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Saturday 28 September 2013

84 बरस की लता और सदियों का सम्मोहन !

अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज करते हुए, संकोची, भाग्यवादी, ईश्वरपरायण, पित़ृहीन, दृढ़ संकल्पी लता मंगेशकर आज चौरासी बरस की हो गईं. लता का जीवन यह बताता है कि भारत जैसे देश के, मुम्बई फिल्म उद्योग जैसे वातावरण में भी एक लड़की किन शिखरों को छू सकती है. दरअसल लता कोई दैवीय चमत्कार नहीं थीं, बल्कि वो मानवीय प्रयत्नों की पराकाष्ठा हैं. ये लता ही थीं जिन्होंने फिल्म संगीत को उसका वाज़िब हक दिलवाते हुए वैश्विक पहचान और स्वीकृति दिलवायी. भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश पर तो वो आज भी राज कर रही हैं. साथ ही दुनिया भर में बसे अप्रवासी भारतीयों में उनके गीत एक नास्टैल्जिया पैदा करते हैं. ये अप्रवासी लता की आवाज़ के सहारे ही अपने देश की हवा, पानी, मिट्टी, जवानी और बचपन से जुड़े हुए हैं.
        
लता अगर भारत में न होकर किसी यूरोपीय देश, खासतौर से फ्रांस या जर्मनी में होतीं तो अब तक उन पर अनेक शोध हो चुके होते, जीवनियां लिखी जा चुकी होतीं. एक जमाने में यह खबर उड़ी थी कि अमेरिका ने भारत सरकार से यह पेशकश की थी कि मरणोपरान्त लता का गला उन्हें शोध के लिए दे दिया जाय, कि आखिर यह मिठास पैदा कैसे होती है ! खैर ! लेकिन भारतीय प्रशंसक लता को लेकर कभी भावुकता में गुम नहीं हुए. यद्यपि लता की आवाज़ हमें बहुत रचनात्मक रूप से भावुक करती है. दूसरी तरफ लता के कुछ गीत ऐसे हैं जिन्हें आधी रात के समय सुनकर पागल होने या यह दुनिया छोड़ देने की इच्छाएँ पैदा होने लगती हैं. लता के इस असर की स्वीकारोक्ति फिल्म गेटवे ऑफ इंडिया के एक गीत में है. इसमें संगीत पर मुग्ध ओम प्रकाश सपने में सजन से दो बातें, इक याद रही इक भूल गएगीत को ग्रामोफोन पर बार-बार सुनता है और विक्षिप्त होने लगता है. यह गीत, संगीतकार मदन मोहन की संभावनाओं का शिखर था, लेकिन लता के बिना इस शिखर को छुआ नहीं जा सकता था.
        
भारतीय उपमहाद्वीप में लता की लोकप्रियता इतनी चमत्कारिक है कि बच्चा-बच्चा उनके जीवन के बारे में जानता है. आप किसी से भी पूछिए वो बता देगा कि लता का जन्म इन्दौर के मराठी परिवार में 28 सितंबर 1929 को हुआ था. लता की माँ दीनानाथ मंगेशकर की दूसरी पत्नी थीं. जन्म के समय लता का नाम हेमारखा गया था. बाद में पिता दीनानाथ ने अपने एक नाटक भाव बन्धनकी पात्र लतिका से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया. वस्तुतः इनका उपनाम हार्डीकरथा. पिता दीनानाथ ने ही अपने मूल स्थान(मंगेशी, गोवा) की पहचान को जीवित रखने के लिए मंगेशकर उपनाम रख लिया था. लता की संगीत की आरंभिक शिक्षा स्वाभाविक रूप से पिता से ही शुरू हुई. फिर कच्ची उम्र में ही लता ने अमानत अली खान से संगीत सीखना शुरू कर दिया. आगे चलकर अमानत खान देवासवाले, पं. तुलसीदास शर्मा और बड़े गुलाम अली खाँ से भी सीखती रहीं. लता ने गाने के साथ ही 70 के दशक में कुछ मराठी फिल्मों के लिए संगीत भी तैयार किया. पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी संगीत-नाटक मंडली चलाते थे. लेकिन उनकी मंडली, सिनेमा में आवाज़ और संगीत के आगमन के कारण बर्बाद हो गई.
         
