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Wednesday 26 September 2012

संवादी स्वर




मैं आकाशगंगा से
टूटता हुआ एक नक्षत्र
जिसे अपनी कक्षा में स्थापित किया
तुमहारे गुरुत्वाकर्षण ने ।

यह तुम थीं
जिसने पहली बार
पंच तत्त्व की देह
हवि की थी
और मैं प्रज्ज्वलित हुआ था
अपने अधिकतम विस्तार में
तुम्हारी मनोकामनाओं से अनजान ।

मेरी लालिमा डूब रही थी
पश्चिम में
तुमने मुझे उदित किया
अपने पूर्वांचल में ।

तुम्हें रचना था एक राग
और मैं
इस राग का संवादी स्वर  था,
अपने अकेलेपन के
अधिकतम आरोह में ।

तुम एक आक्रामक भाषा से
निर्वासित शब्द
और मैं
एक लुप्त होती भाषा का
सबसे निरीह उपसर्ग ।

तुम्हारी आदिम आकांक्षाओं में
मैं एक अजेय योद्धा
इस छली समय का
युद्धबन्दी हूँ ।

-------------------------------विमलेन्दु

Thursday 20 September 2012

दिल्ली सुनती क्यों नहीं...?



क्या दिल्ली के कान नहीं हैँ, आँख नहीं है ? या उसके पास दिल ही नहीं है ?? जिन आवाज़ों को पूरा देश सुनता है, वो दिल्ली को क्यों सुनाई नहीं देती ? जो चीखें देश के कोने कोने से उठ रही हैं, उनका असर दिल्ली पर क्यों नहीं होता ? देश की नस-नस जब दर्द से तड़क रही हो तो दिल्ली क्यों नहीं छटपटाती ??

इस देश के लिए दिल्ली एक शहर नही, एक प्रतीक है. एक मुहावरा है. किसी के लिए दिल्ली दूर होती है, तो किसी का नसीब उसे दिल्ली का बादशाह बना देता है. दिल्ली प्रतीक है देश के भाग्य का. दिल्ली होने का अर्थ है, शक्ति और सत्ता के शिखर पर होना. सवा अरब जनता की ज़िन्दगी से वाबस्ता फैसले इसी दिल्ली में लिए जाते हैं. दुनिया की बिरादरी से रिश्ते-नाते यहीं तय होते हैं. यहीं से देश के अभिमान और अपमान की नदियाँ निकलती हैं, तो यहीं से उत्थान और पराभव का सिलसिला शुरू होता है.

हिन्दुस्तान के लिए दिल्ली का अर्थ है सरकार. पहले राजा या बादशाह थे. अब हमारी अपनी बनाई हुई सरकार है. सैद्धान्तिक रूप से यह जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार है. हमारे बहुमूल्य वोट के दम पर बनी है. पर इसे हमारी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती. जनता की दुर्दशा दिखाई नहीं पड़ती. देश कराहता है तो इसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आती ! फिर कैसे हुई ये हमारी सरकार ! जनता के वोट की शक्ति क्या उसी के ख़िलाफ़ एक छल नहीं है ?  हमारी ही सरकार आखिर हमारे सुख-दुख से ऐसे बेज़ार कैसे हो सकती है. उसकी कौन सी मजबूरियाँ हैं जिनके चलते वह हमारी चीखों को अनसुना कर देती है ?

सरकार की भी मजबूरियां हैं. इन्हें मजबूरियों से ज़्यादा दुविधाएँ कहा जाना चाहिए. इन दुविधाओं की परतें अनेक हैं. हमारी संविधान-सम्मत दलीय व्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि देश भर में राजनीतिक दलों की भरमार हो गई. जनता की दृष्टि अपने दलों और अपने क्षेत्रों तक सिमट गई. जितने तरह के दल उतने तरह का जनमत. जितने सूबे, उतने सूबेदार. ऐसे में देश का कोई राष्ट्रीय जनमत बनने ही नहीं पाता. राष्ट्रीय राजनीति पर सूबों की राजनीति भारी पड़ने लगी है. पिछली कई सरकारें, गठबंधन सरकारें रही है. ये क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं. क्षेत्रीय दलों के अपने-अपने स्वार्थ थे. यही स्वार्थ राष्ट्रीय सरकार के लिए शर्त बन गये. ऐसे में केन्द्र सरकार पूरे देश की सरकार दिखती ही नहीं. वह कई घोड़ों से चलने वाला एक रथ नजर आती है.  जहाँ सारथी की सारी शक्ति घोड़ों को संभालने में ही खर्च हो जाती है.

गठबंधन की राजनीति का सीधा असर सरकार की निर्णय क्षमता पर पड़ा है. सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाने मे अक्सर असफलता हाथ लगी. क्षेत्रीय दल अधिकतर जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रश्न बनाकर निर्मित हुए हैं. इसलिए कोई भी कोई भी राष्ट्रीय सहमति बनाने में सरकार को पसीना आ जाता है. नतीजा ये हुआ कि सरकार ने उन मसलों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. वह ऐसे सवालों से कतरा कर निकलने लगी, जिनमें उसे सहयोगी दलों से मान-मनौव्वल करना पड़े.

गठबंधन सरकार में, सरकार की अनिश्चितता भी बढ़ी है. क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेकर सरकार बनाने वाले राष्ट्रीय दल अपने सारे कौशल के बावजूद निश्चिन्त नहीं हो पाते कि उनकी सरकार कब तक रहेगी. और अच्छे काम के बावजूद अहली बार सत्ता उनके पास रहेगी या चली जायेगी. इसका सीधा असर यह होता है कि सरकार दूरगामी दृष्टि से कोई फैसला नहीं करती. वह तात्कालिक लाभ वाले ऐसे फैसले करती है, जिनसे किसी सहयोगी दल को बिदकने की वज़ह न मिले.

