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Saturday 10 June 2017

किसने बोला राजा नंगा है !

                      


आपको वह कहानी याद होगी जिसमें एक सनकी राजा नंगा होकर नगर की गलियों से गुजरते हुए प्रजा से पूछता है कि उसके कपड़े कैसे है ! लोग जवाब देते हैं- अद्भुत ! तभी कोई बच्चा बोल देता है- राजा नंगा है !  राजा नंगा है !  राजा के सिपाही बच्चे को पकड़ कर कैदखाने में डाल देते हैं. यद्यपि एनडीटीवी कोई बच्चा चैनलनहीं है, लेकिन वो जब भी राजा को नंगा देखता है, बोल देता है. और राजा अतत: उसे कैदखाने पहुँचवा ही देता है. आखिर कब तक सहता रहता !

जिस मीडिया की बदौलत आजकल कोई भी खबर देश भर में आग की तरह फैल जाती है, उसी मीडिया पर हुए हमले की खबर भी आग से भी अधिक तेजी से फैली और देश भर के सोच-समझ वालों को झुलसा दिया. आप सब तक भी यह खबर पहुँच ही गई है कि सीबीआई ने एनडीटीवी के मालिक प्रणब राय के ठिकाने पर छापा मारा है. ऐसा माना जाता है कि एनडीटीवी, संसद के बाहर सत्तापक्ष का विपक्ष है. सीबीआई के छापे की खबर मिलते ही मेरा ध्यान कुछ समय पहले की दो और घटनाओं पर गया. ये दोनों घटनाएं भी इसी खबरिया चैनल से जुड़ी हुई हैं. पहली घटना जब रवीश कुमार ने एम.जे. अकबर को भाजपा में शामिल होने पर पत्र लिखा. दूसरी घटना जब पठानकोट हमले के कवरेज के बहाने एनडीटीवी पर एक दिन का बैन लगाने का आदेश सूचना प्रसारण मंत्रालय ने दिया. इन दोनों घटनाओं पर एक संक्षिप्त बात कर लेने से हमारे सामने राजनीति और मीडिया के बीच के राग-द्वेष खुलेंगे और इनके नागरिक सरोंकारों का पता भी मिलेगा.

रवीश कुमार के आत्मदया से प्लावित पत्र की खूब चर्चा रही मीडिया में. यह पत्र उन्होंने मोदी सरकार के नव-नियुक्त मंत्री और पूर्व पत्रकार एम.जे.अकबर को लिखा था. कल भी अपनी रिपोर्ट में रवीश पर्याप्त भावुक हुए. रवीश कुमार अब पत्रकारों में सेलिब्रिटी बन चुके हैं. रवीश मुझे भी पसन्द हैं. रवीश ऐसे पत्रकार हैं, जिनसे अधिकतर लोग असहमत हो सकते हैं, हमलावर हो सकते हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते. उनकी रिपोर्ट्स देखने सुनने वोले लोग जानते हैं कि वे एक बेहद संवेदनशील पत्रकार हैं. उन्होने एक ऐसी ताकतवर भाषा अर्जित कर ली है, जिससे वे अपनी बात को ठीक वैसे ही कह पाते हैं,  जैसे कहना चाहते हैं. उनकी कही गई बातों से मूल घटना कुछ अतिरिक्त असरदार हो जाती है. अब यह बात अलग से सोचने की है कि यह अतिरिक्त असर पत्रकारिता के लिहाज़ से कितना उचित है ! रवीश अपनी भाषा और भंगिमाओं से यह असर पैदा करते हैं. और इतना करते हैं कि अंत में एक रूमानी कवि नज़र आने लगते हैं.

