डॉ. रामविलास शर्मा को याद करते हुए ‘ब्रह्मचारी’ विशेषण इस तरह से मेरे मन में आता है कि
लगभग दुर्निवार हो गया है. हमारी सामान्य चिन्तन परंपरा में ब्रह्मचारी विशेषण,
कठोर आत्मानुशासन, दिनचर्या के सुसंगत नियमन, और सर्जना के लिए प्रतिबद्ध एकाग्र
मानस के अर्थों में प्रयोग किया जाता है. रामविलास जी के अध्ययन और लेखन की शैली
ऐसी ही थी. जैसे एक हठी ऋषि तपस्या कर रहा हो. जो नित नए अँधेरों में जाता हो और
वहाँ से कोई पत्थर का टुकड़ा, थोड़ी मिट्टी या किसी अजीबोगरीब वनस्पति को उखाड़ कर
ले आता है.....फिर उसे तराश कर, गढ़ कर, सींचकर दुनिया को कुछ ऐसी चीज़ें दे देता
है, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था.
रामविलास जी अपने पढ़ने लिखने की शुरुआत ही उन लिपियों से करते हैं
जिन्हें पढ़ना संभव न था. वो उस भाषा को बूझने की कोशिश करते हैं जो अब तक अबूझ
थी. और फिर खोज निकालते हैं भारतीय भाषाओं के भीतर विलुप्त सरस्वती को. वो हिन्दी
भाषा के वंशवृक्ष को खोजते हुए प्राचीन भाषाओं के आदिवासी परिवार में पहुँच जाते
हैं और वहीं रम जाते हैं कुछ दिन. और जब
लौटते हैं तो अपने साथ संगीत की स्वरलिपियाँ, सौन्दर्य की भंगिमाएँ और चेतना के
एकदम नूतन आयाम लेकर आते हैं.
10 अक्टूबर 2011 से डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष शुरू हो
गया है. वैसे भी पिछला वर्ष हिन्दी क्षेत्र के लिए एक असाधारण वर्ष इस मायने में
भी रहा कि यह वर्ष कई बड़े साहित्यकारों का जन्म-शताब्दी वर्ष था. अज्ञेय,नागार्जुन,केदार
से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का भी यह जन्म-शताब्दी वर्ष है. इन सब लेखकों के बीच
रामविलास शर्मा इसलिए भी अलग और इकलौते हैं कि वे विशुद्ध आलोचक थे.
कुछ मित्रों की मंशा
थी कि शताब्दी वर्ष में रामविलास जी पर बातचीत का एक सिलसिला शुरू हो. मित्रों की
यह इच्छा इसलिए भी सम्मानीय है कि हमारे हिन्दी जाति में विस्मृति की समस्या कुछ
ज़्यादा ही बढ़ गयी है. मैं पुरउम्मीद हूँ कि हिन्दी समाज के समर्थ समीक्षक,
रामविलास जी पर गंभीर और उपयोगी चर्चा करेंगे. उन पर कुछ कहने की हिम्मत करना मेरे
लिए आसान नहीं था. अपनी सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर कोई मुगालता भी नहीं है. फिर
भी मुझे लगा कि वो हमारे लेखक हैं और अपनी अल्पज्ञता के साथ भी उन पर बात करने का
मेरा प्राकृतिक अधिकार है. इसी अधिकार-बोध के तहत मैं रामविलास जी पर कुछ कहने की
कोशिश कर रहा हूँ, इस निवेदन के साथ कि ये बातें, रामविलास जी पर विमर्श की सिर्फ
प्रवेशिकाएँ ही हैं.
नयी शताब्दी ने
शुरुआत में ही भारतीय साहित्य के तीन सर्वाधिक कर्मठ और ईमानदार लेखकों को हमसे
छीनलिया था. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, और अली सरदार जाफरी, भारतीय
साहित्य में मार्क्सवादी और प्रगतिशील सोच के निर्माण के प्रमुख अभियंता थे.इनकी
प्रतिबद्धता निर्विवाद थी. एक के बाद एक, इनका जाना, प्रगतिशील आंदेलन से जुड़े
साहित्यकारों के लिए तो एक आघात जैसा था ही, साथ ही भारतीय संस्कृति-साहित्य पर
गर्व करने वाला हर मानस दुखी और चिन्तित हुआ था. इस दौर में जब प्रतिबद्धताएँ
अत्यंत लचीली हो चुकी हैं, इन प्रतीक-पुरुषों का अवसान उन लोगों को भी बेचैन करता
है, जो अक्सर इनके तवे पर अपनी साहित्यिक रोटियां सेंक कर किसी तरह
साहित्यिक-जीवन-यापन कर रहे थे. रामविलास जी प्रगतिशील आंदोलन
के इतने मजबूत और अडिग स्तम्भ थे कि परवर्तियों को निश्चिन्त होने का मौका मिल जाता था.
