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Thursday 23 February 2012

आधा है चन्द्रमा रात आधी : केवल वयस्कों के लिए


...." इसे दो पैग व्हिस्की के दे दो, फिर देखो इसके चेहरे का नूर...."
यह बात गुरुदेव ने बगल के कमरे से निकलते हुए कही थी....जब उनके साथ उनकी शोध-छात्रा थी.

यह वाकया उन दिनों का है, जब  गुरुमाता गर्मी की छुट्टियों में गांव गयी थीं.

वीरान

मैं पृथ्वी की एक घनी बस्ती का वीरान हूँ
जिसे ठीक ठीक देखने के लिए
आपको पर्यटक बनना पड़ेगा.

मेरी स्थिति
बस्ती के बीचों-बीच तो नही ही है
पर इसे पूरी तरह
एक किनारे भी नहीं कहा जा सकता.

दरअसल लोगों के पलायन ने
इस वीरान का भूगोल ही बदल दिया है.

बस्ती के लोग कभी कभार
इधर से गुजरते ज़रूर हैं
पर इस वीरान को देख कर
उनकी स्मृति में कुछ उभरता हो-
ऐसा कभी लगा नहीं.

अक्सर लोगों को यह भी याद नहीं रहता
कि इस बस्ती में कोई वीरान भी है.

फिर भी यहाँ
एक घर का उजाड़ है
कुछ अजीब सी वनस्पतियाँ है
जिन्हें रोज़मर्रा के जीवन में
पहचाना नहीं जा सकता.

एक पुराने पेड़ पर
कुछ पक्षियों का ठिकाना है
जो दिन भर कहां आते जाते हैं
यह कौन पता करता है भला !

बस्ती में जब जब
कोई खुशनुमा मौसम आता है
इस वीराने को
थोड़ा और वीरान कर जाता है.

कभी कभी यह वीरान
इतना बड़ा हो जाता है
कि इसमें
एक बस्ती दिखने लगती है.
          **

Monday 20 February 2012

सौ बरस का सिनेमा और साहित्य !