एम.जे.अकबर को लिखे अपने खुले पत्र में रवीश बहुत भावुक हो गए. अपनी आत्मदया को और हमलावर बनाने के लिए उन्हें अपनी माँ को वेश्या कहे जाने का सम्पुट देना पड़ा. इस लम्बे खुले पत्र में रवीश कुमार की समस्त लक्षणा और व्यंजना शक्तियों का उद्देश्य, एम.जे.अकबर को एक नैतिक दुविधा के बिन्दु पर लाकर खड़ा करना था. आप सब जानते हैं कि एम.जे.अकबर एक प्रखर पत्रकार थे. पत्रकारिता से राजनीति में गए. काँग्रेस पार्टी से सांसद बने. फिर पत्रकारिता में लौटे. फिर राजनीति में गए और अब भाजपा सरकार में मंत्री हैं. इसी आवागमन पर रवीश सवाल उठाते हैं. वो यह जानना चाहते हैं कि एक पत्रकार को एक ऐसी सरकार में, जिसका चरित्र राष्ट्रवादी और तानाशाही है, शामिल होते समय क्या तनिक भी नैतिक संकोच नहीं हुआ ? यद्यपि यह सवाल रवीश ने पहले नहीं पूछा जब एम.जे. काँग्रेस में गए या जब भाजपा के प्रवक्ता बने. रवीश ने अरुण शौरी और राजीव शुक्ला को भी कभी ऐसी नैतिक चुनौती नहीं दी. फिर एम.जे. अकबर को इस तरह कठघरे में क्यों खड़ा किया, ये वही जानते होंगे.

दूसरी घटना मे देश के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एनडीटीवी इंडिया पर चौबीस घंटे का प्रतिबन्ध लगा दिया था. एनडीटीवी पर यह प्रतिबन्ध उसके एक कवरेज को बहाना बनाकर लगाया गया है. 4 जनवरी 2016 को पठानकोट एयरबेस पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला किया था. यह सेना का अत्यधिक महत्वपूर्ण एयरबेस है. न जाने सुरक्षा व्यवस्था में कहाँ और कैसी चूक हुई कि आतंकवादी इस एयरबेस में घुस गए और काफी नुकसान पहुँचाया. दूसरे चैनलों की तरह एनडीटीवी ने भी इस बड़ी घटना को कवर किया. फर्क बस इतना था, कि दूसरे चैनल 56 इंची सीने की गीदड़ भपकियों, गृहमंत्री की गर्वोक्तियों और रक्षामंत्री की मूढ़ताओं को महिमामंडित कर रहे थे और एनडीटीवी इस बड़ी घटना में सुरक्षा-व्यवस्था में हुई चूकों और दोषियों को खोज रहा था. बस यही उसका अपराध बन गया. घटना के दस महीने बाद सरकार ने एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध लगाने की सज़ा दी. सरकार की तरफ से कहा गया है कि चैनल की रिपोर्ट से सामरिक महत्व की अतिसंवेदनशील जानकारियाँ सार्वजनिक हो गई हैं. बाद में व्यापक विरोध के चलते इस आदेश को स्थगित कर दिया गया.

अब कौन कहे कि राजा नंगा है. कौन पूछे कि जब आपने पाकिस्तानी जाँच दल को पठानकोट एयरबेस में जाने की इज़ाज़त दी थी, तब क्या उसकी सामरिक संवेदनशीलता खत्म हो गई थी ? उस जाँच दल में कथित तौर पर पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. का एक अधिकारी भी था. वह न भी होता तो पाकिस्तानी सेना के अधिकारी तो थे ही. पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी का खतरनाक गठजोड़ जग जाहिर है. आखिर जिसका डर था बेदर्दी वही बात हो गई. पाकिस्तानी जाँच दल जब लौट कर गया तो उसने इस आतंकी हमले में पाकिस्तान का कोई हाथ होने से साफ इंकार कर दिया. इस प्रकरण में भारत सरकार की मज़बूरी भी दिखी और दिशाहीन विदेशनीति भी. वहीं पाकिस्तान ने ज़बरदस्त दाँव खेला. उसने पठानकोट में अपना जाँच दल भेज कर भारत सरकार को उभयतोपाश में डाल दिया. भारत सरकार अगर मना करती तो पूरी दुनिया को संदेश जाता कि भारत सरकार झूठ बोलकर नाहक पाकिस्तान को बदनाम कर रही है.