इतना पढ़कर आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि मैं सरकार के लिए सहानुभूति पैदा करने की कोशिश कर रहा हूँ. ऐसा लग रहा होगा कि मैं सरकार के निकम्मेपन, उसके स्वार्थों और उसकी अक्षमताओं को उसकी मजबूरियों के परदे में ढंकना चाह रहा हूँ. पर ऐसा नहीं है. मुझे इस बात का इल्म है कि गठबंधन की मजबूरियों के बावजूद सरकार के पास असीमित शक्तियाँ और मौके हैं.

पूरा देश कुछ वर्षों से महगाई की चपेट में है. देश की 80 फीसदी जनता कराह रही है. लेकिन उसे कोई राहत का आश्वासन तक देने वाला नहीं है. देश में लाखों टन अनाज सड़ जाता है, और दूसरी तरफ हज़ारों लोग भूख बर्दाश्त न कर पाने से मर जाते हैं. कम्प्यूटर, मोबाइल, गाड़ियों आदि की कीमत हर महीने गिरती है, और नमक-आटा-तेल और सब्जियों की कीमत हर हफ्ते बढ़ती है. एक तरफ अंबानी-टाटा-मित्तलों की ऐसी हैसियत हो गई कि दुनिया भर की कंपनियों को खरीद रहे हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक साल में ढाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर लेते हैं. बेशक इसके पीछे गठबंधन सरकार की मजबूरी नहीं हो सकती.

देश की यह दुर्दशा सरकार की नीतियों, इच्छाशक्ति में कमी और तात्कालिक लोभ की राजनीति के कारण हो रही है. यहाँ कई लोग असहमत होंगे कि दुनिया जब घोषणा कर रही है कि 2025 तक भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा, भारतीय युवा देश-विदेश में लाखों रुपये प्रतिमाह की पगार पा रहे हैं, हमारे व्यापारिक घराने फोर्ब्स और टाइम जैसी पत्रिकाओं की सूची में सम्मानजनक जगह पा रहे है---ऐसे में दुर्दशा का विलाप, रंग में भंग करने जैसा है. ये दृश्य मुझे भी लुभाते हैं. पर मेरा दृढ़ विस्वास है कि देश में जो चीख-पुकार मची है, वह इन्ही दृश्यों की कीमत है.

एक होता है विकास, और एक होता है विकास का छद्म. जैसे एक जर्जर मकान को रंग-पेन्ट करके चमका दिया जाये. हमारी सरकार ने यह दूसरा रास्ता चुना, कि देखो हमारा घर भी कितना शानदार है. लार्ड मैकाले की खूब याद होगी आपको. अँग्रेज शिक्षाविद थे. अँग्रेजी राज के समय उन्हें भारत में शिक्षा-प्रणाली के नियमन की ज़िम्मेदारी दी गई थी. इसी प्रकृया में मैकाले ने एक अनोखा सिद्धान्त पेश किया. इस सिद्धान्त को कहा गया—downward  filtration. हिन्दी में इसे कहेंगेअधोमुखी निस्यंदय. विचित्र विचार था यह. इसमें कहा गया कि भारत के गरीबों और पिछड़ो को शिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं है. केवल उच्च और धनी वर्ग को शिक्षित कर दिया तो शिक्षा , छन-छन कर अपने आप निचले तबकों तक पहुँच जायेगी. जाहिर है यह सिद्धान्त अग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रख कर गढ़ा था. वे भारत के श्रेष्ठिवर्ग को अपने कब्ज़े ले लेना चाहते थे.

लगता है हमारी सरकार के अवचेतन में भी मैकाले का वही सिद्धान्त है. फर्क सिर्फ इतना है, कि सरकार इसे भारतीयों के पेट पर लागू कर रही है. दिल्ली शायद यह मानती है कि देश के धनिकों का पेट इतना भर दो कि उनकी तृप्ति छन-छन कर देश के भूखों तक पहुँच जायेगी. हमारे देश में जब आर्थिक उदारीकरण अपनाया गया, उसी समय विकास, समृद्धि और समर्थ राष्ट्र के मूलभूत सिद्धान्तों को भुला दिया गया था. विश्व-पूँजी को आमंत्रित करते समय हमने उन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया था, जिनमे बार-बार कहा जा रहा था कि हमारी स्वदेशी ग्रामीण अर्थव्यवस्था तबाह हो जायेगी. सरकार ने भी आसान रास्ता अपनाया. उसकी सारी नीतियाँ बड़े उद्यमियों के लिए बनने लगीं. बड़े उद्यमियों ने छोटे उद्यमियों को निगल लिया. देश के कोने कतरों के जो गाँव-कस्बे अपनी अपनी अर्थव्यवस्था खुद चलाते थे, उनके भाग्य का निर्णय अब अमेरिका, कोरिया, जापान, ब्रिटेन के ऑफिसों से होने लगा.

कहने का आशय यह है कि सरकार ने बहुत चैतन्य अवस्था में पूँजीवाद का पौधा देश में रोपा और उसे निरंतर खाद पानी देकर बढ़ाया. पूँजीवाद के तमाम लक्षणों में एक लक्षण यह भी है कि एक अवस्था ऐसी आती है जब वह अपने विधाता को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है. अगर व्यवस्था को खत्म करने की कोशिश की जाय तो व्यवस्थापक पहले खत्म हो जायेगा. यही हमारी वर्तमान सरकार की दुविधा है. लगातार बढ़ती महगाई और अपनी आर्थिक नीतियों  के पक्ष में, सरकार यही तर्क देती है कि उसे वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में प्रतिस्पर्धा करनी है. दुनिया के अधिकांश देश अब विश्व-बाज़ार व्यवस्था को अपना चुके है.

