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Thursday 31 January 2013

डायरी: झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन का क्रिकेट !


क्रिकेट के बहाने राजनीति, समाज और उसके अर्थशास्त्र पर एक बेहद उम्दा विशेलेषण पुंज प्रकाश ने किया है....
समय निकाल कर ज़रूर पढ़ें.......





डायरी: झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन का क्रिकेट !: इधर झारखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगने की घोषणा हुई उधर झारखण्ड की राजधानी राँची में झारखण्ड स्टेट क्रिकेट एशोसिएशन ( जेएससीए ) के स्टेड...

Thursday 24 January 2013

बैन्डिट क्वीन : बर्बर समाज में स्त्री-प्रतिरोध



     दिल्ली गैंगरेप के बाद पूरे देश में जिस तरह प्रतिरोध का स्वर मुखर हुआ, उससे यह जिज्ञासा हुई कि क्या भारतीय समाज में कुछ बदलाव, प्रक्रिया में हैं ! यह सामूहिक प्रतिरोध कितना वास्तविक है ? क्या ऐसा मान लिया जाये कि भारतीय स्त्रियाँ अब ज्यादा जाग्रत, निबंध और ताकतवर हो गई हैं ?? क्या अब यह सिद्ध हो गया है कि पुरुष समाज ज्यादा हिंसक हो गया है और अब उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता ???  नई शताब्दी के शुरुआती चरण में क्या स्त्री-प्रतिरोध में कोई गुणात्मक परिवर्तन हुआ है ????

इन सवालों से उलझते हुए मुझे न जाने क्यों कुछ वर्षों पहले बनी एक फिल्म को दोबारा देखने का मन हुआ. केवल वयस्कों के लिए बनी इस फिल्म ने कुछ वर्ष पहले भारत के सभी वयस्कों, अवयस्कों और अतिवयस्कों को पहली बार एक अजीब सी नैतिक दुविधा में डाल दिया था. भारत में अनगिनत फिल्में वयस्कों के लिए बनती हैं, लेकिन बैन्डिट क्वीनपहली ऐसी वयस्क फिल्म है, जो पूरे वयस्क समाज के मानसिक स्तर को चुनौती देती है.

ज़ाहिर है कि यह उस तरह की वयस्क फिल्म नहीं है जिसे लोग चक्षुरति के जरिए कामेच्छा की पूर्ति के लिए देखते हैं. यह भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ की फिल्म है. अब तो ज़ाहिर ही हो चुका है कि भारतीय समाज के सबसे वीभत्स यथार्थ, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाले देश की देवियों के साथ दैहिक और मानसिक बलात्कार में ही घटित होते हैं.

बैन्डिट क्वीन लैंगिक वयस्कों के लिए नहीं, बल्कि मानसिक वयस्कों के लिए बनाई गई थी. जिस तरह ब्रह्मसूत्रके प्रथम सूत्र—अथातो ब्रह्म जिज्ञासामें कहा गया है कि ब्रह्म की जिज्ञासा तभी करनी चाहिए, जब मनुष्य में नित्य-अनित्य का भेद करने का विवेक आ जाये और जब वह अपने आपको चारित्रिक रूप से मजबूत कर ले. उसी तरह बैन्डिट क्वीन की जिज्ञासा करने से पहले सभी वयस्कों को तय करना होगा कि उनकी संवेदना का स्तर क्या है ?  खुद को नंगा देखने की हिम्मत उनमें है या नहीं ? अभी उनमें कितनी शर्म बाकी है ?  और यदि शर्म है, तो आक्रोश की एक ज़रा सी चिन्गारी भी किसी कोने में दबी है या नहीं ?  यह फिल्म देखने से पहले वयस्कों को इस आत्म-परीक्षण से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि इस फिल्म में बलात्कार, नग्नता और संभोग के कई निर्मम दृश्य हैं.

बैन्डिट क्वीन को केवल वयस्कों के लिए घोषित करवाने वाले इन दृश्यों का विश्लेषण करना ज़रूरी है, क्योंकि यदि ये दृश्य न होते तो फूलन फूलन देवी न बनकर डाकू हसीनाया डाकू बिजलीया इसी तरह कुछ और बन जाती. फूलन देवीके निर्माण की सारी यांत्रिकी इन्हीं दृश्यों में छिपी हुई है.

वयस्क दृश्य-1 :
ग्यारह साल की फूलन, एक गाय और एक सायकिल की कीमत पर अपने से लगभग तीन गुना बड़े एक पुरुष के साथ ब्याह दी जाती है. रात उसका पति उसके पास आता है. उसका पूरा भूगोल टटोलता है और कहता कि अभी कच्ची है, कब पकेगी रे तू ?  जल्दी से हरी हो जा ! “  वह तब भी ग्यारह साल की फूलन के साथ संभोग करता है. इस वक्त कैमरा फूलन के भयभीत और दर्द से तड़पते चेहरे पर स्थिर है. वातावरण में हृदय को चीर देने वाली चीखें गूँजती हैं. नुसरत फतेह अली का आलाप और तबले की विलम्बित से द्रुत होती लय, एक ऐसे दुख का सृजन करते हैं, जो अपने साथ गुस्सा भी लाता है. इस वैधानिक बलात्कार के बाद फूलन पति का घर छोड़कर फिर पिता के पास आ जाती है. यह उस समय और समाज में अत्यंत साहस का काम था, जहाँ स्त्रियाँ पति द्वारा किए गये बलात्कार को रो-रो कर सहती हैं या फिर आत्महत्या(स्वीकार) कर लेती हैं. इस  घटना से फूलन के फूलनदेवीबनने के मनोविज्ञान की एक अस्पष्ट झलक मिलती है.

