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Saturday 26 November 2011

चलो दिलदार चलें...!



  विवाह,पारिवारिक संस्था के लिए सबसे महत्वपूर्ण और परिवर्तनकारी घटना होती है.एक नया सदस्य परिवार का हिस्सा बनता है तो ज़रूरी तौर पर पारिवारिक परिधि में कुछ परिवर्तन हो ही जाते हैं.परिवार के वृत्त की तृज्या बदल जाती है और केन्द्र पर बनने वाले कोण भी बदल जाते हैं.पति-पत्नी-माता-पिता-सास-ससुर-ननद-भौजाई के बीच के अंतर्संबन्धों के नये समीकरण तैयार होते है 

इन अचर राशियों के अलावा इस समीकरण में कुछ चर राशियां भी होती हैं,जिनका मान समय के विस्तार मे निकलता चलता है.ये चर राशियां हैं-प्रेम,जलन,ईर्ष्या,सम्मान,उत्साह,यश-अपयश और संमृद्धि.इन राशियों के मान इस बात पर निर्भर करते हैं कि परिवार की अचर राशियों ने आपस मे कैसे गुणात्मक संबंध बनाये.

शादियों के इस मौसम में मेरे एक परिचित के बेटे की शादी हुई.चलन के मुताबिक सारे इन्तज़ामात संविदा के तहत थे और चकाचक थे.ज़ाहिर है कि घर में मेहमानों की भीड़-भाड़ थी.और ऐसे में कितना भी बड़ा घर हो,छोटा ही पड़ने लगता है.बारात लौटने के बाद घर की चहल-पहल बेटे-बहू के आराम के लिए बाधक लगी और सर्व-सम्मति से नव-युगल के ठहरने का इंतज़ाम शहर के एक होटल मे कर दिया गया.वर-वधू रिसेप्शन के बाद उठकर सीधे होटल गये जहां होटल मैनेजर ने उनके सुहागरात की व्यवस्था भी करवा दी थी. कमरे मे रूमानी संगीत और फूल-पत्तियो की व्यवस्था एक्स्ट्रा पेमेंट पर कर देने में होटल मैनेज़र उत्साहपूर्वक तैयार हो गया. अगले दिन दिन नव-युगल हनीमून पर गोवा के लिए निकल जाने वाले थे.

अब इस तरह के विवाह जहां सारी व्यवस्था ठेके पर होती है-बेटा-बहू अगले ही दिन हनीमून पर चले जाते हैं-मेहमान केवल ‘व्यवहार’ देने आते हैं- ऐसे विवाह समारोहों से पारिवारिक और सामाजिक जीवन कितने समरस और मजबूत होते होंगे, इसका अंदाज़ा हम लगा सकते हैं.

इस जनपद के लिए यह एक नये तरह का वाकया था. उत्सव मे शामिल लोगों ने,उत्सव मे शामिल नही हुए लोगों को जिज्ञाशापूर्ण ढंग से यह सूचना दी.इस घटना के निहितार्थ वर्तमान पारिवारिक जीवन और भावी दाम्पत्य मे खोजे जा सकते हैं.हनीमून पर जाना पहले उच्चवर्ग मे ही प्रचलित था.लेकिन अब यह मध्यवर्ग और निम्नवर्ग की परंपरा का एक हिस्सा बन गया है.घर के लोग महीनों पहले से विवाह की तैयारी मे जुटते हैं.बेटा शादी के दो दिन पहले ‘job’ से घर आता है और शादी के अगले दिन बीवी के साथ हनीमून पर चला जाता है, फिर वहीं से बीवी मायके चली जाती है.शादी के बाद जो दस-बारह घंटे परिवार और रिश्तेदारों के साथ बिताने का अवसर बेटे के पास होता है,उसे वह अपने कमरे में पत्नी के साथ आराम करने में बिताना ज़्यादा पसंद करता है.

वैवाहिक अनुष्ठानों मे एक अद्यतन चलन शुरू हुआ है-‘एकाउण्ट पेयी’ विवाहों का.इसमे वर और कन्या-दोनो पक्षों से शगुन,उपहारों आदि की आवश्यक सामग्री का नकद भुगतान, विवाह के पहले ही एक-दूसरे के बैंक खातों में पहुँचा दिया जाता है. इससे विवाह की रस्मो में होने वाले श्रम की बचत हो जाती है,और किसी तरह का व्यतिक्रम होने की गुंजाइश भी नहीं बचती...कुछ समय पहले एक विवाह के बाद एक ऐसा नतीज़ा सामने आया जिसने थोड़ा चौंका दिया.एकाउण्ट-पेयी शादी के बाद हनीमून से बेटा-बहू घर आये.बेटे ने माँ से कहा कि बहू को कुछ दिन के लिए माँ के पास रहने के लिए छोड़ देते हैं.माँ ने यह कहते हुए मना कर दिया कि बहू को भी अपने साथ ले जाओ,इसे मैं यहां कैसे सम्भाल पाऊँगी !

