पिछले दिनों जब जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने मीडिया के धरम-करम पर सवाल उठाये तो स्वयंभू मीडिया की सहिष्णुता सबके सामने आ गयी. प्रतिक्रिया में मीडिया न्यायपालिका के साथ-साथ देश के सभी चिन्तनशील लोगों के सामने चुनौती की तरह आ खड़ा हुआ. संभवतः यह पहली बार हुआ था कि किसी ने इतनी महत्वपूर्ण ज़गह से मीडिया पर सवाल उठाये थे. जस्टिस काटजू कोई अनाड़ी नहीं हैं और न शिगूफेबाज़. न्यायिक सेवा के इतने वर्षों के अनुभव और अभ्यास ने उनमें तथ्यों के साथ निर्णय देने की आदत तो विकसित कर ही दी है. उनकी बात इसलिए भी और ज़्यादा मानीख़ेज हो गयी है कि वो हाल ही में प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष बनाये गए है. प्रेस कौंसिल के दायरे में फिलहाल प्रिंट मीडिया को ही रखा गया है.
जस्टिस मार्कण्डेय काटजू के पुराने हस्तक्षेपों और वक्तव्यों को देखें तो वो इस तरह के आदमी नहीं लगते जो यथास्थितिवाद के समर्थक हों. कोई बड़ा पद भर पाकर फूलकर कुप्पा होने वाले लोगों में से वो नहीं हैं. तो यह ज़रूरी था कि जिस मीडिया को रेगुलेट करने की ज़िम्मेदारी उन्होने सम्भाली है, पहले उसके चरित्र को समझ लें. इसी प्रयास में उन्होने एक लंबा वक्तव्य दिया. इस वक्तव्य में मीडिया के इतिहास, भूमिका और समकालीन परिदृश्य में उसके क्रिया-कलापों की बात की गयी है. उनके वक्तव्य के उस अंश को देखते हैं जिस पर मीडियाकर्मी और संस्थान भड़क उठे है. वो कहते हैं---“ मेरी राय में भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा(खासतौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया) जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन (सकारात्मक तौर पर) जन-विरोधी हैं. भारतीय मीडिया में तीन प्रमुख दोष हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं----पहला, मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों से अवास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है....दूसरा, मीडिया अक्सर ही लोगों को विभाजित करता है.....तीसरा, मीडिया हमें दिखा क्या रहा है.”
यहां जस्टिस काटजू ने मीडिया पर तीन महत्वपूर्ण सवाल उठाये है. इन पर बात करने से पहले हम यह जान लें कि वो कौन सी बात है जिससे मीडिया बिफर गया है. क्योंकि इन सवालों से मीडिया की सेहत ज़्यादा बिगड़ने वाली नहीं है. गाहे-बगाहे, दबी ज़बान से ही सही, मीडिया से ऐसे सवाल पूछे जाते रहे हैं. बवाल इस बात से मचा है कि प्रेस कौंसिल के अध्यक्ष जस्टिस काटजू चाहते हैं कि कौंसिल के दायरे में इलेक्ट्रानिक मीडिया को भी लाया जाये, मीडिया की निगरानी की जाये, और न सिर्फ निगरानी की जाये बल्कि उसे दण्डित करने का भी अधिकार हो.
इस जायज़ माग पर चौथे खम्भे को तो थर्राना ही था. मीडिया में यह खुशफहमी सदियों पुरानी है कि लोकतंत्र के बाकी के तीन पाये किसी काम के नहीं हैं. कि लोकतंत्र उसी पर टिका है. वैसे हिन्दुस्तान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें मीडिया और लोकतंत्र के घटकों के बीच के सम्बन्ध हमेशा वैध नहीं रहे हैं. चौथे स्तम्भ की अवधारणा मूल रूप से हमारे यहां की नहीं है. इसका जन्म यूरोप में उन दिनों हुआ था जब यूरोप के देशों में लोकतांत्रिक प्रकृया अपने शैशवकाल में थी. तब सिर्फ प्रिंट मीडिया था और उसे एक सजग प्रहरी की भूमिका में स्वीकार कर लिया गया था. हमारे देश में तब तक राजशाही ही चल रही थी. और मीडिया के किसी भी रूप का कहीं दूर-दूर तक अता-पता पता नहीं था. तो एक तरह से यह मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि लोकतंत्र, मीडिया और चौथा-स्तम्भ जैसी अवधारणाए आयातित हैं.