वयस्क दृश्य—2 :
पिता के गाँव में जवान फूलन के साथ गाँव के ठाकुर का लड़का बलात्कार करना चाहता है. असफल होने पर ठाकुरों के लड़के उसे चप्पलों से मारते हैं. गाँव की पंचायत उसे यह कहकर गाँव से बाहर निकाल देती है कि फूलन गाँव के लड़कों को बरबाद कर रही है. फूलन के रिश्ते का एक भाई उसे डाकुओं के एक गिरोह के पास ले जाता है. उस गिरोह में गूजर और मल्लाह जाति के लोग हैं. जातिगत आधार पर गूजर, मल्लाहों से श्रेष्ठ जाति मानी जाती है. इस गिरोह का एक सदस्य-विक्रम मल्लाह- फूलन से प्रेम करने लगता है. गिरोह का सरदार बाबू गूजर फूलन के साथ बलात्कार करता है. इस दृश्य में बाबू गूजर फूलन को अपने नीचे दबाये हुए है. उसकी कमर से नीचे का भाग बिल्कुल नग्न दिखाया गया है, और उसके शरीर में एक चिर-परिचित हरकत है. विक्रम मल्लाह यह बर्दाश्त नहीं कर पाता और अपने सरदार को गोली मार देता है. उसके बाद विक्रम मल्लाह मस्ताना के नाम से खुद गिरोह का सरदार बन जाता है.

यह घटना और यह दृश्य, इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इसके बाद ही फूलन बेचारगी की स्थिति से अपने आपको मुक्त करती है. और अपनी रक्षा के लिए अपने आप में ताकत पैदा करने का संकल्प लेती है. यह बात अधिकांश भारतीय स्त्रियों के सामूहिक चरित्र के विपरीत थी. फूलन में यह ताकत पैदा करता है विक्रम का प्रेम और साथ. प्रेम हमेशा ही ताकत पैदा करता है. यह बात और है कि इस ताकत का उपयोग निर्माण और ध्वंस—दोनो के लिए हो सकता है. यह प्रेम की लौकिक सफलता या असफलता पर निर्भर करता है.

वयस्क दृश्य-3 :
यह दृश्य कानपुर शहर के किसी होटल के कमरे का है. जहाँ विक्रम मल्लाह अपनी टाँग का इलाज करा रहा है. यहाँ विक्रम और फूलन के विपरीत रति का प्रसंग है. फूलन विक्रम के ऊपर बैठी है. संभोग की चेष्टाएँ भी हैं लेकिन किसी के शरीर का कोई भी अंग नग्न नहीं है. पूरी फिल्म में एकमात्र यही दृश्य है, जो ज़रा सी लापरवाही पर कामोत्तेजक बन जाता क्योंकि यहाँ स्त्री-पुरुष में पारस्परिक सहमति थी. लेकिन निर्देशक ने बड़ी कुशलता से इस दृश्य को उत्तेजनहीन बनाए रखा. यह जरूरी भी था. वरना दर्शकों की गंभीरता अगर एक बार भंग होने पाती तो फिर शायद आगे की पूरी फिल्म में संभल पाना मुश्किल होता. इस दृश्य में फूलन की दृढ़ता और अपनी शर्तों पर जीने की पड़ चुकी आदत का भी पता हमें मिलता है. जब विक्रम फूलन को नंगी देखने की इच्छा करता है तो वह उसे लताड़ती है, और हल्की सी जबरदस्ती करने पर उसे चाटा भी मारती है.

वयस्क दृश्य-4 :
विक्रम मल्लाह को मारने के बाद श्रीराम ठाकुर फूलन को मारता है और अपने बीस साथियों के साथ तीन दिन तक लगातार फूलन के साथ सब बलात्कार करते हैं. यह दृश्य इतना वीभत्स और अमानवीय है कि बलात्कार-दृश्यों के प्रेमी दर्शकों तक ने भी घृणा से बलात्कारियों पर थूका. इस दृश्य में फूलन घसीटे जाने से लहूलुहान है. बलात्कार के समय उसे मारा जाता है और वह उल्टियाँ कर रही है. इस दृश्य में भी कोई निर्वस्त्र नहीं है. यहाँ भी चीखें हैं. नुसरत फतेह अली का पार्श्व-संगीत है. यह शायद किसी भी फिल्म का सबसे लंबा बलात्कार दृश्य है. बलात्कार के बाद फूलन को सभी गाँव वालों के सामने निर्वस्त्र किया गया और उसे कुएँ से पानी लाने को कहा गया. यह भारतीय समाज का वह नंगा यथार्थ था जो सदियों से किसी बहमई, किसी घूरपुर, किसी फतेहपुर, किसी भिण्ड या दिल्ली में घटित होता रहा है.
       
यह दृश्य पूरे भारतीय पुरुष समाज को—जो अब तक यह सब पढ़-सुन कर मुह चुराता रहा है—उसी के पैसों से अपने पास बुलाकर नंगा कर देता है. इस दृश्य में फूलन नंगी नहीं होती, इसमें नंगा होता है सामने बैठा दर्शक. और शायद यही वजह है कि जो दर्शक स्त्री के नितम्बों और स्तनों की एक झलक से ही उत्तेजित हो जाता है, वही एक स्त्री को पूरा नग्न देख कर भी शर्म और गुस्से से काँप रहा था. भारतीय फिल्म इतिहास में शायद पहली बार किसी स्त्री को पूरा नग्न दिखाया गया था. यह इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है. इसके बिना यह फिल्म बन ही नहीं सकती थी. इसके अलावा पूरी फिल्म में बहन और माँ से संबन्धों को लेकर बनाई गई गालियों का प्रयोग है, जो कहानी का भाषाई यथार्थ है.