   मुझे अक्सर यह लगता रहा है कि फिल्म निर्माण की कला, प्रकृति के सृष्टि निर्माण की कला से प्रेरित है. यह प्रकृति को मनुष्य की चुनौती नहीं, बल्कि प्रकृति का साभार अनुकरण है. मज़हब, मुहब्बत,जात-पांत,भाषा और मुल्कों की सीमाओं को लाँघता हुआ भारतीय सिनेमा अपने सोवें बरस में पहुँच गया है. करोड़ों लोगों के सपनों को जीने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत एक ऐसे व्यक्ति के स्वप्न से हुई थी जिसकी ज़िद ने पत्नी के गहने तक बिकवा दिये थे. सपनों के इस सौदागर का नाम था—धुंडिराज गोविन्द फाल्के, जिन्हें हम अब दादा साहब फाल्के के नाम से याद करते हैं.
         जीवन बीमा की पॉलिसियां तक बेचकर यह ज़िद्दी और बेचैन आदमी समंदर की लहरों पर सवार होकर 5 फरवरी 1912 को लन्दन पहुँचा था. मक़सद था फिल्म निर्माण की तकनीक सीखना और ज़रूरी उपकरण खरीदना. दो महीने लन्दन में रहकर जब फाल्के भारत लौटे तो उनके पास फिल्म निर्माण के उपकरणों के साथ ब्रिटिश फिल्मकार सेसिल हैफवर्थ की दीक्षा भी थी.
          भारत आकर दादा फाल्के ने तमाम बाधाओं को पार करते हुए पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द’ बनाई. यह उस नीव का पहला पत्थर था, जिस पर दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग की इमारत बन चुकी है. आज भारत में औसतन 1000 फिल्में हर वर्ष बन रही हैं, जबकि तकनीक और पैसे में अव्वल हालीवुड में औसतन 600 फिल्में प्रति वर्ष बनती हैं.
          बैलगाड़ी पर सवार होकर सफर शुरू करने वाला भारतीय सिनेमा आज जेट विमान पर सवार है. इसके समावेशी चरित्र का स्वरूप इसी से पता चलता है कि इसने देश के सभी कलारूपों को अपने में समेट लिया है. गीत-संगीत, नृत्य, नौटंकी, लीला, नटबाजी, जादू, मदारियों के खेल, शिल्पकला, चित्रकला, साहित्य—सभी कलाओं को भारतीय सिनेमा ने इस विराट देश की स्वप्नजीवी जनता के सुख-दुख-राग-विराग-संघर्ष से जोड़ दिया.
         अभी हाल ही में वरिष्ठ और मेरे अत्यंत प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह P.hd.  की एक मौखिकी के सिलसिले में रीवा आये तो विवि के हिन्दी विभाग में उनका एक व्याख्यान आयोजित कर लिया गया. उन्होने बताया कि उनकी मशहूर कृति ‘ काशी का अस्सी ‘ पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी एक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें सनी देओल, रवि किशन आदि कलाकार भूमिका निभा रहे हैं. 
         इस सूचना से मन मे यह सवाल पैदा हुआ कि क्या सिनेमा का माध्यम इतना सक्षम है कि वह एक साहित्यिक कृति के साथ न्याय कर सके ? मैं इसको लेकर आश्वस्त नहीं हूँ. मैने ‘काशी का अस्सी’ दो-तीन बार पढ़ा है. इस कृति में—जिसे लेखक ने उपन्यास कहा है—बनारस के अस्सी चौराहे के इर्द-गिर्द के जीवन के संस्मरण हैं, जिन्हें लेखक ने अलग-अलग समय पर लिखा है. इन लेखों के पात्रों और घटनाओं में इतना स्वाभाविक तारतम्य है कि सभी लेखों को एक ज़गह इकट्ठा कर देने में इसका स्वरूप औपन्यासिक दिखने लगता है, लेकिन उपन्यास का सहज प्रवाह फिर भी नहीं सध पाया है.
          इस कृति में संकलित हर संस्मरण एक अद्भुत आस्वाद पैदा करता है. चर-अचर सभी पात्रों को लेखक काशीनाथ सिंह ने  जिस नज़र से देखा और प्रस्तुत किया है, मुझे नहीं लगता कि सिनेमा के पास वही आस्वाद पैदा कर पाने की क्षमता है. पात्रों की समय और स्थान के साथ अन्तर्सम्बंधों  की जो डिटेलिंग और निहितार्थ लेखक ने शब्दों और इशारों से दिए हैं, उन्हें सिनेमा में व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है. इन संस्मरणो में अधिकांश समय, लेखक पात्रों के बगल में बैठा हुआ है, जो उन पात्रों की हरकतों और उनके आपसी संवादों की व्याख्या करता चलता है. जाहिर है कि जो मर्म पाठक के सामने खुलता है, वह दृष्टा-लेखक की रुचि-संस्कार और निष्ठा से गुज़र कर आता है.
          यहीं पर साहित्य और सिनेमा की सीमाएँ सामने आती हैं. साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है. पाठकों के आस्वाद के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है. यह अंतर प्रभाव की तीव्रता में होता है, उसके रूप में नहीं. सिनेमा के पास दृश्य होते हैं. उनकी व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत ही कम होती है उसके पास. मज़े की बात यह है कि साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है. जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बन जाता है.
