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Wednesday 27 February 2013

पहला प्यार

***
पहला प्यार
ऐसे अचानक आता है
कि उस वक्त
हमारे पास न तो डायरी होती है
न कलम ।

इसीलिए
उसकी तारीख दर्ज करनी होती है
किसी मकान के पीछे की दीवार पर
या किसी पेड़ के खुरदुरे तने पर
या किसी मंदिर की पवित्र गंध में
या फिर धूल पर लिखी गयी इबारत में ।

जैसे घर के सामने
आम के पेड़ को देखने से
याद नहीं आता
कि धरती से कब फूटा था
इसका अंकुर,
कि वह किस सन् की बारिश थी
जिसने पहली बार भिगाया था
यह भी तो नहीं याद आता ।

याद बस इतना आता है
कि एक झूले में बैठकर
इतना ऊपर गये थे
कि दुनिया कंचे की तरह दिख रही थी
और नीचे आते समय
कलेजा मुहँ से बाहर निकलने को था ।

***
पहले प्यार के जीवाश्म
दबे रह जाते हैं
जीवन की परतों में ।

उम्र की सदियाँ गुजर जाने के बाद
अचानक किसी रोज
पड़ती है एक कुदाल
परतों के बीच से
कोई निकाल लाता है
पहले प्यार के गुणसूत्र ।

जैसे कोई राग था
जो किसी कंठ में
बजता रहा
बंदिशें बदल बदल कर ।

***
कि
एक नदी होता है
पहला प्यार !
जो एक पहाड़ से निकलती है
जिसकी धार पतली होती है शुरू में
और वेग ज्यादा,
और नही चलती सीधे रास्ते कभी भी ।

लगता है
जिस दिन निकली होगी
दुनिया की पहली नदी
उसी दिन पैदा हुआ होगा
पहला प्यार भी ।।

Sunday 24 February 2013

बजट सत्र के पहले !

भद्रलोक के लिए
एक भदेस टिप्पणी था य़ह दृश्य ।

जब वो बड़ी हड़बड़ी में
निकला था घर से
और सबसे मुस्कुरा के 
बात की थी उसने ।

वह बच्चे के लिए बस्ता खरीदने
जा रहा था ।

पापा उसे बता रहे थे 
कि हमारे कपड़े
पेरिस में धुलने जाते थे,
यह रास्ता काटने का 
उपक्रम रहा होगा ।

बहरहाल !
दूकानदार मुस्कुराने का अभ्यासी था,
इसीलिए मुस्कुरा रहा था ।

उसे एक ऐसा बस्ता चाहिए था
जिसमें सभी किताबों को रखने के बाद
किसी खंधे में उसकी हैसियत भी छुपी रहे ।

बहुत देर बाद
जब दूकानदार ने सुनी उसकी बात
तब तक बच्चा
बैठ चुका था पापा के कंधे पर ।

पिता बस्ते देख रहा था
बेटा उसके बाहर
दूकानदार की नज़र
इनके बीच थी कहीं ।

पिता एक एक बस्ते की कीमत 
कई बार पूछता
बेटा कंधे से उतर गया
दूकानदार मुस्कुराता रहा ।

यद्यपि
पिता ने इस बीच
उन बस्तों को 
बच्चों के लिए उनुपयोगी सिद्ध करने की ग
दयनीय कोशिश की ।

लेकिन ऐसा करते हुए
उसके माथे पर एक रेखा उभर आयी थी ।

पता नहीं
वह रेखा ऊपर थी या नीचे
मगर उसके माथे पर एक ऐसी शिकन थी
कि कमबख्त
गरीबी रेखा लगती थी ।

Saturday 16 February 2013

मृत्यु और उत्सवधर्मिता


मृत्यु चाहे किसी की भी हो, क्या हम उस पर नाच सकते हैं ! हममें से वो कौन लोग हैं जिनके भीतर मृत्यु का उत्सव मनाने का हौसला है ? यह हौसला आता कहाँ से है ? क्या यह प्रवृत्ति हमारी किसी सांस्कृतिक दुर्बलता से पैदा हुई है ? ये सवाल अफजल गुरू को फाँसी पर लटकाए जाने के बाद से ही बेचैन कर रहे हैं.

अफजल को फाँसी पर लटका दिए जाने के बाद पूरे देश में एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों ने जश्न मनाया. पटाखे फोड़े. मिठाइयां बाँटीं, बधाइयों का आदान-प्रदान किया. ऐसा दिख रहा था जैसे एक मृत्यु ने उनको असीम खुशी दे दी हो. लोगों की खुशी के बाँध टूटे तो पूरे देश में पानी फैला. लेकिन हमारे मानवीय चेहरे का पानी उतर गया. हमने अपने भीतर कहीं छुप कर महसूस किया कि हम शर्मशार हो रहे हैं.