ये चलन हमारे आधुनिक पारिवारिक गठन और रिश्तों में आये बदलाव की ओर स्पष्ट इशारे करते हैं.निश्चित तौर पर यह नवीन मानवीय स्वार्थपरकता का अभिजात्य रूप है.यह पारिवारिक जीवन के विखंडन और लगातार बढ़ रहे एकाकीपन की सार्वजनिक स्वीकृति है.

हनीमून की परंपरा के पीछे सर्वाधिक प्रचलित मान्यता यह है कि इससे नवविवाहित जोड़े को एक-दूसरे को जानने का एकांत और पर्याप्त अवसर मिलता है.यहां यह भी ध्यान दीजिये कि पति-पत्नी की उत्सुकता एक-दूसरे को जान लेने मे है, एक-दूसरे का होने मे  नहीं ! मेरे ख़याल में विवाह एक-दूसरे का होने के लिए होता है; एक-दूसरे का ही क्यूँ, तीसरे-चौथे-पाँचवे-पूरे परिवार का होने के लिए होता है. और आजकल तो विवाह तय हो जाने और विवाह हो जाने के बीच ही एक-दूसरे को जान लेने की कवायद शुरू हो जाती है...मुझे बताइये,एक-दूसरे का हो जाना, जानने के लिए ज़यादा आसान नहीं है क्या ?

मेरी एक कवियत्री-मित्र स्वरांगी साने ने बहुत पहले मुझसे कहा था,कि नज़दीकी रिश्तों में एक-दूसरे को जानने की प्रक्रिया ऐसी होनी चहिए,जैसे प्याज के छिलके एक-एक करके उतार रहे हों—धैर्य के साथ,समय लेकर !
हनीमून के बहाने एक-दूसरे को जानने के लिए जो पर्याप्त समय लिया जाता है, मुझे लगता है वह बैक फायर करता है.एकाध हफ्ते में ही जब लोग एक-दूसरे का सब कुछ जान लेते हैं तो आगे के जीवन में निन्दा के लिए इतना अधिक समय बच रहता है कि उससे बचना मुश्किल हो जाता है. पारिवारिक दबाव और संकोच को तो आप पहले ही छोड़ आये हैं ! यही वज़ह है कि जो विवाह गहरे आनन्द और सुख-दुख सहने की क्षमता में आश्चर्यजनक वृद्धि कर सकता था,वह आपको धीरे-धीरे अवसाद और अलगाव की ओर ले जाता है. 
  • विमलेन्दु

Wednesday 23 November 2011

कविता : ' डर '


वह डरा हुआ है इन दिनों   

एक कद्दावर पेड़ है वह
और अपने काठ से डरा हुआ है

वह एक समुद्र है
उसे पानी से बेहद डर लगता है इन दिनों.
ऊँचाई से डरा हुआ
एक पहाड़ है वो.

जो चीज़े जितनी सरल दिखती थीं 
शुरू में उसे
वही उसकी
सबसे मुश्किल पहेलियां हैं अब
जैसे नींद  जैसे चिड़ियां
जैसे स्त्रियां  जैसे प्रेम  जैसे हँसी.

जिसकी धार में वह उतर गया था
बिना कुछ पूछे
उस नदी को ही 
अब नहीं था उस पर भरोसा.

जिनका गहना था वो
वही अब परखना चाह रहे थे उसका खरापन
नये सिरे से.
जिन्होंने काजल की तरह आँजा था बरसों उसे
उन्हें अब उसके 
काले रंग पर था एतराज़.

जिनका सपना था वह 
वही उसके जीवन में 
सबसे निर्दयी सच की तरह आये.

मित्रों  केबीच
वह संदिग्ध माना जाता है
तो शत्रु बेहद इमानदार रहे हैं उसके साथ.

उसकी नींद में आते जाते लोगों ने
एक बच्चा देखा है छुपा हुआ
जो सपने में डर जाता है अक्सर.

उसके पिता कहते थे 
कि वह सपने भी डर डर के देखता है.

Sunday 20 November 2011

भविष्य की टीम गढ़ने का समय...!


