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Monday 24 October 2016


नास्तिकों से कौन डरे है !

हमारे देश में नास्तिकता पर बात करना जितना आसान है, नास्तिकों की पहचान उतना ही कठिन है. यह कठिनाई नास्तिकता की परिभाषा और उसके लोक-प्रचलित अर्थ में विभेद के कारण पैदा होती है. आमतौर पर स व्यक्ति को नास्तिक माना जाता है जो ईश्वर को नहीं मानता और उससे संबन्धित कर्मकाण्ड और पूजा-पाठ वगैरह से दूर रहता है. दूसरी ओर नास्तिक की शास्त्रीय परिभाषा कहती है कि ऐसा व्यक्ति जिसे वेदों में आस्था न हो, वह नास्तिक है. इसमें दो राय नहीं कि भारत के व्यापक समाज में पहली वाली मान्यता ही अधिक प्रचलित और ग्राह्य है. नास्तिकता सिर्फ भारत का ही मसला नहीं रहा है, यह वृहत्तर दुनिया का एक वैचारिक प्रत्यय है. इस्लाम में ऐसे लोगों को क़ाफ़िर कहा जाता है. क़ाफ़िर वह होता है जो इसलाम की मान्यताओं के विपरीत आचरण करे. इसी तरह पश्चिमी देशों यानि इसाइयत में भी नास्तिक वही है जो चर्च की नियमावली का उल्लंघन करे. यानि अगर हम वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो तो नास्तिकता का सीधा समीकरण धर्म के साथ बनता है.

भारत के हिन्दू समाज में नास्तिकता को लेकर अपेक्षाकृत उदार रवैया रहा है. यह उदारता किसी सदाशयता से नहीं आई है. बल्कि यह नास्तिकता की लोकमान्य अवधारणा और शास्त्रीय परिभाषा से उत्पन्न हुई दुविधा का नतीज़ा है. केवल भारत का हिन्दू समाज ही ऐसा है, जिसके पास नास्तिकता की अपनी विशिष्ट परिभाषा है. यानि, वेदों में आस्था न रखने वाला नास्तिक होता है. सच यह है कि अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं होता कि नास्तिकता की ऐसी कोई परिभाषा है. सच यह भी  है कि हिन्दू समाज के अधिसंख्य लोगों ने वेदों के सिर्फ नाम सुन रखे हैं. कम लोगों नें उन्हें देखा है, और बहुत कम लोंगों नें उन्हें पढ़ा है. इसीलिए हिन्दू समाज में वेदों पर आस्था और अनास्था का प्रश्न बस औपचारिक ही है. यह प्रश्न कभी भी भयावह और हमारे मानवाधिकारों का दुश्मन नहीं बना. जबकि इस्लाम में देखिए तो कुफ्र करने वाले क़ाफ़िर यानि नास्तिक को उसके अधिकांश मानवाधिकारों से वंचित कर दिया जाता है.

इसे हिन्दू समाज का सौभाग्य मानना चाहिए कि हिन्दू धर्म का संचालन किसी एक ग्रन्थ से नहीं होता. वेदों, पुराणों, उपनिषदों, स्मृतियों, गीता, रामायण, महाभारत के अलावा भी अनेक ग्रन्थ हैं जो हिन्दुओँ को मार्गदर्शन करते हैं. इसी तरह हिन्दुओं की आस्था में करोड़ों देवी-देवता हैं. इसीलिए हिन्दू धर्म की मूल प्रवृत्ति में कभी अधिनायकवाद नहीं रहा. इसीलिए हिन्दू धर्म में कभी फतवा जारी करने की परंपरा नहीं रही. किसी व्यक्ति का आचरण अगर राम के आदर्शों के प्रतिकूल हुआ तो वही कृष्ण के सिद्धान्तों के अनुकूल पाया गया. कृष्ण से विपरीत हुआ तो उसकी संगति शिव से बैठ गई. इस तरह वह धार्मिक रहा आया. इतना ही नहीं, अगर उसकी संगति किसी देवी-देवता से नहीं बैठती, और वह धार्मिक कर्मकाण्डों से निर्लिप्त रहता है, तो भी उसे धर्म और समाज से बहिष्कृत नहीं किया जाता.