कई बार होता है कि जो चीज़ हमें दर्द से बाहर निकालती है, वो हमें कुछ समय के लिए खुशी देने लगती है. लेकिन इस बार के जश्न पर यह मनोविज्ञान भी लागू नहीं होता. संसद पर हमला ग्यारह साल पहले हुआ था. वह बुरी तरह से झकझोर देने वाली घटना थी. उस हमले ने पीड़ा से ज्यादा अपमान दिया था. इस अपमान में अपनी दुर्बलता की छटपटाहट भी थी. सौभाग्य से उस हमले में उतना नुकसान नहीं हुआ जितना हो सकता था. धीरे-धीरे समय के साथ इस घटना की स्मृति धुँधली होती गयी. और उसी अनुपात में अपमान का दंश भी मिटता गया. इस हमले के मास्टरमाइंड के रूप में अफजल गुरू पर मुकदमा चला और उसे अदालत ने दोषी करार देते हुए फाँसी की सज़ा सुनाई. अफजल को फाँसी पर लटकाने में इतने वर्ष लग गये.

इस बीच अफजल के फ्रति कुछ लोगों के भीतर सहानुभूति भी पनपने लगी. उसके दोषी होने पर भी सवाल उठे. विशेष रुप से जम्मू-कश्मीर में एक बड़े वर्ग की सहानुभूति अफजल के साथ थी. यह वर्ग उसकी सज़ा को कम करने की माग करता रहा है. और तो और, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कहा ह कि अफजल को फाँसी नहीं दी जानी चाहिए. हालाँकि मुख्यमंत्री का यह बयान केवल भावनात्मक नहीं है, इसके राजनीतिक निहितार्थों को भी देश की जनता समझती है. लेकिन भारत सरकार को यह तो समझ ही लेना चाहिए कि उसने कश्मीर मामले को गंभीरता से नहीं लिया. जम्मू-कश्मीर संवैधानिक रूप से भले ही भारत का राज्य हो, पर वहां की जनता के मन की दुविधा खत्म नहीं हो पायी.

मन जीतना कठिन काम होता है. सरकार ने सरल रास्ता चुना. उसने देश का ध्यान पाकिस्तान-जनित आतंकवाद पर केन्द्रित कर दिया, और जम्मू-कश्मीर की जनता से भी यही समझने की असफल उम्मीद की.

अफजल को फाँसी दे दिए जाने के बाद एक संतोष तो होना चाहिए था कि देश के दुश्मन को सज़ा मिली. बेशक बहुत से लोगों को उससे सहानुभूति होगी लेकिन एक देश की न्याय-व्यवस्था के लिहाज से यह बिल्कुल उचित कदम था. लेकिन उसकी फाँसी के बाद जो जश्न मनाया गया वह आहत करने वाला है. यह सिर्फ भावनाओं को आहत करने वाला जश्न नहीं है, बल्कि इससे हमारा समूचा सांस्कृतिक विकास कलंकित होता है. यह हमारी चिंतन-परंपरा पर भी प्रश्न-चिन्ह है. हमारी दार्शनिक और मनोवज्ञानिक चिन्तन-परंपरा में माना जाता है कि आदमी हर अगले क्षण वही नहीं रह जाता, जो उससे पहले वाले क्षण में होता है. जो दार्शनिक परंपराएँ आत्मा के अस्तित्व और अमरत्व को स्वीकार भी करती हैं, वो भी यह मानती हैं कि व्यक्ति का मानस बदलता रहता है. सज़ा पाते समय व्यक्ति वही नहीं होता जो अपराध करते समय होता है. यद्यपि दुनिया के अधिकांश देशों की न्याय-व्यवस्था उपरोक्त दर्शन और तर्क से नहीं चलती. उनके तर्क, दण्ड और भय से निकलते हैं. उनके सामने समाज के सुचारू संचालन का प्रश्न सबसे प्रमुख होता है.

लेकिन किसी भी समाज के भीतर एक सांस्कृतिक धारा भी प्रवाहित होती रहती है, जिसका निर्माण अनेक अमूर्त तत्वों से होता है. समाज की सुव्यवस्था में प्रशासनिक कौशल से ज्यादा बड़ी भूमिका इन्हीं अमूर्त तत्वों की होती है. हमारी लगातार विकसित होती गई सभ्यता में अनेक से उदाहरण भरे पड़े हैं, जब लोगों ने अपने क्रूरतम शत्रु को क्षमा कर दिया. युद्ध में अगर मारना ज़रूरी हो गया तो मृतात्मा को पूरा सम्मान दिया गया. हमारी धार्मिक मान्यताओं में यह भी है कि मृत्यु के बाद आत्मा सभी विशेषणों से मुक्त हो जाती है. उसके साथ न तो उसके पुण्य रहते हैं और न पाप. आप याद करिये कि इस देश के इतिहास में कभी भी किसी की मृत्यु का उत्सव मनाया गया हो !

