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Wednesday 2 January 2013

सिसकियों का अनुनाद : चन्द्रकांत देवताले की कविताएँ (1)

(चन्द्रकान्त देवताले हमारे समयके विशिष्ट कवि हैं. अभी हाल ही में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है.एक सुदीर्घ कवि-जीवन में देवताले जी ने बेहत मौलिक और विश्वसनीय संवेदनाएँ अर्जित की हैं. ये उन विरले कवियों में हैं जिनके लेखन और जीवन में न्यूनतम विषमताएँ हैं. अपने प्रिय कवि को हिन्दी जाति की पूरी श्रद्धा के साथ एक विद्यार्थी की नज़र से देखने की कोशिश है ये आलेख जो दो हिस्सों में है......आज पहला भाग....).



चन्द्रकान्त देवताले को इस वर्ष का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है. देवताले जी की कविताओं पर, मुझ जैसे प्राथमिक दरजे के विद्यार्थी का कुछ भी लिखना यकीनन गुस्ताखी मानी जायेगी और मानी भी जानी चाहिए. लेकिन यह गुस्ताखी सचेत भाव से घटित हो रही है. 
‘ छोटन के इस उत्पात ‘ को बड़न’ द्वारा क्षमा कर दिया जाय—ऐसा आग्रह भी मेरा कतई नहीं है. जो कवि कवियों की कई पीढियों के बीच लगातार लिख रहा हो, और न सिर्फ लिख रहा हो, बल्कि उस समय का प्रतिनिधि कवि हो, उस कवि को नई पीढ़ी कैसा समझ पा रही—यह लिख देना गुस्ताखी भले हो, नाजायज़ तो नहीं.

इतने लम्बे कवि-जीवन के बाद जीवन के उत्तरार्ध में जो चन्द्रकान्त देवताले, एकदम युवतम कवियों के बीच चुनौती बनकर खड़े हैं, उनके बारे में विष्णु खरे ने ठीक ही कहा था,
चन्द्रकान्त व्यापक और प्रतिबद्ध अर्थों में, इस देश के कठिन समय में, अपनी निजी, पारिवारिक और सामाजिक ज़िन्दगी, भारतीय समाज के अपने विडम्बनात्मक जीवन तथा उसमें अपनी और किसी प्रकार संघर्ष कर रहे अन्य असंख्य लोगों की तनावपूर्ण जिजीविषा के कवि हैं. मानव जीवन के साथ चन्द्रकान्त की कविता का रिश्ता, सुख-दुख के संगाती का, जागरुकता तथा ऐन्दियता का है.

चन्द्रकान्त देवताले निरन्तर भयभीत और तनावग्रस्त कवि हैं. उनका भय और तनाव वैयक्तिक नहीं है. वे उस मनुष्य के लिए भयभीत दिखते हैं, जो निरंतर संघर्षों और अभावों के बीच अपनी जिजीविषा को बचाए हुए है. जो इन तमाम अभावों और कष्टों के बावजूद अभी तक अपनी आदमीयत को बचा ले गया है. लेकिन कब तक बचा पायेगा, इस शाही हाड़ तोड़ती दिनचर्या मेंकवि इसी भय और तनाव के बीच सवाल करता है---
       
वे कौन सी चीज़ें हैं/ जो आदमी को आदमी नहीं रहने देतीं/ क्यों आदमी आदमी नहीं रह पाता/ वे कौन सी चीज़ें हैं और किनके पास/ और क्यों सिर्फ उन्हीं के पास/ जो आदमी को उसकी जड़ों से काटकर/ कुछ और बना देती हैं.
आदमी को आदमी नहीं रहने देने वाली इन्हीं चीजों की पड़ताल करना ही चन्द्रकान्त देवताले की कविता की मुख्य प्रतिज्ञा है. उन्हें मालूम भी है कि, जो गाड़ कर रखता है खजाना/ वही रचता है कहानी साँप की..। वे लकड़बग्घे की हँसी को पहचान गए हैं.और आगाह कर रहे हैं--------ये तीमारदार नहीं/ हत्यारे हैं/ और वह आवाज़/ खाने की मेज पर/ बच्चों की नहीं/ लकड़बग्घे की हँसी है.....