यही वो प्राणी है जिसे हिन्दू समाज में नास्तिक माना जाता है. अब तक  यह नास्तिक प्राणी निरापद माना जाता रहा है. यह किसी का कुछ नुकसान नहीं करता. किसी के धार्मिक आचरण और विश्वास में दख़ल नहीं देता. इसलिए ऐसे प्राणी से किसी को कोई दिक्कत नहीं. हमने तो यह देखा है कि हमारे हिन्दू समाज में नास्तिकों को घृणा या उपेक्षा की दृष्टि से नहीं, बल्कि कौतुक की दृष्टि से देखा जाता है. नास्तिकों का प्रति आस्तिकों की यह उदारता, आस्तिकों की एक कमज़ोरी से भी निकलती है. आस्तिक कहते हैं कि ईश्वर है, और वही जगत का नियंता है. नास्तिक ईश्वर के अस्तित्व को नकार देते हैं. लेकिन अपनी अवधारणा को अब तक न आस्तिक सिद्ध कर पाए हैं और न नास्तिक. तर्कशास्त्र का एक सामान्य शिष्टाचार यह है कि सिद्ध उसे करना होता है जो मंडन करे. यानि जो अस्ति की बात करे. जो किसी चीज़ का होना बताए. खण्डन या नास्ति कहने वाले को तब तक प्रमाण नहीं देने पड़ते जब तक मंडन करने वाला अपनी बात सिद्ध न कर दे. इसीलिए अब तक हिन्दू समाज के आस्तिक, नास्तिकों से उलझने से कतराते रहे हैं.क्योंकि नास्तिकों के सवालों के जवाब देने में उन्हें पसीना छूट जाता है. आस्तिक ले-देकर अनुभूति को प्रमाण की तरह प्रस्तुत करने की दयनीय कोशिश करते हैं, लेकिन तर्कशास्त्र अनुभूति को प्रमाण नहीं मानता. दूसरी तरफ, नास्तिक के पास भी अब तक संसार की इस लीला की कोई तर्कसंगत वैज्ञानिक व्याख्या नहीं है. इसलिए दोनों ही एक दूसरे से बच-बचाकर सुखी रहते हैं.

आस्तिकों-नास्तिकों के इस विवशतापूर्ण सह-अस्तित्व में कुछ दिन पहले अचानक लहरें उठनी शुरू हो गईं, जब वृंदावन के एक नास्तिक बुद्धिजीवी बालेन्दु स्वामी ने मथुरा में नास्तिकों का एक सम्मेलन आयोजित करने की घोषणा कर दी. यद्यपि उन्होंने यह खुलासा नहीं किया कि सम्मेलन में किन मुद्दों पर विमर्श होगा, लेकिन सम्मेलन की घोषणा मात्र से कट्टर और जड़ हिन्दूवादी संगठन भड़क गए. ये ऐसे संगठन हैं जिनकी न तो कोई वैचारिकी है और न ही अपनी ज्ञान-परंपरा का ज्ञान. इनका अस्तित्व विरोध पर टिका हुआ है. पूरे देश में इस आयोजन को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. सोशल मीडिया पर हर ऐरा-गैरा भारतीय ज्ञान-मीमांशा और दर्शन का आधिकारिक विद्वान बन बैठा. भारी विरोध को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने नास्तिकों के आयोजन को दी गई मंजूरी निरस्त कर दी.

अब सवाल ये पैदा होते हैं कि नास्तिकों का सम्मेलन करने का नवाचार करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी ? अभी तक नास्तिकता किसी व्यक्ति का निजी मामला हुआ करती थी, जैसे प्रेम, जैसे घृणा. अब नास्तिकता को सांगठनिक रूप देने के पीछे क्या उद्देश्य है ? नास्तिकों के संगठित हो जाने से कौन डर रहा है, और क्यों डर रहा है ? क्या भारत जैसे धर्म-भीरु समाज में नास्तिकों के सवाल कोई असर पैदा कर पाने की ताकत रखते हैं ?

