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Wednesday 12 September 2012

बात तो फिर भी बोलेगी...!


असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किये जाने की खबर तो अब सभी लोगों तक पहुँच ही गई होगी. शायद यह भी सब जान ही गये होंगे कि तीन दिन बाद बिना मागे ही असीम को ज़मानत भी दे दी गई. असीम एक कार्टूनिस्ट हैं. अन्ना टीम के सक्रिय सदस्य हैं. भ्रष्टाचार को लक्ष्य करके उन्होने कमाल के कार्टून बनाए हैं. मुंबई पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और पन्द्रह दिन की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया. कुछ महीने पहले उनकी वेबसाइट कार्टून अगेंस्ट करप्शन डॉट कॉम को प्रतिबंधित कर दिया गया था. खबर थी कि उन पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा सरकार चलायेगी, फिर खबर यह भी मिल रही है कि सरकार का मन बदल गया है.

अब हम सरकार को इतना संवेदनशील और सदय मान लें तो भूल होगी. मीडिया और खासतौर पर सोशल मीडिया के जागरूक प्रयासों के चलते पूरे देश में सरकार के इस कदम के विरोध और असीम के समर्थन में लोग सक्रिय हो चुके हैं. चौतरफा मुसीबतों में घिरी केन्द्र सरकार शायद इस समय जनता को आन्दोलित होने का कोई मौका नही देना चाहती. अन्ना टीम की दुविधाओं और मतभेदों से सरकार को कुछ राहत की साँस आने लगी थी. वो इन्हें फिर से एकजुट नहीं होने देगी.

खैर, अब बात असीम पर लगाये गये आरोपों की करते हैं. उन्हें राष्ट्रद्रोही कहा जा रहा है, क्योंकि उन्होने कुछ राष्ट्रीय प्रतीकों से मिलती-जुलती आकृतियों से भ्रष्टाचार और हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है. वो कार्टून बनाते हैं. कार्टून, चित्र से ज़्यादा एक भाषा होते हैं. एक ऐसी चित्रात्मक भाषा, जिसमें लक्षणा और व्यंजना में अर्थ खुलते हैं. इस भाषा में जो अप्रकट है वह महत्वपूर्ण होता है. कार्टून बनाने वाला जो बात कहना चाहता है, उसके लिए वह उपयुक्त माध्यम और प्रतीक खोजता है. ज़ाहिर है कि इस विधा में बात करते समय चित्र महत्वपूर्ण नहीं होता. असीम ने राष्ट्रीय चिन्ह (अशोक स्तम्भ के शीर्ष पर बनी चार शेरों की आकृति) और राष्ट्रीय ध्वज  में परिवर्तन करके राजनीति पर व्यंग्य  किया. यहाँ ध्यान रखना होगा कि  उनका व्यंग्य इन राष्ट्रीय प्रतीतो पर नहीं था.

इसे सरकार, पुलिस और नेतागण राष्ट्रद्रोह मान रहे हैं. यानी संसद में बैठे हुए कुछ भ्रष्ट और सज़ायाफ़्ता सदस्यों पर टिप्पणी करना राष्ट्रद्रोह हो गया. दूसरी तरफ से इसका अर्थ यह है कि ये जो रोज़-रोज़ करोड़ों-करोड़ का घोटाला कर रहे हैं, जो जेल में बन्द हैं, जो संसद ठप्प  करके जनता का पैसा और देश का भविष्य बरबाद कर रहे हैं  वो सच्चे राष्ट्रभक्त हैं. मेरा ख़याल है कि राजनीतिक दलों का चरित्र दिनो-दिन साफ होता जा रहा है. यह कहना भले ही गहन निराशा की उपज लगे, पर हमारे देश में लोगतंत्र के परदे में एक मृदु तानाशाही चल रही है. जनता की आवाज़ और राष्ट्रहित की लगातार हो रही अनदेखी के बाद प्रतिरोध को कुचलने के जो तरीके अपनाये जा रहे है, वो तानाशाही के प्रारंभिक लक्षण हैं. गनीमत यह है कि देश की गरीब जनता और हमारी सेना की, लोकतंत्र पर अनन्य आस्था है. हम मिस्र या सीरिया जैसी क्रान्ति की कल्पना नहीं कर सकते. लेकिन सरकार पर नज़र रखने के अपने संवैधानिक कर्तव्य से भी पीछे नहीं हटना चाहिए.

असीम पर आरोप है कि उन्होंने अपने कार्टूनों के जरिये देश की भावनाओं को ठेस पहुंचायी है। असीम एक कलाकार हैं. भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने का अपना तरीका है. किसी भीड़ का हिस्सा बने बिना वो एक रचनात्मक प्रतिरोध कर रहे है. मैंने असीम त्रिवेदी के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम वाले कार्टून देखे हैं, वे भ्रष्टाचार पर तीखी और सीधी चोट करते हैं। उनमें किसी का मजाक नहीं बल्कि आम आदमी की भावनाओं की, गुस्से की वास्तविक अभिव्यक्ति है। मेरी निगाह में यह सिर्फ कार्टूनिस्ट पर प्रतिबंध लगाना नहीं बल्कि मीडिया और सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सुनियोजित तरीके से नियंत्रण की शुरुआत है। हाल के समय में सरकार के कुछ ज़िम्मेदार मंत्री अपनी मंशा सार्वजनिक कर चुके हैं कि सोशल मीडिया पर लगाम की ज़रूरत है.