हिन्दुस्तान की जिस सवावेशी प्रकृति के गुण हमेशा गाये जाते हैं, उसी नें लोकतंत्र और मीडिया को भी अपनी आबो-हवा में मिला लिया है....अब इनका चरित्र विशुद्ध रूप से भारतीय हो चुका है. मुझे लगभग ग्यारह-बारह साल मीडिया में काम करते हुए जो तजुर्बा हुआ है, उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि जस्टिस काटजू की जो भावना है, वह आम लोगों की भावना भी है. आम लोग ऑफ द रिकॉर्ड यह खुलेआम कहते देखे जा सकते हैं कि मीडिया बिकता भी है और झुकता भी है. छोटे स्तरों पर, रोज़मर्रा के जीवन में मीडिया की ब्लैकमेलिंग के अनेक उदाहरण देखने को आसानी से मिल जायेंगे.
हमारा शहर एक छोटा सा शहर है. लेकिन यहां दो सौ से अधिक दैनिक और साप्ताहिक अखबार पंजीकृत हैं. इनमें से आठ-दस को छोड़ कर बाकियों की शक्ल सब नही देख सकते. इन अदृश्य अखबारों के दो मुख्य धंधे हैं. पहला, ये राज्यशासन से अपने कोटे का अख़बारी कागज़ लेते हैं और कुछ दाम बढ़ाकर उसे बड़े अखबारों को बेच देते हैं. दूसरा, ये बीच-बीच में किसी अफसर, नेता या ठेकेदार के तथाकथित भ्रष्ट आचरण पर रिपोर्ट तैयार करते हैं. अखबार की प्रति लेकर संबन्धित व्यक्ति के पास पहुंचते हैं. उस दिन की सारी प्रतियों के दाम वह व्यक्ति चुका देता है. अखबार को जनता के बीच तक जाने की जहमत नहीं उठानी पड़ती. केबल नेटवर्क के समाचारों में आमतौर पर वही समाचार होते हैं जो या तो इरादतन बनाये जाते हैं या जिनका किसी के हित-अहित से कोई लेना देना नहीं होता.
पर यह तो हांडी के चावल का एक दाना भर है. आप राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र डालिए. अखबारों और चैनलों की भीड़ है. आप भी चकित होते होंगे जब एक ही नेता या पार्टी या सेलिब्रिटी को एक ही समय में कुछ अखबार/चैनल महान बता रहे होते हैं और कुछ अधम और पापी. चुनावों के दौरान मीडिया जिन लोगों का नकली जनाधार बनाता है, उनसे उसके रिश्तों को किस आधार पर नकारा जा सकता है. मीडिया नकली लोगों को असली की तरह पेश करता है. जिन व्यक्तित्वों के पीछे देश की जनता पागल की तरह जाती है, उनकी छवियों के निर्माण का काम मीडिया ही करता है, और यह काम वह धर्मार्थ नहीं करता.
दरअसल हमारे वर्तमान अर्थकेन्द्रित समाज में मीडिया एक उद्योग बन चुका है. इसके सारे घटक पूंजीपतियों की मिल्कियत हैं. पूंजी की अपनी आकांक्षाएँ होती हैं. वह अपनी नैतिकता और सामाजिकता खुद गढ़ती है. पूंजी को कुरूपता-दरिद्रता पसन्द नहीं आती क्योंकि वहां उसका प्रवाह बाधित होता है. इसीलिए हमारा मीडिया उस मायालोक को रचता है, जिसकी तेज़ रोशनी आपकी आँखों को चौंधिया दे. उसके पास तकनीक है. इस तकनीक से वह प्रकाश के वृत्त को मनचाहे ढंग से घुमाता रहता है. इसके पास यह कौशल है कि वह जिन चीज़ों को चाहे उन्हें गहरे अंधकार में डुबा दे.