रवीश कुमार का वह पत्र बूमरेंग की तरह लौट कर मीडिया पर ही लगता है. रवीश ने बार बार ज़ोर देकर कहा है कि लोग मुझे दलाल कहते हैं. जाहिर है ये भाजपा और संघ के लोग हैं. दूसरे आम लोग यह समझते हैं कि यह पत्र भले ही एम.जे.अकबर को संबोधित है, लेकिन निशाना उन तमाम मीडियाकर्मियों और बौद्धिकों पर है जो सत्ता के लोभ में पथभ्रष्ट हो रहे हैं. इस वक्त मुझे वह उक्ति याद आती है, जिसमें कहा गया है कि जब आप किसी पर उँगली उठाते हैं, तो तीन उँगलियाँ आपकी तरफ होती हैं. इस वक्त मुझे चार साल पहले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के उठाए गए सवाल भी याद आते हैं, जो साफ बताते हैं कि मीडिया की चलनी में भी बहत्तर छेद हैं. रवीश के पत्र के बाद जो तीन उँगलियाँ रवीश की तरफ उठी हैं, वो सिर्फ रवीश कुमार की तरफ नहीं, वर्तमान मीडिया की तरफ हैं. इन उठी हुई उँगलियों का इशारा हम काटजू के उन्हीं सवालों के प्रकाश में देखने की कोशिश करते हैं.

जब जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने मीडिया के धरम-करम पर सवाल उठाये तो स्वयंभू मीडिया की सहिष्णुता सबके सामने आ गयी. प्रतिक्रिया में मीडिया, न्यायपालिका के साथ-साथ देश के सभी चिन्तनशील लोगों के सामने चुनौती की तरह आ खड़ा हुआ. संभवतः यह पहली बार हुआ था कि किसी ने इतनी महत्वपूर्ण ज़गह से मीडिया पर सवाल उठाये थे. उनके वक्तव्य के उस अंश को देखते हैं जिस पर मीडियाकर्मी और संस्थान भड़क उठे है. वो कहते हैं---मेरी राय में भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन (सकारात्मक तौर पर) जन-विरोधी हैं. भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं----पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है....दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है.....तीसरा, मीडिया हमें दिखा क्या  रहा है.

जस्टिस काटजू ने मीडिया पर तीन महत्वपूर्ण सवाल उठाये थे. इन पर बात करने से पहले हम यह जान लें कि वो कौन सी बात है जिससे मीडिया बिफर गया था. क्योंकि इन सवालों से मीडिया की सेहत ज़्यादा बिगड़ने वाली नहीं है. गाहे-बगाहे, दबी ज़बान से ही सही, मीडिया से ऐसे सवाल पूछे जाते रहे हैं. बवाल इस बात से मचा है कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू चाहते थे कि कौंसिल के दायरे में इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी लाया जाये, मीडिया की निगरानी की जाये, और न सिर्फ निगरानी की जाये बल्कि उसे दण्डित करने का भी अधिकार हो.