कार्टून-कला, उन चुनिन्दा कला-माध्यमों में से एक है, जिसका असर  जनता पर रेखांकित किए जाने लायक है. आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद एक बड़ा अंतर हमारे प्रतिरोध के माध्यमों की प्रभावशीलता में भी दिखता है. आज़ादी के संघर्ष में लिखित साहित्य और नौटंकी, रामलीला जैसी नाट्यविधाओं का प्रयोग जनता को चैतन्य करने के लिए किया जाता था. और यह असरदार भी था. तिलक ने महाराष्ट्र में गणेश पूजा को आजादी के आंदोलन से बड़े प्रभावी तरीके से जोड़ दिया था. जबकि उस समय देश में साक्षरता की स्थिति अत्यंत दयनीय थी. आज साक्षरता तो बढ़ गई है लेकिन ये माध्यम निष्प्रभावी होते गये. ऐसी दशा में असीम के कार्टूनों से मची हलचल उत्साहजनक है. यद्यपि मेरी व्यक्तिगत राय है कि किसी भी कलाकार  को राष्ट्रीय और धार्मिक अस्मिता से जुड़े प्रतीकों और भावनाओं से छेड़छाड़ करने से यथासंभव बचना चाहिए.
        
दरअसल भ्रष्टाचार की अभी तक की मुहिम में देश का बुद्धिजीवी वर्ग खुलकर सामने नहीं आया था.बल्कि यह कहना ज़्यादा ठीक होगा कि बौद्धिक वर्ग का रवैया कुछ-कुछ नकारात्मक रहा है. इसकी वज़ह शायद अन्ना और उनकी टीम का बेतुकापन हो. अन्ना, रामदेव और उनके साथियों की हर हरकत और बयान को बौद्धिक समाज अपनी कसौटी पर कसता रहा. लेकिन यकीन मानिए कि बुद्धिजीवी यह कतई नहीं चाहते थे कि यह आन्दोलन अकाल मृत्यु को प्राप्त हो.इस बात की संभावना प्रबल है और अवसर भी है, कि आगे आन्दोलन की कमान देश के लेखक-कलाकार अपने हाथ में ले लें. राजनीतिक दल और सरकार सतर्क दिखती है.
         
आप देख ही रहे होंगे कि पूरे देश में जितनी भी अकादमियां और कला-संस्थान हैं, उनमें सरकार ने अपने पक्षधर और बहुत औसत किस् के लोगों को बैठा रखा है. फिर ये संस्थाएँ चाहे केन्द्र सरकार की हों या राज्य सरकारों की.यह सब बहुत सुनियोजित तरीके से हुआ है. सरकार इन्हीं लोगों को पुरस्कृत भी करती रहती है. ये मठाधीश आपस में भी एक दूसरे को सम्मानित और उपकृत करते रहते हैं. इस रणनीति से सरकार ने बौद्धिक वर्ग के एक बहुत बड़े हिस्से की मेधा को पहले ही नियंत्रित कर रखा है. जो कुछ लोग सरकार की कृपा से महरूम हैं या कुछ जो अपनी क्षमताओं को सरकार का गुलाम नहीं बनाना चाहते, उन पर सरकार इस तरह के हमले करने लगी है.
         अपने देश के लिए यह अपेक्षाकृत नयी बात है. और ज़ाहिर है ख़तरनाक भी.मुस्लिम देशों और यूरोप-अमेरिका महाद्वीप के कुछ देशों में लेखक-कलाकारों पर प्रतिबन्ध के समाचार जब हम सुनते थे तो आश्चर्य तो होता था, पर इसकी गम्भीरता और छटपटाहट को महसूस नहीं कर पाते थे.लेकिन कुछ वर्षों में अपने देश में पनप रही इस प्रवृत्ति की चोट अब दर्द बन कर उभरने लगी है.
          
एक वाकया मैं आपको म.प्र. का बताता हूं. म.प्र. की साहित्य अकादमी पिछले कई वर्षों से प्रदेश के लगभग सभी शहरों में पाठक मंच चलाती है. उस शहर के किसी उर्जावान साहित्यकर्मी को संयोजक बना दिया जाता है.अकादमी अपनी ओर से 10-12 किताबें चुनकर सभी केन्द्रों में भिजवाती है.शहर के साहित्य प्रेमियों को ये किताबें पढ़ने को दी जाती हैं. हर महीने एक किताब पर सब लोग चर्चा करते हैं. इस चर्चा की समेकित रपट अकादमी के पास भेजी जाती है. दिखने में यह योजना बहुत शानदार लगती है. पुस्तक-संस्कृति को बढ़ावा देने की ऐसी योजना शायद किसी और प्रदेश में नहीं है.
          