ऐसा नहीं है कि पहली बार नास्तिकता एक सामूहिक स्वरूप में नज़र आ रही है. अगर हम अपने देश की धार्मिक परंपरा में देखें तो बौद्ध और जैन धर्म नास्तिक थे. ये दोनों धर्म भले ही सनातन(हिन्दू) धर्म से प्रतिक्रिया-स्वरूप निकले हों, लेकिन दोनों की आस्था न तो वेदों में है और न ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास.
बौद्ध और जैन धर्म का खूब विस्तार हुआ. सह-अस्तित्व का यह अविश्वसनीय उदाहरण देखिए कि हिन्दू धर्म ने बुद्ध और महावीर को अवतार का दर्ज़ा दे दिया. मुझे तो लगता है कि अगर कुछ मुगल बादशाहों ने हिन्दुओं पर इतना अत्याचार न किया होता तो पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहब को भी अवतार घोषित कर दिया जाता.

भारत की दार्शनिक परंपरा के षड्-दर्शनों में सांख्य और योग दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते. लेकिन दोनों ही समादृत हैं. सांख्य दर्शन तो सीधे तौर पर ईश्वर को नकार देता है. जबकि योग दर्शन ईश्वर-प्रणिधान की बात तो करता है लेकिन ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्थापित नहीं करता. वह ईश्वर को एक भाव के रूप में निरूपित करता है, जिसे योगी को अपने प्राणों में धारण करना चाहिए. अब आप देखिए कि बौद्ध, जैन, सांख्य, योग पर ऐसे आक्रमण कभी नहीं हुए, भले ही दार्शनिक स्तर पर इनसे मतभेद रहा हो.

प्राचीन काल में नास्तिकता का सबसे मुखर रूप चार्वाकों, लोकायतों और आजीवकों की वैचारिकी और जीवनशैली में दिखता है. इनके बारे में ऐतिहासिक जानकारी इतनी अपर्याप्त है कि इनके भौतिकवादी-देहवादी दर्शन को, दर्शन की परंपरा में शामिल भी नहीं किया जा सका. लेकिन नास्तिकों के ऊपर हमेशा चार्वाकों का वह मशहूर कथित सिद्धान्त आरोपित किया जाता है, जिसमे कहा गया है- जब तक जियो, सुख से जियो. चाहे ऋण लेकर घी पीना पड़े, घी पियो. यह नश्वर शरीर दुबारा न मिलेगा.यह जुमला नास्तिकों से चिपका कर, उन्हें निहायत दुराचारी, देहवादी, भोगी, विलासी और सामाजिक रूप से गैर-ज़िम्मेदार व्यक्ति साबित करने का दुराग्रह किया जाता है. हमारे देश में नास्तिकों को प्रगतिशीलों और वामपंथियों से जोड़ा जाता है और उनके ऊपर भी उपरोक्त विशेषणों को आरोपित किया जाता है. यह सरासर अन्याय है. अगर हम सृष्टि की ईश्वरवादी व्याख्या को नहीं मानते तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अनैतिक और दुराचारी हो गए.

मैने शुरुआत में कहा था कि इस देश में नास्तिकों की पहचान करना बड़ा मुश्किल काम है. बहुत से ऐसे लोग हैं जो ईश्वर और कर्मकाण्ड में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते लेकिन वेदों में ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति के अनूठे तत्वों को खोजते हैं. बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको वेदों का कुछ अता-पता नहीं है लेकिन ईश्वर में अदम्य आस्था है. अब आप इनमें से किसे नास्तिक कहेंगे और किसे आस्तिक ? मैने ऐसे कुछ लोग भी देखे हैं जिन्हें ईश्वर और पूजा-पाठ से परहेज है, लेकिन जो करुणा, दया और औदार्य से भरे हुए हैं. वहीं ऐसे भी लोग देखे हैं जो दिन-रात ईश्वर की माला जपते रहते हैं, लेकिन भीतर से क्रूर, दुराचारी और मनुष्य विरोधी हैं.

