मुझे अक्सर यह लगता रहा है कि फिल्म निर्माण की कला, प्रकृति के सृष्टि निर्माण की कला से प्रेरित है. यह प्रकृति को मनुष्य की चुनौती नहीं, बल्कि प्रकृति का साभार अनुकरण है. मज़हब, मुहब्बत,जात-पांत,भाषा और मुल्कों की सीमाओं को लाँघता हुआ भारतीय सिनेमा अपने सोवें बरस में पहुँच गया है. करोड़ों लोगों के सपनों को जीने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत एक ऐसे व्यक्ति के स्वप्न से हुई थी जिसकी ज़िद ने पत्नी के गहने तक बिकवा दिये थे. सपनों के इस सौदागर का नाम था—धुंडिराज गोविन्द फाल्के, जिन्हें हम अब दादा साहब फाल्के के नाम से याद करते हैं.
जीवन बीमा की पॉलिसियां तक बेचकर यह ज़िद्दी और बेचैन आदमी समंदर की लहरों पर सवार होकर 5 फरवरी 1912 को लन्दन पहुँचा था. मक़सद था फिल्म निर्माण की तकनीक सीखना और ज़रूरी उपकरण खरीदना. दो महीने लन्दन में रहकर जब फाल्के भारत लौटे तो उनके पास फिल्म निर्माण के उपकरणों के साथ ब्रिटिश फिल्मकार सेसिल हैफवर्थ की दीक्षा भी थी.
भारत आकर दादा फाल्के ने तमाम बाधाओं को पार करते हुए पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द’ बनाई. यह उस नीव का पहला पत्थर था, जिस पर दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग की इमारत बन चुकी है. आज भारत में औसतन 1000 फिल्में हर वर्ष बन रही हैं, जबकि तकनीक और पैसे में अव्वल हालीवुड में औसतन 600 फिल्में प्रति वर्ष बनती हैं.
बैलगाड़ी पर सवार होकर सफर शुरू करने वाला भारतीय सिनेमा आज जेट विमान पर सवार है. इसके समावेशी चरित्र का स्वरूप इसी से पता चलता है कि इसने देश के सभी कलारूपों को अपने में समेट लिया है. गीत-संगीत, नृत्य, नौटंकी, लीला, नटबाजी, जादू, मदारियों के खेल, शिल्पकला, चित्रकला, साहित्य—सभी कलाओं को भारतीय सिनेमा ने इस विराट देश की स्वप्नजीवी जनता के सुख-दुख-राग-विराग-संघर्ष से जोड़ दिया.
अभी हाल ही में वरिष्ठ और मेरे अत्यंत प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह P.hd. की एक मौखिकी के सिलसिले में रीवा आये तो विवि के हिन्दी विभाग में उनका एक व्याख्यान आयोजित कर लिया गया. उन्होने बताया कि उनकी मशहूर कृति ‘ काशी का अस्सी ‘ पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी एक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें सनी देओल, रवि किशन आदि कलाकार भूमिका निभा रहे हैं.
इस सूचना से मन मे यह सवाल पैदा हुआ कि क्या सिनेमा का माध्यम इतना सक्षम है कि वह एक साहित्यिक कृति के साथ न्याय कर सके ? मैं इसको लेकर आश्वस्त नहीं हूँ. मैने ‘काशी का अस्सी’ दो-तीन बार पढ़ा है. इस कृति में—जिसे लेखक ने उपन्यास कहा है—बनारस के अस्सी चौराहे के इर्द-गिर्द के जीवन के संस्मरण हैं, जिन्हें लेखक ने अलग-अलग समय पर लिखा है. इन लेखों के पात्रों और घटनाओं में इतना स्वाभाविक तारतम्य है कि सभी लेखों को एक ज़गह इकट्ठा कर देने में इसका स्वरूप औपन्यासिक दिखने लगता है, लेकिन उपन्यास का सहज प्रवाह फिर भी नहीं सध पाया है.
इस कृति में संकलित हर संस्मरण एक अद्भुत आस्वाद पैदा करता है. चर-अचर सभी पात्रों को लेखक काशीनाथ सिंह ने जिस नज़र से देखा और प्रस्तुत किया है, मुझे नहीं लगता कि सिनेमा के पास वही आस्वाद पैदा कर पाने की क्षमता है. पात्रों की समय और स्थान के साथ अन्तर्सम्बंधों की जो डिटेलिंग और निहितार्थ लेखक ने शब्दों और इशारों से दिए हैं, उन्हें सिनेमा में व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है. इन संस्मरणो में अधिकांश समय, लेखक पात्रों के बगल में बैठा हुआ है, जो उन पात्रों की हरकतों और उनके आपसी संवादों की व्याख्या करता चलता है. जाहिर है कि जो मर्म पाठक के सामने खुलता है, वह दृष्टा-लेखक की रुचि-संस्कार और निष्ठा से गुज़र कर आता है.
यहीं पर साहित्य और सिनेमा की सीमाएँ सामने आती हैं. साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है. पाठकों के आस्वाद के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है. यह अंतर प्रभाव की तीव्रता में होता है, उसके रूप में नहीं. सिनेमा के पास दृश्य होते हैं. उनकी व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत ही कम होती है उसके पास. मज़े की बात यह है कि साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है. जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बन जाता है.