इसी अंधकार से जस्टिस काटजू की चिन्ताएँ उपजती हैं. जब हमारा मीडिया फैशन शो, क्रिकेट और फार्मूला वन पर अपनी रोशनी डाल रहा हो और उसके गहन अंधकार वाले हिस्से में कर्ज में डूबे किसान, भूख से बिलखते बच्चे मौत की आगोश में जा रहे हों, तो उनका चिन्तित होना चौंकाता नहीं है. एक आंकड़े का हवाला देते हुए वो कहते हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में ढाई लाख से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बेशक इसमें मीडिया का हाथ नहीं है. पर बताइए, जिनका इन आत्महत्याओं में सीधा हाथ है, उनकी कलाई कभी पकड़ी मीडिया ने ? जिस चमक और समृद्धि के पीछे मीडिया भागता है, वह कितने लोगों की समृद्धि है ?? आप इक्कीसवीं सदी के इस वैज्ञानिक समय में अगर शनि-राहु-केतु की महादशाओं पर चर्चा करेंगे तो आपकी समझ और सरोकार पर सवाल तो पैदा होंगे ही. मीडिया को यह तय करना ही होगा कि उसे किन सवालों से टकराना है और किन्हें छोड़ देना है. जस्टिस काटजू अगर चिन्तित होते हैं कि मीडिया देश और समाज को विभाजित करता है, तो इस बात का सम्बन्ध मीडिया के इरादे से नहीं है. बल्कि यह उसके चयन-विवेक पर प्रश्न-चिन्ह है. आतंकी घटनाओं,साम्प्रदायिक विद्वेष,जातीय संघर्षों के समय मीडिया का यह अविवेक बहुत साफ तौर पर सामने आ जाता है.
लेकिन इस सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है, जिस पर शायद पहले बात की जानी चाहिए थी. मीडिया की सशक्त उपस्थिति ने ही यह संभव किया है कि आज कई राजा,रानियां,चोर-उचक्के अपे असल ठिकाने तक पहुंच चुके है. इससे भी बड़ी बात यह है कि आज देश का हर बेसहारा आम आदमी मीडिया पर भरोसा करता है और उसे अपनी शक्ति की तरह मानता है. निराशा के घनघोर अंधकार में वह मीडिया की लाठी पकड़कर रास्ता तय कर ले का विश्वास लेकर चलता है. यह भरोसा हवा में नहीं बना है. अनेक बार मीडिया की सक्रियता और दायित्वबोध के चलते अनेक लोगों को न्याय मिल सका. कितने ही लोगों की ज़िन्दगियां बचाई जा सकीं. पिछले कुछ दशकों में मीडिया सामाजिक विकास और न्याय का सबसे सशक्त माध्यम बना है. इधर कुछ वर्षों में देखा जा रहा है कि न्यायपालिका को बार-बार सरकारों को आगाह करना पड़ता है. जस्टिस काटजू भी भली-भांति यह समझते होंगे कि न्यायपालिका भी सूचनाओं और विश्लेषण के लिए मीडिया पर ही निर्भर है क्योंकि उसका अपना कोई निगरानी तंत्र नहीं है. भ्रष्टाचार के खिलाफ हालिया जन-उभार मीडिया की सचेतना से ही संभव हुआ है.
यह समय टकराव का नहीं है.मीडिया एक बहुत ताकतवर माध्यम है. सकी ताकत आम जन के भरोसे बनती है. ज़रूरत है कि वह अपने सर्वोच्चताबोध को छोड़कर,अपने सामाजिक दायित्वों को समझे. उसकी भूमिका प्रहरी की है, और इसी में उसकी सार्थकता है. उसे मालिक की भूमिका में कभी नहीं स्वीकारा जा सकता. मीडिया सत्तायें बदल सकता है, समाज बदल सकता है, लेकिन शासक नहीं बन सकता.
मीडिया को अंतिम रूप से जो बात समझनी होगी वह . कि उसे मनोरंजन का माध्यम नहीं बनना है. मनोरंजन का एक फलता-फूलता उद्योग है देश में. मीडिया के अपने सरोकार बहुत बड़े हैं. उसे खुद ही अपनी सीमाओं की पहचान करनी होगी. मीडिया को अपनी पारदर्शिता हर हाल में बनाए रखनी होगी. भारतीय मीडिया को करोड़ों लोगों के विश्वास के साथ खिलवाड़ करने की छूट नहीं दी जा सकती. इस तर्क पर भी नही कि पेट तो मीडिया के पास भी है. मीडिया को अपने पेट से पहले उन किसानों के पेट की चिन्ता करनी पड़ेगी, जो आत्महत्या कर रहे हैं, उन बच्चों के पेट की चिन्ता करनी पड़ेगी जो भूख से दम तोड़ रहे हैं. मीडियाकर्म फूलों की सेज कभी नही बन सकता. यहां वही आयें, जिनमे कांटों पर चलने की चाह और हौसला हो.
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