        ऊपर विश्लेषित दृश्य वे दृश्य हैं, जिनकी वजह से फिल्म को अनेक प्रतिबंधों और निर्माता-निर्देशक-लेखिका को अनेक संकटो का सामना करना पड़ा. जिनकी वजह से फिल्म को केवल वयस्कों के लिए घोषित करना पड़ा. इन दृश्यों में नग्नता है, बलात्कार है, संभोग है, लेकिन अश्लीलता नहीं है. कोई कलात्मक आग्रह भी नहीं है. इस फिल्म में दृश्य और दर्शक के बीच में हवा तक की दखलंदाजी महसूस नहीं होती. न ही कैमरे का कोई खास एंगल है, न कोई मादक संगीत. यही वजह है कि फिल्म अश्लील नहीं होने पायी. पूरी फिल्म में नग्नता, क्रूरता के साथ आई है. यह नग्न क्रूरता भारतीय सामाजिक जीवन का बड़ा स्वाभाविक अंग है, जो अब उतना गोपन भी नहीं है.

आपको याद ही होगा कि पूरे देश में इस फिल्म को लेकर कितना हो-हल्ला हुआ था. इस पर अश्लीलता के आरोप लगे थे. कई महिला-संगठनों ने आरोप लगाया था कि इसमें स्त्री का अपमान है. बाद में खुद फूलनदेवी ने इस पर आरोप लगाया था कि जो घटनाएं इस फिल्म में दिखाई गई हैं वे सही नहीं हैं. फूलन ने हर्जाने में एक बड़ी रकम का दावा किया था. कुछ लोगों का कहना था कि यह फिल्म जातिगत नफरत पैदा करती है.

इस तरह के जो सारे आरोप बैन्डिट क्वीन पर आये थे, वे दोमुही सामंतवादी नैतिकता, अपरिपक्व महिला आंदोलन, अवसरवाद और अवसरवादी संवेदना के प्रतीक थे. जो लोग फिल्म को अश्लील कहते थे, वे डरे हुए लोग थे. ये सच्चाई का विरोध केवल इसलिए कर रहे थे क्योंकि ये खुद अनावृत हो गये थे. और यह वर्ग जिसे इन नैतिकतावादियों ने सदियों से अपनी जाँघों के बीच दबाये रखा, इसका इस तरह बन्दूक उठा लेना, इनकी सत्ता को चुनौती है. यही वजह है कि फिल्म का कई स्तरों पर विरोध किया गया. महिला संगठनों ने आरोप लगाया कि इन दृश्यों से स्त्री का अपमान होता है और इस पर रोक लगनी चाहिए.ये आरोप इतने अपरिपक्व थे कि इन महिला संगठनो की बुनियादी समझ पर ही प्रश्नचिन्ह लगता है. वैसे भी भारत में महिलामुक्ति संगठनों की छवि अतिभावुक-संयमहीन-गैरसमझदार की रही है. जिस देश में हर रोज एक स्त्री नंगी घुमाई जाती हो, रोज बलात्कार होते हों, और स्त्री-अपमान के अनगिनत तरीके ईज़ाद कर लिए गये हों, वहाँ यदि किसी फिल्म के दृश्य, दर्शकों में अपमान के खिलाफ आक्रोश पैदा करते हों तो यह किस नजरिए से स्त्री अपमान हुआ ?

सबसे दुखद, इस फिल्म पर फूलन की प्रतिक्रिया थी, जो भारतीय संसद की सम्मानीय सदस्या थीं. फूलन ने यह कहते हुए कि इस फिल्म की घटनाएं सच नहीं थीं, निर्माता पर मुकदमा चलाया. जिस फूलन की बदौलत, एक फिल्म के माध्यम से, पूरे भारतीय-स्त्री-समाज की दुर्दशा के खिलाफ पहली बार एक ईमानदार जनमत तैयार होने लगा था, उन्होने ज़रा से राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए एक ऐतिहासिक परिवर्तन को होने से रोक दिया. यद्यपि यह फिल्म माला सेन के उपन्यास पर आधारित थी, लेकिन फूलन का किस्सा तो जन-जन की जुबान पर था. फूलन ने इन घटनाओं पर सवाल उठाकर निराश कर दिया था.

कुछ लोगों ने कहा कि फिल्म से जातिगत विद्वेष को बल मिलता है. जातिगत विद्वेष अब भारतीय समाज के लिए परदे की चीज़ नहीं रह गया है. देश का पूरा सामाजिक ढाँचा जातिगत आधारों पर टिका है. जातीय आधारों पर अत्याचार होते रहे हैं, और फूलन भी उसी अत्याचार की शिकार रही हैं. आँख मूदने से बिल्ली भाग नहीं जायेगी.
इन आरोपों के चलते बैन्डिट क्वीन सेंसर में फँसी. प्रतिबन्धित हुई और काट-छाँट के बाद दिखाई गई. विदेश में पहले ही रिलीज हुई और कई पुरस्कार भी पा गई थी. पर इसके लिए असल पुरस्कार तो भारत में इसका प्रदर्शन ही था.

अब थोड़ी बात फिल्म के निर्देशक की. शेखर कपूर की छवि इस फिल्म के पहले एक अभिजात्य कलावादी की थी. हालांकि उन्होने ज्यादा फिल्में नहीं बनाई थीं, लेकिन उनके अभिनय और निर्देशन, दोनों में ही एक अभिजात्य कलावादी शैली थी. जब शेखर कपूर ने बैन्डिट क्वीन बनाने की घोषणा की थी, तब यह उम्मीद तो सबको थी कि यह कुछ अलग तरह की फिल्म होगी. लेकिन यह शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह इतनी सच होगी. यह फिल्म, निर्मम भारतीय यथार्थ, शेखर कपूर की मेहनत और गहरी सिनेमाई समझ का नतीज़ा थी. यह शेखर कपूर की निर्देशकीय क्षमता का ही प्रमाण है कि इतने वयस्क दृश्यों के होते हुए भी पिल्म कहीं अश्लील नहीं हुई. इस फिलम की खास बात यह है कि इसमें ज़रूरत से ज्यादा कुछ नहीं है. लेकिन ज़रूरत से कम पर किसी तरह का समझौता भी शेखर कपूर ने नहीं किया. कई बार सेंसर ने जब फिल्म को प्रतिबंधित करना चाहा तो शेखर कपूर निराश भी हुए थे. अंततः कुछ मामूली काट-छाँट के बाद भारतीय दर्शकों के सामने ला ही दिया.

