अपने करोड़ों प्रशंसकों के दिलों पर राज करते
हुए, संकोची, भाग्यवादी, ईश्वरपरायण, पित़ृहीन, दृढ़ संकल्पी लता मंगेशकर आज
चौरासी बरस की हो गईं. लता का जीवन यह बताता है कि भारत जैसे देश के, मुम्बई फिल्म
उद्योग जैसे वातावरण में भी एक लड़की किन शिखरों को छू सकती है. दरअसल लता कोई
दैवीय चमत्कार नहीं थीं, बल्कि वो मानवीय प्रयत्नों की पराकाष्ठा हैं. ये लता ही
थीं जिन्होंने फिल्म संगीत को उसका वाज़िब हक दिलवाते हुए वैश्विक पहचान और
स्वीकृति दिलवायी. भारत, पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश पर तो वो आज भी राज
कर रही हैं. साथ ही दुनिया भर में बसे अप्रवासी भारतीयों में उनके गीत एक
नास्टैल्जिया पैदा करते हैं. ये अप्रवासी लता की आवाज़ के सहारे ही अपने देश की
हवा, पानी, मिट्टी, जवानी और बचपन से जुड़े हुए हैं.
लता अगर भारत में न होकर किसी यूरोपीय देश, खासतौर से फ्रांस या जर्मनी में
होतीं तो अब तक उन पर अनेक शोध हो चुके होते, जीवनियां लिखी जा चुकी होतीं. एक
जमाने में यह खबर उड़ी थी कि अमेरिका ने भारत सरकार से यह पेशकश की थी कि
मरणोपरान्त लता का गला उन्हें शोध के लिए दे दिया जाय, कि आखिर यह मिठास पैदा कैसे
होती है ! खैर ! लेकिन भारतीय प्रशंसक लता को लेकर कभी भावुकता में गुम नहीं हुए. यद्यपि
लता की आवाज़ हमें बहुत रचनात्मक रूप से भावुक करती है. दूसरी तरफ लता के कुछ गीत
ऐसे हैं जिन्हें आधी रात के समय सुनकर पागल होने या यह दुनिया छोड़ देने की
इच्छाएँ पैदा होने लगती हैं. लता के इस असर की स्वीकारोक्ति फिल्म ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ के एक गीत में
है. इसमें संगीत पर मुग्ध ओम प्रकाश ‘सपने में सजन से दो बातें, इक याद रही इक भूल गए’ गीत को ग्रामोफोन
पर बार-बार सुनता है और विक्षिप्त होने लगता है. यह गीत, संगीतकार मदन मोहन की
संभावनाओं का शिखर था, लेकिन लता के बिना इस शिखर को छुआ नहीं जा सकता था.
भारतीय उपमहाद्वीप में लता की लोकप्रियता इतनी चमत्कारिक है कि बच्चा-बच्चा
उनके जीवन के बारे में जानता है. आप किसी से भी पूछिए वो बता देगा कि लता का जन्म
इन्दौर के मराठी परिवार में 28 सितंबर 1929 को हुआ था. लता की माँ दीनानाथ मंगेशकर
की दूसरी पत्नी थीं. जन्म के समय लता का नाम ‘हेमा’ रखा गया था. बाद
में पिता दीनानाथ ने अपने एक नाटक ‘भाव बन्धन’ की पात्र ‘लतिका’ से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया. वस्तुतः इनका
उपनाम ‘हार्डीकर’ था. पिता दीनानाथ ने ही अपने मूल स्थान(मंगेशी, गोवा) की पहचान को जीवित
रखने के लिए ‘मंगेशकर’ उपनाम रख लिया था. लता की संगीत की आरंभिक शिक्षा स्वाभाविक रूप से पिता
से ही शुरू हुई. फिर कच्ची उम्र में ही लता ने अमानत अली खान से संगीत सीखना शुरू
कर दिया. आगे चलकर अमानत खान देवासवाले, पं. तुलसीदास शर्मा और बड़े गुलाम अली खाँ
से भी सीखती रहीं. लता ने गाने के साथ ही 70 के दशक में कुछ मराठी फिल्मों के लिए
संगीत भी तैयार किया. पिता दीनानाथ मंगेशकर अपनी संगीत-नाटक मंडली चलाते थे. लेकिन
उनकी मंडली, सिनेमा में आवाज़ और संगीत के आगमन के कारण बर्बाद हो गई.
