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Thursday 28 June 2012

मंज़िल न दे चिराग न दे, रास्ता तो दे...! : शिक्षा (2)


अनिर्णय और अंधकार के जिस मुकाम तक हमारी शिक्षा-प्रणाली आज पहुँच गई है, वो किन रास्तों से होकर यहाँ तक आयी है, इसका भी एक संक्षिप्त जायज़ा लेना इसलिए ठीक रहेगा कि ऐसा न लगे कि हमारे नीति-नियंता एकदम ही नाकारा थे. आप सब जानते ही हैं कि संविधान के चौथे भाग में उल्लिखित नीति निदेशक तत्वों में कहा गया है कि प्राथमिक स्तर तक के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की जाय. इसी को थोड़ा और आगे बढ़ाते हुए हमारी मौजूदा सरकार ने अनिवार्य शिक्षा अधिनियम-2009 (RTE) पारित किया, जिसमें 14 वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने का संकल्प व्यक्त किया गया है. 1948 में डॉ.राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के गठन के साथ ही भारत में शिक्षा-प्रणाली को व्यवस्थित करने का काम शुरू हो गया था. 1952 में लक्ष्मीस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग, तथा 1964 में दौलत सिंह कोठारी की सदारत में गठित शिक्षा आयोग की शिफारिशों के आधार पर 1968 में शिक्षा नीति पर एक प्रस्ताव प्रकाशित किया गया जिसमें राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्यकुशलयुवक-युवतियों को तैयार करने का लक्ष्य रखा गया. मई 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई, जो अब तक चल रही है. इस बीच राष्ट्रीय शिक्षा नीति की समीक्षा के लिए 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति, तथा 1993 में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया. राष्ट्रीय शिक्षा नीति की धज्जियाँ किस तरह से उड़ाई गई हैं इसका पता तो हमे अपने आस-पास की स्कूलों और उच्चशिक्षा केन्द्रों को देख कर  ही चल जाता है.

एक अनुमान के मुताबिक भारत की पचास प्रतिशत स्कूलें बिना शाला-भवनों के अथवा अनुपयुक्त भवनों में चल रही हैं. बच्चे ज़मीन पर बैठते हैं, पेयजल की व्यवस्था भी नहीं है और बिजली-पंखे तो बहुत दूर की बात हैं. अतः इन विद्यालयों में शिक्षा के उच्च लक्ष्यों के प्राप्ति की बातें करना बेमानी है. शेष पचास प्रतिशत में अधिकांश निजी स्कूल हैं, जिनमें फीस अधिक होने और कठिन प्रवेश परीक्षा के कारण केवल उच्च वर्गीय बच्चे पहुँचते हैं. जबकि संविधान प्राथमिक शिक्षा मुफ्त उपलब्ध कराने को कहता है और यशपाल समिति नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश-परीक्षा की परंपरा को बंद कराने की शिफारिश करती है. आलम यह है कि स्कूलों में प्रवेश के लिए बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों का भी टेस्ट लिया जा रहा है. उधर यशपाल समिति बस्ते का बोझ कम करने और होमवर्क बंद करने को कहती है, और इधर बच्चे धोबी के गधे बनाये जा रहे हैं तथा माता-पिता बच्चे के होमवर्क के साथ जूझते दिखते हैं. नीति कहती है कि स्कूलों में खेल का मैदान अवश्य हो, तो असलियत ये है कि आधी स्कूलों के पास मैदान नहीं हैं तो आधी स्कूलें मैदानों में ही लगती हैं. एक और विडम्बना है कि छोटे बच्चों को ज्यादा योग्य शिक्षकों की जरूरत होती है लेकिन उन्हें सबसे कम योग्यता वाले शिक्षक मिलते हैं. स्कूली शिक्षा उद्देश्यहीन है, यह हमारी व्यावहारिक जरूरतों को पूरा  नहीं करती. कई लोगों की राय है कि प्राथमिक स्तर के शिक्षकों के लिए मनोविज्ञान का अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए और प्राथमिक स्तर पर सिर्फ प्रायोगिक शिक्षा दी जानी चाहिए.

उच्च शिक्षा की हालत भी कम बुरी नहीं है. देश के 80 प्रतिशित महाविद्यालय उच्चशिक्षा के न्यूनतम मानदण्ड भी पूरा नहीं करते. हमारे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय बेरोजगार पैदा करने के सबसे बड़े कारखाने हैं.दरअसल भारत में रोजगारोन्मुखी शिक्षा की परम्परा अभी भी ठीक से नहीं बन पाई है. प्रबन्धन की शिक्षा की अपनी सीमाएँ हैं और वह ग्रामीण भारत और छोटे शहरों की आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाती है. कुछ लोग तो बेरोज़गारी की समस्या के लिए सरकार की नीतियों से ज़्यादा मध्यवर्ग के प्रतिष्ठा-बोध को दोषी मानते हैं. मध्यमवर्गीय अभिभावक आज भी अपने बच्चों का एम.ए.,एम,एस.सी, पी.एच.डी. होने को अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं. जबकि आज के भारत में ये डिग्रियाँ रोज़गार की दृष्टि से निरर्थक साबित हो रही हैं. उन समाजों में जहाँ समय की गति को समझ लिया गया है, वहाँ रोजगार की समस्या इतनी ज्यादा नहीं है. जिन लड़कों को आप टाई बाँधे, चम्मच-कटोरी-तेल-साबुन-वाशिंग पावडर लेकर घर-घर जाकर बेचते देखते हैं , जो लड़के अपने मोटर गैराज खोल रहे हैं, अथवा जो फाइनेंस और बैंकिंग कम्पनियों के एजेन्ट के बतौर आपके घर खाता खुलवाने दौड़े आ रहे हैं, वे सब भी प्रतिष्ठित लोगों के ही बच्चे हैं. इन्हें रोज़गार की कोई समस्या नहीं है. प्रतिष्ठावादी मध्यमवर्ग को तत्काल अपना नज़रिया बदलने की जरूरत है.

बात खत्म करने से पहले एक-दो बच रही बातों पर मुख़्तसर तौर पर पर विचार कर लेना चाहिए. इधर कई तबकों से माग उठती रही है और सरकारें भी इस पर गंभीरता से सोचती रही हैं कि शिक्षा का निजीकरण कर दिया जाये. एक समय यू.जी.सी. तो इस तरह की योजना भी बनाने लगा था कि व्यापारिक प्रतिष्ठान, शिक्षण संस्थाओं को गोद ले लें. इस तरह की माग करने वाले शायद यह सोच रहे होंगे कि ऐसा करने से संविधान की भावना, सबके लिए अनिवार्य शिक्षा, पूरी हो सकेगी और होनहार चरित्रवान युवक-युवतियाँ तैयार हो सकेंगे. लेकिन यह ख़ामख़याली है. औद्योगिक घरानों के हाथों में जाने से शिक्षण संस्थाएँ उनके लिए एक नये मासूम और विवश बाजार की तरह सुलभ हो जायेंगी. औद्योगिक घरानों को अपने उत्पादों के लिए विज्ञापन का विस्तृत एवं फायदेमंद क्षेत्र आसानी से मिल जायेगा. मुमकिन है कि आपको ऐसा दृश्य भी दिखे कि किसी शराब कम्पनी द्वारा गोद लिए गए स्कूल के बच्चों को उसका मोनो लगाना पड़े ! और विल्स वर्ल्ड कपया गोल्ड फ्लेक ओपन टेनिस की तर्ज़ पर विल्स छात्र और गोल्ड फ्लेक छात्रमिल जायें. अधिक फीस का रोना अभिभावक अभी रोते है, निजीकरण के बाद किस तर्क से वह कम हो जायेगी—मेरी समझ से तो बाहर है.