                 यह समय भारतीय क्रिकेट के लिए उत्तेजना-विहीन सफलता का है. इंग्लैण्ड की सफेद धुलाई के बाद बेस्टइंडीज के खिलाफ शानदार सफलता जारी है. भारत के घरेलू क्रिकेट का भी सीज़न चल रहा है, जिसमे लक्षित खिलाड़ी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं. यह सब बिना कोई उद्वेलन पैदा किए हो रहा है. न तो बड़े-बड़े वादे हैं , न ही दावे. एक प्रशान्त समुद्र की तरह पूरा परिदृश्य दिख रहा है. उम्मीदों का अत्यधिक दबाव झेलने वाली भारतीय टीम इस समय उन्मुक्त होकर खेल रही है. घरेलू मौसम, मैदान और दर्शकों की मौजूदगी टीम के लिए आसान और रचनात्मक वातावरण पैदा कर रही है.
               यह एक दुर्लभ मौका है. इसमें भरतीय क्रिकेट में कुछ नवाचार किए जाने की पर्याप्त गुंजाइश है और आवश्यकता भी. यह समय भविष्य की भारतीय टीम गढ़ने का है. एक नयी पौध को टीम में रोपा जाना बेहद ज़रूरी है, और उसके लिए सबसे माकूल हालात हैं. पुराने सितारे यद्यपि निरर्थक नहीं हुए हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश अपना सर्वश्रेष्ठ और सबकुछ भारतीय क्रिकेट को दे चुके हैं. सचिन, द्रविड़ और लक्ष्मण के कैरियर का अब आखिरी दौर है.हालांकि फिलहाल ये शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन एक-दो श्रृंखलाओं की असफलता इन्हें संन्यास के फैसले तक पहुंचा सकती है. ज़हीर खान और हरभजन के कैरियर की अनिश्चितताओं की भी अलग-अलग वज़हे हैं.
                जाहिर है कि भारतीय क्रिकेट प्रेमी नहीं चाहेंगे कि अपनी टीम का हश्र भी  ऑस्ट्रेलियाई टीम जैसा हो. याद ही होगा कि ऑस्ट्रेलिया की टीम से जब एक साथ मैक्ग्राथ,वार्न, हेडन,गिलेस्पी,लैंगर आदि खिलाड़ी निकल गये तो वह कितनी सामान्य टीम नज़र आने लगी थी. लगभग दो दशकों की ऑस्ट्रेलियाई बादशाहत इन खिलाड़ियों के जाने के बाद खत्म हो गयी. लगभग तीन साल हो गये, लेकिन ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेट अपने उस रुतबे को नहीं बना पा रहा है. यह तब हुआ है जबकि ऑस्ट्रेलिया क्रिकेट प्रशासन अपनी भविष्य-दृष्टि को लेकर बहुत सजग रहता है, और प्रशंसित होता रहा है. उनके यहां क्रिकेट के साथ विज्ञान जैसा बर्ताव किया  जाता है. हमारे देश जैसी भावुकता उनके यहां क्रिकेट ही नहीं किसी भी खेल में नहीं होती.
                  क्रिकेट की प्रकृति देखें तो पता चलता है कि यह सिर्फ शारीरिक कौशल का खेल नहीं है. इसका एक मनोवैज्ञानिक धरातल भी होता है. यह एक लम्बी अवधि का खेल है.इसीलिए इसमें मनोविज्ञान के लिए ज़गह बनती है. यद्यपि हमारे देश के क्रिकेट प्रशासक अपनी दूरदृष्टि और नियोजन के लिए कभी प्रशंसित नहीं होते , फिर भी एक न्यूनतम समझ की अपेक्षा उनसे करने में कोई हर्ज़ नहीं है. क्रिकेट में जो मनोवैज्ञानिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, उसकी भूमिका योजना-निर्माण में ही अधिक दिखती है. दौरों का निर्धारण, मैदानों का चयन, विपक्षी के मुताबिक खिलाड़ियों  का चयन, बड़ी