आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से वह औरत कपड़े पछींट रही है
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँध रही है
एक औरत अनन्त पृथ्वी को
अपने स्तनों मे समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूढ़ रहे हैं
उसके पांव जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं । (औरत)
औरत को इस तरह देख पाने वाला कवि ही ‘ घर में अकेली औरत ‘ और ‘नहाते हुए रोती औरत’ के दुख को जान सकता है. चंद्रकांत देवताले ने अकेली औरत की कई अनछुई अनुभूतियों को शब्द दिया है........ “ तुम्हारा पति अभी बाहर है/ तुम नहाओ जी भर कर/ आइने के सामने कपड़े उतारो/ आइने को देखो इतना/ कि वह तड़कने को हो जाये/ पर उसके तड़कने से पहले/ अपनी परछांईं को हटा लो/ घर की शान्ति के लिए यह ज़रूरी है......”
इस कविता में एक शादीशुदा किन्तु पति के
प्यार और अधिकार से वंचित स्त्री का मार्मिक चित्रण है. इस कविता में स्त्रियों का
त्रासद सूनापन और एकदम निजी अकेलापन सामने आता है. इसी तरह ‘नहाते हुए रोती
औरत’ में भारतीय स्त्री की सामाजिक और पारिवारिक उदास ज़िन्दगी सामने आती है. यह
एक जबर्दस्त कविता है.......... “ किस चीज़ के लिए रो रही है यह औरत/ और क्यों चुना
उसने नहाने का वक्त/ …..दुख हथेली पर रख कर दिखाने वाली नहीं यह औरत/ रो रही है बे आवाज़
पत्थर और पत्तियों की तरह/
वह जानती है पानी बहा ले जायेगा/ आँसुओं और सिसकियों को
चुपचाप/ उसके रोने का रहस्य/
हालांकि जानते हैं सब/मामूली वज़हों से अकेले
में/ कभी नहीं रोती कोई औरत.......”
चंद्रकांत
देवताले की कविताओं में स्त्री का आत्मीय स्पर्श तो है ही, एक ऐसा स्नेहिल स्पर्श
भी है जो तमाम दुखों के बीच कवि को जूझने की शक्ति देता है. इनकी कविता में एक ऐसी
विरल पारिवारिकता है जहाँ स्त्री माँ के रूप में अपने सरलतम किन्तु कविता के विषय
के रूप में जटिलतम रूप में मौजूद है. कवि स्वीकार करता है-------“ माँ पर नहीं लिख
सकता कविता/ माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए/ देह, आत्मा, आग और पानी
तक के छिलके उतारे/ और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया/ .....मैने धरती पर कविता लिखी है....सूरज पर कभी भी
कविता लिख दूँगा/ माँ पर नहीं लिख सकता कविता.”
लेकिन माँ पर
कविता न लिख पाने की अपनी आत्मस्वीकृति के बावजूद कवि माँ की स्मृतियों में जाता
है------“ वे दिन बहुत दूर हो गए हैं/ जब माँ के बिना परसे/ पेट भरता ही नहीं था/ .........वह
मेरी भूख और प्यास को/ रत्ती रत्ती पहचानती थी/ और मेरे अक्सर अधपेट खाये उठने पर/ बाद में जूठे
बर्तन अबेरते/ चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी/ …..और आखिर में उसका भगवान
के लिए बड़बड़ाना/ सबसे खतरनाक सिद्ध होता था.