दीनानाथ शराब के आदी हो गए और चले गए. सिनेमा ने पारसी और अन्य थियेटर शैलियों को भी खत्म सा कर दिया. जिस सिनेमा ने दीनानाथ को बर्बाद किया, उन्हीं की बेटी फिल्म संगीत की साम्राज्ञी बन गई. लता जीवन भर जी जान से अपने पिता को भारतीय संगीत में प्रतिष्ठित करने में लगी रहीं, और अपने प्रचार के प्रति हद से ज्यादा उदासीन रहीं. लेकिन तब भी, जिसे बड़े गुलाम अली खान ने तीन मिनट की जादूगरनीकहा था, वो लगभग 66 बरसों से हमारे दिल, दिमाग, गले, होंठ, कान में बसी हुई हैं. वो अपने पिता का बकाया पिछले साठ सालों से फिल्म संगीत से वसूल रही हैं. लता के प्रभाव का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अगर किसी धुन को सुनने के बाद उनकी त्यौरियों पर एक भी बल पड़ जाता था तो नामी से नामी संगीतकार भी शर्मिन्दा हो जाते थे. दोयम दर्जे के संगीतकारों की तो पूछिए मत.
       
लता का चौरासी बरस का हो जाना हमें विचलित नहीं करता. क्योंकि आज भी किसी संगीतकार को जब कोई कठिन धुन गवानी होती है या कोई अविस्मरणीय गीत रचना होता है तो वह लता की शरण में जाता है. यद्यपि अब लता जब ऊँचे सुरों में जाती हैं तो उनकी आवाज में कुछ रेशे निकल आते हैं, लेकिन कोई सर्वनाश नहीं हो जाता. चौरासी बरसों ने लता की आवाज़ के साथ वह नहीं किया जो उसने सुरैय्या, शमशाद बेगम, नूरजहाँ या इकबाल बानों के साथ कर दिया था.
        
फिल्म संगीत को आदर दिलवाने का काम सहगल ने शुरू किया था. बाद में मुकेश, मन्ना डे, किशोर और सबसे अधिक रफी ने इस काम को आगे बढ़ाया. लेकिन भारतीय फिल्म संगीत को वैश्विक पहचान और हमारे सुख-दुख-राग-विराग-जनम-मरण का अनिवार्य साथी बनाया लता मंगेशकर ने. लता की साधना और उपलब्धियों से उनके समय के साथी गायक भी प्रेरित होते थे. संसार में भारतीय संगीत अगर अपनी पूरी ताकत से प्रतिष्ठित है तो वह शास्त्रीय गायकों की वजह से नहीं. हमें ईमानदारी से यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि यदि हमारा लोकप्रिय फिल्म संगीत न होता तो पाश्चात्य पॉप के तूफान में हमारे शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अपने तानपूरे और तबलों के साथ उड़ गए होते. जब पूरी दुनिया में मैडोना और माइकल जैक्शन का दिग्विजयी आभियान चल रहा था, उस समय उपमहाद्वीप में भारतीय फिल्म संगीत अपनी पूरी ताकत से उसके मुकाबिल था. इसी का नतीज़ा है कि नाचने-गाने और मस्ती के लिए भले ही पॉप संगीत बजा लिया जाय, लेकिन दुखों का पहाड़ पिघलाने और खुशियों में उबाल लाने के लिए हमें अपने फिल्म संगीत की ही आँच चाहिए होती है. और यह आँच पैदा करती है एक लाल किनारे वाली सफेद साड़ी पहने हुए शर्मीली औरत. यह औरत पिछले 66 सालों से गाती जा रही है. और उसके साथ संसार के कोने-कोने में न जाने कौन-कौन गा रहा है !
             
लता पर मुग्ध रहते हुए हमें गुलाम हैदर के एहसान को भी नहीं भूलना चाहिए. भले ही लता ने तेरह की उम्र में मराठी फिल्म पाहिली मंगला गौर में गा लिया था, लेकिन इस साँवली और मरियल सी लड़की में लता को गुलाम हैदर ने ही खोजा था. उस लता को जो करोड़ों लोगों को न सोने देती है न जागने देती है. गुलाम हैदर तो लगभग भुला दिए गए, लेकिन लता को भुलाना रहती दुनिया तक संभव नहीं होगा.
        