दरअसल कोई भी मृत्यु हो, इतनी कातर और दुखद होती है, कि वह आह्लाद पैदा नहीं कर सकती. एक मृत्यु, एक जीवन का समापन तो करती ही है, साथ ही वह कुछ और ज़िन्दगियों से भी कुछ छीन ले जाती है. कई बार किसी मृत्यु से कई जीवन, तकलीफ और अभाव की अनन्त आकाशगंगा में भटकते रह जाते हैं. आपने महसूस किया होगा कि किसी की मृत्यु के समय जो अथाह पीड़ा होती है, वह मरने वाले के लिए कम, उसके पीछे जीवित रह गये लोगों की दशा से उपजती है. से ही समय में अपने जीवन की अनिश्चितता का बोध भी होता है, और अपने पीछे छूट जाने वाले लोगों के दुख की कल्पना भी होती है. यह भाव-बोध हमारे शोक को दोगुना कर देता है. इसीलिए न्याय, सुशासन और सुधार के सारे तर्कों के बावजूद, मृत्यु सिर्फ और सिर्फ शोक का विषय है.

अफजल की फाँसी के बाद हुए जश्न में सिर्फ सांस्कृतिक अनर्थ नहीं है, इसमे एक राजनीतिक अंतर्धारा भी है. नरेन्द्र मोदी अपना रथ लेकर हस्तिनापुर के और नजदीक पहुँचते जा रहे थे. उन्होने अफजल की फाँसी में हो रहे विलम्ब को, सीधे सरकार की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति से जोड़ दिया था. भारत के माननीय गृहमंत्री शिन्दे जी ने हिन्दू समुदाय को आतंकवाद से जोड़कर, पाकिस्तान को बिना मेहनत के ही उसके गुनाहों को छुपाने का एक बहाना दे दिया. हालाँकि यह साबित हो चुका ह कि आतंकवादी घटनाओं से जुड़े कुछ लोगों का गहरा संबन्ध कुछ हिन्दू संगठनों से है, लेकिन देश जानता है कि हिन्दू कौम किसी भी स्तर पर आतंकवाद का न तो समर्थन करती है, न ही पोषण. ऐसे में शिन्दे साहब का राजनीतिक दाँव उन्हीं के लिए भस्मासुर बन गया. इन विषम राजनीतिक स्थितियों से उबरने के लिए सरकार को आनन फानन में अफजल को फाँसी पर लटकाने का फैसला करना पड़ा.

अफजल की मृत्यु के बाद देश का बौद्धिक वर्ग भी जाग गया सा लगता है. उसकी फाँसी को लोग गलत ठहरा रहे हैं. पर उनकी बातें एकदम हवा-हवाई हैं. फाँसी की सजा आज तो हुई नहीं है.दस साल पहले सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद और फिर दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने के बाद इतना समय था, फिर इस बीच किसी ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई. कोर्ट में इतने समय तक मुकदमा चला. अफजल के साथ बड़े-बड़े वकील थे. एक पूरी प्रक्रिया के बाद फाँसी की सज़ा दी गई. पुलिस ने अगर फर्जी मुकदमा बनाया था तो कोर्ट की जिरह में सामने आता जहाँ सारे तथ्य और सबूत पेश किए गये. टीवी चैनल पर बैठकर बिना सबूतों के कोर्ट के फैसले को गलत ठहराना निहायत बचकानी हरकत है.

अफजल की मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ वह राष्ट्रीय शर्म की बात है. उसने देश के लिए अभूतपूर्व खतरा पैदा करने की कोशिश की थी. इसकी सज़ा उसको मिली. यह आतंकवाद की हार भले हो, पर हमारी जीत हरगिज नहीं है. इसीलिए हमारे लिए किसी तरह के विजयोत्सव की गुंजाइश नहीं बनती. अफजल की मृत्यु पर नाचने वाले लोग सिर्फ इसलिए देशप्रेमी नहीं कहे जा सकते कि वो एक देशद्रोही की मृत्यु पर खुश हुए. और कोई भी देश अपने एक बच्चे को खोकर खुश नहीं हो सकता, भले ही वो बच्चा कितना ही बिगड़ा हुआ क्यों न रहा हो.

Friday 15 February 2013

प्रेम का रसायनशास्त्र !





आज प्रेम के नाभिकीय विखंडन का दिन है. प्रेम के पीछे पूरी निष्ठा से हाथ धोकर पड़े हुए लोगों के लिए एक ऐसी जानकारी है जिसके सहारे प्रेम का पोस्टमार्टम और प्रभावी ढंग से किया जा सकता है.  

वैज्ञानिकों ने आखिरकार प्रेम के लिए उत्तरदायी रसायनों को ढूढ़ लिया है. बेशक यह साहित्य वाला रसायन नहीं है लेकिन विभाव, अनुभाव और संचारी भावों की भूमिका यहाँ भी वही है. वैज्ञानिकों के मतानुसार यह इन रसायनों का ही कमाल है कि प्रेम पात्र को देखते या छूते ही त्वचा लाल हो जाती है, हथेलियों में पसीना आ जाता है. साँसों की गति विषम हो जाती है. और धड़कने शताब्दी एक्सप्रेस हो जाती हैं. वैसे तनाव के समय भी ऐसा ही होता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक हमारे शरीर में प्रेम और तनाव का परिपथ एक ही है.