दीनानाथ शराब के आदी हो गए और चले गए. सिनेमा ने पारसी और अन्य थियेटर
शैलियों को भी खत्म सा कर दिया. जिस सिनेमा ने दीनानाथ को बर्बाद किया, उन्हीं की
बेटी फिल्म संगीत की साम्राज्ञी बन गई. लता जीवन भर जी जान से अपने पिता को भारतीय
संगीत में प्रतिष्ठित करने में लगी रहीं, और अपने प्रचार के प्रति हद से ज्यादा
उदासीन रहीं. लेकिन तब भी, जिसे बड़े गुलाम अली खान ने ‘तीन मिनट की जादूगरनी’ कहा था, वो लगभग
66 बरसों से हमारे दिल, दिमाग, गले, होंठ, कान में बसी हुई हैं. वो अपने पिता का
बकाया पिछले साठ सालों से फिल्म संगीत से वसूल रही हैं. लता के प्रभाव का अंदाज़ा
इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अगर किसी धुन को सुनने के बाद उनकी त्यौरियों पर
एक भी बल पड़ जाता था तो नामी से नामी संगीतकार भी शर्मिन्दा हो जाते थे. दोयम
दर्जे के संगीतकारों की तो पूछिए मत.
लता का चौरासी बरस का हो जाना हमें विचलित नहीं करता. क्योंकि आज भी किसी
संगीतकार को जब कोई कठिन धुन गवानी होती है या कोई अविस्मरणीय गीत रचना होता है तो
वह लता की शरण में जाता है. यद्यपि अब लता जब ऊँचे सुरों में जाती हैं तो उनकी
आवाज में कुछ रेशे निकल आते हैं, लेकिन कोई सर्वनाश नहीं हो जाता. चौरासी बरसों ने
लता की आवाज़ के साथ वह नहीं किया जो उसने सुरैय्या, शमशाद बेगम, नूरजहाँ या इकबाल
बानों के साथ कर दिया था.
फिल्म संगीत को आदर दिलवाने का काम सहगल ने शुरू किया था. बाद में मुकेश,
मन्ना डे, किशोर और सबसे अधिक रफी ने इस काम को आगे बढ़ाया. लेकिन भारतीय फिल्म
संगीत को वैश्विक पहचान और हमारे सुख-दुख-राग-विराग-जनम-मरण का अनिवार्य साथी
बनाया लता मंगेशकर ने. लता की साधना और उपलब्धियों से उनके समय के साथी गायक भी
प्रेरित होते थे. संसार में भारतीय संगीत अगर अपनी पूरी ताकत से प्रतिष्ठित है तो
वह शास्त्रीय गायकों की वजह से नहीं. हमें ईमानदारी से यह स्वीकार कर लेना चाहिए
कि यदि हमारा लोकप्रिय फिल्म संगीत न होता तो पाश्चात्य पॉप के तूफान में हमारे
शास्त्रीय संगीत के उस्ताद अपने तानपूरे और तबलों के साथ उड़ गए होते. जब पूरी दुनिया में
मैडोना और माइकल जैक्शन का दिग्विजयी आभियान चल रहा था, उस समय उपमहाद्वीप में
भारतीय फिल्म संगीत अपनी पूरी ताकत से उसके मुकाबिल था. इसी का नतीज़ा है कि
नाचने-गाने और मस्ती के लिए भले ही पॉप संगीत बजा लिया जाय, लेकिन दुखों का पहाड़
पिघलाने और खुशियों में उबाल लाने के लिए हमें अपने फिल्म संगीत की ही आँच चाहिए
होती है. और यह आँच पैदा करती है एक लाल किनारे वाली सफेद साड़ी पहने हुए शर्मीली
औरत. यह औरत पिछले 66 सालों से गाती जा रही है. और उसके साथ संसार के कोने-कोने
में न जाने कौन-कौन गा रहा है !
लता पर मुग्ध रहते हुए
हमें गुलाम हैदर के एहसान को भी नहीं भूलना चाहिए. भले ही लता ने तेरह की उम्र में
मराठी फिल्म ‘पाहिली मंगला गौर’ में गा लिया था, लेकिन इस साँवली और मरियल सी लड़की में लता को गुलाम हैदर
ने ही खोजा था. उस लता को जो करोड़ों लोगों को न सोने देती है न जागने देती है.
गुलाम हैदर तो लगभग भुला दिए गए, लेकिन लता को भुलाना रहती दुनिया तक संभव नहीं
होगा.
यह अमरत्व लता को आसानी से नहीं मिला. इसके लिए उन्हें मीरा बनना पड़ा.
पिता की मृत्यु के बाद पूरे परिवार की परवरिश का जिम्मा तो उठा ही लिया था.
उन्होने अपनी निजी लालसाओं और सुखों को भी होम कर दिया. लता उन अर्थों में सुन्दर
नहीं थीं जिनसे हम किसी स्त्री को देखते हैं, लेकिन लता के करोड़ों प्रेमी आज भी
हैं. 1950-55 के बीच जब राजसिंह डूँगरपुर उनके जीवन में नहीं थे, तब भी सी.