सभी अभिनेताओं ने बढ़िया काम किया. नुसरत का संगीत अद्भुत है. आलाप और वाद्ययंत्रों के कोरस का चमत्कार है. संगीत, हर दृश्य के साथ ऐसे जुड़ा है कि दर्द का ही एक सुर बन गया है. फिल्मांकन ज्यादातर चंबल की घाटियों मे हुआ है और फूलन की कहानी की तरह ही सजीव है.कुल मिलाकर बैन्डिट क्वीन एक जरूरी फिल्म इसलिए भी लगती है कि ये हमें सामाजिक बदलाव के सूत्रों को पकड़ने में मदद करती है. इसे श्लील-अश्लील के झगड़े में उलझाना, एक बड़ी सांस्कृतिक भूल होगी.

आप जानते ही हैं कि आगे चलकर फूलनदेवी कुख्यात डकैत हुईं. उन्होने अपना प्रतिशोध अकेले पूरा किया. जिन लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया था उन्हें फूलन ने एक कतार में खड़ा करके गोलियों से भून दिया था. ये घटनाएँ उ.प्र. के बहमई गाँव की थीं. उस वक्त इस तरह के दुष्कर्मों के खिलाफ कोई सामूहिक चेतना देश में नहीं थी. पीड़ितों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती थी. यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है. एक बात और ध्यान देने की है, कि इस तरह के संगठित अपराध अपेक्षाकृत पिछड़े और असभ्य कहे जाने वाले समाजों में होते थे, जिनके मूल में जातीय वर्चस्व और सामंती प्रवृत्तियाँ थीं. अब ये अपराध बीहड़ों से निकल कर महानगरों के पॉश इलाकों में हो रहे हैं. सवाल ये भी मन में उठते हैं कि दिल्ली की वह लड़की अगर ज़िन्दा होती और उसे इतनी शारीरिक क्षति न पहुँचाई गई होती या फिर वह दिल्ली की घटना न होती तो, उस लड़की के प्रतिरोध का तरीका और सीमा क्या होती ? क्या तब भी सारा देश उसके साथ इसी तरह खड़ा होता ?? देश में रोज़ दुष्कर्म की सैकड़ों घटनाएँ हो रही हैं, उन पीड़ितों के साथ कोई क्यों नहीं है ??  इस प्रतिरोध में शामिल स्त्रियो का स्वर पुरुष-विरोधी क्यों है ?? क्या ये संवेदनाएँ छद्म संवेदनाएँ हैं ???

Sunday 20 January 2013

उन दिनों जो दिन थे..


Photo: उन दिनों जो दिन थे..
============

कुछ इस तरह से
बदल रही थी उन दिनों ज़िन्दगी
कि ध्वनि गति मति और
यहां तक कि शून्य के भी अर्थ बदल रहे थे ।

मैं वर्णमाला को 
गुरुकुल के बाहर पढ़ने लगा था ।

चीज़ों से मेरे रिश्ते बदल गये थे
हवा, हवा जैसी नहीं थी
और पानी
उस तरह से पानी नहीं रह गया था ।

मैं साँस लेता था
तो ऑक्सीजन थोड़े ही जाती थी मेरे फेफड़ों में
मुझे पानी से बड़ी जलन होती थी
कि एक अणु ही सही
हाइड्रोजन रकीब से कम नहीं था ।

आकाश के सामने मैं विनत था
वहीं एक निर्बल संभावना थी 
तुम्हारे भरे होने की ।

उन दिनों 
मैं ये नहीं था जो आज हूँ ।कुछ इस तरह से                                     
बदल रही थी उन दिनों ज़िन्दगी
कि ध्वनि गति मति और
यहां तक कि शून्य के भी अर्थ बदल रहे थे ।

मैं वर्णमाला को
गुरुकुल के बाहर पढ़ने लगा था ।

चीज़ों से मेरे रिश्ते बदल गये थे
हवा, हवा जैसी नहीं थी
और पानी
उस तरह से पानी नहीं रह गया था ।

मैं साँस लेता था
तो ऑक्सीजन थोड़े ही जाती थी मेरे फेफड़ों में
मुझे पानी से बड़ी जलन होती थी
कि एक अणु ही सही
हाइड्रोजन रकीब से कम नहीं था ।

आकाश के सामने मैं विनत था
वहीं एक निर्बल संभावना थी
तुम्हारे भरे होने की ।

उन दिनों
मैं ये नहीं था जो आज हूँ ।

Tuesday 15 January 2013

समकालीन कविता का पहला कोण !