ज़ाहिर है कि इस व्यवस्था का संचालन वही देश कर  रहे हैं जो सबसे सबल हैं. बाज़ार के सारे नियम-कायदे भी वही बनाते हैं. हमारी सरकार जिसे प्रतिस्पर्धा करना कहकर, जनता को बहलाती है, दरअसल वह प्रतिस्पर्धा नहीं, विश्व-बाज़ार की गुलामी करना है. विश्व-बाज़ार पूँजीवादी सिद्धान्तों पर ही चलता है, इसमें कोई संदेह नहीं है. और आप सब समझते हैं कि पूँजीवाद में एक शोषक और एक शोषित वर्ग की सैद्धान्तिकी चलती है. इस व्यवस्था में तरक्की के अवसर कुछ चुने हुए लोगों के पास महदूद होते हैं, जो अधिसंख्य लोगों के श्रम और क्षमता का उपयोग करके भुनाए जाते हैं.

अभी हाल ही में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले वर्ष में भारत के गाँवों ने शहरों के मुकाबले ज़्यादा पैसा खर्च किया है, ज़रूरत की चीज़ों पर. इस खबर से अगर हम यह समझ लें कि भारतीय गाँवों में बहुत पैसा आ गया है या भारतीय गाँव बहुत विकसित हो गये हैंतो यह बड़े धोखे की बात होगी. इसे ज़रा समझें. पहली बात, ये आंकड़े दैनिक उपयोग में खर्च किए गये धन पर आधारित हैं, इनमें व्यापार और उद्योग में लगाए  गये पैसे शामिल नहीं हैं. दूसरी बात ये कि अभी भी लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है. तो उसके द्वारा खर्च किया गया पैसा शहरी आबादी से अधिक हो, यह संभव है, पर समृद्धि का सूचक नहीं.

इस खबर में सबसे बड़ी बात यह है कि विश्व के पूँजीपतियों ने आखिर वह रास्ता खोज लिया है, जिससे गाँवों का पूरा पैसा खींचा जा सके. गाँवों में उद्योग नहीं लग रहे हैं कि धन का पुनरुत्पादन किया जा सके. उनकी जमापूँजी को बाहर निकाला जा रहा है. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व-बाज़ार की माहिर कम्पनियों ने भारतीय गाँवों की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर अपने उत्पादों में कुछ ऐसे परिवर्तन किए ताकि न्हें गाँवोंमें आसानी से बेंचा जा सके. गाँवों से अब नीबू-शरबत, लस्सी, पापड़, मुरब्बा गायब हो गये. उनकी जगह पेप्सी-कोक-कुरकुरे पहुँच गये हैं. नौटंकी-चौपाल-रामलीला की जगह टीवी-मोबाइल-डीजे ने ले ली है.

लेकिन इसकी खबर सरकार तक नहीं पहुँचती. क्योंकि सरकार को विश्व-बाज़ार में अपनी साख बनानी है. अमेरिका से वाहवाही पानी है. गाँव और गाँव के किसानों की आवाज़ दिल्ली के कानों तक नहीं पहुँचती क्योकि दिल्ली में अंबानी-टाटा का डीजे साउण्ड बजता है. दिल्ली को देश की सत्तर फीसदी आबादी की रसोई की चिन्ता नहीं है, क्योंकि दिल्ली तीस प्रतिशत आबादी के पेट भरे हुए देख कर खुश है.
दिल्ली हमारी होकर भी हमारी नहीं है.

Wednesday 12 September 2012

बात तो फिर भी बोलेगी...!


असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किये जाने की खबर तो अब सभी लोगों तक पहुँच ही गई होगी. शायद यह भी सब जान ही गये होंगे कि तीन दिन बाद बिना मागे ही असीम को ज़मानत भी दे दी गई. असीम एक कार्टूनिस्ट हैं. अन्ना टीम के सक्रिय सदस्य हैं. भ्रष्टाचार को लक्ष्य करके उन्होने कमाल के कार्टून बनाए हैं. मुंबई पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और पन्द्रह दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया. कुछ महीने पहले उनकी वेबसाइट कार्टून अगेंस्ट करप्शन डॉट कॉम को प्रतिबंधित कर दिया गया था. खबर थी कि उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा सरकार चलायेगी, फिर खबर यह भी मिल रही है कि सरकार का मन बदल गया है.

अब हम सरकार को इतना संवेदनशील और सदय मान लें तो भूल होगी. मीडिया और खासतौर पर सोशल मीडिया के जागरूक प्रयासों के चलते पूरे देश में सरकार के इस कदम के विरोध और असीम के समर्थन में लोग सक्रिय हो चुके हैं. चौतरफा मुसीबतों में घिरी केन्द्र सरकार शायद इस समय जनता को आन्दोलित होने का कोई मौका नही देना चाहती. अन्ना टीम की दुविधाओं और मतभेदों से सरकार को कुछ राहत की साँस आने लगी थी. वो इन्हें फिर से एकजुट नहीं होने देगी.

खैर, अब बात असीम पर लगाये गये आरोपों की करते हैं. उन्हें राष्ट्रद्रोही कहा जा रहा है, क्योंकि उन्होने कुछ राष्ट्रीय प्रतीकों से मिलती-जुलती आकृतियों से भ्रष्टाचार और हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है. वो कार्टून बनाते हैं. कार्टून, चित्र से ज़्यादा एक भाषा होते हैं. एक ऐसी चित्रात्मक भाषा, जिसमें लक्षणा और व्यंजना में अर्थ खुलते हैं. इस भाषा में जो अप्रकट है वह महत्वपूर्ण होता है. कार्टून बनाने वाला जो बात कहना चाहता है, उसके लिए वह उपयुक्त माध्यम और प्रतीक खोजता है. ज़ाहिर है कि इस विधा में बात करते समय चित्र महत्वपूर्ण नहीं होता. असीम ने राष्ट्रीय चिन्ह (अशोक स्तम्भ के शीर्ष पर बनी चार शेरों की आकृति) और राष्ट्रीय ध्वज  में परिवर्तन करके राजनीति पर व्यंग्य  किया. यहाँ ध्यान रखना होगा कि  उनका व्यंग्य इन राष्ट्रीय प्रतीतो पर नहीं था.