बहुत समय से भारतीय शिक्षा में एक प्रयोग करने का विचार चल रहा है—यौन शिक्षा देने का. भारतीय मानस इस पर इतना सकुचाया हुआ है कि वह बात करने में बी लजाता है. अधिकांश लोग यौन-शिक्षा के पक्ष में नहीं हैं, और जो पक्ष में हैं, वे भी नाम गुप्त रखने की शर्त पर ही बातचीत के लिए तैयार होते हैं. यौन-शिक्षा को लेकर कुछ भ्रम लोगों के मन में हैं. खासे पढ़े-लिखे लोग भी यह सोचते हैं कि यौन-शिक्षा जब दी जायेगी तो उसमे अश्लील साहित्य के चक्रवर्ती लेखक मस्तराम जैसी भाषा का उपयोग किया जायेगा और उसके बाद बच्चों को अभ्यास के लिए खुला छोड़ दिया जायेगा. अथवा इन्हें डर है कि इनके जीवन के अत्यन्त अन्तरंग और गोपन रहस्य बच्चों के सामने खुल जायेंगे !!. शिक्षक भी दुविधा में हैं कि उस तरह की गन्दी बातेंवे कैसे पढ़ायेंगे. यही वज़ह है कि यौन-शिक्षा के पक्ष में जनमत नहीं बन पा रहा है. लोग यह नही समझ पा रहे हैं कि यौन शिक्षा, जीव-विज्ञान के विषय के रूप में होगी और मनुष्य की जनन क्रियाओं का विवेचन उसी तरह किया जायेगा जैसे नाक-कान अथवा हृदय के कार्यों का किया जाता है. और यह वैसा ही नीरस और अनुत्तेजक होगा जैसे शरीर के अन्य अंगों का होता है.

सरकारों की भी अपनी मज़बूरी है. कोई परीक्षा पास करके तो सरकार बनती नहीं है. सरकार बनती है राजनीतिक प्रक्रिया से. इसलिए सरकार के लिए अपने राजनीतिक हित ही सर्वोपरि होते हैं. शिक्षा का क्षेत्र भी अब राजनीतिक लाभ के क्षेत्र के रूप में पहचान लिया गया है. जो पैसा स्कूलों की दशा सुधारने और अच्छे शिक्षकों के लिए खर्च किया जाना चाहिए उसे सरकार बच्चों और उनके अभिभावकों में बाँट रही है. देखिए कैसी विडम्बना है कि जिस स्कूल में भवन नहीं है, पानी की सुविधा नहीं है, शिक्षक नहीं हैं, उसी स्कूल का हर छात्र पाँच से सात हजार रुपये छात्रवृत्ति-साइकिल-गणवेश-भोजन-किताबों के बहाने पा रहा है. हकीकत ये है कि ये पैसे छात्रों के अभिभावक अपने उपयोग में खर्च  करते हैं. सरकार यह समझती है कि विश्व बैंक और यूनिसेफ से मिले इन पैसों से उसने अपने वोट बैंक को और मजबूत कर लिया है. गांवों की हालत इतनी खराब है कि वहाँ लोग बच्चों को पढ़ाने की ज़गह मज़दूरी में लगाना ज़्यादा ठीक समझते हैं, कम से कम दो वक्त की रोटी तो जुट सकेगी. छात्रवृत्तियाँ लेने के लिए बच्चों का नाम स्कूल में लिखवा ज़रूर देते हैं, लेकिन ये बच्चे कभी-कभार ही स्कूल जाते हैं. कागज़ पर हिसाब-किताब दुरुस्त रखा जाता है और विश्व बैंक और यूनिसेफ तक बढ़िया चमचमाती रिपोर्ट पहुँचती है हमारे विकास की.




बहरहाल ! आजादी के बाद देश में शिक्षा के विकास को संतोषजनक भी मानना मुश्किल है. नीति-निर्धारकों को मैकाले के भूत से पीछा छुड़ाना होगा और भारतीय बच्चों के लिए ऐसी शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी जो उन्हें आत्महत्या के मुकाम तक न पहुँचाए, उन्हें बेहतर और मजबूत इंसान बनाए. हमारे बच्चों को ऐसी शिक्षा की ज़रूरत है जो उन्हें रोजमर्रा की दिक्कतों का सामना करने लायक बना सके. हमारे बच्चों के भीतर नागरिक-बोध पैदा हो. समाज और समाज में हो रहे बदलावों से तालमेल बैठा सकें.ऐसी शिक्षा की ज़रूरत है जो बच्चों के भीतर के रस को सुखाए बिना उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर सके. और यह सब कम से कम खर्चे में उपलब्ध होना चाहिए. सरकार को भी यह समझना होगा कि अगर वो ऐसे शिक्षित और स्वस्थ नागरिक देश के लिए तैयार कर सकी तो फिर देश को आगे बढ़ने के लिए किसी की मदद की ज़रूरत नहीं होगी. मध्यमवर्गीय मानस को भी अपनी प्रतिष्ठा अपने बच्चों के भविष्य की कीमत पर नहीं प्राप्त करनी चाहिए. लेकिन सबसे पहले उस भेदभाव को खत्म करने की ज़रूरत है जो गुलामी के दिनों से ही उच्चवर्ग और सामान्य जनता के शिक्षण में किया जा रहा है.

Sunday 24 June 2012

शिक्षा : अंधकार से अंधकार की ओर ! ( 1 )


अब आप ही बताइये कि इस बात पर हम शर्म करें या गर्व कि भारत की शिक्षा प्रणाली, विश्व में तीसरे नम्बर की सबसे बड़ी शिक्षा-प्रणाली है, और बेरोजगारों को पैदा करने में दुनिया में इसका पहला नम्बर है.


गरीबों का ही देश सही, पर भारतमें कर्ज़ लेकर जीवन-यापन करने को हमेशा नीची नज़र से देखा गया है. हमारी प्राचीन सुक्तियों में कर्ज़ को पाप तक की संज्ञा दे दी गई है. फिर भी छोटे-मोटे कर्ज़ लेना-देना तो बहुत स्वाभाविक दिनचर्या है समाज की. लेकिन शिक्षा के लिए माँ-बाप का कर्ज़दार हो जाने का चलन इस देश में पिछले कुछ ही वर्षों में शुरू हुआ है. दरअसल यह मज़बूरी का चलन है. इस देश में शिक्षा की जो नई व्यवस्था चल निकली है, उसने इसे एक बड़े उद्योग में बदल दिया है. चूँकि शिक्षा अब हमारी बुनियादी ज़रूरत है, इसलिए मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग बच्चों की शिक्षा के पीछे कर्ज़दार हुआ जा रहा है. ये वही देश है जहाँ कृष्ण और सुदामा एक साथ और बराबर की शिक्षा ग्रहण करते थे. बीस साल पहले तक एक भिखारी का भी बच्चा आराम से पढ़ाई कर लेता था.