माँ पर कविता न लिख पाने की अपनी लाचारी मान लेने के बाद भी देवताले जी माँ की स्मृतियों में जाते है. इसकी वज़ह यही हो सकती है कि उनके भीतर खुद वात्सल्य का एक सोता है, जो बार-बार फूट पड़ता है. वे खुद एक स्नेहिल, जिम्मेदार और वयस्क पिता की तरह कविताओं में आते हैं. इसीलिए जब वे थोड़े से बच्चों की खुशहाल जिन्दगी के लिए, दुनिया के बाकी बच्चों की अजीयत भरी ज़िन्दगी देखते हैं तो एक मर्माहत चीख निकलती है-------“ ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से गलने लगती/ सत्य होता तो वह अपनी नयायाधीश की कुर्सी से उतर/ जलती सलाखें आँखों में खुपस लेता/ सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे पर तेजाब पोत/ अन्धे कुएँ में कूद गया होता…”
माँ पर कविता न लिख पाने की अपनी लाचारी मान लेने के बाद भी देवताले जी माँ की स्मृतियों में जाते है. इसकी वज़ह यही हो सकती है कि उनके भीतर खुद वात्सल्य का एक सोता है, जो बार-बार फूट पड़ता है. वे खुद एक स्नेहिल, जिम्मेदार और वयस्क पिता की तरह कविताओं में आते हैं. इसीलिए जब वे थोड़े से बच्चों की खुशहाल जिन्दगी के लिए, दुनिया के बाकी बच्चों की अजीयत भरी ज़िन्दगी देखते हैं तो एक मर्माहत चीख निकलती है-------“ ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से गलने लगती/ सत्य होता तो वह अपनी नयायाधीश की कुर्सी से उतर/ जलती सलाखें आँखों में खुपस लेता/ सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे पर तेजाब पोत/ अन्धे कुएँ में कूद गया होता…”
‘ दो लड़कियों का पिता होने से’ इतना संवेदनशील पिता हो जाता है कवि कि ‘ बालम ककड़ी बेचती
हुई लड़कियों’ की चिन्ता भी उसकी चिन्ता हो जाती है. और “ सोते वक्त भी कांटों की
तरह/ चुभती रहती हैं/ इत्ती सुबह की ये लड़कियाँ........”
कवि एक स्नेहिल पिता है और वह यह भी जानता है
कि “ प्रेम पिता का दिखायी नहीं देता/ ईश्वर की तरह होता है......दुनिया भर के पिताओं की कतार
में/ पता नहीं कौन सा कितना करोड़वां नम्बर है मेरा/ पर बच्चों के फूलों वाले
बगीचे की दुनिया में/ तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए....”…….यह एक अद्भुत कविता है.
कवि-पिता ने बदलते वक्त को पहचान लिया है. आगे की पंक्तियों में वह लड़कियों की
पूर्ण स्वायत्तता और स्वतंत्र अस्तिव-विकास की हिमायत करता है-----“ मुझे माफ करना
मैने अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था/ मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग बिरंगी दुनिया होगी
तुम्हारी/ अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गयी हो/ मैं खुश हूँ सोचकर/ कि मेरी भाषा के
अहाते से परे है तुम्हारी परछांई.......”
पिता द्वारा बेटी की परछांईं को अपनी भाषा के अहाते से मुक्त करना सचमुच एक क्रान्तिकारी कदम है. आज भी कितने पिता ऐसा कर पाते हैं !
पिता द्वारा बेटी की परछांईं को अपनी भाषा के अहाते से मुक्त करना सचमुच एक क्रान्तिकारी कदम है. आज भी कितने पिता ऐसा कर पाते हैं !
चंद्रकांत देवलाले की कविता का एक विशिष्ट लक्षण यह उजागर होता है कि वे
सिर्फ कवि होने के नाते कोई रियायत नहीं लेना चाहते. वे खुद को भी इस दुनिया की
विडंबनाओं और खराबियों के लिए दोषी मानते हैं. इसीलिए विष्णु खरे उन्हें अपराध-बोध
से ग्रस्त कवि कहते हैं. देवताले अपने अपराधों की निर्भीक आत्म-स्वीकृतियाँ भी
देते हैं. बस में एक आदिवासी बच्ची को कवि अपनी गोद में बिठा लेता है और महसूस
करता है------“ धड़कने लगा बाप का दिल/ फिर यही सोच कर दुख हुआ मुझे/ कि बच्ची को शायद ही
मिली होगी/ मुझसे बाप की गंध/
मैं क्या करता मेरी पोशाक ही ऐसी थी/ मेरा जीवन ही
दूसरा था.......”