हिन्दी कविता को समवेत पढ़ने का मौका अब तक नहीं निकल पाया है मेरे लिए. इसीलिए हिन्दी कविता पर ऐतिहासिक सन्दर्भों में कुछ कहने के खतरे भी मालूम हैं मुझे. अपने कुछ प्रिय कवियों को पढ़ते हुए आज़ादी के बाद की हिन्दी कविता से कुछ खून का रिश्ता जैसा बनता गया. ठीक उसी तरह जैसे आजादी के पहले की कविताओं को पाठ्यक्रम में पढ़ने से एक अनुराग का रिश्ता बना है. समकालीन कविताओं को पढ़ते हुए मुझमें कुछ जिज्ञासाएँ पैदा होती रहीं हैं जिन्हें मैं यहाँ पर अपनी धारणा के शिल्प में कहूँगा. कई बिन्दुओं पर आपको लग सकता है कि यह अधजल गगरी  कुछ ज्यादा ही छलक रही है. ये कुछ छोटे-छोटे नोट्स हैं, इसीलिए कुछ असम्बद्ध भी होंगे. लेकिन मेरी इच्छा है कि मैं आजादी के बाद की कविता में आये गुणात्मक बदलावों को कुछ हद तक रेखांकित कर पाऊँ ।
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जिस हिन्दी कविता को मैं जानता हूँ और दरअसल जिससे मेरा सरोकार है, वह कविता विभिन्न वादों से परे अपनी निबंधता में मुझ तक आती है. यह कविता भारत के प्रथम नागरिक और भारत के अंतिम नागरिक—दोनो के पक्ष में एक साथ खड़ी दिखाई पड़ती है. लेकिन मैं इसे कविता का दो-मुहापन नहीं मानता. कविता भी यह जानती है कि हम चाहे जितना हाथ-पैर मार लें, भारत के अंतिम नागरिक के भाग्य का नियन्ता, भारत का प्रथम नागरिक ही है. अतः प्रथम नागरिक को साक्षर करने का जिम्मा अगर कविता ले रही है तो इसमें, अंतिम नागरिक के पक्ष में कविता की गहरी चाल है.
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आज़ादी के बाद भारत में धार्मिक और जातीय व्यवस्था का पुनर्गठन हुआ. शंकराचार्यों, बुखारियों और कांशीरामों की आत्माओं ने कई जीर्णानि वाशांसि बदले. इस काल में, इन सभी अवतारों के अपने भिन्न-भिन्न स्वार्थ रहे. अपने पक्ष में इन्होंने कांकर-पाथर जोड़कर चुनाए गये मन्दिर-मस्ज़िद तथा गाय और सूअरों तक का इस्तेमाल कर लिया. लेकिन एकदम निरीह समझा जाने वाला कवि और उसकी कविता उनके पक्ष में नहीं गई. मुझे हिन्दी कविता की यह सबसे बड़ी उपलब्धि लगती है.
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कुछ लोगों का कहना है कि इधर कविता का सरलीकरण हुआ है. शब्दों, उनके अर्थों, वस्तुओं और प्रतीकों आदि का सामान्यीकरण हुआ है. लेकिन मुझे इसका उल्टा लगता है. अपने गठन, प्रतीकों और विम्बों में, बाहर से देखने पर  यह कविता सरल दिखाई पड़ सकती है. हालांकि इस कविता को जनमके बाद सनम, करम’, ‘बलम’, ‘न हम’, ‘न गम’, ‘बम बम–जैसी तुकें ढूढ़ने की मशक्कत नहीं करनी पड़ती, ल्किन अपनी भाषा और प्रतीकों के द्वारा इस कविता ने जो गठन प्राप्त कर लिया है, और हमें डिस्टर्ब कर देने की जो ताकत अर्जित कर ली है, वह चमत्कारिक है. इस गठन और इस ताकत को पाने के लिए कवि को जो संघर्ष करना पड़ता है, वह कोई कवि ही महसूस कर सकता है. मुझे लगता है कि आज की कविता में चीज़ों का विशिष्टीकरण हुआ है. इन कविताओं में हमारे हँसने, बोलने, बैठने, उठने, रोने-गाने जैसी नितान्त अलक्षित और सामान्य क्रियाओं ने भी, विशिष्ट काव्यात्मक अर्थ ग्रहण कर लिए हैं. नदी-पहाड़-पेड़-पौधे-पशु-पक्षी, हमारे जीवन की गहनतम संवेदनाओं के प्रतीक बन गये हैं. मुझे लगता है कि आज़ादी के बाद की हिन्दी कविता, चित्रकला के ज़्यादा नज़दीक गई है.
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हम जिस कविता को पढ़ते हैं,उसके रचयिता का सौन्दर्यबोध बदला है. इस कवि को सौन्दर्य-अनुभूति और अभिव्यक्ति के लिए कूलन में केलिन में बगरो बसन्तनहीं चाहिए. इसकी आँखें उन्नत वक्ष, पुष्ट नितम्ब और गम्भीर-नाभि में नहीं टिकती. इस कवि को आटा माड़ते हुए स्त्री का चुपके से नाक पोंछ लेना सुन्दर लगता है. हमारे केदारनाथ सिंह जी उसका हाथ/ अपने हाथों में लेते हुए/ सोचते हैं/ कि दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए.”  कुमार अंबुज एक सुन्दर सी शाम को/ पत्नी के हाथ की सिकी रोटी की तरह फूली हुईदेखते हैं. वे चाहते हैं कि इस शाम की सारी भाप निकाल कर/ घी चुपड़ कर/ इसे आधा-आधा खायें दोनों.
इस बदले हुए सौन्दर्यबोध की एक विशिष्टता यह है कि इसका काव्यात्मक प्रक्षेपण आध्यात्म पर नहीं होता. यह हमारे वस्तुजगत की गतिविधियों से सीधे जाकर जुड़ता है.
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यानी हम उस कविता की बात कर रहे हैं जो व्यक्तित्वों का निर्माण नहीं करती. इस कविता ने कवि के विशिष्ट रंग-रूप, वेश-भूसा, कुल-गोत्र के सारे छन्द तोड़े हैं. इस चाहे आप काव्य-विनोद ही मानें, लेकिन समकालीन कविता ने इस अर्थ में भी छन्द से मुक्ति पाई है. कविता में जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई है. कविता के नायक गायब होते गये हैं. एक अर्थ में समकालीन कविता नायक के निष्कासन की कविता है. यह कवि राजा के साथ उसके रथ में बैठ कर नहीं निकलता. वह सड़क पर सब्जी खरीदते हुए मिल जाता है. यह कवि चकाचौंध वाले बाज़ार में सहमा सहमा चलता हुआ, किसी भी दूकान पर एक रुपये डिस्काउण्ट के लिए, अपनी पूरी प्रतिभा से बहस करता हुआ मिल जायेगा. इस कवि का, इस जीव-जगत से बहुत करीब का रिश्ता है. इसलिए इसकी संवेदनाएँ अधिक सच्ची हैं. हमारे कविता-समय का कवि अधिक सहिष्णु, उदार और स्वीकार-भाव से भरा हुआ है.
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अक्सर यह गलतफहमी पैदा करने की कोशिश की जाती है कि समकालीन कविता का छन्द से विरोध है. दरअसल यह विरोध छन्द से नहीं रूढ़िबद्धता से है. छन्द में विश्व की महान कविताएं संभव हुई हैं. कई समकालीन कवि भी गाहे बगाहे छन्द में लिखते हैं. मुझे लगता है कि छन्द और मुक्त छन्द के बीच एक रिश्ता कायम होना चाहिए, जैसा निराला के यहाँ है. यह कविता में प्रजातंत्र को और मजबूत करेगा. न सिर्फ छन्द और बे-छन्द के बीच रिश्ता कायम होना चाहिए, बल्कि हिन्दी कविता को अपनी क्षेत्रीय बोलियों से भी और अधिक जीवन्त रिश्ता बनाना चाहिए. तभी यह कविता भूमण्डलीकरण के इस आक्रामक दौर में अपनी पहचान बचा पायेगी.
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आज की हिन्दी कविता एक बहुत बड़े भू-भाग की कविता है. इसी भूखण्ड में दुनिया की समस्त भाषाओं के कुल निरक्षरों में से आधे निरक्षर हिन्दी भाषी हैं. हिन्दी कविता का अधिकांश लेखन हिन्दी राजभाषा में हुआ है. अतः यही कारण है कि समकालीन हिन्दी कविता एक बहुत बड़े वर्ग की कविता नहीं बन पाई. वैसे कविता के पाठक न तो पहले अधिक थे और न आज हैं. हिन्दी कविता ने वृहत्तर समुदाय के बीच जाकर विषयवस्तु के स्तर पर जोखिम उठाया है. अब उसे भाषा के स्तर पर कुछ जोखिम ज़रूर लेने होंगे.
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आजादी के बाद की कविता कई क्षेत्रों में गई. आजादी के पहले की कविता के पास उपनिवेशवाद से मुक्ति का ही एक प्रश्न था. इसलिए कविता की सभी धाराएँ अंततः एक बिन्दु पर आकर मिल जाती थीं. आजादी के बाद की कविता के सामने ज्यादा चुनौतियां थीं. यही कारण है कि आजादी के बाद हिन्दी कविता में कई आन्दोलन जल्दी-जल्दी घटित हुए. दरअसल किसी भी समय की कविता को वह करना होता है जो उसके पहले की कविता ने न किया हो. इस मायने में समकालीन कवियों का संघर्ष कम हुआ है. दुनिया अब अनेक चेहरों वाली हो गई है. व्यक्तियों का मनोविज्ञान भी विभाजित हुआ है. अबके कवि को अपने ही स्थान से अपने समय में प्रवेश करने की सुविधा है. यही वजह है कि आज के कवि जीवन के अंतर्विरोधों को नई-नई दृष्टियों से देख रहे हैं. 

