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Wednesday 8 May 2013

पुनर्पाठ : खिलेगा तो देखेंगे / विनोद कुमार शुक्ल

पढ़ने के जब संस्कार बन रहे थे तो कुछ ऐसी रचनाएँ हाथ लगी जिनकी अनुगूँज हमेशा मन में बनी रही. इधर मन हुआ कि ऐसी किताबों और प्रिय लेखकों को फिर से पढ़ा जाये और देखा जाये कि अपनी समझ में कुछ विस्तार हुआ कि नहीं. पुनर्पाठ के अन्तर्गत कुछ लेखकों की प्रिय रचनाओं पर लिखने की योजना है. यह लिखना इस तरह का होगा कि मैने उन्हें कैसे समझा. इस योजना में फिलहाल हजारी प्रसाद द्विवेदी, मंटो, विश्वनाथ त्रिपाठी, निर्मल वर्मा, उदय प्रकाश, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल, काशीनाथ सिंह, हरिशंकर परसाई, भगवत रावत, मार्खेज़, मैत्रेयी पुष्पा, विष्णु खरे आदि लेखकों की रचनाएं हैं. शुरुआत अपने सर्वाधिक प्रिय और हिन्दी के सबसे बड़े समकालीन लेखक विनोदकुमार शुक्ल के उपन्यास खिलेगा तो देखेंगेसे कर रहा हूँ.

मिलान कुन्देरा ने उपन्यास की कला का ज़िक्र करते हुए एक जगह लिखा है—
उपन्यास यथार्थ का नहीं अस्तित्व का परीक्षण करता है. अस्तित्व घटित का नहीं होता, वह मानवीय संभावनाओं का आभास है. जो मनुष्य हो सकता है, जिसके लिए वह सक्षम है. उपन्यास-लेखक खोज के जरिए मानवीय संभावनाओं के अस्तित्व का नक्शा बनाता है. चरित्र और दुनिया, संभावनाओं के द्वारा जाने जाते हैं.”  खिलेगा तो देखेंगेउपन्यास की मुख्य-प्रतिज्ञा भी दरअसल आदिवासी ग्राम्य-जीवन के अस्तित्व का नक्शा खोजना ही है.

खिलेगा तो देखेंगे स्वरूप की दृष्टि से, उपन्यास के प्रचलित रूप से बहुत अलग और एक रचनात्मक प्रयोग है. इसकी आत्मा में कथा के बजाय आदिवासी इलाके के दृश्य हैं. ऐसा इलाका जो सामजिक बन पाने की प्रक्रिया में अभी भी सामुदायिक है. समुदाय में लोगों और चीज़ों का रिश्ता पूरी तरह अलग नहीं हुआ होता. मनुष्य और मनुष्येत्तर में इतनी दूरी नहीं होती, जितनी तथाकथित सभ्य समाज में है. यह आदिम जीवन का लक्ष्य है. विनोद कुमार शुक्ल विचारों से नहीं, स्रोतों से सामुदायिक जीवन को पकड़ते हैं. दृश्य और स्थितियाँ, इन्द्रियों के के जरिए इन्द्रियों से कितनी तटस्थ रह सकती हैं, इसको आज़माने का प्रयोग किया गया है इस उपन्यास में. नदी-नाले, पोखर, तालाब, जंगल, चन्द्रमा, सूरज, तारे, आकाश और घर—सब चीज़ों की तरह हैं. घर में ताला लगाकर सुरक्षा है, तो पेड़ में ताला लगा लें और रह जायें ! ताला अगर सुरक्षा है तो उसे कहीं भी होना चाहिए. इलाके के जीवन में सृष्टि में गांव और गांव का आकाश आता था”.