इसे सरकार, पुलिस और नेतागण राष्ट्रद्रोह मान रहे हैं. यानी संसद में बैठे हुए कुछ भ्रष्ट और सज़ायाफ़्ता सदस्यों पर टिप्पणी करना राष्ट्रद्रोह हो गया. दूसरी तरफ से इसका अर्थ यह है कि ये जो रोज़-रोज़ करोड़ों-करोड़ का घोटाला कर रहे हैं, जो जेल में बन्द हैं, जो संसद ठप्प  करके जनता का पैसा और देश का भविष्य बरबाद कर रहे हैं  वो सच्चे राष्ट्रभक्त हैं. मेरा ख़याल है कि राजनीतिक दलों का चरित्र दिनो-दिन साफ होता जा रहा है. यह कहना भले ही गहन निराशा की उपज लगे, पर हमारे देश में लोगतंत्र के परदे में एक मृदु तानाशाही चल रही है. जनता की आवाज़ और राष्ट्रहित की लगातार हो रही अनदेखी के बाद प्रतिरोध को कुचलने के जो तरीके अपनाये जा रहे है, वो तानाशाही के प्रारंभिक लक्षण हैं. गनीमत यह है कि देश की गरीब जनता और हमारी सेना की, लोकतंत्र पर अनन्य आस्था है. हम मिस्र या सीरिया जैसी क्रान्ति की कल्पना नहीं कर सकते. लेकिन सरकार पर नज़र रखने के अपने संवैधानिक कर्तव्य से भी पीछे नहीं हटना चाहिए.

असीम पर आरोप है कि उन्होंने अपने कार्टूनों के जरिये देश की भावनाओं को ठेस पहुंचायी है। असीम एक कलाकार हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने का अपना तरीका है. किसी भीड़ का हिस्सा बने बिना वो एक रचनात्मक प्रतिरोध कर रहे है. मैंने असीम त्रिवेदी के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम वाले कार्टून देखे हैं, वे भ्रष्टाचार पर तीखी और सीधी चोट करते हैं। उनमें किसी का मजाक नहीं बल्कि आम आदमी की भावनाओं की, गुस्से की वास्तविक अभिव्यक्ति है। मेरी निगाह में यह सिर्फ कार्टूनिस्ट पर प्रतिबंध लगाना नहीं बल्कि मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सुनियोजित तरीके से नियंत्रण की शुरुआत है। हाल के समय में सरकार के कुछ ज़िम्मेदार मंत्री अपनी मंशा सार्वजनिक कर चुके हैं कि सोशल मीडिया पर लगाम की ज़रूरत है.

कार्टून-कला, उन चुनिन्दा कला-माध्यमों में से एक है, जिसका असर  जनता पर रेखांकित किए जाने लायक है. आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद एक बड़ा अंतर हमारे प्रतिरोध के माध्यमों की प्रभावशीलता में भी दिखता है. आज़ादी के संघर्ष में लिखित साहित्य और नौटंकी, रामलीला जैसी नाट्यविधाओं का प्रयोग जनता को चैतन्य करने के लिए किया जाता था. और यह असरदार भी था. तिलक ने महाराष्ट्र में गणेश पूजा को आजादी के आंदोलन से बड़े प्रभावी तरीके से जोड़ दिया था. जबकि उस समय देश में साक्षरता की स्थिति अत्यंत दयनीय थी. आज साक्षरता तो बढ़ गई है लेकिन ये माध्यम निष्प्रभावी होते गये. ऐसी दशा में असीम के कार्टूनों से मची हलचल उत्साहजनक है. यद्यपि मेरी व्यक्तिगत राय है कि किसी भी कलाकार  को राष्ट्रीय और धार्मिक अस्मिता से जुड़े प्रतीकों और भावनाओं से छेड़छाड़ करने से यथासंभव बचना चाहिए.
        
दरअसल भ्रष्टाचार की अभी तक की मुहिम में देश का बुद्धिजीवी वर्ग खुलकर सामने नहीं आया था.बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि बौद्धिक वर्ग का रवैया कुछ-कुछ नकारात्मक रहा है. इसकी वज़ह शायद अन्ना और उनकी टीम का बेतुकापन हो. अन्ना, रामदेव और उनके साथियों की हर हरकत और बयान को बौद्धिक समाज अपनी कसौटी पर कसता रहा. लेकिन यकीन मानिए कि बुद्धिजीवी यह कतई नहीं चाहते थे कि यह आन्दोलन अकाल मृत्यु को प्राप्त हो.इस बात की संभावना प्रबल है और अवसर भी है, कि आगे आन्दोलन की कमान देश के लेखक-कलाकार अपने हाथ में ले लें. राजनीतिक दल और सरकार सतर्क दिखती है.
         