प्रतियोगिताओँ से पहले खिलाड़ियों का अभ्यास और विश्राम जैसी योजनाओँ को बनाते समय क्रिकेट का मनोवैज्ञानिक पहलू प्रधान हो जाता है. इसमें खिलाड़ियों की भूमिका कम होती है. यद्यपि खेल के दौरान खेल का एक बड़ा हिस्सा खिलाड़ियों के मन में ही खेला जा रहा होता है. पर योजना निर्माण में टीम का थिंक-टैंक ही आगे होता है. थिंक-टैंक में प्रत्यक्षतः कोच,कप्तान और सहायक स्टाफ होता है. लेकिन इसका दायरा बड़ा होता है. परोक्ष रूप से इसमें चयनकर्ता, प्रशासक, कार्यक्रम निर्धारण समिति के सदस्य बड़ी भूमिकाएँ निभाते हैं.
                   अतः यह ज़रूरी है कि क्रिकेट से जुड़े चयनकर्ता और प्रशासक दूरदर्शी, क्रिकेट की समझ रखने वाले और भेदभाव से परे हों. हमारे देश में ये योग्यताएँ पूरी की जाती हैं ,ऐसा कहने पर बात विश्वसनीय नहीं लगेगी. देश की शीर्ष क्रिकेट संस्था BCCI में ज़्यादातर राजनेताओं और व्यापारियों का कब्ज़ा रहा है. ऐसा नहीं है कि लोग अक्षम थे, पर उनके कौशल ने कुछ दूसरी उपलब्धियां दिलायीं. भारतीय क्रिकेट बोर्ड दुनिया का सबसे ज्यादा पैसेवाला और रसूखदार  बोर्ड बन बैठा. इसी बीच भारत ने तीन विश्वस्तरीय खिताब के साथ कुछ और बड़ी प्रतियोगिताएँ जीतीं. लेकिन खेल में उसका एकछत्र दबदबा उस तरह का कभी नहीं बन पाया, जैसा कि एक ज़माने में वेस्टइंडीज का था या हाल के दशकों में ऑस्ट्रेलिया का रहा.
                    क्रिकेट प्रशासन में नेताओं  और व्यापारियों के वर्चस्व के कारण एक तटस्थवाद दिखाई पड़ता है. भारतीय क्रिकेट में जब भी दुर्दिन आयें तो हमारा क्रिकेट बोर्ड इस बात से संतुष्ट दिखा कि उसका राजस्व निरंतर बढ़ रहा है, और उसी के दम पर उसका दबदबा भी विश्व-क्रिकेट पर कायम है.अपने देश के पूर्व महान खिलाड़ियों की उपेक्षा और उनकी सेवाएँ  न लेने की परंपरा भी सर्वविदित है. आप देखिए,हमारे देश के कितने बड़े-बड़े खिलाड़ी खेल छोड़ने के बाद दूसरी संस्थाओं से जुड़ जाते है. बोर्ड से उनके टकराव के किस्से भी उजागर हैं. कभी कभार क्रिकेट बोर्ड ने अगर अपने किसी चहेते को कोई ज़िम्मेदारी दी भी तो उसकी क्षमता हमेशा सवालों के घेरे में रही. इस पक्ष पर क्रिकेट बोर्ड को ध्यान देना चाहिए.
                   भारतीय टीम में इस समय कई बदलावों की संभावनाएँ दिखाई पड़ रही हैं जो प्रासंगिक भी हैं. इन्हें बदवाव कहना भी शायद ठीक नहीं होगा. और उस समय तो कतई नहीं जब टीम सफल हो रही हो. पर यह भी सच्चाई है कि महान भविष्य की रचना के लिए ज़रूरी क़दम, सफलता के आत्मविश्वास के बीच ही उठाये जाते हैं. इसलिए अगर इसे इस तरह कहें कि टीम के पुनर्गठन की ज़रूरत है तो ज़्यादा ठीक रहेगा.
