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Saturday 16 February 2013

मृत्यु और उत्सवधर्मिता


मृत्यु चाहे किसी की भी हो, क्या हम उस पर नाच सकते हैं ! हममें से वो कौन लोग हैं जिनके भीतर मृत्यु का उत्सव मनाने का हौसला है ? यह हौसला आता कहाँ से है ? क्या यह प्रवृत्ति हमारी किसी सांस्कृतिक दुर्बलता से पैदा हुई है ? ये सवाल अफजल गुरू को फाँसी पर लटकाए जाने के बाद से ही बेचैन कर रहे हैं.

अफजल को फाँसी पर लटका दिए जाने के बाद पूरे देश में एक खास विचारधारा से जुड़े लोगों ने जश्न मनाया. पटाखे फोड़े. मिठाइयां बाँटीं, बधाइयों का आदान-प्रदान किया. ऐसा दिख रहा था जैसे एक मृत्यु ने उनको असीम खुशी दे दी हो. लोगों की खुशी के बाँध टूटे तो पूरे देश में पानी फैला. लेकिन हमारे मानवीय चेहरे का पानी उतर गया. हमने अपने भीतर कहीं छुप कर महसूस किया कि हम शर्मशार हो रहे हैं.

कई बार होता है कि जो चीज़ हमें दर्द से बाहर निकालती है, वो हमें कुछ समय के लिए खुशी देने लगती है. लेकिन इस बार के जश्न पर यह मनोविज्ञान भी लागू नहीं होता. संसद पर हमला ग्यारह साल पहले हुआ था. वह बुरी तरह से झकझोर देने वाली घटना थी. उस हमले ने पीड़ा से ज्यादा अपमान दिया था. इस अपमान में अपनी दुर्बलता की छटपटाहट भी थी. सौभाग्य से उस हमले में उतना नुकसान नहीं हुआ जितना हो सकता था. धीरे-धीरे समय के साथ इस घटना की स्मृति धुँधली होती गयी. और उसी अनुपात में अपमान का दंश भी मिटता गया. इस हमले के मास्टरमाइंड के रूप में अफजल गुरू पर मुकदमा चला और उसे अदालत ने दोषी करार देते हुए फाँसी की सज़ा सुनाई. अफजल को फाँसी पर लटकाने में इतने वर्ष लग गये.

इस बीच अफजल के फ्रति कुछ लोगों के भीतर सहानुभूति भी पनपने लगी. उसके दोषी होने पर भी सवाल उठे. विशेष रुप से जम्मू-कश्मीर में एक बड़े वर्ग की सहानुभूति अफजल के साथ थी. यह वर्ग उसकी सज़ा को कम करने की माग करता रहा है. और तो और, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कहा ह कि अफजल को फाँसी नहीं दी जानी चाहिए. हालाँकि मुख्यमंत्री का यह बयान केवल भावनात्मक नहीं है, इसके राजनीतिक निहितार्थों को भी देश की जनता समझती है. लेकिन भारत सरकार को यह तो समझ ही लेना चाहिए कि उसने कश्मीर मामले को गंभीरता से नहीं लिया. जम्मू-कश्मीर संवैधानिक रूप से भले ही भारत का राज्य हो, पर वहां की जनता के मन की दुविधा खत्म नहीं हो पायी.

मन जीतना कठिन काम होता है. सरकार ने सरल रास्ता चुना. उसने देश का ध्यान पाकिस्तान-जनित आतंकवाद पर केन्द्रित कर दिया, और जम्मू-कश्मीर की जनता से भी यही समझने की असफल उम्मीद की.

अफजल को फाँसी दे दिए जाने के बाद एक संतोष तो होना चाहिए था कि देश के दुश्मन को सज़ा मिली. बेशक बहुत से लोगों को उससे सहानुभूति होगी लेकिन एक देश की न्याय-व्यवस्था के लिहाज से यह बिल्कुल उचित कदम था. लेकिन उसकी फाँसी के बाद जो जश्न मनाया गया वह आहत करने वाला है. यह सिर्फ भावनाओं को आहत करने वाला जश्न नहीं है, बल्कि इससे हमारा समूचा सांस्कृतिक विकास कलंकित होता है. यह हमारी चिंतन-परंपरा पर भी प्रश्न-चिन्ह है. हमारी दार्शनिक और मनोवज्ञानिक चिन्तन-परंपरा में माना जाता है कि आदमी हर अगले क्षण वही नहीं रह जाता, जो उससे पहले वाले क्षण में होता है. जो दार्शनिक परंपराएँ आत्मा के अस्तित्व और अमरत्व को स्वीकार भी करती हैं, वो भी यह मानती हैं कि व्यक्ति का मानस बदलता रहता है. सज़ा पाते समय व्यक्ति वही नहीं होता जो अपराध करते समय होता है. यद्यपि दुनिया के अधिकांश देशों की न्याय-व्यवस्था उपरोक्त दर्शन और तर्क से नहीं चलती. उनके तर्क, दण्ड और भय से निकलते हैं. उनके सामने समाज के सुचारू संचालन का प्रश्न सबसे प्रमुख होता है.