अब यह कहने की ज़रूरत
नहीं कि डॉ.रामविलास शर्मा हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना दृष्टि के शीर्ष पुरुष
थे. यद्यपि अपने शुरुआती साहित्यिक जीवन में उन्होंने एक उपन्यास और कुछ कविताएँ
भी लिखीं लेकिन उसके बाद उनका पूरा जीवन एक समालोचक की क्रमशः विकास यात्रा था.
अपने इस सुदीर्घ जीवन में उन्होंने साहित्यिक कृतियों की आलोचना के साथ-साथ भारतीय
समाज,दर्शन,राजनीति पर भी चिन्तन किया और भारतीय वास्तुकला,पुरातत्व,संगीत और
खासतौर पर प्राचीन संगीत के आंतरिक संबन्धों की खोज का अद्वितीय कार्य किया.
रामविलास जी ने प्राचीन भारतीय भाषाओं के सामाजिक विकास में भूमिका की पड़ताल करते
हुए, भाषा-विज्ञान पर मौलिक काम किया है. निराला पर उनके लेखन को तो मानक माना जाता
है. सिर्फ निराला ही नहीं, रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द, कालिदास, भवभूति,
तुलसीदास, महावीर प्रसाद द्विवेदी पर उनके लेखन को अगर निकाल दिया जाय तो देखिए कि
इन रचनाकारों पर क्या बचता है..! भले ही ये स्थापनाएँ विवादास्पद रही हो
लेकिन हिन्दी क्षेत्र में उपरोक्त लेखकों की वही छवियां आज भी मान्य हैं जो
रामविलास शर्मा ने बनायीं. ऐसा भी नहीं था कि उनकी सारी छवियां स्वीकृत ही कर ली
गयीं हों. सुमित्रानन्दन पंत, राहुल सांकृत्यायन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल और
मुक्तिबोध पर उनकी स्थापनाओं को आज तक नहीं स्वीकृत किया जा सका है. जितना अधिक और
बहुआयामी लेखन रामविलास जी ने किया है, उसकी कल्पना हिन्दी में करना कठिन था. उनके
जैसे दृढ़ निश्चयी और साधक आलोचक कम ही होते हैं.
रामविलास शर्मा ने अपने सुदीर्घ साहित्यिक जीवन में जितने महत्वपूर्ण
ग्रंथों की रचना की है, उनमे से कोई एक ग्रंथ ही किसी भी लेखक को अमर कर देने के
लिए पर्याप्त है. विश्व के सर्वश्रेष्ठ विमर्श साहित्य के समक्ष अगर किसी भारतीय
लेखक को रखा जा सकता है तो वह डॉ. रामविलास शर्मा के अतिरिक्त कोई और नहीं हो
सकता. लेकिन हमारे ही देश में न तो उनके ठीक से मूल्यांकन की कोशिश की गई और न ही
उन्हें यथोचित श्रेय मिला. इसकी सबसे बड़ी वज़ह है कि हमारी हिन्दी जाति के
साहित्य में शक्तिपीठों और अखाड़ों की परंपरा रही है. रामविलास जी का कोई ध्वजवाहक
नहीं रहा, क्योंकि उन्होने किसी भी समकालीन लेखक-कवि को सर्वश्रेष्ठ का
प्रमाण-पत्र नहीं दिया. उन्होंने अपने किसी प्रिय के सबसे प्रबल विरोधी को निकृष्ट
कोटि का भी नहीं कहा. रामविलास जी ने अपने शिष्यों को विश्वविद्यालयों या
अकादमियों में भी नहीं रखवाया. इसी लिए उनका परचम लेकर चलने वाले, या उनकी
जन्मशताब्दी पर धरती-आकाश एक कर देने वाले अनुयायी आज इस देश में दिखाई नहीं देते.
भारतीय
समाज-दर्शन-साहित्य पर जितना गंभीर लेखन रामविलास जी कर गये,सका मूल्यांकन अभी हुआ
नहीं है. आलोचना को लेकर उनकी दृष्टि एकदम अलग दिखती है. वे आलोचना को “ अनेक साहित्यिक कृतियों के अन्तर्सम्बन्धों को पहचानने की प्रकृया “ मानते थे. इसके साथ ही वे
ईमानदारी से यह भी स्वीकार करते थे कि “ मुझे स्वान्तः सुखाय
आलोचना “ में आनन्द आता है. रामविलास जी ने भले ही
स्वान्तः सुखाय आलोचना लिखी हो, लेकिन इस बहाने भारतीय दर्शन, संस्कृति, भाषा और
जातीय विकास के वे मर्म पाठकों के लिए खुलते हैं जिनके बारे में हमारी मनीषा में
बहुत दयनीय जानकारी उपलब्ध थी. इसमें भी संदेह नहीं कि जैसे-जैसे इनके लेखन का
मूल्यांकन होता जायेगा, हम और ऋणी होते जायेंगे.