Monday 7 January 2013

एक दिन क्षमा मागनी होती है...: चंद्रकांत देवताले की कविताएँ (2)


आकाश और पृथ्वी के बीच                                                                               
कब से वह औरत कपड़े पछींट रही है                                                                          
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में                                                                                             
कितना आटा गूँध रही है                                                                                    
एक औरत अनन्त पृथ्वी को                                                                                 
अपने स्तनों मे समेटे                                                                                    
दूध के झरने बहा रही है                                                                                    
एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है                                                                        
उसके हाथ अपना चेहरा ढूढ़ रहे हैं                                                                            
उसके पांव जाने कब से                                                                                    
सबसे                                                                                                    
अपना पता पूछ रहे हैं ।  (औरत)


औरत को इस तरह देख पाने वाला कवि ही घर में अकेली औरतऔर नहाते हुए रोती औरतके दुख को जान सकता है. चंद्रकांत देवताले ने अकेली औरत की कई अनछुई अनुभूतियों को शब्द दिया है........ तुम्हारा पति अभी बाहर है/ तुम नहाओ जी भर कर/ आइने के सामने कपड़े उतारो/ आइने को देखो इतना/ कि वह तड़कने को हो जाये/ पर उसके तड़कने से पहले/ अपनी परछांईं को हटा लो/ घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है......

इस कविता में एक शादीशुदा किन्तु पति के प्यार और अधिकार से वंचित स्त्री का मार्मिक चित्रण है. इस कविता में स्त्रियों का त्रासद सूनापन और एकदम निजी अकेलापन सामने आता है. इसी तरह नहाते हुए रोती औरतमें भारतीय स्त्री की सामाजिक और पारिवारिक उदास ज़िन्दगी सामने आती है. यह एक जबर्दस्त कविता है.......... किस चीज़ के लिए रो रही है यह औरत/ और क्यों चुना उसने नहाने का वक्त/ …..दुख हथेली पर रख कर दिखाने वाली नहीं यह औरत/ रो रही है बे आवाज़ पत्थर और पत्तियों की तरह/ वह जानती है पानी बहा ले जायेगा/ आँसुओं और सिसकियों को चुपचाप/ उसके रोने का रहस्य/ हालांकि जानते हैं सब/मामूली वज़हों से अकेले में/ कभी नहीं रोती कोई औरत.......
             
