के अनन्त दृश्यों की कहानियाँ हैं. यह ट्रेजडी की तरह करुणा उपजाने की बात नहीं है, नियति की तरह होते रहने की प्रस्तुति है.


उपन्यास में वृत्तान्त का जो केन्द्र है उसे गाँव कहा गया है. पड़ोस के कुछ गाँवों के नाम है लालपुर, हल्दी बड़गाँव मुसुआ आदि. लोगों में से कुछ के नाम हैं—घासीराम, जिवराखन, डेरहिन, पुसऊ, मनहर. इसके अलावा सब गुरूजी, कोटवार, मुन्ना, मुन्नी, पत्नि, शाला निरीक्षक, ग्रामसेवक, या स्टेशन मास्टर के रूप में हैं वृत्तान्त में. कहीं किसी के नाम न होने से कुछ नहीं खटकता. जातिवाचक जानकारी मामूली है मसलन, राउत, साव, देवर. समुदाय में ये चीज़ें अर्थ नहीं रखतीं. समुदाय का एक ही पोट्रेट होता है. स्थितियों के विरोधाभास उसी में खुलते हैं. दृश्यजगत की क्रियाएँ आभ्यन्तर प्रदेश की जानकारी देती हैं. विनोद जी गाँव के लक्षण को कई बार रेखांकित करते हैं. रेखांकन में अनुभव किया हुआ नतीज़ा होता है. जैसे गाँव के लोगों में सामान्य बातचीत में मीठा व्यंग्य और नाटकीयता होती है.
दुख में उपेक्षा की फीकी हँसी हँस देते हैं. हँसी इतनी फीकी होती है कि उसके बाद रोना आता. अधिकतर रोने में हँसी थी. कभी-कभी सचमुच रो देते. पचास पैसे की जलेबी की मिठास कई दिनों तक रहती, कभी-कभी पाँच-छः महीने तक रहती. यह उपन्यास के भीतर निबन्ध-कला है.

यूरोप में रोमैन्टिसिज्म और इनटलैक्चुअलिज्म के आन्दोलन आये. व्यक्ति अस्मिता की तलाश के नाम पर अस्तित्ववाद आया. शोषण के विरुद्ध मार्क्सवाद ने प्रतिज्ञा की. भारत के आदिम जीवन में पहले से ही ये प्रवृत्तियाँ सहज और कोमल ढंग से मौजूद हैं. संकेत और इशारे से ये चीज़ें उपन्यास में खुलती हैं.

खिलेगा तो देखेंगे में प्रेम-प्रसंगों की अभिव्यक्तियाँ दिलचस्प हैं. जिवराखन और डेरहिन पति-पत्नि हैं. डेरहिन सुन्दर है. वह गाय बाँध सकती है. रेडियो चलाना और बन्द करना वह नहीं जानती. जिवराखन रेडियो चालू करता और बन्द भी. डेरहिन किसी युवा को बार-बार रेडियो बन्द करने को न कहती, प्रेम होने के डर से. जिवराखन सोचता सोचता कि डेरहिन रेडियो चलाना सीख लेती तो वह प्रेम करता. जिवराखन से उधार खाये गाँव के लोग उसके आगे-पीछे होते हुए भी वे रेडियो बन्द करने का साहस नहीं करते. डेरहिन ऐसे आदमी की तलाश में थी जिसने जिवराखन से उधार न लिया हो. वह मेले में हो आई. वह पहाड़ी की ओर चली गई. मुक्त आदमी के साथ वह जिवराखन से मुक्त हो गई. वह पकड़ में नहीं आई. गुरूजी अपनी सयानी ज़िन्दगी में कभी-कभी मुन्ना-मुन्नी के जन्म के पहले वाले समय में जा कर पत्नी को देखते. इन रहवासियों की प्रेम व्यंजनाएँ उन्हीं को पता हैं, जो वहाँ हैं. उपन्यास लेखक ने इसे इस तरह कहा—जब किसी एक से प्रेम करने का बंधन हो, चाहे प्रेम न हो, तो दूसरे से प्रेम होने का डर गृहस्थी की चौहद्दी को मजबूत बनाता है.