                   ऐसा लग रहा है कि कुछ समय में हम टीम की गेंदबाजी विभाग की शक्ल पूरी तरह बदली हुई पायेंगे. चोटों से परेशान जहीर खान की अगर टीम में वापसी हो पाती है तो उनके इर्द-गिर्द तेज़ गेंदबाजों का एक नया संयोजन तैयार किया जाना चाहिए. वरुण एरोन, उमेश यादव, आर. विनय कुमार और इशान्त शर्मा ने वर्षों बाद भारतीय टीम को स्थायी और पूर्ण आश्वस्ति दी है. इन गेंदबाजों के पास भारतीय परिस्थितियों में भी 140 कि.मी. प्रति घंटे से अधिक की रफ्तार है, जो विदेशी पिचों पर और ख़तरनाक और उत्तेजक साबित होगी. प्रवीण कुमार अपनी मध्यम गति और स्विंग के सहारे परिस्थितियों के मुताबिक उपयोग किये जा सकते हैं. क्रिकेट के व्यस्त कार्यक्रम और चोटों के मद्देनज़र अब भारत के पास भी रोटेशन नीति को अपनाने की सुविधा बन रही है. स्पिन आक्रमण में हरभजन के एकछत्र राज्य को प्रज्ञान ओझा, आर. अश्विन , अमित मिश्रा और राहुल शर्मा ने गंभीर चुनौती दी है. इन नये खिलाड़ियों के पास प्रतिभा भी है और जोश भी. जैसे-जैसे इनका अनुभव बढ़ रहा है, इनकी धार और तेज़ हो रही है. तो यह है भारतीय गेंदबाजी का नया चेहरा--उमेश यादव,वरुण एरोन,आर.अश्विन, प्रज्ञान ओझा और प्रवीण कुमार.
                 बल्लेबाजी में बिना कोई बड़ा फेरबदल किए नये खिलाड़ियों की ज़गह बनायी जा सकती है. विराट कोहली, सुरेश रैना, अजिन्क्य रहाणे और रोहित शर्मा की ज़गह टेस्ट और एकदिवसीय टीम में पक्की करने की ज़रूरत है. ये सभी खिलाड़ी भारतीय टीम का भविष्य हो सकते ैहैं. टेस्ट टीम में सचिन, द्रविण और लक्ष्मण के विकल्प अब खोजे जाने चाहिए. जहां तक सचिन का सवाल है, उन्होने भारतीय टीम को इतना कुछ दिया है कि अब उन्हें कुछ देने की बारी है. यह उन्हीं पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि अब अपने आगे के कैरियर का प्रबंधन वो किस तरह से करते हैं. इन तीनों खिलाड़ियों को बीच-बीच में विश्राम देकर नये खिलाड़ियों को अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव देना होगा. एक मैच में किसी एक को विश्राम देकर एक नये खिलाड़ी पर भरोसा जताना ठीक रहेगा. टीम प्रबंधन को युवराज सिंह को सहेजने की ज़रूरत है. युवराज अकूत प्रतिभा वाले खिलाड़ी हैं, लेकिन वो अपने आप को सम्भाल नहीं पा रहे हैं. कप्तान धोनी यद्यपि उन पर भरोसा दिखाते हैं, लेकिन उन्हें दूसरे वरिष्ट खिलाड़ियों और चयनकर्ताओं के सहयोग की भी ज़रूरत है.
                    मेरी वर्षों पुरानी एक इच्छा रही है कि काश हम किसी पाकिस्तानी गेंदबाज को अपना गेंदबाजी कोच बना पाते. अकरम, वक़ार या अब्दुर क़ादिर हो सकें तो क्या बात है.पाकिस्तान की मिट्टी-पानी में कुछ तो है कि वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ गेंदवाज पैदा करती है, वह भी एकदम दयनीय परिस्थितियों में.
                     तीन साल बाद अगला विशवकप है. इस बीच विभिन्न देशों के खिलाफ़ भारत श्रृंखलाएं खेलेगा. अगला दौरा ऑस्ट्रेलिया का है. अगर इस समय भारतीय टीम एक नया संयोजन बना पाने में सफल रहती है तो विश्वकप तक हर खिलाड़ी के पास कम से कम 90-100 मैचों का अनुभव हो जायेगा. हम भाग्यशाली हैं कि हमारे पास धोनी जैसा कप्तान है. गंभीर, सहवाग,युवराज के साथ मिलकर धोनी एक सौम्य आक्रामकता की रचना करते हैं.यह भारतीय क्रिकेट के लिए सपना देखने और उसे सच करने का समय है.