आप देख ही रहे होंगे कि पूरे देश में जितनी भी अकादमियां और कला-संस्थान हैं, उनमें सरकार ने अपने पक्षधर और बहुत औसत किस् के लोगों को बैठा रखा है. फिर ये संस्थाएँ चाहे केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की.यह सब बहुत सुनियोजित तरीके से हुआ है. सरकार इन्हीं लोगों को पुरस्कृत भी करती रहती है. ये मठाधीश आपस में भी एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करते रहते हैं. इस रणनीति से सरकार ने बौद्धिक वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की मेधा को पहले ही नियंत्रित कर रखा है. जो कुछ लोग सरकार की कृपा से महरूम हैं या कुछ जो अपनी क्षमताओं को सरकार का गुलाम नहीं बनाना चाहते, उन पर सरकार इस तरह के हमले करने लगी है.
         अपने देश के लिए यह अपेक्षाकृत नयी बात है. और ज़ाहिर है ख़तरनाक भी.मुस्लिम देशों और यूरोप-अमेरिका महाद्वीप के कुछ देशों में लेखक-कलाकारों पर प्रतिबन्ध के समाचार जब हम सुनते थे तो आश्चर्य तो होता था, पर इसकी गम्भीरता और छटपटाहट को महसूस नहीं कर पाते थे.लेकिन कुछ वर्षों में अपने देश में पनप रही इस प्रवृत्ति की चोट अब दर्द बन कर उभरने लगी है.
          
एक वाकया मैं आपको म.प्र. का बताता हूं. म.प्र. की साहित्य अकादमी पिछले कई वर्षों से प्रदेश के लगभग सभी शहरों में पाठक मंच चलाती है. उस शहर के किसी उर्जावान साहित्यकर्मी को संयोजक बना दिया जाता है.अकादमी अपनी ओर से 10-12 किताबें चुनकर सभी केन्द्रों में भिजवाती है.शहर के साहित्य प्रेमियों को ये किताबें पढ़ने को दी जाती हैं. हर महीने एक किताब पर सब लोग चर्चा करते हैं. इस चर्चा की समेकित रपट अकादमी के पास भेजी जाती है. दिखने में यह योजना बहुत शानदार लगती है. पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने की ऐसी योजना शायद किसी और प्रदेश में नहीं है.
          
लेकिन यहाँ भी सरकार के अपने छल-छद्म हैं. तीन साल पहले तक रीवा-पाठक मंच का संयोजक मैं था.तीन साल पहले अमरकंटक में पाठक मंच संयोजकों का वार्षिक सम्मेलन हुआ. वार्षिक सम्मेलन में प्रदेश-देश के ख्यात साहित्यकारों-विचारकों को बुलाकर विचार-विमर्श की परंपरा है. विडम्बना ये है कि सरकार बदलती है तो विचारक भी बदल जाते हैं और अकादमी का संचालक भी. म.प्र.में भाजपा की सरकार पिछले आठ वर्षों से है. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सम्मेलन में विशेषज्ञ के रूप में किन लोगों को बुलाया गया होगा. इस सम्मेलन के दौरान कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने खुलेआम अकादमी संचालक को सलाह दी कि पाठक मंच के ऐसे संयोजकों को तत्काल हटाया जाय जो प्रगतिशील हैं. और नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों के अन्दर मेरे साथ ही कई संयोजक बदल दिए गये. कुछ पाला बदल कर बच गये. कहीं कोई शोर गुल नहीं हुआ.
            
सरकारों का चरित्र अब कुछ ऐसा हो गया है कि किसी भी आवाज. का उन पर अब कोई असर भी नहीं होता. आपको या
द ही होगा केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति का कितना विरोध किया था देश भर के साहित्यकारों ने. क्या फर्क पड़ा  ? लेखक-कलाकारों की आवाज़ सुनने की अब आदत ही नहीं रही सरकार को.
आखिर कोई किस आधार पर किसी वेबसाइट, लेख, नाटक, पेंटिंग या किताब पर प्रतिबंध लगा सकता है? सच कहना क्या कोई अपराध है? हमारे नेता या सरकार इतने कमजोर या डरपोक क्‍यों है? वे असलियत से क्‍यों डरते है? हमारे बोलने की, लिखने की, कहने की आजादी पर रोक क्‍यों लगाना चाहते है? ये केवल अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं है, ये केवल लोकतांत्रिक हकों का हनन भर भी नहीं है, बल्कि ये एक चुनोती है, असल में ये हमारे संवैधानिक अधिकारो पर सीधा हमला है।

इसी बीच इस पूरे प्रकरण का एक सांप्रदायिक पहलू भी दबे स्वर में उभरा है. कुछ मित्रों ने पूछा कि अगर असीम की जगह कोई मुसलमान होता तब क्या होता ? उन लोगों ने मकबूल फिदा हुसैन का भी ज़िक्र किया. सवाल का आशय यह था कि अगर कोई मुसलमान इन राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ छेड़छाड़ करता तो एकबारगी यही जनता उसके खिलाफ हो जाती और सरकार अपने को अल्पसंख्यकों का हितैषी दिखाने के लिए उसके साथ होती. यानी स्थिति एकदम उलट होती. इसका अर्थ है कि इस देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल निरापद नहीं है. इस सवाल का किन्ही संदर्भों में धार्मिक, साम्प्रदायिक और जातीय अस्मिताओं से भी संबन्ध है. साफ है कि जनता की नज़र से देखने पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग-अलग हो जाता है.

असीम का आरोप है कि वेबसाइट को बैन करने की भी मुंबई पुलिस ने कोई जानकारी उन्हे नहीं दी। वेबसाइट की प्रोवाइडर कंपनी बिगरॉक्स डॉट कॉम ने एक मेल द्वारा असीम को साइट बंद करने की सूचना दी। जब बिगरॉक्स कंपनी से बात हुई, तो उन्‍होंने असीम को मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच से संपर्क करने को कहा। क्राइम ब्रांच में कोई बताने वाला नहीं कि वेबसाइट को बैन क्‍यों किया गया? या साइबर एक्ट की किन धाराओं में केस दर्ज किया गया है? अब पता चला है कि महाराष्ट्र के बीड़ जिला अदालत ने स्थानीय पुलिस को असीम पर राष्ट्रद्रोह का केस दर्ज करने का आदेश भी दे दिया है। ये और भी शर्मनाक हरकत है।

आरोप है कि उनके कार्टूनो में संविधान और संसद का मजाक उड़ाया गया है। पर सवाल ये भी है कि जब सांसद संसद में हंगामा करते हैं, खुलेआम नोट लहराते हैं, लोकपाल बिल फाड़ते हैं, चुटकुलेबाजी करते हैं, तब क्या वे संसद का मजाक नहीं उड़ाते? देश की जनता का अपमान नहीं करते?