अब उस मूल प्रश्न पर आते हैं कि वो कौन लोग हैं जो नास्तिकों के एकजुट होने और उनके आपसी संवाद से डरते हैं ? क्या ये वही लोग नहीं हैं जो इस देश को एक कट्टर धार्मिक देश बनाना चाहते हैं ! धार्मिक कट्टरता की आड़ में दुनिया में किस तरह का आतंक और काला कारोबार किया जा सकता है, इसका उदाहरण तो हम कई इस्लामिक देशों में देख ही रहे हैं. ऐसे लोग दिन-रात इसी जुगत में रहते हैं कि अधिक से अधिक लोगों को धर्मान्ध बनाया जा सके. इसके लिए अब देश में एक विस्तृत और सशक्त तंत्र बन गया है. यही लोग हैं जो नास्तिकों की एकजुटता और संवाद से घबराए हुए हैं. नास्तिक, जो अब तक निरापद थे, अगर उन्होंने धर्मान्धों के तंत्र के समानान्तर कोई तंत्र विकसित कर लिया तो फिर धर्म की जय कैसे होगी और अधर्म को नाश कैसे होगा. एक प्रतिप्रश्न यह भी था कि आखिर नास्तिकों का सम्मेलन करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी ? क्या एक तरह के अंधत्व का मुकाबला, दूसरे तरह के अंधत्व से ही किया जा सकता है ? क्या हमारे देश की प्रगतिशील वैचारिकी, धर्मान्धता का प्रतिरोध कर पाने में अक्षम साबित हो रही है ?

नास्तिकता को लेकर मेरी जो समझ है, उसके मुताबिक दुनिया का कोई जीवित इंसान पूरी तरह से नास्तिक कभी हो ही नहीं सकता. ठीक उसी तरह जैसे हर इंसान कुछ अंशों में प्रगतिशील होता है. ईश्वर में, धर्म में, और वेदों में आस्था न भी हो, अगर मानव मूल्यों में हमारी आस्था है तो हम आस्तिक हुए. अगर हमें प्रेम, दया, करुणा, रूप, रस, गंध में भी आस्था है, तो हम आस्तिक हुए.


Monday 17 October 2016

जब श्मशान में आता था त्रेता !

     
यह उन दिनों की बात थी जब देश में दूरदर्शन नहीं था और सिनेमा की पहुँच भी केवल महानगरों तक ही थी. हमारी कलात्मक अभिरुचियाँ फाग, नाच और लीला जैसे कलारूपों में प्रकट होती थीं. कला-प्रदर्शन का कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं होता था. कला, हमारे सुख-दुख, राग-विराग, मोह-माया के प्रकटीकरण का एक माध्यम थी. कला, हमारी सामूहिकता और सहकारिता को व्यक्त करने वाली एक स्वत: साध्य विद्या थी. यह वो समय था जब कोई व्यक्ति अभिनय कर ले, नाच ले, गा ले, चित्र बना ले तो इसे उस व्यक्ति की विशिष्ट विद्या कहा जाता था. यहाँ तक कि तवायफों के नाच-गाने की भी बड़ी इज़्ज़त थी. सम्पन्न लोगों के यहाँ होने वाले उत्सवों में मशहूर तवायफें पालकी भेजकर और नज़राना पेश कर बुलाई जाती थीं.

यह उन दिनों की बात है जब सामूहिक मनोरंजन का एक बहुत बड़ा माध्यम हुआ करती थी रामलीला. रामलीला सिर्फ मनोरंजन ही नहीं, नैतिक शोधन का साधन भी थी. यह फटेहाल और दरिद्र समाज में रामराज्य का सपना दिखाकर मरहम भी लगाती थी तो हम सब के भीतर देवत्व का कुछ अंश है, ऐसा सात्विक बोध भी जगाती थी. जिन लोगों के भीतर कला के बीज दबे होते थे, रामलीला उन्हें अंकुरित करती थी. और रामलीला उनकी कला को पल्लवित, पुष्पित भी करती थी. मेहनत-मजूरी और किसानी के दुर्दम्य संघर्षों से जूझते लोगों को रामलीला एक ऐसे मनोजगत में ले जाती थी, जहाँ सुख और शान्ति का एक विरल मौसम होता था. कुछ देर के लिए ही सही वो उस दुनिया में पहुँच जाते थे जहाँ सूखा, अतिवृष्टि, कालरा और जमींदारों के चाबुक नहीं दिखाई पड़ते थे. यह वो जगह होती थी जहाँ राम-लक्ष्मण की लीलाओं के साथ हमारे भीतर की वेदनाओं और संवेदनाओं को एक अनन्त और वस्तुनिष्ठ विस्तार मिलता था.