इस जायज़ माग पर चौथे खम्भे को तो थर्राना ही था. मीडिया में यह खुशफहमी सदियों पुरानी है कि लोकतंत्र के बाकी के तीन पाये किसी काम के नहीं हैं. कि लोकतंत्र उसी पर टिका है. वैसे हिन्दुस्तान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें मीडिया और लोकतंत्र के घटकों के बीच के सम्बन्ध हमेशा वैध नहीं रहे हैं. चौथे स्तम्भ की अवधारणा मूल रूप से हमारे यहां की नहीं है. इसका जन्म यूरोप में उन दिनों हुआ था जब यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक प्रकृया अपने शैशवकाल में थी. तब सिर्फ प्रिंट मीडिया था और उसे एक सजग प्रहरी की भूमिका में स्वीकार कर लिया गया था. हमारे देश में तब तक राजशाही ही चल रही थी. और मीडिया के किसी भी रूप का कहीं दूर-दूर तक अता-पता पता नहीं था. तो एक तरह से यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि लोकतंत्र, मीडिया और चौथा-स्तम्भ जैसी अवधारणाए आयातित हैं.
हिन्दुस्तान की जिस सवावेशी प्रकृति  के गुण हमेशा गाये जाते हैं, उसी नें लोकतंत्र और मीडिया को भी अपनी आबो-हवा में मिला लिया है....अब इनका चरित्र विशुद्ध रूप से भारतीय हो चुका है. मुझे लगभग बीस साल मीडिया में काम करते हुए जो तजुर्बा हुआ है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि जस्टिस काटजू की जो भावना है, वह आम लोगों की भावना भी है. आम लोग ऑफ द रिकॉर्ड यह खुलेआम कहते देखे जा सकते हैं कि मीडिया बिकता भी है और झुकता भी है. छोटे स्तरों पर, रोज़मर्रा के जीवन में मीडिया की ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण देखने को आसानी से मिल जायेंगे.

हमारा शहर एक छोटा सा शहर है. लेकिन यहां दो सौ से अधिक दैनिक और साप्ताहिक अखबार पंजीकृत हैं. इनमें से आठ-दस को छोड़ कर बाकियों की शक्ल सब नही देख सकते. इन अदृश्य अखबारों के दो मुख्य धंधे हैं. पहला, ये राज्यशासन से अपने कोटे का अख़बारी कागज़ लेते हैं और कुछ दाम बढ़ाकर उसे बड़े अखबारों को बेच देते हैं. दूसरा, ये बीच-बीच में किसी अफसर, नेता या ठेकेदार के तथाकथित भ्रष्ट आचरण पर रिपोर्ट तैयार करते हैं. अखबार की प्रति लेकर संबन्धित व्यक्ति के पास पहुंचते हैं. उस दिन की सारी प्रतियों के दाम वह व्यक्ति चुका देता है. अखबार को जनता के बीच तक जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. केबल नेटवर्क के समाचारों में आमतौर पर वही समाचार होते हैं जो या तो इरादतन बनाये जाते हैं या जिनका किसी के हित-अहित से कोई लेना देना नहीं होता.

पर यह तो हांडी के चावल का एक दाना भर है. आप राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालिए. अखबारों और चैनलों की भीड़ है. आप भी चकित होते होंगे जब एक ही नेता या पार्टी या सेलिब्रिटी को एक ही समय में कुछ अखबार/चैनल महान बता रहे होते हैं और कुछ अधम और पापी. चुनावों के दौरान मीडिया जिन लोगों का नकली जनाधार बनाता है, उनसे उसके रिश्तों को किस आधार पर नकारा जा सकता है. मीडिया नकली लोगों को असली की तरह पेश करता है. जिन व्यक्तित्वों के पीछे देश की जनता पागल की तरह जाती है, उनकी छवियों के निर्माण का काम मीडिया ही करता है, और यह काम वह धर्मार्थ नहीं करता.