मैं असीम त्रिवेदी को आश्वस्त करना चाहता हूं कि वह अकेले नहीं हैं। सरकार की इस गैरलोकतांत्रिक कारवाई के खिलाफ, हम सब उनके साथ खड़े हैं।

Tuesday 11 September 2012

अनुनाद

एक तितली गूँजती है
फूल की पंखुड़ियों पर
तो रंग खिलखिलाते हैं ।

चन्द्रमा गूँजता है
पृथ्वी की कक्षा में 
तो रोशनी मुस्कुराती है
गहरी रात में भी ।

धरती के भार में गूँजता है बीज
तो साँसें लय मे होकर
आ जाती हैं सम पर ।

समुद्र के भीतर गूँजता है अतल
तो पानी का संगीत बजता है ।

भोर की पत्ती पर
गूँजती है ओस की बूँद
तो सूरज जागता है ।

देह के भीतर
गूँजती है देह
तो जनमता है
जीवन का अनुनाद ।

Wednesday 5 September 2012

आचार्य मृत्यु है !


आचार्य मृत्यु है ।                                        
आचार्य वरुण है ।
आचार्य सोम अथवा चन्द्रमा है ।
आचार्य औषधि है ।
आचार्य पय है ।........( अथर्ववेद )



हमारे मिथक साहित्य और प्राचीन-मध्यकालीन साहित्य में गुरु की महिमा का निर्द्वन्द्व बखान है.
जब भी गुरु की बात होती है, तो मुझे गुप्ता जी का ध्यान होता है........मेरे प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक. उन्होने कभी मुझे पढ़ाया नहीं....बस अपने पास बैठा लेते थे. एक कस्बे के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे. तब एक कक्षा का एक ही शिक्षक होता था. गुप्ता जी कक्षा 5 के शिक्षक थे. मुझ पर उनका कुछ ऐसा स्नेह था कि मैं किसी भी कक्षा में रहा हूँ, बैठता कक्षा 5 में गुप्ता जी के पास था.

गुप्ता जी ने जो पहली चीज़ मुझे दी, वह थी---पान की तलब ! वो पान के बड़े शौकीन. हर आधे घंटे में पान का एक बीड़ा मुँह में दबा लेते. फिर ऐसी खुशबू फैलती कि मेरे मुँह में गुदगुदी होने लगती. शायद इसी गुदगुदी के चलते मेरी दोस्ती एक पान वाले से बड़ी गहरी हो गई थी. लेकिन गुप्ता जी ने सिर्फ पान की ही तलब नहीं दी.....उनका दिया हुआ सब कुछ आज भी मेरे भीतर विकसित होता है. उन्होने मुझे गाने की तलब दी, कविता की तलब दी. रामचरित मानस को मेरे भीतर रोपा. उन्होने ही बताया कि स्लेट पर सुन्दर चित्र भी बनाए जा सकते हैं.

विद्यालय में शनिवार को होने वाली बाल-सभा के कर्ता-धर्ता गुप्ता जी ही होते थे. उनका गायन, कविता-कहानी पाठ, अंत्याक्षरी प्रतियोगिता---बाल-सभा के स्थायी आकर्षण होते थे. उस सभा में गुप्ता जी मेरे द्रोण होते थे और मैं उनका अर्जुन ! उसी समय मैने पहला गीत लिखा था. यह उस समय के लोकप्रिय गीत---झुलनी का रंग साँचा, हमार पिया”---की पैरोडी थी. मानस की चौपाइयों पर आधारित अंत्याक्षरी प्रतियोगिता का, उन्होने मुझे अजेय योद्धा बना दिया था. दुर्भाग्य से मेरा उनका साथ कक्षा पाँच तक ही रहा. मैं आज भी जब अपने भीतर कुछ चीज़ों को पाता हूँ, जिनके सहारे राग-विराग, सुख-दुख से भरा यह जीवन गतिमान है, ---तो इन सबकी जड़ें उन्हीं वर्षों में मिलती हैं, जब मैं गुप्ता जी के पास बैठता था.....उनकी पोटली से रोटी निकाल कर खा लेता था.......और जब कभी गुरुदेव अत्यधिक प्रसन्न हों तो एक पान का बीड़ा भी दे देते थे.

हमारी भारतीय मनीषा में 18 उपनिषद हैं. उपनिषद का अर्थ ही होता हैगुरु के समीप बैठना. साफ है कि हमारे उपनिषदों में जो ज्ञान का भंडार है, वह प्राचीन आचार्यों से उनके शिष्यों में स्थानांतरित हुआ था. शिष्यों को आचार्य अपने साथ रखते थे. और जीवन की नानाविधि परिस्थितियों का सामना करते हुए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया पूरी होती रहती थी. इस प्रसंग में पंचतंत्र का ध्यान सहज ही हो आता है. एक राजा के बिगड़ैल पुत्रों को शिक्षित करने के लिए राजा को मुनादी करवानी पड़ी थी. अंत में आचार्य विष्णु शर्मा ने उन्हें पढ़ाने जिम्मा लिया. वे राजपुत्रों को अपने साथ रखते और कहानियाँ सुनाते. शिष्यों को कभी लगने ही न पाया कि उन्हें पढ़ाया जा रहा है. राजपुत्रों ने न पढ़ने की जिद कर रखी थी. लेकिन कहानी सुनने में मज़ा आता था. बड़े चुपचाप तरीके से आचार्य उन्हें जीवन के शऊर सिखाते थे.

