Pages

Thursday 20 September 2012

दिल्ली सुनती क्यों नहीं...?



क्या दिल्ली के कान नहीं हैँ, आँख नहीं है ? या उसके पास दिल ही नहीं है ?? जिन आवाज़ों को पूरा देश सुनता है, वो दिल्ली को क्यों सुनाई नहीं देती ? जो चीखें देश के कोने कोने से उठ रही हैं, उनका असर दिल्ली पर क्यों नहीं होता ? देश की नस-नस जब दर्द से तड़क रही हो तो दिल्ली क्यों नहीं छटपटाती ??

इस देश के लिए दिल्ली एक शहर नही, एक प्रतीक है. एक मुहावरा है. किसी के लिए दिल्ली दूर होती है, तो किसी का नसीब उसे दिल्ली का बादशाह बना देता है. दिल्ली प्रतीक है देश के भाग्य का. दिल्ली होने का अर्थ है, शक्ति और सत्ता के शिखर पर होना. सवा अरब जनता की ज़िन्दगी से वाबस्ता फैसले इसी दिल्ली में लिए जाते हैं. दुनिया की बिरादरी से रिश्ते-नाते यहीं तय होते हैं. यहीं से देश के अभिमान और अपमान की नदियाँ निकलती हैं, तो यहीं से उत्थान और पराभव का सिलसिला शुरू होता है.

हिन्दुस्तान के लिए दिल्ली का अर्थ है सरकार. पहले राजा या बादशाह थे. अब हमारी अपनी बनाई हुई सरकार है. सैद्धान्तिक रूप से यह जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए सरकार है. हमारे बहुमूल्य वोट के दम पर बनी है. पर इसे हमारी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती. जनता की दुर्दशा दिखाई नहीं पड़ती. देश कराहता है तो इसके चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आती ! फिर कैसे हुई ये हमारी सरकार ! जनता के वोट की शक्ति क्या उसी के ख़िलाफ़ एक छल नहीं है ?  हमारी ही सरकार आखिर हमारे सुख-दुख से ऐसे बेज़ार कैसे हो सकती है. उसकी कौन सी मजबूरियाँ हैं जिनके चलते वह हमारी चीखों को अनसुना कर देती है ?

सरकार की भी मजबूरियां हैं. इन्हें मजबूरियों से ज़्यादा दुविधाएँ कहा जाना चाहिए. इन दुविधाओं की परतें अनेक हैं. हमारी संविधान-सम्मत दलीय व्यवस्था का परिणाम ये हुआ कि देश भर में राजनीतिक दलों की भरमार हो गई. जनता की दृष्टि अपने दलों और अपने क्षेत्रों तक सिमट गई. जितने तरह के दल उतने तरह का जनमत. जितने सूबे, उतने सूबेदार. ऐसे में देश का कोई राष्ट्रीय जनमत बनने ही नहीं पाता. राष्ट्रीय राजनीति पर सूबों की राजनीति भारी पड़ने लगी है. पिछली कई सरकारें, गठबंधन सरकारें रही है. ये क्षेत्रीय दलों के सहयोग से बनीं. क्षेत्रीय दलों के अपने-अपने स्वार्थ थे. यही स्वार्थ राष्ट्रीय सरकार के लिए शर्त बन गये. ऐसे में केन्द्र सरकार पूरे देश की सरकार दिखती ही नहीं. वह कई घोड़ों से चलने वाला एक रथ नजर आती है.  जहाँ सारथी की सारी शक्ति घोड़ों को संभालने में ही खर्च हो जाती है.

गठबंधन की राजनीति का सीधा असर सरकार की निर्णय क्षमता पर पड़ा है. सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाने मे अक्सर असफलता हाथ लगी. क्षेत्रीय दल अधिकतर जातीय और क्षेत्रीय अस्मिताओं को प्रश्न बनाकर निर्मित हुए हैं. इसलिए कोई भी कोई भी राष्ट्रीय सहमति बनाने में सरकार को पसीना आ जाता है. नतीजा ये हुआ कि सरकार ने उन मसलों पर ध्यान देना ही छोड़ दिया. वह ऐसे सवालों से कतरा कर निकलने लगी, जिनमें उसे सहयोगी दलों से मान-मनौव्वल करना पड़े.