Sunday 13 November 2011

मीडिया की चलनी में कितने छेद..!


       पिछले दिनों जब जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने मीडिया के धरम-करम पर सवाल उठाये तो स्वयंभू मीडिया की सहिष्णुता सबके सामने आ गयी. प्रतिक्रिया में मीडिया न्यायपालिका के साथ-साथ देश के सभी चिन्तनशील लोगों के सामने चुनौती की तरह आ खड़ा हुआ. संभवतः यह पहली बार हुआ था कि किसी ने इतनी महत्वपूर्ण ज़गह से मीडिया पर सवाल उठाये थे. जस्टिस काटजू कोई अनाड़ी  नहीं हैं और न शिगूफेबाज़. न्यायिक सेवा के इतने वर्षों के अनुभव और अभ्यास ने उनमें तथ्यों के साथ निर्णय देने की आदत तो विकसित कर ही दी है. उनकी बात इसलिए भी और ज़्यादा मानीख़ेज हो गयी है कि वो हाल ही में प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष बनाये गए है. प्रेस कौंसिल के दायरे में फिलहाल प्रिंट मीडिया को ही रखा गया है.
       जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के पुराने हस्तक्षेपों और वक्तव्यों को देखें तो वो इस तरह के आदमी नहीं लगते जो यथास्थितिवाद के समर्थक हों. कोई बड़ा पद भर पाकर फूलकर कुप्पा होने वाले लोगों में से वो नहीं हैं. तो यह ज़रूरी था कि जिस मीडिया को रेगुलेट करने की ज़िम्मेदारी उन्होने सम्भाली है, पहले उसके चरित्र को समझ लें. इसी प्रयास में उन्होने एक लंबा वक्तव्य दिया. इस वक्तव्य में मीडिया के इतिहास, भूमिका और समकालीन परिदृश्य में उसके क्रिया-कलापों की बात की गयी है. उनके वक्तव्य के उस अंश को देखते हैं जिस पर मीडियाकर्मी और संस्थान भड़क उठे है. वो कहते हैं---“ मेरी राय में भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन (सकारात्मक तौर पर) जन-विरोधी हैं. भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं----पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है....दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है.....तीसरा, मीडिया हमें दिखा क्या  रहा है.”
                यहां जस्टिस काटजू ने मीडिया पर तीन महत्वपूर्ण सवाल उठाये है. इन पर बात करने से पहले हम यह जान लें कि वो कौन सी बात है जिससे मीडिया बिफर गया है. क्योंकि इन सवालों से मीडिया की सेहत ज़्यादा बिगड़ने वाली नहीं है. गाहे-बगाहे, दबी ज़बान से ही सही, मीडिया से ऐसे सवाल पूछे जाते रहे हैं. बवाल इस बात से मचा है कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू चाहते हैं कि कौंसिल के दायरे में इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी लाया जाये, मीडिया की निगरानी की जाये, और न सिर्फ निगरानी की जाये बल्कि उसे दण्डित करने का भी अधिकार हो.
        इस जायज़ माग पर चौथे खम्भे को तो थर्राना ही था. मीडिया में यह खुशफहमी सदियों पुरानी है कि लोकतंत्र के बाकी के तीन पाये किसी काम के नहीं हैं. कि लोकतंत्र उसी पर टिका है. वैसे हिन्दुस्तान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें मीडिया और लोकतंत्र के घटकों के बीच के सम्बन्ध हमेशा वैध नहीं रहे हैं. चौथे स्तम्भ की अवधारणा मूल रूप से हमारे यहां की नहीं है. इसका जन्म यूरोप में उन दिनों हुआ था जब यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक प्रकृया अपने शैशवकाल में थी. तब सिर्फ प्रिंट मीडिया था और उसे एक सजग प्रहरी की भूमिका में स्वीकार कर लिया गया था. हमारे देश में तब तक राजशाही ही चल रही थी. और मीडिया के किसी भी रूप का कहीं दूर-दूर तक अता-पता पता नहीं था. तो एक तरह से यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि लोकतंत्र, मीडिया और चौथा-स्तम्भ जैसी अवधारणाए आयातित हैं.
        हिन्दुस्तान की जिस सवावेशी प्रकृति  के गुण हमेशा गाये जाते हैं, उसी नें लोकतंत्र और मीडिया को भी अपनी आबो-हवा में मिला लिया है....अब इनका चरित्र विशुद्ध रूप से भारतीय हो चुका है. मुझे लगभग ग्यारह-बारह साल मीडिया में काम करते हुए जो तजुर्बा हुआ है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि जस्टिस काटजू की जो भावना है, वह आम लोगों की भावना भी है. आम लोग ऑफ द रिकॉर्ड यह खुलेआम कहते देखे जा सकते हैं कि मीडिया बिकता भी है और झुकता भी है. छोटे स्तरों पर, रोज़मर्रा के जीवन में मीडिया की ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण देखने को आसानी से मिल जायेंगे.
        हमारा शहर एक छोटा सा शहर है. लेकिन यहां दो सौ से अधिक दैनिक और साप्ताहिक अखबार पंजीकृत हैं. इनमें से आठ-दस को छोड़ कर बाकियों की शक्ल सब नही देख सकते. इन अदृश्य अखबारों के दो मुख्य धंधे हैं. पहला, ये राज्यशासन से अपने कोटे का अख़बारी कागज़ लेते हैं और कुछ दाम बढ़ाकर उसे बड़े अखबारों को बेच देते हैं. दूसरा, ये बीच-बीच में किसी अफसर, नेता या ठेकेदार के तथाकथित भ्रष्ट आचरण पर रिपोर्ट तैयार करते हैं. अखबार की प्रति लेकर संबन्धित व्यक्ति के पास पहुंचते हैं. उस दिन की सारी प्रतियों के दाम वह व्यक्ति चुका देता है. अखबार को जनता के बीच तक जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. केबल नेटवर्क के समाचारों में आमतौर पर वही समाचार होते हैं जो या तो इरादतन बनाये जाते हैं या जिनका किसी के हित-अहित से कोई लेना देना नहीं होता.