रामविलास जी का
व्यक्तित्व शास्त्रीय किस्म का था. और जैसी शास्त्रीयता के साथ विडंबना होती है,
रामविलास जी की पहुँच भी आम साहित्यक लोगों तक नहीं हो पायी. इतना महत्वपूर्ण लेखन
कुछ विशिष्ट पाठक वर्गों तक ही सीमित रहा. समकालीन साहित्यकारों की पीढ़ी उनहें
पूजती ज़रूर है लेकिन वह प्रेम उनहें नहीं देती जो इस कद्दावर आलोचक को मिलना
चाहिए. इसकी एक वज़ह शायद यह हो सकती है कि बाद के वर्षों में उन्होने समकालीन
साहित्य से अपने आपको बिल्कुल अलग कर लिया था. उन्होंने अतीत पर बहुत काम किया. और
इसीलिए वामपन्थी विचारक उन्हें हिन्दुत्ववादी कहने से भी नहीं हिचकिचाए.वे न तो
समकालीन साहित्य पढ़ते थे और न ही उस पर कुछ लिखा. रामविलास शर्मा प्रेमचन्द और अमृतलाल नागर को क्रमशः श्रेष्ठ
कथाकार मानते थे और इनके बाद इनकी सूची में कोई नाम नहीं था. इसी तरह निराला,
प्रसाद, पंत, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन के साथ अच्छे कवियों की सूची भी बन्द
हो जाती थी.
रामविलास शर्मा निर्विवाद रूप से मार्क्सवादी आलोचक थे, लेकिन भारत के
दूसरे मार्क्सवादी विद्वानों ने हमेशा उन पर कटाक्ष किया और एक सुविचारित दूरी
बनाए रखी. प्रत्यक्षतः, इस दूरी की दो वज़हें थीं. पहली, उनकी नवजागरण की अवधारणा,
और दूसरा, उनका वैदिक जीवन-साहित्य से गहरा मोह. अगर उनके समग्र चिन्तन को दो
भागों में विभाजित कर दें, तो पूर्वार्ध में उनका सारा चिन्तन मार्क्सवाद के
इर्द-गिर्द केन्द्रित रहा है. वे समाज के विकास की उन्हीं अवधारणाओं पर चलते हैं
जो मार्क्स ने दीं.
रामविलास जी के चिन्तन पर 1857 की क्रान्ति का गहरा असर रहा. और वे
भारत में नवजागरण की शुरुआत इसी क्रान्ति के समय से मानते हैं. इसमें दूसरे
विद्वानों को ज़्यादा गंभीर आपत्ति भी नहीं थी. समस्या की वज़ह यह थी कि डॉ. शर्मा
भारतीय नवजागरण में अँग्रेजों की भूमिका को साफ तौर पर नकारते हैं, और यह सिद्ध
करने की कोशिश करते हैं कि भारत में नवजागरण भारतीय ज्ञान-परंपरा से ही प्रस्फुटित
हुआ है. स स्थापना के लिए प्रमाण जुटाने के लिए डॉ. शर्मा भारत के प्राचीन
भाषा-परिवार, संगीत-कला और राजनीति में गहरे तक उतरते जाते हैं.
रामविलास शर्मा की यही स्थापना, भारत के दूसरे मार्क्सवादी चिन्तकों
के लिए असुविधा पैदा करती है. अगर ये लोग भारतीय नवजागरण को भारतीय ज्ञान और
राजनीतिक परंपरा से उद्भूत मान लेते हैं तो उनकी मार्क्सवादी आस्था पर प्रश्नचिन्ह
लग जाता है. यद्यपि 1857 के गदर से ठीक चार साल पहले मार्क्स खुद ये कह रहे थे---“ इंग्लैण्ड ने तो भारतीय समाज का सारे का सारा ढाँचा तोड़ डाला, और
उसके नवनिर्माण के कोई लक्षण अभी तक नज़र नहीं आते. इस भाँति एक तरफ तो भारतीय
जनता की पुरानी दुनिया को गई है, और दूसरी तरफ नई दुनिया मिली नहीं है. इससे उसकी
वर्तमान दुखपूर्ण स्थिति और भी करुण हो जाती है. और ब्रिटिश शासन के नीचे भारत
अपनी सभी प्राचीन परंपराओँ, अपने पिछले इतिहास से कट जाता है” .