वैज्ञानिकों ने प्रेम के इन तमाम लौकिक लक्षणों के लिए एम्फीटामीन और उसके सहधर्मी रसायनो—डोपामीन, नारइपीनेफ्रिन और खासतौर से  फिनाइल इथाइल एमीन को जिम्मेदार ठहराया है. फिनाइस इथाइल एमीन को इसके प्रारंभिक अक्षरों के कारण विज्ञान जगत में ‘ P ‘ के नाम से जाना जाता है. एंथोनी वैल्श ने एक किताब लिखी थी—द साइंस ऑफ लवः अंडरस्टैण्डिंग लव एन्ड इट्स इफेक्ट्स ऑन माइण्ड्स एन्ड बॉडी’ . लेखक ने कहा है कि प्रेम को एक प्राकृतिक नशा कहा है. उनके मुताबिक चहेते व्यक्ति को देखते ही P का कारखाना मानो चलने लगता है. और इस की वजह से ही प्रिय के चेहरे पर भोली मुस्कान खिल जाती है. लेकिन शरीर धीरे-धीरे इस प्रेम रसायन का आदी हो जाता है. परिणामस्वरूप प्यार का यह रासायनिक नशा चिरंजीवी नहीं होता.

दरअसल अन्य नशीली चीज़ों की तरह प्रेम रसायन की भी शारीरिक माग बढ़ जाती है. जबकि उसकी आपूर्ति में शरीर अक्षम होता है. न्यूयार्क साइकियाट्रिक इंस्टीट्यूट के डॉ. माइकल के मुताबिक प्रथम प्रेम का नशा मंद होते ही (जो कि स्वाभाविक है), व्यक्ति प्रेम के नशे की चरमावस्था को पुनः प्राप्त करने के पागलपन में  संबन्ध-दर-संबन्ध भटकता रहता है.

हालांकि प्रेम-पात्र का सतत सानिध्य मस्तिष्क में एंडार्फिन नामक एक अन्य रसायन का उत्पादन बढ़ा देता है. एम्फीटामीन जहाँ उत्तेजक रसायन है, वहीं एंडार्फिन प्रेम के कोमल एहसासों को जन्म देता है. यह प्रेम-पात्र में सुरक्षा, शान्ति, और कोमलता का भाव जगाता है. यही वजह है कि प्रिय के वियोग में एंडार्फिन की कमी साथी के लिए भयावह साबित होती है.

प्रेम रसायनों में तीसरा नाम है—ऑक्सीटोसिन. वैसे यह रसायन प्रसव के समय गर्भाशय के संकुचन तथा प्रसव के बाद स्तनों में दूध के उत्पादन के लिए उत्तरदायी है. वैज्ञानिकों के मुताबिक स्त्री-पुरुष के आलिंगन में भी इसकी भूमिका है. तथा यह रसायन काम आवेग को भी बढ़ाता है.

इतने शोधो-अध्ययनों और गहन अनुसंधानों के बावजूद पश्चिम के वैज्ञानिकों एवं पहुँचे हुए मनोवैज्ञानिकों ने भौतिक कोणों-दृष्टिकोणों की धुरी पर ही परखा है प्रेम को. भौतिक धुरी पर ही नर्तन करता रहा है उनका चिन्तन. यही कारण है कि पश्चिम में अधिकांश लोग प्रेम पाने के लिए जीवन भर भटकते रहते हैं, परन्तु प्रेम तक नहीं पहुँच पाते. एक फंतासी से दूसरी फंतासी में भटकना भोगवादी संस्कृति का अपरिहार्य परिणाम है. दरअसल काम की हारमोन-जनित-नियंत्रित क्रियाओं को ही प्रेम समझने का ही यह नतीजा है.

हमारी सेस्कृति में यह समय वसंतोत्सव का है. वसन्त 'काम' की ऋतु है और होली उद्दाम काम का उत्सव, प्राचीन भारत में वसन्त उत्सव काम-पूजा का उत्सव था. भारतीय सन्दर्भ में 'काम ', फ्रायड-युंग आदि के ' लिबिडो ' से अलग है. हमारे यहां काम सिर्फ ऐंद्रिक संवेदन नहीं है. हमारा काम दमित वासना की तुष्टि से आगे एक सर्जनात्मक आवेग है. यह हमारे जीवन का केन्द्रीय तत्व है. हमारे काम में थोड़ा मान, थोड़ा अभिमान, थोड़ा समर्पण, विपुल आकर्षण और सर्वस्व दान का भाव है. हमारी समस्त कलाएँ, राग-विराग, ग्रहण-दान, हमारे 'काम' से ही संचालित होते हैं.