          वहीं सिनेमा के पास अपनी कुछ विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं जो साहित्य के पास नही हैं. संगीत के प्रयोग की शक्ति, सिनेमा को सम्प्रेषणीयता की ऐसी क्षमता प्रदान करती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलहदा बनाता है. सिनेमा अपने ध्वनि और प्रकाश माध्यमों से ऐसे बहुत कुछ अव्यक्त को को व्यक्त कर देता है, जिसे कह पाने मे महान लेखक भी लड़खड़ा जाते हैं. काल के अतिक्रमण की जो सुविधा सिनेमा के पास होती है, वह साहित्य के पास ठीक उसी तरह से नहीं होती. मौन की जिस भाषा का इस्तेमाल सिनेमा सहजता से कर लेता है, उसी मौन को रचने के लिए साहित्य को पहले और बाद में बहुत सी वाणी खरचनी पड़ती है.
         इस अंतर को और आसानी से समझने के लिए कुछ देर के लिए हम ऐसा करें कि कुछ महान कृतियों की अपनी कल्पना में फिल्म बनायें और कुछ महान फिल्मों की कल्पना मे ही कहानी लिखें. फिर देखिए कैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है.
          साहित्य और सिनेमा का सम्बंध भी दो पड़ोसियों की तरह रहा. दोनो एक दूसरे के काम तो आते रहे लेकिन यह कभी सुनिश्चित नही हो पाया कि इनमे प्रेम है या नही. सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. विश्व सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है. साहित्य की उम्र से इसकी तुलना की जाय तो यह अभी शिशु ही है साहित्य के सामने.
          साहित्य के पास सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अथाह भंडार है. भाव-दशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों  के दृश्यात्मक ब्यौरे हैं. साथ ही भाव-भंगिमा, ध्वनियों, शब्दों और संगीत के सूक्ष्म प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं. सुखद बात यह है कि  साहित्य ने सिनेमा की मदद में कभी कोताही नहीं की. सिनेमा को जब-जब ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से उसका सहयोग किया. यह बात और है कि आगे चलकर सिनेमा ने अपना खुद का एक लेखक-वर्ग तैयार कर लिया.
          सिनेमा ने साहित्य के अनेक मनीषियों को अपनी ओर खींचा. पं.बेताब, मुंशी प्रेमचंद, जोश मलीहाबादी, पं.सुदर्शन, सआदत हसन मंटो, कृष्न चंदर, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, राजेन्द्र सिंह बेदी और गुलज़ार जैसे खालिस साहित्यिक व्यक्तित्व सिनेमा में अभिव्यक्ति के नये आयाम खोजने गये. पर दुर्भाग्य से अधिकतर के हाथ निराशा ही लगी. दरअसल सिनेमा एक व्यावसायिक माध्यम है और उसके सिद्धांत, लेने में अधिक और देने पर कम ही आधारित होते हैं. एक और बात ध्यान देने की है कि सिनेमा त्वरित और सहज लोकप्रियता के लिए रचा जाता है. यह भी एक वज़ह धी कि गंभीर साहित्यिक लेखक इस माध्यम से अपना सामंजस्य नहीं बनाये रख सके.
          साहित्यकार फिल्मों में जाकर भले ही उतने सफल न रहे हों, लेकिन जब-जब सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनायी हैं तो एक नये रचनात्मक लोक की सृष्टि की है. प्रेमचन्द के ‘ गोदान ‘ पर बनी फिल्म को छोड़ दें तो रेणु की कहानी पर बनी ‘तीसरी कसम’ ने दुनिया को कुछ अमर पात्र दिये. महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी ‘रुदाली’ के दृश्य अविस्मरणीय हैं. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी-‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’,  सृजन के नये आयामों की तलाश करती हैं.
          एक बहुत बड़ा फर्क अब साहित्य और सिनेमा की भाषा मे आया है. इसका सीधा संबन्ध दर्शकों-पाठकों की भागीदारी से है. सिनेमा का दर्शक सीधे शामिल होता है. हर दर्शक के पास हर स्थिति के लिए सुझाव होते हैं. सिनेमा की सारी सफलताओं-असफलताओं का दारोमदार इसी दर्शक-वर्ग पर होता है. सिनेमा को समीक्षकों की उतनी जरूरत नही होती जितनी साहित्य को होती है. यही वज़ह है कि सिनेमा रचने वालों ने दर्शक से तादात्म्य बैठाना शुरू किया तो सिनेमा की रचनात्मकता धीरे-धीरे कम होने लगी. सिनेमा ने बहुत आरंभिक समय मे ही अपने आप को एक स्वतंत्र विधा के रूप में महसूस करना शुरू कर दिया था. दर्शकों के मेल से उसने अपनी जो सिनेमाई भाषा विकसित की उस पर उसका भरोसा दिनो-दिन बढ़ता गया. साहित्य और सिनेमा की भाषा का अंतराल अब इतना बढ़ चुका है कि ये दोनो माध्यम अब महानगरीय पड़ोसियों की तरह दिखने लगे हैं.