यथास्थितिवाद उन्हें विचलित करता है. वे उन लोगों को फटकारते हैं, जो इतने जुल्मों को सहने के बाद भी उस छली और क्रूर जनगणमन अधिनायक की लगातार आरती उतारते रहते हैं. पंत पेशवा शहर में आ रहा है कविता में अत्यधिक नाराजगी में वह अपनी ही बिरादरी के धकियाये और लतिआये हुए लोगों पर खीझते हुए व्यंग्य करते हैं--------पेट पर लात मारने वाला/ बस्ती में आ रहा है/ उसके लिए स्वागत द्वार बनाने में जुट जाओ/ लतिआये हुए लोगो/ तुम्हारी उदारता दर्ज की जायेगी इतिहास में/………धकियाये हुए लोगो/तुम्हारा आतिथ्य अमर हो जायेगा इतिहास में/……..सताये हुए लोगो/ तुम्हारी सहिष्णुता सदियों चर्चित रहेगी इतिहास में.

वे खीझते इसलिए हैं क्योंकि जानते हैं कि ये सताये हुए लोग लगातार इसी स्थिति में रहने के आदी होते जा रहे हैं. जबकि, अपनी छिपी हुई ताकत के साथ/ उठ खड़े होंगे जिस दिन ये सब/ इन आँधियों की तरह/ टूट कर गिरेंगी पराये समय की घड़ियां/ शिखरों से.”…..  कवि सिर्फ पर उपदेश-कुशल ही नहीं हैं. वे खुद इस लड़ाई में शामिल होते हैं, सबकी तरफ से. वे चाहते है---मैं बनूं/ अफवाहों के स्याह बीहड़ में/ आँधी की हथेली पर का चिराग/ मेरे भीतर के माइक्रोवेव टावर की आत्मा से/ टकराने दो असंख्य पहाड़ों को कँपाती ध्वनियाँ......

कविता देवताले जी का अस्त्र है. दुनिया की तमाम क्रूरताओं और दुखों के खिलाफ लड़ाई में-- कविता, बच्चे और स्त्री— कवि की ताकत हैं. सब कुछ निराश कर देने वाले के बावजूद, जब कवि कहता है, और आपके हाथों में/ यह एक छोटी सी शीशी/ कविता के अर्क वाली.....”, तो वह इस छोटे से दिखने वाले अस्त्र की खिल्ली नहीं उड़ा रहा होता, बल्कि बड़ी चतुरता से कविता की ताकत से चेतावनी दे रहा होता है. कवि का दूसरा अस्त्र है---नन्हें नन्हें बच्चे. थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे  बहुत मार्मिक कविता है. दुनिया ङर के तमाम वंचित और कुपोषण के शिकार बच्चों की चिन्ता कवि करता है. वह देखता है कि असंख्य बच्चों के लिए/ कीचड़-धूल और गंदगी से पटी/ गलियां हैं जिनमें वे/ अपना भविष्य बीन रहे हैं/…….और.......ढेर सारी बच्चियां/ गोबर-लीद ढूढ़ते रहने के बाद/ अँधेरे में दुबक रही हैं/ लड़कियाँ नदी तालाब कुआँ/ घासलेट-माचिस-फंदा/ ढूढ़ रही हैं........

इस कविता में कवि अपनी छटपटाहट और संवेदना के उस चरम पर जा पहुँचता है, जहाँ पर पहुँचना हर किसी के वश की बात नहीं है. और इस चरम पर पहुँचने के बाद चीखें बन्द हो जाती हैं और शुरू होती है ललकार ! लेकिन कवि सोचता है---पर वे शायद अभी जानते नहीं/ वे पृथ्वी के बाशिन्दे हैं करोड़ों/ और उनके पास आवाज़ों का महासागर है/ जो छोटे से गुब्बारे की तरह/ फोड़ सकता है किसी भी वक्त/ अँधेरे के सबसे बड़े बोगदे को.......। चन्द्रकान्त देवताले का अंतिम और सबसे बड़ा अस्त्र—ब्रह्मास्त्र—है, स्त्री. वे बार-बार स्त्री की शरण में जाते हैं.