        पर यह तो हांडी के चावल का एक दाना भर है. आप राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालिए. अखबारों और चैनलों की भीड़ है. आप भी चकित होते होंगे जब एक ही नेता या पार्टी या सेलिब्रिटी को एक ही समय में कुछ अखबार/चैनल महान बता रहे होते हैं और कुछ अधम और पापी. चुनावों के दौरान मीडिया जिन लोगों का नकली जनाधार बनाता है, उनसे उसके रिश्तों को किस आधार पर नकारा जा सकता है. मीडिया नकली लोगों को असली की तरह पेश करता है. जिन व्यक्तित्वों के पीछे देश की जनता पागल की तरह जाती है, उनकी छवियों के निर्माण का काम मीडिया ही करता है, और यह काम वह धर्मार्थ नहीं करता.
         दरअसल हमारे वर्तमान अर्थकेन्द्रित समाज में मीडिया एक उद्योग बन चुका है. इसके सारे घटक पूंजीपतियों की मिल्कियत हैं. पूंजी की अपनी आकांक्षाएँ होती हैं. वह अपनी नैतिकता और सामाजिकता खुद गढ़ती है. पूंजी को कुरूपता-दरिद्रता पसन्द नहीं आती क्योंकि वहां उसका प्रवाह बाधित होता है. इसीलिए हमारा मीडिया उस मायालोक को रचता है, जिसकी तेज़ रोशनी आपकी आँखों को चौंधिया दे. उसके पास तकनीक है. इस तकनीक से वह प्रकाश के वृत्त को मनचाहे ढंग से घुमाता रहता है. इसके पास यह कौशल है कि वह जिन चीज़ों को चाहे उन्हें गहरे अंधकार में डुबा दे.
         इसी अंधकार से जस्टिस काटजू की चिन्ताएँ उपजती हैं. जब हमारा मीडिया फैशन शो, क्रिकेट और फार्मूला वन पर अपनी रोशनी डाल रहा हो और उसके गहन अंधकार वाले हिस्से में कर्ज में डूबे किसान, भूख से बिलखते बच्चे मौत की आगोश में जा रहे हों, तो उनका चिन्तित होना चौंकाता नहीं है. एक आंकड़े का हवाला देते हुए वो कहते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में ढाई लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बेशक इसमें मीडिया का हाथ नहीं है. पर बताइए, जिनका इन आत्महत्याओं में सीधा हाथ है, उनकी कलाई कभी पकड़ी मीडिया ने ? जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की समृद्धि है ?? आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही. मीडिया को यह तय करना ही होगा कि उसे किन सवालों से टकराना है और किन्हें छोड़ देना है. जस्टिस काटजू अगर चिन्तित होते हैं कि मीडिया देश और समाज को विभाजित करता है, तो इस बात का सम्बन्ध मीडिया के इरादे से नहीं है. बल्कि यह उसके चयन-विवेक पर प्रश्न-चिन्ह है. आतंकी घटनाओं,साम्प्रदायिक विद्वेष,जातीय संघर्षों के समय मीडिया का यह अविवेक बहुत साफ तौर पर सामने आ जाता है.
         लेकिन इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर शायद पहले बात की जानी चाहिए थी. मीडिया की सशक्त उपस्थिति ने ही यह संभव किया है कि आज कई राजा,रानियां,चोर-उचक्के अपे असल ठिकाने तक पहुंच चुके है. इससे भी बड़ी बात यह है कि आज देश का हर बेसहारा आम आदमी मीडिया पर भरोसा करता है और उसे अपनी शक्ति की तरह मानता है. निराशा के घनघोर अंधकार में वह मीडिया की लाठी पकड़कर रास्ता तय कर ले का विश्वास लेकर चलता है. यह भरोसा हवा में नहीं बना है. अनेक बार मीडिया की सक्रियता और दायित्वबोध के चलते अनेक लोगों को न्याय मिल सका. कितने ही लोगों की ज़िन्दगियां बचाई जा सकीं. पिछले कुछ दशकों में मीडिया सामाजिक विकास और न्याय का सबसे सशक्त माध्यम बना है. इधर कुछ वर्षों में देखा जा रहा है कि न्यायपालिका को बार-बार सरकारों को आगाह करना पड़ता है. जस्टिस काटजू भी भली-भांति यह समझते होंगे कि न्यायपालिका भी सूचनाओं और विश्लेषण के लिए मीडिया पर ही निर्भर है क्योंकि उसका अपना कोई निगरानी तंत्र नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ हालिया जन-उभार मीडिया की सचेतना से ही संभव हुआ है.
         यह समय टकराव का नहीं है.मीडिया एक बहुत ताकतवर माध्यम है. सकी ताकत आम जन के भरोसे बनती है. ज़रूरत है कि वह अपने सर्वोच्चताबोध को छोड़कर,अपने सामाजिक दायित्वों को समझे. उसकी भूमिका प्रहरी की है, और इसी में उसकी सार्थकता है. उसे मालिक की भूमिका में कभी नहीं स्वीकारा जा सकता. मीडिया सत्तायें बदल सकता है, समाज बदल सकता है, लेकिन शासक नहीं बन सकता.
        मीडिया को अंतिम रूप से जो बात समझनी होगी वह . कि उसे मनोरंजन का माध्यम नहीं बनना है. मनोरंजन का एक फलता-फूलता उद्योग है देश में. मीडिया के अपने सरोकार बहुत बड़े हैं. उसे खुद ही अपनी सीमाओं की पहचान करनी होगी. मीडिया को अपनी पारदर्शिता हर हाल में बनाए रखनी होगी. भारतीय मीडिया को करोड़ों लोगों के विश्वास के साथ खिलवाड़ करने की छूट नहीं दी जा सकती. इस तर्क पर भी नही कि पेट तो मीडिया के पास भी है. मीडिया को अपने पेट से पहले उन किसानों के पेट की चिन्ता करनी पड़ेगी, जो आत्महत्या कर रहे हैं, उन बच्चों के पेट की चिन्ता करनी पड़ेगी जो भूख से दम तोड़ रहे हैं. मीडियाकर्म फूलों की सेज कभी नही बन सकता. यहां वही आयें, जिनमे कांटों पर चलने की चाह और हौसला हो.