हमारे देश में शिक्षा को लेकर सरकारी स्तर पर एक आत्मघाती किस्म का ठंडापन तो अभिभावकों में दुविधा, इधर के वर्षों में रही है. हमारी अदूरदर्शी नीतियों का ही ये नतीज़ा है कि आज यह चिन्ता की बात बन गई है कि अब इस देश में योग्य वैज्ञानिक, विषय-विशेषज्ञ और कलाकार नही मिल पा रहे हैं. स्कूली शिक्षा बच्चों को व्यावहारिक रूप से अपाहिज बना रही है. विभ्रम के शिकार हमारे शिक्षा मंत्रियों को सरकारी और निज़ी विद्यालयों के बीच की चौड़ी खाई दिखाई नहीं पड़ती. उच्चशिक्षा के लिए माँ-बाप को बैंकों से कर्ज़ लेना पड़ रहा है. जिनकी हिम्मत नहीं पड़ती, उनके योग्य वच्चे भी उपयुक्त  शिक्षा से महरूम रह जाते हैं. जिन
IIM’s और IIT’s  पर सारा ध्यान केन्द्रित है सरकार का, वहाँ तक कितने बच्चों की पहुँच है ?

आज़ादी के बाद देश की शिक्षा-प्रणाली पर खूब माथा-पच्ची की गई और निष्कर्ष भी आदर्शवादी निकले. योजनाएँ भी लुभावनी बनीं. लेकिन स्थितियां बिगड़ती गईं. दुनिया को दिखाने और रिझाने के लिए अनिवार्य शिक्षा के लिए अधिनियम बना दिया गया, लेकिन यह नहीं बताया गया कि दुनिया के विकसित और विकासशील देशों के मुकाबले बहुत कम राशि हमारे यहाँ शिक्षा पर खर्च की जाती है. माँ-बाप को कर्ज़दार और बच्चों को निरर्थक बनाने वाली इस शिक्षा-प्रणाली के विकास को समझने की कोशिश की जानी चाहिए.

“………इतने सालों की पढ़ाई मेरे लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाई. माँ-बाप और इस दुनिया पर बोझ बन गया हूँ. आखिर सहने की भी एक हद होती है. बस अब नहीं......... यह स्युसाइड नोट था एम.ए. , एल.एल.बी. पास और विगत छः वर्षों से आइ.ए.एस. की तैयारी कर रहे इलाहाबाद के मेधावी छात्र आशुतोष पाण्डेय का. दुर्भाग्य से यह इस तरह की पहली घटना नहीं है. दिल्ली और इलाहाबाद में न जाने कितने मेधावी छात्र आठ-आठ सालों से एक ही कमरे में बन्द एक अदद नौकरी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर  कर चुके हैं. उनमें से अधिकांश अपना मानसिक संतुलन खोकर अपने जनपदों में वापस आ जाते हैं. सवाल यह पैदा होता है कि हमारी शिक्षा-प्रणाली ने हमें किस मुकाम पर पहुँचाया है ? अगर आशुतोष पाण्डेय की तरह आत्महत्या वाला मुकाम ही इसका हासिल है तो ऐसी शिक्षानीति के निर्धारकों को भारतीय दण्ड संहिता के अनुरूप दण्ड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए ?लेकिन दण्ड देगा कौन ? क्या हम उस बिल्ली से न्याय की अपेक्षा करें जिसके जिम्मे चूहों के लिए उचित कानून बनाने का काम है ?

यह भी हमारी स्वतंत्रता और इच्छाशक्ति की पोल खोलता है कि आज़ादी के चौसठ साल गुजार लेने के बाद भी हमारे सिर से मैकाले का भूत नहीं उतर पाया है.मैकाले महोदय भारतीय भाषाओं, साहित्य एवं कला को गँवारूमानते थे तथा वे भारत को उस ज्ञान से परिचित कराना चाहते थे जिसे विश्व की सर्वाधिक बुद्धिमान जाति(अँग्रेज) ने रचा है’. उनके अनुसार सम्पूर्ण प्राच्य ज्ञान-भंडार, यूरोप के किसी पुस्तकालय की एक आलमारी में रखे ज्ञान से भी कम है. वे भारत की समस्त देशी शैक्षणिक संस्थाओं को बंद कर, पूरी शिक्षा अँग्रेजी भाषा के माध्यम से, यूरोपीय साहित्य, कला एवं विज्ञान की देना चाहते थे. दरअसल उन दिनों मैकाले सहित अन्य अँग्रेज (वुड, शैडलर, हण्टर), अँग्रेजी शिक्षा के माध्यम से एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहते थे भारतीयों का जो अँग्रेजों का समर्थन करें. मैकाले कहता था--- हमें इस समय एक ऐसे वर्घ को उत्पन्न करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए, जो हमारे और उन लाखों लोगों के बीच दुभाषिया बन सके जिन पर हम शासन करते हैं.कहा गया कि सरकार को उच्च वर्ग को शिक्षा देनी चाहिए, जिससे शिक्षा छन-छन कर जनता तक पहुँचे. उन दिनों यह सिद्धान्त अधोमुखी निस्यंदनके नाम से मशहूर हुआ था. उच्च वर्ग से छन-छन कर  कैसी शिक्षा निम्न वर्ग तक आई , हम सब देख ही रहे हैं. हाँ, उन दिनों मैकाले अपनी नीति में सफल हो गया था.हमारे देश में अँग्रेजों के कई भारतीय पिट्ठू तैयार हो गये हैं.

मैकाले की शिक्षानीति 1835 में आई थी. भारत में हर साल अप्रैल से जुलाई के महीनों में मैकाले का भूत दिखता है. अँग्रेजी स्कूलों में दाखिले के लिए भारतीय जनता का मध्यमवर्गीय प्रलाप तथा देशी हिन्दी विद्यालयो के छात्रों के हीनभावना से ग्रसित सामूहिक विलाप से ये महीने आक्रांत रहते हैं.सारे अभिभावक और नेतागण
एडमिशन की राष्ट्रीय समस्या से जूझ रहे होते हैं. भारतीय मध्यमवर्ग की अँग्रेजी स्कूलों के प्रति ललक और हताशा देखते उन्हें अत्यन्त दयनीय दशा में पहुँचा देती है. अँग्रेजी शिक्षा की प्रासंगिकता पर मैं यहाँ फिलहाल बहस नहीं करना चाहता, लेकिन इतना ज़रूर मानता हूँ कि कोई भी बाहरी भाषा अपनी मातृभाषा से ज्यादा ज़रूरी, उपयोगी और प्रासंगिक नहीं हो सकती.