Tuesday 14 February 2012

तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई । अनुचित छमब जानि लरिकाई ।। ( कमला प्रसाद के जन्मदिन 14 फरवरी पर )


                 14 सितंबर 1989 को जब मैं उन्हें बोलते हुए सुन रहा था, तो पहली बार मुझे लगा कि मेरे पिता से भी ज़्यादा ज्ञानी और पराक्रमी कोई व्यक्ति इस धरती पर है.....ये वक्ता थे प्रो. कमला प्रसाद, जो कुछ ही दिनों बाद मेरे ताऊ जी बन गये थे. सुर्ख चेहरा, करीने से कढ़े हुए बाल, तेजस्वी ललाट, बोलती आँखें और होठों पर सम्मोहित कर देने वाली मुस्कान.......स्कूल में हिन्दी दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के इसी सम्मोहन के बीच मुझे मेरे ताऊजी यानी प्रो. कमला प्रसाद मिले थे....हिन्दी साहित्य इन्हें वापंथी आलोचक की तरह जानता है, तो प्रगतिशील लेखक संघ के साथी इन्हें कमाण्डर कहते थे.

                 एक ऐसा योद्धा जिसने पराजित होना सीखा ही नहीं था. एक अथक पथिक जो तलवार की धार पर चलते हुए रोमांचित होता था. यात्रा ही जिनकी ज़िन्दगी थी. मेरे एक मित्र ने कहा था कि अगर कोई पूछे कि इस देश के सबसे बड़े पुल का नाम क्या है, तो इसका ज़वाब होगा--कमला प्रसाद. पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण, कमला प्रसाद यात्राएँ करते रहे और संस्कृति-कर्मियों को जोड़ते रहे. हज़ारों नौजवान-प्रौढ़ लेखक-कलाकार उनसे होकर गुज़रते हुए अपने मुकाम तक पहुँचते रहे. देश भर में साहित्य-कला शिविरों, संगोष्ठियों की झड़ी लगा दी थी कमाण्डर कमला प्रसाद ने. थकान और हताशा कभी उनके पास तक आयी नहीं. स्कूल के उस दिन से उनकी मृत्यु तक, मैने उनको जब देखा- उनकी धज में ज़रा भी बदलाव नहीं आया. उन्हें उत्साह में देखा पर कभी क्रोध में नहीं देखा...उन्हें प्रेम में देखा पर कभी भावुक नहीं देखा....उन्हें दुख में देखा पर कभी टूटन में नहीं देखा..

                  ताऊजी का जन्मदिन 14 फरवरी को होता है. इसी दिन पूरी दुनिया वैलेन्टाइन्स डे को प्रेम के उत्सव के रूप मे मना रही होती थी. हम लोग इसी बात पर उनसे ठिठोली किया करते. उनसे जानने की कोशिश करते कि क्या उन्होने भी प्यार किया था. वो बैठे मुस्कुराते रहते. बहुत छेड़ने पर कह देते कि तुम लोग हो तो, क्या तुम तक मेरा प्रेम नहीं पहुँच रहा ! ताऊजी के भीतरका यह प्रेम ही उनकी ताकत और सबसे बड़ा हथियार भी था. वो अपने दुश्मनों पर भी प्रेम लुटाने के लिए मशहूर थे.