हमारे धार्मिक ग्रन्थों में काम को परब्रह्म की एक विधायी शक्ति के रूप में माना गया है. यह परब्रह्म की उस मानसिक इच्छा का मूर्त रूप है, जो संसार की सृष्टि में प्रवृत्त होती है. इसीलिए कृष्ण कहते हैं---" धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । "---मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ. साफ है कि जो इच्छा धर्म के विरुद्ध जाए वह काम का विकृत रूप है. शास्त्र इसे अपदेवता कहते हैं. ब्रह्मसंहिता कहती है कि धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम साक्षात् विष्णुस्वरूप है. यह प्राणिमात्र के मन में  'स्मर ' या काम के रूप में रहता है. काम का यह रूप हमारे भीतर सत्-चित्-आनन्द पैदा करता है.

एक सखी राधा से कहती है---राधे ! सुन्दर दिखने वाले पुष्पों से लदी बेलों के स्पर्श से मादक बनी, मंद प्रवाहित होते मलय समीर के साथ, भौंरों की पंक्तियों से गुंजित तथा कोयलों के संगीत से कूजित कुंजों वाले तथा वियोगियों को संतप्त करनेवाली इस वसन्त ऋतु में प्रियतम श्रीकृष्ण, तरुणी गोपियों के साथ नृत्य कर रहे हैं.

यह नृत्य वसन्त का रास है. इसमें समर्पण और यौवन के आत्मदान का भाव है. इसीलिए सखी ऱाधा को समझाती है कि मान छोड़कर, सब कुछ कृष्ण को अर्पण कर दो.....श्रीकृष्ण रसराज भी हैं. उनकी लय,ताल,यति-गति और मति से एकात्म हो जाओ....यह समय फूलने-फलने का है. यह समय भीतर-बाहर कुछ नया रचने का है. यह नृत्य आत्मोत्सर्ग का नृत्य है. यह समय हवा का हो जाने का है, फूलों का हो जाने का है....यह समय निसर्ग में खो जाने का है.

Saturday 9 February 2013

जिसका कोई इन्तज़ार न कर रहा हो/ अफ़ज़ाल अहमद

पाकिस्तान के समकालीन शायरों में सर्वाधिक चर्चित अफ़ज़ाल अहमद की पैदाइश गाज़ीपुर,  उ.प्र. की है. 1946, सितंबर की कोई तारीख । नज़्मों का पहला संग्रह  'छीनी हुई तारीख' 1984 में प्रकाशित हुआ था । ग़ज़लों का एक संग्रह भी  'खेमए सियाह' के नाम से प्रकाशित है । 1990 में नज़्मों का दूसरा संग्रह  ' दो ज़ुबानों में सज़ाए मौत' प्रकाशित हुआ । यहाँ उनकी दो नज़्में हम पढ़ते हैं.......

1.

जिसका कोई इन्तज़ार न कर रहा हो

जिसका कोई इंतज़ार न कर रहा हो
उसे नहीं जाना चाहिए वापस
आख़िरी दरवाज़ा बन्द होने से पहले ।

जिसका कोई इन्तज़ार नकर रहा हो
उसे नहीं फिरना चाहिए बेकरार
एक खूबसूरत राहदारी में
जब तक वो वीरान न हो जाए ।

जिसका कोई इन्तज़ार न कर रहा हो
उसे नहीं जुदा करना चाहिए
खून आलूद पांव से
एक पूरा सफर ।

जिसका कोई इन्तज़ार न कर रहा हो
उसे नहीं मालूम करनी चाहिए
फूलों के एक दस्ते की कीमत
या दिन, तारीख और वक्त ।

2.

जिससे मुहब्बत हो

जिससे मुहब्बत हो
उसे निकाल ले जाना चाहिए
आखिरी कश्ती पर
एक मादूम होते हुए शहर से
बाहर ।

उसके साथ
पार करनी चाहिए
गिराये जाने की सज़ा पाया हुआ एक पुल ।

उसे हमेशा मुख़्तसर नाम से पुकारना चाहिए ।

उसे ले जाना चाहिए
ज़िन्दा आतिश फसानों से भरे
एक जज़ीरे पर ।

उसका पहला बोसा लेना चाहिए
नमक की कान मे बनी
एक अज़ीयत देने की कोठरी के
अंदर ।

जिससे मुहब्बत हो
उसके साथ टाइप करनी चाहिए
दुनिया की तमाम नाइंसाफियों के ख़िलाफ़
एक अर्ज़दाश्त
जिसके सफ़हात
उड़ा देने चाहिए
सुबह
होटल के कमरे की खिड़की से
स्वीमिंग पूल की तरफ ।

*********************************************************************************
मादूम--नष्ट,  आतिशफसान--ज्वालामुखी,  जज़ीरा--द्वीप,  कान--खदान,  अज़ीयत--यातना,  अर्ज़दाश्त--प्रर्थनापत्र,  सफ़हात--पन्ने ।