फिलहाल ज़ेर-ए-ज़हन जो बात है वह यह कि आखिर क्यों 1835 से चली आ रही शिक्षा-प्रणाली की मूल भावना ही आज भी बनी हुई है, जबकि इतने सालों में दुनिया का मिज़ाज़ कहाँ से कहाँ पहुँच गया है. गुलामी के दिनों की विवशता को स्वीकार कर भी लें, लेकिन आज़ाद भारत में उसी उपनिवेशवादी शिक्षा पद्धति को किस तर्क से स्वीकार करें. कहीं ऐसा तो नहीं कि आज़ाद भारत के शासन की बागडोर, अँग्रेजों द्वारा तैयार किए गये अँग्रेजी परस्त लोगों के वंशजों के हाथ में रहने के कारण इस परंपरा का पोषण होता रहा
? क्या आज के भारत की अँग्रेजी शिक्षण संस्थाएँ, मैकाले द्वारा कल्पित उसी अभिजात्य वर्ग को तैयार नहीं कर रही हैं, जो पब्लिक स्कूल के बच्चों-भारतीय संस्कृति और साहित्य को घृणा करते हैं ??

Thursday 21 June 2012

मेरा तुम्हारा रिश्ता


मेरा तुमहारा रिश्ता वही है
जो प्यास का पानी से है
जो आग का ताप से है
जो पहाड़ का ऊँचाई से है
जो पेड़ का अपनी जड़ों से होता है ।

जैसे नदी का होता है तल से
जैसे चन्द्रमा का है अपनी पृथवी से
जैसे सोने का होता है सुनहरेपन से ।

कि तुम मेरे लिए इतनी ज़रूरी हो
जैसे नीली चीज़ के लिए नीला रंग
लाल के लिए लाल
या कह लो
कि जैसे इन्द्रधनुष के लिए सात रंग ।

मैं तुम्हें वैसे ही याद करता हूँ
जैसे खेत याद करता है बीज को
जैसे धरती याद करती है पहली बारिश को
जैसे घर की मुंडेर याद करती है
एक नीले पंखों वाली चिड़िया को
जैसे कविता याद करती है लय को ।

तुम्हारे होने की आश्वस्ति
वैसी ही है
जैसे संसार के वायुमंडल में ऑक्सीजन का होना
जैसे लगातार हमारी सांसों का चलना
और सीने की धक् धक् ।

कि तुम्हें जब भी महसूस करना होता है
मैं अपनी नब्ज़ पर हाथ रखता हूँ ।

----------------------- विमलेन्दु

Friday 15 June 2012

भाग न बाँचे कोय !


 कई बरस पहले शहर में एक बड़े नामी बाबा पधारे. बिहार के रहने वाले थे. भाग्य बाँचने और भविष्य सुधारने में महारथी माने जाते थे. कुंडली देखना, बनाना, और तदनुसार यज्ञ-हवन-जाप-रत्नादि का विधान करवाते थे. लोगों की शक्ल देख कर मुस्कुराते हुए झट से भाई-बहनों की संख्या, पेशा, माता-पिता से संबन्धित जानकारी बता देते थे. इस कौतुक के लिए न तो उन्हें कुंडली देखनी पड़ती थी न हाथ.

बाबा आये तो रेडियो कॉलोनी मे अपने एक चेले के यहाँ डेरा जमाया. जैसे-जैसे लोगों को खबर होती गई, तो भूत-भविष्य को लेकर परेशान रहने वाले लोगों का तांता लगने लगा. किसी का गुरु वक्री था, किसी को राहु की महादशा चल निकली. किसी को शनि की साढ़े साती चल रही थी तो किसी का मंगल नीच का था. कोई ऐसा नहीं जिसको कोई न कोई बाधा न हो, और ऐसी कोई बाधा नहीं थी जिसका उपाय बाबा के पास न हो. बाबा तरह-तरह के यज्ञ-जाप-हवन आदि के उपाय बताते. अब साधारण नौकरीपेशा, दुकान-धंधा करने वाले संसारी मनुष्य से यज्ञ-जाप-हवन कहाँसधता है ! ज़रा सी भी चूक हो गई तो लेने के देने पड़ जायें......तो बाबा ही ठेका ले लेते थे यथाविधि यज्ञादि करने का. इसका सबसे बड़ा लाभ यह था कि पीड़ित का काम-धंधा भी प्रभावित नहीं होता था. बाबा उसके नाम से सारे कृत्य सम्पन्न करा देंगे. बस उसे सारे बिधान का एक मुश्त खर्च बाबा के पास जमा करा के निश्चिन्त होना होता था. लोगों के लिए बड़ा सुविधाजनक रास्ता खोल दिया था बाबा ने.

मेरा एक मित्र था.  उसके पिता PWD में इंजीनियर थे. बेहिसाब रुपया घर में आ रहा था. फिर भी न जाने कौन सी बाधाएँ थीं घर में कि अक्सर कोई न कोई पूजा-पाठ, महाम़त्युंजय जाप आदि घर में चलता ही रहता. मेरा मित्र खुद जिस कक्षा में था उसमें दो बार फेल हो चुका था. जबकि इसके पहले वाली कक्षा भी तीसरे प्रयास में उत्तीर्ण करने के बाद मेरा क्लासफेलो बना था. इस लिहाज से उम्र और अनुभव में वो मुझसे बड़ा था. बड़ा नेकदिल था. आधी रात को भी किसी की मदद करने को हाजिर रहता. मेरे लिए उसका स्कूटर सबसे बड़ा आकर्षण था, जिसमें मैं दिन भर घूमा करता. हमारी मित्र मंडली में अक्सर लोगों को उसी के मार्गदर्शन में चलना पड़ता था.

बाबा आये तो मेरा मित्र भी उनके पास गया. और बाबा ने उसकी बाधा के मुताबिक कोई जाप भी शुरू कर दिया था. वह लगभग दिन भर बाबा के ही पास  रहता और शहर भर से अपने परिचितों को भी उनके पास ले जाता. हालाँकि मेरा इन सब बातों पर विश्वास नहीं था, पर एक दिन वह मुझे भी पकड़ ले गया....यूँ ही घुमाने के बहाने.

बाबा अन्दर के कमरे में विराजते थे. दरवाज़ा बंद रहता था. धूप और अगरबत्ती की खुशबू बाहर के कमरे और उसके बाहर बरामदे, और उसके बाहर लॉन और पेड़ों तक बिखरती रहती थी. जिनका नम्बर कुछ ही देर बाद लगना होता वो दूसरे नम्बर के कमरे में बुला लिए जाते थे. जिन्हें नम्बर लगाना होता था वो बरामदे में होते. और  जो कौतूहलवश पहुँचते वे पेड़ों के इर्द-गिर्द बैठे या खड़े होते. मुझे अंदाज़ा नहीं था कि मेरे मित्र की धाक इतनी जमी हुई है कि मुझे सीधे दूसरे नम्बर के कमरे में पहुँचा देगा. मैं बैठ गया. कुछ और लोग भी बैठे थे. बाबा के दो-तीन चेले भी साधुवेश में वहीं बैठे लोगों से हँसी ठिठोली करते. किसी का हाथ देखते, किसी की पेशानी....या किसी की गुप्त परेशानी पूछकर मुस्काते.....कुछ देर में एक चेले ने मेरे दाहिने हाथ को नरमी से पकड़ा और हथेली की रेखाएँ देखने लगा..... 
कुछ देख कर बोला—“ क्यों महराज, दो-भाई, एक-बहन है तुम्हारे ?”
मैने कहा—नहीं तीन-भाई, एक-बहन.....वो मुस्कुराया.
“ पापा बैंक में हैं ?” उसने फिर कहा.
“ नहीं टीचर हैं.”…मैने कहा......वो फिर मुस्कुराया.
“ और माता ?”_____
वो भी टीचर है-----मैने कहा....वो मुस्कुराता रहा.
“ प्यार करते हो किसी को ?”------ मैने कहा—हाँ...
“ दूसरी जाति की होगी ?”
“ मेरी ही जाति की है “---मैने बताया.
इस बार वो हँसा---“ चिन्ता न करो, बाबा सब ठीक कर देंगे..”----कहता हुआ वो वहाँ से उठ गया.
मैं सोचने लगा कि मेरा तो कुछ गड़बड़ ही नहीं है, बाबा क्या ठीक कर देंगें !!