चन्द्रकांत देवताले शायद स्त्री पर सबसे ज्यादा कविताएं लिखने वाले कवि हैं, और शायद स्त्री पर सबसे ज्यादा बेबाकी, जिम्मेदारी और अंतरंगता से लिखने वाले कवि भी. जीवन को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली शै पर, सबसे ज्यादा कविताएँ हों, यह स्वाभाविक ही है. लेकिन देवताले जी के लिए सत्री निजी और एकान्तिक आनन्द की चीज़ नहीं है. वे स्त्री के सामाजिक सरोकारों और इस दुनिया के लिए उसकी अनिवार्य ज़रूरत को प्रतिष्ठित करते हैं. वे न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत लड़ाइयों में स्त्री का साथ लेते हैं, बल्कि समस्त मानव जाति को बचाने के लिए किए जा रहे अपने संघर्ष में, ऊष्मा और ऊर्जा स्त्री से ही लेते हैं. इनकी कविता में स्त्री अनेक रूपों में आती है. वह पत्नी है, प्रेमिका है, माँ है, और अपने स्व की तलाश करती स्त्री है. देवताले जी की कविताओं में स्त्री, कवि को परिवार, समाज, देश और वृहत्तर संसार से एक आत्मीय, जिम्मेदार और संवेदनशील रिश्ता कायम करने में एक कड़ी की तरह मदद करती है. कवि स्त्री के साथ अपने संबन्धों को संकोचहीन होकर, बल्कि गर्व के साथ बताता है.

दाम्पत्य जीवन की बेबाक अभिव्यक्तियाँ तथा पत्नी को साथी की तरह निरूपित करती कविताएँ तुम’, ‘ उसके सपने ‘, ‘शब्दों की पवित्रता के बारे में’, ‘ महाबलीपुरम्-1,2 ‘  हिन्दी कविता में विरली हैं. पत्नी से साथी की तरह संवाद करती ऐसी ही सुन्दर कविताएँ केदारनाथ अग्रवाल के यहाँ मिलती हैं. समुद्र के पास पत्नी की स्मृति कवि को अकेला नहीं होने देती. और उसकी स्मृति का साथ पाकर कवि इतना समृद्ध होता हुआ कि समुद्र उसे अकेला लगने लगता है....तुम हमेशा अकेली छूट जाती हो’, ‘उसने चौंका दिया एकाएक कह कर’, ‘कुछ नहीं सिर्फ प्रेम’……वे कविताएँ हैं जहाँ वह स्त्री मौजूद है, जो साथ नहीं है. लेकिन जिसके होने ने कवि को उदात्त और मानवीय बनाया. इस स्त्री से प्रेम, कवि को बाँधता नहीं, मुक्त करता है.....उन असंख्य लोगों के लिए, जिनको कवि की ज़रूरत है. कवि जानता है कि,...तुम मेरी आधी रात का सूर्योदय/ तुमसे मैं आग/ फफोले उमचाता शब्द/ मुझसे तुम आँख/ जिससे हम देखते सपने......। यह सपना कवि पूरी दुनिया के लिए देखता है.

चन्द्रकांत देवताले की कविताओं में एक स्त्री वह आती है जो समूची स्त्री जाति की प्रतिनिधि है. यह स्त्री अपनी तमाम सामाजिक विडंबनाओं, अपनी तमाम जकड़नों, तथा दुखों के साथ आती है. लेकिन यह स्त्री, पुरुष के लिए बेहद ज़रूरी और उसे बेहतर मनुष्य बनाती हुई आती है. कवि आकाश में इतने ऊपर कभी नहीं उड़ा/ कि स्त्री दिखाई ही न दे/ “ …….कवि की डोर हमेशा किसी स्त्री के हाथ में रही......और....प्रेम करती हुई औरत के बाद भी अगर कोई दुनिया है” …तो उस वक्त वह कवि की नहीं है....उस इलाके में कवि सांस तक नही ले सकता, जिसमें औरत की गंध वर्जित है...।  और जब कवि कहता है कि,.....नहीं सोचता कभी, कोई भी बात जुल्म और ज्यादती के बारे मे/ अगर नहीं होतीं प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर....” …….तब स्त्री की अनिवार्यता और श्रेष्ठता को सर्वोच्च मानसिक और जागतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करता है. स्त्री को इस आध्यात्मिक ज़िद के साथ स्वीकार करने वाला कवि ही देख पायेगा उस औरत को जो----------
आकाश और पृथ्वी के बीच/ कपड़े पछीट रही है/ वह औरत आकाश और धूप और हवा से/ वंचित घुप्प गुफा में/ कितना आटा गूँध रही है/ एक औरत अनन्त पृथ्वी कोअपने स्तनों मे समेटे/ दूध के झरने बहा रही है/ एक औरत का धड़ भीड़ में भटक रहा है/ उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ़ रहे हैं/ पाँव जाने कबसे/ सबसे/ अबना पता पूछ रहे हैं.......”…

( अगले अंक में जारी........)
        

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