रामचन्द्र, नौशाद, अनिल विश्वास, मदन मोहन, चितलकर, शंकर-जयकिशन जैसे कई पुरुष उन
पर मोहित रहे हैं. लेकिन लता ने अपना जीवन संगीत और पिता की स्मृतियों को संजोने
में समर्पित कर दिया था. उन्होने राग-द्वेष के जीवन से पारगमन करके, संगीत में
समाधि लगा ली. उनकी साधना का फल यह निकला कि उनकी पूरी देह ही उनकी आवाज़ बन गई.
पचास के दशक के मध्य में भारतीय फिल्म संगीत और फिल्मों में संवेदना के
स्तर पर एक शालीन परिवर्तन हो रहा था. सहगल, पंकज मलिक, पहाड़ी सान्याल, सुरेन्द्र
दुर्रानी, के.सी. डे, जगमोहन, काननबाला, जोहराबाई, जूथिका राय, अमीरबाई कर्नाटकी
जैसे गायक-गायिकाएँ अचानक पुराने लगने लगे. इनकी आवाजें अटपटी और करुणा में भी
हास्य पैदा करने वाली लगीं. 1945-46 के आसपास हिन्दी फिल्मों में चकाचौंध पैदा
करने वाले परिवर्तन रहे थे. संवेदना, सोच, तकनीक और आस्वाद—सब कुछ बदल रहा था.
भारतीय फिल्म-कला वयस्क और अंतर्राष्ट्रीय हो रही थी. इसी समय लता, रफी, मन्ना डे,
हेमन्त कुमार, नौशाद, मदन मोहन आदि भारतीय संगीत-रसिकों के संस्कार बदल रहे थे.
इस सुदीर्घ और प्रदीप्त संगीत साधना में लता किन किन रुपों में आयीं हमारे
सामने. बच्ची के रूप में, किशोरी की तरह, नायिका की तरह......यानी एक स्त्री जिन
जिन रूपों में घटित हो सकती है, सब में. लता की आवाज़ ने ब्याहता, परित्यक्ता,
साध्वी, विधवा, विरहिणी, नौकरानी, पटरानी, कोठेवाली, पतिव्रता आदि नारियों की
भावनाओं को समय समय पर जिया. स्त्री की सम्पूर्णता को लेकर वो करोड़ों पुरुषों की
आकांक्षाओं में बस गयीं, तो न जाने कितनी अवसादग्रस्त स्त्रियों को जीवनदान देती
रहीं. लता की आवाज़ में ऐन्द्रिकता और मांसलता नहीं है. उनकी आवाज़ में एक पवित्र
समर्पण है. वहीं उनकी बहन आशा की आवाज़ में मांसलता और अधिकार भाव है. याद कीजिए ‘बुड्ढा मिल गया’ गीत में लता की
आवाज़ कितनी अटपटी लगती है. आशा के गीत ‘मोरे अंग लग जा बालमा....’ वाला असर क्या लता की आवाज़ में आ सकता था !
ऐसा नहीं था कि
शुरू से ही लता में ऐसा चमत्कार था. ‘मजबूर’ से लेकर ‘लाडली’ तक लता की आवाज में साफ तौर पर एक कच्चापन था. लेकिन
इसके बाद सी. रामचन्द्र और नौशाद ने उनकी आवाज़ को इस कदर सँवारा कि पाँच सालों के
भीतर ही दूसरी गायिकाएं दृश्य से गायब हो गयीं. लता को लेकर यह बहस भी चली कि
उन्होने किसी दूसरी गायिका को पनपने नहीं दिया. यह इमानदारी से सोचने की बात है कि
लगभग 21 साल की उम्र में क्या उनके पास संगीत की दुनिया की इतनी ताकत आ गई होगी कि
वो अपने से वरिष्ठ गायिकाओं को चुप करवा सकतीं ?
लता उस भारतीय स्त्री की
आवाज़ हैं जो हर पुरुष के भीतर कस्तूरी की तरह छुपी रहती है. जिसे पुरुष जन्म लेने
के साथ ही खोजने लगता है. लता न सिर्फ हमारा अभिमान हैं, बल्कि हमारी जीवनीशक्ति
भी हैं. आधी रात को हमारे अस्तित्व पर उग आये प्रश्नचिन्ह का जवाब हैं लता के गीत.
हमारे बचपन, यौवन, बुढ़ापे की सदाबहार साथी लता की आवाज़ तब तक रहेगी जब तक इस
धरती पर मनुष्य है.
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