                  कोई यह सोच सकता है कि ऐसे आदमी के दुश्न कैसे हो सकते हैं ! पर उनके दुश्मन कई थे. मेरे ताऊजी देश के बड़े आलोचकों में शुमार किए जाते थे. रीवा विवि में केशव शोध संस्थान के निदेशक और हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे. प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव, वसुधा के संपादक, कला परिषद के निदेशक, राष्ट्रीय स्तर की अनेक समितियों के संयोजक-सदस्य, और असंख्य आयोजनों के कर्ता-धर्ता थे. अब कहिए, ऐसे आदमी के दुश्मन न हों, क्या यह संभव है. यश और प्रतिभा के स्वाभाविक दुश्मन होते हैं. कमला प्रसाद के भी थे. और कमला प्रसाद इन दुश्मनों पर प्यार, पुरस्कार और सम्मान लुटाते रहते थे. सुबह जिसने उन्हें पानी पी-पी कर गालियाँ दी, शाम को उसे ही अपने कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बना देते थे. जिन लोगों ने उन्हें दोयम दरजे का आलोचक साबित करने की मुहिम चलाई, उन्हीं की किताबें छपवा देते, किसी अकादमी में रखवा देते या किसी विवि में व्याख्याता बनवा देते.

                     मैने उनसे एक बार पूछा कि ताऊजी, आप ऐसे लोगों को क्यों उपकृत करते हैं, जो आपकी जड़ खोदते रहते हैं. उन्होने कहा--" विमलेन्दु , मार्क्स कहते थे कि अगर आप सबको साथ लेकर चलना चाहते है, संगठन को मजबूत करना चाहते हैं, तो विरुद्धों का सामंजस्य करना सीखिए." यही मेरे लिए मार्क्सवाद का पहला पाठ था. कमला प्रसाद के साथ रहते हुए मार्क्सवाद को अलग से पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. भारतीय मिट्टी,हवा, पानी,रिश्ते-नातों,जनम-मरण,लोकरीतियों के बीच मार्क्सवाद अधिकतम जितना संभव हो सकता है, वह कमला प्रसाद की दिनचर्या का हिस्सा था. कोई छद्म नहीं था. वह सिद्धान्तों की बात उतनी ही दूर तक करते थे, जितना जीवन में उतारना संभव हो सकता था. कामरेड थे तो कामरेड की तरह जीते थे इसलिए. कभी छोटे-बड़े का या पद-प्रतिष्ठा का अहंकार या भेदभाव करते उन्हें किसी नें नहीं देखा.

                    जिस वर्ष कमला प्रसाद रीवा विवि में आये उसी वर्ष कवि-मित्र आशीष त्रिपाठी ( इस वक्त BHU में रीडर हैं) भी रीवा आये. आशीष ने उसी मॉडल स्कूल में दाखिला लिया जिसमें मैं पहले से पढ़ रहा था. हम दोनो एक ही कक्षा में थे. आशीष ने साहित्य में अपनी प्रतिभा दिखाई , तो मेरा प्रभाव संगीत में था. हम दोनो को अच्छा मित्र बनने में ज्यादा देर नहीं लगी. स्कूल में कमला प्रसाद को पहली बार सुनने के बाद आशीष ने ही मुझे उनसे घर ले जाकर मिलवाया. आशीष के पिता श्री सेवाराम त्रिपाठी, कमला प्रसाद के शिष्य भी थे और पारिवारिक मित्र भी. आशीष पर कमला प्रसाद जी का विशेष स्नेह था, जो जीवन पर्यन्त बना रहा. कमला प्रसाद द्वारा आयोजित प्रलेस के शिविरों में आशीष ने तब से भाग लेना शुरू कर दिया था, जिस उम्र में बच्चे गुल्ली-डंडा खेल रहे थे. आशीष की साहित्य की दीक्षा यहीं से शुरू हुई थी.