यह अमरत्व लता को आसानी से नहीं मिला. इसके लिए उन्हें मीरा बनना पड़ा. पिता की मृत्यु के बाद पूरे परिवार की परवरिश का जिम्मा तो उठा ही लिया था. उन्होने अपनी निजी लालसाओं और सुखों को भी होम कर दिया. लता उन अर्थों में सुन्दर नहीं थीं जिनसे हम किसी स्त्री को देखते हैं, लेकिन लता के करोड़ों प्रेमी आज भी हैं. 1950-55 के बीच जब राजसिंह डूँगरपुर उनके जीवन में नहीं थे, तब भी सी. रामचन्द्र, नौशाद, अनिल विश्वास, मदन मोहन, चितलकर, शंकर-जयकिशन जैसे कई पुरुष उन पर मोहित रहे हैं. लेकिन लता ने अपना जीवन संगीत और पिता की स्मृतियों को संजोने में समर्पित कर दिया था. उन्होने राग-द्वेष के जीवन से पारगमन करके, संगीत में समाधि लगा ली. उनकी साधना का फल यह निकला कि उनकी पूरी देह ही उनकी आवाज़ बन गई.
       
पचास के दशक के मध्य में भारतीय फिल्म संगीत और फिल्मों में संवेदना के स्तर पर एक शालीन परिवर्तन हो रहा था. सहगल, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल, सुरेन्द्र दुर्रानी, के.सी. डे, जगमोहन, काननबाला, जोहराबाई, जूथिका राय, अमीरबाई कर्नाटकी जैसे गायक-गायिकाएँ अचानक पुराने लगने लगे. इनकी आवाजें अटपटी और करुणा में भी हास्य पैदा करने वाली लगीं. 1945-46 के आसपास हिन्दी फिल्मों में चकाचौंध पैदा करने वाले परिवर्तन रहे थे. संवेदना, सोच, तकनीक और आस्वाद—सब कुछ बदल रहा था. भारतीय फिल्म-कला वयस्क और अंतर्राष्ट्रीय हो रही थी. इसी समय लता, रफी, मन्ना डे, हेमन्त कुमार, नौशाद, मदन मोहन आदि भारतीय संगीत-रसिकों के संस्कार बदल रहे थे.
        
इस सुदीर्घ और प्रदीप्त संगीत साधना में लता किन किन रुपों में आयीं हमारे सामने. बच्ची के रूप में, किशोरी की तरह, नायिका की तरह......यानी एक स्त्री जिन जिन रूपों में घटित हो सकती है, सब में. लता की आवाज़ ने ब्याहता, परित्यक्ता, साध्वी, विधवा, विरहिणी, नौकरानी, पटरानी, कोठेवाली, पतिव्रता आदि नारियों की भावनाओं को समय समय पर जिया. स्त्री की सम्पूर्णता को लेकर वो करोड़ों पुरुषों की आकांक्षाओं में बस गयीं, तो न जाने कितनी अवसादग्रस्त स्त्रियों को जीवनदान देती रहीं. लता की आवाज़ में ऐन्द्रिकता और मांसलता नहीं है. उनकी आवाज़ में एक पवित्र समर्पण है. वहीं उनकी बहन आशा की आवाज़ में मांसलता और अधिकार भाव है. याद कीजिए बुड्ढा मिल गया गीत में लता की आवाज़ कितनी अटपटी लगती है. आशा के गीत मोरे अंग लग जा बालमा....’  वाला असर क्या लता की आवाज़ में आ सकता था !
               
ऐसा नहीं था कि शुरू से ही लता में ऐसा चमत्कार था. मजबूर से लेकर लाडली तक लता की आवाज में साफ तौर पर एक कच्चापन था. लेकिन इसके बाद सी. रामचन्द्र और नौशाद ने उनकी आवाज़ को इस कदर सँवारा कि पाँच सालों के भीतर ही दूसरी गायिकाएं दृश्य से गायब हो गयीं. लता को लेकर यह बहस भी चली कि उन्होने किसी दूसरी गायिका को पनपने नहीं दिया. यह इमानदारी से सोचने की बात है कि लगभग 21 साल की उम्र में क्या उनके पास संगीत की दुनिया की इतनी ताकत आ गई होगी कि वो अपने से वरिष्ठ गायिकाओं को चुप करवा सकतीं ?