कवि को अपने
दुसरे तरह के जीवन का पछतावा है. वह जानता है कि अपने इस विशिष्ट कुल-गोत्र के
कारण ही वह नितान्त आदिम लोगों के सुख तो क्या, दुखों तक का भागीदार नहीं बन सकता.
यह पछतावे का भाव कवि के पूरे जीवन पर हावी है. इसका एक खास असर कवि के मूल स्वर
में दिखता है. वह गुनहगारों में खुद को शामिल मानता है. वह अपनी कविताओं में गुनाहों
और गुनहगारों की सूचना देता है और दुख में डूब जाता है. प्रतिरोध का जो स्वर,
चन्द्रकांत देवताले की कविताओं का अगला चरण होना चाहिए, उस तक देवताले जी की
कविताएं नहीं जातीं. प्रतिरोध की बजाय कवि क्षमा माग लेना ज़्यादा उचित समझता
है--------
“ एक दिन क्षमा मागनी होती है/ तुम्हारा जीवन कैसे गुज़रा यह दीगर बात होगी/........क्षमा मागनी होगी सबसे पहले अपनी माँ से/........फिर उससे जिसके भीतर/ तुम अपनी आग को बर्फ में तब्दील करते रहे/ फिर मागते रहना दुनिया भर से/.”
“ एक दिन क्षमा मागनी होती है/ तुम्हारा जीवन कैसे गुज़रा यह दीगर बात होगी/........क्षमा मागनी होगी सबसे पहले अपनी माँ से/........फिर उससे जिसके भीतर/ तुम अपनी आग को बर्फ में तब्दील करते रहे/ फिर मागते रहना दुनिया भर से/.”
क्षमा माग लेने
की यह सुविधाजनक मुद्रा कवि में शायद भारतीय जीवन में प्रचलित मिथकों से आई है.
भारतीय मिथकों में शिव से लेकर राम, कृष्ण, पैगम्बरों, महावीर, और बुद्ध तक
क्षमाशीलता की इतनी गाथाएँ प्रचलित हैं कि शायद यही वज़ह है कि भारत में सामाजिक
गैर-बराबरी और अन्याय के ख़िलाफ कभी भी किसी बड़े आन्दोलन का मानस तैयार नहीं हुआ.
देवताले जी का पहला कविता संग्रह 1975 में आया और तब से आज तक वो अनथक लिख
रहे हैं. बड़े आश्चर्य की बात है कि इस सुदीर्घ काव्य-यात्रा में भाषा-शैली और
विषयवस्तु के स्तर पर कवि में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया, जबकि इसी अवधि में
दुनिया में कितने बदलाव हो गये. दुनिया को कुरूप बनाने वालों ने अपने
अस्त्र-शस्त्र बदल डाले. कुछ समय के लिए चंद्रकांत देवताले मुख्य मार्ग को छोड़कर
पगडंडी में घुसे ज़रूर हैं, लेकिन जल्दी ही अपने पुराने ढर्रे में आ गए. जैसे 1982
में प्रकाशित संग्रह ‘रोशनी के मैदान की तरफ’ की कुछ कविताओं
में भाषा और तकनीक के स्तर पर कुछ बदलाव देखने को मिलता है------
“ स्मृतियों की देहहीन नदी/ हवा में उड़ रही है/ और कुएँ के भीतर नहाती हुई शाम/ तुम्हारे आईने में मेरा नाम पुकार रही है/ ……..इसी तरह...... “ एक दिन रस बनना बन्द हो जाता है/ और फिर देह के भीतर सारी पृथ्वी सूखने लगती है/ आवाज़ का हरापन भूरे में बदलने लगता है/ ......आँखों के आकाश में/ चहकने वाले सारे रंग पत्थर बनकर/ गिर पड़ते हैं आँखों के बाहर/.”