खिलेगा तो देखेंगे में चरित्र सूत्रता का क्रम नहीं है. विनोद कुमार के शब्दों में, गांव का इलाका, ज़माने से कोई होता हुआ कार्यक्रम है.”  कार्यक्रम कैसा ? दुख और तकलीफ का, जहाँ कार्यक्रम अच्छी तरह प्रस्तुत होता है, वहाँ तालियाँ बज जाती हैं. इलाके में परिवर्तन होते होते पास के मुसुआ गाँव में रेल्वे स्टेशन खुल गया. ट्रेन से लोगों का उतरना चढन होने लगा. इस प्रक्रिया में सामान की जगह परिवार होता था. बसें भी उधर आनें लगीं. फर्क यह पड़ा कि गाड़ी बस में यात्रा करना, और दुखों की तरह एक और दुख हो गया. मज़बूरी में उठाने के और दुख थे. यात्रा का दुख जुड़ गया. कैसे स्टेशन में खड़ी ट्रेन से परिवार उतर जाता, कुछ सभ्य सामाजिक मनचले लोग बहाने से जवान लड़कियों को उसी के अन्दर रोक लेते और ट्रेन छूट जाती. लड़कियाँ ट्रेन में में चिल्लाती रहतीं, माता-पिता नीचे रोते रहते. लड़कियाँ दिन से रात में चली जातीं और माता पिता दिन में खोजते रहते. अधेड़ अवस्था में वे लौटकर बच जातीं. प्लेटफार्म में अधेड़ में अधेड़ पागल औरत अधनंगी लेटी होती. उसके शरीर के चिथड़े में एक आकार के दाग होते. मक्खियां भिनभिनातीं पर वह गर्भवती न होती.इस तरह के ब्यौरे रचना में दृश्य और वृत्तान्त की तरह हैं. दृश्यों, सूचनाओं, प्रसंगों, स्मृतियों और कल्पना से बुने बाल-सुलभ तानों-बानों की मालाएँ हैं.

खिलेगा तो देखेंगे एक अमनोवैज्ञानिक सामूहिक जीवन-वृत्त है. सर्वत्र क्रियात्मक छवियां हैं. प्रत्येक चीज़ के साथ हलचल है. पर्यावरण जीवन के साथ गुंथा है. एक कोने से देखने पर दूर तक क्षितिज दिखता है. इन्द्रियां दृश्यों को उतारती हैं. चीज़ें पेश होती हैं, फिर फैन्टसी द्वारा चीजें फैल जाती हैं. उदाहरण के लिए, डेरहिन को खोजने पहाड़ी पर पहुँचे सिपाही, थानेदार और जिवराखन के बीच एक सूचना के आधार पर यहाँ मुख्य वाद्य सितार था...कि डेरहिन की जाँघ में बिच्छू गोदा हु है. इस मुख्य वाद्य के साथ थानेदार का हृदय तबले की तरह धक् धक् धिन्ना कर रहा था. एक मुर्दा स्त्री की शिनाख्त के लिए जाँघ में चीन्हा देखने के बदले जिन्दा में देखना अच्छा होता. कहा जा रह था कि रेलगाड़ी में बैठकर ऐसी सामाजिकता आ गई थी कि स्त्री के ऊपर किया गया अत्याचार, अत्याचार नहीं हो रहा था. निर्वस्त्र करन छिलका उतार कर आम खन थ. गदराये आम को रसीला बनाया जाता और चोंपी तोड़कर चूस लिया जाता.

 
अनेक प्रसंग हैँ जहाँ आदिवासी समुदाय में घुसते सभ्यता के परिवर्तन की विकृतियों को लेखक नें क्रीड़ाभाव से विदग्ध बना दिया है. आसान सी बातों में गहरी विदग्धता का यह नया अभिव्यक्ति अंदाज है. फणींश्वरनाथ रेणु ने मैला आँचल और परती परिकथा में कुछ ऐसे प्रयोग किए थे, जहाँ अभिप्राय लेखक का न हो, चीजें अपना अभिप्राय खुद कहें. परती परिकथा में परती जमीन की परीकथाओं नें उसे जीवित पात्र बना दिया था. चिड़ियां-पशु, कीड़े-मकोड़े यथार्थ का हिस्सा थे. मनुष्येत्तर चीजें उपन्यास में जीवन की तरह थीं.