इसी अंधकार से जस्टिस काटजू की चिन्ताएँ उपजती हैं. जब हमारा मीडिया फैशन शो, क्रिकेट और फार्मूला वन पर अपनी रोशनी डाल रहा हो और उसके गहन अंधकार वाले हिस्से में कर्ज में डूबे किसान, भूख से बिलखते बच्चे मौत की आगोश में जा रहे हों, तो उनका चिन्तित होना चौंकाता नहीं है. एक आंकड़े का हवाला देते हुए वो कहते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में ढाई लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बेशक इसमें मीडिया का हाथ नहीं है. पर बताइए, जिनका इन आत्महत्याओं में सीधा हाथ है, उनकी कलाई कभी पकड़ी मीडिया ने ? जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की समृद्धि है ?? आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही. मीडिया को यह तय करना ही होगा कि उसे किन सवालों से टकराना है और किन्हें छोड़ देना है. जस्टिस काटजू अगर चिन्तित होते हैं कि मीडिया देश और समाज को विभाजित करता है, तो इस बात का सम्बन्ध मीडिया के इरादे से नहीं है. बल्कि यह उसके चयन-विवेक पर प्रश्न-चिन्ह है. आतंकी घटनाओं, साम्प्रदायिक विद्वेष, जातीय संघर्षों के समय मीडिया का यह अविवेक बहुत साफ तौर पर सामने आ जाता है.

दरअसल हमारे वर्तमान अर्थकेन्द्रित समाज में मीडिया एक उद्योग बन चुका है. इसके सारे घटक पूंजीपतियों की मिल्कियत हैं. पूंजी की अपनी आकांक्षाएँ होती हैं. वह अपनी नैतिकता और सामाजिकता खुद गढ़ती है. पूंजी को कुरूपता-दरिद्रता पसन्द नहीं आती क्योंकि वहां उसका प्रवाह बाधित होता है. इसीलिए हमारा मीडिया उस मायालोक को रचता है, जिसकी तेज़ रोशनी आपकी आँखों को चौंधिया दे. उसके पास तकनीक है. इस तकनीक से वह प्रकाश के वृत्त को मनचाहे ढंग से घुमाता रहता है. इसके पास यह कौशल है कि वह जिन चीज़ों को चाहे उन्हें गहरे अंधकार में डुबा दे.जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की समृद्धि है ?? आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही.        

लेकिन इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर शायद पहले बात की जानी चाहिए थी. मीडिया की सशक्त उपस्थिति ने ही यह संभव किया है कि आज कई राजा, रानियां, चोर-उचक्के अपने असल ठिकाने तक पहुंच चुके है. इससे भी बड़ी बात यह है कि आज देश का हर बेसहारा आम आदमी मीडिया पर भरोसा करता है और उसे अपनी शक्ति की तरह मानता है. यह समय टकराव का नहीं है. मीडिया एक बहुत ताकतवर माध्यम है. इसकी ताकत आम जन के भरोसे बनती है. ज़रूरत है कि वह अपने सर्वोच्चताबोध को छोड़कर, अपने सामाजिक दायित्वों को समझे. उसकी भूमिका प्रहरी की है, और इसी में उसकी सार्थकता है. उसे मालिक की भूमिका में कभी नहीं स्वीकारा जा सकता. मीडिया सत्तायें बदल सकता है, समाज बदल सकता है, लेकिन शासक नहीं बन सकता. .

लेकिन संकट तो दिख रहा है इन दिनों. लोकतांत्रिक प्रविधियों के भीतर, घोर अलोकतांत्रिक शक्तियाँ अप्रकट हैं.. इमरजेन्सी के बाद पहली बार मीडिया पर ऐसी कार्यवाही की गई है. राष्ट्रवाद की भावना को आतंकवाद की हद तक बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं. असहमति को राष्ट्रद्रोह सिद्ध किया जा रहा है. अभी कुछ ही दिनों पहले अरुण जेटली ने फरमान जारी किया है कि सरकारी कर्मचारियों को सरकार की आलोचना करने का अधिकार नहीं है. ऐसा करने पर उनके खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. म.प्र. के एक आई.ए.एस. अफसर ने जवाहरलाल नेहरू की तारीफ कर दी तो भाजपा सरकार ने सज़ा दे दी. जे.एन.यू. के प्रकरण से तो आप सब वाकिफ़ ही हैँ. एनडीटीवी का प्रकरण सरकार की इसी प्रवृत्ति का अगला कदम है.


1 comment:

Zee Talwara said...

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