( लिप्यंतरण--विजय कुमार )

Wednesday 6 February 2013

सिनेमा और साहित्य की संगत


( भारतीय सिनेमा के सौ बरस पूरे होने पर )


आज भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष पूरा हो गया. जाते-जाते यह एक गंभीर प्रश्न को पुनर्जीवित कर गया कि, क्या भारतीय सिनेमा धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा ? इसी प्रश्न के दूसरे प्रति-प्रश्न भी हैं कि, क्या भारतीय दर्शक धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा ? या फिर यह कि किसी राजनीतिक-आर्थिक महत्वाकांक्षा के चलते, ऊपर के दोनों प्रश्न, अफवाह के शिल्प में उड़ाये जाते हैं ? ताज़ा विवाद विस्वरूपम् ‘  को लेकर चल रहा है. कहा जा रहा है कि इसमें कुछ धार्मिक टिप्पणियाँ हैं. मुझे समझ में नहीं आता कि जब भी कोई कला-माध्यम किसी धार्मिक विषय पर टिप्पणी करता है तो वो इतनी आपत्तिजनक कैसे हो जाती है, जबकि हम अपने रोजमर्रा के जीवन में धर्म की फजीहत करने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते. मकबूल फिदा हुसैन का वाकया आपको याद होगा. मकबूल ने तो देश ही छोड़ दिया था. कमल हासन ने तो अभी देश छोड़ने की धमकी ही दी है. क्या हमारे धर्म इतने कमज़ोर हैं कि वे ज़रा सी आलोचना से ध्वस्त हो जायेंगे. और इतने ही कमज़ोर हैं तो ऐसे धर्म की ज़रूरत क्या है ?
खैर, इस विषय पर कुछ रुक कर चर्चा करेंगे. तब विश्वरूपम् पर कुछ और भी प्रपत्तियाँ सामने आ जायेंगी.
               

मुझे अक्सर यह लगता रहा है कि फिल्म निर्माण की कला, प्रकृति के सृष्टि निर्माण की कला से प्रेरित है. यह प्रकृति को मनुष्य की चुनौती नहीं, बल्कि प्रकृति का साभार अनुकरण है. मज़हब, मुहब्बत,जात-पांत,भाषा और मुल्कों की सीमाओं को लाँघता हुआ भारतीय सिनेमा अपने सौ बरस पूरे कर चुका है. करोड़ों लोगों के सपनों को जीने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत एक ऐसे व्यक्ति के स्वप्न से हुई थी जिसकी ज़िद ने पत्नी के गहने तक बिकवा दिये थे. सपनों के इस सौदागर का नाम थाधुंडिराज गोविन्द फाल्के, जिन्हें हम अब दादा साहब फाल्के के नाम से याद करते हैं.
         
जीवन बीमा की पॉलिसियां तक बेचकर यह ज़िद्दी और बेचैन आदमी समंदर की लहरों पर सवार होकर 5 फरवरी 1912 को लन्दन पहुँचा था. मक़सद था फिल्म निर्माण की तकनीक सीखना और ज़रूरी उपकरण खरीदना. दो महीने लन्दन में रहकर जब फाल्के भारत लौटे तो उनके पास फिल्म निर्माण के उपकरणों के साथ ब्रिटिश फिल्मकार सेसिल हैफवर्थ की दीक्षा भी थी.
          
भारत आकर दादा फाल्के ने तमाम बाधाओं को पार करते हुए पहली भारतीय फिल्म राजा हरिश्चन्दबनाई. यह उस नीव का पहला पत्थर था, जिस पर दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग की इमारत बन चुकी है. आज भारत में औसतन 1000 फिल्में हर वर्ष बन रही हैं, जबकि तकनीक और पैसे में अव्वल हालीवुड में औसतन 600 फिल्में प्रति वर्ष बनती हैं.
          
बैलगाड़ी पर सवार होकर सफर शुरू करने वाला भारतीय सिनेमा आज जेट विमान पर सवार है. इसके समावेशी चरित्र का स्वरूप इसी से पता चलता है कि इसने देश के सभी कलारूपों को अपने में समेट लिया है. गीत-संगीत, नृत्य, नौटंकी, लीला, नटबाजी, जादू, मदारियों के खेल, शिल्पकला, चित्रकला, साहित्यसभी कलाओं को भारतीय सिनेमा ने इस विराट देश की स्वप्नजीवी जनता के सुख-दुख-राग-विराग-संघर्ष से जोड़ दिया.
         
कुछ समय पहले, वरिष्ठ और मेरे अत्यंत प्रिय कथाकार काशीनाथ सिंह P.hd.  की एक मौखिकी के सिलसिले में रीवा आये तो विवि के हिन्दी विभाग में उनका एक व्याख्यान आयोजित कर लिया गया. उन्होने बताया कि उनकी मशहूर कृति काशी का अस्सी पर चन्द्रप्रकाश द्विवेदी एक फिल्म बना रहे हैं, जिसमें सनी देओल, रवि किशन आदि कलाकार भूमिका निभा रहे हैं.
         