                



लता उस भारतीय स्त्री की आवाज़ हैं जो हर पुरुष के भीतर कस्तूरी की तरह छुपी रहती है. जिसे पुरुष जन्म लेने के साथ ही खोजने लगता है. लता न सिर्फ हमारा अभिमान हैं, बल्कि हमारी जीवनीशक्ति भी हैं. आधी रात को हमारे अस्तित्व पर उग आये प्रश्नचिन्ह का जवाब हैं लता के गीत. हमारे बचपन, यौवन, बुढ़ापे की सदाबहार साथी लता की आवाज़ तब तक रहेगी जब तक इस धरती पर मनुष्य है.

Thursday 19 September 2013

जिस आवाज़ को सुनने वाला कोई न हो

जिस आवाज़ को
सुनने वाला कोई न हो
उसे गुम हो जाना चाहिए
अपनी ही स्वरपेटी में ।

उसे नहीं देखना चाहिए
सात स्वरों का समन्दर
और हवा अगर कान में कुछ कहे
तो उसे अनसुना कर देना चाहिए ।

जिस आवाज़ को
सुनने वाला कोई न हो
उसे बन्द कर लेने चाहिए
सारे खिड़की दरवाज़े
और रौशनी के सारे सूराखों में
डाल देनी चाहिए
पिघली हुई मोम ।

उसे बैठना चाहिए कुछ देर
अपनी ही आवाज़ के अँधेरे में ।

इसी अँधेरे में मिलेंगे
कुछ ऐसे लोग
जिनकी ज़ुबानें
काट ली गई थीं
एक मौन जुलूस में
शामिल होने के अपराध में ।

जिस आवाज़ को
सुनने वाला कोई न हो
उसे शामिल हो जाना चाहिए
इन्हीं बेज़ुबान लोगों के मौन में,
नक्शे के मुताबिक
उसे चलते जाना चाहिए
अँधेरे की रौशनी में
जंगलों और पहाड़ों के बीच से ।


उसे तब तक
कोई सवाल नहीं करना चाहिए
जब तक उसके बेज़ुबान साथी
आवाज़ों के किले पर
उसे फहरा नहीं देते
विजय पताका की तरह ।

Wednesday 11 September 2013

संतन को कहाँ सीकरी सों काम !




पिछले दिनों आसाराम की रंगबाज़ी और बैकुण्ठ-प्रवास पर पूरे देश का मीडिया एकाग्र रहा। यह जगजाहिर हो चुका है कि आसाराम पर आरोप है कि उन्होंने अपने ही एक शिष्य की नाबालिग पुत्री का यौन शोषण किया। यद्यपि इस प्रकार के यौन शोषण संबंधी आरोप आसाराम पर के लिए नए नहीं हैं। वैसे भी एक संतों का यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार किया जाना हमारे देश के लिए कोई चौंकाने वाली घटना नहीं है। और भी कई स्वयंभू संत, मौलवी, पादरी, मुनि व ज्ञानी भाई जैसे तथाकथित धर्मगुरु पहले भी यौन शोषण,  हत्या, ज़मीनों पर नाजायज़ कब्ज़े जैसे विभिन्न अपराधों में आरोपी रह चुके हैं।
                    
जब भी इस तरह के संतों का दिव्यलोक उजागर होता है, मीडिया में इस बात को लेकर बहस छिड़ती है कि आख़िर दूसरों को उपदेश व प्रवचन देने वाले ऐसे तथाकथित संत स्वयं आपराधिक व अनैतिक गतिविधियों में क्यों शामिल पाए जाते हैं। जिन संतों को उनके अंधभक्त शिष्य भगवान का दर्जा देने लग जाते हों, जिनके चित्र उनके अनुयायी अपने घरों के मंदिरों में, घर की दीवारों यहां तक कि अपने गले के लॉकेट में तथा जेब में रखने लगते हों ऐसे पूज्यसंतों की विभिन्न अपराधों में संलिप्तता के समाचार मिलने के बाद उनके शिष्यों व अनुयाईयों पर आख़िर क्या गुज़रती होगी?  क्या हमारे समाज को ऐसे ढोंगी,पापी व अपराधी लोगों को धर्मगुरु का दर्जा देकर उन्हें सिर पर बिठाना चाहिए? और इन सबसे बड़ा प्रश्र यह है कि धर्म प्रचारक बने बैठे यह स्वयंभू संत धर्म की इज़्ज़त बढ़ा रहे हैं या उसे संदिग्ध बना रहे हैं ?