किस्से-कहानियों और गीतों के माध्यम से शिक्षित करने की हमारे यहाँ पुरानी परंपरा रही है. यह उन समाजों में भी शिक्षण की कारगर विधि थी जो अशिक्षित थे. ज्ञान के हस्तान्तरण की यह वाचिक परंपरा थी. यह ज़्यादातर क्रियात्मक होती थी. कथा-गीतों के द्वारा श्रम की साधना की जाती थी. लौकिक जीवन के विभिन्न अनुभवों से गुजरना होता था. अनुभवजन्य ज्ञान ज़्यादा स्थायी होता था. यह कहा जा सकता है कि शिक्षण की यह विधि अभाव से उपजी हुई विधि थी. तब संगठित रूप से शिक्षण की व्यवस्था समाज में नहीं थी. औपचारिक शिक्षा केवल राजपरिवारों तक ही सीमित थी. ऐसी परिस्थिति में सामान्य जनता ने शिक्षण की यह अपनी वाचिक परंपरा विकसित की.

गुरुओं की परंपरा को याद करते हुए, द्रोणाचार्य और कौटिल्य (चाणक्य) की विशेष याद आती है. आचार्य द्रोण का चरित्र हमारे समकालीन आचार्यों के अधिक निकट दिखता है. अपनी सारी योग्यताओं के बावजूद द्रोण को अपेक्षित सम्मान नहीं मिला था. राजकीय सुविधाएँ कृपाचार्य को मिली हुई थीं. कृपाचार्य राजकीय विवि के कुलपति रहे होंगे. द्रोणाचार्य धनुर्विद्या विभाग के विभागाध्यक्ष रहे होंगे. महाभारत में उल्लेख है कि द्रोण अपने पुत्र अस्वत्थामा को पीने के लिए दूध की व्यवस्था नहीं कर पाते थे तो आटा घोल कर पिला देते थे. बालक उसे दूध समझ कर बहल जाता था. अब आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि धृतराष्ट्र के राज में द्रोण की स्थिति कैसी रही होगी. और जब द्रोण की यह हालत थी तो बाकी आचार्यों की कैसी रही होगी ! यह अस्वाभाविक नहीं था कि आचार्य द्रोण को राजपुत्रों की खुशामद करनी पड़ती थी. राजपुत्रों से योग्य कोई और निकल जाता तो शायद राज्य शासन उन्हें नौकरी से निकाल देता. इसीलिए द्रोण को एकलव्य के साथ अँगूठा मागने की कूटनीति करनी पड़ी थी. कौटिल्य ने अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपने अपमान का बदला लेने के लिए चन्द्रगुप्त को साधन बनाया. मगध के राजा घननंद को अपदस्थ करना उनका प्रधान लक्ष्य था. चन्द्रगुप्त में उन्हें वह क्षमता दिखी, जिसका उपयोग करके वो अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकते थे. यद्यपि कालांतर में कौटिल्य-चन्द्रगुप्त की युति के कारण ही राजनीतिक अर्थों में एक सशक्त भारत राष्ट्र का उदय संभव हुआ.

ये दोनो उदाहरण शिक्षकों की अलग-अलग मनोवृत्तियों को उजागर करते हैं. साफ ज़ाहिर है कि समय और ज़माना चाहे जो भी रहा हो, आचार्यों के पास भी एक पेट होता था. उसका भरा होना भी उतना ही ज़रूरी था, जितना किसी और का. मान-अपमान का बोध तब के आचार्यों को भी था और अब भी है. अच्छे शिक्षक आसमान से न तब उतरते थे न अब टपकते हैं. अच्छे शिक्षकों को तैयार करना राज्य का धर्म है. उन्हें सम्मान देना और उनके उदर-पोषण की व्यवस्था करना राज्य का कर्तव्य है. जब राज्य ही शिक्षकों के महत्व को गंभीरता से नहीं समझेगा तो कैसे नागरिक मिलेंगे देश कोइसका अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है. भारत देश के नवनिर्माण की पटकथा लिखते समय शिक्षा और शिक्षकों के महत्व को लापरवाही से रेखांकित किया गया. गाँधी के अवसान के बाद से ही शिक्षा हमारी प्राथमिक चिन्ता नहीं रह गई थी. लेकिन इधर बीस वर्षों में शिक्षकों की स्थिति जितनी दयनीय हुई है, वह चिन्ता का विषय है. इधर शिक्षा-व्यवस्था में जो तदर्थवाद शुरू हुआ है, उससे देश में भविष्य की मेधा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग गये हैं.