चंद्रकांत देवताले की कविताओं में स्त्री का आत्मीय स्पर्श तो है ही, एक ऐसा स्नेहिल स्पर्श भी है जो तमाम दुखों के बीच कवि को जूझने की शक्ति देता है. इनकी कविता में एक ऐसी विरल पारिवारिकता है जहाँ स्त्री माँ के रूप में अपने सरलतम किन्तु कविता के विषय के रूप में जटिलतम रूप में मौजूद है. कवि स्वीकार करता है-------माँ पर नहीं लिख सकता कविता/ माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए/ देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे/ और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया/ .....मैने धरती पर कविता लिखी है....सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा/ माँ पर नहीं लिख सकता कविता.
           
लेकिन माँ पर कविता न लिख पाने की अपनी आत्मस्वीकृति के बावजूद कवि माँ की स्मृतियों में जाता है------वे दिन बहुत दूर हो गए हैं/ जब माँ के बिना परसे/ पेट भरता ही नहीं था/ .........वह मेरी भूख और प्यास को/ रत्ती रत्ती पहचानती थी/ और मेरे अक्सर अधपेट खाये उठने पर/ बाद में जूठे बर्तन अबेरते/ चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी/ …..और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना/ सबसे खतरनाक सिद्ध होता था.

माँ पर कविता न लिख पाने की अपनी लाचारी मान लेने के बाद भी देवताले जी माँ की स्मृतियों में जाते है. इसकी वज़ह यही हो सकती है कि उनके भीतर खुद वात्सल्य का एक सोता है, जो बार-बार फूट पड़ता है. वे खुद एक स्नेहिल, जिम्मेदार और वयस्क पिता की तरह कविताओं में आते हैं. इसीलिए जब वे थोड़े से बच्चों की खुशहाल जिन्दगी के लिए, दुनिया के बाकी बच्चों की अजीयत भरी ज़िन्दगी देखते हैं तो एक मर्माहत चीख निकलती है-------
“  ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से गलने लगती/ सत्य होता तो वह अपनी नयायाधीश की कुर्सी से उतर/ जलती सलाखें आँखों में खुपस लेता/ सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे पर तेजाब पोत/ अन्धे कुएँ में कूद गया होता…”
दो लड़कियों का पिता होने सेइतना संवेदनशील पिता हो जाता है कवि कि बालम ककड़ी बेचती हुई लड़कियोंकी चिन्ता भी उसकी चिन्ता हो जाती है. और सोते वक्त भी कांटों की तरह/ चुभती रहती हैं/ इत्ती सुबह की ये लड़कियाँ........

कवि एक स्नेहिल पिता है और वह यह भी जानता है कि प्रेम पिता का दिखायी नहीं देता/ ईश्वर की तरह होता है......दुनिया भर के पिताओं की कतार में/ पता नहीं कौन सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा/ पर बच्चों के फूलों वाले बगीचे की दुनिया में/ तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए....”…….यह एक अद्भुत कविता है. कवि-पिता ने बदलते वक्त को पहचान लिया है. आगे की पंक्तियों में वह लड़कियों की पूर्ण स्वायत्तता और स्वतंत्र अस्तिव-विकास की हिमायत करता है-----मुझे माफ करना मैने अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था/ मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी/ अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गयी हो/ मैं खुश हूँ सोचकर/ कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछांई.......
पिता द्वारा बेटी की परछांईं को अपनी भाषा के अहाते से मुक्त करना सचमुच एक क्रान्तिकारी कदम है. आज भी कितने पिता ऐसा कर पाते हैं !
       
चंद्रकांत देवलाले की कविता का एक विशिष्ट लक्षण यह उजागर होता है कि वे सिर्फ कवि होने के नाते कोई रियायत नहीं लेना चाहते. वे खुद को भी इस दुनिया की विडंबनाओं और खराबियों के लिए दोषी मानते हैं. इसीलिए विष्णु खरे उन्हें अपराध-बोध से ग्रस्त कवि कहते हैं. देवताले अपने अपराधों की निर्भीक आत्म-स्वीकृतियाँ भी देते हैं. बस में एक आदिवासी बच्ची को कवि अपनी गोद में बिठा लेता है और महसूस करता है------धड़कने लगा बाप का दिल/ फिर यही सोच कर दुख हुआ मुझे/ कि बच्ची को शायद ही मिली होगी/ मुझसे बाप की गंध/ मैं क्या करता मेरी पोशाक ही ऐसी थी/ मेरा जीवन ही दूसरा था.......
              
कवि को अपने दुसरे तरह के जीवन का पछतावा है. वह जानता है कि अपने इस विशिष्ट कुल-गोत्र के कारण ही वह नितान्त आदिम लोगों के सुख तो क्या, दुखों तक का भागीदार नहीं बन सकता. यह पछतावे का भाव कवि के पूरे जीवन पर हावी है. इसका एक खास असर कवि के मूल स्वर में दिखता है. वह गुनहगारों में खुद को शामिल मानता है. वह अपनी कविताओं में गुनाहों और गुनहगारों की सूचना देता है और दुख में डूब जाता है. प्रतिरोध का जो स्वर, चन्द्रकांत देवताले की कविताओं का अगला चरण होना चाहिए, उस तक देवताले जी की कविताएं नहीं जातीं. प्रतिरोध की बजाय कवि क्षमा माग लेना ज़्यादा उचित समझता है--------
     
एक दिन क्षमा मागनी होती है/ तुम्हारा जीवन कैसे गुज़रा यह दीगर बात होगी/........क्षमा मागनी होगी सबसे पहले अपनी माँ से/........फिर उससे जिसके भीतर/ तुम अपनी आग को बर्फ में तब्दील करते रहे/ फिर मागते रहना दुनिया भर से/.”
                