वहीं सिनेमा के पास अपनी कुछ विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं जो साहित्य के पास नही हैं. संगीत के प्रयोग की शक्ति, सिनेमा को सम्प्रेषणीयता की ऐसी क्षमता प्रदान करती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलहदा बनाता है. सिनेमा अपने ध्वनि और प्रकाश माध्यमों से ऐसे बहुत कुछ अव्यक्त को को व्यक्त कर देता है, जिसे कह पाने मे महान लेखक भी लड़खड़ा जाते हैं. काल के अतिक्रमण की जो सुविधा सिनेमा के पास होती है, वह साहित्य के पास ठीक उसी तरह से नहीं होती. मौन की जिस भाषा का इस्तेमाल सिनेमा सहजता से कर लेता है, उसी मौन को रचने के लिए साहित्य को पहले और बाद में बहुत सी वाणी खरचनी पड़ती है.
इस अंतर को और आसानी से समझने के लिए कुछ देर के लिए हम ऐसा करें कि कुछ महान कृतियों की अपनी कल्पना में फिल्म बनायें और कुछ महान फिल्मों की कल्पना मे ही कहानी लिखें. फिर देखिए कैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है.
साहित्य और सिनेमा का सम्बंध भी दो पड़ोसियों की तरह रहा. दोनो एक दूसरे के काम तो आते रहे लेकिन यह कभी सुनिश्चित नही हो पाया कि इनमे प्रेम है या नही. सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. विश्व सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है. साहित्य की उम्र से इसकी तुलना की जाय तो यह अभी शिशु ही है साहित्य के सामने.
साहित्य के पास सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अथाह भंडार है. भाव-दशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों के दृश्यात्मक ब्यौरे हैं. साथ ही भाव-भंगिमा, ध्वनियों, शब्दों और संगीत के सूक्ष्म प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं. सुखद बात यह है कि साहित्य ने सिनेमा की मदद में कभी कोताही नहीं की. सिनेमा को जब-जब ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से उसका सहयोग किया. यह बात और है कि आगे चलकर सिनेमा ने अपना खुद का एक लेखक-वर्ग तैयार कर लिया.
सिनेमा ने साहित्य के अनेक मनीषियों को अपनी ओर खींचा. पं.बेताब, मुंशी प्रेमचंद, जोश मलीहाबादी, पं.सुदर्शन, सआदत हसन मंटो, कृष्न चंदर, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, राजेन्द्र सिंह बेदी और गुलज़ार जैसे खालिस साहित्यिक व्यक्तित्व सिनेमा में अभिव्यक्ति के नये आयाम खोजने गये. पर दुर्भाग्य से अधिकतर के हाथ निराशा ही लगी. दरअसल सिनेमा एक व्यावसायिक माध्यम है और उसके सिद्धांत, लेने में अधिक और देने पर कम ही आधारित होते हैं. एक और बात ध्यान देने की है कि सिनेमा त्वरित और सहज लोकप्रियता के लिए रचा जाता है. यह भी एक वज़ह धी कि गंभीर साहित्यिक लेखक इस माध्यम से अपना सामंजस्य नहीं बनाये रख सके.
साहित्यकार फिल्मों में जाकर भले ही उतने सफल न रहे हों, लेकिन जब-जब सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनायी हैं तो एक नये रचनात्मक लोक की सृष्टि की है. प्रेमचन्द के ‘ गोदान ‘ पर बनी फिल्म को छोड़ दें तो रेणु की कहानी पर बनी ‘तीसरी कसम’ ने दुनिया को कुछ अमर पात्र दिये. महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी ‘रुदाली’ के दृश्य अविस्मरणीय हैं. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी ‘साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी-‘नष्टनीड़’ पर सत्यजीत राय की फिल्म ‘चारुलता’, सृजन के नये आयामों की तलाश करती हैं.
एक बहुत बड़ा फर्क अब साहित्य और सिनेमा की भाषा मे आया है. इसका सीधा संबन्ध दर्शकों-पाठकों की भागीदारी से है. सिनेमा का दर्शक सीधे शामिल होता है. हर दर्शक के पास हर स्थिति के लिए सुझाव होते हैं. सिनेमा की सारी सफलताओं-असफलताओं का दारोमदार इसी दर्शक-वर्ग पर होता है. सिनेमा को समीक्षकों की उतनी जरूरत नही होती जितनी साहित्य को होती है. यही वज़ह है कि सिनेमा रचने वालों ने दर्शक से तादात्म्य बैठाना शुरू किया तो सिनेमा की रचनात्मकता धीरे-धीरे कम होने लगी. सिनेमा ने बहुत आरंभिक समय मे ही अपने आप को एक स्वतंत्र विधा के रूप में महसूस करना शुरू कर दिया था. दर्शकों के मेल से उसने अपनी जो सिनेमाई भाषा विकसित की उस पर उसका भरोसा दिनो-दिन बढ़ता गया. साहित्य और सिनेमा की भाषा का अंतराल अब इतना बढ़ चुका है कि ये दोनो माध्यम अब महानगरीय पड़ोसियों की तरह दिखने लगे हैं.
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