                      इस पहली मुलाकात के बाद उनसे मेरा पिता-पुत्र का एक ऐसा अटूट नाता बना, जो मेरे सपनों में था. कमला प्रसाद लगभग बारह-तेरह वर्ष रीवा में रहे. इन वर्षों में लगभग रोज़ ( जब वे रीवा में होते थे ) शाम के एक-दो घंटे उनके साथ ही बीतते थे. वो किसी बड़े आयोजन की रूपरेखा बना रहे होते तो हमारी भी राय लेते. फिर कोई काम हमारे जिम्मे छोड़कर निश्चिन्त हो जाते. अदभुत विश्वास था उन्हें लोगों पर. नये लोगों को तैयार करने का यह उनका अपना तरीका था. वह नये से नये नौजवान पर भी पूरा भरोसा जताते थे. उनके समय में रीवा विवि में महीने में एक-दो राष्ट्रीय स्तर के आयोजन होते ही रहते थे. एक से एक लोग रीवा आने लगे थे, जिनके बारे में कभी हमने सोचा भी नहीं था. नामवर सिंह,केदारनाथ सिह,चन्द्रकांत देवताले,राजेन्द्र यादव,काशीनाथ सिंह,रमेश कुंतल मेघ,विश्वनाथ त्रिपाठी  ज्ञानेन्द्रपति,कुमार अंबुज,भगवत रावत,राजेश जोशी,अशोक वाजपेयी,हवीब तनवीर,अलखनन्दन,त्रिलोचन,ज्ञानरंजन,जैसे नामचीन लोगों के साथ हमने हमजोलियों जैसा समय बिताया और कविताएँ सुनाईँ.

                     तब तक हिन्दी विभाग में कवि दिनेश कुशवाह भी आ गये थे. ताऊजी के काम करने का निराला अंदाज़ था. विवि में कविता पर तीन दिन की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की. केदारनाथ सिंह, देवताले जी, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति आदि लोग उसमें आये. 12 बजे उद्घाटन सत्र था. 9 बजे ताऊजी ने हम लोगों ( दिनेश कुशवाह, मैं, आशीष, विवेक श्रीवास्तव ) को घर पर बुला लिया. वहां से सबको लेकर विवि के सभागार पहुँच गये. बोले, चलो हम लोग मंच वगैरह ठीक कर लेते हैं. हम लोगों ने कुर्सियाँ झाड़ीं, मंच पर दरी बिछायी, माइक दुरुस्त किया, फूल-माला वगैरह तैयार किए. कमला प्रसाद भी बराबर साथ में लगे रहे. दो-ढाई घंटे की मेहनत के बाद सभागार तैयार और 12 बजे से कविता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी शुरू......गज़ब तो तब हुआ जब 4 बजे दूसरा सत्र शुरू होना था. हम लोग अतिथियों को भोजन करा रहे थे कि ताऊजी खोजते हुए मेरे पास पहुँचे. पास आकर बोले--" विमलेन्दु, इस सत्र का संचालन तुम कर लो !" थोड़ी देर के लिए मैं सन्न रह गया. कोई तैयारी नहीं. विमर्श का सत्र था. इतने धुरंधर वक्ताओं के बीच मैं ! तब तक उन्होने मुझे अपनी छाती से लगा लिया था. और मैं इस परीक्षा के लिए तैयार हो गया था. यह बात तब की है जब मैं एम.ए. दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था.

