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Saturday 9 June 2012

हुसैन जानते रहे होंगे !









( मक़बूल फिदा हुसैन की याद में )





हाथ की लकीरों पर
न उनका ज़ोर था न यकीन
जैसे इसीलिए
वो जीवन भर लकीरें खींचते रहे.

रंगों से खाली था बचपन
तो जवानी भी
कुछ कम बदरंग नहीं थी.
जैसे इसीलिए
वो रंगों को नचाते रहे
धरती से आसमान तक.

वो अपने नंगे पैरों से
खींचते रहे पृथ्वी की ऊष्मा
और उनकी कूँची
लिपिबद्ध करती रही
उत्तप्त देहों का नाद.

उनकी गोपन रंगशाला में
कुछ अभिषप्त अप्सराएँ
करती थीं नृत्य,
हुसैन एक ऋषि की तरह
उन्हें शापमुक्त करते गये
दुनिया के कैनवास पर.
 
वो जानते रहे होंगे ज़रूर
कि शक्तिहीन होना
दुनिया का सबसे बड़ा अभिषाप है,
जैसे इसीलिए
रंगों के सबसे घने अँधेरे में
उन्हें सुनाई देती थी
जवान घोड़ों की पदचाप ।

v  विमलेन्दु 

                         (सभी पेन्टिंग्स एम.एफ.हुसैन की हैं )

3 comments:

Onkar said...

बहुत सुन्दर रचना. हुसैन को आपने अच्छी श्रद्धांजलि पेश की है.

Tulika Sharma said...

शक्तिहीन होना
दुनिया का सबसे बड़ा अभिषाप है,
जैसे इसीलिए
रंगों के सबसे घने अँधेरे में
उन्हें सुनाई देती थी
जवान घोड़ों की पदचाप ....
यकीनन कविता की ये पंक्तियाँ सूक्ति समान हैं ...गहन अन्धकार में रोशनी की एक किरण भी कितनी प्रकाशवान हो सकती है..घोर नीरवता में हल्का सा स्पंदन घोड़ों की पदचाप हो सकता है ... रंगों का घना अँधेरा कितने रंग बिखेर सकता है ... ये एम एफ एच के जीवन का सार है ..एक बेहतरीन श्रद्धांजलि के लिए बधाई के पात्र है आप विमलेन्दु जी

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति.....
हुसैन साहब की कृतियों की तरह ही बेजोड....

बधाई आपको इस रचना के लिए.

सादर
अनु