लेकिन यहाँ भी सरकार के अपने छल-छद्म हैं. तीन साल पहले तक रीवा-पाठक मंच का संयोजक मैं था.तीन साल पहले अमरकंटक में पाठक मंच संयोजकों का वार्षिक सम्मेलन हुआ. वार्षिक सम्मेलन में प्रदेश-देश के ख्यात साहित्यकारों-विचारकों को बुलाकर विचार-विमर्श की परंपरा है. विडम्बना ये है कि सरकार बदलती है तो विचारक भी बदल जाते हैं और अकादमी का संचालक भी. म.प्र.में भाजपा की सरकार पिछले आठ वर्षों से है. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सम्मेलन में विशेषज्ञ के रूप में किन लोगों को बुलाया गया होगा. इस सम्मेलन के दौरान कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों ने खुलेआम अकादमी संचालक को सलाह दी कि पाठक मंच के ऐसे संयोजकों को तत्काल हटाया जाय जो प्रगतिशील हैं. और नतीजा यह हुआ कि कुछ ही दिनों के अन्दर मेरे साथ ही कई संयोजक बदल दिए गये. कुछ पाला बदल कर बच गये. कहीं कोई शोर गुल नहीं हुआ.
            
सरकारों का चरित्र अब कुछ ऐसा हो गया है कि किसी भी आवाज. का उन पर अब कोई असर भी नहीं होता. आपको या
द ही होगा केन्द्रीय साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष पद पर अशोक चक्रधर की नियुक्ति का कितना विरोध किया था देश भर के साहित्यकारों ने. क्या फर्क पड़ा  ? लेखक-कलाकारों की आवाज़ सुनने की अब आदत ही नहीं रही सरकार को.
आखिर कोई किस आधार पर किसी वेबसाइट, लेख, नाटक, पेंटिंग या किताब पर प्रतिबंध लगा सकता है? सच कहना क्या कोई अपराध है? हमारे नेता या सरकार इतने कमजोर या डरपोक क्‍यों है? वे असलियत से क्‍यों डरते है? हमारे बोलने की, लिखने की, कहने की आजादी पर रोक क्‍यों लगाना चाहते है? ये केवल अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल नहीं है, ये केवल लोकतांत्रिक हकों का हनन भर भी नहीं है, बल्कि ये एक चुनोती है, असल में ये हमारे संवैधानिक अधिकारो पर सीधा हमला है।

इसी बीच इस पूरे प्रकरण का एक सांप्रदायिक पहलू भी दबे स्वर में उभरा है. कुछ मित्रों ने पूछा कि अगर असीम की जगह कोई मुसलमान होता तब क्या होता ? उन लोगों ने मकबूल फिदा हुसैन का भी ज़िक्र किया. सवाल का आशय यह था कि अगर कोई मुसलमान इन राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ छेड़छाड़ करता तो एकबारगी यही जनता उसके खिलाफ हो जाती और सरकार अपने को अल्पसंख्यकों का हितैषी दिखाने के लिए उसके साथ होती. यानी स्थिति एकदम उलट होती. इसका अर्थ है कि इस देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल निरापद नहीं है. इस सवाल का किन्ही संदर्भों में धार्मिक, साम्प्रदायिक और जातीय अस्मिताओं से भी संबन्ध है. साफ है कि जनता की नज़र से देखने पर अभिव्यक्ति की आज़ादी का अर्थ अलग-अलग संप्रदायों के लिए अलग-अलग हो जाता है.

असीम का आरोप है कि वेबसाइट को बैन करने की भी मुंबई पुलिस ने कोई जानकारी उन्हे नहीं दी। वेबसाइट की प्रोवाइडर कंपनी बिगरॉक्स डॉट कॉम ने एक मेल द्वारा असीम को साइट बंद करने की सूचना दी। जब बिगरॉक्स कंपनी से बात हुई, तो उन्‍होंने असीम को मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच से संपर्क करने को कहा। क्राइम ब्रांच में कोई बताने वाला नहीं कि वेबसाइट को बैन क्‍यों किया गया? या साइबर एक्ट की किन धाराओं में केस दर्ज किया गया है? अब पता चला है कि महाराष्ट्र के बीड़ जिला अदालत ने स्थानीय पुलिस को असीम पर राष्ट्रद्रोह का केस दर्ज करने का आदेश भी दे दिया है। ये और भी शर्मनाक हरकत है।

आरोप है कि उनके कार्टूनो में संविधान और संसद का मजाक उड़ाया गया है। पर सवाल ये भी है कि जब सांसद संसद में हंगामा करते हैं, खुलेआम नोट लहराते हैं, लोकपाल बिल फाड़ते हैं, चुटकुलेबाजी करते हैं, तब क्या वे संसद का मजाक नहीं उड़ाते? देश की जनता का अपमान नहीं करते?

मैं असीम त्रिवेदी को आश्वस्त करना चाहता हूं कि वह अकेले नहीं हैं। सरकार की इस गैरलोकतांत्रिक कारवाई के खिलाफ, हम सब उनके साथ खड़े हैं।

1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

http://vyakhyaa.blogspot.in/2012/09/blog-post_14.html