उपन्यास में अनुच्छेद जैसी चीजें नहीं हैं. कुछ-कुछ दूरी पर अन्तराल हैं. अन्तराल में आगामी कार्यवाही की कुछ पंक्तियां उद्धृत होती हैं. पूरा वृत्तान्त निरंतरता में है. रचना में निरन्तरता का सूत्र कथन है—निरन्तरता समय का गोत्र है. जैसे भारद्वाज गोत्र होता है. विनोद जी के शीर्षक प्रायः रचना की निरन्तरता से होते हैं. जैसे—वह आदमी चला गया गरम कोट पहन कर विचार की तरह”. यह एक आविष्कृत गद्य का उदाहरण है. कविता में गद्य और गद्य में कविता का अद्भुत खेल विनोद जी के यहाँ है. मूल जीवन की आदिम अभिव्यक्ति, आविष्कृत गद्य में कुशल कला कर्म है. यह आविष्कार को सहज बना देता है. स्थानीय रंगत ऊपर आ जाती है. दोतरफा संवाद चमत्कार पैदा करते हैं. जैसे, गुरूजी ने पेड़ से कहा और पेड़ ने गुरूजी से कहा. सामुदायिक जीवन के तौर तरीकों और रीति-रिवजों को भाषा में ढालकर लेखक नया रूप दे देता है. जैसे, एक रिवाज के अनुसार दूल्हे की माँ दुलहिन के आने पर कुएँ में कूदने का अभिनय करती है. दूल्हा उसे भोजन और कपड़ा देने का वचन देता है. सेवा करने की प्रतिज्ञा भी. इस आश्वासन पर वह कुएँ से निकल आती है. आदत की तरह ये रिवाज जीवन को बाँधे रखते हैं. भैंस में चढ़ कर तालाब नहाना, जलेबी खाना, बाँसुरी बजाना, मेले में जाना और बात बात में मिथकीय जीवन में चले जाना—विनोद कुमार शुक्ल आविष्कृत गद्य में, दृश्य की तरह संभव बनाते हैं.

खिलेगा तो देखेंगे उपन्यास के जरिए आदिवासी गाँवों का गठन देखें तो न जातियाँ उठकर आती हैं और न वर्गवाद. सामन्ती जीवन प्रणाली के व्यवस्थित अवशेष भी नज़र नहीं आते. इतिहास के द्वारा जिस तरह सामाजिक विकास के चिन्ह गाँवों में प्राप्त किए  जाते हैं, वे इस जीवन में नहीं हैं. सामुदयिक मिथकीय विश्वासों, प्रथाओं और चलन की स्मृतियों में ये जीते हैं. इनके यहाँ स्वतंत्रता के अनुभव अपने हैं. डेरहिन के बहाने स्त्रियों की बंधन मुक्ति की प्रथा देखी जा सकती है. इनका अपना ढाँचा और उसके भीतर का आन्तरिक संतरण है. उपन्यास में गुरूजी, जिवराखन, स्टेशन मास्टर, थानेदार इस आन्तरिक संतरण में हस्तक्षेप हैं. पाठशाला, स्टेशन, थाना और दूकान के प्रभाव यहाँ के जीवन में अलग अलग पड़ते हैं. विनोद कुमार शुक्ल  इस जीवन में संचित तमाम लक्षणों का आंकलन दर्शाते और भावी संभावनाओं का अनुमान करते है. यथार्थ के प्रति किसी निर्धारित दृष्टि से जीवन की आलोचना का मार्ग नहीं अपनाते. उपन्यास की खूबी यह है कि इस जीवन की स्वयं की जो अभिव्यक्ति प्रणाली है, उसे रचना के कैनवास में ग्रहण करने का प्रयत्न किया गया हैं. और भाषा में रूपक और अन्योक्ति का जो बर्ताव है वह शास्त्रीय नहीं, लेखक का अपना चमत्कार है.