इतने में एक दूसरा चेला एक कागज और पेन लेकर आया और उसमें मेरा नाम, जन्मतिथि, जन्म का स्थान और समय लिख कर ले गया.

लगभग दो घंटे बाद बाबा ने मुझे भीतर बुलवाया, तो मुझे डर लगा. मैने अपने मित्र की तरफ देखा तो उसने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा कि चल,मैं भी चलता हूँ. मैं अन्दर चला गया. बाबा ज़मीन पर ही आसन जमाये बैठे थे. बगल में एक चौकी पर तरह-तरह के देवता विराजे थे. बाबा के पास कुछ पोथियाँ और पत्रे पड़े हुए थे. मुझे सामने बैठने का इशारा किया. मेरे बैठते ही सीधे मेरी आँखों में अपनी नज़रें उतार दीं......मुस्कुराते हुए कहने लगे-----“ ब्राह्मन हो...बहुत बर्हिया.....माँ-बाप मास्टर हैं ?.....पर तुम बड़े भाग्यशाली हो.....कितने, तीन-भाई, एक-बहन हैं ?..... ‘ हाँ.’…..एक भाई से बड़ा सुख मिलेगा......और परेम भी करते हो..?..... ‘ हाँ.’……लड़की ब्राह्मन ही है, पर तब भी कुछ बाधा है.......”--------------  
मैं भौंचक ! इन्हें सब कैसे पता !?-------लोग ठीक ही कहते थे.
बाबा आगे बोले---“ ये तुम्हारा कुंडली बना दिया है. बाकी सब ठीक है पर कुछ बाधाएँ हैं. ठीक हो जायेंगी, एक जाप करा लो. कोई पंडित हो तो घर में करा लो. लेकिन कोई कुधरम नहीं होना चाहिए ! नहीं तो हम खुद करवा देंगे जाप तुम्हारे नाम से....51,00 रुपये का जाप है....बोलो तो शुरू करवा दें !!”-----------मेरी हलक से कुछ निकल नहीं रहा था. मैने धीरे से कहा—“ पापा से पूछ लें !”
वो कागज़ जिस पर उन्होने कुंडली बनाई थी, मुझे पकड़ाते हुए बाबा बोले—“जैसी मर्ज़ी..”
मैं बाहर निकल आया. उनके चेले मुस्कुरा रहे थे. मैं रुका नहीं, सीधे घर आ गया. पापा से भी कुछ बताया नहीं. जल्दी ही मन संयत हो गया.

एक  दिन कइयों के हवन-जाप, रुपया-पैसा, श्रद्धा-विश्वास  समेटकर बाबा अन्तर्ध्यान हो गये......चमत्कारी तो वो थे ही इस लिए लोगों को अचंभा नहीं हुआ.....लोग  निराश तो तब हुए जब पता चला कि बाबा के स्थानीय चेले भी भूमिगत हो गये हैं.


कई वर्षों बाद, कल, कुछ पुरानी फाइलें ढूढ़ते हुए मुझे वो कागज़ मिला जिस पर बाबा ने मेरी कुंडली बनाई थी और फलादेश लिखा था. मैने पढ़ा तो मज़ेदार लगा. आप भी पढ़िए इसे------------------


भइया दुबेदी की कुंडली
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....आप का कुंडली बृस्चीक लग्न में तैयार हुआ है....लग्नपती श्वामी मंगल है जो अष्टमघर मे (मृत) गर मे है.....जीससे आप का जो सरीर संबन्धी कमजोरी है । वह मंगल के प्रती है प्रन्तू उसका यहा तक सीमीत रहना ठीक है । कारण मंगल आप का घातक नही है, फीर भी आप मुगां धारण नहीं करना......आपका मागेंश चन्द्रमा स्वगृह है तथा अपने घर में है, इसलिए शिछा आप प्राप्त किये हैं तथा अपने से मेहन्त भी अच्छे करते हैं ।

......तथा आप अभी भी आप अपना पैरो पर खडा होने के प्रयास जारी रखे है, प्रन्तू अभी सफलता नहीं मील रहा है । आप का सरवीस अवश्य होगी तथा गौरमेन्ट सारीवस या उच्च स्थान का प्राइवेट सरवीस का भी योग्य है ।




........जो आप अपन पैर पर खडा होकर अपना नाम ऊचा करेगे प्रन्तू आपको दो तरह का कुंडली से प्रेशानी 31 वर्ष के उम्र तक आ सकता है  जो जहा भी अपना सरवीस या परिछा हेतू अभी गये होगे, कोई न कोई अड़चन अवश्य उतपन हुआ होगा ।

.......पहला ग्रह धन स्थान मे गुरु अपने घर मे बैठकर आप के जन्मकाल से बक्री है । जीसे नीर्वल कहते है तथा कुंडली में गुरु वक्र होना (रुष्ट) होना ठीक नही होता है। और धन स्थान मे गुरु है जहा से धन संग्रह कीया जाता है। तथा धन उपारजन का लक्ष्य बनाया जाता है।

......दुसरा आपके पूनवर्सू नक्षत्र मे चौथा वर्ण मे जन्म है जीससे आप गुरु के महादसा में जन्म है जीससे आप गुरु का महादसा मे जन्म लेकर आज वुद्ध के महादसा मे चल रहे है। वुद्ध आपका लामेस पती है, यह लाभ देगा प्रन्तू उसी तरह योगिनी का महादसा होता है जो अभी संकठा का महादसा चल रहा है जो 25 वर्ष के उम्र से सुरू होकर 33 वर्ष के उम्र तक चलेगा । और वुद्ध का महादसा 38 वर्ष तक चलेगा। यह दसा उतम फल देगा प्रन्तू इस वुद्ध के दसा से फल उतम उठाने के लीये आप संकठा को दमन करे तथा गुरु को बलीष्ट करे तो उतम रहेगा। पुत्रन जाप कराने मे खर्च तो पड़ेगा प्रन्तू लाभ तथा शान्ती बनेगी । आप मंगला भी है प्रन्तू हलका है।

.......फीर भी कुंडली मिलाकर सादी का योग्य बनेगा. उतम सादी 28 के उम्र से 30 के उम्र तक होगा. संतान 5 रहेगे. दोनो मीलकर पितामाता अभी जीवित होगे । पिता भी जीवन पहला सरवीस से लेकर चलेगे। भ्राता तीन रहेगे. 1 भाई से प्रबल सुख्य आनन्द रहेगा। आप दयालू है तथा उपकारी भी है ।