क्षमा माग लेने की यह सुविधाजनक मुद्रा कवि में शायद भारतीय जीवन में प्रचलित मिथकों से आई है. भारतीय मिथकों में शिव से लेकर राम, कृष्ण, पैगम्बरों, महावीर, और बुद्ध तक क्षमाशीलता की इतनी गाथाएँ प्रचलित हैं कि शायद यही वज़ह है कि भारत में सामाजिक गैर-बराबरी और अन्याय के ख़िलाफ कभी भी किसी बड़े आन्दोलन का मानस तैयार नहीं हुआ.
      देवताले जी का पहला कविता संग्रह 1975 में आया और तब से आज तक वो अनथक लिख रहे हैं. बड़े आश्चर्य की बात है कि इस सुदीर्घ काव्य-यात्रा में भाषा-शैली और विषयवस्तु के स्तर पर कवि में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया, जबकि इसी अवधि में दुनिया में कितने बदलाव हो गये. दुनिया को कुरूप बनाने वालों ने अपने अस्त्र-शस्त्र बदल डाले. कुछ समय के लिए चंद्रकांत देवताले मुख्य मार्ग को छोड़कर पगडंडी में घुसे ज़रूर हैं, लेकिन जल्दी ही अपने पुराने ढर्रे में आ गए. जैसे 1982 में प्रकाशित संग्रह रोशनी के मैदान की तरफ’  की कुछ कविताओं में भाषा और तकनीक के स्तर पर कुछ बदलाव देखने को मिलता है------
स्मृतियों की देहहीन नदी/ हवा में उड़ रही है/ और कुएँ के भीतर नहाती हुई शाम/ तुम्हारे आईने में मेरा नाम पुकार रही है/ ……..इसी तरह......एक दिन रस बनना बन्द हो जाता है/ और फिर देह के भीतर सारी पृथ्वी सूखने लगती है/ आवाज़ का हरापन भूरे में बदलने लगता है/ ......आँखों के आकाश में/ चहकने वाले सारे रंग पत्थर बनकर/ गिर पड़ते हैं आँखों के बाहर/.”

1975 से अब तक की कविताओं में भाषा और शिल्प की एकरसता हैरत में डालने वाली है. भाषा में देशज शब्द भी आये हैं. खास तौर से गाँव तो थूक नहीं सकता मेरी हथेली पर कविता में देशज शब्द मौजूद हैं. लेकिन इनकी कविताओं में देशज शब्दों का प्रयोग बड़े सजग ढंग से हुआ है. उतना ही जितना ज़रूरी था. कवि गाँव की स्मृतियों में भी जाता है, लेकिन उस तरह रूमानी होकर नहीं जैसे अधिकांश कवि गाँव जाते हैं. चंद्रकांत देवताले उस गाँव की स्मृति में जाते हैं जहाँ की स्नेहिल ज़िन्दगी, सादगी और अपनापन, शहर के हो चुके कवि में संवेदना को बचाए रखने में मदद करता है तथा कवि को ज्यादा उदात्त बनाता है.
      
चंद्रकांत देवताले अपने गहरे सामाजिक सरोकारों, संवेदनाओं और अपनी चिन्ताओं में अद्वितीय कवि हैं. वे मानवीय पीड़ा, सुख-दुख के उन आयामों तक जाते हैं जहाँ बहुत कम कवि पहुँच पाये हैं. उनकी चेतना में सारी दुनिया अपने सुन्दर और असुन्दर रूप में अंकित है. उनकी कविताओं में समुद्र और बसन्त पदों का प्रयोग बार-बार मिलता है, जो कवि की चेतना को समुद्र जैसी विशालता और गहराई देता है, तथा जीवन के क्रूरतम दिनों में भी उल्लास के छोटे-छोटे बसन्तों को पकड़ कर जिजीविषा को बचाये रखने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है.
       
चंद्रकांत देवताले रिश्तों के प्रति बेहद सजग कवि हैं. वे चीज़ों से अपने रिश्तों का ताप बराबर बनाए रखना चाहते हैं. उनकी पत्थर की बेन्च कविता इसी भावभूमि की कविता है. जहाँ प्रेम, संवेदना और राहत के छोटे-छोटे और निरापद प्रतीकों को सहेजने और बचाये रखने की चिन्ता, व्यापक अर्थों में समस्त मानवीयता को बचाने की चिन्ता बन जाती है. इन निरापद प्रतीकों को बचाने के लिए कवि कई-कई बार जन्म लेना चाहता है........वह रास्ते भूलता है, इसलिए नये रास्ते मिलते हैं/ नक्शे पर जगहों को दिखाने जैसा ही होगा/ कवि की ज़िन्दगी के बारे में कुछ भी कहना/……. “ बहुत मुश्किल है बताना/ कि प्रेम कहाँ था किन किन रंगों में/ और जहाँ नहीं था प्रेम उस वक्त वहाँ क्या था ? “
              
और फिर कवि यह भी कह देता है-------
                         
एक ज़िन्दगी में एक ही बार पैदा होना
                            और एक ही बार मरना
                           जिन लोगों को शोभा नहीं देता
                           मैं उन्हीं मे से हूँ ।
      
देवताले जी को यह पुरस्कार मिलना इस पुरस्कार का भी सम्मान है. यद्यपि यह सोचा जा सकता है कि उन्हें साहित्य अकादमी कुछ और पहले मिल जाना चाहिए था. फिर भी यह एक विशिष्ट कवि को एक विशिष्ट समय में मिला हुआ सम्मान है. चन्द्रकान्त देवताले हिन्दी के बेहद ज़रूरी कवि हैं.