लगभग बीस साल पहले म.प्र. में शुरू हुए एक प्रयोग ने पूरे देश के शिक्षकों की नियति को घनघोर अंधकार में डाल दिया. बीस साल पहले म.प्र. सरकार ने ढाई सौ रुपये तनखाह पर शिक्षकों की भर्ती शुरू की. इन्हें नाम दिया गयाशिक्षाकर्मी. इन्हें शिक्षा विभाग की जगह पंचायत विभाग का अस्थायी कर्मचारी बनाया गया. इन्हें नियमित कर्मचारियों की तरह कोई सुविधा और भत्ते नहीं दिए गये. इनके लिए न तो कोई भविष्यनिधि थी न पेन्शन-प्लान. बीस साल बाद आज भी इनकी तनखाह महज़ 3500 रुपये है. इसी तनखाह पर काम करने के लिए इसी वर्ष केवल म.प्र. में 18 लाख युवक-यवतियों ने पात्रता परीक्षा दी. एक दिन में इतनी बड़ी परीक्षा आयोजित करने का यह गिनीज बुक रिकॉर्ड बन गया. यहाँ रिकॉर्ड उपलब्धि नहीं है. आप सब समझ रहे होंगे कि इतनी कम तनखाह पर भी अगर इतने लोग काम करने को तैयार हैं तो देश में बेरोजगारी की स्थिति क्या होगी. ये शिक्षक जिन स्कूलों में पदस्थ होते हैं, वहाँ के चपरासी की तनखाह इनसे पाँच गुना ज्यादा होती है. इन शिक्षकों को अपना और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए बाकी समय में कोई और काम करना पड़ता है. यह केवल म.प्र. की स्थिति नहीं है. बाद में दूसरे प्रदेशों ने भी इसी नीति का अनुसरण किया. सरकारी स्कूलों में भवन और दूसरी आधारभूत सुविधाओं की इतनी खराब हालत है कि वहाँ सिर्फ गरीब और आरक्षित समुदाय के बच्चे ही पढ़ने आते हैं, वो भी सरकार द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्तियों, मध्यान्ह भोजन और दूसरी सुविधाओं के लोभ में. ज़ाहिर है कि ऐसे में शासकीय विद्यालयों की पढ़ाई का स्तर खराब ही होगा. सरकार इसका जिम्मेदार शिक्षकों को मानती है, और अनेक गैर-शिक्षकीय कार्यों में उन्हें लगाकर अपना पैसा वसूल करती है. यह शिक्षकों पर दोहरी मार है. इन अल्पआय वाले शिक्षकों से हमें किस गुरु-भाव की उम्मीद करनी चाहिए, ज़रा सोच कर देखिए.

आइये अब शिक्षको की मौजूदा हालत के बरक्स हम उस गुरु की महिमा को रखकर देखते हैं, जिसका ज़िक्र अथर्ववेद में बड़ी खूबसूरती से किया गया है...........ऋषि ने कहा---आचार्य मृत्यु है ! शिष्य को अगर एक योग्य गुरु मिल गया तो उसके अहंकार, अज्ञान, तामसिक वृत्तियों की उसी क्षण मृत्यु हो गई.....आचार्य वरुण है ! वरुण जल का देवता है. जल से प्यास बुझती है. गुरु, शिष्य की ज्ञान-पिपासा को तृप्त करता है. प्यास चाहे कितनी ही बड़ी हो, गुरु के पास अथाह जल है.........आचार्य सोम अथवा चन्द्रमा है ! शिष्य के समस्त दैहिक-दैविक-भौतिक तापों का शमन गुरु का वत्सल भाव कर देता है.........आचार्य औषधि है ! शिष्य को देशकाल से मिलने वाली सभी दैहिक और मानसिक बीमारियों को आचार्य का स्पर्शमात्र दूर कर देता है..........और आचार्य पय भी है दूध, बल-बुद्धि-वर्धक माना जाता है. एक शिष्य जब सच्चे गुरु को प्राप्त कर लेता है, तो उसके बल-बुद्धि निरंतर बढ़ते रहते हैं.

इसी सच्चे गुरु को कबीर सतगुरु कहते हैं. कबीर को सतगुरु मिला काशी में रामानन्द के रूप में. कैसा था कबीर का सतगुरु
?------

                                 सतगुरु की महिमा अनँत, अनँत किया उपगार ।
                   लोचन अनँत उघाड़िया,   अनँत दिखावणहार ।।

ऐसा गुरु मिल गया था कबीर को. जिसने उन्हें असंख्य आँखें दे दीं. सारी दुविधा, भेद-अभेद खत्म हो गये. और अब वो उसे भी देखने के काबिल हो गये, जो अनन्त था, अनिर्वचनीय था, अदृश्य था, जो सत्य था. जिसे देखना सबके वश की बात नहीं थी. कबीर अब इन आँखों से जीवन-सत्य भी देख रहे थे, और जीवन-पार के सत्य को भी देख पा रहे थे. उन्हें अब वह सब आडम्बर भी दिख रहा था, जिसमें वो खुद अब तक लिप्त थे.

लेकिन गुरु कितना भी योग्य क्यों न हो, हर शिष्य को यह दिव्य ज्ञान नहीं मिल पाता. बड़े भाग वाले होते हैं वो लोग जो गुरु का सम्पूर्ण गुरुत्व ले पाने की पात्रता हासिल कर पाते हैं. इसके लिए कृती भाव होना चाहिए कबीर की तरह. अहंकार-शून्य होना चाहिए, जैसे कृष्ण के सामने अर्जुन हो गये थे. सेवक भाव होना चाहिए, जैसे राम में था विश्वामित्र के लिए. समर्पण चाहिए, जैसे चन्द्रगुप्त में था कौटिल्य के लिए. आस्था चाहिए, जैसी एकलव्य में थी आचार्य द्रोण के लिए.

और तब देखिए, यह भी घटित होगा.
जैसे कुमुदिनी पानी में रहती है, और चन्द्रमा आकाश में. लेकिन प्रेम दूरी नहीं जानता. भेद नहीं मानता, जाति नहीं मानता, कुछ नहीं देखता. जो जिसका मनभावन है, वह सदा पास में ही रहता है. अगर गुरु वाराणसी में होते और कबीरदास समुद्रपार, तो भी उनका वत्सल स्नेह शिष्य के पास पहुँचकर ही रहता-------

                       कमोदनी जल हरि बसै, चन्दा बसै अकास ।
                       जो जाही का भावता,  सो ताही  कै  पास ।।
                       कबीर गुरु बसै बनारसी, सिक्ख समंदर पार ।
                       बिसास्या नहि बीसरै , जे गुण  होइ सरीर ।।
                                                   (कबीर)