यह उन दिनों की बात है जब मैं आठ-दस बरस का बालक था और किशोरावस्था को मुझ पर आने की कुछ हड़बड़ी सी थी. उस समय दशहरा से दीवाली तक स्कूलों में पचीस दिन की फसली छुट्टी होती थी. यह ऐसा मौसम होता था जब गांवों का सौन्दर्य अपने शिखर पर होता है. खलिहान में रखे धान के गट्ठरों से मदहोश कर देने वाली खुशबू हवा के झोंकों के साथ घरों में घुस आती थी. झाड़ियों में रंग-बिरंगे फूल और उन पर मंडराती तितलियाँ मन हर लेती थीं. सुबह घास पर बिखरी हुई ओस और शाम की लालिमा में पसरी हुई आस ! इसी खुशगवार दृश्य में हम शामिल होते थे अपने गांव में जब हमारा परिवार नजदीकी कस्बे से फसली छुट्टी में घर आता था. हम लोगों की दशहरा दीवाली गाँव में ही होती थी.

और इसी समय गांव में आती थी रामलीला मंडली. गांव से थोड़ा हटकर एक बहुत बड़ा सामूहिक बगीचा था. यह गांव का श्मशान भी था. गांव के मृतकों का अंतिम संस्कार यहीं होता था इसलिए डरावना भी था, खासतौर से बच्चों के लिए. रामलीला मंडली यहीं अपना डेरा जमाती थी. यहीं उनका मंच सजता था. विचित्र बात थी कि जिस बगीचे में दिन में भी जाने से लोग डरते थे, वही बगीचा पन्द्रह बीस दिनों के लिए स्वर्ग बन जाता था. तब गांव में बिजली नहीं थी. आस पास के किसी गांव में नहीं. रात में इन दिनों यह श्मशान ऐसे लगता था जैसे अँधेरे के समुद्र में रौशनी का कोई टापू हो. रामलीला मंडली पन्द्रह बीस दिनों तक इसी बगीचे में रामलीला का मंचन करती थी. मेरा गांव जाने का सबसे बड़ा लोभ यही रामलीला थी. मैं साल भर इस छुट्टी का इंतज़ार करता था. रामलीला के प्रति मेरी दीवानगी तब से थी जबसे मैनें होश सम्भाला. जब मैं तीन-चार साल का था, तब से मेरे भीतर रामलीला की स्मृतियाँ और संस्कार हैं. उस समय दशहरे की छुट्टियों में मैं अम्मा के साथ ननिहाल जाता था. इलाहाबाद से लगा हुआ एक बड़ा सा जीवन्त कस्बा है त्यौंथर. यही मेरा ननिहाल है. टमस नदी की भीट पर बसा यह कस्बा बहुरंगी और कला सम्पन्न है. यहाँ की रामलीला बहुत प्रसिद्ध थी. मेरे मामा का पूरा घर कई पीढ़ियों से रामलीला में अभिनय करता था. मामा लोग चूँकि ब्राह्मण थे और सुदर्शन थे, तो राम-लक्ष्मण-भरत-सीता और ऋषियों की भूमिकाएँ .यही लोग निभाते थे. जिन दिनों की मुझे याद है, उस समय मेरे नाना, विश्वामित्र और परशुराम बनते थे. बड़े मामा राम और छोटे मामा लक्ष्मण. परशुराम-लक्ष्मण का झगड़ा हम लोगों को इसलिए भी ज्यादा मज़ेदार लगता था कि नाना और मामा लड़ रहे होते थे. बाद मे दोनो जन घर आकर भी लड़ते थे. इन लोगों को खूब इनाम भी मिलते थे अभिनय पर. खासतौर से ‘धनुषयज्ञ’ के दिन छोटे मामा लक्ष्मण, परशुराम से संवाद पर खूब ईनाम बटोरते थे. बाद में हम सब बच्चे उनसे पैसे छुड़ा लेते थे. उन्हीं दिनों से मुझे रामलीला के अधिकतर संवाद याद हो गए थे. ये संवाद राधेश्याम कृत रामायण के होते थे.