इस सूचना से मन मे यह सवाल पैदा हुआ कि क्या सिनेमा का माध्यम इतना सक्षम है कि वह एक साहित्यिक कृति के साथ न्याय कर सके ? मैं इसको लेकर आश्वस्त नहीं हूँ. मैने काशी का अस्सीदो-तीन बार पढ़ा है. इस कृति मेंजिसे लेखक ने उपन्यास कहा हैबनारस के अस्सी चौराहे के इर्द-गिर्द के जीवन के संस्मरण हैं, जिन्हें लेखक ने अलग-अलग समय पर लिखा है. इन लेखों के पात्रों और घटनाओं में इतना स्वाभाविक तारतम्य है कि सभी लेखों को एक ज़गह इकट्ठा कर देने में इसका स्वरूप औपन्यासिक दिखने लगता है, लेकिन उपन्यास का सहज प्रवाह फिर भी नहीं सध पाया है.
          
इस कृति में संकलित हर संस्मरण एक अद्भुत आस्वाद पैदा करता है. चर-अचर सभी पात्रों को लेखक काशीनाथ सिंह ने  जिस नज़र से देखा और प्रस्तुत किया है, मुझे नहीं लगता कि सिनेमा के पास वही आस्वाद पैदा कर पाने की क्षमता है. पात्रों की समय और स्थान के साथ अन्तर्सम्बंधों  की जो डिटेलिंग और निहितार्थ लेखक ने शब्दों और इशारों से दिए हैं, उन्हें सिनेमा में व्यक्त कर पाना बहुत कठिन है. इन संस्मरणो में अधिकांश समय, लेखक पात्रों के बगल में बैठा हुआ है, जो उन पात्रों की हरकतों और उनके आपसी संवादों की व्याख्या करता चलता है. जाहिर है कि जो मर्म पाठक के सामने खुलता है, वह दृष्टा-लेखक की रुचि-संस्कार और निष्ठा से गुज़र कर आता है.
          
यहीं पर साहित्य और सिनेमा की सीमाएँ सामने आती हैं. साहित्य किसी दृश्य या घटना की जो व्याख्या या विश्लेषण करता है, हर पाठक के पास वही पहुँचता है. पाठकों के आस्वाद के स्तर में अंतर के आधार पर उसका प्रभाव अलग-अलग हो सकता है. यह अंतर प्रभाव की तीव्रता में होता है, उसके रूप में नहीं. सिनेमा के पास दृश्य होते हैं. उनकी व्याख्या और विश्लेषण की सुविधा बहुत ही कम होती है उसके पास. मज़े की बात यह है कि साहित्य में जो व्याख्या उसके प्रभाव को बढ़ा देती है, उसी व्याख्या की कोशिश सिनेमा के असर को चौपट कर देती है. जो विवरण साहित्य की ताकत होता है, वही सिनेमा की कमज़ोरी बन जाता है.
          
वहीं सिनेमा के पास अपनी कुछ विशिष्ट शक्तियाँ होती हैं जो साहित्य के पास नही हैं. संगीत के प्रयोग की शक्ति, सिनेमा को सम्प्रेषणीयता की ऐसी क्षमता प्रदान करती है जो उसे दूसरे और माध्यमों से अलहदा बनाता है. सिनेमा अपने ध्वनि और प्रकाश माध्यमों से ऐसे बहुत कुछ अव्यक्त को को व्यक्त कर देता है, जिसे कह पाने मे महान लेखक भी लड़खड़ा जाते हैं. काल के अतिक्रमण की जो सुविधा सिनेमा के पास होती है, वह साहित्य के पास ठीक उसी तरह से नहीं होती. मौन की जिस भाषा का इस्तेमाल सिनेमा सहजता से कर लेता है, उसी मौन को रचने के लिए साहित्य को पहले और बाद में बहुत सी वाणी खरचनी पड़ती है.
         
इस अंतर को और आसानी से समझने के लिए कुछ देर के लिए हम ऐसा करें कि कुछ महान कृतियों की अपनी कल्पना में फिल्म बनायें और कुछ महान फिल्मों की कल्पना मे ही कहानी लिखें. फिर देखिए कैसी हास्यास्पद स्थिति बनती है.
          
साहित्य और सिनेमा का सम्बंध भी दो पड़ोसियों की तरह रहा. दोनो एक दूसरे के काम तो आते रहे लेकिन यह कभी सुनिश्चित नही हो पाया कि इनमे प्रेम है या नही. सिनेमा ने अपने आरंभिक चरण में साहित्य से ही प्राण-तत्व लिया. यह उसके भविष्य के लिए ज़रूरी भी था. दरअसल सिनेमा और साहित्य की उम्र में जितना अधिक अंतर है, उतना ही अंतर उनकी समझ और सामर्थ्य में भी है. विश्व सिनेमा अभी सिर्फ 117 साल का हुआ है. साहित्य की उम्र से इसकी तुलना की जाय तो यह अभी शिशु ही है साहित्य के सामने.
          