आगे के भभीष्य ठीक है। अगर आप अपना उथान मे प्रेशानी से बचना चाहते है। तो संकठा दसा को शान्ती तथा गुरु को प्रवल करने का उपचार करेगे, आप अपना नगर के पंडीत से भी सलाह अपना कंडली दीखाकर लेगे ।
उम्र—77 वर्ष से 82 वर्ष का है ।
                                                             ***********************


सालों बाद जब इस फलादेश को पढ़ा तो खूब हँसी आयी.
अब जबकि जीवन में अप्रत्याशित होने के लिए सिर्फ दुर्घटनाओं की ही संभावना बचती है......किसी अप्रत्याशित सुख की कल्पना करना अपना ही मज़ाक उड़ाने जैसा ही लगता है. बाबा की अधिकांश भभीष्यवाणियाँ घटित नहीं हुईं.....
जीवन में कई चीजें नहीं मिलीं तो इसलिए कि उन्हें पाना ही नहीं चाहा....कई चीज़ें इसलिए नहीं मिली कि मैं उनके योग्य नहीं था.....कई चीज़ें ऐसी मिल गईं जो किसी काम की नहीं हैं..... लेकिन कुछ छोटी-छोटी ऐसी चीज़ें नहीं मिलीं जिन्हें पाना चाहा और जिनके योग्य भी था......
फिलहाल इन्हीं का दुख भी होता है कभी-कभी.....अहोभाग्यम्.......।

हाँ.....मेरा वो मित्र उस कक्षा में तीसरी बार फेल हो गया था....और फिर आगे पढना ही छोड़ दिया. इस समय एक आयल एजेन्सी का मालिक  है.

Wednesday 13 June 2012

अब आवाज़ में हैं मेहदी हसन !








दुनियां मे कुछ ही आवाज़ें ऐसी हैं
जो सबकी आवाज़ बन जाती हैं....
मेहदी हसन की आवाज़ उन्हीं मे से थी.


कितने लोगों के खामोश दुखों, 
बेक़रार प्यार में बोलते थे मेहदी हसन.....


कैसी भयानक रातें हम काट लेते थे 
इस आवाज़ की लाठी पकड़ कर.....


रेगिस्तान पार करते हुए जब पानी खत्म हो जाता 
तो इस आवाज़ का दरिया दिख जाता था.....
जंगल मे रास्ता भटक जायें 
तो रौशन हो उठती है ये आवाज़......


जिनका कोई घर नहीं, दर नहीं...
उनके लिए एक ज़गह थी ये आवाज़..............

Saturday 9 June 2012

हुसैन जानते रहे होंगे !









( मक़बूल फिदा हुसैन की याद में )





हाथ की लकीरों पर
न उनका ज़ोर था न यकीन
जैसे इसीलिए
वो जीवन भर लकीरें खींचते रहे.

रंगों से खाली था बचपन
तो जवानी भी
कुछ कम बदरंग नहीं थी.
जैसे इसीलिए
वो रंगों को नचाते रहे
धरती से आसमान तक.

वो अपने नंगे पैरों से
खींचते रहे पृथ्वी की ऊष्मा
और उनकी कूँची
लिपिबद्ध करती रही
उत्तप्त देहों का नाद.

उनकी गोपन रंगशाला में
कुछ अभिषप्त अप्सराएँ
करती थीं नृत्य,
हुसैन एक ऋषि की तरह
उन्हें शापमुक्त करते गये
दुनिया के कैनवास पर.
 
वो जानते रहे होंगे ज़रूर
कि शक्तिहीन होना
दुनिया का सबसे बड़ा अभिषाप है,
जैसे इसीलिए
रंगों के सबसे घने अँधेरे में
उन्हें सुनाई देती थी
जवान घोड़ों की पदचाप ।

v  विमलेन्दु 

                         (सभी पेन्टिंग्स एम.एफ.हुसैन की हैं )

Sunday 3 June 2012

ब्रह्मचारी आलोचक : डॉ.रामविलास शर्मा


डॉ. रामविलास शर्मा को याद करते हुए ब्रह्मचारीविशेषण इस तरह से मेरे मन में आता है कि लगभग दुर्निवार हो गया है. हमारी सामान्य चिन्तन परंपरा में ब्रह्मचारी विशेषण, कठोर आत्मानुशासन, दिनचर्या के सुसंगत नियमन, और सर्जना के लिए प्रतिबद्ध एकाग्र मानस के अर्थों में प्रयोग किया जाता है. रामविलास जी के अध्ययन और लेखन की शैली ऐसी ही थी. जैसे एक हठी ऋषि तपस्या कर रहा हो. जो नित नए अँधेरों में जाता हो और वहाँ से कोई पत्थर का टुकड़ा, थोड़ी मिट्टी या किसी अजीबोगरीब वनस्पति को उखाड़ कर ले आता है.....फिर उसे तराश कर, गढ़ कर, सींचकर दुनिया को कुछ ऐसी चीज़ें दे देता है, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था.

रामविलास जी अपने पढ़ने लिखने की शुरुआत ही उन लिपियों से करते हैं जिन्हें पढ़ना संभव न था. वो उस भाषा को बूझने की कोशिश करते हैं जो अब तक अबूझ थी. और फिर खोज निकालते हैं भारतीय भाषाओं के भीतर विलुप्त सरस्वती को. वो हिन्दी भाषा के वंशवृक्ष को खोजते हुए प्राचीन भाषाओं के आदिवासी परिवार में पहुँच जाते हैं और  वहीं रम जाते हैं कुछ दिन. और जब लौटते हैं तो अपने साथ संगीत की स्वरलिपियाँ, सौन्दर्य की भंगिमाएँ और चेतना के एकदम नूतन आयाम लेकर आते हैं.

10 अक्टूबर 2011 से डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू हो गया है. वैसे भी पिछला वर्ष हिन्दी क्षेत्र के लिए एक असाधारण वर्ष इस मायने में भी रहा कि यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों का जन्म-शताब्दी वर्ष था. अज्ञेय,नागार्जुन,केदार से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्म-शताब्दी वर्ष है. इन सब लेखकों के बीच रामविलास शर्मा इसलिए भी अलग और इकलौते हैं कि वे विशुद्ध आलोचक थे.
        
कुछ मित्रों की मंशा थी कि शताब्दी वर्ष में रामविलास जी पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो. मित्रों की यह इच्छा इसलिए भी सम्मानीय है कि हमारे हिन्दी जाति में विस्मृति की समस्या कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी है. मैं पुरउम्मीद हूँ कि हिन्दी समाज के समर्थ समीक्षक, रामविलास जी पर गंभीर और उपयोगी चर्चा करेंगे. उन पर कुछ कहने की हिम्मत करना मेरे लिए आसान नहीं था. अपनी सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर कोई मुगालता भी नहीं है. फिर भी मुझे लगा कि वो हमारे लेखक हैं और अपनी अल्पज्ञता के साथ भी उन पर बात करने का मेरा प्राकृतिक अधिकार है. इसी अधिकार-बोध के तहत मैं रामविलास जी पर कुछ कहने की कोशिश कर रहा हूँ, इस निवेदन के साथ कि ये बातें, रामविलास जी पर विमर्श की सिर्फ प्रवेशिकाएँ ही हैं.
         