बाद में जब हमारे गांव में रामलीला मंडली आने लगी तो मानों मेरी मुराद पूरी हो गई. तब तक ननिहाल जाने का सिलसिला भी कुछ कम हो गया था. फसली छुट्टी में अम्मा अगर मायके जाती भी, तो मैं गांव की रामलीला के लोभ में नहीं जाता था. लगभग पन्द्रह बीस दिनों तक रामलीला चलती थी. और कभी कभी लोगों की फरमाइश पर कुछ प्रसंग दुबारा मंचित किए जाते थे. खासतौर से धनुषयज्ञ और लक्ष्मण मेघनाद युद्ध के प्रसंग सबसे ज्यादा हिट होते थे. रामलीला मंडली गांव वालों से कोई शुल्क नहीं लेती थी. गांव वालों को सिर्फ उनके रोज़ के भोजन का इन्तज़ाम करना होता था. गांव के सम्पन्न लोग अलग-अलग दिन के भोजन का जिम्मा बड़ी श्रद्धा और गर्व के साथ उठा लेते थे.

शाम लगभग सात बजे लीला शुरू होती थी. दूसरे लोग इसी समय के आसपास लीला स्थल पर पहुँचते थे. मुझे इतनी उतावली होती थी कि मैं शाम पाँच बजे ही एक छड़ी और अपने बैठने के लिए बोरिया लेकर चल देता था. सबसे आगे मेरी ही बोरी बिछती थी. जब में वहाँ पहुँचता उस वक्त कलाकारों का श्रृंगार चल रहा होता था. रामलीला के सभी कलाकार पुरुष होते हैं. कोई चड्डी-बनियान में, कोई तौलिया लपेटे बैठा मुह पर मुर्दाशंख पोतवा रहा होता. किसी के चेहरे पर लाल-पीली-काली टिप्पियाँ बनाई जा रही होतीं. हनुमान जी अपनी पूँछ को दुरुस्त कर रहे होते. रावण पेट्रोमैक्स में बत्ती लगा रहा होता. समय से बहुत पहले पहुँच जाने के कारण मेरी रामलीला मंडली वालों से दोस्ती होने लगी. मुझसे खूब बतियाते सब. उनके संवाद तो मुझे याद ही थे. मैं गाकर सुनाता तो सब अचंभित हो जाते. उनका अनुराग मुझ पर इतना बढ़ गया कि रात बारह-एक बजे जब लीला खत्म होती तो वे मुझे अपने ही पास रोक लेते. अपने साथ ही मुझे खाना खिलाते और सुला लेते. मैं रावण के साथ सोता था क्योंकि वह बहुत ज़िन्दादिल और स्नेहिल था. रामचन्द्र जी मुझसे कुछ कम कम बोला करते थे क्योंकि मंडली के सभी लोगों का ध्यान राम से अधिक मेरे ऊपर रहने लगा. रात भर मंडली के साथ बिता के सुबह मैं अपने घर आ जाता. यही सिलसिला हो गया था.