Thursday 10 November 2011

तुम्हारी थोड़ी सी अनुपस्थिति में


कहां हो तुम !  
अपनी थोड़ी सी अनुपस्थिति में
बहुत सा उपस्थित होकर
प्रतीक्षा का यह कैसा संसार रच दिया है तुमने.

तुम्हारी अनुपस्थिति की इस उपस्थिति में
तुम्हारी आवाज़ की ज़गह पर
आवाज़ की खाली ज़गह है.

जहाँ तुम्हारी हँसी हुआ करती थी
उसे हँसी की खाली ज़गह ने भर लिया है.
जिस ज़गह तुम्हारी देह थी
वहाँ देह का रिक्त स्थान भर गया है.

पता है, 
जहाँ हम झगड़े थे
वहाँ अब
झगड़ने की खाली ज़गह भर गयी है.

तुम्हें अगर झूठ लग रहा हो
तो इन सूरज चाँद रात और सुबह से
पूछ लो
जिन्हें मेरे साथ
अकेला छोड़ गयी थीं तुम.

सुनो !
तुम्हारे थोड़े से जाने की ज़गह में
तुम्हारे बहुत से आने की ज़गह बाकी है
जहाँ मैं
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ.

                               --विमलेन्दु

Sunday 6 November 2011

कविता : इच्छाओं के अनन्त में


तुम पृथ्वी हो जाओ 
तो मैं तुम्हारा चन्द्रमा बन कर
घूमता रहूँ अपनी कक्षा में.

तुम तितली हो जाओ
तो मैं खिला करूँ फूल बन कर.

तुम नदी हो जाओ
तो एक चट्टान की तरह
रास्ते में पड़ा
धीर धीरे कटता रहूँ तुम्हारी धार से.

तुम सूरज की तरह निकलो
तो मैं बर्फ होकर
पिघलता रहूँ तुम्हारी आँच से.

तुम आग हो जाओ
तो मैं
सूखी लकड़ी होकर इकट्ठा हो जाता हूँ.

तुम गौरैया बन जाओ
तो मैं
आँगन में दाना होकर बिखर जाता हूँ.

इच्छाओं के इस अनन्त से
अन्ततः मैं तुम्हें मुक्त करना चाहता हूँ..

यही मेरा आज का राजनैतिक बयान है.

Wednesday 2 November 2011

संगतकोण

 यह बात दरअसल  
एक सपाट गद्य की तरह थी
जिसमें कविता ढूढ़ने की
मुझे एक रोमैन्टिक ज़िद थी.

मैं उस लड़के की बात कर रहा हूँ
जो अपंग था
और कक्षा दस की परीक्षा में 
गणित का प्रश्न-पत्र हल कर रहा था.

यहाँ कविता की बात मैं सोचता भी नहीं
अगर वह लड़की वहाँ पर न होती
जो उस लड़के द्वारा बताये गये हल को
उत्तर पुस्तिका में लिखने की व्यवस्था 
के तहत थी.

हां, वह एक उत्फुल्ल किशोरी थी
और यह किशोर !
दुनिया की उस बिरादरी से था
जिनके जीवन में
रोमांस की गुंजाइश ज़रा कम ही होती है.

लड़के के अस्पष्ट शब्दों को भाँपती हुई
वह उत्तर पुस्तिका में
खींच रही थी एक वृत्त--
जिसकी तृज्या
उनके बीच की दूरी के बराबर थी.

क्या उसे पता होगा
कि अभी अभी
जिस राशि का उसने वर्ग किया है
उसका मान कितने गुना बढ़ गया अब ?

ये दोनो
भविष्य के स्त्री-पुरुष थे
दो समान्तर रेखाओं की तरह..

कि इन्हें
कोई तिर्यक रेखा काट भर दे
तो संगत कोण बराबर हो जायें.

                              --विमलेन्दु