“ स्मृतियों की देहहीन नदी/ हवा में उड़ रही है/ और कुएँ के भीतर नहाती हुई शाम/ तुम्हारे आईने में मेरा नाम पुकार रही है/ ……..इसी तरह...... “ एक दिन रस बनना बन्द हो जाता है/ और फिर देह के भीतर सारी पृथ्वी सूखने लगती है/ आवाज़ का हरापन भूरे में बदलने लगता है/ ......आँखों के आकाश में/ चहकने वाले सारे रंग पत्थर बनकर/ गिर पड़ते हैं आँखों के बाहर/.”
1975 से अब तक की कविताओं में भाषा और शिल्प की एकरसता हैरत में डालने वाली है.
भाषा में देशज शब्द भी आये हैं. खास तौर से ‘ गाँव तो थूक नहीं सकता
मेरी हथेली पर’ कविता में देशज शब्द मौजूद हैं.
लेकिन इनकी कविताओं में देशज शब्दों का प्रयोग बड़े सजग ढंग से हुआ है. उतना ही
जितना ज़रूरी था. कवि गाँव की स्मृतियों में भी जाता है, लेकिन उस तरह रूमानी होकर
नहीं जैसे अधिकांश कवि गाँव जाते हैं. चंद्रकांत देवताले उस गाँव की स्मृति में
जाते हैं जहाँ की स्नेहिल ज़िन्दगी, सादगी और अपनापन, शहर के हो चुके कवि में
संवेदना को बचाए रखने में मदद करता है तथा कवि को ज्यादा उदात्त बनाता है.
चंद्रकांत देवताले अपने गहरे सामाजिक
सरोकारों, संवेदनाओं और अपनी चिन्ताओं में अद्वितीय कवि हैं. वे मानवीय पीड़ा,
सुख-दुख के उन आयामों तक जाते हैं जहाँ बहुत कम कवि पहुँच पाये हैं. उनकी चेतना
में सारी दुनिया अपने सुन्दर और असुन्दर रूप में अंकित है. उनकी कविताओं में ‘ समुद्र ‘ और ‘ बसन्त ‘ पदों का प्रयोग
बार-बार मिलता है, जो कवि की चेतना को समुद्र जैसी विशालता और गहराई देता है, तथा
जीवन के क्रूरतम दिनों में भी उल्लास के छोटे-छोटे बसन्तों को पकड़ कर जिजीविषा को
बचाये रखने की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है.
चंद्रकांत देवताले रिश्तों के प्रति बेहद सजग
कवि हैं. वे चीज़ों से अपने रिश्तों का ताप बराबर बनाए रखना चाहते हैं. उनकी ‘ पत्थर की बेन्च ‘ कविता इसी
भावभूमि की कविता है. जहाँ प्रेम, संवेदना और राहत के छोटे-छोटे और निरापद
प्रतीकों को सहेजने और बचाये रखने की चिन्ता, व्यापक अर्थों में समस्त मानवीयता को
बचाने की चिन्ता बन जाती है. इन निरापद प्रतीकों को बचाने के लिए कवि कई-कई बार
जन्म लेना चाहता है........ “ वह रास्ते भूलता है, इसलिए नये रास्ते मिलते हैं/ नक्शे पर जगहों
को दिखाने जैसा ही होगा/
कवि की ज़िन्दगी के बारे में कुछ भी कहना/……. “ बहुत मुश्किल है
बताना/ कि प्रेम कहाँ था किन किन रंगों में/ और जहाँ नहीं था प्रेम
उस वक्त वहाँ क्या था ?
“
और फिर कवि यह भी
कह देता है-------
“ एक ज़िन्दगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता
मैं उन्हीं मे से हूँ ।
“ एक ज़िन्दगी में एक ही बार पैदा होना
और एक ही बार मरना
जिन लोगों को शोभा नहीं देता
मैं उन्हीं मे से हूँ ।
देवताले जी को यह पुरस्कार मिलना इस
पुरस्कार का भी सम्मान है. यद्यपि यह सोचा जा सकता है कि उन्हें साहित्य अकादमी
कुछ और पहले मिल जाना चाहिए था. फिर भी यह एक विशिष्ट कवि को एक विशिष्ट समय में
मिला हुआ सम्मान है. चन्द्रकान्त देवताले हिन्दी के बेहद ज़रूरी कवि हैं.
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