कि एक दिन कुछ अप्रत्याशित हो गया. लक्ष्मण जी अचानक बीमार हो गए. मंडली के अध्यक्ष ने निर्णय लिया कि भरत वाला पात्र लक्ष्मण बन जाएगा. फिर भरत कौन बनेगा ?? तय हुआ कि भरत का रोल बालक विमलेन्दु करेंगे. मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम. संवाद तो मुझे याद थे . लेकिन व्यास जी की गाई चौपाइयाँ मुझे समझ नहीं आती थीं. व्यास जी पूरी लीला के सूत्रधार होते थे. उनकी चौपाइयों से ही हर पात्र को यह संकेत मिलता था कि किसको क्या एक्शन करने हैं और क्या संवाद बोलना है. मैने अपनी समस्या उन लोगों को बताई तो रावण जी मेरी मदद को आगे आए. उन्होने कहा परेशान न होना मैं परदे के पीछे से बताता जाऊँगा कि कब क्या करना है. मैं राजी हो गया. आनन-फानन में मुझे तैयार किया गया. जब मंच पर मैने एन्ट्री मारी तो गांव के लोग चौंक गए. खूब तालियाँ बजीं. मंडली वालों की उम्मीद से कुछ बेहतर हो गया था मुझसे. उस दिन से रोज़ ही कोई न कोई भूमिका मुझे मिलने लगी. एक दिन सीता जी को कुछ हो गया तो उन लोगों ने मुझे सीता बनने को कहा. मैं शरमा गया एकदम से. मैने सीता बनने से मना किया तो सब नाराज़ गए. उनकी नाराज़गी मुझे बुरी लगी. तो मैने उनके साथ रात में रुकना बन्द कर दिया. उनसे मेल-जोल भी कम कर दिया. मुझे डर लगने लगा कि कहीं किसी दिन ये मुझे सीता बना ही न दें. खैर ऐसा हुआ नहीं.

इस तरह कई सालों तक रामलीला मंडली गांव में आती रही. यह सिलसिला तब बन्द हुआ जब गांव की एक लड़की रामचन्द्र जी पर मुग्ध हो कर उनके साथ भाग गई. गांव मे हंगामा मच गया. रामलीला मंडली को बीच में ही अपना पंडाल उखाड़ के भागना पड़ा. तब से आज तक मेरे गांव में फिर कोई मंडली नहीं आई, न रामलीला हुई.

इस दुखद प्रसंग को छोड़ दिया जाय तो रामलीला उस जमाने में लोगों को कला के संस्कार देती थी. जन-जीवन के नैतिक शिक्षा का माध्यम भी था यह कलारूप. बाद में जब दूरदर्शन आया और दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक आने लगा तो अचानक रामलीला का मंचन बहुत बचकाना लगने लगा. टीवी पर तकनीक से सजी राम की लीला के आगे बिना माइक और बिना पर्याप्त प्रकाश के लीला उबाऊ लगने लगी. बड़ी बड़ी मंडलियाँ बन्द हो गईं या फिर औपचारिकता बस बची. यद्यपि बनारस के रामनगर, इलाहाबाद और मैसूर में आज भी रामलीला का भव्य आयोजन होता है, लेकिन लोगों की वैसी रुचि नहीं रही जैसी पहले थी. आप भी महसूस करते होंगे कि टीवी ने बहुत सी लोक कलाओं और देशज कला माध्यमों को खत्म कऱ दिया है.

रामलीला की शुरुआत कब और कैसे हुई होगी, इसको लेकर अलग-अलग मत हैं. कहा यह जाता है कि राम के वन-गमन के बाद, चौदह बरस की वियोग-अवधि, अयोध्यावासियों नें राम की बाल-लीलाओं का अभिनय कर के काटी थी. कुछ लोग रामलीला का आदि-प्रवर्तक काशी के मेघा भगत को मानते हैं. ये काशी के कतुआपुर मोहल्ले के फुटहे हनुमान के पास रहते थे. इन्हें भगवान राम ने स्वप्न में दर्शन देकर लीला करने का आदेश दिया था. वैसे आधिकारिक रूप से यह माना जाता है कि रामलीला की शुरुआत तुलसीदास की प्रेरणा से काशी के तुलसीघाट पर हुई थी. भारत के अलावा बाली, जावा, श्री लंका में भी रामलीला होती है. बर्मा की रामलीला में तो रावण-वध होता ही नहीं. युद्ध के अंत में रावण राम से क्षमा माग लेता है और युद्ध से विमुख हो जाता है. रामलीला पर छविलाल ढोंढियाल की एक महत्पूर्ण पुस्तक है. भारतेन्दु हरिश्चन्द ने रामलीला से प्रेरित होकर एक चम्पू काव्य ‘रामलीला’  लिखा था. कुल मिला कर आज रामलीला हमारी स्मृति और शोध का विषय बन कर रह गई है.

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