गठबंधन सरकार में, सरकार की अनिश्चितता भी बढ़ी है. क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेकर सरकार बनाने वाले राष्ट्रीय दल अपने सारे कौशल के बावजूद निश्चिन्त नहीं हो पाते कि उनकी सरकार कब तक रहेगी. और अच्छे काम के बावजूद अहली बार सत्ता उनके पास रहेगी या चली जायेगी. इसका सीधा असर यह होता है कि सरकार दूरगामी दृष्टि से कोई फैसला नहीं करती. वह तात्कालिक लाभ वाले ऐसे फैसले करती है, जिनसे किसी सहयोगी दल को बिदकने की वज़ह न मिले.

इतना पढ़कर आप ज़रूर सोच रहे होंगे कि मैं सरकार के लिए सहानुभूति पैदा करने की कोशिश कर रहा हूँ. ऐसा लग रहा होगा कि मैं सरकार के निकम्मेपन, उसके स्वार्थों और उसकी अक्षमताओं को उसकी मजबूरियों के परदे में ढंकना चाह रहा हूँ. पर ऐसा नहीं है. मुझे इस बात का इल्म है कि गठबंधन की मजबूरियों के बावजूद सरकार के पास असीमित शक्तियाँ और मौके हैं.

पूरा देश कुछ वर्षों से महगाई की चपेट में है. देश की 80 फीसदी जनता कराह रही है. लेकिन उसे कोई राहत का आश्वासन तक देने वाला नहीं है. देश में लाखों टन अनाज सड़ जाता है, और दूसरी तरफ हज़ारों लोग भूख बर्दाश्त न कर पाने से मर जाते हैं. कम्प्यूटर, मोबाइल, गाड़ियों आदि की कीमत हर महीने गिरती है, और नमक-आटा-तेल और सब्जियों की कीमत हर हफ्ते बढ़ती है. एक तरफ अंबानी-टाटा-मित्तलों की ऐसी हैसियत हो गई कि दुनिया भर की कंपनियों को खरीद रहे हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक साल में ढाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर लेते हैं. बेशक इसके पीछे गठबंधन सरकार की मजबूरी नहीं हो सकती.

देश की यह दुर्दशा सरकार की नीतियों, इच्छाशक्ति में कमी और तात्कालिक लोभ की राजनीति के कारण हो रही है. यहाँ कई लोग असहमत होंगे कि दुनिया जब घोषणा कर रही है कि 2025 तक भारत आर्थिक महाशक्ति बन जायेगा, भारतीय युवा देश-विदेश में लाखों रुपये प्रतिमाह की पगार पा रहे हैं, हमारे व्यापारिक घराने फोर्ब्स और टाइम जैसी पत्रिकाओं की सूची में सम्मानजनक जगह पा रहे है---ऐसे में दुर्दशा का विलाप, रंग में भंग करने जैसा है. ये दृश्य मुझे भी लुभाते हैं. पर मेरा दृढ़ विस्वास है कि देश में जो चीख-पुकार मची है, वह इन्ही दृश्यों की कीमत है.