                       मुझसे मिलने का उनका यही अंदाज़ था. जब भी मैं उनके सामने पहुँचता वो हाथ बढ़ाकर मुझे अपनी छाती से लगा लेते. खाना खा रहे होते तो दो रोटी अपनी थाली से निकाल कर मुझे दे देते. मुझे अपना मानस पुत्र कहते थे. जब भी किसी से मिलवाते तो कहते--'' ये विमलेन्दु है, मेरा मानस पुत्र. कविताएँ लिखता है. थोड़ा बदमाश है, बीच-बीच में गायब हो जाता है तो इसे खोजना पड़ता है. "  दरअसल मेरा कविता लिखना भी उन्हीं के कारण शुरू हुआ था. जिन दिनों मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में था, उन्हीं दिनों कवि भगवत रावत ने भोपाल में एक युवा कवियों की कार्यशाला संयोजित की. इसमें अलग-अलग शहरों से एकदम नये कवियों को शामिल करना था. दो-दो कविताएँ मगाई गई थीं, जिनके आधार पर चयन होना था. ताऊजी ने कहा कि तुम भी दो कविताएँ भेज दो. तब तक मुझे यह भी नहीं मालूम था कि मैं कविताएँ लिखता हूँ. कुछ कवितानुमा प्रेमपत्र लिखे थे , और कुछ ग्रीटिंग कार्ड्स बनाये थे. खैर उन्हीं को आशीष की मदद से कविता की शक्ल देकर भेज दिया. चयन भी हो गया.रीवा से मैं, आशीष त्रिपाठी, क्षितिज विवेक और अंकुर पाण्डेय उस कार्यशाला में शामिल हुए. तभी से हम कवि हो गये.

                       ताऊजी  मेरे गुणों को पता नहीं कितना जानते थे, पर मेरे अवगुण सारे उन्हें पता थे. थियेटर करने के दौरान जब हम बीड़ी का सुट्टा लगाकर कभी उनके सामने फँस जाते, तो छाती से लगाते ही मुस्काते हुए कह देते कि आज तो विमलेन्दु बहुत महक रहा है भाई ! मेरी खुशी और उदासी को झट पहचान लेते. मुझे भी जब रोना होता तो मैं उनके पास पहुँच जाता और जी भर के रोता......पर क्या किसी ने कमला प्रसाद को रोते देखा था कभी ? मैने देखा था...एक दिन रात के आठ बजे मैने उन्हें फोन करके बताया कि ताऊजी मैने एक कहानी लिखी है. उन्होने कहा, लेकर फौरन चले आओ. मैं पहुँच गया. उस समय दिनेश कुशवाह भी उनके घर पर ही बैठे थे. ताऊजी ने कहा सुनाओ कहानी. वह कहानी मेरे साथ घटी कुछ घटनाओँ की कहानी थी, जिनकी कुछ जानकारी उन्हें थी. मैं कहानी सुनाता रहा....ताऊजी बीच-बीच में तौलिए से अपनी आँखें पोछते रहे. पहली और आखिरी बार मैने उन्हें इतना भावुक देखा था. यह शायद मेरे लिए उनका स्नेह था जो आँखों से उमड़ पड़ा था.

                         विवि से रिटायर होने के बाद कमला प्रसाद भोपाल चले गये. कुछ साल म.प्र. शासन की कला परिषद के निदेशक रहे. बीच-बीच में रीवा आते . आने से पहले फोन कर देते. मुझसे ये भी कहते कि नयी कविताएं सुनूंगा. कुछ निजी परेशानियों के चलते मेरा लिखना पढ़ना ठप्प होता जा रहा था. मैं फोन करता तो पूछते कि क्या नया लिखा. मैं उनसे कतराने लगा. वो ऱीवा आते तो मुझे ढुढ़वाते. मैं छुपता रहता. वो भी थोड़ा नाराज़ रहने लगे थे मुझसे. या शायद यह मेरा भ्रम था. मैं इस मुगालते में था कि जब नयी कविता लिखूँगा , तो उन्हें सुनाकर मना लूँगा. कहां जायेंगे विमलेन्दु से रूठकर....पर उन्हें मनाने का मौका नहीं मिला. पिछली फरवरी में कैंसर ने उनकी जान ले ली.......उनकी दर्जनों किताबें हैं. देश के कोने-कोने में उनकी ध्वनियों  हैं. पन्ने-पन्ने पर उनकी छवियाँ हैं......पर जिन कमला प्रसाद को मैं अब खोजता हूँ, वो यहाँ नहीं मिलते मुझे.