नयी शताब्दी ने शुरुआत में ही भारतीय साहित्य के तीन सर्वाधिक कर्मठ और ईमानदार लेखकों को हमसे छीनलिया था. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, और अली सरदार जाफरी, भारतीय साहित्य में मार्क्सवादी और प्रगतिशील सोच के निर्माण के प्रमुख अभियंता थे.इनकी प्रतिबद्धता निर्विवाद थी. एक के बाद एक, इनका जाना, प्रगतिशील आंदेलन से जुड़े साहित्यकारों के लिए तो एक आघात जैसा था ही, साथ ही भारतीय संस्कृति-साहित्य पर गर्व करने वाला हर मानस दुखी और चिन्तित हुआ था. इस दौर में जब प्रतिबद्धताएँ अत्यंत लचीली हो चुकी हैं, इन प्रतीक-पुरुषों का अवसान उन लोगों को भी बेचैन करता है, जो अक्सर इनके तवे पर अपनी साहित्यिक रोटियां सेंक कर किसी तरह साहित्यिक-जीवन-यापन कर रहे थे. रामविलास जी प्रगतिशील आंदोलन के इतने मजबूत और अडिग स्तम्भ थे कि परवर्तियों को निश्चिन्त  होने का मौका मिल जाता था.
         
अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि डॉ.रामविलास शर्मा हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि के शीर्ष पुरुष थे. यद्यपि अपने शुरुआती साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक उपन्यास और कुछ कविताएँ भी लिखीं लेकिन उसके बाद उनका पूरा जीवन एक समालोचक की क्रमशः विकास यात्रा था. अपने इस सुदीर्घ जीवन में उन्होंने साहित्यिक कृतियों की आलोचना के साथ-साथ भारतीय समाज,दर्शन,राजनीति पर भी चिन्तन किया और भारतीय वास्तुकला,पुरातत्व,संगीत और खासतौर पर प्राचीन संगीत के आंतरिक संबन्धों की खोज का अद्वितीय कार्य किया. रामविलास जी ने प्राचीन भारतीय भाषाओं के सामाजिक विकास में भूमिका की पड़ताल करते हुए, भाषा-विज्ञान पर मौलिक काम किया है. निराला पर उनके लेखन को तो मानक माना जाता है. सिर्फ निराला ही नहीं, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, कालिदास, भवभूति, तुलसीदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी पर उनके लेखन को अगर निकाल दिया जाय तो देखिए कि इन रचनाकारों पर क्या बचता है..! भले ही ये स्थापनाएँ विवादास्पद रही हो लेकिन हिन्दी क्षेत्र में उपरोक्त लेखकों की वही छवियां आज भी मान्य हैं जो रामविलास शर्मा ने बनायीं. ऐसा भी नहीं था कि उनकी सारी छवियां स्वीकृत ही कर ली गयीं हों. सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल और मुक्तिबोध पर उनकी स्थापनाओं को आज तक नहीं स्वीकृत किया जा सका है. जितना अधिक और बहुआयामी लेखन रामविलास जी ने किया है, उसकी कल्पना हिन्दी में करना कठिन था. उनके जैसे दृढ़ निश्चयी और साधक आलोचक कम ही होते हैं.

रामविलास शर्मा ने अपने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन में जितने महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की है, उनमे से कोई एक ग्रंथ ही किसी भी लेखक को अमर कर देने के लिए पर्याप्त है. विश्व के सर्वश्रेष्ठ विमर्श साहित्य के समक्ष अगर किसी भारतीय लेखक को रखा जा सकता है तो वह डॉ. रामविलास शर्मा के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकता. लेकिन हमारे ही देश में न तो उनके ठीक से मूल्यांकन की कोशिश की गई और न ही उन्हें यथोचित श्रेय मिला. इसकी सबसे बड़ी वज़ह है कि हमारी हिन्दी जाति के साहित्य में शक्तिपीठों और अखाड़ों की परंपरा रही है. रामविलास जी का कोई ध्वजवाहक नहीं रहा, क्योंकि उन्होने किसी भी समकालीन लेखक-कवि को सर्वश्रेष्ठ का प्रमाण-पत्र नहीं दिया. उन्होंने अपने किसी प्रिय के सबसे प्रबल विरोधी को निकृष्ट कोटि का भी नहीं कहा. रामविलास जी ने अपने शिष्यों को विश्वविद्यालयों या अकादमियों में भी नहीं रखवाया. इसी लिए उनका परचम लेकर चलने वाले, या उनकी जन्मशताब्दी पर धरती-आकाश एक कर देने वाले अनुयायी आज इस देश में दिखाई नहीं देते.
         
भारतीय समाज-दर्शन-साहित्य पर जितना गंभीर लेखन रामविलास जी कर गये,सका मूल्यांकन अभी हुआ नहीं है. आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि एकदम अलग दिखती है. वे आलोचना कोअनेक साहित्यिक कृतियों के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने की प्रकृया  मानते थे. इसके साथ ही वे ईमानदारी से यह भी स्वीकार करते थे कि मुझे स्वान्तः सुखाय आलोचना में आनन्द आता है. रामविलास जी ने भले ही स्वान्तः सुखाय आलोचना लिखी हो, लेकिन इस बहाने भारतीय दर्शन, संस्कृति, भाषा और जातीय विकास के वे मर्म पाठकों के लिए खुलते हैं जिनके बारे में हमारी मनीषा में बहुत दयनीय जानकारी उपलब्ध थी. इसमें भी संदेह नहीं कि जैसे-जैसे इनके लेखन का मूल्यांकन होता जायेगा, हम और ऋणी होते जायेंगे.
          
रामविलास जी का व्यक्तित्व शास्त्रीय किस्म का था. और जैसी शास्त्रीयता के साथ विडंबना होती है, रामविलास जी की पहुँच भी आम साहित्यक लोगों तक नहीं हो पायी. इतना महत्वपूर्ण लेखन कुछ विशिष्ट पाठक वर्गों तक ही सीमित रहा. समकालीन साहित्यकारों की पीढ़ी उनहें पूजती ज़रूर है लेकिन वह प्रेम उनहें नहीं देती जो इस कद्दावर आलोचक को मिलना चाहिए. इसकी एक वज़ह शायद यह हो सकती है कि बाद के वर्षों में उन्होने समकालीन साहित्य से अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया था. उन्होंने अतीत पर बहुत काम किया. और इसीलिए वामपन्थी विचारक उन्हें हिन्दुत्ववादी कहने से भी नहीं हिचकिचाए.वे न तो समकालीन साहित्य पढ़ते थे और न ही उस पर कुछ लिखा. रामविलास शर्मा  प्रेमचन्द और अमृतलाल नागर को क्रमशः श्रेष्ठ कथाकार मानते थे और इनके बाद इनकी सूची में कोई नाम नहीं था. इसी तरह निराला, प्रसाद, पंत, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ अच्छे कवियों की सूची भी बन्द हो जाती थी.