एक होता है विकास, और एक होता है विकास का छद्म. जैसे एक जर्जर मकान को रंग-पेन्ट करके चमका दिया जाये. हमारी सरकार ने यह दूसरा रास्ता चुना, कि देखो हमारा घर भी कितना शानदार है. लार्ड मैकाले की खूब याद होगी आपको. अँग्रेज शिक्षाविद थे. अँग्रेजी राज के समय उन्हें भारत में शिक्षा-प्रणाली के नियमन की ज़िम्मेदारी दी गई थी. इसी प्रकृया में मैकाले ने एक अनोखा सिद्धान्त पेश किया. इस सिद्धान्त को कहा गया—downward  filtration. हिन्दी में इसे कहेंगेअधोमुखी निस्यंदय. विचित्र विचार था यह. इसमें कहा गया कि भारत के गरीबों और पिछड़ो को शिक्षा देने की कोई जरूरत नहीं है. केवल उच्च और धनी वर्ग को शिक्षित कर दिया तो शिक्षा , छन-छन कर अपने आप निचले तबकों तक पहुँच जायेगी. जाहिर है यह सिद्धान्त अग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी हितों को ध्यान में रख कर गढ़ा था. वे भारत के श्रेष्ठिवर्ग को अपने कब्ज़े ले लेना चाहते थे.

लगता है हमारी सरकार के अवचेतन में भी मैकाले का वही सिद्धान्त है. फर्क सिर्फ इतना है, कि सरकार इसे भारतीयों के पेट पर लागू कर रही है. दिल्ली शायद यह मानती है कि देश के धनिकों का पेट इतना भर दो कि उनकी तृप्ति छन-छन कर देश के भूखों तक पहुँच जायेगी. हमारे देश में जब आर्थिक उदारीकरण अपनाया गया, उसी समय विकास, समृद्धि और समर्थ राष्ट्र के मूलभूत सिद्धान्तों को भुला दिया गया था. विश्व-पूँजी को आमंत्रित करते समय हमने उन चेतावनियों को नज़रअंदाज़ किया था, जिनमे बार-बार कहा जा रहा था कि हमारी स्वदेशी ग्रामीण अर्थव्यवस्था तबाह हो जायेगी. सरकार ने भी आसान रास्ता अपनाया. उसकी सारी नीतियाँ बड़े उद्यमियों के लिए बनने लगीं. बड़े उद्यमियों ने छोटे उद्यमियों को निगल लिया. देश के कोने कतरों के जो गाँव-कस्बे अपनी अपनी अर्थव्यवस्था खुद चलाते थे, उनके भाग्य का निर्णय अब अमेरिका, कोरिया, जापान, ब्रिटेन के ऑफिसों से होने लगा.

कहने का आशय यह है कि सरकार ने बहुत चैतन्य अवस्था में पूँजीवाद का पौधा देश में रोपा और उसे निरंतर खाद पानी देकर बढ़ाया. पूँजीवाद के तमाम लक्षणों में एक लक्षण यह भी है कि एक अवस्था ऐसी आती है जब वह अपने विधाता को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है. अगर व्यवस्था को खत्म करने की कोशिश की जाय तो व्यवस्थापक पहले खत्म हो जायेगा. यही हमारी वर्तमान सरकार की दुविधा है. लगातार बढ़ती महगाई और अपनी आर्थिक नीतियों  के पक्ष में, सरकार यही तर्क देती है कि उसे वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में प्रतिस्पर्धा करनी है. दुनिया के अधिकांश देश अब विश्व-बाज़ार व्यवस्था को अपना चुके है.

ज़ाहिर है कि इस व्यवस्था का संचालन वही देश कर  रहे हैं जो सबसे सबल हैं. बाज़ार के सारे नियम-कायदे भी वही बनाते हैं. हमारी सरकार जिसे प्रतिस्पर्धा करना कहकर, जनता को बहलाती है, दरअसल वह प्रतिस्पर्धा नहीं, विश्व-बाज़ार की गुलामी करना है. विश्व-बाज़ार पूँजीवादी सिद्धान्तों पर ही चलता है, इसमें कोई संदेह नहीं है. और आप सब समझते हैं कि पूँजीवाद में एक शोषक और एक शोषित वर्ग की सैद्धान्तिकी चलती है. इस व्यवस्था में तरक्की के अवसर कुछ चुने हुए लोगों के पास महदूद होते हैं, जो अधिसंख्य लोगों के श्रम और क्षमता का उपयोग करके भुनाए जाते हैं.