विनोद कुमार शुक्ल के गद्य की सरलता अपेक्षाकृत ज्यादा संश्लिष्ट और ऋजु है. क्रियाएँ संभावना में फैलती हैं. मसलन गुरूजी के बेटे को भूख लगती है तो बेहोश हो जाता है. पास में सिक्का रहे तो कुछ खा लेता है. माँ की दी हुई दो रोटियाँ हैं तो खाकर बच जाता है. पिता को पता है कि
भूख लगे और भोजन मिले ‘ – इस समीकरण से गुलाम बनना पड़ेगा. पूर्वजों को उन्होंने ऐसा ही देखा, खुद अनुभव किया और पुत्र भी स्टेशन की माल ढुलाई में फँस गया. अतः पुत्र को शिक्षा देते हैं और अभ्यास कराते हैं—भूखे रहकर पढ़ने का अभ्यास करो. पाठशाला जाओ, खेलो और भूखे पेट सो जाओ. भूखे उठो, मुंह हाथ धोओ. नहाओ, पढ़ने बैठ जाओ. दिनचर्या में खाना खाना भूल जाओ. और यह आप्त वाक्य है—भूखा रहने की जितनी आदत होगी, स्वाभिमान से जीना उतना आसान होता होगा. पिता और पुत्र इस उपन्यास में तयशुदा आदमी हैं. चरित्र चित्रण के लिए लेखक जीवन की बहुत सी चीज़ें छोड़ देता है. यहाँ चीज़ें यथासंभव नही छूटी हैं. उद्धृत वृत्तान्त के भीतर जीवन के अनन्त दृश्यों की कहानियाँ हैं. यह ट्रेजडी की तरह करुणा उपजाने की बात नहीं है, नियति की तरह होते रहने की प्रस्तुति है.


उपन्यास में वृत्तान्त का जो केन्द्र है उसे गाँव कहा गया है. पड़ोस के कुछ गाँवों के नाम है लालपुर, हल्दी बड़गाँव मुसुआ आदि. लोगों में से कुछ के नाम हैं—घासीराम, जिवराखन, डेरहिन, पुसऊ, मनहर. इसके अलावा सब गुरूजी, कोटवार, मुन्ना, मुन्नी, पत्नि, शाला निरीक्षक, ग्रामसेवक, या स्टेशन मास्टर के रूप में हैं वृत्तान्त में. कहीं किसी के नाम न होने से कुछ नहीं खटकता. जातिवाचक जानकारी मामूली है मसलन, राउत, साव, देवर. समुदाय में ये चीज़ें अर्थ नहीं रखतीं. समुदाय का एक ही पोट्रेट होता है. स्थितियों के विरोधाभास उसी में खुलते हैं. दृश्यजगत की क्रियाएँ आभ्यन्तर प्रदेश की जानकारी देती हैं. विनोद जी गाँव के लक्षण को कई बार रेखांकित करते हैं. रेखांकन में अनुभव किया हुआ नतीज़ा होता है. जैसे गाँव के लोगों में सामान्य बातचीत में मीठा व्यंग्य और नाटकीयता होती है.
दुख में उपेक्षा की फीकी हँसी हँस देते हैं. हँसी इतनी फीकी होती है कि उसके बाद रोना आता. अधिकतर रोने में हँसी थी. कभी-कभी सचमुच रो देते. पचास पैसे की जलेबी की मिठास कई दिनों तक रहती, कभी-कभी पाँच-छः महीने तक रहती. यह उपन्यास के भीतर निबन्ध-कला है.

यूरोप में रोमैन्टिसिज्म और इनटलैक्चुअलिज्म के आन्दोलन आये. व्यक्ति अस्मिता की तलाश के नाम पर अस्तित्ववाद आया. शोषण के विरुद्ध मार्क्सवाद ने प्रतिज्ञा की. भारत के आदिम जीवन में पहले से ही ये प्रवृत्तियाँ सहज और कोमल ढंग से मौजूद हैं. संकेत और इशारे से ये चीज़ें उपन्यास में खुलती हैं.

खिलेगा तो देखेंगे में प्रेम-प्रसंगों की अभिव्यक्तियाँ दिलचस्प हैं. जिवराखन और डेरहिन पति-पत्नि हैं. डेरहिन सुन्दर है. वह गाय बाँध सकती है. रेडियो चलाना और बन्द करना वह नहीं जानती. जिवराखन रेडियो चालू करता और बन्द भी. डेरहिन किसी युवा को बार-बार रेडियो बन्द करने को न कहती, प्रेम होने के डर से. जिवराखन सोचता सोचता कि डेरहिन रेडियो चलाना सीख लेती तो वह प्रेम करता. जिवराखन से उधार खाये गाँव के लोग उसके आगे-पीछे होते हुए भी वे रेडियो बन्द करने का साहस नहीं करते. डेरहिन ऐसे आदमी की तलाश में थी जिसने जिवराखन से उधार न लिया हो. वह मेले में हो आई. वह पहाड़ी की ओर चली गई. मुक्त आदमी के साथ वह जिवराखन से मुक्त हो गई. वह पकड़ में नहीं आई. गुरूजी अपनी सयानी ज़िन्दगी में कभी-कभी मुन्ना-मुन्नी के जन्म के पहले वाले समय में जा कर पत्नी को देखते. इन रहवासियों की प्रेम व्यंजनाएँ उन्हीं को पता हैं, जो वहाँ हैं. उपन्यास लेखक ने इसे इस तरह कहा—जब किसी एक से प्रेम करने का बंधन हो, चाहे प्रेम न हो, तो दूसरे से प्रेम होने का डर गृहस्थी की चौहद्दी को मजबूत बनाता है.