साहित्य के पास सिनेमा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अथाह भंडार है. भाव-दशा, पात्रों, दृश्यों, वास्तुकला, परिवेश और भावनात्मक स्थितियों  के दृश्यात्मक ब्यौरे हैं. साथ ही भाव-भंगिमा, ध्वनियों, शब्दों और संगीत के सूक्ष्म प्रभावों तक के विवरण साहित्य के पास मौज़ूद हैं. सुखद बात यह है कि  साहित्य ने सिनेमा की मदद में कभी कोताही नहीं की. सिनेमा को जब-जब ज़रूरत हुई साहित्य ने खुले मन से उसका सहयोग किया. यह बात और है कि आगे चलकर सिनेमा ने अपना खुद का एक लेखक-वर्ग तैयार कर लिया.
          
सिनेमा ने साहित्य के अनेक मनीषियों को अपनी ओर खींचा. पं.बेताब, मुंशी प्रेमचंद, जोश मलीहाबादी, पं.सुदर्शन, सआदत हसन मंटो, कृष्न चंदर, कैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, राजेन्द्र सिंह बेदी और गुलज़ार जैसे खालिस साहित्यिक व्यक्तित्व सिनेमा में अभिव्यक्ति के नये आयाम खोजने गये. पर दुर्भाग्य से अधिकतर के हाथ निराशा ही लगी. दरअसल सिनेमा एक व्यावसायिक माध्यम है और उसके सिद्धांत, लेने में अधिक और देने पर कम ही आधारित होते हैं. एक और बात ध्यान देने की है कि सिनेमा त्वरित और सहज लोकप्रियता के लिए रचा जाता है. यह भी एक वज़ह धी कि गंभीर साहित्यिक लेखक इस माध्यम से अपना सामंजस्य नहीं बनाये रख सके.
          
साहित्यकार फिल्मों में जाकर भले ही उतने सफल न रहे हों, लेकिन जब-जब सिनेमा ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनायी हैं तो एक नये रचनात्मक लोक की सृष्टि की है. प्रेमचन्द के गोदान पर बनी फिल्म को छोड़ दें तो रेणु की कहानी पर बनी तीसरी कसमने दुनिया को कुछ अमर पात्र दिये. महाश्वेतादेवी की कहानी पर बनी रुदालीके दृश्य अविस्मरणीय हैं. विमल मित्र के उपन्यास पर बनी साहब,बीवी और गुलाम’, टैगोर की कहानी-नष्टनीड़ पर सत्यजीत राय की फिल्म चारुलता’,  सृजन के नये आयामों की तलाश करती हैं.
          
एक बहुत बड़ा फर्क अब साहित्य और सिनेमा की भाषा मे आया है. इसका सीधा संबन्ध दर्शकों-पाठकों की भागीदारी से है. सिनेमा का दर्शक सीधे शामिल होता है. हर दर्शक के पास हर स्थिति के लिए सुझाव होते हैं. सिनेमा की सारी सफलताओं-असफलताओं का दारोमदार इसी दर्शक-वर्ग पर होता है. सिनेमा को समीक्षकों की उतनी जरूरत नही होती जितनी साहित्य को होती है. यही वज़ह है कि सिनेमा रचने वालों ने दर्शक से तादात्म्य बैठाना शुरू किया तो सिनेमा की रचनात्मकता धीरे-धीरे कम होने लगी. सिनेमा ने बहुत आरंभिक समय मे ही अपने आप को एक स्वतंत्र विधा के रूप में महसूस करना शुरू कर दिया था. दर्शकों के मेल से उसने अपनी जो सिनेमाई भाषा विकसित की उस पर उसका भरोसा दिनो-दिन बढ़ता गया. साहित्य और सिनेमा की भाषा का अंतराल अब इतना बढ़ चुका है कि ये दोनो माध्यम अब महानगरीय पड़ोसियों की तरह दिखने लगे हैं.
         



सिनेमा की गति अब तक वर्तुल ही दिखती है. वह घूम फिर कर उन्हीं रास्तों पर आता है जो उसने बना लिए हैं. एक कला-माध्यम के रूप में भारतीय सिनेमा ने सौ बरस पूरे कर लिए हैं. अब यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इसने समय की नब्ज़ पहचानना सीख लिया होगा. हम उम्मीद करेंगे कि सिनेमा अब सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं रहेगा. इसी में सिनेमा की भी भलाई है क्योंकि अब लोग मनोरंजन के लिए सिर्फ सिनेमा पर निर्भर नहीं हैं. सिनेमा को अब दर्शक के लिए समय, स्वप्न और रास्ते खोजने होंगे, क्योंकि यही नहीं हैं दर्शक के पास.