अपने चिन्तन के उत्तरार्ध में बैदिक साहित्य और जीवन—खासतौर पर ऋगवेद—के
प्रति अतिशय मोह के कारण रामविलास शर्मा, मार्क्सवादी चिन्तकों के सीधे निशाने पर
आ जाते हैं. हम सब जानते हैं कि भारत में वामपंथी चिन्तन और राजनीति की दरिद्रता
का आलम यह है कि सका पूरा आधार सिर्फ दक्षिणपंथियों के विरोध पर टिका हुआ है.
यद्यपि दक्षिणपंथियों की वैचारिक दरिद्रता भी किसी से छुपी हुई नहीं है. इसीलिए जब
रामविलास शर्मा वैदिक संस्कृति में ही सब कुछ खोज लेने की ज़िद करते हैं तो
दक्षिणपंथियों को सुविधा होती है और वामपंथियों को दुविधा.
आप सब जानते हैं कि भारत की दक्षिणपंथी शक्तियां, वैदिक और पौराणिक
साहित्य पर अपना एकाधिकार मानती हैं और अपने सारे तर्कों के प्रमाण यहीं से ले आती
हैं. ऐसे में वामपंथियों को वेदों से दूरी बनाए रखना, अपनी पहचान बनाए रखने के लिए
ज़रूरी लगा. इस नाजुक समय में जब रामविलास शर्मा ने वैदिक जीवन पर एक से बढ़कर एक
ग्रंथों और निबन्धों की झड़ी लगा दी तो वामपंथी चिन्तकों ने एक तरह से उन्गें अपने
समाज से बहुष्कृत ही कर दिया था.
रामविलास जी
नौजवानों की आज की पीढ़ी को एकदम भ्रष्ट मानते थे और कहते थे कि आज की पीढ़ी में
संस्कार नाम की कोई चीज़ है ही नहीं. मौजूदा हालात पर उनका कहना था कि सबसे पहले
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से देश को मुक्त करो. एक नयी भाषा-नीति बनायी जानी चाहिए.
हम भाषायी स्तर पर संगठित नहीं हैं, इसलिए राजनैतिक स्तर पर भी बंटे हुए हैं.
इक्कीसवीं सदी के आ जाने भर से हालात् नहीं बदलेंगे, जब तक कि पूँजीवाद और
साम्राज्यवादी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई तेज़ नहीं होती.
हमारे देश में
इतिहास-लेखन की एक दिक्कत यह रही है कि जितने भी इतिहासकार हैं उन्होने सारा लेखन
अँग्रेजी में किया.ये लेखक हिन्दी में लिखने वालों का उपहास भी करते हैं. अतः
हिन्दी के साहित्यकारों को इतिहास लेखन की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ी. रामविलास शर्मा
ऐसे लेखकों में अग्रणी थे. अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ये लिखते रहे और कुछ
महत्वपूर्ण काम अधूरे छोड़करचले गये. दुनिया के बड़े से बड़े लेखक से भी कुछ न कुछ
छूट जाता है. इतना विपुल लेखन और विवेचन करने के बावजूद रामविलास जी से लोकजीवन
छूट गया. पूर्वार्ध में नवजागरण और मार्क्सवाद में लगे रहे, और उत्तरार्ध में
वैदिक जीवन उन पर छाया रहा. सबके बीच लोक कहीं फिसल गया.
एक महत्वपूर्ण बात यह
कि उन्होने अपना सारा लेखन हिन्दी में किया, जबकि अँग्रेजी में भी उनका समान
अधिकार था.इससे अपनी भाषा के प्रति उनकी आस्था और आग्रह को पहचाना जा सकता है.
रामविलास जी ने हिन्दी भाषा के विकास के लिए नारे नहीं लगाये, बल्कि भाषा, संस्कृति
और समाज का चरित्र-निर्माण कैसे करती है, इसका बहुत तार्किक और सोदाहरण विश्लेषण
किया. भाषा-विवेचन उनके सम्पूर्ण आलोचना कर्म की मुख्य-प्रतिज्ञा है.इसी केन्द्र
के चारों ओर रामविलास जी ने अपने समस्त चिन्तन की परिधि तैयार की.
हिन्दी क्षेत्र के
लेखकों के सामने अब रामविलास शर्मा के लेखन का मूल्यांकन करने की एक बड़ी चुनौती
है.हालांकि आज कोई समर्थ मूल्यांकनकर्ता हिन्दी में दिखाई नहीं पड़ रहा है.
सामर्थ्य से भी बड़ी दिक्कत प्रवृत्ति की है. अतीत की ओर देखना हमारी वामपंथी
मानसिकता को स्वीकार नहीं, और दक्षिणपंथियों के हाथ में उन्हें सौंप देने से बड़ा
अनर्थ हो जायेगा.
2 comments:
शेर कब रोते और शिकायत करते हैं.अच्छा लेख जिसमें रामविलास शर्मा के विचारों और जीवन को संक्षेप में दिया गया है.
रामविलास जी पर भी लेख अच्छा लगा...
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