उपन्यास में अनुच्छेद जैसी चीजें नहीं हैं. कुछ-कुछ दूरी पर अन्तराल हैं. अन्तराल में आगामी कार्यवाही की कुछ पंक्तियां उद्धृत होती हैं. पूरा वृत्तान्त निरंतरता में है. रचना में निरन्तरता का सूत्र कथन है—निरन्तरता समय का गोत्र है. जैसे भारद्वाज गोत्र होता है. विनोद जी के शीर्षक प्रायः रचना की निरन्तरता से होते हैं. जैसे—वह आदमी चला गया गरम कोट पहन कर विचार की तरह”. यह एक आविष्कृत गद्य का उदाहरण है. कविता में गद्य और गद्य में कविता का अद्भुत खेल विनोद जी के यहाँ है. मूल जीवन की आदिम अभिव्यक्ति, आविष्कृत गद्य में कुशल कला कर्म है. यह आविष्कार को सहज बना देता है. स्थानीय रंगत ऊपर आ जाती है. दोतरफा संवाद चमत्कार पैदा करते हैं. जैसे, गुरूजी ने पेड़ से कहा और पेड़ ने गुरूजी से कहा. सामुदायिक जीवन के तौर तरीकों और रीति-रिवजों को भाषा में ढालकर लेखक नया रूप दे देता है. जैसे, एक रिवाज के अनुसार दूल्हे की माँ दुलहिन के आने पर कुएँ में कूदने का अभिनय करती है. दूल्हा उसे भोजन और कपड़ा देने का वचन देता है. सेवा करने की प्रतिज्ञा भी. इस आश्वासन पर वह कुएँ से निकल आती है. आदत की तरह ये रिवाज जीवन को बाँधे रखते हैं. भैंस में चढ़ कर तालाब नहाना, जलेबी खाना, बाँसुरी बजाना, मेले में जाना और बात बात में मिथकीय जीवन में चले जाना—विनोद कुमार शुक्ल आविष्कृत गद्य में, दृश्य की तरह संभव बनाते हैं.

खिलेगा तो देखेंगे उपन्यास के जरिए आदिवासी गाँवों का गठन देखें तो न जातियाँ उठकर आती हैं और न वर्गवाद. सामन्ती जीवन प्रणाली के व्यवस्थित अवशेष भी नज़र नहीं आते. इतिहास के द्वारा जिस तरह सामाजिक विकास के चिन्ह गाँवों में प्राप्त किए  जाते हैं, वे इस जीवन में नहीं हैं. सामुदयिक मिथकीय विश्वासों, प्रथाओं और चलन की स्मृतियों में ये जीते हैं. इनके यहाँ स्वतंत्रता के अनुभव अपने हैं. डेरहिन के बहाने स्त्रियों की बंधन मुक्ति की प्रथा देखी जा सकती है. इनका अपना ढाँचा और उसके भीतर का आन्तरिक संतरण है. उपन्यास में गुरूजी, जिवराखन, स्टेशन मास्टर, थानेदार इस आन्तरिक संतरण में हस्तक्षेप हैं. पाठशाला, स्टेशन, थाना और दूकान के प्रभाव यहाँ के जीवन में अलग अलग पड़ते हैं. विनोद कुमार शुक्ल  इस जीवन में संचित तमाम लक्षणों का आंकलन दर्शाते और भावी संभावनाओं का अनुमान करते है. यथार्थ के प्रति किसी निर्धारित दृष्टि से जीवन की आलोचना का मार्ग नहीं अपनाते. उपन्यास की खूबी यह है कि इस जीवन की स्वयं की जो अभिव्यक्ति प्रणाली है, उसे रचना के कैनवास में ग्रहण करने का प्रयत्न किया गया हैं. और भाषा में रूपक और अन्योक्ति का जो बर्ताव है वह शास्त्रीय नहीं, लेखक का अपना चमत्कार है.


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