लेकिन किसी भी समाज के भीतर एक सांस्कृतिक धारा भी प्रवाहित होती रहती है, जिसका निर्माण अनेक अमूर्त तत्वों से होता है. समाज की सुव्यवस्था में प्रशासनिक कौशल से ज्यादा बड़ी भूमिका इन्हीं अमूर्त तत्वों की होती है. हमारी लगातार विकसित होती गई सभ्यता में अनेक से उदाहरण भरे पड़े हैं, जब लोगों ने अपने क्रूरतम शत्रु को क्षमा कर दिया. युद्ध में अगर मारना ज़रूरी हो गया तो मृतात्मा को पूरा सम्मान दिया गया. हमारी धार्मिक मान्यताओं में यह भी है कि मृत्यु के बाद आत्मा सभी विशेषणों से मुक्त हो जाती है. उसके साथ न तो उसके पुण्य रहते हैं और न पाप. आप याद करिये कि इस देश के इतिहास में कभी भी किसी की मृत्यु का उत्सव मनाया गया हो !

दरअसल कोई भी मृत्यु हो, इतनी कातर और दुखद होती है, कि वह आह्लाद पैदा नहीं कर सकती. एक मृत्यु, एक जीवन का समापन तो करती ही है, साथ ही वह कुछ और ज़िन्दगियों से भी कुछ छीन ले जाती है. कई बार किसी मृत्यु से कई जीवन, तकलीफ और अभाव की अनन्त आकाशगंगा में भटकते रह जाते हैं. आपने महसूस किया होगा कि किसी की मृत्यु के समय जो अथाह पीड़ा होती है, वह मरने वाले के लिए कम, उसके पीछे जीवित रह गये लोगों की दशा से उपजती है. से ही समय में अपने जीवन की अनिश्चितता का बोध भी होता है, और अपने पीछे छूट जाने वाले लोगों के दुख की कल्पना भी होती है. यह भाव-बोध हमारे शोक को दोगुना कर देता है. इसीलिए न्याय, सुशासन और सुधार के सारे तर्कों के बावजूद, मृत्यु सिर्फ और सिर्फ शोक का विषय है.

अफजल की फाँसी के बाद हुए जश्न में सिर्फ सांस्कृतिक अनर्थ नहीं है, इसमे एक राजनीतिक अंतर्धारा भी है. नरेन्द्र मोदी अपना रथ लेकर हस्तिनापुर के और नजदीक पहुँचते जा रहे थे. उन्होने अफजल की फाँसी में हो रहे विलम्ब को, सीधे सरकार की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति से जोड़ दिया था. भारत के माननीय गृहमंत्री शिन्दे जी ने हिन्दू समुदाय को आतंकवाद से जोड़कर, पाकिस्तान को बिना मेहनत के ही उसके गुनाहों को छुपाने का एक बहाना दे दिया. हालाँकि यह साबित हो चुका ह कि आतंकवादी घटनाओं से जुड़े कुछ लोगों का गहरा संबन्ध कुछ हिन्दू संगठनों से है, लेकिन देश जानता है कि हिन्दू कौम किसी भी स्तर पर आतंकवाद का न तो समर्थन करती है, न ही पोषण. ऐसे में शिन्दे साहब का राजनीतिक दाँव उन्हीं के लिए भस्मासुर बन गया. इन विषम राजनीतिक स्थितियों से उबरने के लिए सरकार को आनन फानन में अफजल को फाँसी पर लटकाने का फैसला करना पड़ा.

अफजल की मृत्यु के बाद देश का बौद्धिक वर्ग भी जाग गया सा लगता है. उसकी फाँसी को लोग गलत ठहरा रहे हैं. पर उनकी बातें एकदम हवा-हवाई हैं. फाँसी की सजा आज तो हुई नहीं है.दस साल पहले सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद और फिर दया याचिका राष्ट्रपति द्वारा खारिज किए जाने के बाद इतना समय था, फिर इस बीच किसी ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई. कोर्ट में इतने समय तक मुकदमा चला. अफजल के साथ बड़े-बड़े वकील थे. एक पूरी प्रक्रिया के बाद फाँसी की सज़ा दी गई. पुलिस ने अगर फर्जी मुकदमा बनाया था तो कोर्ट की जिरह में सामने आता जहाँ सारे तथ्य और सबूत पेश किए गये. टीवी चैनल पर बैठकर बिना सबूतों के कोर्ट के फैसले को गलत ठहराना निहायत बचकानी हरकत है.

अफजल की मृत्यु के बाद जो कुछ हुआ वह राष्ट्रीय शर्म की बात है. उसने देश के लिए अभूतपूर्व खतरा पैदा करने की कोशिश की थी. इसकी सज़ा उसको मिली. यह आतंकवाद की हार भले हो, पर हमारी जीत हरगिज नहीं है. इसीलिए हमारे लिए किसी तरह के विजयोत्सव की गुंजाइश नहीं बनती. अफजल की मृत्यु पर नाचने वाले लोग सिर्फ इसलिए देशप्रेमी नहीं कहे जा सकते कि वो एक देशद्रोही की मृत्यु पर खुश हुए. और कोई भी देश अपने एक बच्चे को खोकर खुश नहीं हो सकता, भले ही वो बच्चा कितना ही बिगड़ा हुआ क्यों न रहा हो.

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