आसाराम सहित उनके समर्थकों ने व उन्हें समर्थन देते आ रहे तथाकथित हिंदुत्ववादी संगठनों व उनके नेताओं ने देश को यह कहकर गुमराह करने की कोशिश की कि आसाराम पर झूठे आरोप लगाकर हिंदू धर्म को बदनाम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ स्वयंभू हिंदूवादी नेताओं ने कहा कि-योजनाबद्ध तरीक़े से हिंदू संतों को झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है। मुझे नहीं मालूम कि आसाराम ने पीडि़ता नाबालिग़ लडक़ी के साथ क्या व्यवहार किया। परंतु यह बात तो दुनिया सुन ही रही है कि एक नाबालिग लडक़ी होने के बावजूद आसाराम के शिष्य की इस नाबालिग पुत्री ने उनपर यौन शोषण के गंभीर व घिनौने आरोप लगाए हैं। और निश्चित रूप से प्रत्येक अपराधी की तरह आसाराम भी इन आरोपों से बचने का प्रयास करते हुए स्वयं को बेगुनाह बता रहे हैं।
                            
आख़िरकार न तो आसाराम के समर्थक संगठनों का कोई दांवपेंच काम आया न ही आसाराम की मनगढ़ंत बातों पर किसी ने अपने कान धरे। क़ानून ने अपना काम किया। पुलिस ने पीडि़ता की एफ़ आईआर दर्ज की और बड़े ही नाटकीय ढंग से काफ़ी हिला-हवाली और बहानेबाज़ी का सामना करने के बाद जोधपुर पुलिस ने उन्हें उनके इंदौर स्थित आश्रम से गिरफ्तार कर लिया और अदालत ने उन्हें जेल भेज दिया।
सवाल यह है कि आसाराम के साथ उनपर लगे आरोपों के बाद जो कुछ भी हो रहा है क्या उससे हिंदू धर्म की बदनामी हो रही है? या फिर आसाराम अथवा इन जैसे दूसरे तथाकथित स्वयंभू सतों द्वारा जिस प्रकार तरह-तरह की आपराधिक गतिविधियों में उनके शामिल होने के मामले प्रकाश में आते हैं उनसे हिंदू धर्म बदनाम होता है?

वास्तविक घटनाक्रम क्या था इस विषय में सच्चाई तो केवल पीडि़ता नाबालिग़ लडक़ी या आसाराम को ही पता है। फिर आख़िर उमा भारती जैसी महिला नेता किस आधार पर आसाराम को बेगुनाह बता डालती हैं? अपने इन अंधभक्तों की ही तरह आसाराम ने भी अपने बचाव में कई अस्त्र चलाए। उनमें एक हथियार यह भी इस्तेमाल किया कि उन्हें सोनिया गांधी व राहुल गांधी के कहने पर फंसाया जा रहा है। एक और चाल उसने अपनी इसी बात के समर्थन में यह चली कि वे मिशनरी के द्वारा धर्म परिवर्तन के विरोधी थे इसलिए उन्हें यह दिन देखने पड़ रहे हैं।
         
बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि हिन्दू धर्म को कौन बदनाम कर रहा है  आज पूरी दुनिया में इस्लाम पर संकट व बदनामी के बादल मंडरा रहे हैं। मुस्लिम जगत में इस विषय पर यह कहा जा रहा है कि इस्लाम पर आए संकट के पीछे पश्चिमी देशों की साजि़श शामिल है। मज़े की बात तो यह है कि यही बातें उन तथाकथित इस्लामपरस्तों द्वारा भी की जा रही हैं जोकि मुसलमान का रूप धारण कर दिन-रात केवल आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं। जो ताकतें मानव बम से बेगुनाह लोगों की आए दिन हत्याएं करवा रही हों उनका यह कहना है कि इस्लाम को दूसरी ताकतें नुकसान पहुंचा रही हैं,हास्यास्पद व्युत्पत्ति है । यहां भी सवाल यही उठता है कि जिस इस्लाम में किसी एक बेगुनाह की मौत को पूरी मानवता की हत्या की संज्ञा दी गई हो, जिस इस्लाम में जीव-जंतु तो क्या पेड़-पौधों को भी बेवजह काटने या उखाड़ फेंकने के लिए मना किया गया हो उस धर्म में ख़ूनरेज़ी व हत्याओं का खेल खेलने वाले स्वयंभू इस्लामी ठेकेदार इस्लाम की बदनामी का कारण हैं या फिर पश्चिमी शक्तियां अथवा दूसरे उदारवादी मुस्लिम जगत के लोग?

इन संतों व उपदेशकों को भी यह बात समझनी चाहिए कि उनके अनैतिक व आपराधिक क्रियाकलाप व उनकी सांसारिक गतिविधियां धर्म को बदनाम कर रही हैं न कि उनके विरुद्ध कोई साजि़श रची जा रही है। दूसरों को मोहमाया से दूर रहने की सीख देने वाले ये कर क्या रहे हैं ! मायामोह की ऐसी जकड़न क्यों है !  सत्संग भवनों के नाम पर प्रापर्टी डीलिंगके व्यापार में शामिल रहना, धर्म व आस्था के नाम पर अपने साथ जुडऩे वाले अपने भक्तों की भीड़ को उपभोक्ता समझ कर उनके साथ व्यवसायिक रिश्ते जोडऩा, अपने शिष्यों व अनुयाईयों की बहन-बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाने का प्रयास करना, गद्दी की ख़ातिर हिंसा यहां तक कि हत्या तक में शामिल पाया जाना  तथा धर्म के नाम पर अपने साम्राज्य का निरंतर विस्तार करते जाना-- क्या यही संत स्वभाव है ? जिन्हें धर्म की बदनामी का भय है, उन्हें किसी बलात्कारी अथवा अपराधी धर्मगुरु का बचाव करने के बजाए आम लोगों को ऐसे पाखंडियों से दूर रहने व इनसे बचने की सलाह देनी चाहिए।
           
ऐसे अपराधी प्रवृति के लोगों को क़तई यह अबसर और अधिकार नहीं देना चाहिए कि वे व्याभिचार, ज़मीन-जायदाद तथा धन संपदा के साम्राज्य का विस्तार करने में जुटे रहें। धर्म की भी यह कैसी विडंबना है कि कहीं शराब का अवैध धंधा करने वाला धर्मगुरु बना बैठा है तो कहीं कोई साईकल का पंक्चर बनाने वाला व्यक्ति लोगों को जीने के सलीक़े सिखा रहा है। ऐसे स्वयंभू संतों की पृष्ठभूमि ख़ुद ही यह बता देती है कि इस व्यक्ति की वास्तविकता आखिर क्या है?

दरअसल धर्म की बदनामी का कारण ऐसे ही कलयुगी संत व धर्मोपदेशक हैं न कि उनकी आलोचना या इनकी निंदा करने वाले लोग। और यही लोग उस समय सबसे ज्यादा तिलमिलाते हैं जब कोई धर्म की आलोचना कर बैठता है. जब जीवन के हर क्षेत्र में आलोचना अनिवार्य और स्वीकार्य है तो फिर धर्म क्यों इतना घबराता है ! ये आश्रम बनाकर व्यभिचार करें तो धर्म की सेवा है, और कोई उँगली उठा दे तो वो काफिर हो गया ! अगर हम सच्चे धार्मिक हैं और अपने धर्म पर गर्व करते हैं तो ऐसे कुकर्मियों की पैरवी करना बन्द कर देना चाहिए. इनकी जगह धर्म-स्थलों में नहीं बैकुण्ठमें ही है. हमने आलोचनाओं पर ध्यान दिया होता तो ऐसी सड़न न पैदा होती धर्म में. तब न आसाराम होते न अजहर मसूद ।