अभी हाल ही में एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले वर्ष में भारत के गाँवों ने शहरों के मुकाबले ज़्यादा पैसा खर्च किया है, ज़रूरत की चीज़ों पर. इस खबर से अगर हम यह समझ लें कि भारतीय गाँवों में बहुत पैसा आ गया है या भारतीय गाँव बहुत विकसित हो गये हैंतो यह बड़े धोखे की बात होगी. इसे ज़रा समझें. पहली बात, ये आंकड़े दैनिक उपयोग में खर्च किए गये धन पर आधारित हैं, इनमें व्यापार और उद्योग में लगाए  गये पैसे शामिल नहीं हैं. दूसरी बात ये कि अभी भी लगभग 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है. तो उसके द्वारा खर्च किया गया पैसा शहरी आबादी से अधिक हो, यह संभव है, पर समृद्धि का सूचक नहीं.

इस खबर में सबसे बड़ी बात यह है कि विश्व के पूँजीपतियों ने आखिर वह रास्ता खोज लिया है, जिससे गाँवों का पूरा पैसा खींचा जा सके. गाँवों में उद्योग नहीं लग रहे हैं कि धन का पुनरुत्पादन किया जा सके. उनकी जमापूँजी को बाहर निकाला जा रहा है. इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व-बाज़ार की माहिर कम्पनियों ने भारतीय गाँवों की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर अपने उत्पादों में कुछ ऐसे परिवर्तन किए ताकि न्हें गाँवोंमें आसानी से बेंचा जा सके. गाँवों से अब नीबू-शरबत, लस्सी, पापड़, मुरब्बा गायब हो गये. उनकी जगह पेप्सी-कोक-कुरकुरे पहुँच गये हैं. नौटंकी-चौपाल-रामलीला की जगह टीवी-मोबाइल-डीजे ने ले ली है.

लेकिन इसकी खबर सरकार तक नहीं पहुँचती. क्योंकि सरकार को विश्व-बाज़ार में अपनी साख बनानी है. अमेरिका से वाहवाही पानी है. गाँव और गाँव के किसानों की आवाज़ दिल्ली के कानों तक नहीं पहुँचती क्योकि दिल्ली में अंबानी-टाटा का डीजे साउण्ड बजता है. दिल्ली को देश की सत्तर फीसदी आबादी की रसोई की चिन्ता नहीं है, क्योंकि दिल्ली तीस प्रतिशत आबादी के पेट भरे हुए देख कर खुश है.
दिल्ली हमारी होकर भी हमारी नहीं है.

3 comments:

virendra sharma said...

भारत का निगमीकरण हो रहा है .लोबी करने वाले लोग ही चलाएंगे अब इस देश को चर्च के इशारे पे .और बिठाओ इटली को सिर पे .वर्ल्ड बैंक के एजेंट ही अब इस देश को खुद रिमोटिया मुद्रा में हांकेंगे .

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

विचारणीय पोस्ट

आनंद said...

देश में लाखों टन अनाज सड़ जाता है, और दूसरी तरफ हज़ारों लोग भूख बर्दाश्त न कर पाने से मर जाते हैं. कम्प्यूटर, मोबाइल, गाड़ियों आदि की कीमत हर महीने गिरती है, और नमक-आटा-तेल और सब्जियों की कीमत हर हफ्ते बढ़ती है. एक तरफ अंबानी-टाटा-मित्तलों की ऐसी हैसियत हो गई कि दुनिया भर की कंपनियों को खरीद रहे हैं, तो दूसरी तरफ देश में एक साल में ढाई लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर लेते हैं. बेशक इसके पीछे गठबंधन सरकार की मजबूरी नहीं हो सकती...
...
सदा की तरह ही एक परिपूर्ण लेख जो समस्या की तह तक जाने की कोशिश कर्ता है !