रामविलास शर्मा निर्विवाद रूप से मार्क्सवादी आलोचक थे, लेकिन भारत के दूसरे मार्क्सवादी विद्वानों ने हमेशा उन पर कटाक्ष किया और एक सुविचारित दूरी बनाए रखी. प्रत्यक्षतः, इस दूरी की दो वज़हें थीं. पहली, उनकी नवजागरण की अवधारणा, और दूसरा, उनका वैदिक जीवन-साहित्य से गहरा मोह. अगर उनके समग्र चिन्तन को दो भागों में विभाजित कर दें, तो पूर्वार्ध में उनका सारा चिन्तन मार्क्सवाद के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहा है. वे समाज के विकास की उन्हीं अवधारणाओं पर चलते हैं जो मार्क्स ने दीं.

रामविलास जी के चिन्तन पर 1857 की क्रान्ति का गहरा असर रहा. और वे भारत में नवजागरण की शुरुआत इसी क्रान्ति के समय से मानते हैं. इसमें दूसरे विद्वानों को ज़्यादा गंभीर आपत्ति भी नहीं थी. समस्या की वज़ह यह थी कि डॉ. शर्मा भारतीय नवजागरण में अँग्रेजों की भूमिका को साफ तौर पर नकारते हैं, और यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि भारत में नवजागरण भारतीय ज्ञान-परंपरा से ही प्रस्फुटित हुआ है. स स्थापना के लिए प्रमाण जुटाने के लिए डॉ. शर्मा भारत के प्राचीन भाषा-परिवार, संगीत-कला और राजनीति में गहरे तक उतरते जाते हैं.

रामविलास शर्मा की यही स्थापना, भारत के दूसरे मार्क्सवादी चिन्तकों के लिए असुविधा पैदा करती है. अगर ये लोग भारतीय नवजागरण को भारतीय ज्ञान और राजनीतिक परंपरा से उद्भूत मान लेते हैं तो उनकी मार्क्सवादी आस्था पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है. यद्यपि 1857 के गदर से ठीक चार साल पहले मार्क्स खुद ये कह रहे थे--- इंग्लैण्ड ने तो भारतीय समाज का सारे का सारा ढाँचा तोड़ डाला, और उसके नवनिर्माण के कोई लक्षण अभी तक नज़र नहीं आते. इस भाँति एक तरफ तो भारतीय जनता की पुरानी दुनिया को गई है, और दूसरी तरफ नई दुनिया मिली नहीं है. इससे उसकी वर्तमान दुखपूर्ण स्थिति और भी करुण हो जाती है. और ब्रिटिश शासन के नीचे भारत अपनी सभी प्राचीन परंपराओँ, अपने पिछले इतिहास से कट जाता है” .

अपने चिन्तन के उत्तरार्ध में बैदिक साहित्य और जीवन—खासतौर पर ऋगवेद—के प्रति अतिशय मोह के कारण रामविलास शर्मा, मार्क्सवादी चिन्तकों के सीधे निशाने पर आ जाते हैं. हम सब जानते हैं कि भारत में वामपंथी चिन्तन और राजनीति की दरिद्रता का आलम यह है कि सका पूरा आधार सिर्फ दक्षिणपंथियों के विरोध पर टिका हुआ है. यद्यपि दक्षिणपंथियों की वैचारिक दरिद्रता भी किसी से छुपी हुई नहीं है. इसीलिए जब रामविलास शर्मा वैदिक संस्कृति में ही सब कुछ खोज लेने की ज़िद करते हैं तो दक्षिणपंथियों को सुविधा होती है और वामपंथियों को दुविधा.

आप सब जानते हैं कि भारत की दक्षिणपंथी शक्तियां, वैदिक और पौराणिक साहित्य पर अपना एकाधिकार मानती हैं और अपने सारे तर्कों के प्रमाण यहीं से ले आती हैं. ऐसे में वामपंथियों को वेदों से दूरी बनाए रखना, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए ज़रूरी लगा. इस नाजुक समय में जब रामविलास शर्मा ने वैदिक जीवन पर एक से बढ़कर एक ग्रंथों और निबन्धों की झड़ी लगा दी तो वामपंथी चिन्तकों ने एक तरह से उन्गें अपने समाज से बहुष्कृत ही कर दिया था.
          
रामविलास जी नौजवानों की आज की पीढ़ी को एकदम भ्रष्ट मानते थे और कहते थे कि आज की पीढ़ी में संस्कार नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. मौजूदा हालात पर उनका कहना था कि सबसे पहले बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से देश को मुक्त करो. एक नयी भाषा-नीति बनायी जानी चाहिए. हम भाषायी स्तर पर संगठित नहीं हैं, इसलिए राजनैतिक स्तर पर भी बंटे हुए हैं. इक्कीसवीं सदी के आ जाने भर से हालात् नहीं बदलेंगे, जब तक कि पूँजीवाद और साम्राज्यवादी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई तेज़ नहीं होती.
          
हमारे देश में इतिहास-लेखन की एक दिक्कत यह रही है कि जितने भी इतिहासकार हैं उन्होने सारा लेखन अँग्रेजी में किया.ये लेखक हिन्दी में लिखने वालों का उपहास भी करते हैं. अतः हिन्दी के साहित्यकारों को इतिहास लेखन की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. रामविलास शर्मा ऐसे लेखकों में अग्रणी थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ये लिखते रहे और कुछ महत्वपूर्ण काम अधूरे छोड़करचले गये. दुनिया के बड़े से बड़े लेखक से भी कुछ न कुछ छूट जाता है. इतना विपुल लेखन और विवेचन करने के बावजूद रामविलास जी से लोकजीवन छूट गया. पूर्वार्ध में नवजागरण और मार्क्सवाद में लगे रहे, और उत्तरार्ध में वैदिक जीवन उन पर छाया रहा. सबके बीच लोक कहीं फिसल गया.
         
एक महत्वपूर्ण बात यह कि उन्होने अपना सारा लेखन हिन्दी में किया, जबकि अँग्रेजी में भी उनका समान अधिकार था.इससे अपनी भाषा के प्रति उनकी आस्था और आग्रह को पहचाना जा सकता है. रामविलास जी ने हिन्दी भाषा के विकास के लिए नारे नहीं लगाये, बल्कि भाषा, संस्कृति और समाज का चरित्र-निर्माण कैसे करती है, इसका बहुत तार्किक और सोदाहरण विश्लेषण किया. भाषा-विवेचन उनके सम्पूर्ण आलोचना कर्म की मुख्य-प्रतिज्ञा है.इसी केन्द्र के चारों ओर रामविलास जी ने अपने समस्त चिन्तन की परिधि तैयार की.
        




हिन्दी क्षेत्र के लेखकों के सामने अब रामविलास शर्मा के लेखन का मूल्यांकन करने की एक बड़ी चुनौती है.हालांकि आज कोई समर्थ मूल्यांकनकर्ता हिन्दी में दिखाई नहीं पड़ रहा है. सामर्थ्य से भी बड़ी दिक्कत प्रवृत्ति की है. अतीत की ओर देखना हमारी वामपंथी मानसिकता को स्वीकार नहीं, और दक्षिणपंथियों के हाथ में उन्हें सौंप देने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा.

-    विमलेन्दु